शिल्पकार शम्पा शाह का लोक और आदिवासी कलाओं पर आधारित लेखन भी महत्वपूर्ण हैं. काँगड़ा चित्र-शैली की विशेषताओं पर यह लेख बारीकी से उसकी विशेषताओं को उद्घाटित करता है.
प्रस्तुत है.
काँगड़ा चित्रकला
प्रेम की उदात्त कला
शंपा शाह
उस रोज बाहर मूसलाधार पानी बरस रहा था. कागज की नाव को नाव समझते, इससे पहले ही वह पिचक कर बह जाती थी. साबुन के बुलबुले भी खिड़की से बाहर न जाकर कमरे में लौट-लौट आते थे. बुलबुलों के हाथ, नाक पर फूटने का रोमांच भी अब खत्म हो चला था. तीन दिन से लगी वर्षा की झड़ी और उसके चलते हुई स्कूल की छुट्टी का उत्साह भी पापड़ सा सील चुका था. अनमना मन घर के कमरों के चक्कर लगा रहा था कि तभी नजर सामान्य से बहुत बड़ी एक पुस्तक पर पड़ी जिसके मोटे सुनहले अक्षर बारिश के अंधेरे के बावजूद चमक रहे थे. उस पर लिखा था ‘काँगड़ा पेन्टिंग्स’.
किताब में ढेर सारे चित्र थे. चित्र में पेड़ों की पत्तियाँ इतनी महीन थी कि उन्हें भली भाँति देखने के लिए मुझे पुस्तक बरामदे में ले जानी पड़ी. चित्रों में पेड़, पहाड़, गायें, गोप-गोपियाँ सबसे जैसे एक उजास फूट रही थी. इतने सुन्दर चित्र इसके पहले मैने कभी देखे ही नहीं थे. गोप-गोपियों के चेहरे तो मेरी दो माह पूर्व जन्मी बहन जैसे मुलायम और गोल-गोल थे. मैं घण्टों उन चित्रों की दृश्यावली में भटकती रही. चित्रों में कुछ समझ में आया या नहीं, पर किसी से कुछ पूछा जाये ऐसा नहीं लगा था. हां, यह मन जरूर कर रहा था कि अपनी नन्ही सी बहन को जगाकर ये चित्र दिखाऊ! घर के भीतर से आवाज आई – ‘‘किताब में घुसकर क्या पढ़ रही हो, आँखें खराब हो जाएगी!’’
वर्षों बाद जब मैंने टॉल्सटॉय का ‘कला क्या है?’ विषय पर लेख और उसमें उनके द्वारा दी गई कला की कसौटी को पढ़ा, तब अचानक बचपन का वह बरसाती दिन मय उस पुस्तक और उसके भीतर के जगमगाते चित्रों के साथ उपस्थित हो गया. तब मुझे समझ में आया कि उस रोज जो मेरे भीतर घटा था, वह कला का जादू था.
टॉल्सटॉय लिखते हैं –
‘‘कला की एक अकाट्य कसौटी , जो उसे नकली कला से अलग करती है वह है दर्शक या पाठक या श्रोता पर उसका संक्रामक प्रभाव. यदि व्यक्ति अपनी ओर से बिना कोई परिश्रम किये और बिना अपने वैचारिक प्रस्थान बिन्दु से विचलित हुए किसी लेखक, कलाकार के काम को देख-पढ़कर उसके अन्तर्मन की स्थिति को और अन्य दर्शकों, पाठकों की भाव स्थिति को प्राप्त कर साझा कर पाता है, तब वह चीज जिसने यह असर पैदा किया वह कला है. यह संक्रामक असर न केवल उस वस्तु के कला होने की कसौटी है बल्कि उस कला की गहराई का सटीक मापक भी है.’’
काँगड़ा या समूची पहाड़ी चित्रशैली के साथ बचपन में अनायास जो संबंध बना था वह वहीं समाप्त नहीं हो सकता था. वर्ष 1995 में मुझे साराभाई फाउण्डेशन, अहमदाबाद द्वारा आयोजित ‘मिनियेचर चित्रों को कैसे देखा जाये’ विषय पर श्री बी.एन. गोस्वामी के मार्गदर्शन में एक दस दिवसीय कार्यशाला में सम्मिलित होने का अवसर मिला. वे दस दिन रस में डूबने उतराने और फिर-फिर डूबने के दिन थे. पहले दिन, पहली ही बात जो बी.एन. गोस्वामी जी ने कही थी वह टॉल्सटॉय की बात के उलट जान पड़ सकती है पर वास्तव में है नहीं. कला के बारे में कही गई ये दोनों बाते अपनी अपनी जगह पर सच हैं. बी.एन. गोस्वामी जी ने दीर्घा में लगे चित्रों की ओर इशारा करते हुए कहा था-
‘‘इन चित्रों का आपके आगे खुलना इस पर निर्भर करेगा कि आप स्वयं इनके पास कितनी ऊर्जा और धैर्य लेकर जाते हैं. कला अक्सर फुसफुसाकर अपनी बात कहती है. इसीलिए उसे देखने-सुनने के लिए बड़ा धीरज चाहिए.’’
मेरे लिए तब यह सर्वथा नई बात थी और आज भी यह एक ऐसी बात है जो चित्र ही नहीं जिन्दगी मात्र के संदर्भ में खुद को बार-बार याद दिलानी होती है.
यूँ तो मिनियेचर चित्रों के अद्भुत संग्रह राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली, इलाहाबाद और बनारस के संग्रहालयों में देखने मिले थे पर वे दीवार पर ऊपर टँगे होते हैं और उन्हें करीब से न देख पाने के कारण देख कर भी देखने की संतुष्टि नहीं होती. दरअसल, ये चित्र दीवार पर टाँगने के लिए कभी बने ही नहीं थे, ये तो वे बहियाँ थीं जिन्हें बड़े जतन से कपड़े में लपेट कर रखा जाता. इन्हें जब देखा जाता तो केवल एक या दो व्यक्तियों द्वारा, एकान्त में, बहुत मनोयोग से ऐसे, जैसे इन चित्रों के नायक-नायिका मिल कर दर्पण देखते हैं. साराभाई फाउण्डेशन में ये चित्र इस तरह से प्रदर्शित हैं कि आप आराम से कुर्सी में बैठकर, पर्याप्त रोशनी में चित्रों को अपने अनुसार सीधा, तिरछा घुमाकर और यहाँ तक कि उन्हें पटल कर भी देख सकते हैं.
काँगड़ा शैली के चित्र अक्सर कलाकारों ने गीतगोविन्द की अष्टपदियों या रसप्रिया, कविप्रिया की पदावली पर एकाग्र हो कर बनाये हैं. चित्र के पीछे कलाकार ने अक्सर उन पंक्तियों को लिखा भी होता है इसलिए उन्हें पलटकर देखने का औचित्य भी होता है. काँगड़ा चित्रकला जयदेव, बिहारी दास, केशव आदि कवियों के काव्यों का एक नई, उतनी ही बारीक किन्तु रंगारंग लिखावट में लिखा जाना है. उन दस दिनों के दौरान और उसके बाद फिर कई-कई बार इन चित्रों के श्रृंगार रस में पगे दृष्यों, पात्रों के भावों-अनुभावों को देखने और स्वयं अनुभूत करने का रोमांच होता रहा है.
इन चित्रों का मूल रंग श्याम है. या कहें श्याम के विविध वर्ण. चित्रों में अक्सर रात का रचाव होता है. जब दिन है भी, तो आसमान में घने काले उमड़ते-घुमड़ते बादलों के रेले हैं जो बारिश से अधिक अंधकार को घेरे ला रहे होते हैं. पेड़ों के आकार भी अक्सर अँधेरे से ही निर्मित और उसी से उजागर होते हैं. पेड़ों की पत्तियों से या उन पर लगी मंजरियों से एक उजास फूटती सी जान पड़ती है किन्तु यह कभी बिजली की कौंध, कभी चाँदनी तो कभी राधा के चेहरे के उजास को प्रतिबिम्बित करती उजास है. कवि जयदेव के गीत गोविन्द की शुरूआत भी इसी अंधकार से कृष्ण के आकुल-व्याकुल हो उठने से होती है. कृष्ण खुद को चारों ओर से अपने ही रंग से घिरा पाकर घबरा उठते हैं और तब स्वयं नन्द राधा से कृष्ण को जंगल पार करा कर पहुँचा देने को कहते हैं! काँगड़ा चित्रकारों के साथ यह पद बहुत लोकप्रिय रहा है. इस पद पर आधारित एक बहुचर्चित चित्र में जमुना के किनारे जंगल से गुजरते हुए राधा और कृष्ण की आँखें पहली बार जुड़ती है, और जुड़ती हैं तो ऐसी कि फिर विलगने का नाम ही नहीं लेतीं. एक दूसरे की नजर की गिरफ्त में दोनों बाकी दीन-दुनिया की सुध बिसरा कर खड़े हैं. वे जहाँ खड़े हैं, वहाँ दो पेड़ों से घिरता अँधेरा है. दोनों पेड़ों के तने चित्रकार ने गुत्थमगुत्था बनाए हैं- एक तना काला है और दूसरा राधा की देह-सा उजला.
अन्य स्थानों पर प्रायः पीताम्बर ओढे़ दिखे कृष्ण के कंधे पर काँगड़ा चित्रों में अक्सर धनगर, रबारी आदि पशुपालक घुमंत जनजातियों का काला, मोटा कम्बल भी दिखाई दे जाता है. खास कर जब राधा आपपास हों. अचानक घिर आई वर्षा से यही कम्बल राधा को बचाने के लिए गुफा-सी बना देता है. गोप-गोपियाँ, गायें, आकाश में उड़ते पक्षी आप और मैं सब जानते हैं कि कम्बल-गुफा में प्रेमरस दोनों को किस कदर भिगा रहा है! इन चित्रों में पेड़-लता, गायें सब मिलकर उन दो को ओट दे रही होती हैं जैसे उनके मिलन में ही सबका मंगल होता हो.
अभिसारिका नायिका पहाड़ी शैली के चित्रों में संभवतः सबसे अधिक चित्रित पात्र है. यह नायिका न दिन के उजाले से डरती है, न रात के बनैले अंधकार से. रात के अँधेरों से बनती प्रेत छायाएँ, गरजते मेघ, नायिका के पैरों तले कुचले जाने से बाल-बाल बचे सर्प की फुफकार, कुछ भी तो नहीं डराता उसे ? वह सिर्फ अपने प्रेम की दैदीप्यमान स्मृति से घिरी, रह-रह कर पलट कर देखती, पर अक्चिल अँधकार को चीरती आगे बढ़ती जाती है. सहारा है तो केवल बीच-बीच में चमकती दामिनी का, जो कुछ पलों के लिए जंगल की राह को रोशन कर देती है. आरम्भिक बासौली के चित्रों में जहाँ ठोस अपारदर्शी रंग से ही पार्श्व बनाये जाते थे उसमें अक्सर यह अभिसारिका नायिका, चित्र के आधे दायें भाग में अपने प्रेमी के साथ दिखाई जाती
है, किन्तु, चित्र का बाँया आधा भाग निपट काला होता है जिसमें केवल एक लहराते साँप की कौंध अभिसारिका नायिका की अँधेरी यात्रा की कहानी को पूरा का पूरा बयाँ कर देती है.
काँगड़ा या जिसे पहाड़ी शैली के लघु चित्र कहा जाता है वे अपने पूर्ववर्ती राजस्थानी व मुगल शैली के लघु चित्रों से कई मायने में बिल्कुल अलग हैं.
राजस्थानी व मुगल शैली में राज परिवार के लोगों के चित्र तथा शिकार व युद्ध के दृश्यों का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन होता है. किन्तु काँगड़ा शैली में राज परिवार लगभग नदारद है. यदि वे हैं भी तो प्रेम के खेल में रमे हुए, छुपे हुए. यहाँ चाहे शिव-पार्वती हों, राम-सीता हों, राधा-कृष्ण हों या कि अन्य स्त्री-पुरुष, सब के सब प्रेम-रस से आप्लावित हैं. श्रृंगार के नाना उपाय तो हैं ही किन्तु प्रेम की अनुभूति से उत्पन्न हुआ जो कोमलता का भाव है, उसकी दैहिक व्याप्ति इस चित्रशैली की विशेषता है. यहाँ देहयष्टि अत्यंत सुकुमार, भारहीन और कोमलता को वसन की तरह अंगीकार किये हुए सी लगती है. इन चित्रों के चित्रकार के सम्मुख कोई एक सशरीर माडॅल न होकर मन में दुबकी किसी प्रेमकथा की क्षीण पुकार है. इसी पुकार का आह्वान वह चित्र के फलक पर करता है. एक महीन कुहासा जो कभी चाँदनी से तो कभी अंधेरे से बुना होता है इन चित्रों में प्रेम की गुह्यता को जैसे यथावत बनाए रखना चाहता हैं.
अठारहवीं शताब्दी के मध्य में जन्मी इस चित्र शैली को पुनः खोज निकालने का श्रेय आनन्द कुमारस्वामी को जाता है जिन्होंने 1910 में पहाड़ी चित्रों पर इसी शीर्षक से एक निबंध लिखा था. वे लिखते हैं –
(सोनाबाई रजवार के मिट्टी में बनाए भित्ति चित्र ) ‘‘बिरले ही किसी कला में ऐसी निर्भीकता के साथ ऐसी कोमलता और आनंद की सृष्टि के साथ वैराग्य के भाव को साधा गया है. यदि चीनी कलाकार ने पहाड़ों , झरनों, नदी-ताल के चित्रण के माध्यम से हमें प्रकृति की जीवन्तता का अहसास कराया है तो यह चित्रकला हमें कामभावना को संकुचित रूप में न देखना तो सिखा ही सकती है. क्योंकि यह हमें बार-बार याद दिलाती है कि आनंद की मधुर आत्मा कलुषित होने की हर संभावना के परे है.’’
इन चित्रों को देखते हुए जो भाव दिलो-दिमाग पर छा जाता है वह प्रेम का श्याम नीला भाव ही है. ये रेखाओं और रंगों में निबद्ध प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति का गान है. पं. विद्यानिवास मिश्र ने गीत गोविन्द पर अपनी बेहद रसपूर्ण पुस्तक ‘‘राधा माधव रंग रंगी’’ में एक जगह लिखा है –
‘‘श्रीकृष्ण का भाव नारी की भाव प्रतिमा राधा में ही रसत्व पाता है, और जब पाता है तो विराट लघु की ओर अभिमुख हो जाता है. इस तरह, बिन्दु में सिन्धु की खोज का प्रारंभ गीत-गोविन्द से शुरू होता है. वे इसी बात को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं –
‘‘गीत गोविन्द के बाद तो ऐसे प्रयत्नों की श्रृंखला बढ़ती ही चली गई है- कला में, संगीत में, काव्य में, दर्शन में, सामाजिक आचार में, सर्वत्र किस कदर बाँध दिये गए हैं श्रीकृष्ण प्रेम के दाम (रस्सी) में!’’
वे कभी मीरा को राणा द्वारा भेजे विष के प्याले में घुल स्वयं मीरा में घुल जाते हैं, तो कभी जना बाई के लिए रात रात भर चक्की चलाते हैं. अभी हाल हाल में वे सरगुजा की सोनाबाई रजवार के सूने घर की वास-मिट्टी की जालियों में बैठ, अपना सारा साज-सिंगार त्याग, पीली कालर वाली बुशर्ट और हरी पैन्ट पहने बाँसुरी बजाकर उसे गुंजार कर देते हैं, तो कभी पाटनगढ़, मण्डला के विलक्षण चितेरे जनगढ़ सिंह श्याम की बाँसुरी और कंठ में समा ननकुसिया (स्व. जनगढ़ सिंह श्याम की पत्नी) को रिझा लेते हैं. मुझसे परधान गोण्ड चित्रकार आनंद सिंह श्याम ने जनगढ़ के एक चित्र के संदर्भ में एक बड़ी मार्कें की बात कही है. चित्र को दिखाते हुए वे बोले-
(कृति : जनगढ़ सिंह श्याम) |
‘‘यह कृष्ण का नहीं, जनगढ़ ने स्वयं का चित्र बनाया है या कहिये खुद में कृष्ण को दिखाया है’’. (जनगढ़ के उस चित्र में एक पैर मोड़कर बैठी बाँसुरी बजाती आकृति थी) यह जनगढ़ का ‘खुद में कृष्ण को देखना’ ही तो बिन्दु में सिन्धु की अपूर्व पहचान है.
काँगड़ा शैली के चित्रों के साथ जब हम देर तक रहते हैं तो इससे फूटते स्वर और उनके हम पर असर का स्वरूप बदलता जाता है. पहला असर जहाँ गुदगुदाता, अपने बहाव से सराबोर करने वाला, बहा ले चलने वाला होता है, वहीं, आप अचानक पाते हैं कि इस पूरी चित्रावली में प्रेम में मिलन के क्षण कितने दुर्लभ, कितने विरल हैं. बल्कि लगभग सारे चित्र विरह के अनगिनत और कभी न खत्म होने वाले क्षणों का दर्पण हैं. कभी फूलों, कभी पत्तों की सेज सजाए कृष्ण चित्र के एक कोने में बैठे हैं और राधा दूसरे कोने में. चित्रों में कृष्ण के समीप प्रायः राधा नहीं, राधा का हाल समाचार बताती उनकी सखी है. एक चित्र के छोटे से दायें कोने में सखी कृष्ण को राधा का हाल बता रही हैं जबकि चित्र के पूरे बांयें भाग में दोनों बाँहें ऊपर को उठाए राधा अंधकार को अंक में भर रही हैं. वे काली रात को श्याम समझ ही तो बाँहों में भर रही हैं- श्याम यूँ वहाँ नहीं है, किन्तु उनके अतिरिक्त तो राधा के पास और कुछ है ही नहीं. श्याम तो सिर्फ और सिर्फ राधा में ही हैं. बहुतेरा तो इस चित्रशैली में श्याम राधा की सजधज में और राधा श्याम के श्रृंगार में दिखाई जाती हैं.
एक दूसरे चित्र में कृष्ण राधा के कदमों में पश्चाताप में सिर झुकाए पड़े हैं और राधा दूसरी ओर मुंह फेरे विरह की रात को अपने लिये अनर्गल सोच-सोच कर और भी लम्बा किये जा रही हैं. इस संयोग में व्याप्त वियोग की साक्षी सखी दोनों को इस विडम्बना का अहसास न करा पाने की लाचारी से दुखी मुख झुकाये खड़ी हैं.
एक चित्र में राम पेड़ों, वन-लताओं से सीता का पता पूछ रहे हैं तो दूसरे एक चित्र में गोपियाँ कहीं मिट्टी में कृष्ण के पाँवों की छाप ढूँढ़ती, कभी हिरणों, कभी पक्षियों-पेड़ों से उनका पता पूछती निढ़ाल भटक रही हैं.
अभिसार के एक चित्र में पूर्णिमा का चाँद आकाश में भी खिला है और नीचे ताल के पानी में श्वेत कमलों के बीच भी खिला है. नीचे नायक-नायिका आलिंगन में है तो चित्र के ऊपरी हिस्से में वे एक-एक दूसरे को निहारते रास्ते पर चले जा रहे हैं. इस मिलने में मिलन की इच्छा भी है, उसकी पूर्ति भी है, किन्तु इच्छा की पूर्ति होने पर भी इच्छा की निरंतरता बनी हुई है, वह समाप्त ही नहीं होती.
काँगड़ा चित्रों में शिव-पार्वती भी अक्सर सपरिवार बनाए जाते हैं. इनमें दृश्यावली श्रृंगार के बाहरी उपादानों से लगभग शून्य होती है- गिने चुने पेड़, वे भी मंजरी रहित, खाली धूसर पहाड़ और दूर-दूर तक फैले इस निर्जन में अकेला, राह किनारे की चट्टान पर डेरा डाले बैठा फक्कड़ बाउल गायकों के परिवार सा औघढ़ यह दैव परिवार. भाँग घोटती, शिव की ओर प्याला बढ़ाती पार्वती, दोनों के छितराये, धूल धूसरित केश, पर आँखें मानों एक दूसरे को आँख भर पीती हुई, और पृथ्वी का समूचा विस्तार जैसे इन दो जुड़ी आँखों के देखने में से जन्मा हुआ विस्तार हो, जो अभी है और अभी नहीं होगा. इस मिलन में निर्जन, उजाड़ की व्याप्ति एक अजीब सा असर पैदा करती है जो कभी-कभी रात में खिले फूल और उसकी क्षण भंगुरता से उपजता है. शिव पार्वती के इस मिलन में निर्जन विस्तार को आँकते समय क्या कलाकार के मन में सती से शिव के वियोग का भाव हावी है ? इन चित्रों के चितेरों के लिये प्रेम में मानो मिलन को दर्शाना तो जैसे एक स्वप्न है. रात का क्षण भंगुर फूल जिसे क्या कभी किसी ने देखा भी है?
___________