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Home » किताब की यात्रा: रमाशंकर सिंह

किताब की यात्रा: रमाशंकर सिंह

किताब पहले भी लिखी जाती थी पर प्रिंटिंग प्रेस से निकलकर किताब किताबें हुईं, बहुत दिनों तक उन्हें पवित्र और प्रामाणिक माना जाता रहा. नगर में पुस्तकों का आलय होना नगर के लिए बड़ी बात थी. घर में किताबें हों तो घर का संस्कार बनता था. ज्ञान की लोकतांत्रिकता और उपलब्धता का पर्याय हैं पुस्तकें. लाखों लोगों की जिंदगी किताबों ने हमेशा हमेशा के लिए बदल दी हैं. अभी भी सबसे कमजोर का अंतिम बल पुस्तकें हैं. जहाँ पुस्तकों ने सभ्यता को बदला वहीं अब पुस्तकें भी बदल रहीं हैं. कागज़ पर छपा होना ही अब किताब होना नहीं है. वे अब स्क्रीन पर भी उभरती हैं. वाचिक से लिखित फिर उनका यह डिजिटल रूप. चीजें इसी तरह आगे बढ़ती रहती हैं. रमाशंकर सिंह समाज-विज्ञानी हैं. फेसबुक पर चले अपनी पसंद की किताबों के बहाने उन्होंने किताबों की यात्रा पर यह दिलचस्प आलेख लिखा है, उनकी नज़र भारतीय समाज पर पड़े इसके प्रभावों पर भी है.

by arun dev
February 21, 2020
in आलेख
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किताब की यात्रा: रमाशंकर सिंह
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किताब की यात्रा
रमाशंकर सिंह

वर्ष 2019 में फेसबुक पर एक चुनौती चली: सात दिन तक लगातार अपनी पसंद की सात किताबें साझा करने के लिए और किसी अगले व्यक्ति को नामित करने के लिए कि वह भी सात किताबें फेसबुक पर साझा करे. तो ऐसा करते हुए मेरे एक किशोर दोस्त ने मुझे चुनौती दी कि क्या तुम सौ दिन तक लगातार अपनी मनपसंद किताबों को फेसबुक पर साझा कर सकते हो? यह मुश्किल घड़ी थी. मुझे बचपन के वे अनाम पोस्टकार्ड और धुँधले परचे याद आ गए जो किसी को भी सड़क पर, स्कूल जाते समय या अपने झोले में कहीं से मिल जाते थे और उन पर लिखा रहता था कि ऐसे हजार या पाँच सौ परचे या पोस्टकार्ड छपाकर आप भी बाँटिये नहीं तो अनिष्ट होगा, आपकी मृत्यु भी हो सकती है और आश्चर्य की बात तो यह थी कि कुछ लोग इस भयोत्पादक खेल में शामिल भी हो जाते थे. अनिष्ट, अमंगल और मृत्यु उन्हें यह खेल खेलने के लिए बाध्य करती थी. किताब के साथ ऐसा नहीं है.
वह अपनी मूलचेतना में मंगलकारी है. उसकी उपस्थिति ही संकट, भय और मृत्यु के समय सांत्वना है. तो एक ऐसे समय में जब हम कुछ चुने हुए और कुछ थोप दिए गये संकटों से ग्रस्त हैं तो कोई किताब इनसे बच निकलने के लिए एक जुगत बन जाती है. फेसबुक पर शायद इसलिए लोगों के एक बड़े समूह ने इसे हाथों-हाथ लिया. हो सकता है कि मैं इस आकलन में पूरी तरह से गलत होऊँ. इसका एक दूसरा कारण मुझे लगता है कि किताब मनुष्य को आत्मिक विस्तार देती है इसलिए उसे पढ़ते हुए वह थोड़ा आश्वस्त होता है. कभी-कभी किताब खुद को पहचानने का जरिया बन जाती है. दुनिया के कई धर्मों में उसके आधारभूत सिद्धांत इल्हामी किताबों से निकले बताए जाते हैं, और सारे पैगम्बर संकटों के समय किताब की ओर देखते पाए गए हैं. मैं यहाँ धर्मों की अंदरूनी बनावट और उसमें किसी इल्हामी किताब की भूमिका पर तो कुछ नहीं कह रहा हूँ लेकिन इतना तो कहना ही चाहूँगा कि संस्कृतियों के आरम्भिक विकास बिंदु को शुरू करने में किताब एक भूमिका अदा करती हैं. संशय से उजाले की ओर, बीहड़ से किसी रास्ते की ओर किताब ले जा सकती है. किताब नितांत व्यक्तिगत दायरे से निकलकर कब सभ्यतागत दायरे में पहुँच जाती है, धर्मों का इतिहास तो यही बताता है. रामायण और महाभारत पढ़ते समय मानवजीवन के जो संकट आ खड़े होते हैं, उन्हें हल करने की चातुरी तो मनुष्य के हाथ में है लेकिन उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले कौन जाएगा? पहला उत्तर तो यही है कि मनुष्य के संतों से उबरने की जुगत मनुष्य के पास है, इसलिए वही ले जाएगा लेकिन मनुष्य तो मर जाता है, इसलिए यह भूमिका किताब ले लेती है.

किताबों की दुनिया

तो मैंने उस दोस्त की चुनौती स्वीकार कर ली. मेरे सामने ढेर सारी किताबें आकर खड़ी हो गईं: चुराई हुई, गुमशुदा, मुफलिसी में खरीदी गयीं, उपहार में मिलीं, लाइब्रेरियों की गुमनाम शेल्फों में रखी किताबें और न जाने कहाँ-कहाँ की. सभी किताबें किसी न किसी मनुष्य ने सिरजी थीं और उनमें से अधिकांश मर चुके थे- लेखक और जिल्दसाज़ दोनों. मुझे लगा कि इन सब किताबों के लेखकों और जिल्दसाजों ने मुझे घेर लिया हो. बचपन के एक खेल में सब बच्चे आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़कर गोल घेरे में खड़े हो जाते थे और जो बच्चा बीच में खड़ा होता था, उसे इस घेरे को तोड़कर भागना होता था. ऐसे में गोल घेरे के बीच में खड़ा बच्चा सबसे कमजोर जगह खोजता था जहाँ वह धक्का देकर भाग सके. किताबों के साथ ऐसा नहीं हो पाता. एक बार आप उनके गोल घेरे के अंदर गए तो निकलना मुश्किल हो जाता है. जहाँ पर आप खड़े हैं, वहीं पर वे आपको रचने लगती हैं. यह तो एक पाठक की गति हुई, लेखक तो किताब लिखते समय क्या से क्या हुए हैं, यह तो कोई लेखक ही बता सकता है.

भय, संत्रास और आनंद की न जाने कितनी लंबी आग की नदी उन्होंने पार की होगी. जिल्दसाज गुमनाम मर गए. किताबों के इतिहास में जिल्दसाजों का कोई जिक्र नहीं मिलता है. मैं भी इस निबन्ध में उनका जिक्र नहीं कर पाऊँगा. मैं सैकड़ों लेखकों और कवियों का नाम एक साँस में गिना सकता हूँ लेकिन किसी जिल्दसाज का नाम नहीं याद है? क्या आप अपने शहर के किसी जिल्दसाज का नाम जानते हैं?


तो अपने सीमित ज्ञान के साथ मैंने उसकी चुनौती स्वीकार तो कर ली लेकिन मुझे ऐसा लगा कि अपने पसंद की किसी भी किताब की बात करना खतरे से खाली बात नहीं है. यह तो अपने बारे में सच-सच बता देना है. सब आपको जान जायेंगे, सब आपको पकड़ लेंगे. मैंने फिर अपने-आप और दोस्तों से झूठ बोल दिया और उन्हें कुछ उन किताबों के बारे में उन्हें भनक नहीं लगने दी जिन्हें मैं पसंद करता हूँ. अपने पसंद की किताब बताना जैसे अपने-आपको सबके सामने प्रस्तुत कर देना है. इसके बाद आप वध्य हैं.

अगले 100 दिन मेरे लिए अनिश्चय, भय से भरे हुए, प्रेम की सुगंध लिए तो कभी-कभी मृत्यु के दरवाजे पर खड़े हुए से लगे. इस व्यक्तिगत विवरण में, मैं एक बात बताना भूल ही जा रहा था कि यह सभी किताबें राजनीतिक थीं. ऐसी कोई किताब नहीं बनी जिसके मुखपृष्ठ पर कोई राजनीतिक बात न कही गई हो, अगर मुखपृष्ठ पर नहीं तो किताब के बीच में कहीं चुपके से कोई राजनीतिक बात अवश्य कही गई थी. यह एक जद्दोजहद भी थी कि किसी खास किताब को पढ़ें या उससे पिंड छुड़ाकर भाग लें. कभी-कभी हम किन्हीं किताबों से डरकर, घबराकर भाग खड़े होते हैं क्योंकि हमारे अंदर उतना वैचारिक ताप नहीं होता है जितना वह किताब हमसे माँगती है. हम कुछ किताबों का ताप सह नहीं पाते हैं. बहुत ही शाइस्तगी और शातिराना चुप्पी से अकादमिक और व्यक्तिगत बातचीत में कुछ किताबें चर्चा से बाहर कर दी जाती हैं. फिर कोई समय आता है वे किताबें बाहर आ जाती हैं. लोग उनकी बात करने लगते हैं. मनुष्य पुनर्जीवित तो नहीं हो पाता, किताबें उसे पुनर्जीवित कर देती हैं. इस प्रकार किताब एक देह धारण करती है जैसे कोई विद्वान या साधु-संन्यासी की देह होती है. यह देह ही किसी दार्शनिक, लेखक या राजनेता के विचार को लिए-लिए डोलती रहती है. देह नष्ट होती है, किताब नहीं. उसका पुनर्मुद्रण उसे एक नयी काया देता है. मनुष्य को काया के पुनर्नवीनीकरण की सुविधा उपलब्ध नहीं है, इसलिए वह किताब में आकर अपने-आपको पुनर्नवीनीकृत करता रहता है. भक्त संत मनुष्य की देह को माटी का चोला कहते हैं, इसी प्रकार किताब मनुष्य का कागजी चोला है.

किताब का परस

किताब जिंदगी बदल सकती है: व्यक्ति और समुदाय दोनों की. यह आप मोहनदास करमचंद गाँधी, भगत सिंह, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर से लेकर सफदर हाशमी के जीवन का अध्ययन कीजिए. यह सभी लोग सच्चे, संवेदनशील और निडर थे. किसी न किसी किताब ने उनके जीवन को विस्तृत किया. वर्षों पहले मैंने एक पतली सी किताब पढ़ी थी जिसकी लेखिका का नाम किताब पर नहीं छपा था. किताब का नाम सीमंतनी उपदेश था. इस जैसी न जाने कितनी किताबें हैं जिनके लेखकों-लेखिकाओं का अता-पता नहीं, लेकिन इन लोगों का जीवन किताब के परस से बदल गया था. किताब उनके लिए पारस पत्थर थी. वैसे हर कमजोर, महिला, दलित और बहिष्कृत व्यक्ति या समुदाय के जीवन में किताब पारस पत्थर की भूमिका निभाती है.


अभी हमने अंबेडकर की बात की, उन्होंने जो संघर्ष किया वह उन्हीं लोगों के लिए था जो किताब से दूर थे. जिन्हें किताब से संरचनात्मक रूप से किताब से दूर कर दिया गया था, अंबेडकर का संघर्ष उन्हीं के लिए था. मुझे मेरे दोस्त डाक्टर अजय कुमार ने एक बात बताई थी कि जब 1980 के दशक में उनके मजदूर पिता उन्हें उन्नाव जिले के एक गाँव में स्थित प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाने ले गए तो अध्यापक ने कहा कि तुम शूद्र हो, तुम्हारे पिता के पिता, और उनके भी पिता आ जाएँ तो भी पढ़ नहीं पाएंगे. खैर अजय का वहाँ प्रवेश हुआ और आज अजय के पास भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली बड़ी से बड़ी डिग्रियां हैं और वे राष्ट्रपति निवास, शिमला में स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो रह चुके हैं. अजय खूब किताबें खरीदते हैं और पढ़ते हैं. अब उनकी पहुँच में किताबें हैं. दलित आत्मकथाएँ पढ़ते हुए ऐसी कितनी कथाएँ याद आती हैं जो अपमान और क्षोभ से निकली हैं. इस देश में लाखों-लाख लोग अपमान और अवमानना की आग की नदी तैरकर पार करते हैं तब जाकर उन्हें किसी किताब का परस हासिल होता है.

किताब का यह परस हमारे आसपास की दुनिया को सुंदर और समान बनाने की कोशिश करता है लेकिन जाति, धन, पद-प्रभाव में विभाजित समाज इसमें रोड़े अटकाता है. थोड़े देर के लिए आँखें बंद कीजिए, अपने आसपास के उन हाथों को याद करने की कोशिश कीजिए जिन्होंने जीवन में किसी किताब को नहीं छुआ. क्या उनका जीवन इतना हेय था कि वे किसी किताब को छू न सकें? मैं हमेशा उस दुनिया की कल्पना करता हूँ जिसमें कोई ऐसा इंसान न हो जिसने किताब को न छुआ हो, केवल उनको छोड़कर जो स्कूल नहीं जाना चाहते या कोई किताब वास्तव में नहीं पढ़ना चाहते हैं. दुनिया को सुंदर बनाने के हजार तरीके हैं. किताब भी दुनिया को सुंदर बनाने का एक तरीका है.

किताब प्रेम का पौधा है

खैर, थोड़ा रुकिये. मैं यहीं साफ कर दूँ कि किताब से ही मानवीय दुनिया सुंदर नहीं हो जाती है, उसके लिए मनुष्य-भाव जरूरी है. भक्तिकाल के कवि इसके उदाहरण हैं जिन्होंने किताब के आगे मनुष्य और उसके सच को प्राथमिकता दी. किताब सोने में सुगंध पैदा कर सकती है लेकिन जरूरी शर्त यह है कि सोना उपलब्ध तो हो. मनुष्य पहले मनुष्य तो हो. अन्यथा बहुत पढ़े-लिखे लोग हीनतर अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं. फिर भी, बहुत सारे लोगों की तरह मेरा भी किताबों पर भरोसा कायम है. किताब मनुष्य के लिए एक खिड़की है जिसके द्वारा वह अपने से बाहर की दुनिया में झाँकता है. वह अपने जैसे दूसरे मनुष्यों को समझने का प्रयास करता है. उन्हें जानता है और प्यार करने लगता है. आचार्यों ने ऐसे थोड़े कह दिया है कि परिचय से प्रेम उपजता है. किताब अपरिचय को तोड़ती है. चिकित्सक अतुल गावंडे ने अपनी किताब ‘बीइंग मॉर्टल’ में ध्यान दिलाया है कि हम कई चीजों से कतराकर निकल जाना चाहते हैं. हम तब तक टाल देना चाहते हैं जब तक चीजें बिलकुल हमारे सामने आकर खड़ी न जाएँ. मसलन, बीमारियों का, वृद्धावस्था का और मृत्यु का सवाल. बीमारी से तो नहीं लेकिन वृद्धावस्था और मृत्यु से टकराने में किताब मदद करती है. पश्चिमी देशों में चिकित्सकीय मानव विज्ञान (मेडिकल एन्थ्रोपोलॉजी) ज्ञान की प्रमुख शाखा है. असाध्य एवं गंभीर रोगों से लड़ने के लिए किताबें पढ़ने की सलाह चिकित्सक देते रहते हैं. भारत में सबके पास कैंसर जैसे रोगों से लड़ने की वित्तीय क्षमता नहीं है इसलिए वे दवा-दारू जुटाने की लड़ाई में ही मर खप जाते हैं लेकिन जिनके पास चार पैसा है उनके सामने कैंसर से आगे सोचने की बात आती है. ऐसे में जीवन में विश्वास जगाने वाली किताबें मौत के आगोश में जा रहे व्यक्ति की मदद करती हैं. 

भारत में भी किसी किताब की दुकान पर, विशेषकर अंग्रेजी किताबों की दुकान पर चले जाइए तो कैंसर जैसे रोगों से लड़ने वाले ‘सर्वाइवर्स’ की किताबें दिख जाएँगी. यह किताबें शायद पाठक की आर्थिक हैसियत की ओर इशारा भी करती हैं. एक तरफ कैंसर के इलाज के अभाव में दम तोड़ता भारत है तो दूसरी तरफ वह भारत भी है जो इस रोग से कुछ दिन तक लड़ सकता है– अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार. जो दवाओं का दाम झेल ले जाते हैं लेकिन अकेलापन और अपने अंदर मृत्यु की उपस्थिति को नहीं झेल पाते हैं, किताब उनकी मित्र बन जाती है. वे किताब खरीदकर पढ़ सकते हैं, खुद किताब लिख सकते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैंने कानपुर में किताबों की एक दुकान पर लिसा रे की किताब ‘क्लोज टू बोन’ उलट–पलटकर देखी, छुआ. लिसा रे को कैंसर से जूझने के लिए क्या करना पड़ा, वे इसके साथ कैसे रहीं– यह सब उन्होंने बताया है, अपनी जिंदगी के खूबसूरत पलों, अभिनय की यात्रा को उन्होंने इस किताब में खोलकर रख दिया है. इस किताब को उलटते-पलटते हुए मुझे खयाल आया कि एक सामान्य पुस्तक प्रेमी और किसी प्रकार के कैंसर से पीड़ित व्यक्ति इसे अलग-अलग ढंग से पढ़ेगा और उसकी ‘इयत्ता’ इस किताब से उसे जोड़ देगी. मुझे अपने एक दोस्त का चेहरा याद आता है जिसे कैंसर हो गया था, अब वह कैंसर पर विजय प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है, अर्थशास्त्र का प्रोफेसर है और अपनी पीएचडी को किताब के रूप में लाना चाह रहा है.


व्यक्तियों की अंदरूनी दुनिया से ज्यादा किताबें उनकी बाहरी दुनिया का आईना हैं. वे सभ्यताओं की मापक हैं. हर सभ्यता अपने महान होने का जब गुमान पालती है तो बहुत सारी भौतिक चीजों को गिनाने के साथ वह अपनी किताबों को भी ऊँचे पायदान पर रखती है. ग्रीस, बेबिलोनिया, मेसोपोटामिया, ईरान, भारत और चीन जब ‘अपनी बात’ बताने लगते हैं तो वे किताबों की बात करते हैं. चीन के बारे में जोसेफ नीधम और भारत के बारे में जवाहरलाल नेहरू की किताबें पढ़िए तो वे ऐसी दर्जनों किताबों के बारे में बताते हैं जिन पर चीन और भारत को गर्व है. यह दोनों विद्वान किताब लिखने वालों, बनाने वालों और पुस्तकालयों के बारे में भी बताते हैं.

किताबें क्यों पढ़नी चाहिए ? इस सवाल का कोई सीधा जवाब भला कैसे दिया जाय. बीसवीं शताब्दी में कई बड़े युद्ध लड़े गए और उनके बीच किताबें लिखी गयीं, पढ़ी गयीं.  इतिहासकार मार्क ब्लाख ने युद्ध की खाई में रहते हुए किताब लिखी थी. उन्हें खाई से बाहर ले जाकर एक दिन गोली मार दी गई. उनकी किताब ‘हिस्टोरियंस क्राफ्ट’ एक बच्चे के सवाल से शुरू होती है : पापा सच-सच बतलाना इतिहास का क्या उपयोग है? पूरी किताब जैसे उस बच्चे के सवाल का जवाब है. यही सवाल अगर कोई बच्चा थोड़ा सा घुमाकर आपसे पूछ ले कि किताब का क्या उपयोग है? तो पसीने छूट जाएंगे. किताब हमारे जीवन में क्या करती है? किताबों में लिखा साहित्य हमारे जीवन में क्या भूमिका अदा करता है? इन सवालों का जवाब बड़ा मुश्किल है और तुरंत दिया भी नहीं जा सकता है.

एक बार मैं सीएसडीएस के अभय दुबे से मिलने उनके दफ्तर गया था. वे कुछ लिख रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि आप लिखते क्यों हैं? उन्होंने कहा : लिखा हुआ ही बचेगा. जब कोई मर जाता है तो कुछ समय बाद लोग उसका चेहरा भूल जाते हैं, केवल उसकी कुछ धुँधली भंगिमाएं याद रहती हैं. हमारे बहुत ही आसपास के लोग भी अपने कामों में मशरूफ हो जाते हैं. मैंने इधर हाल ही में ऐनी फ्रैंक की‘एक युवा लड़की की डायरी’ फिर से पढ़ी. यह मौत के मुँह में जा रही एक किशोरी के रोजमर्रा के स्वप्नों, दिक्कतों, प्रेम और जीवन में विश्वास की डायरी है. आप देखिए कि द्वितीय विश्वयुद्ध का समय है, यूरोप के नगरों पर चारों तरफ से बम गिर रहे हैं और वह किशोरी कहीं किसी पुस्तकालय से एक किताब लेकर आई  है. वह उसे पढ़ रही है और उस पर टिप्पणी भी लिख रही है. उसे मानवीय जीवन पर अगाध आस्था है. इस इस युद्धक और अनिश्चित वातावरण में ऐसा क्या है जो उसे किताब पढ़ने की प्रेरणा दे रहा है? इसका उत्तर खोजते समय मुझे वागीश शुक्ल का निबंध संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं? याद आता है. इसमें एक जगह वे कहते हैं कि साहित्य मृत्यु का सामना करने की विधि है. ऐनी फ्रैंक को क्या पता है कि उसका अंत निकट है, तब भी उसे जीवन में विश्वास को नहीं खोना है. यहाँ मैं यह बिलकुल नहीं कहूँगा कि ऐनी को किताब से जीवन की उर्जा मिलती है. उसे किताब वह उर्जा बनाये रखने में मदद देती है. किताब उस उसमें विश्वास की नदी को सूखने नहीं देती. किताबें जियावनहारा होती हैं.

क्या सभी किताबें जियावनहारा होती हैं? नहीं. किताबें भेदभाव पैदा करती हैं. आप यदि धर्मसूत्रों को पढ़ें, स्मृतियों को पढ़ें तो वहाँ बहुत सी अच्छी बातों के साथ हिंसा, भेदभाव और बहिष्करण के आधार को पुख्ता करने वाली चीजें भी मिलेंगी. डॉक्टर अंबेडकर ने ऐसे ही 1927 में मनुस्मृति दहन नहीं किया था. उन्होंने उन सभी आधारों का दहन किया था जिनसे मानव जीवन कमतर होता है. आप किसी प्रतिष्ठित संस्कृत प्रकाशन से प्रकाशित या ऑक्सफोर्ड क्लासिक सीरीज में प्रकाशित पैट्रिक ऑलिवेल द्वारा संपादित धर्म सूत्र पढ़िए, स्मृतियाँ पढ़िए. फिर संविधान सभा की बहसों को पढ़िए, संविधान सभा की बहसो में भी कई सदस्य धर्म सूत्र और स्मृतियों को उद्धृत कर रहे थे और वे उस दुनिया को आज के समय में ले आना चाहते थे. इसी संविधान सभा में और भी लोग थे जिन्हें इस दुनिया से ऐतराज था क्योंकि यह दुनिया भेदभाव पर टिकी थी. और अंत में, एक आम सहमति से एक समानता पूर्ण दुनिया, एक बेहतर समाज बनाने का निर्णय भारत की संविधान सभा में पास हुआ. 

मैं आप से गुजारिश करूँगा कि इन किताबों को उपर्युक्त क्रम में पढ़िए और उसके बाद भारत के संविधान को पढ़िए. एक पूरी की पूरी सभ्यता की विभिन्न परतों का चित्र आपकी आँखों के सामने घूम जाएगा. आपको पता चलेगा कि भारत एक किताब से निकलकर दूसरी किताब तक कैसे पहुँचा है. वह किस प्रकार मानवीय और समावेशी होना चाहता है.

____________
रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से डीफिल की उपाधि (2017) प्राप्त रमाशंकर सिंह का कुछ काम सीएसडीएस के जर्नल प्रतिमान में प्रकाशित हुआ है जो भारत की राजनीति और लोकतंत्र में गुंजाइश तलाश रहे घुमंतू समुदायों,  नदियों एवं वनों पर निर्भर निषादों और बंसोड़ों के जीवन एवं संस्कृति के विविध पक्षों की पड़ताल करता है. उन्होंने आलोचना, वागर्थ और नया पथ के लिए लेख लिखे हैं. उन्होंने ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ के उत्तर प्रदेश की भाषाएँ  खंड के लिए लेखन, अनुवाद और संपादन का काम किया है. उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए बद्री नारायण की किताब ‘फ्रैक्चर्ड टेल्स: इनविज़िबल्स’ इन इंडियन डेमोक्रेसी’ का अनुवाद ‘खंडित आख्यान : भारतीय जनतंत्र में अदृश्य लोग’ और ‘निशिकांत कोलगे’ की किताब ‘गाँधी अगेंस्ट कास्ट’ का अनुवाद ‘जाति के विरुद्ध गाँधी का संघर्ष’ के नाम से किया है.
ram81au@gmail.com
Tags: किताबरमाशंकर सिंह
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Comments 2

  1. Anonymous says:
    1 year ago

    अभी भी सबसे कमजोर की अस्त्र किताबें हैं ❤

    Reply
  2. Govind Kumar maurya says:
    1 year ago

    Sir,
    I’m happy to read your about significance book you are grate sir I’m belong to up district Balrampur MLK pg Collage from MA(1) political science; sir I will read all the books you have been told

    Reply

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