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श्रीवन
विक्रम मुसफ़िर
प्रकाशक : आधार प्रकाशन एस.सी.एफ. 267
सेक्टर-16 पंचकूला
मूल्य: 150
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विक्रम मुसाफ़िर (जन्म 7 सितम्बर, 1981, शिमला) के उपन्यास \’श्रीवन\’ की समीक्षा आलोचक विनोद शाही ने लिखी है. ऐसा कभी कभी होता है कि समीक्षा सृजनात्मक हो और ख़ुद उसे पढ़ना अपने आप में किसी स्वतंत्र साहित्यिक अंश को पढने जैसा लगे.
यह समीक्षा इसी तरह की है.
कहीं अधिक बड़े सच का लिबास है \’श्रीवन\’ का पागलपन
विनोद शाही
\”अनुराधा ने मैत्रेय का नाम श्रीवन रख दिया था. उसे स्कूल में बच्चे मिस्टर फॉरेस्ट कहते थे. उसने सब पेड़ों के नाम लेखकों के नाम पर रख छोड़े थे. दोस्तोवस्की, काफ्का, नीत्शे, प्रूस्त वगैरह-वगैरह.\”
18 वीं सदी के आखिरी पड़ाव को याद कीजिए. यह वह दौर था जब ज्ञानोदय के आखिरी चरण में मानव जाति औद्योगिक विकास के शिखर की ओर उन्मुख थी. नगरीकरण हमारे सामने आधुनिकीकरण और विकास का एकमात्र रूप बनकर प्रस्तुत था. प्रकृति से टूटती हुई यह नई दुनिया खुद को पागलपन की ओर बढ़ता हुआ पा रही थी. वह साम्राज्यवादी होकर बाकी दुनिया पर काबिज़ तो हो रही थी, पर इसी वजह से वह खुद को नैतिक अंतर-विरोधों के कारण अस्तित्व के संकट के रूबरू पा रही थी. पूंजी की दुनिया के भीतर से उपजा श्रम का अजनबीपन विश्व के सामने विकराल समस्या की तरह प्रस्तुत हो रहा था. 18 वीं सदी के आखिरी दौर में प्रकट होने वाले स्वच्छंदतावाद में एक करुणा भरी पुकार आई थी कि हमें जैसे भी हो प्रकृति में वापसी करनी पड़ेगी. वह बात थोड़ी आदर्शवादी थी, लेकिन जल्द ही पूंजी की दुनिया में जिस तरह का अलगाव हमें घेरने लगा था, उसके बाद कुदरती जीवन दर्शन को व्यवहारिक और ठोस रूप में उपलब्ध करने की नई-नई विचारधाराएं हमारे सामने आने लगी थी. वह एक बड़े संकट की घड़ी थी जिससे उबरने में मानव जाति में बड़े-बड़े दर्शनों की ओर रुख किया था. मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और आधुनिकता से जुड़े अनेक दर्शन उसी के भीतर से पैदा हो रहे थे, जिनकी मदद से मानव जाति में दो विश्व युद्धों से उपजने वाले पागलपन से खुद को ग्रस्त हो जाने से बचाने का प्रयास किया था.
अब हम उसी संकट के अगले चरण में हैं. इस अगले चरण पर हालात पहले के मुकाबले में कहीं अधिक जटिल हैं, जो हमें फिर से पागलपन के एक नए ज्वार में धकेल कर बहा ले जाना चाहते हैं. हुआ यह है कि अब मानव जाति के पास प्रकृति में वापसी की संभावना और उम्मीद भी नहीं रह गई है. अब तो बात प्रकृति को ही बचाने और संरक्षित करने तक पहुंच गई है. सवाल यह हो गया है कि अब हम प्रकृति में लौटेंगे भी तो कैसे लौटेंगे ? प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित हो गया है. शुद्ध हवा में सांस लेना तक दूभर होता चला जा रहा है. खाने पीने की तमाम चीजें जहरीली हो रही है. जमीन में रासायनिक पदार्थों की इतनी मिलावट हो गई है कि हवा पानी मिट्टी और आकाश तक कुछ भी प्राकृतिक नहीं बचा है. ऐसे में अब पूरे उत्तर औद्योगिक विकास को ही एक तरफ रख कर प्रकृति की नैसर्गिक जैविकता में छलांग लगानी पड़ेगी. परंतु वह बात हास्यास्पद ही नहीं, हमारी विकास विरोधी सनक या पागलपन जैसी नजर आती है. जब प्रकृति ही हाशिये पर है तो प्रकृति के ज़रिये अर्थपूर्ण होने और उस अर्थ में समाज के भविष्य को तलाशने वाले लोग भला पागल क्यों नहीं समझे जाएंगे .
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(विक्रम मुसाफ़िर) |
ऐसी स्थिति में जब पूरा विकास आख्यान पागल हो रहा हो तो हम एक विधिवत सिलसिलेवार कथा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. जिसे हम समाज का इतिहास कहते हैं, वह अब किसी परंपरागत किस्म के उपन्यास का कथानक बनने से इनकार करने लगा है. अगर इस भूमिका को अपनी निगाह में रखेंगे, तो हम विक्रम मुसाफिर के \’श्रीवन\’ जैसे उपन्यास में उतरने के लिए एक जरूरी भावभूमि में अपने आप को पा सकते हैं. अन्यथा यह उपन्यास हमें \’उपन्यास के अंत\’ की स्थितियों में ले जाकर फेंकने वाले आधुनिकतावादी उपन्यासों जैसा ही कुछ लग सकता है. हमारे दौर में जब बात उपन्यास के अंत की होती है, तो उसका मतलब होता है, उपन्यास का कथानक के कालक्रमिक अंतर्विकास से मुंह मोड़ लेना. ऐसे उपन्यास पढ़ते हुए हमें मुख्य कथा बिखर गई सी मालूम पड़ती है. लगता है जैसे कथा के पास अब उसकी परिणतियां नहीं बची है. इसलिये ये कथाएं बेतरतीब हो गई दिखाई देती है. कथा का यह जो एक खास तरह का पागलपन है उसे हम अपने समय के इतिहास के बेतरतीब होने का परिणाम भी मान सकते हैं. ऐसे में कोई सिलसिलेवार तरीके की, आरंभ मध्य अंत वाली कहानी नहीं कह सकता. तब एक उपन्यास किस की कथा कहेगा?
\’श्रीवन\’ पढ़ते हुए हमें पहला ख्याल यह आता है कि कथा भी एक विचार हो सकती है. क्यों कि कथा समय का आख्यान होती है, इसलिए कथा का विचार हो जाना, समय का पागल हो जाना भी है. ऐसे में अगर कथा नहीं बचती, तो विचार के अंतर्विकास को कथा कहना या समझना एकदम गैर वाजिब भी नहीं लगता. जब बाहर की घटनाएं बेतरतीब हो गई हों, तब भी अर्थ के धरातल पर तो कोई तरतीब बची रह ही जाती है. इस उपन्यास की कथा बाहर की घटनाओं के भीतर गहराई में मौजूद अर्थ की तख्ती को पकड़ने से जुड़ी है. परंतु जब हम सतह को भेद कर भीतर उतरते हैं, तो कुछ भी हाथ न लगने का खतरा भी उठाते हैं.
गहराई में क्या है, इसे जानने के लिए हमें सामाजिक इतिहास के हाशिए पर जाना ही पड़ता है, उस हाशिए पर जहाँ के हालात अराजक ही नहीं विक्षिप्तावस्था की दहलीज तक पहुंचा दिए गए हैं. यह एक दुखद स्थिति है, परंतु इस चुनौती से यह उपन्यास बखूबी मुठभेड़ करता है.
\’श्रीवन\’ के साथ हम एक ऐसे उपन्यास में दाखिल होते हैं, जहां मुख्य कथा के नाम पर बस कुछ बेतरतीब घटनाएं हैं. ये घटनाएं शिक्षा जगत और पत्रकारिता की दुनिया के अंतर्विरोधों के वृतांत के हाशिए पर घटित होती हैं. फिर वे हमें पागलपन की ओर धकेले जा रहे पात्रों की मार्फत उस हाशिये के हाशिये पर मौजूद किन्ही स्थितियों में दाखिल होने का न्योता देती हैं. यह देरिदा के विखंडनवादी अर्थ निर्णय जैसी बात लगती है, जहां मुख्य अर्थ को बेदखल करके ही आप भीतर के अर्थ में प्रवेश कर सकते हैं.
\’श्रीवन\’ के केंद्र में मैत्रेय नाम का एक पात्र है जो किसी विद्यालय में पढ़ाता है. अंग्रेजी का यह प्राध्यापक एक दिन अचानक अपने विद्यालय से इस्तीफा देकर समाज की मुख्यधारा को जैसे अलविदा कहता हुआ निकल जाता है. समाज के हाशिए की ओर जाते हुए उसका पहला पड़ाव एक पहाड़ी इलाके का डाक बंगला है, जो पर्यटकों का सीजन न होने की वजह से इन दिनों वीरान पड़ा है. उस डाक बंगले की देखरेख करने वाला साहिब सिंह उसे इन दिनों भूतों के डेरे की तरह देखता है. वह कहता है कि यहाँ इन दिनों \’हर कमरे में कुछ आत्माएं रहती हैं\’. ऐसी जगह इन दिनों इक्का-दुक्का लोग ही ठहरते हैं. परंतु मैत्रेय उसी जगह को कुछ महीने ठहरने के लिए चुन लेता है. यह पूरी स्थिति समाज की मुख्यधारा के हाशिये को एक कथा-स्थिति में बदल देती है.
इस डाक बंगले में आसपास के गांवों और कस्बों में घटित होने वाली बातें खबरों की तरह उनके सामने आती है. ये खबरें यदा-कदा साहिब सिंह की मार्फत डाक बंगले में प्रवेश करती है. साहिब सिंह किसी बाबरी नाम की महिला के संबंध में कुछ घटनाओं को हमारे सामने लाता है. बाबरी माने एक पागल औरत. इसके बारे में यह बात उपन्यास के आरंभ में सुनाई देती है कि \’अच्छे घर की महिलाएं बड़ी जल्दी पागल बना दी जाती है\’. इस पंक्ति में इस पूरे उपन्यास का आख्यान छिपा है, परंतु उसे जानने के लिए हमें इस पंक्ति को बाद में घटी घटनाओं के संदर्भ में डीकोड करना पड़ता है.
इस उपन्यास की कथा को एक आख्यान इसलिए कहा जाना चाहिए, क्योंकि यह कथानक होने की शर्तें पूरी नहीं करता. यह पूरा उपन्यास अन्यत्र घटी घटनाओं का साक्षी भर बनता है. इसलिए वह हमें उन घटनाओं के आख्यान से वाकिफ कराता है और फिर एक दिन मैत्रेय के उस कमरे को छोड़कर चले जाने के साथ समाप्त हो जाता है. मैत्रेय कहाँ जाता है, इसका पता भी हमें इस उपन्यास से नहीं चलता. बाहरी कथाओं के नाम पर हमारे हाथ उनके कथन मूलक वृत्तांत के अलावा कुछ नहीं लगता. परंतु वह जो हाशिये के हाशिये की कथा है, यानी उस बाबरी औरत की कथा, वह इस पूरी प्रक्रिया के द्वारा केंद्र में आ जाती है और इस उपन्यास को एक गहरे अर्थ से जोड़ देती है.
गौण होने के बावजूद मुख्य हो जाने वाली कथा में बाबरी उस पहाड़ी इलाके में घूमती हुई वहाँ के लोगों के द्वारा पूजे जाने वाले देवी देवताओं को \’उनकी जून से छुटकारा दिलाने\’ की जद्दोजहद में लगी हुई है. उसे लगता है कि गांव के लोगों ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवी देवताओं को अपना बंधक बनाकर रख लिया है. अब देवी देवता खुद छुटकारा चाहते हैं. इसलिए वह उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें नदी में विसर्जित करना चाहती है.
कथा का देवी देवताओं को मुक्त कराने वाला पहलू बहुत क्रांतिकारी मालूम पड़ता है. तथापि इसका एक दूसरा पहलू भी है. उस ओर यह उपन्यास इशारा तो करता है, परंतु खुद को उस पर केंद्रित नहीं करता. हालांकि वह जो छिपा हुआ पक्ष है, वह हमारे सामाजिक यथार्थ की ज़मीन है. पहाड़ी इलाके के लोग बहुत कठिनाई से अपना जीवन यापन करते हैं. तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोध है, जिनके बीच से होकर के वे किसी तरह जीने लायक स्थिति में आ पाते हैं. इस संदर्भ में उपन्यास के कुछ अंश इस तरह हैं :
\”50 साल पहले जब मैं पैदा हुआ गांव में किसी के पास घड़ी नहीं थी, समय सबके पास था.\”
\”गांव के गांव अतिक्रमण वाली जमीन पर बने हैं. पेड़ पशुओं की तरह काटे जा रहे हैं और देवता पशु बलि मांगते हैं.\”
ऐसी स्थितियों का सामना करने की हिम्मत उन्हें अगर कहीं से मिलती है, तो वह इन्हीं देवी देवताओं के माध्यम से मिली हुई मनोवैज्ञानिक सहायता के रूप में उन्हें मिल पाती है. वहाँ गांव के लोग जगह-जगह किनहीं पत्थरों को रख छोड़ते हैं, जिन्हें वे अक्सर पूजते हैं. ये देवी देवता विधिवत मंदिरों में बैठे हुए मुख्य धारा की संस्कृति का केंद्र बन सकने वाले ईश्वर के अवतार नहीं है. ये जन आकांक्षाओं के देवी देवता है, जो पहाड़ों में इधर-उधर कहीं भी धरे हुए मिल जाएंगे. उन्हें बस एक चबूतरा चाहिए, जहाँ वे स्थापित हो सकें. उन्हें हम उनके ऊपर लगे कुछ ऐसे निशानों से ही पहचान सकते हैं जिन्हें पूजा के दौरान उन पर अंकित किया जाता है. उन्हें देखकर ही हमें यह अनुमान होता है कि वे पत्थर नहीं, देवी देवता है. यह संस्कृति का भी एक तरह का लोक पक्ष है. लोगों को इन के ऊपर भरोसा होता है. भरोसा इसलिए होता है क्योंकि इसके अलावा उनके पास भरोसा करने के लिए और कुछ नहीं है. लोकतांत्रिक संस्थाएं यानी स्कूल, अस्पताल या पुलिस थाने ऐसी संस्थाएं हो गये है जिन्हें वे अपने पक्ष में खड़ा नहीं देख पाते.
यदा-कदा ही कोई आदमी ऐसा आता है जो पहाड़ी इलाके की इन संस्थाओं को उन लोगों के लिए निजी कारणों से हितकारी बनाता है. जैसे इधर टिक गया सरकारी अस्पताल का एक डॉक्टर है, \’जो दवाई के लिए मरीज नहीं ढूंढता, अपितु मरीज के लिए दवाई देता है\’. इसलिए उसका भी जगह-जगह से तबादला हो जाता है. वह मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ज़ के निशाने पर रहता है क्योंकि वह उनके मुनाफे को बढ़ाने वाली दवाइयों की पर्चियां नहीं लिखता. आखिरकार उसे इस पहाड़ी इलाके में फेंक दिया जाता है. वह कहता भी है कि उसके \’इतने तबादले हो गए हैं कि अब तो उसका तबादला अरुंधति नक्षत्र वाले उस अस्पताल में कर दिया जाना चाहिए जिसे वह इस पूरे ब्रह्मांड का सबसे बड़ा अस्पताल कहता है\’.
इस उपन्यास के अनेक पात्र ऐसे हैं जो प्रकृति और प्राकृतिक स्वभाव, व्यवहार और नैतिकता से संचालित होकर निजी कारणों से वहां किसी तरह आ कर इकट्ठे हो गए हैं. इनका वहाँ होना समाज की निजी आलोचना की तरह है. इन्हीं पात्रों की मार्फत कथा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हम पाते हैं कि इस कथा के अधिकांश मुख्य पात्र या पागल है या पागलपन की कगार पर है. इस कथा के पात्रों के पागलपन को हम सामाजिक यथार्थ की आलोचना की एक युक्ति की तरह देख सकते हैं.
\”क्या मृत्यु समय की किताब का कोरा पागलपन नहीं है?\”
उपन्यास का मुख्य पात्र मैत्रेय किताबों में डूबा हुआ पात्र है. उसकी सनक इतनी गहरी है कि लगता है जैसे किताबें उसके पागलपन का पर्याय हो गई हों. हालांकि इस पात्र को हम विधिवत पागल पात्र की कोटि में नहीं रख सकते, लेकिन यथार्थ को किताबों की मार्फत देखने समझने की कोशिश वैसी ही है जैसे कि कोई पागल अपने मन की दुनिया के आईने में ही पूरी दुनिया को उतारकर देखने की कोशिश किया करता है. मैत्रेय की कथा में क्योंकि अंतर-विकास नहीं है इसलिए कोशिश की गई है कि समय को ठहरा दिया जाए. कथा समय के साथ आगे बढ़ती है. परंतु डाक बंगले में, जहां मैत्रेय ठहरा हुआ है, समय भी ठहरा हुआ दिखाई देता है. ऐसे में कथा किताबों के समय में प्रवेश कर जाती है और किताबों के जरिए अनेक ऐसी स्थितियों को हमारे सामने रखती है, जिनसे यह भ्रम पैदा किया जाता है कि आख्यान आगे बढ़ रहा है. किताबें इस तरह मैत्रेय के मन के अचेतन की दुनिया की तरह हमारे सामने आती हैं. किताबों को वह अपने चेतन मन का इलाज करने वाले मनोविश्लेषक की तरह देखता है. इस तरह वह खुद अपना इलाज करने वाले पागल की एक अलग ही कोटि का पात्र बन जाता है जो किताबों की उस दुनिया में आता जाता रहता है जो उसके अपने अचेतन मन से मेल खाती है और व्यापक रूप में समाज के सामूहिक अचेतन का आईना भी हो पाती हैं.
\’समय मनोविश्लेषक है और छूट रहा है, जबकि अचेतन मन की तरह वह मृत्यु में विश्वास नहीं रखता.\”
यहां पाते हैं कि अचेतन मन में प्रवेश दरअसल मृत्यु से मुक्ति का एक तरीका है. चेतन मन से जुड़ा संसार इतना क्रूर हो गया है कि वहां मनुष्य हर कदम पर मृत्यु के रूबरू खड़ा हो गया दिखाई देने लगा है. इसलिए अचेतन को सजग तरीके से जीने का प्रयास इस उपन्यास को एक गहरा आयाम प्रदान करता है. यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया जाता है:
\”क्या मृत्यु समय की किताब का कोरा पागलपन नहीं है?\”
अब हम समझ सकते हैं कि यह उपन्यास किताब और मृत्यु के बीच किस तरह के संबंध को देखता है. किताबों को अपना साथी इसलिए बनाया जाता है ताकि मृत्यु को टाला जा सके; उस मृत्यु को जो क्रूर समय की उपज है और जिसे भूलने भुलाने की जरूरत हर वक्त हमारे सामने बनी रहती है:
\”किताबों की समांतर दुनिया में उसने अक्सर किताबों से बातें की थीं.\”
पागलपन में मनुष्य अपने आप से बातें करता है. किताबों के पागलपन में बात किताबों से बातें करने तक चली आती है. फिर इससे किताबी बहस निकलती है जिसका संबंध यथार्थ और अस्तित्व के सवालों को भूलने य, उन्हें स्थगित करने या उनसे निजात पाने से अधिक होता है:
\”जैसे सोचना सांस लेने के लिए एक संघर्ष हो.\”
\”शब्द भी बहुरूपिए हैं. शक्ल बदल कर काम चला लेते हैं.\”
\”प्रश्न से सात कदम आगे रहना उत्तर को उत्तर बनाए रखता है.\”
\”चिंतन उत्तर नहीं है. चिंतन से हमारे प्रश्न और मुखर हो जाते हैं.\”
\”आप जिसे बहस कहते हैं, मैं उसी समय की द्वंद्वात्मक बर्बादी कहता हूं.\”
इन उदाहरणों को समझना हो, तो हमें विवेक के मतलब को समझना पड़ता है. विवेक में प्रश्न और उत्तर के बीच में एक संतुलन होता है. जो आदमी पूर्वाग्रही होता है, वह उत्तर पर अपने आप को केंद्रित करता है और अपने उत्तर को भी सही मानने का दावा पेश करता है. ज्यादातर लोग इसी कोटि के होते हैं. लेकिन जो व्यक्ति खुद को प्रश्न में ही रखने के लिए उत्सुक है और उत्तर से बचता है, वह पागलपन के एक लक्षण की तरह हमारे सामने आता है. वह केवल एक अनिश्चयात्मक द्वंद्व में खुद को झोंके रखना चाहता है और उसे ही यथार्थ का पर्याय मानता है.
सामान्य रूप में हालात इतने अंतर्विरोधपूर्ण है कि वहां सजन नैतिक बोध और प्राकृतिक चेतना वाला व्यक्ति पागल हुए बिना रह ही नहीं सकता है. उपन्यास में एक जगह ऐसी पंक्ति आती है कि \’हालात इतने अधिक संगीन है कि उन में अगर कोई व्यक्ति खुदकुशी नहीं करता तो यह बात हैरान करने वाली है.\” इस उपन्यास में कोई पात्र खुदकुशी नहीं करता है. लेकिन क्योंकि कोई खुदकुशी नहीं करता, इसलिए यहां कई पात्र धीरे-धीरे पागलपन की ओर बढ़ते चले जाते हैं. इस पागलपन पर मृत्यु हमेशा एक छाया की तरह मंडराती रहती है. मैत्रेय को देख कर एक बार आशुतोष के पिता ने यह कहा था :
\”आशुतोष के मरने के बाद तुम्हारी शक्ल उससे मिलने लगी है.\”
\”मैं अपने पीछे शून्य नहीं एकांत छोड़ जाऊंगा.\”
उपन्यास में पागलपन भी कई तरह का है. इसलिये वह कई तरह की समाज-सांस्कृतिक आलोचनाओं का मनोविज्ञान है. मैत्रेय, आशुतोष और अनुराधा समाज के विशिष्ट वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. वे शिक्षित, प्रतिभावान और रचनात्मक हैं. अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक जगह मैत्रेय कहता है कि उसे \’समय में नहीं प्रतिभा ने नष्ट किया है\’. वह एक असफल लेखक है. आशुतोष प्रतिभावान कलाकार है, लेकिन सामाजिक अंतर्विरोधों के प्रति अत्यधिक असंतोष और प्रतिरोध उसे समाज के लिए मिसफिट बनाता है. इस उपन्यास में उसकी एक खास पेंटिंग हमारा ध्यान खींचती है, जिसमें एक बड़ा सा बंद ताला है जो सिगरेट पी रहा है. यह आधुनिक मनुष्य के चित्त का चित्र है. ताला बंद है. वह खुल नहीं पा रहा है, परंतु वह सिगरेट पीता हुआ आधुनिकता के दंभ या दिखावे में जीने की कोशिश कर रहा है. इसे हम आशुतोष के चरित्र की व्याख्या के लिए भी आधार बना सकते हैं. इस तरह के अंतर्विरोध अंततः आशुतोष को नष्ट कर देते हैं. अनुराधा पत्रकारिता व लेखन में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है. परंतु रचनात्मकता की मौलिक अभिव्यक्ति के लिए वहां जगह कम है, इसलिए वह भी लगातार भटकती रहती है. आखिरकार वह पागलपन की दहलीज तक पहुंच जाती है. वह आकाश को देखकर समझती है कि वह उसका आईना है. परंतु साथ ही इस अविश्वास को भी प्रकट करती है कि आकाश यदि आईना है तो उसमें में उसका चेहरा दिखाई क्यों नहीं देता. इस कथा स्थिति मूलक बिंब के अर्थ स्पष्ट हैं. वह विराट मैं जीना चाहती है, परंतु हालात उसे सीमाओ में बांधकर पागल बनाए दे रहे हैं. ये सभी पात्र सत्य की तलाश में निकले हैं, परंतु झूठ के अतिशय प्रभाव के कारण अपनी तेजस्विता को अभिव्यक्ति के लायक नहीं पाते हैं. मैत्रेय को लगता है जैसे झूठ बाजार का चलन है जिसे लोग बैस्ट सेलर की तरह खरीद कर पढ़ते हैं:
\”बेस्ट सेलर क्या है? पहले बहुत बिके हुए को खरीद कर लोग पढ़ना चाहते हैं.\” वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि \”झूठ आवरण है स्मृति का.\” इस झूठ का दूसरा नाम है कॉमन सेंस. और \”पागलपन कॉमन सेंस की अतिवृष्टि है.\” यह सब जानते हुए भी मैत्रेय खुद को किताबें पढ़ने में डूबोए रखता है क्योंकि \”पढ़ना भूलने भुलाने की तरकीब है.\” पढ़ते रहने के इस दुष्चक्र से उबरने के लिए मैत्रेय और अनुराधा इस सलाह पर अमल करने की कोशिश करते है कि उन्हें खूब लिखना चाहिए. परंतु जब बात लिखने की आती है, तो वे पाते हैं कि \”जिसे अंत की फिक्र नहीं होती, वह कविता पूर्ण होती है.\”हमेशा के लिए अपूर्ण रह जाने की स्थिति को स्वीकार करने का मतलब है पागलपन की ओर रुख करना, क्योंकि इस स्थिति का समाधान उन्हें इस बात में लगता है कि \”पागल दुखी नहीं होते. वे दुनिया के जंजाल से दूर होते हैं.\” इस दुनिया में पागल सुखी है क्योंकि वे कुछ एक शब्द या वाक्य को सदा दोहराते रह सकते हैं और उनका काम चल जाता है. इसलिये वे इस सूत्र वाक्य को सत्य के पर्याय की तरह स्वीकार कर लेते हैं कि \”एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से द्वार खुलता है.\” नतीजतन बाहर की दुनिया में अपने लिए माकूल अभिव्यक्ति न पास रखने की वजह से वे अपने भीतर ही भीतर घुटकर अंतर्मुखी हो जाते हैं. इस तरह उनकी प्रतिभा उन्हें सत्य के करीब ले जाने की बजाय उस पागलपन में धकेल देती है, जहां शून्य से प्रकट होने वाले निर्वाण की वजह एकांत अराजकता का साम्राज्य है. मैत्रेय कहता है:
\”मैं अपने पीछे शून्य नहीं एकांत छोड़ जाऊंगा.\”
उसे लगता है कि \”एकांत प्रेम का प्रतिद्वंद्वी है.\” यह दोनों अगर बेकाबू हो जाएं, तो इन दोनों के भीतर से पागलपन में उतर जाने के लिए रास्ता खुल सकता है. अनुराधा प्रेम के भीतर रहती हुई पागलपन की ओर जा रही है तो मैत्रेय प्रेम से दूर भागता हुआ अपने एकांत के माध्यम से पागलपन की ओर रुख कर रहा है. .यह जो इस तरह का पागलपन में ले जाने वाला एकांत है, उसे वह \”प्रत्यभिज्ञा का विकल्प\” कहता है और इस तरह वह अपने निर्वाण को स्थगित रखने का एक बहाना पा लेता है.
\’श्रीवन\’ को हम पागलपन के ऐसे विमर्श का उपन्यास कह सकते हैं, जिसका अर्थ तब खुलता है जब हम उसे प्रकृति की सहज और नैसर्गिक सामान्य दशा के बरअक्स रख कर देखते हैं. यह ऐसा पागलपन है, जिस में एक खास तरह की सच्चाई है. उस सच्चाई को जीने लायक बनाने के लिए इस उपन्यास के पात्र उसे अपनी सनक या जुनून की करीबी स्थिति बना लेते हैं. लेकिन इस प्रक्रिया में वे खुद समाज के हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं. इसलिए उन्हें ऐसे पागलपन की ओर उन्मुख पात्र कहा जा सकता है, जो विशिष्ट कोटि के पात्र है परंतु अविशिष्ट होते हुए हमारे सामने आते हैं. शहरी जीवन की विशिष्टता को खोकर वे प्रकृति और सत्य के करीब आने की कोशिश करते हैं. वे उन आम लोगों से अलग तरह के हैं जिन्हें सामान्य जीवन दशाओं के अंतर्विरोध सहन नहीं कर पाते. इस कोटि में बाबरी औरत आती है जो कभी ठाकुर परिवार की बड़ी बहू थी.
ठाकुरों का सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा अहम् और निम्न तबकों के प्रति उनकी असहिष्णुता बाबरी के सामान्य मानव हो सकने के रास्ते में रुकावट बन जाती है. बड़े घर की बड़ी बहू की एक सामान्य औरत जैसी भलमनसाहत ही उसे पागलपन की ओर धकेल देती है. ऐसे लोगों के पागलपन को सामान्य कोटि का पागलपन कह सकते हैं.
इस तरह हम पागलपन की दो मनोवैज्ञानिक कोटियों को इस उपन्यास में देखते हैं. एक बावरी औरत जैसे पात्रों की कोटि है जो सामान्य जीवन जीने की कोशिश में असफल होने की वजह से असामान्य बना दिए जाते हैं, तो दूसरी अनुराधा, मैत्रेय और आशुतोष जैसे विशिष्ट होने का प्रयास करने वाले लोगों के आंशिक पागल होने की कोटि है, जो उत्तराधुनिक बौद्धिक दुनिया में अधिक नुमाया होकर सामने आने लगी है.
अपनी सामान्य किस्म की माननीय नैतिकता की रक्षा न कर पाने की वजह से बाबरी, उस सामान्य नैतिकता की रक्षा करने वाले देवी देवताओं को डुबोने में लगी हुई कथा के आरंभ में ही दिखाई दे जाती है. इस तरह वह इस उपन्यास में पहाड़ी देवी देवताओ के विलोम के रूप में प्रस्तुत एक प्रति-देवी मालूम पड़ती है.
\”उसे (मैत्रेय को) लगा, पागल औरत, गालियां और देवी देवता पर्यायवाची है.\”
परंतु देवी देवताओं को डुबोने की बात को एक अपराध मान कर इस बाबरी को लोगों के द्वारा पकड़ लिया जाता है. देवी देवता बरामद हो जाते हैं. उन्हें यथा स्थान वापस स्थापित कर दिया जाता है और उस पागल औरत की इतनी पिटाई की जाती है कि वह मरणासन्न स्थिति में पड़ी रह जाती है. उसकी उस स्थिति पर करुणार्द्र डाक बंगले का देखरेख करने वाला साहिब सिंह उसे डाक बंगले में उठा लाता है. उसका इलाज करने के लिए झोला उठाने वाला वही डॉक्टर आता है जो खुद भी हाशिए पर पङ़ा है. इलाज बाबरी का होता है, हालांकि असल में इलाज उनका होना चाहिए जिनकी बाबत लेखक ने कहा है कि
\”पहाड़ी लोग भीत भीत छींक छींक देवी देवता जनते रहते हैं.\”
और इलाज उस डाक बंगले में रहने वाले मैत्रेय का भी होना चाहिए जो किताबों के प्रति अपनी सनक के कारण पागलपन के बहुत करीब आ गया प्रतीत होता है. वह हर समय किताबों में अपने आप को खोजता रहता है. वह जिंदगी से ज्यादा किताबों में सुकून पाता है. उसे हम इस कथा का मुख्य पात्र कह सकते हैं क्योंकि उसकी प्रेमिका अनुराधा उसे ही श्रीवन कहती है. उसने यह नाम उसे इसलिए दिया है क्योंकि जिस स्कूल में पढ़ाता था वहां के बच्चे उसे मिस्टर फॉरेस्ट कहते थे. मिस्टर फॉरेस्ट कहलाने के पीछे कारण यह था कि मैत्रेय ने वहां मौजूद पेड़ों के नाम बड़े-बड़े लेखकों के नाम पर रख छोड़े थे. इस तरह मैत्रेय प्रकृति पर किताबों को आरोपित करने वाले पात्र के रूप में हमारे सामने आता है. वह सीधे प्रकृति से रिश्ता नहीं बना पाता. उसकी पूरी जद्दोजहद ही इस सवाल का जवाब खोजने की है कि प्रकृति से उसे जोड़ने में किताबें और उनकी भाषा ही उसकी मदद क्यों करती है. इसलिए वह एक जगह जाकर यह महत्वपूर्ण सवाल भी उठाता है कि \’क्या वह पहाड़ को पहाड़ शब्द को बीच में लाए बिना देख सकता है या नहीं ?\’
\’सावित्री को नदी की गहराई में बसने वाली स्त्री होना पड़ता है\’
वह इतना अधिक भाषाग्रस्त व्यक्ति है कि हर जगह हर स्थिति को वह किताब के भीतर से देखना समझना और पहचानना चाहता है. उसने इस उपन्यास में बड़े-बड़े विषयों के ऊपर बड़ी-बड़ी बहसें की है, परंतु कहीं भी उसका अपना मत हमारे सामने नहीं आता. हर जगह वह बड़ी-बड़ी किताबों के बड़े-बड़े उद्धरण अपने विचार के रूप में प्रस्तुत करता है और फिर खुद ही उन विचारों को भी ले आता है जो पूर्वप्रस्तुत विचारों का खंडन करते हैं. इसलिये वह पढ़ने पढ़ाने से ताल्लुक रखने वाली पाठशाला से इस्तीफा देकर \’पढ़े हुए से मुक्ति दिलाने वाली पाठशाला\’ खोजता है. \’इस तरह लेखक ने उसे खुद का खुद ही खंडन करने वाले किताबी पात्र के रूप में चित्रित किया है. यह पात्र लगता है जैसे वाल्ट व्हिटमैन की \’सॉन्ग ऑफ माइसेल्फ\’ की पहली पंक्ति से निकलकर हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है. वह पहली पंक्ति है, \’डू आई कंट्राडिक्ट मायसेल्फ\’.
यह बात अमेरिका में 19 वी सदी के आखिरी चरण में तब कहीं गई, जब औद्योगिक क्रांति के कारण प्रकट हुए नगरीकरण का लाभ उठाने वाले लोग प्रकृति की बात करते हैं. जब वे ऐसा करते हैं तो दरअसल वे अपने विरोध में जाकर खड़े होने का प्रयास कर रहे होते हैं. जिसे हम \’मैं\’ कहते हैं वह सामाजिक विकास और प्रगति के विरोध में जाकर खड़ा हो गया मालूम पड़ता है. परंतु यह जो अंतर्विरोधपूर्ण व्यक्तित्व है, यह औद्योगिक समाज की उपज था. हमारे समाज में इस तरह के पात्र अब कोई अर्थ नहीं रखते. इसीलिए मैत्रेय नामक यह पात्र हमें समाज के हाशिए पर जाता हुआ दिखाई देता है. वह अपनी बात को ठीक से कह भी नहीं पा रहा है. उसके आसपास के सभी शुभचिंतक उसे यही सलाह देते हैं कि यदि उसे अर्थ पूर्ण होना है तो उसे अपनी अनुभूतियों को लिखना होगा. परंतु वह जो कुछ भी लिखता है, अधूरा छूट जाता है. वह कहता भी है कि उसकी लिखी हर कहानी अधूरी रह जाने के लिए अभिशप्त है. इसीलिए यह उपन्यास भी इस पात्र की एक अधूरी रह जाने के लिए अभिशप्त कथा ही है. इस संदर्भ में उपन्यास का निम्न उद्धरण अर्थपूर्ण है:
\”ब्रह्मांड परमाणु से नहीं, कहानियों से निर्मित है. मैं कहता हूं दोनों से नहीं, मुझसे भी नहीं, इसलिए मैं कोई कहानी नहीं लिख पाया .\”
इस पात्र का नाम मैत्रेय है, जो गौतम बुद्ध का दूसरा नाम है. इसे हम इस पात्र के सांस्कृतिक आदर्शीकरण के लिए लाई गई युक्ति की तरह देख सकते हैं. कुछ अन्य पात्र उसकी तुलना बुद्ध से करते भी हैं. अनुराधा एक जगह उसे कहती है कि तुम \’बुद्ध इसलिए नहीं हो सकते क्योंकि तुम बुद्ध की तरह भिक्षा नहीं मांग सकते\’. जिस समाज में बुद्ध हुए वहां अहंकार को नष्ट करने का रास्ता उन्हें भिक्षुक बन जाने के भीतर से निकलता दिखाई दिया था. परंतु हमारे समय में भिक्षा मांगना भी एक व्यवसाय में बदल गया है. बुद्ध का भिक्षुक होना एक राजपुरुष का भिक्षुक होना था, जो अहंकार से मुक्ति पाने का उपाय हो सकता था. जबकि हमारे समय में भिक्षुक होना अकर्मण्यता या अभाव ग्रस्तता से उपजी आत्मग्लानि से बच पाने की व्यवस्था अधिक हो जाता है. इसलिये हमारा समय अब किसी भिक्षुक को बुद्ध नहीं बनाता. वह मैत्रेय को भी बुद्ध नहीं बना पाता. नतीजतन वह अपने \’अव्यक्त\’ बने रह जाने की कुंठा या ग्रंथि का शिकार पात्र बनकर रह जाता है. अपनी इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक जगह वह यह सवाल उठाता है कि :
\”क्या हम अव्यक्त की खुलती गांठ है, जो खुलते ही नहीं रह जाएगी?\”
यह मैत्रेय की त्रासद नियति है कि वह अपनी किताबों की दुनिया में खोया खोया अक्सर अव्यावहारिक किस्म के प्रतिरोध तक चला जाता है. इस वजह से एक दफा वह पुलिस की तफ्तीश का सामना कर चुका है. दूसरी दफा वह फिर से उस बावरी औरत के साथ की गयी लोगों की मारपीट के खिलाफ पुलिस में रपट कराना चाहता है, परंतु वे लोग जो बाबरी औरत का इलाज करने में रुचि रखते हैं, वे भी उसके पक्ष में खड़े होकर पुलिस तक जाने की बात से सहमत नहीं हो पाते. वे जानते हैं कि बाबरी औरत को कानूनी न्याय दिला देने की स्थिति में भी सामाजिक न्याय मिलने की कोई सूरत बाकी नहीं बची है. ऐसी स्थिति में मैत्रेय इतना ही कह पाता है कि उसका किताबों से भरा झोला ही एकमात्र ऐसी चीज है जो उसका अपना है, उसके अपने व्यक्तित्व का पर्याय, \’जो कंधा नहीं बदल सकता\’. इसका मतलब यह भी है कि उस जैसा और कोई व्यक्ति नहीं हो सकता. यह एक खास तरह का व्यक्तित्व मूलक अहंकार है. इस अव्यक्त किस्म के अहंकार की पुष्टि करने के लिए वह यह कहता है कि अगर वह किसी दिन खो जाए या मर जाए, तो उसके \’झोले को पहाड़ी प्रदेश के सबसे ऊंचे देवदार की सबसे ऊंची टहनी पर टांग दिया जाए\’. यह जो मरने पर भी ऊंचा उठे रहने से जुड़ी इच्छा है. वह बात उसके अधूरे और पर्याप्त होने के आख्यान को अचानक हमारे सामने बेनकाब करके छोड़ जाती है.
ऐसे में हमारे पास इस पूरी कथा में सिवाएं उस बाबरी औरत की कथा के और कुछ भी बचा हुआ दिखाई नहीं देता. बाबरी ठाकुर परिवार की बड़ी बहू के रूप में संघर्षशील महिला के रूप में हमारे सामने आती है. उसके पिता एक मंदिर में जाकर इसलिए वापस चले आते हैं क्योंकि वहां चमड़े के जूते या बेल्ट पहनकर जाने की मनाही है. वे सवाल उठाते हैं कि वे अपनी देह के चमड़े को बाहर छोड़कर भीतर कैसे जा सकते हैं ? प्रतिरोध की यह चेतना उसके व्यक्तित्व में उसे वंश गत संस्कारों से आयी है. परंतु ठाकुर परिवारों के दंभ और अहंकार पूर्ण माहौल में आखिरकार वह अपने लिए जगह निकालने के बावजूद खुद को हाशिए पर पाती है. जो जगह वह निकालती है वह यह है कि वह निम्न जाति के लोगों के प्रति थोड़ा सद्भावना पूर्ण व्यवहार करती है. यह बात ठाकुरों को अखर जाती है और वे उसे अपने घर से निकाल कर मायके भेज देते हैं. उसका पति पहले से ही एक नाचने गाने वाली औरत को सरेआम घर ले आया है और उसी के साथ रहता है. मायके भेज दी गई यह स्त्री रास्ते में नदी के उफान पर आने की वजह से एक निम्न जाति के घर में पनाह लेती हैं, जिसे उसका चारित्रिक दोष मान लिया जाता है. कुछ दिन बाद उस निम्नजाति के पात्र की हत्या हो जाती है. वह अपने मायके की ओर जाती है तो मायके वाले भी उसे अपने घर में वापस लेने से किसी तरह मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे हृदय विदारक हालात का सामना कर पाने में खुद को असमर्थ पाने की वजह से आखिरकार वह पागल हो जाती है. जिस तरह का निष्पाप और समर्पित जीवन इस बड़ी बहू ने जिया होता है, उसकी वजह से उसका खुद को सावित्री समझना उचित ही है. परंतु हालात ऐसे हो गए हैं कि उस \’सावित्री को नदी की गहराई में बसने वाली स्त्री होना पड़ता है\’ . वह सतह को देखने वाले समाज से परे अपने अचेतन मन की नदी की गहराई में चली जाती है. बाबरी का यह अचेतन, अब इस समाज की सतही नैतिकता और उसके पर्याय देवी-देवताओं से बदला चुका रहा है. वह उसे उसके देवी देवताओं के साथ जीने देने के लिए राजी नहीं है. इसलिए वह जैसे ही फिर से ठीक होती है, इस उपन्यास के अंत में पुवः एक बोरी में उस पहाड़ी इलाके के तमाम देवी-देवताओं को भर लाती हैं और भरी हुई नदी में उन्हें विसर्जित करने में सफल हो जाती है.
पहाड़ी इलाके के देवी देवताओं को नदी में फेंक देने का अर्थ यह है कि ऐसा करके बावरी सामाजिक अंतर्विरोधों और सांस्कृतिक पाखंडों को नदी में विसर्जित प्रवाहित कर देती हैं.
मैत्रेय इस बावरी औरत के साथ हुए अन्याय के खिलाफ रपट लिखाने के लिए जाता है परंतु लौटकर नहीं आता. उसका कहीं कोई पता नहीं चलता. उस से ताल्लुक रखने वाला अगर कुछ मिलता है तो वह एक मफलर है, जिस पर लहू के कुछ निशान हैं. आखिरकार उसे मरा हुआ मानकर उसके झोले को देवदार की ऊंची टहनी पर टांग दिया जाता है. वह प्रकृति को सबसे ऊंचा मानने से जुड़ा एक मृत्यु ध्वज है. मैत्रेय केवल एक प्रतीक है जिसे प्रकृति के सबसे ऊंचे स्थान पर एक पताका के रूप में फहराना चाहिए, परंतु उसके पास एक आकाश तो है पर कोई जमीन नहीं है. क्योंकि उसके पास कोई जमीन नहीं है, तो इसका तात्पर्य यह है कि अभी हमारा समाज प्रकृति को इस प्रकार इस रूप में इतनी ऊंची जगह देने के लिए तैयार नहीं है. यह उपन्यास इस बड़े विमर्श के लिए एक भूमिका बनाता है. यह बात बहुत अर्थ पूर्ण ही नहीं भविष्य के लिए संभावनाओं से युक्त भी मानी जा सकती है.
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