वह खिड़की के सामने खड़ी थी. चिमनी के भीतर धुएँ और हवा की एक अजीब फूत्कारती–सी सरसराहट कमरे की नीरवता तोड़ जाती थी. मैं उसके पीछे चला आया — अपने हाथ उसके कंधे पर रख दिए. वह हल्के–से चौंक गयी. “क्या सोच रही हो?”
“कुछ नहीं…” उसने कहा.
“वियना के बारे में?
वह चुपचाप बाहर देखती रही.
“रायना…”
उसकी आँखें मुझ पर टिक आयीं.
“मैंने सोचा था हम कुछ दिनों के लिए साथ रह सकेंगे.” मैंने कहा.
“इट वुडण्ट हैल्प,” उसके खिड़की पर आँखें मोड़ लीं.
वह कुछ देर खिड़की के बाहर देखती रही…फिर एक छोटी सी झुरझरी उसकी देह में दौड़ गयी. “नो — इट वुडण्ट हैल्प,” उसने धीरे से कहा.[4]
अगले दिन वे दोनों होटल के कमरे में हैं, वह सामान बाँध रही है. उसे अफ़सोस है कि कितना कुछ था जो वह कर सकता था और इस तरह रायना को “जाने से रोक सकता था”, लेकिन रायना का जवाब वही है —- “इट वुडण्ट हैल्प.”
निर्मल के गल्प संसार में यह एक दुर्लभ लम्हा था जब किसी किरदार ने अपनी चाहना को, दूसरे पर अपने हिचक भरे अधिकार को अभिव्यक्त किया था (निर्मल के किरदार कम ही अपना अधिकार जताते हैं), और जवाब आया था: “इट वुडण्ट हैल्प.” यह शब्द किसी के भीतर कड़वाहट, क्षोभ और तिरस्कृत होने का भाव जगा सकते हैं, लेकिन निर्मल की सृष्टि में वे दोनों “कमरे के धुँधलके में बाहर बारिश की नीरव टपाटप सुनते रहे”.
क्या यह आत्म–बोध का क्षण था कि असम्भव आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से घिरा मानव प्रेम अतृप्त रहे आने को अभिशप्त है? “प्रेम अंतिम इलूज़न है,” — अरसे बाद निर्मल की डायरी में यह दर्ज होना था. क्या रायना इस आत्म–बोध की प्रेरणा थी? उपन्यास के अंत में नायक के भीतर उसके शब्द गूँजते हैं:
“सुनो…तुम विश्वास करते हो?”
“वह जो नहीं है…”
“जो है लेकिन हमारे लिए नहीं है?”[5]
भारतीय रचनात्मक चेतना में स्त्री अमूमन सतत प्रेम और कामना की छवि है. वे दिन से पहले शायद ही किसी उपन्यास की स्त्री किरदार पुरुष से कहती होगी कि हमारा जीवन पूरा हो गया, कुछ दिन और साथ बिताने से कुछ हासिल नहीं होगा (इट वुडण्ट हैल्प), एक स्त्री जो विदाई के क्षण पूछती है: “जो हमें मिला है वह काफ़ी नहीं है?”
*
इसके बरक्स भारतीय रचनात्मक कल्पना में चंद्री सरीखी अनेक स्त्रियाँ हैं, उनमें से मत्स्यगंधी, उर्वशी, शकुंतला इत्यादि का उल्लेख संस्कार में हुआ भी है. चंद्री की तुलना शारदा देवी से बेहतर की जा सकती है जो शंकराचार्य से कामशास्त्र के बारे में प्रश्न पूछती है. चंद्री और शारदा सम्मोहिनी अप्सराएँ नहीं हैं. उन्हें घबराए हुए देवताओं ने किसी ऋषि की साधना भंग करने के लिए नहीं भेजा है. दोनों स्त्रियाँ भिन्न काल–अवकाश में जन्म लेती हैं. एक ब्राह्मण विदुषी है दूसरी अछूत वैश्या, लेकिन दोनों ही पुरुष को अपनी मान्यता का पुनर्मूल्यांकन करने को प्रेरित करती हैं, उनसे पूछती हैं —क्या एक पुरुष का जीवन, भले वह ब्रह्मचारी साधक क्यों न हो, काम के बग़ैर पूर्ण माना जा सकता है?
चूँकि अब कथा आठवीं से बीसवीं सदी में आ गयी है, कथा में दो बड़े परिवर्तन होते हैं. बीसवीं सदी का नायक शंकराचार्य की तरह अपनी देह छोड़ कर किसी मृत राजा के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए उसे अपनी पूर्ति इसी देह के साथ करनी है. दूसरे, शंकराचार्य शारदा द्वारा दी गयी चुनौती बग़ैर किसी झिझक या अफ़सोस के स्वीकार कर सकते थे, प्राणेशाचार्य को गहन पश्चाताप से गुज़रना होगा. अपराध–बोध से ग्रस्त आचार्य गाँव छोड़ देते हैं लेकिन इस संसर्ग का चंद्री पर कोई प्रभाव नहीं पढ़ता क्योंकि “भोग–विलास में स्वभावतः लिप्त चंद्री आत्म–भर्त्सना की आदी नहीं थी”.[6]
आचार्य का अपराध–बोध उस ऐंद्रिक सुख का जुड़वाँ है जो उन्हें हाल ही हासिल हुआ है, सुख जिसके बारे में आचार्य ने उन संस्कृत ग्रंथों में पढ़ा था जिन्हें वह ब्राह्मणों को पढ़कर सुनाते आए थे.
आचार्य की कल्पना उनके मन में उन सब छोटी जाति की लड़कियों को खींच लायी जिनके बारे में उन्होंने पहले कभी सोचा भी नहीं था, कल्पना में ही आचार्यजी उन्हें निरावरण किया, और उनके अंग–प्रत्यंग को देखकर पहचानने की कोशिश की. कौन थी वह? कौन हो सकती है वह? अरे हाँ, बेल्ली, वही बेल्ली! मिट्टी के रंग की उसकी छातियों को याद करके, जैसे कि सोच–विचार तक में पहले कभी नहीं हुआ था, उनका शरीर उत्तेजित हो उठा. उन्हें अपनी इस कल्पना पर शर्म आयी…एक नए अनुभव के लिए, बेल्ली के स्तनों से खेलने के लिए उनके हाथ खुजलाने लगे…अनुभव का अर्थ होता है ख़तरा मोल लेना, हमला करना…अनुभव का अर्थ है किसीअदृश्य में, अकथ्य स्थिति में, जीवनमें किन्हीं उरोजों का अचानक संस्पर्श होजाना.[7]
अगर इस अनुभव ने आचार्य की जड़ें हिला दी हैं, तो चंद्री ने समूचे ब्राह्मण समुदाय को विचलित कर दिया है. ब्राह्मण उसकी कल्पना कर लार टपकाते हैं, उसकी तुलना अपनी लालची घरेलू और रसहीन पत्नियों से करते हैं. वे चंद्री की उन गुणों के लिए तारीफ़ करते हैं जिन्हें अपने जीवन अपनाने का साहस उनके पास नहीं है. चंद्री उनकी अनिवार्य ‘अन्य’ है, एक प्रेत जिससे वे अपने सपनों में भी मुक्त नहीं हो पाते. शराब के नशे में श्रीपति कहते हैं:
“कोई कुछ भी कहे, ब्राह्मण कुछ भी भौंके…क्या कहते हो? शपथ लेकर मैं कहता हूँ…चंद्री की तरह सुंदर, समझदार और अच्छी औरत सौ मील के घेरे में भी तो कोई दिखा दे. मुझसे कोई शर्त लगा ले. यदि मिल जाए तो मैं अपनी जाति छोड़ दूँगा. वैश्या होने से भी क्या हुआ? बतलाओ तो, नारणप्पा के साथ किसी पत्नी से भी अच्छा व्यवहार उसने नहीं किया? यदि वह कभी ज़्यादा पीकर उल्टी कर देता था तो वह तुरंत सफ़ाई कर एंटी थी. उसने हमारी उल्टियाँ भी साफ़ करने में कभी हिचकिचाहट नहीं की…कौन ब्राह्मण–स्त्री इतना करती है? सब बेकार, सर–मुंडी, थू!”[8]
आचार्य धर्म और ग्रंथों को प्रश्न करते हैं. अगर आधुनिकता प्रश्नाकुलता सिखाती है तो वे आधुनिक होने की राह पर भी हैं. लेकिन जिस तरह उपन्यास उनके भीतर आए परिवर्तन का और ब्राह्मण स्त्रियों के बरक्स चंद्री का चित्रण करता है वह उपन्यास को पथरीली राह पर ढकेल देता है. इस उपन्यास के अंतर्विरोधों को परखने से पहले उन प्रवृतियों को लक्ष्य किया जाए जो आचार्य और गोरा साझा करते हैं. दोनों नायक अपनी मान्यताओं के सुरक्षित दायरे में जीते आए हैं, देवी माँ के अलावा स्त्री को किसी और स्वरूप में नहीं देखा है. दोनों ने एक आदर्श ब्राह्मण की छवि गढ़ रखी है, उसी जीवन को जीना चाहते हैं. गोरा के लिए आदर्श ब्राह्मण वह है जो “ज्ञान के शिखर पर बैठकर इस भक्ति के रस को सर्वसाधारण के उपयोग के लिए, शुद्ध रखने के लिए तपस्या करता है”[9]
गोरा आचार्य से कहीं अधिक वाचाल और आक्रामक है लेकिन उनसे बीसेक बरस उम्र में कम भी है, राष्ट्रीय आंदोलन के बीच में खड़ा है. दोनों उपन्यास की स्त्री किरदार पुरुष के लिए अन्य हैं, उनकी मान्यताओं को चुनौती दे उनके आदर्श और विचार की वेध्यता का बीज उनके भीतर रोप देती हैं, पुरुष के जीवन को बदल देती हैं. लेकिन पुरुष स्त्री को किस तरह स्पर्श करते हैं? चंद्री एकदम अप्रभावित रही आती है, सुचरिता गोरा से संवाद कर “भारत वर्ष” के आध्यात्मिक सत्य को तो समझने लगती है, लेकिन कोई बड़ा परिवर्तन उसके भीतर दर्ज नहीं होता. संस्कार किस ऊँचाई पर जाकर फूटता अगर चंद्री बीच कथा में गायब नहीं हुई होती, झंझावात दोनों ओर घटित हुआ होता? चंद्री की अनुपस्थिति संस्कार को किस तरह समस्याग्रस्त बनाती है? इस प्रश्न से पहले आख़िरी उपन्यास पर आते हैं.
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कृष्ण बलदेव वैद के गल्प में, खासकर दूसरा न कोई (1978)[10]में हम एक ऐसी स्त्री को पाते हैं जो भारतीय उपन्यास में अमूमन दिखाई नहीं देती. दूसरा न कोईस्त्री को नायक की चेतना में बिठा देता है जो उसके इर्द–गिर्द एक हमज़ाद, उसके हमसाये की तरह मंडराती है. एक बूढ़ा लेखक एक ढहते हुए मकान में अकेला मर रहा है, एक महान कृति रच देने की ख्वाहिश लिए. एक एकाकी कर्म जो वैद की प्रिय कहानियों द मडोनाऑफ़ द फ्यूचर (हेनरीजेम्स) और द अननोनमास्टरपीस (बाल्ज़ाक) कीयाद दिलाता है. वह एक सच्चे शब्द की तलाश में है, एक ऐसा शब्द जो उसके सत्य को संपूर्णता में अभिव्यक्त कर सके. वह लेखक रूपक और अनुप्रास का शैदाई है, उसकी छटपटाती कल्पना अक्सर बगल के मकान में रहती एक बूढ़ी औरत पर आकर ठहर जाती है जो उसके मानस की ही उपज लगती है.
पसरे हुये पिशाच सा यह मकान. इसमें मेरा अकेला मर रहा होना यहाँ के दस्तूर के हिसाब से कोई अजीब बात नहीं. यहाँ इस उम्र के सभी लोग अकेले ही मरते हैं. मिसाल के तौर पर साथ वाले मकान वाली बुढ़िया. बढ़िया बुढ़िया. मुझसे उम्र में बड़ी है और कद में छोटी…मैं जब कुछ और नहीं कर पा रहा होता तो उन तीन खिडकियों में से बुढ़िया की रोज की जिंदगी या मौत में झाँक रहा होता हूँ…हमने कभी एक दूसरे को ताकते झांकते पकड़ा नहीं..वह उम्र में मुझे बहुत बड़ी नजर आती है. शायद दुगनी या तिगनी. या कम–अज़–कम इतनी बड़ी कि यकीनन मेरी मन हो सके और शायद मेरी नानी या दादी. यह बात दूसरी है कि देखने में शायद मैं अगर उसका बाप नहीं तो कम–अज़–कम बड़ा भाई या बूढ़ा पति या प्रेमी ही नजर आता हूँ…पूछना चाहिये बुढ़िया का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है. पूछ रहा हॅूं. जवाब मिलता है कि ज़रूरी कुछ भी नहीं. मुझे मालूम था यही जवाब मिलेगा. मुझे अब अपने किसी सवाल या जवाब पर कोई हैरानी नहीं होती. इस उम्र में हैरानियों की हवस हरामियों को ही होती है. बस अब यहीं रुक जाना चाहिये. हर जुमले की जान निकाल लेने की पुरानी लत में अब कोई लुत्फ नहीं रहा. वह कभी भी नहीं था.[11]
यह उपन्यास संशय और प्रश्नाकुलता का उत्कर्ष है, जो आधुनिकता के बुनियादी मूल्य माने जाते हैं. वैद प्रश्न को उस जगह ले जाते हैं जहाँ खुद प्रश्न प्रश्नांकित हो जाता है, कागज पर उतरते ही शब्द संशय के घेरे में आ जाता है. बूढ़ी औरत लेखक–आख्यायक की चेतना पर काबिज एक प्रेत है जिससे वह मुक्त नहीं हो पा रहा. वह अपने अंतिम क्षण में एकदम अकेला हो जाना चाहता है — दूसरा न कोई, वह लगातार जपता है.
स्त्री वैद के गल्प संसार की एक प्रमुख थीम है. पुरुष किरदार अक्सर इन अनाम और चेहराविहीन स्त्रियों को डीकोड करते नजर आते हैं. आत्म–कथात्मक प्रतीत होती वैद की किताब उसके बयान (1974)[12] का एक अध्याय ‘उसकी औरतें’ वह आइना है जिससे हम इस रचनाकार की स्त्री को देख सकते हैं.
कुछ औरतों को मुझसे इतना तेज प्यार और मेरे काम से इतनी तुन्द अदावत रही है कि हैरान होता हॅू कि उनके साथ मैं कैसे इतनी–इतनी देर के लिये निभा ले गया. यह बात नहीं कि किसी ताजा तन्दरुस्त लड़की को देख उसे अपनी औरत में बदल देने की कभी–कभी काम से उकता जाने पर अपने तमाम बुतों की बाजी किसी बेनजीर औरत के लिये न लगा देने की ललक अब बिल्कुल न उठती हो या यह पश्चाताप न होता हो कि अगर मैंने अपनी तमाम औरतों को किसी न किसी तरीके से अपने काम में इस्तेमाल कर उनसे किसी न किसी हद तक निजात न हासिल कर ली होती तो इस वक्त ऐसी तन्हाई और तुर्शी न होती.
कई बार किसी एक ही औरत में दुनिया भर की औरतों को और दुनिया भर की औरतों में एक ही औरत को पा लेने की कोशिश में कट–फट चुका हूँ और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि ये दोनो कोशिशें भी दूसरी बेशुमार कोशिशों की मानिन्द बेकार हैं. [13]
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उपरोक्त तीनों उपन्यासों की एक साझा धुरी है— स्त्री पुरुष के समक्ष एक रहस्यमयी आभा में रोशन होती है, वे उसे अपना अन्य मानते हैं, लेकिन स्त्री के भीतर पुरुष के प्रति रहस्य या अन्य का भाव नहीं है. स्त्री-पुरुष के बीच यह लगभग एकतरफा कारोबार आख्यान को विकट संकट में डाल देता है.
आचार्य आत्मचिंतन करते हैं, लेकिन उनका मोनोलॉग पूरी तरह आत्म–केन्द्रित है. उनके भीतर इस घटना पर चंद्री के दृष्टिकोण को जानने की कोई इच्छा नहीं है. वे धर्म और नैतिकता पर प्रश्न करते हैं, लेकिन उनकी सुई ऐन्द्रिक अनुभव पर ही आ अटकती है, और वे मानते हैं कि उनके संकट का समाधान एक बार फिर से चंद्री के साथ सम्बंध बनाने में है. उपन्यास का आरंभ नारणप्पा के अंतिम संस्कार से उपजे संकट से होता है, लेकिन जल्द ही स्त्री की छवि आचार्य पर हावी हो जाती है, उपन्यास को एक सरल-सा फ्रायडियन समाधान मिल जाता है.
चंद्री आचार्य के लिए एक विराट दैहिक अनुभव है जो उनकी “पाशविक वासना” को बाहर ले आती है. अगर चंद्री आचार्य की अन्य है, तो उसका अस्तित्व सिर्फ देह तक ही सीमित है. आचार्य को नहीं सूझता कि वह इससे कहीं अधिक भी हो सकती है, उनके जीवन को कई आयाम दे सकती है.
इस प्रक्रिया में उपन्यास एक औचित्यहीन और आपत्तिजनक सरलीकरण करता है. उपन्यास की सभी ब्राह्मण स्त्रियाँ“दुर्गन्धभरी, उबाऊ, अपाहिज” हैं, जबकि छोटी जाति की स्त्रियाँ सम्मोहिनी नायिकाएँ हैं जिनकी तुलना मेनका इत्यादि से होती है. उपन्यास के ब्राह्मण चंद्री की कल्पना कर लार टपकाते हैं, अपनी लालची और रसहीन पत्नियों को कोसते हैं. किरदारों का ऐसा ध्रुवीकरण कर उपन्यास क्या प्रस्तावित करना चाहता है? क्या स्त्री की मादकता इतने निश्चित तौर पर जातिगत होती है या विभिन्न जातियों के स्वभाव कहीं अनिश्चित और जटिल हैं? इसके अंग्रेज़ी अनुवादक ए के रामानुजन उपन्यास पर लिखते वक्त में किरदारों के “बेहिसाब ध्रुवीकरण” को तो स्वीकारते हैं लेकिन इससे उपजे कथा पर मँडराते संकट को नहीं देख पाते.
एक अछूत सम्मोहिनी स्त्री और लार टपकाते ब्राह्मणों को विपरीत धुरियों पर रख यह उपन्यास भले ही कर्मकांडों को चुनौती देता दिखाई देता हो, विरोधी युग्मों के प्रयोग से आख्यान में भले थोड़ी नाटकीयता आ जाए, लेकिन कथा समस्याग्रस्त हो जाती है.
चंद्री निश्चय ही किसी संवेदनात्मक या बौद्धिक हिंसा की शिकार नहीं हैं. उन्हें बड़ी संवेदनशीलता से बरता गया है. उन्हें अपनी जीवन शैली के लिए कभी दोषी नहीं ठहराया जाता, उल्टे स्वतंत्र जीवन जीने के लिए ब्राह्मणों की सराहना ही मिलती है. लेकिन इसके बावजूद चंद्री ही नहीं किसी ब्राह्मण स्त्री के पास भी अपना कोई स्वर नहीं है, स्त्रियाँ पुरुष द्वारा ही परिभाषित होती है, स्त्री के लिए सदियों से सींचे जाते रहे पुरुष के आईने से ही दिखाई देती हैं.
रूढ़ियों की भरमार और एक लिबिडिनल लम्हे को आख्यान की धुरी बना देने से उपन्यास ठीक उन जगहों पर चपटा हो जाता है जो इसके सबसे संभावनाशील क्षण हो सकते थे.
आलोचकों ने आचार्य को एक आधुनिक नायक माना है. धर्म पर प्रश्न आधुनिकता में उनके प्रवेश का क्षण है, लेकिन आधुनिक चेतना की परख उस अवकाश से भी हो सकती है जो यह अपने अन्य को देती है. चंद्री का प्रवेश नायक के अन्य बतौर होता है लेकिन जैसे ही उसका एकमात्र कार्य यानि आचार्य के साथ संसर्ग पूरा हो जाता है, वह कथा से ग़ायब हो जाती है, एक उत्प्रेरक बन कर रह जाती है जिसका शायद एकमात्र उद्देश्य आचार्य को आत्मचिंतन की ओर धकेलना था. क्या आचार्य और उनके रचयिता उपन्यासकार को बोध था कि वे चंद्री के साथ संवाद सिर्फ़ अपनी कल्पना में ही कर सकते थे, चंद्री की अनुपस्थिति में जहाँ वे उसे मनचाही छवि दे सकते थे, जो चंद्री की अन्य सभी सम्भावनाओं को नकार देती थी? क्या उन्हें बोध था कि अगर चंद्री को उपन्यास के पन्नों में पर्याप्त स्थान मिला तो वह जाति और कामेच्छा के मध्य इस प्रस्तावित खाई पर प्रश्न उठाएगी, इसलिए चंद्री आचार्य के लिए सिर्फ़ अनुपस्थिति में ही स्त्री हो सकती थी?
शुरुआत में हमने अनुपस्थिति के साहित्य का ज़िक्र किया था, वे किरदार जो किसी आगामी किताब में इस आरोप के साथ लौटते हैं कि रचनाकार ने पिछली मर्तबा उनके साथ न्याय नहीं किया. अगर चंद्री अपनी पूर्वज उमराव जान की तरह अपना दस्तावेज़ लिखती तो आचार्य और उपन्यासकार को किस तरह चित्रित करती?[14]
स्त्री किरदार का किसी परवर्ती किताब में लौटने का एक हालिया उदाहरण मार्ग्रेट ऐटवुडका द पेनेलोपियड(२००५)[15]है.
वे बारह सहायिकाएँ जिनकी हत्या यूलिसीज़ के आदेश पर टेलेमचस ने होमर के महाकाव्य द ऑडिसी में यह आरोप लगा कर दी थी कि उन्होंने उन युवकों से सम्बंध बनाए थे जो पेनेलोप को हासिल करना चाहते थे, वे ऐटवुड के उपन्यास में अपनी कथा सुनाने आती हैं और यूलिसीज़ पर ‘ऑनर किलिंग’ का आरोप लगाती हैं. जब यूलिसीज़ पर मुक़दमा चलता है तो उसका वक़ील यह तो स्वीकारता है कि उन युवकों ने इन सहायिकाओं का दरअसल बलात्कार किया था, लेकिन तर्क देता है कि “उनका बलात्कार बग़ैर अनुमति के हुआ था”. जब मुस्कुराता हुआ न्यायाधीश पूछता है कि “लेकिन यही तो बलात्कार है न, बग़ैर अनुमति के?”,तब वक़ील जवाब देता है कि उनका बलात्कार “अपने स्वामी (यूलिसीज़) की अनुमति के बग़ैर हुआ था”.[16]
पश्चिम के एक महान ग्रंथ का नायक बीस बरस देश में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद अपनी अनुपस्थिति में भी वह अपनी पत्नी की सहायिकाओं पर सम्पूर्ण स्वामित्व चाहता था.
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अब हम उस प्रश्न पर लौट सकते हैं जो पिछले अध्याय में पूछा था: किरदारों को किसी राजनैतिक विचार के रूपक की तरह चित्रित करने से आख्यान पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या संस्कार एक राजनैतिक वक्तव्यबनना चाहता है, एक आकांक्षा जो इसे किरदारों को बतौर रूपक बरतने को प्रेरित देती है? स्त्री का मसला घरे बाइरे के लिए महत्वपूर्ण था, संस्कार के लिए भी है. जैसे ही उपन्यास किसी दायित्व के तहत स्त्री को बरतता है, उपन्यास की चेतना में स्त्री एक किरदार नहीं बल्कि एक मुद्दा,मसला बन कर उभरती है. रचनाकार की चेतना पर क़ाबिज़ होता कोई मुद्दा कई बार रचना में एक ऐसी व्याकुलता पिरो देता है जो आख्यान की सतह पर एक दुखता हुआ छाला छोड़ जाती है.
शायद यही व्याकुल चेतना थी जिसने संस्कार के लेखक को लिंग और जाति के ध्रुव रचने को प्रेरित किया,जिसकी वजह से स्त्री का एकायामी चित्रण संभव हुआ था. किरदारों के अंतर को व्यक्त करने के लिए ध्रुवीकरण राजनेता के लिए उपयोगी तकनीक हो सकती है लेकिन किसी साहित्यिक कृति के लिए नहीं क्योंकि यह किरदारों के जीवन को सींचती हुई उन विडंबनाओं और व्यसनों को अनदेखा कर देती है जिनसे कोई किरदार बड़े फलक पर पहुँचता है, और इस तरह यह तकनीक आख्यान में वे विषाणु पिछले दरवाज़े से चुपचाप धकेल देती है जिन्हें शायद रचनाकार ख़ुद ही हटाना चाह रहा था. एक कृति अपने रचनाकार के साथ अनोखे खेल खेलती है, अद्भुत द्वंद्व रचती है. उपन्यासकार रूढ़ियों का प्रतिकार करना चाहता था लेकिन उपन्यास के भीतर चल रही लीला ने रचनाकार को मात दे दी.
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इसके बरक्स वैद और निर्मल के गल्प में स्त्री कोई ऐसी सामाजिक प्राणी नहीं है जिसे मुक्त कराना है या सशक्त करना है. इसका यह अर्थ नहीं कि उनके स्त्री किरदार की आवाज़ दबी हुई है, बल्कि उनके गल्प की चेतना स्त्री को स्वर देने की राजनैतिक आकांक्षा से मुक्त है. अगर यह उस राह का सूचक है जो भारतीय उपन्यास ने तय की है, तो यह ख़ुद भारत पर भी एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है. दोनों कथाकारों का जन्म स्वतंत्रता से दो दशक पहले हुआ, आज़ादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने लिखना शुरू किया, एक ऐसा काल जब स्त्री का मसला राजनैतिक–सांस्कृतिक परिदृश्य में प्रमुख जगह लिए था, जो उपन्यासकार को भी प्रेरित करता था. जिन स्त्री किरदारों को वैद और वर्मा लिखने वाले थे उन्हें अपने समकालीन ही नहीं अपने पूर्वजों की रचना में भी खोज पाना मुश्किल रहा होगा. इन दोनों के जन्म के दौरान स्त्री लेखन ने भारत में आकार लेना शुरू कर दिया था, गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में स्त्री की प्रमुख भूमिका थी. जिस भाषा में ये दोनों लिख रहे थे उसके तत्कालीन कई प्रमुख रचनाकारों के उपन्यासों में स्त्री एक प्रमुख सामाजिक मुद्दा बनी हुई थी. इस परिदृश्य में वे उन चंद लेखकों में थे जिनके स्त्री किरदार, और पुरुष किरदार भी, किसी सामाजिक या पारिवारिक मसले से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि आंतरिक संघर्ष को दर्ज कर रहे थे. उनके उपन्यास की स्त्री जिस प्रश्न को पुरुष किरदार के समक्ष खड़ा करती थी वह अन्य लेखकों की रचनाओं से बुनियादी तौर पर भिन्न था. उनके प्रश्न राजनैतिक नहीं, वे मूलभूत प्रश्न हैं जिन्हें एक पुरुष स्त्री से, स्त्री पुरुष से मानव सम्बन्धों के सबसे नाज़ुक और अंतरंग क्षण में पूछती है, प्रश्न जो तात्कालिकता से परे निकल जाते हैं. रायना का प्रश्न — क्या तुम उस पर विश्वास करते हो, वह जो है लेकिन हमारे लिए नहीं है — न जाने कितने संस्कृतियों में अपनी गूँज सुन सकता है. दूसरा न कोई के बूढ़े का स्त्री के प्रति जुनून शताब्दियों को पार कर जाता है.
संस्कार के आचार्य के भीतर स्त्री के प्रति अन्य का भाव उसकी अंतर्निहित ऐंद्रिकता में केंद्रित है, जिससे वह अचम्भित और चमत्कृत है. दूसरान कोईके बूढ़े के उन्माद की क्या वजह है? अगर बूढ़ी स्त्री उसका अन्य है तो इसका स्वरूप क्या है? उपन्यास स्पष्ट करता चलता है कि स्त्री बूढ़े लेखक ही विस्तार है, और नायक उससे अनभिज्ञ नहीं है. वह उसे तब तक ही अन्य मानता है जब तक वह अपने स्व का अतिक्रमण कर उसे अपने में समाहित नहीं कर लेता. पूरे उपन्यास के दौरान उसका एकमात्र लक्ष्य है एक ऐसी अवस्था में पहुँचना जहाँ ‘दूसरा न कोई’हो, जहाँ अन्य का एहसास उसकी और उसके रचना कर्म की चेतना में मिट जाता हो. उसके लिए अन्य‘नर्क’ नहीं है (हेल इज अदर).
वैद के उपन्यासों की आलोचना करते हुए जयदेव मानते हैं कि वैद “भारतीय संस्कृति” के प्रति “बैर भाव”रखते हैं, उनका गल्प “भारत की प्रत्येक सामाजिक रीति पर तीखा प्रहार है”.[17] जयदेव वैद और निर्मल दोनों की तीखी आलोचना यह कह करते हैं कि उनका रचना कर्म अनेक पश्चिमी लेखकों की नकल है. वैद का कर्म“पेस्टीच हासिल करने के फेर में हुआ कलात्मक ऊर्जा के ज़बरदस्त अपव्यय का उदाहरण है”.[18] जयदेव की प्रस्तावनाओं का विस्तार से आगे परीक्षण करेंगे, इस वक़्त दूसरा न कोई की‘भारतीयता’ को परखते हैं.
क्या बूढ़े लेखक की स्व–केंद्रित क्रियायें अस्तित्व की आप्तकाम अवस्था की तलाशकासंकेतकरती हैं? ऐसीअवस्थाजहाँबाह्यआंतरिकमेंसमाहितहोजाताहै? वहस्त्रीकोतमामरंगोंमेंलिखताज़रूरहै, लेकिनवहसंसर्गकीनिस्सारतासेअपरिचितनहींहै, उसकीचेतनाएकअद्वैतअनुभव(दूसरा न कोई) की तलाश में है, जहाँ सभी अन्य मिट जाते हैं. आख़िरी अध्याय में जब आख्यायक–नायक दुनिया छोड़ रहा है और उसके पास सिवाय अपने कुछ प्रिय शब्दों के कुछ भी नहीं है, क्या उस क्षण उसकी समूची तलाश एक साधक–लेखक की आध्यात्मिक साधना का रूप नहीं ले लेती?
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में शब्द ब्रह्म प्रस्तावित किया था. उनसे पहले याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद में कह चुके थे कि अक्षर, जिसका क्षय न हो, ही अंतिम सत्ता है. भले ही भारत का कोई एक प्रतिनिधि दर्शन और विचार नहीं है, भारतीय दर्शन विविध दार्शनिक पद्धतियों से निर्मित होती है, लेकिन अद्वैत सिद्धान्त इस दर्शन का एक प्रमुख स्तम्भ निसंदेह है. चूंकि दूसरा न कोई अद्वैत सत्ता को शब्द के ज़रिए उपलब्ध करना चाहता है, क्या यह एक प्रतिनिधि भारतीय उपन्यास कहा जा सकता है?
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एक बार फिर उस प्रश्न पर लौटते हैं जो हमने शुरू में पूछा था. अनुपस्थिति स्त्री. इन तीनों में से कोई भी उपन्यास स्त्री का तिरस्कार करना नहीं चाहता, गद्य उन्हें बड़ी नज़ाकत से थामता है, लेकिन इसके बावजूद तीनों उपन्यास पुरुष किरदार पर समाप्त होते हैं. किसी उपन्यास की राजनैतिक आकांक्षाएँ हैं, कोई आध्यात्मिक तलाश द्वारा संचालित होता है, कोई काल की सीमाओं से दूर चले जाना चाहता है, लेकिन इन तीनों में ही पुरुष का स्वर ही प्रधान रहता है. एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है — परिंदे मरने के लिए आख़िर किस जगह जाती हैं? एक दूसरा प्रश्न हो सकता है — साहित्य की अनुपस्थित स्त्रियाँ कौन सा ठौर खोजती हैं?
एक उत्तर हो सकता है कि वे अपने एकांत में सिमट जाती हैं,उन्हें पुरुष से किसी सहारे की आकांक्षा नहीं, उम्मीद भी नहीं. अगर उन स्त्रियों की संवेदात्मक और मनोवैज्ञानिक स्थिति की कल्पना की जाए जिन्हें उनके आख्यायकों ने अधूरा और अलिखित छोड़ दिया, जिनकी कथा अविकसित–अबोली रही आयी, जिनके प्रश्न अनकहे, इसलिए अनुत्तरित रहे आए, एक प्रमुख छवि एकांत की उमड़ेगी.
जिस स्त्री ने उपन्यास पढ़ने के लिए एकांत को चुन कर उन्नीसवीं सदी के अंत में भारतीय समाज को विचलित कर दिया था, उसे यह भाव जीवन में अन्यत्र भी चुनना ही था. उपन्यास में एकांत शायद स्त्री का अगला पड़ाव होना ही था.
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