आज जनकवि नागार्जुन की बाईसवीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर ‘जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि’ द्वारा समारोह का आयोजन होता है और जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि सम्मान की घोषणा होती है. नरेश सक्सेना, राजेश जोशी और आलोक धन्वा को यह सम्मान दिया जा चुका है.
‘नागार्जुन के साहित्य में स्त्री’ यह आलेख रेखा पाण्डेय ने लिखा है. उनके कथा-साहित्य और काव्य-संसार में स्त्रियों की उपस्थिति की विवेचना इस आलेख में की गई है.
इस अवसर पर यह आलेख प्रस्तुत है.
नागार्जुन के साहित्य में स्त्री
रेखा पाण्डेय
अपने लंबे साहित्यिक जीवन में निरंतर आम लोगों के सुख दुःख के साझीदार, तीखी राजनीतिक टिप्पणियों के लिए मशहूर अदम्य साहस और जिजीविषा के कवि कथाकार बाबा नागार्जुन हिन्दी के प्रगतिशील साहित्य में एक अलग स्थान रखते हैं.
87 साल के जीवन काल में लगभग साठ सालों तक हिन्दी साहित्य के एक युग को रचने के साथ-साथ बाबा ने साहित्य को नई उपमाएँ, नई ऊर्जा, नई सोच, नए भाव, नए प्रतीक और कविता को एक नई प्रयोगशाला भी प्रदान की है. हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञान था और चार भाषाओं में कविता भी करते थे. प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय का मानना है कि-
“भारतेन्दु के बाद वे हिन्दी के अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने चार भाषाओं में कविताएँ लिखी हैं.…वे मैथिली में आधुनिकता के प्रवर्तक माने जाते हैं.”
यानी बाबा नागार्जुन को यदि भाषा पुरुष भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. भाषाओं की तरह ही उन्होंने बैधनाथ मिश्र, ढक्कन मिश्र, वैदेह, यात्री तथा नागार्जुन जैसे अनेक नामों के साथ लेखन किया. इन नामों के अतिरिक्त रचनात्मकता के आधार पर भी कुछ नाम मिले जिनमें जनकवि, रूप-रस-गंध के कवि, लोककवि, आधुनिक कबीर और सबसे प्रिय नाम बाबा है. हिन्दी साहित्य और प्रगतिशील कविता में नागार्जुन की हैसियत से हम सभी वाकिफ़ हैं.
(मैनेजर पाण्डेय और नागार्जुन) |
20वीं शताब्दी के सातवें आठवें दशक में विभिन्न विमर्शों- संरचनावाद (स्ट्रक्चरलिज्म), उत्तर संरचनावाद (पोस्ट स्ट्रक्चरलिज्म), विखंडन या विरचनावाद (ड्रिकस्ट्रक्शन), उत्तर आधुनिकतावाद (पोस्टमार्डनिज्म) और नारी विमर्श (फेमिनिज़्म) ने जन्म लिया. इसके अतिरिक्त समलैंगिकि, काले लोगों तथा हाशिए के समाज पर बातचीत शुरु हुई. हिन्दी साहित्य में भी इनकी चर्चा प्रारंभ हुई. पहचान तथा अस्तित्व के संघर्ष ने परंपरागत अवधारणाओं को चुनौती दी और साहित्य लेखन के साथ-साथ साहित्य को समझने की नई दृष्टियाँ मिलीं. नए विमर्शों को नए सैद्धांतिक आधार भी प्राप्त हुए. नए साहित्य ने यह घोषित किया कि परंपरागत समाज विचारधारात्मक निर्मिति या कंस्ट्रक्शन है. साहित्य ने रूढ़ हो गए विचारों में कैद मानव तथा समाज पर प्रश्न चिह्न लगाया.
फ्रेंच दार्शनिक चार्ल्स फूरियर ने 1837 में ‘फेमिनिज्म\’ शब्द को बनाया तथा 1872 में फ्रांस तथा निदरलैंडस में \’फेमिनिज्म\’ तथा \’ फेमिनिस्ट\’ शब्दों का प्रयोग होने लगा. आगे चलकर अन्य देशों में इस शब्दावली का प्रयोग प्रारंभ हुआ. 6 मई 1992 को न्यूयार्क में ‘फेमिनिस्ट सफ्रेज परेड’ के साथ नारी आंदोलन ने राजनीतिक हस्तक्षेप किया.
भारत में भले ही स्त्री विमर्श शब्द बहुत बाद में आया लेकिन स्त्रियों की दयनीय स्थिति को लेकर राजाराम मोहन राय, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, सावित्री बाई फुले, रमाबाई, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, निराला, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे समाजसुधारक लेखक, विचारक और सजग थे और लिख भी रहे थे. वैसे ही लेखकों में एक नाम बाबा नागार्जुन का है जो प्रारंभ से ही स्त्रियों के प्रति संवेदनशील थे. उनकी समस्याओं को समझते थे.
नागार्जुन ने कविता के साथ-साथ कुल तेरह उपन्यासों की रचना की है जिनमें एक या दो उपन्यास अधूरे हैं. उनके संपूर्ण साहित्य में और संपूर्ण बहस के बीच कहीं न कहीं स्त्री की मौजूदगी है. विशेषकर बेटी बेचना, बाल विवाह और विधवाओं की दयनीय स्थितियों का मार्मिक चित्रण मिलता है. नागार्जुन के उपन्यासों की चर्चा करते हुए गोपाल राय ने लिखा है कि
“नागार्जुन प्रेमचन्द की परम्परा के उपन्यासकार हैं. प्रेमचन्द ने उत्तर प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा के माध्यम से समस्त उत्तर भारत के किसानों की भाग्यगाथा प्रस्तुत की थी. नागार्जुन ने भी यही काम मिथिलांचल के गाँवों को अपनी कथाभूमि बनाकर किया. नागार्जुन के सामने मिथिला का सामाजिक रूढ़ियों में बुरी तरह जकड़ा हुआ समाज था, जहाँ विधवाओं को जीवित ही मृत होने की पीड़ा भुगतनी पड़ती थी, जहाँ आठ-दस वर्ष की बालिकाओं का विवाह साठ-साठ वर्ष के बूढ़ों से कर दिया जाता था, जहाँ कुलीनता के नाम पर एक व्यक्ति से दर्जनों कन्याएँ ब्याह दी जाती थीं, जिसके चलते या तो विवाहित युवतियाँ घोर यातना का जीवन व्यतीत करती थीं अथवा व्यभिचार के लिए बाध्य होती थीं. ‘रतिनाथ की चाची’ तथा ‘नयी प्रौध’ में नारी शोषण की समस्या को नागार्जुन ने गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है और उसका अपने ढंग से समाधान भी प्रस्तुत किया है.”
हिन्दी में कुछ लोग उन्हें आधुनिक कबीर कहते हैं, कुछ लोग उन्हें निराला की अगली कड़ी मानते हैं. क्योंकि कबीर और निराला दोनों की कविता में भावात्मक और कलात्मक प्रयोग के साथ-साथ व्यंग्य, विद्रूपता, और क्रांति है. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और बाबा नागार्जुन में एक और समानता है- दोनों ने कविता के साथ-साथ महत्वपूर्ण गद्य भी लिखा है लेकिन कवि के प्रभा मंडल के सामने गद्यकार का महत्व कुछ कम हो गया. प्रेमचन्द और रेणु की परंपरा के होते हुए भी नागार्जुन उन दोनों से कैसे अलग हैं, इसकी चर्चा करते हुए प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने ‘‘रतिनाथ की चाची’ और स्त्री की पराधीनता का प्रश्न’ नामक निबंध में लिखा है कि
“नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार माना जाता है. प्रेमचन्द की तरह नागार्जुन के उपन्यासों में भी किसानों के जीवन-संघर्ष और मुक्ति-संघर्ष के आख्यान हैं. लेकिन प्रेमचन्द की कथा-दृष्टि और नागार्जुन की कथा-दृष्टि में अंतर भी है. नागार्जुन के उपन्यासों में स्थानीयता या आंचलिकता प्रेमचंद से अधिक है. वहाँ जनपदीयता की जमीन पर खड़ी है भारतीयता. इसलिए वहाँ स्थानीय संस्कृति अधिक मुखर है. फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों में भी स्थानीयता है, आंचलिकता है, लेकिन किसानों और खेतिहर मजदूरों में नयी चेतना जागरण, उनके आंदोलन और संघर्ष का जैसा चित्रण नागार्जुन के यहाँ है, वैसा रेणु के यहाँ नहीं है.”
नागार्जुन के साहित्य में सिर्फ उत्तर भारत या पूर्वी भारत दिखाई नहीं देता बल्कि, वहाँ संपूर्ण भारत दिखाई देता है. यानी यात्री की यात्रा बहुत लंबी है. अतः एक लेख में सबकुछ कह पाना संभव नहीं है.
1948 में प्रकाशित ‘रतिनाथ की चाची’ एक आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसमें स्त्री विमर्श को एक नई दृष्टि मिलती है. उपन्यास की केन्द्रीय कथा मिथिला के एक ब्राह्मण परिवार की विधवा की है जिसका नाम गौरी है. उसका देवर जयनाथ उसे वासना का शिकार बनाता है और वह गर्भवती हो जाती है. जिसके परिणाम स्वरूप वह जीवन भर अपमान, लज्जा, ग्लानि और पश्चाताप की आग में झुलसती रहती है. यहाँ पर गौरी के साथ बालात्कार होने पर भी पूरे समाज, रीति रिवाज और धर्म शास्त्रों के अनुसार गौरी ही दोषी है.
गौरी का विरोध वहाँ की स्त्रियाँ भी करती हैं जिनका नेतृत्व दमयंती बुआ करती है. क्योंकि उसकी दृष्टि में जयनाथ का अपराध क्षम्य है पर गौरी का नहीं. यह सिर्फ कथा नहीं है और न ही स्त्री विमर्श के विरुद्ध कही गई कोई बात, बल्कि एक सत्य यह भी है कि स्त्रियों की दशा और दुर्दशा में जितनी भूमिका पुरुषों की होती है कई बार उससे कहीं अधिक स्त्रियों की भी होती है. रतिनाथ अपने पिता जयनाथ की क्रूरता को जानता और समझता है. इसलिए चाची के प्रति संवेदनशील है और धीरे-धीरे हिन्दू धर्म, पुरुष प्रधान समाज की रूढ़ियों तथा उसकी परंपराओ से घृणा करने लगता है और अंततः घर छोड़ देता है.
यह मात्र संयोग की बात नहीं है कि हिन्दी में उनका पहला उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ है तथा मैथिली में लिखा पहला उपन्यास ‘पारो’ है. ये दोनों उपन्यास स्त्रियों की तड़प, घुटन और दमन की ऐसी दास्तान हैं जिन्हें पढ़कर एक सामान्य व्यक्ति भी अंदर तक सिहर जाएगा. पारो पंद्रह वर्ष की एक चंचल, निडर, बेपरवाह, अल्हड़ बालिका है. उसे पढ़ने का शौक है. उसके पास भी कहे अनकहे हजारों सपने हैं. पिता की मृत्यु हो चुकी है, माँ विवश होकर एक 45 वर्ष के पुरुष के साथ उसका विवाह कर देती है. पति उसे पत्नी बनने के लिए विवश करता है. यह स्त्री के साथ किया जानेवाला पति का साधिकार बलात्कार है जो कि भारतीय समाज का गौरव है. विवाह के उपरांत वह एक ऐसे पुरुष के साथ रहने को बाध्य रहती है जो उसे राक्षस की तरह डरावना लगता है. वह हमेशा डरी, सहमी रहने लगती है, उसके कोमल सपने मरने लगते हैं, उसकी सुन्दर और गहरी आँखें दर्द पीते-पीते और गहरी हो जाती हैं और अंततः एक बच्चे को जन्म देते हुए वह मर जाती है. पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारत के गाँव और शहर, ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं.
“ध्यान में गुलाब की एक कली आई. उसी कली के पास एक बूढ़ा खूसट बारहसिंगा आकर खड़ा हो गया. मैंने लाख उसे हटाया, मगर वह नहीं हटा. तभी उसने उस कली को सूँघा और थूथने को बिजकाकर नाक फरफराने लगा. उसके बाद वह लंपट अपनी सींग से उस कली को कुरेदने लगा. मैने मना किया तो मनुष्य की आवाज़ में बोल उठा तुम क्यों टर्र टर्र कर रहे हो, मैं जंगली जीव हूँ और गुलाब तो जंगल का ही है तो इसकी कली पर केवल भौरों का ही नहीं मेरा भी हक है. कली नहीं खिलेगी तो इसे तोड़ दूँगा.”
उपन्यास में दिए इस रूपक का उल्लेख करते हुए प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि
“पारो एक मार्मिक उपन्यास से अधिक पुरुष सत्ता की क्रूरता की शिकार एक किशोरी की मृत्यु पर लिखा गया लंबा शोकगीत लगता है.”
हिन्दी और संस्कृत के प्रसिद्ध लेखक आलोचक राधावल्लभ त्रिपाठी की पुस्तक ‘बहस में स्त्री’ में ठीक इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख है. वह कोई काल्पनिक घटना नहीं है, बल्कि प्रसिद्ध लेखिका रमाबाई की पुस्तकों और पत्रों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए उन्होंने उस घटना का जिक्र किया है.
“रख्माबाई का विवाह ग्यारह साल की उम्र में उनसे करीब दस साल बड़े दादाजी भीकाजी से कर दिया गया. ससुराल के असहय यंत्रणाप्रद वातावरण को न झेल पाने के कारण रख्माबाई अगले ही दिन अपने घर लौट आईं, और ग्यारह साल ससुरालवालों और पति से उन्होंने कोई संबंध न रखा. हारकर रख्माबाई के कथित पति दादा जी ने उनके खिलाफ पत्नी के साथ सहवास के अधिकार की माँग करते हुए बंबई के हाई कोर्ट में रैस्टिट्यूशन ऑन कॉन्जुअल राइट्स के कानून के तहत 1884 में मुकदमा दायर किया. 1885 में एक अंग्रेज जज श्री पिनी ने इस मुकदमे में रख्माबाई के पक्ष में जो फैसला दिया, उसने सारे हिंदू समाज को हिलाकर रख दिया था.”
बात यहीं नहीं रुकी न्यायाधीश श्री पिनी के फैसले के खिलाफ रूढिवादियों ने अपील दायर की और दूसरे न्ययधीश ने इस फ़ैसले को बदल दिया. यह अलग बात है कि रख्माबाई ने जेल जाना स्वीकार किया किन्तु इस अन्नाय के खिलाफ लड़ती रहीं. इसी पुस्तक में प्रमाण के साथ त्रिपाठी जी ने लिखा है कि
“स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रखर समाजसुधारकों का तबका भी स्त्री को लेकर कितना दकियानूस था, यह ऊपर दी गई पत्रिकाओं की नामावली से ही समझा जा सकता है. तिलक का ‘केसरी’ भी इनमें है, जिसने रमाबाई पर ही नहीं रख्माबाई पर भी आक्रमण किया.”
ये घटनाएँ बताती हैं कि किसी भी सामाजिक लड़ाई को लड़ना, उस पर बात करना, लिखना या किसी कमजोर के साथ खड़ा होना कितना मुश्किल होता है.
(मैनेजर पाण्डेय,नागार्जुन और रेखा पाण्डेय) |
नागार्जुन की प्रगतिशील, राजनीतिक, व्यंग्य तथा क्रांति की कविताओं से सभी परिचित हैं. ठीक उसी तरह उनकी कुछ कविताएँ स्त्रियों को लेकर लिखी गई हैं, जैसे- हिन्दी में ‘सिंदूर तिलकित भाल’, ‘यह तुम थी’, ‘मेरी नवजात सखी’, ‘जया’, ‘गुलाबी चुड़ियाँ’ और प्रसिद्ध कविता ‘तालाब की मछलियाँ’ तथा मैथिली में– ‘बूढ़ बर’, ‘विलाप’ और ‘लखिमा’ आदि हैं. बाबा की संपूर्ण रचनाओं को देखें तो वहाँ राग-विराग दोनों मौजूद हैं. कथा साहित्य की तरह कविता में भी स्त्रियों के प्रति विशेष करुणा है.
एक ऐसा समाज जहाँ आज भी बेटियों को खरीदने और बेचने का व्यापार चलता है. पशुओं की तरह उनकी बोली लगाई जाती है. जो बेचते हैं वे गरीबी का बहाना करते हैं और जो खरीदते हैं वे उम्र से भारी और अमीरी का रौब लिए रहते हैं. इन दोनों के बीच यदि किसी का जीवन नर्क होता है- तो वह लड़कियों का. सब जानते हुए भी दोनों पक्ष धर्म की दुहाई देकर स्वयं को दोषमुक्त कर लेता है. बाबा नागार्जुन की मैथिली में लिखित कविता-‘बूढ़ बर’ इसका एक उदाहरण है. इस कविता में अपने से तीन गुने उम्रवाले दुल्हे के हाथ बेच दी गई लड़की की व्यथा-कथा है-
कुमरठेली मैं, बाप उतावले थे,
बेचने को आकुल, बावले थे
नौ सौ में पटा अंतिम लगन में जाकर
और पिता ने ही काट दी मेरी गर्दन.
यह कविता जितनी मार्मिक है उतनी ही कलात्मक भी है. यह पूरी कविता संवाद शैली में लिखी गई जिसमें वर को देखकर लड़की की माँ, पिता से प्रश्न करती है. वह पूछती है कि अपनी फूल-सी बेटी के लिए घुन खाई लकड़ी (बूढ़ बर) लेकर आए हो. मड़ुए (एक प्रकार का अन्न) के भाव में बेटी को बेच दिया, इससे तो अच्छा होता कि जन्म लेते ही नमक चटाकर मार देते? पिता पैसे की पोटली दिखाने के साथ-साथ धन और खेत का हवाला देता है और खुशी- खुशी परिछावन करने को कहता है.
तड़पती हुई मसलती रही हाथ
पिता के आगे माँ ने झुका दिया माथ.
हृदय लेकिन हाहाकार करता है
अंदर से कलेजा सुलगता है जलता है
वह लड़की सोचती है कि रिश्ते में कोई भी हो पर यदि वह जाति से पुरुष है तो स्त्रियों पर अन्याय, अत्याचार करना उसका धर्म है और अधिकार भी-
जा रे राक्षस, जारे पुरुष–जात!
तेरी ही मारी मर रही हैं हम,
कराह रही हैं, कुहर रही हैं हम
खरीदते हो हमें देकरके टाका,
रुलाते हो हमे होकर बाप और काका
गुजरता है पानी की तरह दिन मेरा
जीवन हो गया है कैसा कठिन मेरा
सुने कौन आज, किसे क्या कहूँ,
फटो हे धरती, समा मैं जाऊँ!
मैथिली में ही एक दूसरी कविता है जिसका शीर्षक है– ‘विलाप’. इसके शीर्षक से ही भाव का पता चलता है. यह एक बाल विधवा का विलाप है जो कवि को इस प्रकार सुनाई देता है-
नन्ही सी कली पीती थी दूध,
सुनती थी राजा रानी की कथा,
उसी तीन वर्ष की कली का विवाह कर दिया जाता है और कुछ ही साल बाद वह विधवा हो जाती है. धर्म के नाम पर उसके साथ भी वह सब किया जाता है जिसका उसे ज्ञान भी नहीं है. समाज और परिवार से उसका विश्वास उठ जाता है. यह कविता इतनी मार्मिक है कि इसे पढ़ पाना मुश्किल हो जाता है. वह छोटी-सी लड़की कैसे मृत्यु की कामना करती है-
आग छूती हूँ पर जलती नहीं
जहर खाती पर मरती नहीं
फटता है कलेजा पर निकलता नहीं प्राण
कौन-सा पाप किया था हे भगवान.
इतनी छोटी उम्र में ही अपने महत्वहीन जीवन के सच को समझने लगती है. न केवल समझती है, बल्कि स्वीकार भी करती है-
मरूँगी तो भी रोएगा नहीं कोई,
जीऊँ तो भी आएगा नहीं कोई.
अंत में वह स्वयं से ही प्रश्न करती है कि यह भी कोई जिन्दगी है? इससे तो कुत्ते बिल्लियों का जीवन अच्छा है जिन पर माँ-बाप या समाज का कोई दबाव नहीं है. क्या इस संसार की सारी विधवाएँ दीन, हीन पशु की तरह जीवन बिताती हैं? वह श्राप देती है-
विधवाएँ मेरी जैसी हजार के हजार
बहाए जा रही हैं आँसुओं की धार
उसी में डूब जाय यह देश
डूब जाय सब लोग बाग
नाश हो या बज्र भले गिरे
ऐसी जाति पर भले ही धंसना धंसे
हो जाय भूकम्प या धरती फट जाय
माँ मिथिला रहकर क्या करोगी!
‘पारो’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘विलाप’ और ‘बूढ़ बर’ में जहाँ स्त्रियों का विलाप सुनाई देता है वहीं तालाब की मछलियाँ में परिवर्तन की आवाज सुनाई देती है. यह एक लंबी कविता है. इसमें बार-बार ‘परिधि गई है टूट’ ‘कोशी की धार ने आकर तोड़ दिया है भिंड़ा’ ‘हम भी मछली तुम भी मछली’ ‘दोनों ही उपभोग की वस्तु हैं’, जैसी शब्दावलियों का आना स्त्री विमर्श के दूसरे दौर का संकेत देता है. उस बेचैनी, उस आक्रोश की ओर संकेत करता है जो सदियों से दबी पड़ी हैं-
उथल पुथल है जन जीवन में
सभी ओर उत्क्रांति हो रही है,
टूट रहे हैं अंतःपुर के ढाँचे
आज या कि कल
तुम भी तो निकलोगी बाहर
हवेलियों से, डेवढ़ियों से
फिर जनपद के खंड नरक मिट जाएँगे
शब्दकोश को छोड़ कहीं भी
नहीं ‘असूर्यस्पर्श्या’का अस्तित्व रहेगा
औरतदारी रह न जाएगी.
जन सत्ता को दिए एक साक्षात्कार में बाबा ने कहा था कि ‘यदि विधाता हो तो सात या नौ वर्ष के लिए माँग लें कि हमको स्त्री बनाओ. मुझे लगता है कि सबसे बड़ी हरिजन (दलित) जो हैं वो स्त्रियाँ हैं. इनका दलितपना कब समाप्त होगा, ये हम सबको नजर नहीं आ रहा है. विदेशी रेडियो से हम सुनते हैं कि औरत को तेरह तरह के भार झेलने होते हैं. गर्भ भार उनकी तुलना में बहुत कम है.’
यह कहने का साहस सिर्फ नागार्जुन ही कर सकते थे.
बाबा की एक और लेकिन विशेष कविता का जिक्र करना चाहती हूँ. वह कविता है- ‘जया’. जया चार साल की एक गूँगी-बहरी लड़की को केन्द्र में रखकर लिखी गई कविता है. कवि उस गूँगी-बहरी लड़की की भाषा और उसके भावों को समझता है. वह जानता है कि उसके पास भी उसकी अपनी एक भाषा है-
छोटे-छोटे मोती जैसे दांतों की किरणें बिखेरकर
नीलकमल की कलियों जैसी आँखों में भर
अनुनय सादर
पहले पीछे शासक सी तर्जनी उठाकर
इंगित करती, नहीं मैं जाने दूँगी
चार साल की चपल चतुर वह बहरी गूँगी.
कवि और कविता यहीं नहीं रुकते बल्कि वे जया के सपनों को जानने की ओर निकल पड़ते हैं. जैविक अक्षमता के बावज़ूद जया की आँखों में अभिलाषा है, उसकी अपनी कला और अभिव्यक्ति है-
वह बोल नहीं सकती पर
उसकी भी अपनी भाषा है
काफी है सूझ समझ उसमें, सुख है, दुःख है अभिलाषा है.
नागार्जुन की यह कविता पढ़ते हुए अनायास ही त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ याद आ जाती है. इन दोनों कविताओं में जितना स्नेह, जितना माधुर्य है और सहजता है उसे शब्दों में व्याख्यायित करना मुश्किल है. मन की सहजता और निश्छलता का पूरा विस्तार है.
‘पैने दाँतोंवाली’ और ‘नीम की टहनियाँ’ को प्रयोग, प्रतीक, बिम्ब और रूप की दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है. इन दोनों कविताओं में अथवा नागार्जुन की इस तरह की तमाम कविताओं में स्त्री विमर्श के तीसरे दौर को देखा जा सकता है. नागार्जुन अपने समय के साथ और उससे आगे चलनेवाले कवि हैं. वे प्रतिरोध को पहचानते ही नहीं हैं, उसका दिल से समर्थन भी करते हैं. इन दोनों कविताओं में स्त्री का प्रतिरोध मुखर होकर सामने आया है. वह सूअर पैने दाँतोंवाली होकर भी सहमति-असहमति को समझती है, उसे इसका पूरा बोध है, अपनों बच्चों के लिए उसके दाँत पैने नहीं हैं-
जमना किनारे मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है,
यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है.….
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन मिजाज ठीक ठाक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे पूरे थनों की खीच-तान
दुधमुंहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान.
जमना किनारे मखमली दूबों पर
पसरकर लेटी है,
यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है.
यह कविता लिखते हुए संभवतः नागार्जुन के ध्यान में हिन्दुस्तान वो तमाम बेटियाँ रही होंगी जो खेत में काम करने या अन्य कहीं मेहनत मजदूरी करने के बाद श्रांत होकर घर लौटती हैं और किसी भी मैली कुचैली जगह पर लेट जातीं हैं और उनके बच्चे उनके स्तनों को खींच खींचकर चबाते रहते हैं. बहुत लोग उनसे घृणा भी करते हैं, उन्हें अपमानजनक हेय दृष्टि से देखते हैं लेकिन वे अपनी नई पीढ़ी को सींचती रहती हैं. दूसरी और वे देख पाते हैं नीम की इन कोमल किन्तु तिक्त टहनियों को जो तिक्त होते हुए तीखी नहीं हैं. उनमें नए जीवन का स्वाद और सौन्दर्य है-
वे नीम की टहनियाँ हैं,
झांकती हैं सीखचों के पार.
पर तीखी नहीं हैं
देती हैं ताजगी बुझाती हैं प्यास.
दूसरे विश्वयुद्ध की तबाही के बाद ही वर्जिनिया वुल्फ़ ने ‘थ्री गिन्नीज़’ नाम से एक लंबा निबंध लिखा था. इस निबंध में उन्होंने लिखा कि किसी भी युद्ध को रोकने, देश के पुनर्निर्माण तथा देश को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध करने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है यदि उन्हें समानता का अधिकार दिया जाए.
अमेरिका की प्रसिद्ध आलोचक और समाजशास्त्री ऐलेन शोवाल्टर ने 1977 में ‘लिटरेचर ऑफ देयर ओन’ नाम से एक किताब लिखी. इस पुस्तक में उन्होंने स्त्री लेखन के इतिहास और विमर्श के विकास को तीन भागों में बाटकर देखा- पहला दौर 1840 से 1880, दूसरा दौर 1880 से 1920 और तीसरा दौर 1920 से अबतक का माना जा सकता जिसमें कई आंतरिक विभाजन है. ऐलेन शोवाल्टर ने उसे परिभाषित करते हुए लिखा कि-
1. फेमिनिन फेज (1840–1880) इस दौर में महिलाओं ने आत्मकथाओं के माध्म से अपनी पीड़ा व्यक्त की और साथ ही पुरुष द्वारा निर्धारित संस्कृति के साथ-साथ बौद्धिकता के क्षेत्र में पुरुष की सत्ता को चुनौती दिया.
2. फेमिनिस्ट फेज (1880-1920) इस दौर में पुरुषों द्वारा निर्धारित उपमानों का विरोध हुआ. लेखन स्त्रियों के लिए प्रयुक्त शब्दवलियों का विरोध हुआ. स्त्रियों के संबंध में पुरुषों की समझ को चुनौती दी गई. उनके अनुभव को प्रधानता दी गई.
3. फिमेल फेज (1920- अबतक) इस दौर का यह सिद्धांत रहा कि ‘वुमेन शुड फ्री ऐज मैन फ्री’ भाषा, राजनीति और अर्थ तीनों दृष्टियों से समानता की बात कही गई.
फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक मिशेल फूको ने सत्तर के दशक में अनुशासन और नियंत्रण का सिद्धान्त दिया जिसे नारीवादी चिन्तकों द्वारा स्वीकार किया गया. लेकिन नागार्जुन 1948 में एक ओर ‘तालाब की मछलियाँ’ जैसी कविता और दूसरी ओर ‘रतिनाथ की चाची’ और फिर ‘पारो’ जैसा उपन्यास लिख रहे थे जहाँ स्त्री-देह और मन के अनुशासन के बीच के अंतर और चिन्हों को रेखांकित कर रहे थे.
नागार्जुन आमजन की बात आम भाषा में ही कर रहे थे, संभवतः यही कारण है कि वे लोगों से स्वयं को जोड़ पाए.
(आजकल फेमस होने का एक चलन चल पड़ा है. उसके लिए लोग फेसबुक पर किसी के बारे में कुछ भी लिख देते है और दूसरे लोग भी आव देखते हैं न ताव तुरंत कमेन्ट करना शुरु कर देते हैं. बाबा नागार्जुन को लेकर भी यह हो चुका है. फेमस हो जाने के बाद पोस्ट करने वाले ने पोस्ट हटा लिया अब उनका क्या हो जिन्होंने कमेंट कर दिया. कोई यूँ ही महान नहीं होता. किसी बड़े व्यक्ति यानी रचनाकार पर बात करते वक्त हमें इतना तो संज़िदा होना ही चाहिए. किसी इमानदार रचनाकार की पूँजी उसके पाठक और श्रोता ही होते हैं.- रेखा पाण्डेय )
( पाठक जानते ही हैं कि नागार्जुन पर चाइल्ड अब्यूज़ के आरोप लगे हैं जो बहुत ही गंभीर और संगीन हैं. इसकी सत्यता अभी प्रमाणित होनी है. आरोपी की उम्र उस समय मात्र 3 वर्ष की थी. अगर ऐसा सत्य है तो फिर सोचना होगा कि नागार्जुन के लेखन की सार्थकता क्या है. – संपादक
________________________
संदर्भ
1. हिन्दी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय
2. बहस में स्त्री- प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी
3. उपन्यास और लोकतंत्र- मैनेजर पाण्डेय
4. आलोचना की सामाजिकता – मैनेजर पाण्डेय
5. नागार्जुन रचनावली
6. नागार्जुन चयनित कविताएँ- मैनेजर पाण्डेय
7. A Literature of Their Own– Elaine C. Showalter–
1. Feminine: In the Feminine phase (1840–1880), \”women wrote in an effort to equal the intellectual achievements of the male culture, and internalized its assumptions about female nature\”.
2. Feminist: The Feminist phase (1880–1920) was characterized by women\’s writing that protested against male standards and values, and advocated women\’s rights and values, including a demand for autonomy.
3. Female: The Female phase (1920-till) is one of self-discovery. \”women reject both imitation and protest—two forms of dependency—and turn instead to female experience as the source of an autonomous art, extending the feminist analysis of culture to the forms and techniques of literature\”
_____
रेखा पाण्डेय
गोपालगंज (बिहार)
एम. फिल एवं पीएच. डी. सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, हैदराबाद से.
‘छायावादी कवियों का आलोचना कर्म’ तथा ‘बालसाहित्य और आलोचना’ पुस्तकें प्रकाशित.
कथा पत्रिका की सहायक संपादक 2012-2015
नवलेखन आलोचना पुरस्कार(वागर्थ 2008), धनवती देवी कथा सम्मान (2017) से सम्मानित.
सम्प्रति
असिस्टेण्ट प्रोफेसर, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली
ईमेल– rpan011@gmail.com
मो. 9928624777