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Home » कथा-गाथा : भाषा में इतनी दूर चला आया हूँ, अगर लौटूँ भी तो कहाँ जाऊं? : आदित्य

कथा-गाथा : भाषा में इतनी दूर चला आया हूँ, अगर लौटूँ भी तो कहाँ जाऊं? : आदित्य

( Philosopher ludwig wittgenstein portrait by Renée Jorgensen) आदित्य कहानियाँ लिख रहें हैं. उनकी कहानियों पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष काफ्काई प्रभाव देखा जा सकता है, इस कहानी में अस्तित्वगत बेचैनी किसी दार्शनिक प्रणाली का अनुगमन करती दिख सकती है.  प्रस्तुत है यह कहानी. कथाकार कितना सफल हुआ है देखिये. शैलेन्द्र सिंह राठौर के लिए भाषा में इतनी दूर […]

by arun dev
March 23, 2020
in कथा
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( Philosopher ludwig wittgenstein portrait by
 Renée Jorgensen)












आदित्य कहानियाँ लिख रहें हैं. उनकी कहानियों पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष काफ्काई प्रभाव देखा जा सकता है, इस कहानी में अस्तित्वगत बेचैनी किसी दार्शनिक प्रणाली का अनुगमन करती दिख सकती है. 

प्रस्तुत है यह कहानी. कथाकार कितना सफल हुआ है देखिये.


शैलेन्द्र सिंह राठौर के लिए

भाषा में इतनी दूर चला आया हूँ, अगर लौटूँ भी तो कहाँ जाऊं?      


आदित्य
                                                    

जिस रात मैंने रतजगा करके यह पेंटिंग बनाई थी, मेरे घर की ड्राइंग रूम में सोफे के पास नीचे फर्श पर लेटे हुए मेरा एक दोस्त करवटें बदल रहा था; मैं अँधेरे में पेंटिंग नहीं बना सकता था और वह उजाले में सो नहीं सकता था. यह पेंटिंग भी मैंने सिर्फ एक खीझ में बनाई, अपनी बीवी से झगड़ा होने और अपने दोस्त की बकवास से ऊबने के बाद– वैसे तो इस पेंटिंग में कुछ ख़ास है नहीं और मुझे पूरी उम्मीद है कि किसी प्रदर्शनी में भी इस पेंटिंग की कोई पूछ नहीं होगी.
यह पेंटिंग हमारे एक मित्र की पोर्ट्रेट हैं. इस पेंटिंग में उसने लाल रंग की टी-शर्ट पहन रखी है और पृष्ठभूमि में बाथरूम की टोंटी दिखाई देती है, उसके बाल घुंघराले हैं और होंठ लाल हैं, यह पोर्ट्रेट उसके एक तस्वीर की कॉपी है जो संभवतः उसने अपने किशोरावस्था या युवावस्था के ठीक शुरूआती दिनों में ली होगी.

हमारा मित्र दार्शनिक है– लेकिन हम उसके बारे में ज्यादा नहीं जानते. यह आदमी वैरागियो जैसी जिंदगी या तो जीता है या जीने का दिखावा करता है और उसकी जिंदगी के रहस्यों को जानने के लिए इसके पीछे शहर के सभी डिटेक्टिव तैनात करने पड़ेंगे – अब इतनी ज़हमत कौन पाले?
फिलहाल तो मैं यही कहूँगा कि इस पेंटिंग के बारे में ज्यादा कुछ बताने की बजाए मैं इस आदमी के बारे में बहुत कुछ सोचने के बारे में सोच रहा हूँ क्योंकि किसी दिन किसी बात पर इसने कहा था कि हमें अपनी मंजिल को पाने के पीछे बहुत पागल नहीं होना चहिये क्योंकि सभी रास्ते अंत में अंत की ओर जाते हैं. ये तो पता नहीं कौन-सी मंजिल के किस अंत का कौन-सा अंत है फिर भी जब उसने कहा है तो थोड़ी देर (जब तक हम इस सच का अपना वर्जन नहीं तैयार कर लेते) के लिए सच मान लेते हैं.
इस दार्शनिक को पागल कहना एक अलग किस्म का पागलपन है. मित्र के पोर्ट्रेट में अगर आप आँखों पर गौर फरमाएं तो एक अजीब किस्म के रहस्य से रूबरू होंगे. मुझे याद नहीं हम आखिरी बार कब मिले थे. अगर आपसे झूठ न बोलूँ तो यह कहना पड़ेगा कि इस बंदे से मैं कभी नहीं मिला.. ये तो आज के जमाने का पेन-पाल है जो पता नहीं ‘है’ भी या ‘नहीं है’.
बहुत से लोग उसकी इस तस्वीर को देखकर उसे ग्रीक देवता या सत्रहवीं सदी का फ्रेंच कवि बताते हैं. कुछ लोगों ने तो इसे बीटल्स जैसा दिखता करार दिया है, जरूर उन्होंने बीटल्स की तस्वीर कभी ढ़ंग से नहीं देखी होगी. यह आदमी अक्सर अनुपस्थित में से अचानक से टपक जाता है और अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है. इसने अपने जीवन को तमाम दार्शनिक पद्धतियों का असमान मिश्रण बना लिया है और उसी पैटर्न पर जिए जा रहा है– या शायद यह हमारी एक धारणा भर है. पर क्या यह आदमी है भी या नहीं? हलांकि उसके होने या न होने से अधिक फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जैसे-तैसे अब ये हमारी ज़िन्दगी में अपनी जगह बना चुका है; तभी तो रात भर मैं अपनी नींद हराम करके यह पोर्ट्रेट बनाता रहा और मेरा बिचारा दोस्त जो ड्राइंग रूम में करवटें बदलते मेरे इस पागलपन की वजह से अपनी नींद खराब कर मुझे मन ही मन गलियाँ दे रहा है.
पर दिक्कत तो यह हो गई कि यह पेंटिंग आखिरकार मेरे जी का जंजाल बन गई ठीक वैसे ही जैसे कोई डिटेक्टिव किसी गुमशुदा आदमी की तलाश में निकले मगर उस डिटेक्टिव के पीछे दूसरे डिटेक्टिव तैनात कर दिए जाएँ उसके पीछे दूसरे डिटेक्टिव और इस तरह सब कुछ एक अंतहीन क्रम में चलने लगे…

मेरा दोस्त न जाने कब उठकर चला गया और फ्रिज पर एक नोट चिपका गया:
एक दिन आएगा जब सब के सब, सबके खिलाफ हो जाएंगे.

मैं बहुत देर तक इस आदमी के बारे में सोचता रहा. सोचते-सोचते ऐसा लगने लगता था जैसे मैं ही मेरा दोस्त हूँ और मैं ही हम दोनों दोस्तों का दोस्त हूँ. मैं घर की दीवारों को देर तक घूरता रहा और यह समझने में खुद को असमर्थ पाता रहा कि आखिर मैं हूँ कहाँ और जहाँ हूँ वहां क्यों हूँ. उठकर बाथरूम गया और फिर मुंह हाथ पोंछने के लिए तौलिया ढूँढने लगा जो मिला नहीं – जिसका संभवतः यह मतलब था कि अब मैं वहां नहीं रहा जहाँ था. मैं अपने घर में होने को अपने खास बाथरूम से पहचानता था और अपने बाथरूम को अपने उस ख़ास तौलिए से. पर उस दिन के बाद से वह तौलिया नहीं मिला. उस तौलिये के खोने के साथ ही मेरे घर में पहले से थोड़ा अधिक खालीपन भर गया.

यह जो पोर्ट्रेट मैंने बनाई है यह किसी के ‘होने’ का सबूत है. क्या यह पोर्ट्रेट भी हमारी तरह होने को महसूस कर सकती है? देख सकती है, छू सकती है? यदि हाँ तो इसके अन्तःकरण में क्या है और यह क्या-क्या करने में सक्षम है?

अगले दिन से कुछ अजीबोगरीब हरकतें घर में होने लगीं.

पहला :

आज शाम जब मैं ऑफिस से आया तो पोर्ट्रेट वहां नहीं थी जहाँ मैं इसे सुबह रखकर गया था. मुझे लगा मेरी बीवी ने उसे उठाकर कहीं ऐसे जगह रख दिया होगा जहाँ वह आगंतुकों की नजर में न पड़े क्योंकि उसे मेरी पेंटिंग्स और खासकर करके दोस्तों के पोर्टेट तो बिल्कुल भी नहीं पसंद. मेरे बनाए पोर्ट्रेट अधिकतर घटिया ही होते हैं. शाम को जब बीवी ऑफिस से घर आई तो मैंने उससे पूछने की कोशिश की कि आखिर उसने इस पेंटिंग को यहाँ से उठाकर वहां क्यों रख दिया लेकिन वो बहस पति-पत्नी के उबाऊ झगड़े में तबदील हो गयी और उसकी जगह बदलने का मुद्दा दुनिया भर की दुनियादारी के मुद्दों में खो गया. उस दिन मैंने कोशिश करके अपने दूसरे दोस्त की पोर्ट्रेट बनाने की कोशिश की. 

उस पेंटिंग में उसकी बदसूरती और भी बदसूरत होकर उभर आयी और एक पल के लिए मुझे लगा कि आखिर कैसे मैं ऐसे आदमी का दोस्त हो सकता हूँ – चलो अगर दोस्त हो भी गया तो ऐसा आदमी मेरे घर के ड्राइंग रूम में क्या कर रहा है और अगर वह यहाँ तक आ ही गया है तो वो कौन होता है उजाले की वजह से नहीं सो सकने वाला? खैर, जैसा कि आप आसानी से अनुमान लगा सकते हैं इतना सब सोचने के बावजूद वह मेरा अच्छा दोस्त है और उस रात जो कुछ भी हुआ वह कोई बहुत असामान्य बात नहीं थी पर अब जो मैं सोचने लगा हूँ उसके बारे में तो जरूर असामान्य लगने लगी है. उस दिन के झगडे के बाद मेरी बीवी ने कई दिन तक मुझसे बात नहीं की.

दूसरी हरकत :

आज दूध वाला सुबह घर के दरवाजे पर दूध के जो चार पैकेट रखकर गया था वे गायब मिले. असल में ऐसा होने का आज पांचवां दिन है. मेरा दोस्त पिछले कई दिनों से लापता है और उसकी कोई खोज खबर नहीं मिल रही हलांकि यह तो निश्चित ही है कि दूध के गायब होने और मेरे दोस्त के लापता होने में इस पेंटिंग का कोई हाथ नहीं और इस पेंटिंग में उकेरे गए आदमी का तो बिल्कुल भी कोई हाथ होना संभव नहीं. खैर, दूध वाली समस्या के लिए कुछ तो करना होगा और मेरे लापता दोस्त को ढूँढने के लिए उसके घरवाले अब पुलिस कचहरी घूम रहे होंगे.

तीसरी हरकत :

आज तो महानुभाव एक अजीब ही बात हुई! सुबह उठकर जब मैंने अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो देखता हूँ कि चार दूध के पैकेट में से तीन वहां रखे हैं और जीने पर दूध पीते एक आदमी की परछाईं दिख रही है और मेरे आवाज़ लगाते ही परछाईं अंतर्धान हो गयी.

चौथी हरकत:

मैं जब घर आया तो फ़्रिज पर एक नोट लगा हुआ था:
जाने कबसे मैं अपना पीछा कर रहा हूँ.

आज वह मेरे यहाँ आया था और फिर सोफे के पायदान के पास लेट रहा. आज तो उसने जी भर कर खर्राटे लिए. मैंने भी उससे ज्यादा बात नहीं की और जब बात करने की कोशिश करता तो बात घूम फिरकर उस पोर्ट्रेट पर आ जाती. पोर्टेट में अब कुछ स्वतः बदलाव होने लगे हैं. इसकी भौंहें अब पहले से ज्यादा गझिन, होंठ पहले से ज्यादा मोटे और गालों पर दाढ़ी के बाल उग आएं हैं – हां जी और उनमें कुछ सफ़ेद बाल भी हैं. हाय रे मैं ये क्या देख रहा हूँ!!
उसका चेहरा विकृत हो रहा था, चेहरे की नसें और हड्डियां अपनी जगह, आकृति और रंग बदल रहे थे और थोड़ी देर में उसका चेहरा किसी सुर्रीयल पेंटिंग की तरह दिखने लगा. मुंह के कोने से लार टपक रहे थे और आंखों से काले रंग का रक्त. पेंटिंग में टी-शर्ट का रंग लाल से हरा हो गया था.

मैंने पोर्ट्रेट से ध्यान हटाने के लिए अपने दोस्त की ख़ामोशी में दखलंदाजी की: ‘काश मैंने शादी नहीं की होती तो शायद मैं और उन्मुक्त जीवन जी पाता, जिस स्त्री को चाहता उसे अपनी बांहों में भर सकता, मुझे चाहने वाली स्त्रियों की कमी नहीं है वे बस एक आवाज़ भर लगाने की दूरी पर हैं.’
मेरे दोस्त ने कोई उत्तर देना उचित नहीं समझा.  

जब आप कुछ कर रहे होते हो, कुछ ऐसा जो लोग दूसरों की नज़र से छिपकर करते हों, जैसे ऑटो में बैठकर अपनी प्रेमिका को चूमना या बालकनी में मकान मालिक से छिपाकर अपनी प्रेमिका की ब्रा सूखने के लिए फैलाना तो कई बार ये कृत्य अनजान लोगों द्वारा देख लिए जाते होंगे और वे उनकी स्मृति में रह जाते होंगे.. जैसे जब मैं जाड़े की किसी शाम बिजली के खम्बे के पास खड़े होकर अपनी होने वाली बीवी को चूम रहा था इस उम्मीद में कि हमें कोई नहीं देख रहा.. क्या पता ऐसा ही कोई अवांछित मनुष्य उस दृश्य को किसी खिड़की से देख रहा हो और इस घटना को सभ्यता के दिन-ब-दिन पतनोन्मुख होने का प्रमाण समझे… क्या यह सम्भव नहीं कि ऐसा ही कोई सभ्यता रक्षक एक दिन बिजली के खम्बे के सम्भावित आड़ में पहुँचकर ऐसे दो प्रेमियों को दंडित कर दे? क्या यह पेंटिंग ऐसे ही हमारे तमाम सफ़ेद स्याह कृत्यों का गवाह है और हमारे न्याय की पटकथा तैयार कर रहा है?
मैंने अपने दोस्त को फिर से छेड़ा: “मेरा एक दोस्त तो सार्त्र का ‘बीइंग एन्ड नथिंगनेस’ पढ़कर सनक गया है.”

उसने तुनककर जवाब दिया: ‘उसकी सनक की वजह किताब नहीं है, उसके सनक की वजह उसकी बैड फेथ है!’

मैंने पलटकर पोर्ट्रेट की ओर देखा जो हमें ऐसे घूरती थी मानो उसकी हमसे कोई पुरातन शत्रुता हो.

परिप्रेक्ष्य : 

सम्भव है हमने जो कुछ समझा है वह सब एक सिरे से ग़लत हो.. जो देखा अधूरा देखा, जो छुआ अधूरा, जो सूंघा उसकी असली सुगंध हमारे घ्राण में भीतर तक नहीं पहुँची, जो पढ़ा वह दूर-दूर तक हमारे न्यूरॉन्स को प्रभावित करने में नाकाम रहा हो! क्या पता हम हर चीज़ की एक नकली चादर ओढ़े जी रहे हों, सब कुछ एक धोखा हो,  नहीं आध्यात्मिक अर्थ में माया नहीं बल्कि बिल्कुल भौतिक अर्थों में खोखला और छिछला या कोई बहुत बड़ा फ्रॉड! क्या पता जो नज़र हमें देख रही है वह हम जिस नज़र से देख रहे हैं की तुलना में ज़्यादा साफ़-साफ़ देख रही हो और हम उसकी उसकी मूक दृष्टि पूरे नंगे हों!


मैंने अपने दोस्त को अपना एकालाप सुनाया:
स्मृतियां मनुष्य विशेष के अवचेतन का हिस्सा होती है. एक डेटा की तरह फीड – फ़िर यह मनुष्य विशेष के मस्तिष्क की जिम्मेदारी है कि वह स्मृतियों को किस तरह अपनी भाषा में उतारता है, उन्हें कौन-सा रूप देता है और वे क्या निरूपित करती हैं. स्मृतियां अतीत (वह समय जो \’अभी\’ नहीं है पर \’कभी\’ था) का हिस्सा हैं. सूचनाएं हमेशा मैनीपुलेटेड होती है क्योंकि मनुष्य का मस्तिष्क इतना सक्षम नहीं कि वह बीते हुए समय की हर एक चीज़ को जस का तस निरूपित कर सके और फिर उसका ऐसा इरादा भी नहीं! लेकिन मैनिपुलेटेड होने का यह मतलब नहीं कि सूचना पूरी तरह से ग़लत है. हर सूचना आंशिक रूप से \’सही\’ है और यह अंततः हमारी मेधा पर निर्भर करता है कि हम उनमें से कौन-से हिस्से पर यक़ीन करें. 

उदाहरण के तौर पर मैं अपने सबसे क़रीबी मित्र के साथ कितने ही यादगारी लम्हें बिताऊं और एक दिन अचानक पता चले कि मित्र उन हर पलों में मेरे खिलाफ़ किसी षड्यंत्र का हिस्सा रहा, फ़िर? ऐसी स्थिति में भी बीता हुआ समय और बेहतर स्मृतियां नष्ट नहीं होंगी. हमारे सूचनाओं का डेटाबेस बदल जाएगा. हमारे सम्बन्ध बदल जाएंगे. फिर हम इस तरह के वाक्यों का प्रयोग करने लगेंगे \’मिस्टर एम के साथ मैंने बहुत सुखद लम्हे बिताए परन्तु उसने मेरे साथ धोखा किया\’.
यह ऐसा है जैसे कि किसी सीधी रेखा पर दो लोग चलते हुए एक बिंदु से दूसरी बिंदु ओर पहुँच गए लेकिन बिंदु अ पर घटित हुई घटनाएं अदृश्य रूप से बिंदु अ पर हमेशा के लिए दर्ज हो गईं. उन दृश्यों को देखने की हमारी दृष्टि समय बीतने के साथ परिपक्व या धूमिल होती जा सकती है लेकिन वह दृश्य हमारे ज्ञान और अज्ञान से परे एक ठोस डेटा की तरह वहां हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो जाएगी – हो सकता है जिसे हम अपने स्वार्थ और अज्ञान की वजह से कभी ठीक-ठीक न देख पाएं. हमारे सामने जो कुछ भी दिख रहा है विकृत है जिसे थोड़े प्रयास से एक हद तक जाना समझा जा सकता है.
तभी पेंटिंग से कुछ आवाज़ आने लगी:

“ब्लैक मिरर का एक एपिसोड भी था कुछ इस तरह का. सोचो तुम्हारा एक डिजिटल क्लोन या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस विकसित किया जाये, जिसमें तुम्हारी सम्पूर्ण स्मृति हो, और उसे तरह तरह से प्रताड़ित किया जाये, पर तुमको उसका पता भी न चले. (और उस क्लोन को भी न पता हो कि वो क्लोन है, बल्कि वह तो खुद को \’तुम\’ ही समझेगा- जो कि वह है भी- समझ ही न पायेगा कि अचानक से वह कहाँ और क्यों आ गया है) तब \’स्मृति\’ से परे हम क्या हैं और वो अन्याय किसके साथ हो रहा है, अगर इस भौतिक शरीर के \’स्मृति- अस्तित्व\’ को कोई फर्क न पड़ रहा पर उसके असंख्य क्लोन कष्ट में हैं तो किस \’स्मृति अस्तित्व\’ को वास्तविक माना जाये.” #
हम चौंककर चुप हो गये. थोड़ी देर में मेरे दोस्त ने कहा-

अपने बारे में तो मुझे यही लगता है कि मुझमें और शेष विश्व में ऐसी संवाद हीनता स्थापित हो गयी है जिसे कुछ भी करके पाटा नहीं जा सकता जिससे हम दोनों एक ऐसे दुष्चक्र में फँस गये हैं जिससे निकलना भी सम्भव नहीं और भाषा? जैसे सभी लोग एक दूसरे से भिन्न ऐसी भाषा बोलते हों जिन्हें उनके अलावे कोई और समझ ही नहीं सकता. शायद जीवन और संसार में संवाद स्थापित हो जाने से बढ़कर और कोई उपलब्धि नहीं होती हो..
और फिर अचानक से हम तीनों (मैं, पोर्ट्रेट और मेरा दोस्त!?) अलग-अलग भाषाओं में बोलने लगे और कमरा हमेशा के लिए एक अजीब किस्म के शोर से भर गया..
                                                                    

कुछ दिन बाद :

मेरे दोस्त ने मेरे यहाँ आना-जाना बंद कर दिया है. मैं सोचता था उसके मेरे जीवन से चले जाने पर मेरे जीवन में कुछ शांति आ जायेगी लेकिन मेरी यह मान्यता मिथ्या साबित हुई. मैंने पोर्ट्रेट को तोड़ कर फेंक दिया है. मुझे पता चला कि मेरे दोस्त ने आत्महत्या की कोशिश की थी, हलांकि यह सच है कि इस बीच मैंने भी आत्महत्या की कोशिश की. मैंने एक दिन, जब मेरी बीवी नहीं थी, सूट-बूट पहनकर, घर अच्छे से साफ़ करके, अपनी वसीयत लिखकर तैयार कर लिया और नींद की गोलियों के कई पत्ते खरीदकर लाया. जब मैं बिस्तर पर लेटकर पत्ते ख़ाली करने लगा तभी मुझे मैडम बोवरी के आत्महत्या की याद आई और मुझे याद अपने गाँव के एक चाचा के आत्महत्या की याद आई जो मेरे पिता के बहुत अच्छे मित्र थे. मुझे वह दर्दनाक दिन हूबहू याद है. उस दिन मैं वर्षों बाद फूट-फूटकर रोया. मुझे नहीं पता मेरे दोस्त ने आत्महत्या की कोशिश किस तरह से की थी. मेरी उससे कोई बात नहीं हुई. एक दिन मैंने उसे फ़ोन करने के बारे में सोचा लेकिन फ़ोन कर सकने की हिम्मत नहीं हुई.
कभी-कभी लगता है कि मैं अपनी ही पोर्ट्रेट बना रहा हूँ और मैं ही सोफ़े के पास लेटकर बल्ब के जले होने से परेशान, सो नहीं पा रहा हूँ. इस मौके पर अब मेरे लिए इन तीनों में भेद कर पाना मुश्किल है. सम्भव है यह सब कुछ एक धोखा हो. यह कहानी नहीं, एक फ़िल्म की पटकथा हो, नहीं यह एक फ़िल्म की पटकथा भी नहीं, किसी नीरस डॉक्यूमेंट्री का स्केच वर्क हो! इस स्क्रिप्ट को जब फ़िल्माया जायेगा तब एक भयानक दुनिया खुलकर बाहर आएगी जो हमसे न जाने कबसे छिपी हुई थी, जो हमसे न जाने कितनी ज़रूरी बातें छिपायी हुई हैं या क्या पता सब कुछ सच हो?
….और आप अगर अभी भी यह सब साफ़-साफ़ देख पाने में अक्षम हैं तो अपनी आंखें फोड़ लीजिए.
_______
# यह कथन शैलेन्द्र सिंह राठौर का  है.    

आदित्य
कुछ कविताएँ, कहानियाँ, अनुवाद और गद्य प्रकाशित 
shuklaaditya48@gmail.com
Tags: कहानी
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