‘बिसात पर जुगनू’ कथाकार वंदना राग का पहला उपन्यास है, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर है. जो इसी वर्ष राजकमल से छप कर आया है.
कई बार मुझे लगता है कि साहित्य इतिहास में जिसे होना चाहिए चाहे वह व्यक्ति हो या घटना उसे भी गढ़ सकता है गढ़ लेता है. एक तरह से वह समय के अधूरेपन को भरता है. वर्तमान की आकांक्षा का फूल वह भूत में उगा सकता है. यह वही कर सकता है.
इस उपन्यास की विस्तार से चर्चा कर रहें हैं सत्यम श्रीवास्तव
गल्प में इतिहास की ध्वनियाँ
सत्यम श्रीवास्तव
सत्यम श्रीवास्तव पिछले १५ सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम करते हैं. प्राकृतिक संसाधनों और गवर्नेंस के मुद्दों पर गहरी रुचि है. मूलत: साहित्य के छात्र रहे हैं. दिल्ली में रहते हैं और \’श्रुति\’ ऑर्गनाइजेशन से जुड़े हैं.
एक राजा है, उनका एक बेटा है जो अभिधा में कहें तो कोमल है, भावुक है और लगभग (जनाना मर्द) स्त्रेण है. उसमें राज परिवार के ‘युवराज सुमेर सिंह’ की तरह बल नहीं है, चपलता भी नहीं है. वो शिकार करने जाता है तो घायल खरगोश के खून को देखकर रूआँसा हो जाता है, जिसे फूलों की गंध बहुत अच्छी लगती है जो कई स्त्रियॉं के संपर्क में आता है लेकिन एक तलाश में बना रहता है जब तक उसे परगासो नहीं मिल जाती. परगासो जो मर्दाना जनानी है. उसमें पौरुष है. जो मेहनत से बनी है. जिसमें उसके कुनबे के लोग किसी दैवीय शक्ति से सम्पन्न मानते हैं. जो अनाथ है. मिट्टी खोदकर बड़ी हुई है और किसी घटनाक्रम से वह महल तक पहुँच जाती है. जहां वह बागवानी करती है. वह निडर है और तथाकथित नीच जाति से आती है. उसमें श्रम का बलिष्ठ सौंदर्य है. परगासो से मिलकर सुमेर सिंह की तलाश पूरी होती है. जैसे अब तक उसे स्त्रियां में किसी पौरुष की चाह थी.
ये चरित्र ही उस पीरियड के आंतरिक द्वंद्व हैं. एक सुमेर सिंह को परगासो की तरह होना चाहिए लेकिन वह नहीं है और उसे इसका कोई मलाल भी नहीं है. वह जैसा है वैसा ही खुद को रखना चाहता है. पौरुष का बोझ उठाने से मुसलसल इंकार करता रहता है. परगासो से मिलने के बाद जैसे वह अपने व्यक्तित्व की संपूर्णता का एहसास करता है. पूरक होने की सुंदरतम अभिव्यक्ति यहाँ वंदना ने प्रेम संबंधों के बीच इतनी सहजता से की है कि उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि यही तो खूबसूरत रिश्ता है या सहजीवन की आधारशिला है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में भी एक तलाश बनी हुई है. इतनी सहजता, उस दौर की कठिन सामाजिक आचार संहिता में कल्पना से परे भी हो सकती है लेकिन अभिव्यक्ति में यह इतनी सहज है कि उपन्यास यहाँ कला की उस पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है जहां किसी प्रेक्षक को केवल यही लगता है कि वह एक जिये जा रहे जीवन का नैसर्गिक हिस्सा है. यह संभव है बल्कि यही संभव है.
परगासो जो विद्रोहिनी है. आज की भाषा में कहें जो ऐसी स्त्रियां के लिए कहा जाता है कि वो ‘तेज’ है. यह तेज उसके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है जो उसने जंगलों की खाक छानकर हासिल किया है. परगासो का महल तक पहुँचना भले ही एक इत्तेफाक रहा हो पर आगे की यात्रा वह अपने सक्षम व्यक्तित्व और तेज दिमाग के पहियों पर सवार होकर करती है.
परगासो तेज है चालू नहीं है. वह धोखा नहीं देती. वह सुमेर सिंह को अपने जाल में फँसाती नहीं है. सुमेर सिंह उससे मछलियों की तरह प्यार करता है जो लहरों में फँसने नहीं आतीं और परगासो भी सुमेर सिंह से हवाओं की तरह प्रेम करती है जो उसके सीने को दबाने नहीं आतीं.
उनके बीच का संबंध हक़ीक़ी नहीं है बल्कि बेइंतिहाई शरीरी है. इतना कि यूवराज कई-कई दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते और परगासो भी बाहर बागवानी करते नहीं दिखाई देतीं. सामंती वातावरण में एक दुसाध महिला के साथ सुमेर सिंह का यह प्रेम, राज घराने की मर्यादायों की खिलाफत के तौर पर देखा जाता है और उन्हें महल के उसी नीचे वाले हिस्से में पीछे की तरफ बने एक कमरे तक महदूद किए जाने की सज़ा दी जाती है. जिसे सुमेर सिंह खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं. परगासो पर बढ़ती आत्म-निर्भरता को हम पितृसत्तात्मक आदर्श परिवार में देख सकते हैं पर इस कथा में हमें पात्रों को बदलने की शर्त वंदना रख देती हैं. हमें पुरुष की जगह स्त्री और स्त्री की जगह पुरुष को रख देना होगा. आधुनिक जमाने में हम इसे अंतरजातीय लेकिन विलोम दाम्पत्य के तौर पर देख सकते हैं. हालांकि उनके बीच बाकायदा शादी हुई या नहीं इसे लेकर वंदना ने कुछ बताया नहीं. अगर यह स्पष्ट नहीं हो पाया तो यह इक्कीसवीं सदी की वह औपचारिक-अनौपचारिक संस्था बनती हुई दिखलाई पड़ती है जिसे लेकर आधुनिक भारत के न्यायालय नई-नई तकरीरें कर रहे हैं और हिन्दी सिनेमा अभी उसे एक फैशन के तौर पर चलन में लाने की मज़ाकिया हद तक अगंभीर कोशिशें करते नज़र आ रहा है.
यहाँ तक फिर भी अंतर-वस्तु के तौर पर प्रेम और अटूट आकर्षण स्वीकार किया जा सकता है लेकिन जिस तरह से परगासो राज बचाने के लिए सैन्य रणनीति, प्रजा के बीच लामबंदी और अन्य रियासतों के साथ संयुक्त रणनीति बनाते हुए राज का नेतृत्व करती है वह ऐसा कथ्य है जिसे बार-बार पढ़े जाने की ज़रूरत है. इस पूरे घटनाक्रम में सुमेर सिंह की परगासो के साथ की कैमिस्ट्री और सपोर्ट और उसके नेतृत्व को लेकर स्वीकार्यता देखते बनती है. जो एक तरफ परगासो की तीक्षण बुद्धि और बल को रेखांकित करता है वहीं सुमेर सिंह के उस उदार और विराट व्यक्तित्व को भी जो सक्षम स्त्री के पीछे चलने को सहर्ष तैयार है. यहाँ शरीर की बलिष्ठता के बरक्स मन की उदारता का द्वंद्व सामने नहीं आता बल्कि कम बलिष्ठ शरीर और उदार हृदय मिलकर सम्पूर्ण और सहज व्यक्तित्व रचता है. यहाँ पहुँचकर उस कालखंड की कहानी में हमें सुमेर सिंह के रूप में एक और जुगनू मिल जाता है जो उस समय की बिसात पर पूरी सौम्यता में चमकता है.
जिन्होंने उपन्यास नहीं पढ़ा है उनके लिए सुमेर और परगासो की कहानी का सबसे प्रामाणिक राजदार फतेह अली खान हैं जिन्हें ख़तो-किताबत से सारे किस्सा–ए-हाल पता चलते रहते हैं और जो अपने रोज़नामचे के जरिये हम पाठकों को भी इत्तला करते चलते हैं.
अब तक जो कहानी कही गयी वो चांदपुर रियासत की थी. यह उपन्यास अपने पाठकों को यह इत्मीनान दिलाता चलता है कि कहानी कहीं की हो मानवीय संबध अनिवार्य रूप से मानवीय होते हैं. उपन्यास का ज़रूरी ठिकाना पटना का मुसव्विर ख़ाना है. मुसव्विर ख़ाना यानी चित्रकला की कार्यशाला. जहां चित्रकार आते हैं और अपनी कला की साधना करते हैं. यह शागिर्दों की तरह आते हैं. जिस दौर की यह बात है तब केवल पुरुष कलाकार ही यहाँ आते हैं. ‘पटना कलम’ चित्रकला की एक विशिष्ट शैली रही है जिसे पूरी जीवंतता के साथ वंदना ने पुनर्स्थापित किया है. फिर से दोहराना ज़रूरी है कि ‘पटना कलम’ का जो ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा शर्तिया यहाँ उससे ज़्यादा प्रामाणिक चित्रण यहाँ मिलेगा.
इसके अलावा ‘कला’ को लेकर जो अगाध और उत्कट प्रतिबद्धता शंकर लाल में है और कला के जिन प्रयोजनों को पाने के लिए वो यह मुसव्विरख़ाना चलाते हैं लगता है कला के प्रयोजन ही उनके जीवन के भी प्रयोजन भी हैं. यूं तो शंकर लाल देश–दुनिया में चल रही तमाम घटनाओं से अनासक्त रहते हैं पर अंतत: उनकी निजी ज़िंदगी और मुसव्विरख़ाने की नियति इसी व्यापार प्रेरित राजनैतिक उथल-पुथल का शिकार हो जाती है. उनके यहाँ हर तरह के लोग आकर कला की साधना आते हैं लेकिन एक खास मेहमान और कलाकार यहाँ आता है जो चुपचाप अपना काम करता है. कुछ आधे-पूरे चित्र उकेरता है. जो चित्र यह कलाकार उकेरता है वो इतने वास्तविक और जीवंत होते हैं कि एक दिन जब जाने–अंजाने शंकर लाल ठीक उसी बस्ती में पहुँच जाते हैं जहां के वो चित्र हैं और पटना कलम शैली में हैं, तो जैसे शंकर लाल को एहसास होता है कि जो कलाकार उनके मुसव्विरख़ाना में आता है और जिसका भर नज़र चेहरा उन्होंने अब तक नहीं देखा है वो ज़रूर इसी बस्ती से ताल्लुक रखता है.
यह अनचीन्हा सा कलाकार एक दिन खादीज़ा बेगम के रूप में शंकर लाल के सामने आता है. खादीज़ा बेगम अपने समय की उन रवायतों को तोड़ रही थीं जिनमें महिलाओं को इस तरह पुरुषों के क्षेत्रों में दाखिला नहीं मिलता था. खैर खादीज़ा बेगम, शंकर लाल की उस खोज को पूरा करती हैं और उनके लिए कला के मायने भी परिष्कृत करती हैं और एक अटूट डोर से इन दोनों का रिश्ता भी बंध जाता है. इसी मुसव्विरख़ाना में रुकबुद्दीन और विलियम नाम के दो कलाकारों के बीच भी बेइंतिहाई मरासिम पैदा होते हैं और जिनका अंत सुखद नहीं होता. रुकबुद्दीन, विलियम का कत्ल कर देता है. यह कत्ल करना एक रचनात्मक आवेग या भारी मनोवैज्ञानिक संवेग था इसका निर्णय करना कठिन है लेकिन इस समलैंगिक प्रेम का अंत जिस तरह होता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की पैठ पटना शहर तक होती है उस पर एक अंग्रेज़ का कत्ल शंकरलाल और मुसव्विरख़ाना को मुश्किल में ज़रूर डाल देता है. आगे की कहानी शंकर लाल को चीन का रुख करने और अपने शागिर्दों की बनाई कलाकृतियों को उनका मान दिलाने के रूप में होता है.
इस बीच मुसव्विरख़ाना को संभालने की ज़िम्मेदारी खादीज़ा बेगम पर आ जाती है. शंकर लाल की अगली पीढ़ी के समानान्तर खादीज़ा बेगम तन्हाई और गुमनामी में ज़िंदगी जीती हैं लेकिन कथा सूत्र में उनकी मौजूदगी बराबर बनी रहती है. यह प्रेम कथा भी हमें लगे हाथ दो ऐसे प्रदीप्तमान जुगनू दे जाते हैं जिनके बिना हमें आगे का रास्ता नहीं सूझता. हालांकि इस उपन्यास में जैसे वंदना ने इन दो जुगनुओं को ‘स्टिल फ्रेम’ में मढ़ कर रख दिया हो जो सही वक़्त पर अपनी जीवंत और ज़रूरी मौजूदगी के साथ लौटेंगे. यहाँ खदीज़ा बेगम एक भिन्न परिवेश की नायिका बनकर सामने आती हैं. परगासो दुषाधन की तरह तो ठीक-ठीक नहीं लेकिन कला की ऊंचाइयों से बना उदार हृदया. शंकर लाल की कला और ज़िंदगी को एकमेव करने और उसके अभीष्ट को हासिल करने की सलाइयतें दे सकने की क्षमता से लैस. लेकिन इतनी अकोमोडेटिव और इतनी इमपर्सनल कि भरोसा नहीं होता कि यह एक गरीब बस्ती में रहने वाली 19वीं सदी की भारतीय मुसलमान महिला है.
परगासो के व्यक्तित्व में फिर भी एक ठसक है और कुछ हद तक अभिमान भी लेकिन यहाँ खदीज़ा बेगम कला की माफिक सौम्य, शीतल और उदात्त हैं. शंकर लाल भी खदीज़ा के लिए उतने ही रिसेप्टिव और उदार हैं. कोई किसी पर पूरी तरह आश्रित नहीं हैं लेकिन एक-दूसरे के लिए एक ही मकसद तय कर लेते हैं. इस प्रसंग में दो और हालांकि थोड़ा कम चमकदार जुगनू रुकबुद्दीन और विलियम भी हैं जिनसे पाठकों को कलात्मक बेचैनी और संवेगों की पाठशाला जितना ज्ञान मिल सकता है और जितना दोनों के बीच प्रगाढ़ता है उससे भाषा, क्षेत्र, जाति, धर्म जैसी जड़ हो चुकीं सामाजिक संस्थाओं के वजूद बेमानी हो जाते हैं. यह अंतरंगता किसी अभियान या मिशन का रूप नहीं लेती बल्कि इतनी सहजता से प्रकट होती है कि इसे अप्राकृतिक तो किसी भी रूप में नहीं कहा जा सकता. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार करने और गई-आपराधिक बताने में बहुत देर कर दी.
यह सतर्क आधुनिक दृष्टि से लिखा गया उपन्यास है. जिसमें ऐतिहासिकता तो है पर उसी में आधुनिकता भी इस कदर पैठी है कि कई बार काल खंड के परे सब आधुनिक ही हो जाता है. जैसा पहले भी कहा कि इस उपन्यास में कोई खल पात्र नहीं है. अंग्रेज़ भी यहाँ एक प्रवृत्ति के तौर पर हैं. लालच, व्यापार, संसाधनों पर कब्जा ये सब प्रवृत्तियाँ हैं और अंतत: यह उपन्यास सामंतवाद के ढहने और पूंजीवाद के स्थापित होने के बीच की समयावधि का है अत: इन दो साभ्यतिक विकास के चरणों के द्वंद्व तो यहाँ हैं. एक कम हृदय की व्यवस्था को निहायत हृदयहीन उत्पादन व्यवस्था द्वारा अतिक्रमित करने के इस संक्रमण काल में ऐसे तमाम द्वंद्व सहसा ब्यौरों के माध्यम से प्रकट होते हैं जिन्हें सतह पर भी पकड़ा जा सकता है.वंदना ने उपन्यास के हर पात्र को बहुत गरिमा बख्शी है.
अब बात करते हैं इस उपन्यास के सबसे ज़रूरी पात्र फतेह अली खान की. जिनके रोजनामचों के बगैर यह कहानी लिखी नहीं जा सकती थी. और यह संयोग नहीं है कि यह कहानी १९१० पर आकर इसलिए खत्म हो जाती है क्योंकि उसके बाद फतेह अली खान के रोज़नामचे नहीं मिलते. उनका इंतकाल हो जाता है और उनके रोज़नामचे बाहर नहीं आते. ऐसे तो फतेह अली खान पूरी कथा में प्रत्यक्ष या अपने रोजनामचों के मार्फत लगातार मौजूद हैं लेकिन उनकी कहानी ‘वेंटन’ चीन के समुद्री तट पर वह रूप अख़्तियार करती है जिसके बिना इस उपन्यास की कहानी पूरी नहीं होती या शुरू भी न हुई होती.
‘यू-यान’ यह नाम है उस महिला का जो चीन के समुद्री तट पर फतेह अली खान की दोस्त बनती है. ठीक- ठीक दोस्त तो नहीं, प्रेमी भी नहीं, पत्नी तो खैर नहीं ही…लेकिन यही इस उपन्यास की खासियत भी है कि यहाँ रिश्ते किसी एक रूढ़ि में प्रकट नहीं होते वो ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें हम अगर शौके-दीदार पैदा कर लें और लोगों की गरिमा रखते हुए उनके अंतरसंबन्धों में झाँके तो वो कहीं भी मिल सकते हैं. वंदना को इसलिए किसी भी तरह के रिश्तों को नाम ही दे देने की न तो इच्छा है और न ही जल्दबाज़ी. यह जोखिम वंदना ने लिया है और उसे जैसे एक चुनौती की तरह सृजन के उत्कृष्ट मापदण्डों तक ले गईं हैं कि जहां यह इतने सहज हो जाते हैं कि यह जानना मुनासिब नहीं लगता कि पूछें कि यू-यान और फतेह अली के बीच क्या रिश्ता था? या शंकर लाल और खदीज़ा बेगम के बीच क्या रिश्ता था?
पाठकों के हृदय को उदार बनाते हुए मानवीय संबंधों और खालिस स्त्री-पुरुष संबधों की भी कितनी ही संभावनाओं और विमाओं को गरिमामयी सुंदरता के रूप में संभव बनाती चलती हैं.
तो फतेह अली खान, राजा सुमेर सिंह के नौकर हैं जिन्हें उनके जहाज सूर्यदरबार पर नौकरी मिली है. जहाज से वो हिंदुस्तान का सामान चीन ले जाते हैं. चीन में भी फ्रांसीसियों व अंग्रेजों का कब्जा व्यापारिक केन्द्रों पर होना शुरू हो गया है. चीन की स्थायी आबादी पर भी इसका गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. कल तक समुद्र पार का जो व्यापार बहुत सहज चल रहा था उस पर तमाम तरह की पाबन्दियाँ लग जाती हैं. जो सांस्कृतिक संबध कभी तत्कालीन भारत कहे जाने वाले देश और चीन कहे जाने वाले देश में रहे होंगे वो अब एक ही अवांछित दुश्मन के निशाने पर आ गए थे और इसका प्रभाव हजारों ज़िंदगियों पर पड़ रहा था.
फतेह अली खान और यू-यान के साथ यू-यान का एक बच्चा भी है. यू-यान का पति चीन में अंग्रेज़ व्यापारियों के खिलाफ मोर्चा लते हुए खेत हो जाता है. बहरहाल यह बच्चा फतेह को बहुत पसंद करता है और दोनों के बीच एक मुकम्मल दोस्ती हो जाती है. चूंकि यू-यान एक माँ है तो बच्चे की उस सहज और पवित्र बुद्धि पर यकीन करते हुए फतेह के साथ बहुत ही सहज होती जाती है. एक समय आता है जब फतेह खान को बच्चे की तस्वीर बनाने की खातिर अपनी भूली-बिसरी कला याद आ जाती है और वह एक दिन यू-यान की इजाजत से बच्चे का चित्र बनाता है. यू-यान शर्त रखती हैं कि दो चित्र बनेंगे. एक वो रखेगी और एक फतेह अली खान. विराट और संश्लिष्ट कथा के रोमांच को खत्म किए बिना एक इशारा भर यहाँ किया जा सकता है कि यह दृश्य उपन्यास का बीज है. कान्हा, चिन-कान्हा सिंह ये वो दो चित्र हैं जो उस दिन पटना कलम शैली में फतेह अली खान ने बनाए. और जो सजीव था वो किसी तरह हिंदुस्तान पहुँच गया.
तो दो चित्र बनते हैं और एक सजीव कथ्य. यू-यान और फतेह अली खान के बीच आपसी भरोसे के आधार बनते हैं. चित्र ली-ना को खोज के लिए प्रेरित करता है और जो सजीव हिस्सा इस प्रसंग में निकलता है वह इस खोज को परिणति तक ले जाता है. इसे पूरी तरह समझने के लिए पाठक को भी दिलचस्प २९५ पृष्ठों से गुजरना होगा.
एक अच्छे उपन्यास की जो अपेक्षित अर्हताएँ हैं वो यह उपन्यास शुरू से अंत तक सफलता पूर्वक निर्वाह करता है. शिल्प में एक नया जैसा प्रयोग लगता है पर मुझे यह भी लगता है कि अगर यह शिल्प नहीं होता तो फिर कैसा ही होता?? इतने बहुपरतीय, बहुविमीय और बहु-सांस्कृतिक कथानक को कहने के लिए यह शिल्प लेखिका की मदद ही कर रहा है. मेरे लिए शिल्प और कथ्य की बहस में हमेशा कथ्य वरीयता पाता है और शिल्प उसका अनुगामी हो जाता है. लेकिन यहाँ वह भी द्वंद्व नहीं दिखता है. एक पीरियड उपन्यास में जो इतने बड़े कैनवास पर फैला हो तब शिल्प सपाट नहीं हो सकता लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए यह भी नहीं लगता कि वंदना ने इंचीटेप लेकर भवन निर्माण से पहले ज़मीन को नापा ही होगा. पहले एक स्ट्रक्चर बनाया होगा और फिर ईंट-गारे से उसे भर दिया होगा. हालांकि जिस सहजता से शिल्प और कथ्य के तनाव के बीच रचनात्मक संतुलन इन्होंने साधा है वह इतनी सतर्क तैयारी की मांग तो करता ही है. और की भी होगी. लेकिन एक अच्छी कला वही है जो फूल प्रूफ फेयर कापी के तौर पर पाठकों के सामने आए.
इस शिल्प ने वंदना को बहुत सारी सहूलियतें दी हैं. इतनी कि इतिहास में रचनात्मक दखल जा सके और इतिहास बुरा न माने लेकिन इतनी भी नहीं एक लंबा काल खंड अविश्वसनीय ही लगने लगे. लेखिका ने रोज़नामचे से लेकर अखबारों से लेकर, ब्रिटिश सरकार के गेजेट्स, लोक मान्यताओं, हरबोलों आदि सभी से यह रचना पूरी करने में दिल खोल कर मदद ली है और इन सबने इस रचना को हम तक पहुँचने में रचनाकार की भरपूर मदद की है.
गौरतलब यह है कि शिल्प बोझिल नहीं हुआ और कथा में अवरोध पैदा करते हुए नहीं लगा. वंदना की भाषा भीड़ में पहचानी जा सकती है. इसमें भी इस राय को पुख्ता आधार ही दिया है. संदर्भों के अनुसार बदलती रही है. यह देशज उपन्यास भी है और आधुनिक भी और अंततः: अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर भी इसके ठिकाने हैं इसलिए भाषा में स्वाभाविक वेरिएशन्स हैं. जो रचना को खूबसूरत बनाते हैं. मुझे कहीं- कहीं भाषा बेहद सतर्क ढंग से बनावटी भी लगी पर यह इसलिए भी हो सकता है कि बिहार की लोक भाषाओं से मेरा प्रत्यक्ष तजर्बा नहीं है. लेकिन कई बार खालिस बनावटी भी लगी. हालांकि इस भाषा के कारण कथानक या शिल्प या पात्रों के प्रति पाठक की सहजता में कोई फर्क नहीं पड़ेगा इससे मुतमईन हुआ जा सकता है.नाटकीयता है इस उपन्यास में और कई बार बेहद सक्रियता के साथ. हालांकि ‘अचानक’ जैसा कुछ केवल अंतिम दृश्यों में होता है और जो इस रचना की परिणति भी है.
आखिर संस्पेंस न होता, खोज न होती, कुछ जानने की ललक न होती तो यह उपन्यास ही क्यों रचा जाता? लेकिन यह अंतिम दृश्य भी इतना अनपेक्षित और सस्पेंस से भरपूर है कि यहाँ आकर पीछे के पढ़े जा चुके सारे पृष्ठ, सारे ब्यौरे एक साथ पटना के कला महाविद्यालय में ली-ना के बगल में जा खड़े होते हैं. यहाँ आकर आपके साथ भी वही घटता है जो ली-ना के साथ. यह संपृक्ति ही उपन्यास की परिणति है. जहां पाठक, लेखक और पात्रों का भेद मिट जाता है और सब एकमेव हो जाते हैं.
गौरतलब यह है कि शिल्प बोझिल नहीं हुआ और कथा में अवरोध पैदा करते हुए नहीं लगा. वंदना की भाषा भीड़ में पहचानी जा सकती है. इसमें भी इस राय को पुख्ता आधार ही दिया है. संदर्भों के अनुसार बदलती रही है. यह देशज उपन्यास भी है और आधुनिक भी और अंततः: अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर भी इसके ठिकाने हैं इसलिए भाषा में स्वाभाविक वेरिएशन्स हैं. जो रचना को खूबसूरत बनाते हैं. मुझे कहीं- कहीं भाषा बेहद सतर्क ढंग से बनावटी भी लगी पर यह इसलिए भी हो सकता है कि बिहार की लोक भाषाओं से मेरा प्रत्यक्ष तजर्बा नहीं है. लेकिन कई बार खालिस बनावटी भी लगी. हालांकि इस भाषा के कारण कथानक या शिल्प या पात्रों के प्रति पाठक की सहजता में कोई फर्क नहीं पड़ेगा इससे मुतमईन हुआ जा सकता है.नाटकीयता है इस उपन्यास में और कई बार बेहद सक्रियता के साथ. हालांकि ‘अचानक’ जैसा कुछ केवल अंतिम दृश्यों में होता है और जो इस रचना की परिणति भी है.
आखिर संस्पेंस न होता, खोज न होती, कुछ जानने की ललक न होती तो यह उपन्यास ही क्यों रचा जाता? लेकिन यह अंतिम दृश्य भी इतना अनपेक्षित और सस्पेंस से भरपूर है कि यहाँ आकर पीछे के पढ़े जा चुके सारे पृष्ठ, सारे ब्यौरे एक साथ पटना के कला महाविद्यालय में ली-ना के बगल में जा खड़े होते हैं. यहाँ आकर आपके साथ भी वही घटता है जो ली-ना के साथ. यह संपृक्ति ही उपन्यास की परिणति है. जहां पाठक, लेखक और पात्रों का भेद मिट जाता है और सब एकमेव हो जाते हैं.
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सत्यम श्रीवास्तव पिछले १५ सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम करते हैं. प्राकृतिक संसाधनों और गवर्नेंस के मुद्दों पर गहरी रुचि है. मूलत: साहित्य के छात्र रहे हैं. दिल्ली में रहते हैं और \’श्रुति\’ ऑर्गनाइजेशन से जुड़े हैं.