‘मुझे लाके कोई दे
‘कुम्हार कुम्हला चुके हैं. ठठेरा अपना ठिया उठा चुका है. हाथ का हुनर उड़न-छू हो रहा है .’
ममता कालिया
दो महीने जापान के टोकोनामे, क्योतो में रहकर, ओसाका कला संग्रहालय, शिगाराकी सिरेमिक पार्क, हौण्डा सिटी नागोया और टोक्यो देखा. वरिष्ठ कलाकार व गुरु तुल्य श्री शोईची ईदा के साथ रहकर विभिन्न माध्यमों में उनके कलाकर्म व कला-दृष्टि व परिपक्व सौन्दर्य बोध को नज़दीक से देखा. यह यात्रा कई मायने में मेरे लिये बहुत बड़ी सीख की तरह है. उस वक़्त कम ही लिखना हुआ पर श्री ईदा के साथ उनके स्टूडियो में काग़ज़, रंग व मिट्टी के प्रति उनके लगाव व कला माध्यम की तरह बर्ताव को देखना मेरे लिये उच्च कला अध्ययन की तरह ही रहा.
जापानी कला की सरलता में बसे घने सौन्दर्य की सादगी के महत्त्व व उसमें छिपी अध्यात्म की ख़ुशबू को महसूस करना एक दिव्य अनुभव है और जहाँ भी जाता हूँ इस सौन्दर्य के अन्तरराष्ट्रीय स्वीकार्य को महसूस करता हूँ. महीन हस्तनिर्मित काग़ज़ की परतों पर उन्हें कई तरह के औज़ारों के साथ काम करते हुए देखना काग़ज़ की एक नयी कलात्मक परिभाषा को देखने की तरह रहा. काग़ज़ मानो हमारी मानवीय संवेदना को समेटे हुए इस संसार व इस पृथ्वी का एक पतला, महीन व नज़रअंदाज़ न किये जा सकने वाला एक छिलका हो.
श्रीलंका में ‘पराक्रम समुद्र’ नामक एक बड़े तालाब के किनारे देर तक ठहरना व जंगल में से होकर गुज़री सड़क के किनारे घनी झाड़ियों में हाथी के एक झुण्ड को देखना एक प्राकृतिक अनुभव रहा है.
कलाकार मित्रों को आज भी जब पत्रा लिखता हूँ तो वह भी हृदय की ही डायरी की तरह है जिसे मैं सांझा करता हूँ, कैनवास पर रंग लगाता हूँ वह भी एक तरह का लिखना ही है.
अपने आलसी स्वभाव के कारण मैं कई महत्त्वपूर्ण यात्राओं के बारे में अब भी नहीं लिख पाया हूँ पर पोलैण्ड में देखें ‘मृत्यु शिविर’ के बारे में चाहते हुए भी नहीं लिख पा रहा हूँ. ओश्वित्सि (ओशविण्च) में पारदर्शी शीशे के बॉक्स में रखे इतने बालों को मैंने एक साथ कभी नहीं देखा था. अनगिनत छोटे-बड़े चश्मों को भी और छोटे-बड़े जूते-चप्पलों का भी इतना बड़ा ढेर पहले कभी नहीं देखा था. यहाँ यह सब देखकर अवसाद की जो सिरहन पूरी देह में बही उसका प्रभाव अब तक बना है और इस अनुभव के बारे में सोच कर ही अवसाद गहरा जाता है. इतना मायूस कर देने वाला दृश्य पहले कभी नहीं देखा. कितने हज़ारों-लाखों लोगों को, एक ज़िद के आक्रोश ने, मृत्यु-द्वार तक अमानवीय ढंग से पहुँचाया इसका हिसाब कोई गणितज्ञ ही लगा सकता है. तकनीक का प्रयोग भी इस नृशंस हत्या में किया गया है. डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों ने भी इस काम में अपने-अपने हुनर का इस्तेमाल किया है जबकि काम यह है कि तकनीक, विज्ञान और विद्या मानव की भलाई के लिये हैं पर विज्ञान ही है जो बन्दूक, तोप और मिसाइलें भी बनाता है. आत्म-सुरक्षा से हटकर यह असला, बारूद, दम्भ या खिलौना बन जाते हैं और पूरी मानव-जाति को शर्मसार करते हैं.
ताइवान में अपने सिरेमिक रेज़िडेंसी प्रवास के दौरान लिखना, साइकिल चलाना व ताओती सीखना नियमित जारी रख सका और आज जब वह वर्णन पढ़ता हूँ तब आश्चर्य होता है कि मैं इतना कुछ कैसे लिख सका. इतने देशों की यात्रा करने के बाद यह लगता है कि हमें अपने आकार पर अब ध्यान देने व अपने देश के बड़े भूगोल का गुणगान करने के बजाय समाजशास्त्रा व ज़रूरी सेवाओं के बेहतर उपयोग के बारे में कुछ प्रचार-प्रसार के अलावा गम्भीर काम भी करना चाहिये. दूसरे देशों की नगर पालिकायें भी अपने बजट में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के महत्त्वपूर्ण कला आयोजन करती हैं. उनके महापौर व अधिकारी यूँ सहज आम नागरिक की तरह सत्ता के आडम्बर से दूर रहते हुए अपना काम करते हैं. यह बात हमें अपनानी चाहिये. छोटे देशों में क़ानून, सुरक्षा व स्वास्थ्य सेवाएँ कैसे अच्छे से काम कर पाती हैं. अपने लालच व भ्रष्ट व्यवस्था से मुक्ति पानी चाहिये.
श्रीलंका, नेपाल, थाईलैण्ड, लातविया, इण्डोनेशिया व भूटान आदि हमारे पड़ोसी देशों से हमें सीखना चाहिये. इन देशों में स्कूली शिक्षा के स्तर बेहतर और सस्ते हैं. हमारे देश में शिक्षा व चिकित्सा व्यवस्था नागरिक को स्वयं अपनी जेब के मुताबिक ख़रीदनी पड़ रही है. शासन की न दूरसंचार सेवा में लोगों का विश्वास रह गया है न ही सरकारी स्कूलों और अस्पतालों पर यक़ीन है. शायद जब तक सरकारी अधिकारी व नेता स्वयं शासकीय स्कूलों में अपने बच्चों को नहीं पढ़ायेंगे तथा ख़ुद का इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं करायेंगे या जब तक वह तथा अन्य सेलिब्रिटी पब्लिक यातायात साधनों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तब तक परिवर्तन नहीं आ सकेगा.
कुम्हार कुम्हला चुके हैं. ठठेरा अपना ठिया उठा चुका है. हाथ का हुनर उड़न-छू हो रहा है और इनको पोसने व बढ़ाने वाली संस्थाओं की संख्या व उनके बजट बढ़ रहे हैं. कभी मौक़ा नहीं आया पर मैं परिवार नियोजन मन्त्रालय से यह पूछना चाहूँगा कि जब से यह विभाग जनकल्याण के लिये बना है तब से जनसंख्या वृद्धि की दर कम हुई है या अधिक? जैसा अभी हुआ इस तरह का विषयान्तर भी होता रहता है.
अपनी दूसरी काठमाण्डू और पोखरा यात्रा के बारे में भी नहीं लिख पाया हूँ. पोखरा में हिमालय की ‘फिश टेल’ माउण्टेन पोखरा प्रवास के समय लगभग हर दिन देखी. पहले दिन बादलों के पीछे छिपी इस पहाड़ी को हम अपने चित्राकला शिविर के आकाश में नहीं देख सके पर ज्यूँ ही बादल छटे और ‘फिश टेल’ माउण्टेन की बर्फ़ीली चोटियाँ देखीं तो मन रोमांच से भर गया था.
भाषा का यह प्रभाव शुभ है. यहाँ के मन्दिरों को भूकम्प ने बहुत बड़ा झटका दिया है पर उसका पुनरुद्धार देख यहाँ के काम की प्रशंसा करना लाज़मी है. लकड़ी पर यहाँ की महीन कारीगरी शिल्प में एक नयी आत्मा व ऊर्जा भरती है. हर शाम भोजन के वक़्त नेपाली लोक नृत्य का भी अनुभव आनन्ददायी रहा है. नेपाल में पारम्परिक नेवारी भोजन का ज़मीन पर बैठकर आनन्द भी अद्भुत रहा. कलाकार मित्रा एरिना के पिता की बर्तनों की दुकान पर हम कलाकारों का समूह देर तक ठहरा रहा. वहाँ से सभी ने ख़ूब ख़रीदारी की. पीतल, ताम्बे और कांसे के बर्तन यहाँ सुन्दर हैं. लोटे और घड़ों की लम्बी गर्दननुमा डिज़ाइन आकर्षक है.
ताइवान, जर्मनी, पोलैण्ड, सरबिया, थाईलैण्ड, नेपाल, श्रीलंका, लिथुआनिया, लातविया और चीन आदि की अपनी कला-यात्राओं में मैंने वहाँ गाँधी जी के विचारों की साक्षात् उपस्थिति देखी है. इन देशों में नागरिक सुरक्षित हैं. अपनी सुरक्षा के प्रति उन्हें अपनी इतनी ऊर्जा व समय नहीं लगाना पड़ता है जितना कि हम लगाते हैं. सहजता, सरलता व सादगी पसन्द समाजों में गाँधी दर्शन सुखद अनुभव है. वहाँ समाज में अनावश्यक आडम्बर व झूठ का बोलबाला नहीं है. हमारे समाज में जात-पात व दिखावा मानो एक अहम् गुण है.
अब सोचता हूँ तो गाँधीजी की दूरदर्शिता पर आश्चर्य होता है. शायद गाँधीजी जानते थे कि आज़ादी के बाद भारतीय समाज में हिंसा, असत्य, घृणा व गन्दगी का परचम लहरायेगा. अतः अपने पूरे जीवन में वे प्रेम, अहिंसा और सत्य को हम भारतीयों के लिये दुहराते रहे. हमने उन्हें बापू और महात्मा तो बना दिया पर उनकी बातें स्वीकार नहीं की. अब तो युवा पीढ़ी उन पर चुटकुले गढ़ती है और शिक्षाविदों ने उन्हें महज़ एक खानापूर्ति बतौर किताबों में शामिल किया है. गाँधी और टैगोर अपनी हर विदेश यात्रा में भारत के सुपरमैन की तरह मैंने देखे हैं. टैगोर की कविता भारत को सम्मान दिलाती है तथा गाँधी की सादगी विदेशियों को चौंकाती है. हमारे पाखण्ड पर कभी मुझे हैरानी होती है. रक्षाबन्धन जैसा अनूठा व महत्त्वपूर्ण त्यौहार हमारे यहाँ है. शक्ति, धन, कला, प्रकृति, बल, विद्या आदि सभी महत्त्वपूर्ण स्त्रोत देवी या माँ के रूप में हम मानते हैं फिर भी स्त्रियों के प्रति सम्मानीय दृष्टिकोण का हमारे समाज में गहरा लोप है. मेरी यात्राएँ सिर्फ़ बाहरी भूगोल की नहीं हैं अपितु भीतरी विस्तार, समृद्धि व दृश्य परिपक्वता का एक सुन्दर बहाना है. मेरे कवि-मित्रा व पड़ोसी पीयूष दईया ने जब मेरी ये हस्तलिखित डायरियाँ देखीं तो वे इसे किताब का रूप देने में तल्लीन हो गये. उन्होंने ही ख़ुद कला व साहित्य जगत् के महत्त्वपूर्ण रज़ा न्यास के अन्तर्गत ‘‘रज़ा पुस्तक माला’’ के लिए इस पुस्तक का छपना तय किया है. इस पुस्तक के प्रकाशन का श्रेय उन्हीं को जाता है. मेरे लेखन के नैरन्तर्य में वे एक अच्छे पड़ोसी की तरह उत्साहवर्धन करते व ढाढस बाँधते रहते हैं. उम्मीद करता हूँ कि मेरा लिखा युवा कलाकारों व पाठकों को और बेहतर लिखने के लिये उकसायेगा.