चंद्रकांता की कविताएँ
अछूत स्त्रियाँ चुप हैं
अभिव्यक्ति की आज़ादी मिल जाने के बाद भी
उनके दोनों हाथ जुड़े हैं, एक साथ
आश्रय की मुद्रा में स्थिर
जैसे स्थिर हैं बुद्ध कांच के पीछे
ड्राइंगरूम की रंगीन दीवाल के
किसी रुआंसे कोने पर
6×4 लकड़ी की चौखट में टंगे हुए.
अनुसूचित स्त्री
इस शब्द का प्रयोग करते ही, आपको
\’फेयर एंड लवली\’, बबली या
जीरो साइज औरतों की जगह
किसी गठी हुई मांसल देह
हिडिंबानुमा किसी स्थूल, भयानक
या काली आकृति का बोध होता होगा !
इनकी पहचान अक्सर इसी रूप में दर्ज है .
चूंकि, स्याम वर्ण की
इन स्थूलकाय युवतियों का अस्तित्व
हमारे सामाजिक शब्दकोष में
‘स्व-अधिकार’ का प्रश्न नहीं है
इसलिए उन्मांदी दबंगों द्वारा बलपूर्वक
इनका शील भंग किया जाना
बीच बाजार निर्वस्त्र घुमाना
और हिंसक भीड़ का इन्हें जला दिया जाना आम बात है .
इन स्त्रियों से हमारी व्यवस्था को
एक अजीब किस्म की ल-ह-सु-नी
सडांध आती है, किन्तु
फिर भी हमारे देव
इनकी योनि में हठात प्रवेश को
व्यभिचार नहीं मानते
क्यूंकि ये स्त्रियाँ ‘सार्वजनिक संपत्ति’ हैं
अर्थात लूट-खसोट का साझा परिसर हैं .
अछूत स्त्रियों का
हमारे टट्टी-मलमूत्र अपने सिर पर ढोना
हमें अमानवीय नहीं लगता
क्यूंकि हम और आप ‘सेफ ज़ोन’ में है
हमारे प्रबुद्द ‘टाक-शो’
मुनाफे की बातचीत में व्यस्त हैं
और हमारा समाज ‘जाति के पीलिया’ से ग्रस्त है
मानवाधिकार संस्थाएं राजनीति में लिप्त हैं
फिर इस मुद्दे में ‘आरक्षण’ जैसा चार्म भी नहीं है .
अपने समाज की संवेदना में भी ये स्त्रियाँ
‘सब्जेक्ट टू आनर’ नहीं बन पातीं
एक तरफ गुदड़ी के कुछ लाल-पीले लेखक
स्त्रियों की अभियक्ति को लेकर ‘सेलेक्टेड’ हैं
दूसरी तरफ अपने ही साहित्य में ये स्त्रियाँ ‘रिजेक्टेड’ हैं
दरअसल, ये परजीवी किस्म के शोषक हैं
जो अपने समाज की तो मुक्ति चाहते हैं
किन्तु अपनी स्त्रियों की नहीं .
इन स्त्रियों की आत्मकथाएं
प्रणय का आरामदायक पालना नहीं है
उसमें यथार्थ का क-ड-वा-प-न है
यह रोजनामचा नहीं, मार्मिक व्यथाएं हैं
जो आपको विषाद से भर देंगी
इनकी आत्म-वीथियाँ
अभेद्य साहित्यिक शिखरों और
सड़क-छाप गुटबाजी से मिले यश को
नि:संदेह एक दिवस गूंगा कर देंगी .
पहचान के संकट और
अशिक्षा की भारी-भरकम बेड़ियों नें
इन स्त्रियों के घाव को सुजाकर
इतना अधिक मोटा कर दिया है
कि हमारी तंग व्यवस्था
इन गजगामनियों के आवेश के नीचे दबकर
निकट भविष्य में
दम तोड़ देने को विवश होगी .
यथार्थ की इन कठोर भाव-भंगिमाओं नें
आपका ध्यान आकर्षित किया या नहीं
किन्तु, ‘अस्तित्व का प्रश्न’
इनके लिए भी उतना ही जरूरी है
जितना किसी अन्य वर्ग की स्त्री के लिए
रेत की तरह चमकती ये स्त्रियाँ
किसी विशाल सागर की तरह हैं
जिन्हें बुहारने पर बेशकीमती मोती मिलेंगे .
नि:संदेह एक सुबह आएगी
जब इनमें से प्रत्येक स्त्री
स्वयं में एक सरहद होगी
और तब इन स्त्रियों के अधिकारों की आवाज़
हमारे कान के परदों को फाड़ देंगी
नगर-व्यवस्था की संरचना के बाहर
खदेड़ दी गयीं ये अछूत ललनाएँ फट पड़ेंगी
जैसे सहस्रों वर्षों से सुप्त कोई ज्वालामुखी फट पड़ता है .
अछूत बना दी गयी इन स्त्रियों को सलाम.
महीने भर से ज्वर था, दाँत कि-ट-कि-टा-ते
पूरा आषाढ़ निकल गया शरीर को जुड़ाते
खसम गया था दिल्ली कमाने दो आने
ब्याह में जो लिया था कर्ज चुकाने
लक्ष्मी को थी भावज
भगिनी सी प्यारी
देखकर उसकी पीली देह पर
लाल गुलाबी चकते
जाकर खबर दी माँ को, आहिस्ते.
अम्मा नें सुनकर बहू की बीमारी
आँखें तरेरीं दोनों बारी-बारी –
‘रामचंदर की बहू तो कभी बीमार नहीं होती!’
अम्मा ! दस रोज से बदन तप रहा रामप्यारी का
खाँसते-खाँसते बलगम से
बुरा हाल था बेचारी का, कहती थी –
\’तकादा करूंगी तो लांछन लगेगा कामचोर है\’
रामचंदर की बहू को शायद तपेदिक का ज़ोर है
साल भर पहले ही तो चल बसी थी उसकी महतारी.
लो ! हमें तो ना होती थी बीमारी
ये आजकल की बहुएँ \’फैशन की मारी\’
दो बरतन क्या घिस लेती हैं
पड़ जाती हैं खाट पर
आग लगे, इन करमजलियों के ठाठ पर
हम तो घास काटते थे, करते थे सानी
कोस भर दूर से ढोकर लाते थे पानी
चूल्हा-चौका करके गोबर लीपते थे
संध्या चढ़ने से पहले हल्दी-मिरच पीसते थे .
ओखली में जब मुख देता था अंधेरा
हमारे लिए होता था वह दूजा सवेरा
थके मांदे तेरे बापू घर आते थे
पहले तेंदू पत्ता घिसते
फिर महुआ चढ़ाकर बैठ जाते थे
और हम चूल्हे पर सालन रखकर
झूलती आँखों से अपनी थकान मिटाते थे
अब तो इन बहुओं से आराम भी नहीं होता
बैठे ठाले दे रही हैं बीमारियों को न्यौता .
अजी सुनते हो ! लक्ष्मी के बापू
देखो तो क्या कहती है बिटिया तुम्हारी
बहू को लग गयी है कोई हवा-बीमारी
कहो तो वैद्य बुलवा दूँ !
फाँककर तंबाकू का गोला
बापू ने मुंह खोला –
\’क्या दिमाग से पैदल है\’ जनकदुलारी
अभी हाथ थोड़ा कड़क है
झाड़-फूँक करवा देंगे जब आएगी बारी .
और लक्ष्मी तू बड़ी मास्टरनी लगी है !
दो किताब क्या पढ़ ली
गज भर की जबान खींचकर
हमारे सर पर चढ़ी है
कमबख्त ! औरतें तो ऐसे ही ठीक हो जाती हैं
चक्की में गेहूं पीसते-पिसाते
चूल्हे की आग में खटते-खटाते
फिर अब तो ‘उज्ज्वला’ भी है
पहले की तरह धुएँ में नहीं रगड़नी पड़ती आँतें .
खुजलाते हुए माथा बापू बोला –
भई, सच कह गए हैं बड़े बुजुर्ग
तुम लुगाइयों को खूब आता है
बात का बतंगड़ करना
राई को पहाड़ बनाना
बात-बात पर बिस्तर पकड़ लेना
फिर राशन पानी लेकर सर पर बैठ जाना
भला बुखार भी कोई बीमारी होती है
औरतों की भी कोई दवा-दारू होती है !
कल्लन भाऊ बोला
मुझे आँखें दिखाती है
हरामज़ादी !
किवाड़ खोल
बहोत हुई मान-मुरव्वत, चल
सोलह श्रृंगार कर
और बैठ जा मंडी में
ज़बान चीर दूंगा
मुझे भड़वा कहती है
साली, रंडी की छोकरी
जिस सड़ांध में पैदा हुई है
वहीँ, किसी के बिस्तर पर
बिछा दी जाएगी एक दिन
मोंगरे की कमसिन कली की माफ़िक
सुन बदज़ात !
अलिफ़-लाम की सीढ़ी पर नहीं
तेरी चमड़ी के माप-तौल से
बढ़ता है सूचकांक
इस रंडीखाने का
ये किताबें भाड़ में डाल
घुँघरू बाँध चल मयखाने में
ठहरो !
उसे जाने दो
आवाज़ आई पार्श्व से
एक नौजवान मर्द की
कल्लन मुड़ा और देखा
दो अपरिचित सी आँखें
उसे टक-टक घूर रही थीं.
छोकरा रुका नहीं, बोला –
मैथिली की देह पर
केवल उसका स्वत्व है
तुम होते हो कौन, रखवाले
उसकी मर्यादा लांघने वाले
मृतात्माओं की इस मंडी में
सुनो ! वह नहीं बिकेगी
कल्लन मुंहफट, बोला –
तू चुप कर बे छोकरे
तेरी सभ्य दुनिया के
ऊंचे सुसंस्कृत चोचले
मंडी की द्यूत-क्रीड़ा में
रोज लगाए जाते हैं दाँव पर
और निर्वस्त्र होते हैं
अबे सुन ! शरीफज़ादे
तेरे बाप-दादाओं की
कितनी ही अवैध संतानें
जन्म लेती हैं इस रंडीखाने में
और बना दी जाती हैं
एक भद्दी गाली
क्या तू भी चुकाने आया है पितरों का ऋण ?
छोड़कर एक प्रश्नचिन्ह
छोकरे की ललाट पर
कल्लन नें फिर ख-ट-ख-टा-ई
मैथिली की बंद चौखट
लंबी जद्दोजहद के बाद
पकड़ा, खींच लाया हाथ
भरी सभा में जल्लादों की उसे भींच लाया
और पल भर में
सजा दी गयी मैथिली
किसी अनमोल वस्तु की भांति
वेश्यालय की नीड़ में
दब गयी थीं सिसकियां
मधुशाला के गीतों
नोटों की कडकडाती भीड़ में
अचानक !
शीश झुकाए बैठी
मैथिली जागी उन्मुक्त
सिकुड़ी देह में फूटी सहसा विद्युत
वह कुछ देर ठहरकर बोली –
खबरदार ! ‘मेरा जीवन
मेरे चयन का प्रश्न है’
मैं करती हूँ तिरस्कार
तुम्हारी ध्यूत व्यवस्था और
उन समस्त प्रतिमानों का
जो करते हैं बाधित
मेरे उन्मुक्त स्त्रीत्व को
और छीनते हैं
मुझ पर स्वत्व मेरा
और इस तरह
बरसों से जलती-सुलगती
वह उपेक्षित लालबत्ती
शब्-ए-मेराज के दिन
एक वारांगना के उद्घोष से छनकर
कुछ धवल हो गयी.
स्त्री होना स्वराज का प्रश्न है
स्त्री की मुक्ति
और उस मुक्ति की आकांक्षा
अधिक अर्थवान है कि वह
मर्यादाओं को खोकर स्वयं को पाती है.
देह पर स्व-अधिकार तो
बाद का प्रश्न है, एक स्त्री को
पहले लड़ना-झगड़ना पड़ता है
अपने खाने-पहनने-ओढ़ने को लेकर
क्यूंकि उसके स्त्रीत्व पर
नैतिकता के अभेद्य बंधन है
जैसे सर्प की कुंडली में चंदन है.
एक मूक-बधिर स्त्री
सद्जनो में प्रशंसनीय है, प्रिय है
एक स्त्री को पुरुष के अधिनायकत्व हेतु
ठीक वैसे ही तोड़ा जाता है
जैसे प्रकृति के तंतुओं को
मानव सभ्यता के विकास हेतु
बेहद निर्ममता से उधेड़ा जाता है .
स्त्री समस्त कलेशों का मूल है ?
स्त्री नरक का द्वार है ??
यह पितृसत्ता का सड़ा हुआ विचार है
इसे ‘धरम के फादर’ चला रहे हैं
और सुन्नत की तरह निभा रहे हैं
दरअसल, स्त्री की अधीनता धरम के लिए
सबसे उन्नत व्यापार है.
स्त्री देवी है ?
देवत्व की यह महानता
स्त्री के भावों-मनोभावों और
अनुभूति को स्पेस नहीं देती
धरम स्वयं को स्त्री पर मढ़ देता है
वह स्त्री की भूमिका को
एक नियत चरित्र में गढ़ देता है .
धर्म स्त्री को वस्तु मानता है
धर्म तासीर में पूंजीवादी है
धर्म धूर्त पंडा है
धर्म बदचलन नमाज़ी है
धर्म कुत्सित पुरुष है
वास्तव में धर्म अधर्म है
धर्म की तबीयत मियादी (बुखार) है.
समाज स्त्री को डायन कहता है
टोने-टोटके की प्राक-शिक्षिका
समाज के ठेकेदार
ऐसे मनगढ़त प्रस्ताव करते हैं
क्यूंकी वे स्त्री की पहचान
सत्ता में उसकी हिस्सेदारी
और संकल्प चेतना से डरते हैं.
समाज के इस दोहरे चरित्र को
धर्म के अपवित्र-पवित्र को
शल्य चिकित्सा की जरूरत है
सनद रहे ! स्त्री होना टैबू का नहीं
‘स्त्री होना स्वराज का प्रश्न है’
क्यूंकी वह मर्यादाओं को खोकर स्वयं को पाती है
इसलिए एक स्त्री की मुक्ति अधिक अर्थवान है .
वह देखो ! हाशिये का आदमी
और उसके आगे वह काले रंग की लकीर
जो हमारी व्यवस्था नें खींची है
वह आदमी जड़ है, सिम्पटम से फ़कीर
क्यूंकि जिस पायदान पर उसके पाँव ठहरे है
वहाँ प्रशासन-व्यवस्था के सख़्त पहरे हैं.
इस हाशिये के आदमी की कहानी बेहद रोचक है
राजनीति के लिए वह एक अदद वोट
और सत्ता के लिए एक आंकड़ा भर है
सरकारी दस्तावेजों में वह
किसी भयानक आपदा की माफिक दर्ज है.
बे-ज़ुबान जिनावर, बे-गैरत साला !
धूल धक्काड़ से लदा हुआ पसीने वाला
इसी पसीने में स्वयं को बोता है, काटता है
मेहरारू पर बल आजमाता है लेकिन
जीवन भर मालिक के तलवे चाटता है.
जरा सोचिये ! कहीं यह भूमिका अदल-बदल होती ?
तो आपकी दुनिया कितनी फक्कड़ होती
हमारे ख्वाब मर्सिडीज़ में पलते हैं
और इनके इसके ख्वाब बहोत छोटे है
जितना छोटा गेंहू (के दाने) का अंकुर
वह देखो ! हाशिये का आदमी
फटी हुई कमीज़ को सिलना अपेक्षाकृत सरल है
किन्तु इस हाशिये को सिल पाना.. बेहद गरल I I
आज कई हफ़्तों के पश्चात्
हाट से खरीदी गुलाबी टोकरी हाथ में पकड़
एकदम पक्कावाला इरादा कर
आफ़िस और घर-बार की व्यस्तताओं से मुक्त होकर
साप्ताहिक बाज़ार गयी थी, कुछ सामान लाने
आज दिवाली या कोई त्यौहार तो नहीं था
प्रत्येक पखवाड़े रविवार को
मोहल्ले में होने वाली किट्टी पार्टी भी नहीं थी
फिर भी, मैंने माथे पर बड़ी सी बिंदी सजा ली थी
और ओठों पर गहरी लाली
मालूम नहीं क्यूँ !
बाज़ार भीड़ से पटा हुआ था
प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से सटा हुआ था
अभी जरुरत का कुछ एक सामान खरीदा ही था
अचानक ! मोटी-मोटी बूंदों वाली
झ-मा-झ-म बारिश शुरू हो गयी, मतवाली
मैं किसी तरह खुद को संभालती
गिरती-पड़ती, सैंडल की नोक से बूंदों को उछालती
स्ट्रीट-लाईट की रोशनी के नीचे सुस्ता रही
चार-पहियाँ गाड़ी में जा बैठी– खुद से बोली
उफ्फ ! अब बरसात भी बे-मौसम आ जाया करती है
कमबख्त, बेवक्त आ गए महमान की तरह लगती है
खुद को बरसात से महफूज़ पाकर
गाड़ी की अगली सीट पर, भीतर आकर
मैंने एक गहरी लम्बी सांस ली और मुंह पौंछा
फिर अ-ना-या-स ही, खिड़की से बाहर झाँका
मेरी चार-पहियाँ से कोई तीन फीट आगा
देखा एक पटरीवाला सड़क फलांग कर भागा
वह भीजी हुई सड़क के उस पार
स्टेशनरी की दुकान के नीचे खड़ा हो गया
उसकी क-ठ-पु-त-लि-यों का दायरा कुछ बड़ा हो गया
क्योंकि उसे सामान के भीज जाने की फ़िक्र थी
मेरे सीधे हाथ पर लकड़ी के फाटक के पास
एक सब्जी वाली बाई सहमी खड़ी थी उ-दा-स
मेह के जोर से, किंकड़ी सी देह उसकी अकड़ी पड़ी थी
इधर, रेहड़ी पर सजी सब्जियां धुल रही थी
और उधर बाई के मन में कोई आशंका घुल रही था
माई की राह देखते बाल-बच्चे भूखे होंगे
बे-सबरी में आँखों से ढुलकते आंसू पीते होंगे
हे विधना ! कब होगा यह मेह खत्म ?
शायद, यही सोचती होगी !!
इसके बाद मन कोई और इ-मे-जि-ने-श-न नहीं कर पाया
बरसात की ब-ड़-ब-ड़ा-ती बूंदों के बीच
मैंने खुद को बेहद छोटा पाया
तुरंत-फुरंत चाबी घुमाई, सायरन बजाया
और चार-पहियाँ लेकर धीमी रफ़्तार से चल दी
बीच-बीच में कौंधती नीली बिजुरिया चमकती रही
रास्ते भर मेरे दिल-दिमाग में धमकती रही
बारिश की नरम बूँदें किसी के लिए सख्त भी हो सकती थीं
यही आ-वा-जा-ही विचारों में फुदकती रही
पटरीवालों की ठहरी हुई जिंदगी की वह पिक्चर रात भर
मेरी गीली आँखों में करवटें बदलती रहीं
सुबह-सवेरे आफ़िस जाने से पहले, नहाते हुए
बारिश की बूँदें कानों के अंदरूनी कोनों तलक ग्रामोफ़ोन की तरह बजती रहीं ..
उनके पसीने से आती
निर्मम सडांध
आपको इतनी तीखी लगती है, कि
उस गंध के बारे में सोचनें भर से ही
आपके मखमली नथुने
पैरों की बिवाईयों की भांति फट जाते हैं
दिमाग भि-न-भि-ना जाता है
और धमनियां लगभग काम करना बंद कर देती हैं
लेकिन फिर भी आप
फेसबुक-ट्विटर पर
और गली-मोहल्ले-कॉलेज की चर्चाओं में
\’थर्ड -क्लास\’ के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं
प्रदर्शन के गंभीर पोज़
बेहद रो-मा-नि-य-त के साथ अपडेट करते हैं
प्रशंसा का और अधिक सुख लेने हेतु
कुछ चुनिन्दा \’फर्स्ट-क्लास\’ बुद्धि विक्रेताओं को टैग करते हैं
किन्तु आत्मतुष्टि की ये भंगिमाएं
स्व कर्तव्य बोध के अभाव में
उतनी ही बे-गैरत हैं, जितना
गैर-जरूरी है प्रेस के लिए
मजदूरों का किसी बंद पड़ी खदान में काम करते हुए
ठेकेदार-राज्य-प्रशासन की अव्यवस्था के मध्य
दबकर, फंसकर, धंसकर अकेले मर जाना
दरअसल, हम सब अवसरवादी हैं.
गहन सांवली देह से
चपला की भांति कौंधती
उस पथिका की आँखों पर
मेरी आँखें टिक गयीं
जो भादो की उमस भरी दुपहरी में
मोतीबाग फ़्लाईओवर के नीचे
एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क पर
अपने सहोदर का हाथ पकड़
ट्रैफिक से बेफिक्र, गुब्बारे बेच रही थी
सहोदर, जिसकी नाक लिसढ़ रही थी …
लाल बत्ती के रुकते ही वह स्टार्ट हो गयी
और हमारी चौपहिया गाड़ी के शीशे पर
अपना माथा सटाकर बोली – \’ले लो !\’
मैंने इशारा किया –\’दो पिंक वाले \’
उसने झटपट गुब्बारे निकाले
और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली – \’आंटी बत्ती छूट रही है ! \’
सोचिए ! जिस लाल बत्ती पर
एक मिनट भी काटना मुश्किल होता है
कुछ लोगों का पूरा जीवन उसी पर भागते-दौड़ते
ट्रैफिक की तरह गुजर जाता है.
मैंने देखा, उसके दरदरे चेहरे पर
दो खूबसूरत आँखें सुस्ता रहीं थी
जिन्हें देखकर लगता था
मेपल की सुर्ख लाल पत्तियों ने
उसकी आइरिस से ही वह रंग सोखा होगा
हफ्तों के गंदे उसके बाल
एक लाल और दूसरे हरे रिब्बन में खोंसे हुए
और उसके हाथों की वो मैल भरी पपड़ियां
जो छूटने की तैयारी कर रही थीं
जैसे गुब्बारे छूट जाना चाहते हैं मुक्ताकाश में …
हरी बत्ती होते ही वह लड़की
कहीं पीछे छूट गई
लेकिन वह छूटना तो कोई भ्रम था
उसकी आँखों में तैरता वह बरगंडी रंग अब मेरी आँखों में जम चुका था.
प्रेम को परिभाषित करना
ऐसा है जैसे अंनत के समक्ष
एक रेडीमेड लकीर खींच देना
मेरे लिए प्रेम सृजन है
प्रेम \’रचने की प्रक्रिया\’ में होने वाली पीड़ा है
प्रेम प्रकृति की गंध है
प्रेम मानव होने की भूख है
प्रेम का अभाव जीवन को
अंधकारमय बनाता है
दरअसल, प्रेम मनुष्य के अर्थवान होने की कोशिश है
प्रेम आत्मा का उर्स है
प्रेम मन का उत्सव है
प्रेम देह का विस्तार है
प्रेम एकाधिकार माँगता है
किंतु, वह ऐसे आग्रहों से मुक्त भी करता है.
प्रेम मन का धीरज है
प्रेम यौवन का अधीर है
प्रेम हिंसा का अभाव है
इसलिए प्रेम से रिक्त मन
इस सम्पूर्ण संसार को नष्ट कर देने को काफी है
प्रेम से रीता जीवन
और प्रेम से खाली मृत्यु
सबसे बड़ा अभिशाप है.
बारिश बिल्कुल सीधी पड़ रही है
और मेह की यह सरसता
ह्रदय के उन्मांदी वातावरण में
मोती सी जड़ रही है
बूंदों की सफ़ेद झालर से झांकते
हवा के तेज़ झोंकों से कूदते-फांदते
तनी हुई शाख पर लदे
नीम के ये पंक्तिबद्द पत्ते
जैसे हरीतिमा के छोटे-छोटे छत्ते
और तेईस डिग्री के कोण पर झुकी
सामने दिख रही वह टहनी
किसी नवयौवना सी सहमी
फागुन के रंगों की तरह मनभावन लग रही है
मैनें बूंदों की देह में
झाँकने की एक असफल कोशिश की
क्यूंकि वहां कोई देह नहीं थी
किसी प्रकाश पुंज की भांति
प्रस्फुटित होता एक संवेदन था
घर से विदा होते सावन की
इस चमकीली-भड़कीली बारिश में
आज मेरा मन पसीजा था
वह कुछ और अधिक भीजा था
मन अब रिक्त नहीं था
उसकी प्राचीन दरारों से एक अंकुरण फूटा था
मेरे ह्रदय की तिलमिलाई हुई
रणभूमि पर
संस्कार की एक ताज़ा पौध खिली थी.
दिमाग में घने अंधेरों नें
कसकर पाँव जमा रखे हैं
एक भी सुराख़ नहीं है
जो छटांक भर रोशनी को भीतर आने दे
सांसे लगभग जम चुकी हैं
आत्मा ठि-ठ-की हुई है
आशाओं पर धूल की मोटी परत उग आई है
और फेफड़ों का मेकेनिज्म धीमा पड़ रहा है
कोई अनचाहा कलाकार
जिसकी उलझी हुई सी सूरत
किसी घुसपैठिये की तरह मालूम होती है
वह मेरी समस्त संवेदनाओं की सूची बनाकर
उन पर बहुत बेफिक्री से कूची चला रहा है
और मेरे मस्तिष्क के शून्य का पोर-पोर
अपने संवेदनहीन शुष्क रंगों से
ता-ब-ड़-तो-ड़ रंगता जा रहा है
बचपन वाले सिनेमास्कोप के काले डिब्बे में
एक चलचित्र घिसट रहा है
जहाँ एक अजनबी के खुरदरे हाथ
मेरा \’फाहे सा मन\’ कुतर रहे हैं
मेरी देह किसी खुरदरी सड़क पर
लगातार रगड़ खा रही है
आह! मैं एक टूटी हुई जल-तरंग की भांति
अपने अंतर्मन में सिसक रही हूँ..
यह कौन है ?
जो मेरे प्रेम भरे हृदय में विलाप कर रहा है ??
______
चंद्रकांता : कविता का स्वराज
बजरंग बिहारी तिवारी
कविता आत्मशोध है. आत्मशोध स्व की तलाश है और उसका शोधन भी. छानना या परिष्कार करना शोधन है. आत्म संधान बहुधा स्व के अर्जन में देखा-समझा जाता है. स्व का अर्जन देश-काल-परिस्थिति से गुजरते हुए होता है. कवि की सजगता अर्जित किए जा रहे स्व को देश-काल-परिस्थिति की विराटता और सातत्य से जोड़े रखती है तथा उसकी संकीर्णताओं व छद्मों से मुक्त करती है. असमानता आधारित व्यवस्थाएँ पहले स्व को हड़पती हैं फिर उसे गायब कर देती हैं. आत्मान्वेषण में लगे कवि को हम इसीलिए कोटरों, खोहों, कंदराओं में भटकता पाते हैं. वह यथार्थ की दीवारें पार करता है, दुःस्वप्नों की दुनिया में जूझता है और सत्तातंत्र की तरफ से प्रदान किए जा रहे चमकते, खोखले नकली आत्म से बावस्ता होता है, आगाह करता है. ऐसे आत्म का विलय वांछित है जो अहमन्यता उपजाए, अन्यों से विछिन्न कर दे और दोहरेपन की सीख दे.
संस्कृति में अस्मितावादी आंदोलन तथा साहित्य में अस्मितामूलक स्वर का उभार आत्मार्जन और आत्मपरिशोधन को अपना प्रमुख कार्यभार मानता है. वर्ण-जाति व्यवस्था ने असहज, अस्वस्थ, अतिवादी आत्म तैयार किए. एक आत्म का अधिमूल्यन किया तो दूसरे का अवमूल्यन. एक में दंभ भरा तो दूसरे में हीनता. दोनों ही रोगी आत्म थे. प्रेम करने और प्रेम पाने की पात्रता से रहित. संत कवियों ने इस रोग को पहचाना था तथा उसे सहज-स्वस्थ बनाने की कोशिश की थी.
दलित कवियों की पहली पीढ़ी में आत्म को लेकर जो चौकन्नापन है, अतिरिक्त आक्रामकता है वह इसी थोपी हुई न्यूनता से उबरने की चेष्टा का परिणाम है. निर्वासित आत्म के पुनर्वास की दो पूर्वशर्तें थीं- अवरुद्ध कंटकाकीर्ण जातिवादी मार्ग को पहचानते, उससे बचते हुए सम्यक आत्मबोध का पथ प्रशस्त करना और एकल आत्म को जाग्रत सामूहिक आत्म से जोड़ना. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए राजनीतिक-सांस्कृतिक दलित मूवमेंट तथा दलित साहित्यान्दोलन ने मिलकर काम किया. दलित आत्मकथाएँ दलित आंदोलन की पीठिका पर ही लिखी जा सकती थीं. पहले फुले फिर आंबेडकर की सघन क्रियाशीलता और जागरण अभियान के बदौलत ही परवर्ती दलित आंदोलन इतना ऊर्जावान बनता है. आत्मकथाओं में जो दलित आत्म दिखते हैं वे बेहद मजबूत, मुखर तथा संघर्षशील हैं. इस मजबूती में कुछ तो लेखक की सर्जनात्मकता का योगदान है किंतु बहुत कुछ आंदोलन का.
तमाम दुश्वारियों से जूझते हुए दलित साहित्यान्दोलन ने अपने स्व को करीब-करीब हासिल किया. यह कहना कठिन है कि नवायत्त आत्म मनोवांछित स्व के कितना समीप पहुँच पाया. जिस वर्चस्ववादी परिवेश में वह आत्म इतनी लंबी अवधि तक रहा था उसका पीछा इतनी आसानी से कहाँ छूटने वाला था! वर्ण-जाति के लवालच्छ अभी निश्चिन्ह नहीं हुए थे. आत्म-परिशोधन की छननी को निरंतर बदले जाने, अद्यतन किए जाने की आवश्यकता थी. स्वार्जन और स्व-निर्माण की प्रक्रिया में मौजूद खामियों पर तब रोशनी पड़ी जब दलित स्त्रियों ने उस आत्म पर निगाह डाली. विशेषाधिकार के जिस दूषण से दलित आत्म को मुक्त होना था वह जेंडर के मामले में अभी तक ठहरा हुआ था. मर्द होने की ठसक उसे जातिबोध तथा वर्गबोध की तरफ ठेल दे रही थी. इस आत्म को अभी कई प्रक्रियाओं और पड़ावों से गुजरना शेष था लेकिन तात्कालिक मांग पुरुषत्व के दंभ से छुटकारा पाने की थी.
दलित स्त्रियों ने इस मांग को पूरी संवेदनशीलता तथा प्रामाणिकता के साथ उठाया. नवार्जित आत्म में मौजूद हिंसा की पहचान उन्होंने कराई. ‘मैं, केवल मैं’ को आत्मबोध में विकृति उपजाने वाला तथा परिवर्तन अभियान हेतु घातक बताया. मैं-वाद के नतीजों को समाज के सामने लाते हुए हिंदी की प्रथम दलित स्त्रीवादी रचनाकार रजनी तिलक ने अपने संग्रह ‘हवा सी बेचैन युवतियाँ’ की पहली कविता ही इस समस्या को समर्पित की. इस कविता का शीर्षक ‘संवेदना’ है-
संवेदना
चेतना
प्रतिबद्धता
ख़ाक हो जाती है
जब मैं और मैं
खुद पर
हावी हो जाता है
वह हवा में
खुशबू की तरह
नहीं
गटर में बदबू की तरह
नष्ट कर देती है
संवेदना, चेतना, प्रतिबद्धता
चंद्रकांता कई कोणों से इस आत्म का परीक्षण करती हैं. हिंसा से छुटकारा पाने के क्रम में जिस आत्म को अस्मितावाद ने पाना चाहा था वह प्रोजेक्ट ठिठका हुआ है और दूषित आत्म ही अभी गतिशील है. ‘हाशिये का आदमी’ कविता में चंद्रकांता विभाजित आत्म का मुद्दा उठाती हैं. आक्रोश भरे शब्दों में वे बताती हैं-
बे-जुबान जिनावर, बे-गैरत साला!
धूल धक्काड़ से लदा हुआ पसीने वाला
इसी पसीने में स्वयं को बोता है, काटता है
मेहरारू पर बल आजमाता है लेकिन
जीवन भर मालिक के तलवे चाटता है.
.
वह देखो! हाशिये का आदमी
फटी हुई कमीज को सिलना अपेक्षाकृत सरल है
किंतु इस हाशिये को सिल पाना…
जेंडर असंवेदनशील आत्म सबसे ज्यादा प्रेम संबंध में नज़र आता, खलता है. उस स्त्री के लिए असहनीय जो जाग्रत आत्म वाली है. जिसने बहुत कुछ दाँव पर लगाकर यह आत्म अर्जित किया है-
मैंने तुमको क्यों चुना?
तुम मेरी दुनिया के सबसे आकर्षक मर्द नहीं थे
सबसे जवाँ भी नहीं
तुम्हें चुना था, क्योंकि
तुममें गंध महसूस की थी
एक औरत का सम्मान कर पाने की…
किंतु, तुम्हारे उन महफूज हाथों में
मैंने अपना आत्म-सम्मान खो दिया
वह आशाएं
खो दीं
जिन्हें एक औसत स्त्री
अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर
पाने की उम्मीद रखती है…
आत्मचेतस रचनाकार मात्र सामने वाले के स्व की छानबीन नहीं करता, वह अपने स्व को भी जाँचता, माँजता चलता है. जाँचने और माँजने की प्रक्रिया प्रेम संबंधों के बनने-बढ़ने के क्षणों में घनीभूत होती है. इसी दौरान परंपरा से मिले पूर्वग्रही संस्कार अपना सर उठाते हैं. इसी दौरान स्वार्थ और असुरक्षा की घेरेबंदी में दुबका आत्म (अन्यथा आत्मीय) ‘अन्य’ से सब कुछ माँगता है लेकिन स्वयं कुछ त्यागने को तैयार नहीं होता. चंद्रकांता प्रेम को एक अवसर के रूप में देखती हैं. ऐसा अवसर जब आत्म में छिपे अहम को पहचाना और फरियाया जा सकता है. जब तक यह अहम रहेगा तब तक स्व की सहजता बाधित रहेगी. चंद्रकांता आह्वान करती हैं-
आओ प्रीत की
एक कमसिन बूँद लेकर
शृंगार करें उन
उनींदे पलछिनों का
जो सदियों से
पराजित होते रहे हैं
तुम्हारे-मेरे अहम की द्यूत-क्रीड़ा में
अपने मैले हो चुके
स्व को टांग दें
समर्पण की खूँटी पर
और सुनहली धूप के
रेशमी धागों से
पुनः रचें एक नवजीवन.
ताजा-ताजा अर्जित दलित आत्म में खरोंचें कम न थीं. इन्हें पूरने में समय लगना था. खरोंच को घाव में बदलने की कोशिशें भी होती रहती थीं. अब भी हो रही हैं. इसका असर लेखन पर पड़ना था. युद्ध की शब्दावली का आधिक्य इसी असर में हुआ. एक तरफ हमलावर तेवर तो दूसरी तरफ उत्पीड़न का दर्द. एक सिरे पर संघर्ष का उच्च स्वर तो दूसरे सिरे पर विषाद की मद्धिम आवाज. इस साहित्य पर कन्नड़ के वरिष्ठ दलित लेखक मोगल्ली गणेश की टिप्पणी थी कि दलित लेखन मानों लंबा शिकायती पत्र है. शिकायती पत्र में प्रसन्नतासूचक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं. सिर्फ अपनी पीड़ा का बयान किया जाता है.
मोगल्ली गणेश ने पूछा कि दलित जीवन में आनंद के क्षण गायब क्यों हैं? हम किससे सहानुभूति की आशा रख रहे हैं? ऐसा चयनधर्मी लेखन कब तक होगा? चयनधर्मी लेखन का यह सिलसिला उन्होंने और उनके जैसे कुछ अन्य रचनाकारों ने तोड़ना चाहा. उन्हें आंशिक सफलता भी मिली. मगर, इस सिलसिले को टूटने के लिए परिदृश्य में बड़े पैमाने पर दलित स्त्रियों का आना लाजिमी था.
चंद्रकांता की कविता में जीवनोत्सव की छवियाँ भरपूर हैं और उन्हें इस बायस से भी पढ़ा जा सकता है. सहज जीवनोल्लास की कविता वर्चस्ववादियों को असहज करती है. विजयोल्लास का गीत उन्हें असहज नहीं करता. चंद्रकांता की कवि दृष्टि मामूली चीजों में खुशियाँ तलाश लेती है, रोजमर्रा की साधारण घटनाओं से रससिक्त हो जा सकती है. किसी सखी का स्नेहिल स्पर्श, छोटी बच्चियों का आपसी लेन-देन, बूँद जैसे सपने, रसोईघर में प्रियतम की उपस्थिति, किसी आत्मीय की बेसबब आई याद ये सब जीवनानंद के हेतु हो सकते हैं. लेकिन, कवि के उल्लास का सबसे बड़ा हेतु प्रकृति है, नैसर्गिक दृश्य हैं. पहली पीढ़ी के दलित कवि की निगाह इस तरफ जाती भी थी तो उसमें कोई स्पंदन होता था, इसका साक्ष्य उसकी कविताएँ नहीं देतीं. चंद्रकांता ऐसी प्रसन्नताकारक दृश्यावली यों पेश करती हैं-
ये स्याह गुलाबी मौसम
नभचर मस्ती में झूमें
ये शोख उनीदीं शाखें
पाखी सी थिरकती बूँदें
कहीं हरीतिमा के छत्ते
नवयौवन पर इतराते
कहीं सूखे पीले पत्ते
वसुधा को अंग लगाते
फूलों से छिटकती रश्मि
सुर्ख पलाश म-न-ब-सि-या
मिट्टी नीरद का मरासिम
चाँदी सी निखरती शबनम
गुलशन सी महकती साँसें
बरखा संग झरती कलियाँ
व्योम पर खिलते किसलय
और चाँद की अल्हड़ साजिश
सावन का यह प्रथम बसंत
रेशम के धागे सा मन
पोर-पोर को भिगो रहा है
यह प्रीत का मूक निमंत्रण
दलित कविता से दलित स्त्री कविता जिन वजहों से भिन्न हुई उन्हें समझे बिना अब दोनों की ही ठीक से व्याख्या न की जा सकेगी. दलित स्त्री रचनाकारों ने यह कमी रेखांकित की थी कि दलित कवि उनके अनुभवों, उनकी व्यथाओं, उनकी प्राथमिकताओं को अपनी रचनाओं का विषय नहीं बना रहे हैं. एक तो उन पर दबाव अलग तरह के हैं दूसरे उनकी चिंताओं में भी दलित स्त्री मुख्य नहीं. वे बलात्कार को अपनी कविता का विषय बनाते अवश्य हैं लेकिन बलात्कार उनके लिए अस्मिताई या कौमी समस्या है. बलात्कृता स्त्री बतौर व्यक्ति उनकी चिंता के केन्द्र में नहीं होती. इसी तरह वे सामाजिक जनतंत्र की माँग करते हुए यह विस्मृत कर दे सकते हैं कि परिवार के ढाँचे में पसरी तानाशाही भी गंभीर मुद्दा है. स्त्री-पुरुष संबंधों में गुँथी हायरार्की कई बार अनदेखी चली जाती है. विवाहादि महत्त्वपूर्ण निर्णयों में दलित स्त्री का पक्ष उनसे उपेक्षित रह जाता है.
भाषा प्रयोगों में रची-बसी स्त्री अवमानना पर वे शायद ही आक्रोशित होते हों… दलित स्त्री कविता ने इन सब बिन्दुओं को न केवल रेखांकित किया अपितु उसे अपनी कविता में प्रमुखता दी. जातिगत भेदभाव का प्रश्न भी दलित स्त्री रचनाकारों ने पूरी शिद्दत से बराबर उठाया. चंद्रकांता की कविताएँ इसकी गवाही देती हैं.
वे स्त्री होने को स्वराज का प्रश्न मानती हैं. ‘मर्यादा’ संस्कृति का बड़ा लुभावना शब्द है, प्रत्यय है. चंद्रकांता कहती हैं कि जब तक ये मर्यादाएँ हैं, स्त्री अपना स्वत्व नहीं प्राप्त कर सकती. मर्यादा मुक्ति और मुक्ति की आकांक्षा- दोनों को संभव नहीं होने देती. देह पर अधिकार का सवाल महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह तब हासिल होगा जब उसके पहले की चीजें हल हो जाएंगी और नैतिकता के अभेद्य बंधनों को तोड़कर खाने-पहनने-ओढ़ने का हक पा लिया जाएगा. धर्म स्त्री मुक्ति में कम बड़ी रुकावट नहीं. धर्म की ध्वजा उठाए सद् जन ऐसी स्त्री को ही मान्यता देते हैं जो न बोले और न प्रतिक्रिया दे-
“एक मूक-बधिर स्त्री
सद्जनों में प्रशंसनीय है, प्रिय है
एक स्त्री को पुरुष के अधिनायकत्व हेतु
ठीक वैसे ही तोड़ा जाता है
जैसे प्रकृति के तंतुओं को
मानव सभ्यता के विकास हेतु
बेहद निर्ममता से उधेड़ा जाता है.”
जो धर्म को दृढ़ता का पर्याय मानते हैं वे गलत हैं. धर्म अपने लिजलिजे लचीलेपन के कारण बना रहा है. वह हर युग के सत्ताधारियों से सांठ-गांठ करता आया है. न्याय-अन्याय के प्रश्नों में उलझने से ज्यादा उसे बलशाली की शरण में जाना, उनका मुखापेक्षी होना सुहाता है. सभी समाजों की स्त्रियों, सभी समाजों के वंचितों के प्रति धर्म का एक-सा रवैया रहा है-
धर्म स्त्री को वस्तु मानता है
धर्म तासीर में पूँजीवादी है
धर्म धूर्त पंडा है
धर्म बदचलन नमाजी है
धर्म कुत्सित पुरुष है…
पाषाण (देव प्रतिमा) को समर्पित पाषाणी (देवदासी) को संबोधित अपनी कविता ‘पाषाणी’ में चंद्रकांता पुनः धर्माधारित व्यवस्था की सड़ांध से मुखातिब होती हैं-
“ओढ़ी-बिछाई सुलगाई
जाती हो हर रजनी-प्रभात, बसंत
फिर उघाड़ी-उधेड़ी मैली कर
बना दी जाती हो पाषाण, निष्प्राण
सि-ल-सि-ले-वा-र अथक अनवरत
तुम्हारे पसीजे हुए, भीजे
अंतःवस्त्रों से आती यह सड़ांध
सांस्कृतिक षड्यंत्र के ये भग्न-अवशेष”.
पाषाणी से संवाद करते-करते कविता का स्वर प्रबोधन वाला हो जाता है, विद्रोह की सीख देता-
क्यों नहीं लांघ देती, वर्जना
के ये ऊँचे टीले, दरख़्त कंटीले
जिन्होंने तुम्हारे धवल स्त्रीत्व को
विजित-पराजित धूल-धूसरित
निःशक्त रेत कर दिया है
… … …
सुनो! ध्वस्त कर दो
उन सभी विधि-शब्दकोशों को
नियम-अधिनियमों को पराधीनता के
जो तुम्हें रचते हैं गढ़ते हैं बाँधते हैं, किंतु
तुम्हारी परिभाषा को उन्मुक्त, स्त्री नहीं होने देते.
बलात्कार की घटना को कविता में ढाल पाना खासा मुश्किल है. ऐसी कविताएँ अक्सर सपाट आक्रोश की भाषा में ही लिखी जाती हैं. दलित कविता में इसे अस्मिता के मान-मर्दन का मुद्दा बनाकर पेश किया जाता है जो स्वाभाविक है और वाजिब भी. इसमें सामुदायिक आक्रोश तो भलीभांति प्रकट हो जाता है लेकिन बलात्कृता के अंतर्मन की कोई टोह नहीं मिलती. चंद्रकांता की काव्य-संवेदना इसे चुनौती की तरह लेती प्रतीत होती है. वे क्रोध, करुणा और कविता का ऐसा रसायन तैयार करती हैं कि चित्र की स्थूलता गायब हो जाती है साथ ही मर्मांतक पीड़ा पर कला का आवरण भी नहीं पड़ता-
गीली उदास खिड़की
ताक रही थी
झोपड़ी के भीतर, सहमी सी
होकर प्राणहीन निःश्वास
उस अवरुद्ध मौन को, अपलक
जो मरजाद की कोख से जन्मा था
मेघों की
दूर तलक कोई
सुध सु-ग-बु-गा-ह-ट न थी
फिर भी ईंटों पर सीलन उभर आई थी
कल रात यहाँ तीसरे पहर
इक अल्हड़ नदी टूटी-फूटी जो थी
एक अन्य कविता ‘दुःस्वप्न’ में वे बलात्कार की विभीषिका दर्शाने के लिए अलग तरकीब अपनाती हैं. यहाँ दुष्कृत्य सपने में घटित होता है. प्रसंग की भयावहता क्षीण नहीं होने पाती और कविता का स्वभाव भी अक्षुण्ण रहता है-
रजनी की स्वप्न-बेला में, आज
मेरे हिस्से वह निर्वस्त्र औरत आयी
जिसके पंख कुक्कुट की तरह
उधेड़ दिए गए थे
बेतहाशा पड़ी थी वह
पछाड़ खाई सड़क के एक
दागदार, सीलन भरे कोने पर
मैंने काँपते हाथों से
उसकी अर्ध-नग्न देह को छुआ
उसमें कहीं कोई सिहरन न थी
… … …
छिड़कती रही नमक
नम-सी दीवारों पर
चुरा लेने को उस भीत की उमस
जिसे कभी मैंने अपने सपनों से लीपा था.
बतौर रचनाकार चंद्रकांता का रेंज बड़ा है. उन्हें किसी एक सरणि अथवा कोटि में सीमित करके देखना ठीक नहीं. वे हाशिए पर धकेल दी गई कराहती मानवता का दर्द सुनती हैं. वे यथार्थ की ऊपरी परत भेदकर सच के स्रोत तक पहुँचने का जतन करती हैं. जिन्हें हाशिए से भी बाहर रखा गया है उन समूहों, इंसानों तक उनकी निगाह जाती है. पटरी वाले, मजदूर तो उनके यहाँ हैं ही, गुब्बारे वाली, कूड़े वाली, भीख माँगने वाली भी उनके काव्य सरोकारों का हिस्सा हैं. उनकी कविताओं में आक्रोश को जितना स्पेस मिलता है उससे कहीं ज्यादा प्रेम को. और, ये दोनों भाव परस्पर असम्बद्ध होकर नहीं आए हैं. यही उनके काव्य-सामर्थ्य का सबूत है. अभी यह उनका पहला संग्रह है. उनकी तैयारी, सरोकार, धीरज और संलग्नता आश्वस्त कर रही है कि उनकी कविताएँ निरंतर बेहतरीन होती जाएँगी. नीचे उनके काव्य-शिल्प की कुछ बानगियाँ इस आश्वस्ति के आधार के तौर पर पढ़ी जा सकती हैं-
अलिफ़-लाम की सीढ़ी पर नहीं
तेरी चमड़ी के माप-तौल से
बढ़ता है सूचकांक
इस रंडीखाने का (‘रंडी की छोकरी’)
कल निशा के तीसरे पहर
नींद की खिड़की के उस पार
तकिए पर एक स्वप्न जाग रहा था (‘एक स्त्री का स्वप्न’)
धार्या! तुम्हारा अस्तित्व
योनि की निर्मम रक्त वाहिनियों और शिराओं के स्खलित संकुचन का
बंदी नहीं है
न ही वह पराश्रित है शिश्न के सेतु का (‘प्रकृति की नायिका’)
उसकी दियासलाई-सी आँखों से
गुमशुदा थे ख्वाब (‘भीख’)
ज्यों श्याम मेघों से
लड़ती-झगड़ती हो
कोई सूनी बावड़ी (‘स्मृत है! प्रिय’)
उम्मीद करता हूँ कि व्यापक पाठक-वर्ग तक चंद्रकांता की कविताएं पहुँचेंगी. पढ़ी जाएंगी. विमर्श का हिस्सा बनेंगी.
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चंद्रकांता
दिल्ली में पैदाइश
इतिहास में विवेकानंद कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक, इंदिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र (एम. ए.) और ग्रामीण विकास व मानव अधिकार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.
कुछ कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित.
पहले कविता संग्रह ‘एक दीवार की कथा’ के प्रकाशन की उम्मीद.
पालमपुर ( हिमाचल प्रदेश ) में निवास
chandrakanta.80@gmail.com