बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में लिखी यह कहानी तकरीबन २७०० से २८०० शब्दों की है जो मुख्यतः लुट्टन सिंह के पहलवान बनने से लेकर उसकी मृत्यु तक के सफर को बयान करती है. लुट्टन सिंह एक जांबाज पहलवान तो था ही साथ ही वह एक उम्दा ढोलक बाज भी था. ढोलक की ढाक से ही वह पहलवानी के लिए आवश्यक ऊर्जा ग्रहण करता, ढोलक की ताल और लय ही उसके लिए प्रेरणा स्रोत थे. कम उम्र में शादी और फिर मां-बाप के गुजरने के उपरांत वह अपने ससुराल में ही रहने लगा. वहीं वह दो बच्चों का बाप बना और फिर वहीं एक मेले में एक प्रसिद्ध पंजाबी पहलवान को हराकर लोकल ‘हीरो‘ हुआ. इस जीत के बाद स्थानीय सामंत ने उसके नाम के आगे ‘सिंह‘ की पदवी दिया जिसका विरोध सामंत के दूसरे पैरोकारों ने किया कि एक ‘दुसाध‘ ‘सिंह‘ कैसे हो सकता है. उस सामंत ने अब लुट्टन सिंह क़ो अपने संरक्षण में ले लिया. उसके बाद उसका जीवन सरल और सुगम हो गया. वह पहलवानी करता और अपने परिवार का भरण-पोषण.
उसने अपने दोनों बच्चों को भी पहलवानी और ढोलक के गुर बताए. लेकिन तभी उसका जीवन बदल गया. बूढ़े सामंत की मौत के बाद विलायत से लौटे सामंत के बेटे ने अब जागीर संभाल ली. सबसे पहले उसने लुट्ट्न सिंह को दिया संरक्षण वापस ले लिया. इस बात का वर्णन रेणु ने मार्मिक किन्तु निर्लिप्तता के साथ किया है. जब नये सामंत को यह पता चलता है कि लुट्ट्न सिंह को सिर्फ पहलवानी के लिए उसे सामंती खजाने से भोजन, इत्यादि दिया जाता है तब वह ‘टेरिबल‘ बोलता है और नया मैनेजर ‘हौरिबल‘ और इस तरह से लुट्टन सिंह अब बेरोजगार हो जाता है.
वह कुछ दिन तो इस पास के बच्चों को पहलवानी और तबला सिखा कर अपना और अपने दो बच्चों का भरण-पोषण करता है. परन्तु कुछ ही दिनों में जीविका का यह स्रोत भी जाता रहता है. ऐसे समय में ही इलाके में मलेरिया और प्लेग फैल जाता है. उस त्राहिमाम में पहलवान रात भर ढोलक बजाता था ताकि गांव के लोग रात की भयावहता से डरे नहीं. उसके दोनों बच्चे भी इस महामारी के चपेट में आ गए, फिर भी वह रात भर ढोलक बजाता रहता था. परन्तु एक रात ढोलक की आवाज़ धीरे-धीरे सुन्न हो गयी. पहलवान लुट्टन सिंह की मौत हो गई. उसकी इच्छा थी कि उसकी चिता पर उसे ‘चित‘ कर नहीं जलाया जाय. उसकी इस इच्छा को पूरा किया गया.
फणीश्वरनाथ रेणु की इस कहानी की चंद विशेषताओं का मैं यहां जिक्र करना चाहूंगा. मेरी समझ में यह विशेषताएं ही इस कहानी को अद्भुत बनाती हैं.
यह कहानी सामंती काल के अवसान की कहानी है. बूढ़े सामंत की मृत्यु उस समय का प्रतीक है. उनकी मृत्यु के साथ ही खेल के रूप में पहलवानी की लोकप्रियता भी समाप्त हो जाती है. ढोलक के पारखी भी अब कम ही रहे. इस तरह से रेणु ने खेल के लिए पहलवान और वाद्य यंत्र के लिए ढोलक जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल कर बदलते समय का एक अद्भुत ताना-बाना बुना है.
इस संदर्भ में मुझे गोर्की के फोमा गोर्देयेव या थामस हार्डी के दी ‘mayor of casterbridge’ की याद आती है. इस छोटी सी कहानी की तुलना मैं इन उपन्यासों के साथ नहीं करना चाहता हूं. लेकिन निश्चित रूप से एक बात जो इन तीनों में मुझे दिखाई पड़ती है उसको मैं रेखांकित करना चाहता हूं. एक व्यक्ति के जीवन की त्रासदी बदलते हुए समय से किस प्रकार प्रभावित होती है, इसका विलक्षण चित्रण ये तीनों कथाकार करते हैं. रेणु की इस कहानी में सामंती व्यवस्था के अस्त और एक नये व्यवस्था के आहट का जिक्र मात्र है. विलायत से लौटा सामंती राजा का बेटा भी सामंती व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की जगह वह इससे समझौता करता दिखता है. वह उस आने वाले समाज को इंगित करता है जहां आधुनिकता का ओढ़ना ओढ़े पूंजीवाद सामंती व्यवस्था के साथ सह-अस्तित्व बनाता है.
पहलवान की ढोलक में रेणु ने शब्दों के माध्यम से एक चलचित्र प्रस्तुत किया है. इस कहानी को पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे कि कोई चलचित्र देख रहें हों. पहलवान की पूरी सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति पाठक के नजरों के सामने होती है. पाठक ढोलक की संगीत का वैसे ही आनंद लेता है जैसे एक प्रत्यक्षदर्शी लेता है.
इस कहानी को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है मानो जैसे कि आप उस समाज में ही जी रहे हों. तात्कालीन समय को भी उन्होंने बखूबी मूर्त किया है चाहे वह मलेरिया-प्लेग की महामारी हो या पहलवान लुट्टन सिंह की जातिगत पहचान हो. रेणु एक छोटे से अंचल की कहानी के द्वारा एक समग्र दृष्टिकोण प्रकट करते हैं.
पूर्णिया के श्यामनगर का मेला इस कहानी का एक केंद्रीय स्थल है. इस कहानी में रेणु कई जगह सामाजिक परिस्थितियों की तुलना प्रकृति की अवस्था से करते हैं जो मार्मिक भी है और सांकेतिक भी. प्रकृति को समाज से पृथक कर नहीं देख सकते हैं. इसके चित्रण में भी रेणु हार्डी और गोर्की के समकक्ष दिखाई पड़ते हैं.
इन तमाम विशिष्टताओं के बीच जो बात इस कहानी में खटकती है वह है रेणु का जाते हुए सामंती व्यवस्था के प्रति ‘नॉस्टेल्जिया‘. जो जा रहा है वो अपनी अच्छाइयों को भी अपने गर्त में लेता हुआ जा रहा है, और जो आ रहा है वह अभी कुहासे में है, अभी स्पष्ट नहीं है. रेणु ऐसे में संकोची मालूम पड़ते हैं. शायद यही हमारे समय की त्रासदी रही है.
डॉ. अभय कुमार
सीआईईटी, एनसीईआरटी/ नयी दिल्ली – ११००१६
akumarabhay@gmail.com
पहलवान की ढोलक
फणीश्वरनाथ रेणु |
जाड़े का दिन. अमावस्या की रात-ठंढ़ी और काली. मलेरिया और हैजे से पीड़ित गांव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर कांप रहा था. पुरानी और उजड़ी, बांस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य ! अंधेरा और निस्तब्धता!
अंधेरी रात चुपचाप आंसू बहा रही थी. निस्तब्धता करूण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने ह्रदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी. आकाश में तारे चमक रहे थे. पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं. आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी. अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते थे.
सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी. गांव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज, ‘हरे राम! हे भगवान!‘ की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी. बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘मां-मां‘ पुकारकर रो पड़ते थे. पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी.
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है. वे दिन-भर राख के घूरो पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे. संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे.
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी – सिर्फ पहलवान की ढ़ोलक! संध्या से प्रात:काल तक एक ही गति से बजती रहती- चट् -धा, गिर धा,…चट् धा, गिर धा !‘ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा!‘… बीच बीच में – ‘चटाक् चट् धा, चटा्क चट् धा!‘ यानी उठाकर पटक दे! उठाकर पटक दे. ‘
यही आवाज मृत गांव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी.
यों तो वह कहा करता था- ‘लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया के लोग जानते हैं, किंतु उसके होल इंडिया की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो. जिले भर के लोग उसके नाम से परिचित अवश्य थे.
सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी मां-बाप का अनुसरण करता. विधवा सास ने पाल-पोष कर बड़ा किया. बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था. गांव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे; लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी. नियमित कसरत ने किशारोवस्था में ही उसके सीने और बांहो को सुडौल और मांसल बना दिया था. जवानी में कदम रखते ही वह गांव में सबसे अच्छा पहलवा समझा जाने लगा. लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भांति चलने लगा. वह कुश्ती भी लड़ता था.
एक बार वह ‘दंगल‘ देखने श्यामनगर मेला गया. पहलवानों की कुश्ती और दांव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया. जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी. उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे‘ को चुनौती दे दी.
श्यामनगर के दंगल और शिकार-प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बात कर ही रहें थे के लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी. सम्मान प्राप्त चांद सिंह पहले तो किंचित, उसकी स्पर्धा पर मुस्कराया. फिर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा.
शांत दर्शको की भीड़ में खलबली मच गयी- ‘पागल है पागल, मरा-ऐं! मरा-मरा!… पर वाह रे बहादुर! लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को संभालकर निकल कर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा. राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया. अंत में, उसकी हिम्म्त की प्रशंसा करते हुए, दस रुपये का नोट देकर कहने लगे- ”जाओ, मेला देखकर घर जाओ !…
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया- ”देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से! सरकार इतना समझा रहें हैं…!”
भीड़ अधीर हो रही थी. बाजे बंद हो गये थे. पंजाबी पहलवानों की जमात क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी. दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी. कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-”उसे लड़ने दिया जाये!”
अकेला चांद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुस्कराने की चेष्टा कर रहा था. पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाजा उसे मिल गया था.
बाजे बजने लगे. दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली. कोलाहल बढ़ गया. मेले के दुकानदार दुकान बंद कर के दौड़े- ”चांद सिंह की जोड़ी-चांद की कुश्ती हो रही है.”
लुट्टन को चांद ने कसकर दबा लिया था.
”अरे गया-गया!!-दर्शको ने तालियां बजायीं-”हलुआ हो जायेगा, हलुआ! हंसी-खेल नहीं-शेर का बच्चा है… बच्चू!”
लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चांद चित्त करने की कोशिश कर रहा था.
राजमत, बहुमत चांद के पक्ष में था. सभी चांद को शाबासी दे रहे थे. लुट्टन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज थी, जिसके ताल पर वह अपनी शक्ति और दांव-पेंच की परीक्षा ले रहा था-अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था. अचानक ढोल की एक पतली आवाज सुनायी पड़ी-
लोगो के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, लुट्टन दांव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चांद की गर्दन पकड़ ली.
मोटी और भोंडी आवाज वाला ढ़ोल बज उठा-‘चटा्क-चट्-धा,चटा्क-चट्-धा…‘(उठा पटक् दे! उठा पटक दे!!)
लुट्टन ने चालाकी से दांव और जोर लगाकर चांद को जमीन पे दे मारा.
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी की किसकी जय-ध्वनि की जाये. फलत: अपनी-अपनी इच्छानुसार किसी ने ‘मां दुर्गा की‘, किसी ने महावीर जी की, कुछ ने राजा श्यामनंद की जय ध्वनि की. अंत में सम्मिलित ‘जय!‘ से सारा आकाश गूंज उठा.
विजयी लुट्टन कूदता-फांदता, ताल-ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलो को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम किया. फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया. राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गये. मैनेजर साहब ने आपत्ति की- ‘हें हें…अरे-रे!‘ किन्तु राजा साहब ने उसे स्वयं छाती से लगाकर गदगद होकर कहा- ‘जीते रहो बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली!‘
पंजाबी पहलवानों की जमात चांद सिंह की आंख पोंछ रही थी. लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया. तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे. राज-पंडितों ने मुंह बिचकाया-”हुजूर! जाति का दुसाध…सिंह!”
मैनेजर साहब क्षत्रिय थे. ‘क्लीन-शेव्ड‘ चंहरे को संकुचित करते हुए, अपनी पूरी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे. चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-”हां सरकार, यह अन्याय है!”
राजा साहब ने मुस्कराते हुए सिर्फ इतना कहा-”उसने क्षत्रिय का काम किया है.”
उसी दिन ने लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी. पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चांद लगा दिये. कुछ वर्षो में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुंघाकर दिखा दिया.
काला खां के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लंगोट लगाकर ‘या-ली‘ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है. लुट्टन ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया.
उसके बाद से वह राज-दरबार का दर्शनीय ‘जीव‘ ही रहा. चिड़ियाखाने में पिंजड़े और जंजीरो को झकोरकर बाघ दहाड़ता-‘हां-उं, हां-उं!! सुनने वाले कहते-‘राजा का बाघ बोला.
ठाकुरबाड़े के सामने पहलवान गरजता- ‘महा-वीर!‘ लोग समझ लेते पहलवान बोला.
दो सेर रसगुल्लो को उदरस्थ करके, मुंह में आठ-दस पान की गिलौरियां ठूंस, ठुड्डी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल में मेले में घूमता. मेले से दरबार लौटने से समय उसकी अजीब हुलिया रहती- आंखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में खिलौने को नचाता और मुंह से पीतल की सीटी बजाता, हंसता हुआ वह वापस जाता. बल और शरीर की वृद्धि के साथ बुद्धि का परिणाम घटकर बच्चों की बुद्धि के बराबर ही रह गया था उसमें.
दंगल में ढाल की आवाज सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना
शुरू कर देता था. उसकी जोड़ी तो मिलती ही नहीं थी, यदि कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्टन को आज्ञा ही नहीं देते. इसलिए वह निराश होकर, लंगोट लगाकर, देह में मिट्टी मल और उछालकर अपने को सांड़ या भैंसा साबित करता रहता था. बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुस्कराते रहते.
यों ही पंद्रह वर्ष बीत गये. पहलवान अजेय रहा. वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतरता था. पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गयी थी. दोनों लड़के पिता की तरह ही गठीले और तगड़े थे. दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुंह से अनायास ही निकल पड़ता-”वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे!”
दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे. अत: दोनो का भरण-पोषण दरबार से हो रहा था. प्रतिदिन प्रात: काल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता. दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की भी शिक्षा देता-
”समझे! ढोलक की आवाज पर पूरा ध्यान रखना. हां, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे! ढोल की आवाज के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ. दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलो को प्रणाम करना, समझे!”…
ऐसी बहुत सी बातें वह कहा करता. फिर मालिक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था.
पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार न कहा-‘टैरिबुल‘
पहलवान को साफ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं. उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया.
खाने-पीने का खर्च गांव वालों की ओर बंधा हुआ था. सुबह-शाम वह स्वयं ढोलक लेकर अपने शिष्यों और पुत्रों को दांव-पेंच वगैरह सिखाया करता था.
गांव के किसान और खेतिहर-मजदूर के बच्चे भला क्या खाकर कुश्ती सीखते! धीरे-धीरे पहलवान का स्कूल खाली पड़ने लगा. अंत में अपने दोनों पुत्रों को ही वह ढोलक बजा-बजाकर लड़ाता रहा-सिखाता रहा. दोनों लड़के दिन भर मजदूरी करके जो कुछ भी लाते, उसी में गुजर होती रही.
अकस्मात गांव पर वज्रपात हुआ. पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गांव को भूनना शुरू कर दिया.
गांव प्राय: सूना हो चला था. घर के घर खाली पड़ गये थे. रोज दो-तीन लाशें उठने लगीं. लोगों में खलबली मची हुई थी. दिन में तो-कलरव, हाहाकार तथा ह्रदय विदारक रूदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में. सूर्योदय होते ही लोग कांखते-कूंखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढंस देते थे-
”अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो गया, वह तुम्हारा नहीं था वह जो है उसको तो देखो. ”
किंतु सूर्यास्त होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में घुस जाते तो चूं भी नहीं करते. उनकी बोलने की शक्ति भी जाती रहती थी. पास में दम तोड़ते पुत्र को अंतिम बार ‘बेटा!‘ कहकर पुकारने की भी हिम्मत माताओं की नहीं होती थी.
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी. पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गांव के अर्ध मृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी. बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आंखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था. स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी. अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश-गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आंख मूंदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे.
जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था-”बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ!”
प्रात: काल उसने देखा-
उसके दोनों बच्चे जमीन पर निस्पंद पड़े हैं. दोनो पेट के बल पड़े हुए थे. एक ने दांत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी. एक लंबी सांस लेकर पहलवान ने मुस्कराने की चेष्टा की थी- ”दोनो बहादुर गिर पड़े!”
किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रतिदिन की भांति सुनायी पड़ी. लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गयी. संतप्त पिता-माताओं ने कहा- ”दोनो पहलवान बेटे मर गये, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!”
चार-पांच दिनों के बाद. एक रात को ढोलक की आवाज नहीं सुनायी पड़ी. ढोलक नहीं बोली.
पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रात:काल जाकर देखा-पहलवान की लाश ‘चित‘ पड़ी है. रात में सियारों ने सुगठित बायीं जांघ के मांस को खा डाला है. पेट पर भी….
आंसू पोंछते हुए एक ने कहा- ”गुरूजी कहा करते थे कि जब मैं मर जाउं तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना. मैं जिंदगी में कभी ‘चित‘ नहीं हुआ. और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना.” वह आगे बोल नहीं सका.
पास में ही ढोलक लुढ़की हुई पड़ी थी. सियारों ने ढोलक को ‘भक्ष्य पदार्थ‘ समझकर उसके चमड़े को फाड़ डाला था.