ऋषि कपूर
सौन्दर्य का साधारणीकरण
सुशील कृष्ण गोरे
1973 का वर्ष हिंदी सिनेमा का एक बहुत निर्णायक वर्ष था. 70 का पूरा दशक एक-दूसरे को लपेटती और एक दूसरे के ऊपर से निकलने की जद्दोज़हद करने वाली कई फिल्मी धाराओं का दशक रहा है. सच कहा जाए तो भारतीय सिनेमा और ख़ास तौर से हिंदी सिनेमाई इतिहास का यह दशक बहुत सारे प्रयोगों एवं परिवर्तनों से भरा था. कुछ परिभाषाएं पर्दे से हट रही थीं या यूँ कहा जाए कि तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक दबावों के बरक्श उभरने के लिए बेताब मनोभावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम प्रयोगों के लिए जगह छोड़ रही थीं.
सिनेमा के भीतर का बदलाव थीम और क्राफ्ट दोनों स्तरों पर हुआ. अगर फिल्मी नायकों के संदर्भ में विश्लेषण किया जाए तो इसके ठीक पहले शम्मी कपूर, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, राज कुमार, सुनील दत्त, मनोज कुमार, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत, जितेंद्र, धर्मेंद्र आदि का दौर था. 1969 में दो फिल्में ‘आराधना’ और ‘दो रास्ते’ बनती हैं और राजेश खन्ना रातों-रात एक रोमांटिक हीरो के बतौर फिल्मी पर्दे पर छा जाते हैं.
60 एवं 70 के संधि-काल का परिदृश्य एक साथ हिंदी सिनेमा के कई बड़े कलाकारों से भरा पड़ा था. कुछ की चमक मद्धिम पड़ रही थी तो कुछ की रोशनी नई दमक के साथ छिटक रही थी. 1970 की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में राज कपूर और ‘जॉनी मेरा नाम’ में देव आनंद मुख्य भूमिका में दिखे. वैसे तो 1973 में रिलीज हुई ‘विक्टोरिया नंबर 203’ में अशोक कुमार भी नज़र आए थे. देव साहब ने तो आगे, हरे रामा हरे कृष्णा, शरीफ बदमाश, छुपा-रुस्तम, अमीर-गरीब, बुलेट, देश-परदेश में 1978 तक काम किया.
इस प्रकार 1970 के दशक में रणधीर कपूर, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन जैसे बहुत ढेर सारे फिल्म स्टार एक साथ सक्रिय थे और सभी का अपना-अपना अच्छा-खासा दर्शक वर्ग था. राज कुमार, संजय खान, मनोज कुमार, शशि कपूर जैसे अभिनेता भी अपनी-अपनी ख़ास पहचान के साथ हिंदी चित्रपट पर लगातार उपस्थित थे.
इनमें से दो प्रमुख अभिनेताओं राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की एक साथ उपस्थिति अपने आप में एक फिल्मी द्वैत था. कहीं ‘अमर प्रेम’ के राजेश खन्ना का प्रेम में डूबा और खोया-सा टूटा-विरक्त उदास चेहरा तो कहीं सावन की कड़कती घटाओं में मुमताज के साथ घास में तर-बतर भीगते ‘प्रेम कहानी’ का एक लड़का होना – वे दोनों में बेमिसाल थे. ये उनके जैसे प्रेमी के ही वश की बात थी कि वे फिल्मी पर्दे पर अपनी लाजवाब अदायगी से यह गाकर दर्शकों को बेहाल कर दें कि– आंखों से आंखें मिलती हैं वैसे; बेचैन हो के तूफां में जैसे; मौज़ कोई साहिल से टकराए. यह जादू था– देश के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना का.
दूसरी तरफ यही समय था हिंदी फिल्मों के एक दूसरे महानायक अमिताभ बच्चन के धमाकेदार पदार्पण का. जंजीर, नमक हराम, अभिमान, मिली– अमिताभ बच्चन की ये चंद फिल्में एक ही वर्ष 1973 में रिलीज हुईं. 1975 की ‘दीवार’ से अमिताभ ने फिल्मों में एंग्री यंग मैन के एक नए युग की बुनियाद रख दी और अगले दो दशकों तक उसके एकमात्र निर्विरोध शहंशाह बने रहे. इसके अलावा फिल्मों के विश्लेषक जानते हैं कि 70 का दशक ‘न्यू वेव सिनेमा’ यानी ‘समांतर सिनेमा’ या ‘कला फिल्म आंदोलन’ का भी महत्वपूर्ण दशक रहा है. अंकुर, गरम हवा, निशांत, मंथन, जुनून, गोधूलि, आक्रोश, स्पर्श, अंगूर, गोलमाल जैसी लीक से हटकर बनी फिल्में इसी दशक में रिलीज हुई थीं. इस पर कभी अलग से बातचीत की जाएगी.
हिंदी सिनेमा के दर्शकों को पहली बार देह की निकटता में इस कदर दमकते तरुणाई के प्रेम का एहसास कैमरे से निरूपित होते देखने को मिला था जिसमें भोक्ता अपनी सुधबुध खो दे, आत्मविसर्जित हो जाए, विजड़ित हो जाए. ऋषि की आंखों में गिरफ्त डिंपल कपाड़िया पर आज के भी रूमानी जोड़े फिदा हो जाते हैं जब वे भूलकर गीला बेसन लगे अपने हाथ की ऊंगलियों से अपनी लटें ऊपर को सहेजती हैं और बेसन उनके बालों में लग जाता है. जरूर इस दृश्य का फिल्मांकन एक नए युग के प्रस्फुटन का क्षण रहा होगा. यह पश्चिमी परिधान में एक निरद्वन्द्व तरुणी के आत्मविश्वास की नई भाषालिपि थी. देखते-देखते डिंपल का पोल्का छींट वाला नॉटेड क्रॉप ब्लाउस और ऋषि का ओवरसाइज्ड ग्लासेस 70 के दशक का नया फैशन स्टेटमेंट बन गया. यही बात फिल्म में डिंपल ने ऋषि से एक संवाद में कहा भी है कि- मुझे जरा कोई छू के तो दिखाए. मैं 21 वीं सदी की लड़की हूँ. राजकपूर ने 1973 की नायिका से यह बुलवाया था– जो मैं समझता हूँ कि अनायास तो बिल्कुल नहीं रहा होगा. इसमें भी स्त्री की एक बोल्ड इमेज की गढ़ंत देखी जा सकती है. क्या यह उभरते स्त्रीवादी विमर्श का एक फिल्मी प्रतिरूपण नहीं था.
सभी समीक्षक एक साथ मानते हैं कि 70 का दशक मसाला फिल्मों का स्वर्ण काल है. यानी ऐसी फिल्में जिसमें नायिका के साथ बाग-बगीचों में नाच-गाना, प्यार में बाधा पहुंचाने वाले किराए के विलेन के साथ ढिशुम-ढिशुम, फिलर में हास्य, खोया-पाया फार्मूला, सनसनीखेज नाटकीयता, एकाध कोर्ट दृश्य, आदि से युक्त 2 घंटे 20 मिनट की चटपटी और बिना निष्कर्ष की फिल्में.
बॉबी कई मायनों में हिंदी सिनेमा की एक लैंडमार्क फिल्म थी. यह फिल्म हिंदी सिनेमा के पहले शो मैन राजकपूर ने बनाई थी और कहा जाता है कि उन्होंने यह फिल्म ‘संगम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के पिट जाने से हुए घाटे से उबरने के लिए बड़ी आशाएं लेकर बनाई थीं. यह भी कहा जाता है कि राजकपूर की माली हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि वे शुरू में राजेश खन्ना को इस फिल्म का हीरो बनाना चाहते थे लेकिन उनको पारिश्रमिक देने भर का पैसा उनके पास नहीं था. ऋषि कपूर भी इस सच्चाई को कई बार स्वीकार कर चुके थे कि यही वज़ह थी कि उनके पिता राजकपूर ने बॉबी में उनको लीड रोल में रखकर फिल्म का निर्माण पूरा किया. इसके अलावा राजकपूर ने एक नई अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया को इस फिल्म में नायिका का रोल दिया.
कौन जानता था कि– अपने फिल्म निर्देशन एवं अभिनय का लोहा मनवा चुके एक बहुत कद्दावर शो मैन और आर के फिल्म्स का समय बंबई फिल्म जगत में इतना खराब हो जाएगा. लेकिन, किस्मत व्यक्ति की जिंदगी में कभी भी नया मोड़ ला सकती है. बॉबी की अपार सफलता से केवल एक शो मैन ही नहीं उबरा. बल्कि, बॉबी ने सिनेमा में एक बिल्कुल नए मिजाज एवं तरंग का सूत्रपात भी किया. इस ब्लॉकबस्टर फिल्म ने कई मायनों में एक ट्रेंड सेटर का काम किया. कहा यह भी जाता है कि राज साहब ने इसकी कहानी में शेक्सपियर के रोमियो जूलियट की सघन प्रेमासक्ति को निरूपित करने की कोशिश की थी जिसमें जान डालने का काम मशहूर लेखक एवं फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास साहब की पटकथा ने किया था. अत्यंत सहज एवं सरल पटकथा की इस फिल्म ने एक इतिहास रच दिया– आज भी मुद्रास्फीति के हिसाब से बॉबी भारतीय सिनेमा इतिहास की व्यावसायिक रूप से सबसे सफल 20 फिल्मों में शुमार होती है.
तत्कालीन प्रेम का सपाट रंग-ढंग निभाने वाले कई नायक-नायिकाओं के जोड़े उस समय के रजतपट पर केवल मौजूद ही नहीं थे बल्कि पूरी लोकप्रियता के साथ दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे थे. देव आनंद, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, शशि कपूर, मनोज कुमार, संजय खान, विनोद खन्ना, राजेश खन्ना एवं अमिताभ बच्चन जैसे सशक्त फिल्मी हस्ताक्षर अपने कैरियर के पूरे उत्कर्ष पर थे. इनके अलावा विनोद मेहरा, अमोल पालेकर, विजय अरोड़ा, नवीन निश्चल जैसे दूसरी पंक्ति के अभिनेता भी सक्रिय थे. इन सभी अभिनेताओं की अभिनय कला मुख्य रूप से रोमांस एवं एक्शन की दो प्रतिनिधि धाराओं में प्रदर्शित हो रही थी. या तो वे ट्रैजिक हीरो थे या एंग्री यंग मैन. इनसे थोड़ा हटकर टीन एज लव स्टोरी के लिए एक छोटी-सी जगह खाली थी जिसे ऋषि कपूर ने भरा. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं कि राजेश खन्ना, संजीव कुमार और धर्मेंद्र जैसे बड़े-बड़े अभिनेताओं की प्रतिभा ने बहुमुखी रूप में हिंदी सिनेमा को समृद्ध किया है और उनकी सामूहिक ऊर्जा एवं सिनेमाई सृजन का नतीजा है कि 70 का दशक सिनेमा का सबसे प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील दशक है. यह फिल्मी ग्लैमर का एक नया युग था.
ऋषि कपूर के लिए इतने स्थापित सितारों से दमकते सिल्वर स्क्रीन पर अपना एक स्थान बनाना आसान काम नहीं था. लेकिन, बॉबी के ऋषि ने पहली बार में ही हिंदी फिल्मों का मुहावरा बदलने का अपना फैसला सुना दिया था. टीन एजर और बहुत मासूम दिखने के बावजूद वह अपने धन एवं रुतबे के रोब में आकंठ डूबे अपने पिता से आंखें मिलाकर यह पूछ ही लेता है कि क्या 12 साल की उम्र में बोर्डिंग स्कूल भेजे जाने की वज़ह मुझे सजा देना था. वह 18 साल का तरुण है लेकिन फिर भी समाज के क्लास बैरियर को तोड़ने से नहीं घबराता. वह अमीर बाप का बेटा होकर भी बचपन से उसे पालने वाली गरीब मिसेज ब्रगैंजा के वात्सल्य पर मिटने के लिए तैयार है. वह मजहबी भेदभाव को भी ठोकर मारता है और कैथलिक प्रेमिका को दीवानगी की हद तक प्यार करता है. हो सकता है कि मेलोड्रामा की यह प्रवृत्तियां गंभीर सिने समीक्षकों एवं दर्शकों को कुछ ख़ास नज़र न आती हों लेकिन यकीनन इनके बीच से हिंदी सिनेमा की एक नई राह निकली, फिल्मों को टीन रोमांस का एक नया टेंप्लेट मिला जो इतना पॉपुलर हुआ कि आज भी एक फार्मूले के रूप में कायम है.
ऋषि कपूर को भी कभी यह गुमान नहीं था कि वे अभिनय सम्राट हैं या फिल्म जगत के कोई ऑफ-बीट करिश्माई कलासाधक हैं. बल्कि, ऋषि कपूर हर बात ईमानदारी से मुँह पर कह देने या कुबूल कर लेने के लिए मशहूर थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा “खुल्लम खुल्ला” में सचमुच बहुत खुलेपन से बहुत सारी आत्मस्वीकृतियां की हैं. उन्होंने लिखा है कि मैं बहुत सुशिक्षित नहीं हूँ, मैं फिल्मों के अलावा कुछ नहीं कर सकता, मैं फिल्मों का अभी भी एक विद्यार्थी हूँ, किस्मत की बात है कि मैं स्टारडम की इतनी ऊंचाइयों तक पहुंच गया, इत्यादि. फिल्मों के अतिरिक्त वे समसामयिक मुद्दों पर चुप नहीं रहते थे. ट्विटर्स पर 35 लाख फालोअर वाले ऋषि अपने ट्विट्स के चलते काफी चर्चा में रहते थे और कई बार विवादों में भी घिरे.
एक बार शाहरूख खान ने बॉबी फिल्म के बारे में एक बहुत पते की बात कही थी – ‘ऋषि कपूर से पहले भी प्रेम था लेकिन वह पुरुष एवं स्त्री का प्रेम था. ऋषि कपूर से किशोरवय के लड़के-लड़कियों का प्यार पहली बार सिनेमा का विषय बना.’ यह प्रेम के लिए कोई बहुत बड़ा विद्रोही पाठ या सिनेमाई कथायात्रा का कोई कलात्मक अध्याय भले न हो, तो भी एक नया कथासूत्र तो जरूर था. आप देखेंगे कि कैशोर्य प्रेम कथाएं एक लंबी धारा में बहुत दूर तक गईं जिनमें प्रेम भी जीवन के साथ आबद्ध अन्य मानवीय पहलुओं के संदर्भों में बहुत समृद्धि एवं ऊष्मा के साथ अभिव्यक्त हो सका और प्रकटन के स्तर पर वह टीन एज रोमांस में भी रूपांतरित हुआ. क्या आप एक दूजे के लिए (1981), लव स्टोरी(1981), कयामत से कयामत तक (1988) और मैंने प्यार किया (1989) को बॉबी का विस्तार नहीं मानेंगे.
मैं बॉबी बचपन में नहीं देख सका और बहुत बाद तक नहीं देख सका था क्योंकि जब मैं सिनेमा देखने लायक हुआ तब तक ऋषि कपूर की लैला मजनू और हम किसी से कम नहीं की धूम मची हुई थी. 6 साल की उम्र में ‘लैला मजनू’ और 7 साल की उम्र में ‘हम किसी से कम नहीं’, मेरे पिता ने देवरिया के विजय टाकिज में मुझे दिखाई थीं. पता नहीं क्या देखी मैंने उनमें कि बहुत दिनों तक ‘लैला मजनू’ के ऋषि एवं रंजीता का प्यार पर कुर्बान और जुल्म सहता चरित्र तथा ‘हम किसी से कम नहीं’ के तीनों मुख्य कलाकार ऋषि कपूर, तारिक खान, काजल किरण का एक-एक दृश्य मेरे स्मृति पटल पर छाया रहा. मुझे बार-बार ऋषि कपूर के गुंडों द्वारा तारिक खान की निर्ममतापूर्ण पिटाई का दृश्य बेचैन कर देता था और उसके द्वारा गाया गया वह मशहूर गाना– क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम, वो इरादा– अपनी समस्त मार्मिकता के साथ मेरे कानों में बजता रहता था. दोनों फिल्मों में प्रेम की वेदना और उल्लास को स्वर देने वाले मोहम्मद रफ़ी साहब की गायकी ने मेरे दिल पर गहरा असर छोड़ा था. एक तरफ ऋषि कपूर की दीवानगी और माशूका तक पहुँचने के रास्ते में आने वाले हर दरिया-सहरा को पार कर जाने की जिद तो दूसरी तरफ शहरी पृष्ठभूमि में खिलंदड़ और रोमानी सिंगर-डांसर का छैल-छबीला रूप ‘हमको तो यारा तेरी यारी जान से प्यारी’ और ‘ये लड़का हाय अल्ला, कैसा है दीवाना’ गाते हुए मेरे दिल-दिमाग पर वर्षों छाया रहा. यह प्रेम और जीवन के सौंदर्य का साधारण अर्थों में समझ नहीं था तो फिर क्या था.
दर्शक अमर अकबर एंथनी के अकबर इलाहाबादी को कभी नहीं भूल पाएंगे. इसी तरह सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ अभिनीत ऋषि की कभी-कभी, नसीब, कुली, अजूबा रोमांटिक कामेडी की जोड़ीदार भूमिकाएं कभी-कभी उनको उनकी ही लीक से अलग ले जाती नज़र आती हैं जो उन्होंने रफू चक्कर, खेल खेल में, बारूद, सरगम, कर्ज़, प्रेम रोग, सागर, नगीना, चांदनी, हीना, बोल राधा बोल से बना ली थीं.
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सुशील कृष्ण गोरे
संस्कृति, सिनेमा, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, संगठन आदि के नए विमर्शों में गहरी दिलचस्पी
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