कहा गया है जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.अपनी जन्मभूमि सबसे प्यारी होती है. यह हमारे पुरखों का कहना है. यह जम्बूद्वीप भारत खंड कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था पर सदियों की औपनिवेशिक गुलामी ने भारत का सत्व जैसे छीन लिया. यह और बात है कि मुगलों और अंग्रेजों ने भी इस देश को अपने तरीके और स्थापत्य से गढ़ा तथा भारतीयों को शासित करने में जुल्म और ज्यादतियां भी कीं. इतने प्यारे देश के होते हुए भी आज हमारे देश की बहुसंख्यक युवा आबादी अमेरिका और अन्य जगहों पर काम करने वर्क परमिट का जुगाड़ कर वहां बस जाने को लालायित है. वजह यह कि हमारे देश में न तो स्तरीय तालीम की व्यवस्था है न सर्विस सेक्टर व शासन की विभिन्न इकाइयों में वह ईमानदारी जो यहां पर इन्टरप्रेन्योरशिप विकसित करने, योग्य छात्रों को उनकी मेधा के अनुरुप नौकरियां देने में कामयाब हो सके. क्या विडंबना है कि शुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में हम न तो किसी नई खोज का आविष्कर्ता बन सके न अपनी प्रतिभाओं को उनके मुताबिक अवसर उपलब्ध करा सके. यही वजह रही कि नब्बे के बाद देश के नव उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के फलस्वरुप में विदेश में काम करने के अवसर उपलबध होने शुरु हुए. अमरीका की सिलीकोन वैली भारतीय टेक्नोक्रेट से भरती गयी.
भारत में कम कीमत पर उपलब्ध श्रम के कारण पहले भी गिरमिटिया परंपरा में यहां से लोग गुलाम बना कर ले जाए गए तथा जहां वे गए उन देशों को अपने श्रम व पसीने से स्वर्ग बना दिया. भूमंडलीकरण व पूंजीवादी व्यवस्थाओं के पनपने व सोवियत संघ के पतन के बाद यहां की युवा पीढ़ी में पूंजी के प्रति अगाध आकर्षण पैदा होना शुरु हुआ.
ऐसे हालात में \’जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान\’– कहावत की चमक फीकी पड़ती गयी. 90 के बाद का दौर भारत में नव धनाढयों का दौर है. नव दौलतिये येन केन प्रकारेण रातोरात धनवान बन जाना चाहते थे. यह वही दौर है जब एक तरफ नरसिंहम कमेटी की सिफारिशों के अनुसार बैंकों में सुधार का कार्यक्रम चल रहा था दूसरी तरफ विश्वव्यापार की खिड़कियां खुल रही थीं. विश्वग्राम की अवधारणा, संचार साधनों की उपलब्धता और विकसित देशों की उदार अर्थव्यवस्था के चलते नए विश्वबाजार विकसित हो रहे थे. यहीं से बाजारवाद के दौर की एक आहट भी सुन पड़ने लगी थी. भारत में सस्ते श्रम की उपलब्धता के चलते यहां काल सेंटर्स की स्थापना, विदेशों में सूचना प्रौद्योगिकी एवं अन्य क्षेत्रों में भारत की तकनीक कुशल लोगों की मांग बढ़ने लगी थी. यों तो विश्व के तमाम देशों में भारत से छात्र पढने व काम करने के लिए जाते ही रहे हैं किन्तु इनमें भी योरोप के देशों की तुलना में अमरीका में काम करने की ललक सर्वाधिक रही है. यहां तक कि एक वक्त ऐसे भी हालात पैदा हो गए कि शायद अमरीकी प्रशासन अपने यहां के लोगों को काम में प्राथमिकता देना चाहता है. इस वजह से आई टी सेक्टर में मंदी का दौर भी रहा जहां दूसरे देशों के लोगों को नियोजित किए जाने के अवसरों पर नकेल लगनी शुरु हुई. तथापि जो वहां सेटल हो गए, जिन्हें वहां पढ़ने, काम करने का एक बेहतर अवसर उपलब्ध होता गया वे वहां की दुनिया में रम गए.
भारत की बेकारी, तालीमयाफ्ता लोगों की उपेक्षा और रोजगार पैदा करने की संभावनाओं के लगातार क्षीण होते जाने से लोगों ने कनाडा, आस्ट्रेलिया, योरोप और खाड़ी के देशों में काम के अवसर तलाशे और आज तमाम एजेंसियां भी हैं जो बच्चों को तालीम से लेकर वहां वर्क परमिट दिलवाने तक का काम कर रही हैं.
‘कौन देस को वासी : वेणु की डायरी’ सूर्यबाला जी का उपन्यास इसी पृष्ठभूमि में वेणु के अमरीका जाने, वहां की आबोहवा में रमने, काम करने एक नई दुनिया में फलने फूलने का रम्य वृत्तांत है. आज कम से कम भारत में केवल बच्चे की ही नहीं, ज्यादातर मां बाप की ख्वाहिश होती है कि उसका बच्चा विदेश जाए. वहां काम करे और डालर या यूरो में वेतन हासिल करे. वहां संपत्ति खरीदे. वहां का नागरिक बने और आज ऐसा ही हो रहा है. यहां तक कि हमारे देश की पूंजीवादी व पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों की निरंतर आलोचना करने वाले वामपंथियों की बेटे बेटियों तक के लिए अमरीका एक पनाहगाह है. अमरीका में बसने की ख्वाहिश हर युवा की एक अनन्य चाहत है. वेणु इसी चाहत का एक साकार रूप है जो एक मध्यवित्त परिवार का होनहार युवा है जो उच्चतर पढ़ाई के लिए अमरीका जाता है तथा वहीं पर बाद में नौकरी हासिल कर लेता है. वहां जाने, वहां सेटल करने तथा एक पराए देश में अपनी शक्ति, सामर्थ्य व शिक्षा के बल पर एक स्थान हासिल करने में वह कामयाब भी होता है. वह मां पिता के लिए सफलता का एक आइकन बन जाता है. केवल वेणु के ही नहीं, उसके साथ उसके मां पिता के सपने भी कुलांचे भरने लगते हैं. उसकी दिनचर्या में मां पिता का सतत हस्तक्षेप रहता है.
वेणु और उसकी पत्नी मेधा कैसे रहते हैं, कैसे उनके संगी साथी हैं, क्या खाते पीते हैं, कैसे वे वहां अपने को महसूस करते हैं. काम काज का माहौल कैसा है, अमरीकी संस्कृति में घुलने मिलने के लिए एक भारतीय होने के नाते क्या क्या दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं, भारतीय परिवारों में वहां कैसी रब्त जब्त है, इन सब बातों को वेणु के मां पिता उससे शेयर करते हैं. कथाकार के रुप में सूर्यबाला ने मुंबई से अमरीका की अनेक यात्राएं करके तथा अपने प्रवास के दौरान अमरीका में प्रवासी भारतीयों के जीवन व संस्कृति की एक एक बारीक बातों को यहां कथानक में जिस तरह पिरोया है वैसा बारीक चित्रण किसी भी उपन्यास में पहली बार सामने आ सका है.
इसे लेखिका ने वेणु की डायरी भी कहा है तो कहानी के साथ डायरी का शिल्प भी यहां है. जैसे रोजमर्रा की घटनाएं रिपोर्ताज में दर्ज हो रही हों. आंखों देखा हाल जैसे. इस तरह वेणु का जीवन भी जैसे डायराइज होता चलता है. रोजमर्रा की घटनाएं जीवन में नित नए रोमांच पैदा करती रहती हैं. वह सब सुनना मां पिता के लिए भी जैसे बूढे जीवन में एक नए रोमांच का अवतरण हो. एक वक्त भारत से टेलीफोन करना कितना मंहगा हुआ करता था, आज जैसे संचार के साधन न थे, इंटरनेट, सोशल मीडिया, फोन इत्यादि की सुविधाएं न थीं, आज जो व्हाटसऐप पर फ्री काल तक की सुविधा है. पर जिस समय वेणु अमरीका पढने जाता है तब ऐसी सुविधाएं न थीं. मुश्किल से ट्रंक काल लग पाता था तथा धीमी गति के समाचार की तरह बातचीत हो पाती थी. वेणु ने अमरीका की धरती पर ऐसे दौर में कदम रखा सो तब से अब तक दुनिया जिस तेजी से भागती रही है उसके एक एक पल का रोजनामचा इस उपन्यास में दर्ज है. हम वेणु की आंखों से और मां पिता, दोस्त, परिवार, नाते रिश्तेदारों के आपसी संवाद और अनुक्रियाओं के जरिए उस पूरी हलचल का जायज़ा लेते हैं जिससे अमरीका में भारतीयों की नई पीढ़ी को गुजरना पड़ता है.
इधर के दो दशकों में विदेश में रहने व काम करने वाले भारतीयों के लिए कुछ शब्द ईजाद हुए हैं. प्रवासी भारतीय, आप्रवासी भारतीय, भारतवंशी व डायस्पोरा. इन्हें समय समय पर एक मंच देने की कोशिश भी होती रही है. हमारी सरकार द्वारा प्रवासी भारतीय दिवस मनाए जाते हैं तथा भारत में प्रवासी भारतीयों की दिलचस्पी बनी रहे, वे यहां के उद्योग धंधों व संस्थागत परियोजनाओं में निवेश कर सकें, इसके लिए विभिन्न देशों के भारतवंशियों के सम्मेलन आदि बुलाए जाते हैं. इस अर्थ में वेणु भी भारतवंशी है. यों तो डायस्पोरा का इतिहास सदियों पुराना है. भारतीय संस्कृतियों को सहेजे हुए हमारे यहां के लोग सूरीनाम, मारीशस, गयाना, त्रिनीदाद, फिजी, दक्षिण अफ्रीका व खाड़ी के देशों सहित सभी जगहों पर गए. कहीं गिरमिटिया परंपरा में, कहीं स्वेच्छया पढाई के सिलसिले में या कामकाज की खोज में. इस प्रक्रिया में आज विदेशों में भारतीयों की तीन तीन पी़ढि़यां रह रही हैं. वे समय समय पर अपने देश भी लौटते हैं. वहां रहते हैं तो भारत में मां बाप रिश्तेदारों को याद करते रहते हैं. एक खास तरह का नास्टैल्जिया उनके भीतर पनपता रहता है. अतीत के प्रति सम्मोह. इसी सम्मोह-व्यामोह व सांस्कृतिक अंतर्द्वंद्व के बीच प्रवासी भारतीयों की पीढ़ियां उलझी होती हैं तथा भारत से उनके सांस्कृतिक धागे टूटते जुड़ते रहते हैं.
विदेशी पृष्ठभूमि में भारतीयों ने लेखन भी किया है जिनमें प्रवासी भारतीयों के जीवन रहन सहन व संस्कृति को चित्रित किया जाता है. हाल ही आया पुष्पिता अवस्थी का छिन्नमूल उपन्यास सूरीनाम के भारतवंशियों के जीवन की एक झांकी पेश करता है तथा सूरीनामी जन जीवन को भी खुली आंखों निहारता है. पहली बार किसी प्रवासी भारतीय लेखिका ने सूरीनाम और कैरेबियाई देश को उपन्यास का विषय बनाया है तथा गिरमिटिया परंपरा में सूरीनाम की धरती पर आए मेहनतकश पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों यानी भारतवंशियों की संघर्षगाथा को शब्दबद्ध किया है. उपन्यास की पात्र ललिता सूरीनामी जीवन, भारतवंशियों की सांस्कृतिक परंपराओं, पारस्परिक रिश्तों, संबंधों में आते हुए पश्चिमी आधुनिकता के प्रभावों तथा अपने को न बदलने की एक जिद्दी धुन लिए सूरीनामी भारतवंशियों को अपने विवेक और अध्ययन में गहरे पोसती है.
नीना पॉल ने अपने उपन्यास \’कुछ गांव-शहर कुछ शहर-शहर\’ में इंग्लैंड के लेस्टर शहर में आ बसे गुजरातियों की तीन पीढ़ियों के संघर्ष और अपने मेहनत से कमाई इज्जत को खूबसूरती से पिरोया है. उपन्यास अपनी पृष्ठभूमि में नेस्टर शहर का पूरा नक्शा उकेर देता है. नासिरा शर्मा का जीरो रोड ही देखें तो इलाहाबाद से दुबई तक के औपन्यासिक वितान में दुबई का अत्यंत आत्मीय संसार उदघाटित हुआ है. सच कहें तो गंगा जमुनी परिवेश की सच्ची आभा हमें जीरो रोड में मिलती है. मारीशस के कथाकार अभिमन्यु अनत के लाल पसीना सहित अनेक उपन्यासों में मारीशस में रह रहे प्रवासी भारतवंशियों के संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को पहचाना गया है. अरसे से न्यूयार्क में रहने वाली सुषम वेदी के कई उपन्यासों ‘हवन’, ‘लौटना’, ‘गाथा अमरबेल की’, ‘नवाभूम की रस कथा’ व ‘कतरा-दर-कतरा’, आदि में प्रवासी भारतीय जीवन की पेचीदगियों को गहराई से उकेरा गया है.
प्राय: प्रवासी लेखकों के यहां प्रवासी जीवन की छवियां मिलती हैं. उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में विदेशी धरती बखूबी चित्रित हुई है. प्रवास में रहता हुआ भारतीय मन चित्रित हुआ है. उनका उपन्यास अंतर्वंशी अमरीका में बस गए भारतीय परिवारों की कहानी है. उपन्यास की नायिका बनारस की वनश्री या बांसुरी अमरीका में वाना के नाम से जानीजाती है तथा वह पति की असमर्थताओं के बीच गृहस्थी की गाड़ी मुश्किल से खींच पाती है. हालांकि उसके इर्द गिर्द की दुनिया में अनेक कामयाब लोग भी हैं जैसे राहुल, सुबोध और शिवेश. सबके जीवन संघर्ष अलग अलग हैं. अपनी क्षमताओं और अपनी अपनी नियति से बंधे पात्रों को उषा प्रियंवदा ने यथार्थ की आंखों से अवलोकित आकलित किया है. रुकोगी नहीं राधिका भी प्रवासी भारतीय परिवार के अंतर्द्वन्द्व की कहानी है. विदेश में रहने के बाद न तो लौटना संभव होता है न लौटने पर यहां की संस्कृति में रच बस पाना. प्रवास में सांस्कृतिक शॉक और भारत लौटने पर रिवर्स कल्चरल शॉक के बीच रिश्तों नातों के बीच सामान्य रह पाना संभव नहीं होता जिसे ऊषा जी ने यहां एक अकेली महिला के जीवन संघर्ष को गहरी संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है.
प्रवासी भारतीयों की दुनिया एक अलग ही दुनिया है. हम विदेश तो चले जाते हैं पर वहां भी हम भारतीयों के समुदाय के मध्य रहना पसंद करते हैं क्योंकि वहां से हमें एक स्वदेशी किस्म की आत्मीयता और सुरक्षा मिलती है. धर्म भारतीयों को जोड़ता है. संस्कृति जोड़ती है. खिचडी हिंदी प्रवासियों को जोड़ती हैं. पर जीवन में दोनों देशों की संस्कृतियों और सभ्यताओं का टकराव हमेशा कायम रहता है. ऐसे में भारत की याद प्रवासी भारतीयों को नास्टैल्जिक बनाए रहती है. हमारी संस्कृति में पीपल आम महुए के पेड़ और गेंदे के फूल मिलेंगे तो वहां मेपल के वृक्ष और ट्यूलिप के फूल. विदेशी धरती को विदेशी निगाह से देखने और उसे भारतीय निगाह से देखे जाने में अंतर है. मुनव्वर राणा ने बेटियों के लिए लिखा है: \’घर में रह के भी गैरों की तरह होती हैं. बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं.\’ प्रवासी भारतीय विदेशों में ऐसे ही रहते हैं. अपनी जड़ों से उखड़े और विदेशी आबोहवा में रचने बसने के जतन में लगे हुए. एक दो पीढ़ियां लग जाती हैं सहज होने में. जड़ से उखड़ने की पीड़ा आजीवन सालती रहती है पर सुख सुविधाएं इस पीड़ा पर मलहम लगाती रहती हैं.
अभी हाल ही में ग्राम जीवन के एक सिद्ध कथाकार ने अपने बेटे द्वारा मेलबोर्न में खरीदे घर की तस्वीर लगा कर अपने इस सुख का प्रदर्शन फेसबुक पर किया तथा उसे अपने रचनात्मक संतोष का एक विकल्प माना है. यानी इस साल कोई रचना नहीं आई पर उनका कहना था कि संतोष के लिए बेटे की उपलब्धि को आधार बना सकते हैं. यानी यह एक लेखक के लिए कोई कम उपलब्धि नहीं. यह है प्रवासी भारतीयों की संपन्नता का एक मानक.
कौन देस को वासी बीस साल की सूर्यबाला जी की सतत अमरीका यात्रा व प्रवास का उपहार है. इसलिए इसमें वह तफरीहवादी दृष्टि नहीं है जो एक हफते दो हफते की यात्रा पर गए अधीर लेखक कुछ लिख कर बड़े दावे करते प्रतीत होते हैं. यह बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ जैसा उपक्रम नहीं बल्कि मै जिसे ओढता बिछाता हूँ वह गजल आपको सुनाता हूँ के सघन अनुभव और साथ जिये बिताये हुए क्षणों की संवेदना में भीग कर लिखा गया है. समय समय पर डायरी की शक्ल में लिखे गए इस उपन्यास के अंशों ने धीरे धीरे एक बृहत्तररूप ले लिया जहां प्रवासी जीवन के सुखद पल हैं, बतकहियां हैं, यात्राएं हैं, रोमांच है, अपने देस को याद करने की तमाम वजहें हैं और भारत में मां पिता व परित्यक्त परिवेश से जुड़े रहने की अथक लालसा भी. यह बिना जीवन में धंसे संभव नहीं है. यह उपन्यास की शक्ल में पश्चिमी देशों में भारतीय जनजीवन और भारतीय परिवारों में आने वाले बदलावों की कहानी भी है. अमरीका की सर्वग्रासी संस्कृति, पूंजीवादी प्रवृत्तियों को निकट से समझने का एक प्रयास भी है.
कहा जाय तो उपन्यास के प्रारंभ में सूर्यबाला का कथन अपनी उधेड़बुन ही मानो इस कथानक का प्रियेम्बल है. प्रस्तावना हो. यही वह दार्शनिक भित्ति है जिसके लिए इतने बड़े कथानक का विन्यास रचा गया है. लेखिका पूछती है,
\’\’लालसाओं के चक्रवात में फँसे जब हम अपनी धरती को छोड़ते हैं तो कब तक और कितनी छूट पाती है वह हमसे?\’\’ फिर आगे वह कहती है, \’\’कहां किस बिन्दु पर मिलती हैं सुख और सुविधाओं, सच और झूठ, सफलता और असफलता की विभाजक रेखाएं?\’\’\’\’
और कहां पहुंच कर सब कुछ पाने, अघाने के बाद भी जीवन छूँछा नजर आने लगता है? कहां पूरी होती है जीवन की असली तलाश?\’\’ और फिर लेखिका इसका उत्तर भी देती है,
\’\’कहीं संतोषम् परमसुखम् का रट्टा लगाने वाले अपने उसी बूढे हीरामन को पकड़ पाने में ही तो नहीं……\’\’
वेणु और मेधा का दाम्पत्य अमरीका की इसी पूंजीवादी संस्कृति में सांस लेता है. पर कहीं न कहीं लगता है ख्वाहिशें अधूरी हैं, संस्कारों की अपनी जकड़न भी है. पर यह जो भीतर के अधूरेपन का अहसास है वह उसकी नई पीढ़ी यानी वेणु के बेटा यानी बेटू और उसकी सहचरी सैंड्रा अपने इस निर्णय से पूरा करने का एक संकेत देते हैं कि वे भारत लौट कर वहां काम करेंगे. यह एक तरह से अकल्पनीय भी है वेणु और मेधा के लिए और वेणु के मन में संशय भी कि इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि बेटू के मन में कहीं इंडिया के प्रति कोई गहरा आकर्षण जाग उठा है या वे इस निर्णय पर अंत तक अडिग ही रह सकेंगे. पर हां इससे यह तो लगता है बर्फ सेढंका रास्ता सुख की इन जरा सी किरणों से पिघल एक मार्ग प्रशस्त तो कर ही रहा है. एक एक पल को आनंद से जी लेने का नुस्खा भी तो मां का ही बताया हुआ है. इसलिए इस जरा से सुख में भी कितना तो तोष छुपा है. उपन्यास का आखिरी वाक्य जैसे किसी कविता की तरह हमारे अंत:करण को रोशन करने के लिए है तथा शायद यही इस जीवन का प्रतिपाद्य भी है :
\’\’इस पूरे विश्व में हम कहीं रहें- किसी जाति धर्म या वर्ण के नाम से, क्या फर्क पड़ता है, सिवा इसके कि हम कितने मनुष्य बने रह पाए हैं –\’\’
कौन देस को वासी सूरदास के पद से आयत्त है. निरगुन कौन देस को वासी. जैसे लेखक पूछ रहा हो ये प्रवासी भारतीय भला किस देस के वासी हैं. तन प्रवास में रहता है मन स्वदेश में. सारी उम्र इसी द्वंद्व में कटती है. लीलाधर जगूडी ने एक कविता में लिखा है, \’\’पैदा तुम कहीं भी होओ, बिकना तो तुम्हें अमेरिका में ही है.\’\’
आज की भारतीय युवा पीढ़ी का यही मकसद है कि वह पढ लिख कर अमेरिका जैसे देश में जाकर डालर कमाए वहां का नागरिक बने और इस गंदे देश-परिवेश को भूल जाए पर क्या ऐसा संभव हो पाता है. नहीं, इसलिए कि हमारी नाल भारत में गड़ी है. उपन्यास नौ खंडों में बँटा है. अबोले संवाद, जलसाघर, अपनी जगहों की तलाश में, फिर उन्हीं रास्तोंपर, नदी-सी बह रही है सदी, तुम्हारी दुनिया में, मेधा! लौट चलें क्या हम भी?, समृद्धि के फटे छप्पर के नीचे से व कौन देस को वासी. हर खंड पूरी कहानी में समय समय पर आए मोड़ों का बयान करता है. पर सच कहें तो जिनके योग्य बेटे अमरीका जैसे देशों में बस गए हैं, उनके भव्य वर्तमान के पीछे मां पिताओं का असह्य अकेलापन भी है जिस पीड़ा को कोई युवा कवयित्री इस तरह महसूस करती हुई कहती है,
\’\’बाँट देना मेरे ठहाके वृद्धाश्रम के उन बूढों में
जिनके बच्चे अमेरिका के जगमगाते शहरों में लापता हो गए हैं.\’\’
कहना न होगा कि कौन देस को वासी प्रवासी भारतीय जीवन के निहितार्थ का आलोड़न है जिसे जितनी बार पढा जाए, उतनी बार एक अलग आस्वाद देता है. यह भी कि जीवन की उत्तरशती में पहुंच चुकी सूर्यबाला जी का यह उपन्यास उन्हें यश का भागी बनाएगा, इसमें संदेह नहीं. जिन सूर्यबाला को उनके प्रारंभिक लेखन के लिए जाना गया, उनके उपन्यास धर्मयुग में धारावाहिक छप कर चर्चित हुए किन्तु जो अब तक चर्चा से ओझल रही आईं वे इस उपन्यास से प्रकाश में आ गयी हैं. इस उपन्यास को पढ़ने के बाद \’जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है\’ जैसी पंक्तियां मन में गूंजने लगती हैं. यह युवा पीढ़ी को उसकी विदेशप्रियता के सम्मोहन से बाहर लाने की एक कोशिश भी है.
ओम निश्चल
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