राकेश बिहारी
शताब्दी से शेष नामक कथा-संचयन, जिसमें बीसवीं शताब्दी में लिखी गई पंकज बिष्ट की लगभग सभी कहानियाँ शामिल हैं, की भूमिका में अपनी कथा-यात्रा पर बात करते हुये वे कहते हैं– “इन कहानियों में अपने दौर के विभिन्न बदलावों और उनकी चुनौतियों को लगातार अभिव्यक्त करने की कोशिश है. इस पर भी ये कहानियाँ इतिहास या दस्तावेज नहीं हैं. बल्कि अभी-अभी गुजरी सदी का ऐसा कोलाज है जिसका निर्माण निजी वृतांत से निर्मित है.”
एक सहज लेखकीय वक्तव्य लगने वाली उपर्युक्त पंक्तियों में तीन बातें गौरतलब और महत्वपूर्ण हैं. एक- पंकज बिष्ट की कहानियों का मूल स्वर, दूसरी- उनकी लेखकीय विनम्रता और तीसरी- कथा निर्मिति में ‘निज’ की भूमिका का महत्व. पंकज बिष्ट मूलतः एक समय और शिल्प सजग कथाकार हैं. अपने समय में घटित होनेवाले सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों की पहचान करते हुये, उनकी दूरगामी चुनौतियों और प्रभावों को अभिव्यक्त करने हेतु कथा-रचना की नई प्रविधि का संधान इनकी कथा-यात्रा की बड़ी विशेषता है. लगभग पचास वर्षों के फ़लक पर फैली पंकज बिष्ट की रचनाशीलता के कई आयाम हैं, जिनमें कहानी लेखन, उपन्यास लेखन और सम्पादन तीनों ही शामिल हैं.
पचास वर्षों की इस रचना यात्रा में लगभग चालीस कहानियाँ, तीन उपन्यास (लेकिन दरवाजा, उस चिड़िया के नाम और पंखों वाली नाव) तथा पिछले 21 वर्षों से ‘सहमति का विवेक और असहमति के साहस’ का मासिक ‘समयान्तर’ का नियमित सम्पादन और प्रकाशन शामिल है. सरकारी सेवा के दौरान कई वर्षों तक ‘आजकल’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का कुशल सम्पादन इनकी लेखकीय यात्रा का चौथा और जरूरी कोण है. हालांकि एक लंबे समयान्तराल के बाद पिछले वर्ष नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘ऐसी जगह’ कथाकार के रूप में पंकज बिष्ट के आज भी सक्रिय होने को दर्शाता है. पर बीसवीं सदी के सातवें दशक से नवें दशक के बीच लिखी गई इनकी कहानियाँ इनकी रचनात्मक क्रियाशीलता और हिंदी कहानी में इनके उल्लेखनीय अवदान दोनों ही दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं.
दो-एक अपवादों को छोड़ दें तो 1968 से 1994 यानी लगभग पच्चीस वर्षों की कालावधि में प्रति वर्ष एक या उससे थोड़ा ज्यादा (दो नहीं) के गणितीय औसत से कहानी लिखने वाले पंकज बिष्ट भले अपनी कहानियों को कोई इतिहास या दस्तावेज़ नहीं मानने की विनम्रता रखते हों, पर जिस बारीकी से उनकी कहानियाँ इस कालखंड में घटित सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की पदचाप और उसकी संभावित अनुगूंजों को दर्ज करती हैं, वह इन्हें कई अर्थों में ऐतिहासिक बनाती है.
कहानी की संरचना और उसके रूप-शिल्प को लेकर एक खास तरह की प्रयोगधर्मिता पंकज बिष्ट के कहानीकार की एक ऐसी विशेषता है जो इन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है. यहाँ यह कहा जाना भी जरूरी है कि कहानियों के रूप को लेकर किए गए ये प्रयोग, जिन्हें यथार्थ से जादुई यथार्थ तक की यात्रा भी कहा जा सकता है, किसी कौतुक या सिर्फ प्रयोग के लिए किए जाने वाले लेखकीय करतब का नतीजा नहीं, बल्कि लगातार जटिल से जटिलतर हो रहे यथार्थ की शिनाख्त और उसकी पुनर्रचना के लिए नए उपकरणों की तलाश है. समय और अभिव्यक्ति दोनों की जटिलताओं पर समान रूप से नज़र रखने रखनेवाले पंकज बिष्ट की कहानियाँ अपने विषय वैविध्य के कारण भी पाठकों का ध्यान खींचती है.
निजी संघर्ष और रूमान से विनिर्मित इनकी शुरुआती कहानियाँ यथा- ‘सूली चढ़ा एक और मसीहा’ तथा ‘उम्मीद’ से लेकर ‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ? तक की उल्लेखनीय कथा-यात्रा के दरम्यान सांप्रदायिकता के अलग-अलग आयामों को तलाशती कहानियों (‘कुंजरोवा’, ‘क्या कहना है जटायु, खून) से लेकर उपभोक्तावाद के आगमन के शुरुआती पदचापों और उसकी संभावित त्रासदियों को पहचानने वाली कहानियाँ तक शामिल हैं. युद्ध की विभीषिका से उत्पन्न युग-सत्यों को संबोधित करने वाली कहानी ‘मोहनजोदड़ो’ और समय के साथ परिवर्तित हो रहे मूल्यों और नैतिकताबोध की बारीकियों को उजागर करती ‘जीना’ और ‘उस गोलार्द्ध में’ जैसी कहानियाँ पंकज बिष्ट की कथा-यात्रा के उल्लेखनीय पड़ाव हैं.
आपातकाल, गांधीवादी आदर्शों से लगातार बनती दूरियाँ, आर्थिक उदारीकरण की आड़ में फलता-फूलता उपभोक्तावाद और सांप्रदायिक शक्तियों का उभार – इन चार बड़ी परिघटनाएँ से मिलकर ही पंकज बिष्ट की कहानियों का समकाल निर्मित होता है. एक सजग और प्रतिबद्ध रचनाकार की तरह पंकज बिष्ट अपनी कहानियों में इन इन सबसे मुठभेड़ करते और लहूलुहान होते दिखाई पड़ते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि उस समयावधि की ये चारों परिघटनाएँ आज अपने प्रभाव और प्रकृति के चरम पर उपस्थित हैं. एक समर्थ रचनाकार किस तरह अपने समय की आहटों को इनकी समस्त संभावित विडंबनाओं के साथ उनके शुरुआती दिनों में ही अपनी रचनाओं में पहचान लेता है, इसे पंकज बिष्ट की कहानियों को पढ़ते हुये बखूबी महसूस किया जा सकता है. अपने समय-समाज से जूझते हुये वे लगातार प्रश्न पूछते हैं. आज जब प्रश्न पूछने के जनतान्त्रिक अधिकारों को ही खत्म करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं, पंकज बिष्ट की कहानियों में किसी आवश्यक रसायन की तरह घुली और बेचैन करनेवाली उन प्रश्नाकुलताओं के गहरे निहितार्थ हैं. ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ ‘क्या कहना है जटायु?’ ‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ?’ जैसी कहानियों के शीर्षकों की प्रश्नवाचकता को इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए.
उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर नब्बे के दशक में जिन संरचनात्मक समायोजन वाले आर्थिक बदलावों की शुरुआत हुई थी, वह आज हमारे जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है. प्रौद्योगिकी के विकास के समानान्तर समस्त प्राकृतिक और मानव संसाधनों के दोहन के बीच ‘उपभोग’ का लगभग एक मूल्य की तरह स्थापित हो जाना पिछले सदी की सबसे बड़ी घटना है. जब मैं उपभोग के एक मूल्य की तरह स्थापित हो जाने की बात कह रहा हूँ तो यहाँ उपभोग शब्द की अर्थ-सीमा बहुत बड़ी है और ख़रीदारी में प्राप्त किसी वस्तु के इस्तेमाल तक ही सीमित नहीं है. बल्कि आज यह ‘क्रिया’ की सीमाओं का अतिक्रमण कर एक ‘प्रक्रिया’ का स्वरूप ग्रहण कर चुका है जिसमें किसी वस्तु या सुविधा के लिए जनसामान्य में इच्छा उत्पन्न करना भी शामिल है, जिसे किसी उत्पाद के संभावित ख़रीदारों का निर्माण भी कहा जा सकता है. इस तरह एक नए उपभोक्ता समाज या संस्कृति का निर्माण ही इस पूरी प्रक्रिया का लक्ष्य और उद्देश्य है.
उपभोक्ता संस्कृति की यह परिकल्पना दरअसल अर्थव्यवस्था के सोवियत प्रारूप के विकल्प की तरह अमेरिका ने प्रस्तावित की थी, जो आज भारत सहित दुनिया के लगभग तमाम देशों में फल-फूल रही है. उपभोक्ता समाज के इस प्रारूप की उद्देशिका को स्पष्ट करते हुये आर्थिक इतिहास के प्रख्यात विशेषज्ञ गिरीश मिश्र अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक उभोक्तावाद में कहते हैं-
“सोवियत मॉडेल में अपरिग्रह और समानता पर जोर था. उपभोक्ता समाज का अमेरिकी मॉडेल रेखांकित करता था कि अपरिग्रह और आर्थिक संवृद्धि के फल के समान वितरण पर ज़ोर न देकर उपभोग को बढ़ावा दिया जाए जिसके परिणामस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ेगी और उत्पादक अपने उत्पादन को बढ़ाने में तत्परता दिखलाएंगे. उपभोग को बढ़ावा देने के लिए नई-नई और बेहतर वस्तुएं और सेवाएँ बाज़ार में लाई जाएंगी. विज्ञापनों के जरिये संभावित उपभोक्ताओं को आकर्षित करने की कोशिश होंगी.”
उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व उपभोग समाज के एक खास और उस वर्ग के लिए आरक्षित शब्द था. इसलिए उपभोक्ता समाज के निर्माण की यह परिकल्पना कुछ अर्थों में उपभोग के जनतांत्रीकरण की दिशा में बढ़ा हुआ एक कदम प्रतीत होता है. लेकिन संभावित ग्राहकों के निर्माण का मुख्य और मूल उद्देश्य येन केन प्रकारेण लाभ का निर्माण और संवर्धन ही होता है. यही कारण है कि इस प्रक्रिया के साइड इफ़ेक्ट्स दूरगामी और कई अर्थों में घातक भी होते हैं. टेलीविज़न और विज्ञापन उस जानलेवा उपभोक्ता संस्कृति और समाज के विस्तार में किस तरह निर्णायक भूमिका अदा करता है, उसे पंकज बिष्ट की कहानी ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ में आसानी से समझा जा सकता है. ऊपर से आकर्षक और चमचमाता दिखता अर्थव्यवस्था का यह अमेरिकी मॉडेल जब एक व्यक्ति को उपभोक्ता में बदलता है तो कैसे उसकी प्राथमिकताएँ बदलती हैं और कैसे उसकी बदली हुई प्राथमिकताएँ उसके जीवन और परिवार को क्षत-विक्षत कर देती हैं, इसे इस कहानी के मुख्य पात्र बिशन दत्त की नियति में महसूस किया जा सकता है. जब व्यक्ति अपने नाम से नहीं, क्वार्टर नंबर से पहचाना जाये, जब कैलेंडर में अंकित तारीखें उत्सव और त्योहारों के दिन के बजाए बैंक ऋण की मासिक किश्तों की स्मारिका का रूप धर लें और टी वी पर चलने वाले विज्ञापन हमारी इच्छाओं के सारथी की भूमिका में आकर स्वास्थ्य और बीमारी जैसी अपरिहार्य चिंताओं को भी प्राथमिकता सूची के आखिरी पायदान पर धकेल दे तो बिशन दत्त जैसे लोगों की मौत, मौत नहीं हत्या होती है-
“पर्दे पर उस समय तक एक नया ही खुशनुमा विज्ञापन चलने लगा था- ज़िंदगी को और भी सुंदर बनाने का. पर पर्दे से बाहर जो हो रहा था, वह अविश्वसनीय था. रघुवा देख रहा था, किसी फिल्न्म के स्लो मोशन शॉट की तरह अपनी पूरी विकरालता और बारीकी में उसके पापा बिशन दत्त अपनी छाती दबाये हुये सेमल के फूल के रुओं-से हवा में थोड़ा-सा उछले थे और उसके बाद धप्प से फर्श पर औंधे मुंह जा पड़े थे.”
उल्लेखनीय है कि बिशन दत्त बैंक लोन की आखिरी किश्त चुकाने के बाद ‘अपने यानी पूरी तरह अपने टी वी सेट पर बिना किसी उधार के भार के’ 18 मार्च की उस शाम जब फिल्म देखते हुये खून की उल्टी करते हुये धप्प से गिर गया, उसके ठीक पहले विज्ञापनों का सिलसिला चल रहा था. जायकेदार चाय, साइकिलों के रेले, इनर्जी ड्रिंक और चमचमाती विदेशी कार के बाद टेलीविज़न सेट पर चली रिवाल्वर की गोली… और इन सबका गवाह रघुवा, बिशन दत्त का बेटा! विज्ञापन में चलनेवाली गोली दरअसल उपभोक्तावाद की गोली है जिसे सन 1984 में ही पंकज बिष्ट ने पहचान लिया था.
औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात वस्तु और सेवाओं के उत्पादन में जो वृद्धि हुई थी उसे सूचना और संचार की क्रान्ति ने पंख लगाकर आम जनजीवन तक पहुंचाने में बहुत ही प्रभावशाली भूमिक निभाई है. उपभोक्ता संस्कृति पहले तो आवश्यकता की उंगली पकड़ कर चलना सीखता है फिर धीरे-धीरे जनमानस में बाज़ार के उत्पादों के लिए एक छद्म आवश्यकता की जगह बनाना शुरू कर देता है. नतीजतन गैरज़रूरी और क्रय क्षमता के बाहर की चीजों की खरीद के प्रति लोगों मेन एक तेज ललक पैदा होते है और यह एक ऐसी संस्कृति के विकास के रूप में समाज में उपस्थित होता है जहां लोग बेजरूरत और अनावश्यक चीजों को हासिल करने के लिए कभी ऋण तो कभी अनीति तक का सहारा लेने लगते हैं. वस्तु के उत्पाद हो जाने की प्रक्रिया में उसका प्रतीकमूल्य या ब्रांड वैल्यू उसके विक्रय मूल्य और लागत मूल्य के बीच एक अकल्पनीय दूरी स्थापित कर देता है.
इस तरह उपभोग की यह नई सभ्यता सामाजिक विषमता और विभेदीकरण की एक ऐसी संस्कृति को जन्म देती है जिसमें महंगे उत्पाद और अधुनातन सेवाओं का क्रय स्टेटस सिंबल में बदल जाता है. खुद को दूसरे के मुक़ाबले श्रेष्ठा दिखाने और दूसरे को स्वयं की तुलना में हीन समझने की प्रवृत्ति इसी का परिणाम है. यह स्थिति तब और ज्यादा त्रासद और तकलीफदेह हो जाती है जब परस्पर फासले की ये इबारतें बच्चों के कोरे मनो-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती है. ‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ?’ शीर्षक कहानी में अपने मालिकों के बच्चों के लिए खरीदे गए एडीडास के जूते की मंहगी कीमत जानने के बाद या मारुति 800 में अपने लिए जगह नहीं बनने पर घूमने नहीं जा सकने की स्थिति में उसके मन पर जो असर पड़ता है वह इसी संस्कृति का परिणाम है-
“टिंकी को यह चर्चा ‘बोल्ड एंड ब्युटीफुल से बेहतर लगी. उसने फौरन हस्तक्षेप किया, “अरे मोहनदास, अब जूते पाँच-पाँच हजार तक के होते हैं.”
“उन्हें सर में पहनते हैं क्या?” मोहन ने चिढ़े हुये स्वर में कहा.
“तुम्हारे यहाँ पहनेंगे सर में, मोहनदास जी. हमारे यहाँ तो पैर में ही पहनते हैं.” उसने भी जवाब देने में कसर नहीं छोड़ी.
स्पष्ट था कि वह अब भी नहीं मान रहा है. यह बात टीटू को नागवार लगने लगी थी. उसके ग्यारह सौ के जूते का सरासर अपमान हो रहा था.
“क्या कहा तूने इसको टिंकी, मोहनदास. वाकई यह आदमी मुझे मोहनदास कर्मचन्द गांधी लग रहा है- द नैकेड फकीर.” और वह अपनी प्रत्युत्पन्नमति पर मुग्ध हो, खुद ही हंसने लगा.”
उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्प्रभावों के साथ गांधीवादी सपनों के क्षरण और निष्कासन की स्थिति पर चोट करने वाला कहानी का यह अंश कहानीकार की दूर दृष्टि और प्रतिबद्धता दोनों का ही परिचायक है. उल्लेखनीय है कि यह कहानी 1994 में प्रकाशित हुई थी. इस कहानी के प्रकाशन के लगभग सत्ताईस वर्षों के बाद कार और जूते सहित अन्य उत्पादों के विभिन्न महंगे ब्राण्डों से अटे पड़े बाज़ार के समानान्तर गांधी जयंती के दिन ‘गोडसे अमर रहे’ के ट्रेंडिंग हैश टैग को देखते हुये ‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ?’ के नए अर्थ खुलने लगते हैं. आज के समय को तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व पहले ही देख-समझ लेने की यह क्षमता ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ और ‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ?’ के महत्व को दीर्घकालिकता प्रदान करता है.
‘मोहन राम (दास) आखिर क्या हुआ?’ का पूर्वार्द्ध जिसका जिक्र ऊपर हुआ है, पूरी तरह पारंपरिक और यथार्थवादी शिल्प में लिखा गया है. कहानी के पूर्वार्द्ध में मोहन पर उसके मालिक के बच्चों की बात का जो असर पड़ता है उसकी दूरगामी भयावहता को दिखाने के लिए उत्तरार्द्ध में पंकज बिष्ट यथार्थ के जादू का सहारा लेते हैं. महंगे जूते की ललक और उसे खरीद सकने की अक्षमता मोहन के लिए किसी मानसिक आघात से कम नहीं है, जो उसका पीछा सपने में भी नहीं छोड़ता. लेकिन यह सपना वह सपना नहीं है, जिसके मर जाने को पाश सबसे खतरनाक कहते हैं. सपने में एडीडास का वह जूता हवाई जहाज में बदल जाता है जिसमें मोहन बैठा हुआ है और कुछ देर की बीहड़ उड़ान के बाद वह वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है जिसमें उसकी जान चली जाती है. जाहिर है, मोहन के सपनों में उड़ता हुआ जूता उस उपभोक्तावाद का प्रतीक है जिसने वर्गीय विषमता के सांघातिक बोध के बाद उसके भीतर आत्मघाती हीनता के बीज रोप दिये हैं.
गौर किया जाना चाहिए कि यहाँ विश्लेषित दोनों ही कहानियों में क्रमशः बिशन दत्त और मोहन की मृत्यु हो जाती है. लेकिन इन दोनों ही पात्रों की इस नियति को मृत्यु कहना उसकी मौत की कीमत को कम करना होगा कारण कि यह मृत्यु नहीं सांस्थानिक हत्या है. यथार्थ के प्रकटीकरण की जादूई शैली निश्चित तौर पर इस हत्या की काली छाया को एक ऐसे कैनवास पर उकेरती है जो आज और ज्यादा प्रासंगिक हो गया है.
पंकज मित्र की कहानी पड़ताल को पहली भूमंडलोत्तर कहानी की तरह विवेचित करने के क्रम में बाज़ार और जीवन-व्यवहार के अंतर संबंधों पर बात करते हुये मैंने उसे रेणु की ‘पंचलाइट’ और संजय खाती की ‘पिंटी का साबुन’ की परंपरा में रख कर देखा है जिसका विकास बाद में आकांक्षा पारे की कहानी ‘शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट’ में होता है. यहाँ बाज़ार और जीवन-व्यवहार के चरणबद्ध सम्बन्धों को मैंने क्रमशः कौतूहल, स्पर्धा, उपेक्षा और हत्या के क्रम में विश्लेषित किया है. पंकज बिष्ट की कहानियों से गुजरते हुये मुझे यह अहसास हो रहा है कि कहानियों की इस परंपरा को ठीक से समझने के लिए ‘पंचलाइट’ के बाद और ‘पिंटी का साबुन’ के पहले ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ को अवश्य ही रखा जाना चाहिए. इस तरह बाज़ार को ख़रीदारी से कहीं बहुत आगे उपभोग का वाहक हो जाने की बात कहने वाली इन कहानियों से गुजरना मेरे लिए खुद की परिमार्जन-यात्रा पर निकलने जैसा भी है.
(बया के इस अंक में भी यह आलेख प्रकाशित है\’)
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