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Home » परख : राकेश बिहारी (ग़ौरतलब कहानियाँ): मीना बुद्धिराजा

परख : राकेश बिहारी (ग़ौरतलब कहानियाँ): मीना बुद्धिराजा

कथा-आलोचक राकेश बिहारी हिंदी के समर्थ कथाकार भी हैं. उनकी ग़ौरतलब कहानियाँ की चर्चा कर रहीं हैं  मीना बुद्धिराजा. राकेश बिहारी :  ग़ौरतलब कहानियाँ नयी सदी  की  कथा   का  बदलता चेहरा                        मीना बुद्धिराजा वर्तमान परिदृश्य में हिंदी कहानी को लेकर तमाम तरह की बहसें कथा-आलोचना […]

by arun dev
January 9, 2019
in समीक्षा
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कथा-आलोचक राकेश बिहारी हिंदी के समर्थ कथाकार भी हैं. उनकी ग़ौरतलब कहानियाँ की चर्चा कर रहीं हैं  मीना बुद्धिराजा.



राकेश बिहारी :  ग़ौरतलब कहानियाँ
नयी सदी  की  कथा   का  बदलता चेहरा                        
मीना बुद्धिराजा





वर्तमान परिदृश्य में हिंदी कहानी को लेकर तमाम तरह की बहसें कथा-आलोचना में होती रही हैं कि कहानी की सार्थकता उसके कहानीपन के फॉर्म मे ज्यादा है अथवा उसके समकालीन सरोकारों से जुडे मुद्दे गम्भीरता से केंद्र में होने चाहिये. आज नि:संदेह कहानी समकालीन यथार्थ को अभिव्यक्त करने की सबसे सशक्त एवं कथा-साहित्य की प्रतिनिधि विधा का रूप ले चुकी है. अत: उसे किसी विचारधारा की प्रस्तुति न मानकर समाज के अंतर्द्वंद्व, विरोधाभासों और समय के साथ आने वाले परिवर्तन तथा मानवीय संकटों के जीवंत चित्रण का ही प्रतिबिम्ब मानना चाहिये. अपने परिवेश की विसंगतियों, तनावों और दबावों से कोई भी कथाकार अछूता नहीं रह सकता. अपनी रचना में भी कथ्य के भावबोध और शिल्प के स्तर पर भी वह निरंतर अपने समय से जुड़ा रहता है जिससे उसका पाठकों से सार्थक संवाद का सबंध हमेशा बना रहे. अपने समय की तमाम मूल्यहीनता और ना-उम्मीदी में भी वह भविष्य के लिए  बेहतर स‌ंभावनाओं की तलाश के लिए उत्सुक रहता है यही उसकी रचना की प्रासंगिकता है. कथाकार के पास हमेशा एक विज़न, एक दृष्टि होनी चाहिए जिससे वह अपने आस-पास के परिवेश और सरोकारों को कथ्य के लिए मेटॉफर के रूप में बदल सकता है.
इक्कीसवीं सदी की भावभूमि को अगर हम करीब से देखें तो यह तकनीकी ज्ञान के अतिरेक और सूचनाओं के महाजंजाल के साथ मुक्त बाज़ारवाद के बेतहाशा प्रभाव और दबाव की सदी है. 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के अप्रत्याशित प्रभाव ने समाज की संरचना और सभी मानवीय संबधों के आधारभूत ढ़ांचे में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया है. यह तस्वीर जिस तीव्रता के साथ दो-तीन दशकों मे बदली है उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है. इस समय में सिर्फ  मानवीय चेतना और मानवीय संबधों का बिखराव है और संवेदनाओं का लगातार क्षरण हुआ है जिसमें दूसरे को समझने के लिये या विश्लेषण के लिए मनुष्य के पास अब वक्त ही नहीं. इसलिए आज की हिंदी कहानी पर बात करते हुए उन संदर्भों और मूल्यों-परिस्थितियों को भी दृष्टि में रखा जाना चाहिए जिसके आस-पास कहानी रची जा रही है.

समकालीन कहानी के परिदृश्य में प्रसिद्ध कथाकार ‘राकेश बिहारी’ सजग और गम्भीर रूप से कथा-आलोचना के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय और सशक्त रचनाकार हैं. अपनी कहानियों में वे कथा-लेखन की उन सभी दिशाओं और कथा-प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो वैश्विकरण और आर्थिक उदारीकरण के अमानुषिक प्रभाव को भिन्न-भिन्न आयामों और कोणों से देखती हैं. उन्होने समकालीन यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर ही अपने रचनात्मक सरोकारों को शब्दाकार दिया है. तीव्र गति से बदलते आर्थिक परिवेश के बीच समाज में उत्पन्न नई जटिलताओं और चुनौतियों को रेखांकित करने वाली कहानियों से पहले ही अपनी पहचान स्थापित कर चुके सुप्रसिद्ध कथाकार राकेश बिहारी का पहले एक लोकप्रिय कहानी संग्रह और एक आलोचना पुस्तक ‘केंद्र मे कहानी’ प्रकाशित हैं. ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से पुरस्कृत तथा उल्लेखनीय कथा-पत्रिकाओं के सम्पादन के साथ ‘समालोचन’ के लिए ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ लेखमाला का लेखन भी वे निरंतर कर रहे हैं. इसी रचनात्मक यात्रा में उनका नवीनतम कहानी- संग्रह “ग़ौरतलब कहानियाँ’ शीर्षक से अभी हाल में ‘भारत पुस्तक भंडार’ प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. अपने पाठकों को नए विषयों की कहानियाँ देना कहानीकार ‘राकेश बिहारी’की खासियत है. इस संग्रह की कहानियां भी आज के परिवेश में केन्द्रीय स्तर पर उस भूमंडलोत्तर कथ्य भूमि से जुड़ी हैं जिनमें बदलते परिदृश्य में कॉर्पोरेट सेक्टर की दुनिया के उलझे हुए सम्बंध हैं, नया सर्वहारा युवा वर्ग है जो मल्टीनेशनल कम्पनियों में जीने का संघर्ष करता हुआ नयी आज़ादी में भी घुटन महसूस करता है और उसकी समस्याएँ सर्वथा भिन्न हैं.

इक्कीसवीं सदी का यह मनुष्य तकनीक और संचार के नये माध्यमों इमेल और मोबाइल संदेशों के जरिये दूरियों को घटा रहा है लेकिन सम्बंधो में निर्ममता और फासले अधिक बढ रहे हैं.इस संग्रह की सभी कहानियों में इस आधुनिक युवा के सुख-दुख, भावनात्मक संकट, उम्मीदें और हताशाएं व्यक्त हैं जो अब वो नहीं रह गई हैं जो इस समय से पहले थीं. इन्ही त्रासद सच्चाईयों को जिस विश्वसनीयता और गंभीरता के साथ कथाकार ने कहानियों में जीवंत किया है उसके प्रामाणिक होने में उनका अपना जीवनानुभव भी विशेष भूमिका निभाता है. इसलिए इनके पात्र गढे हुए नहीं बल्कि सहजता से आसपास दिखने वाले और कथ्य की संरचना सायास निर्मित नहींअपितु सामान्य सहज और गतिशील है जो साधारण के बीच ही असाधारण का सृजन करती है. एक नई आर्थिक-सामाजिक दुनिया की ये सजग,  समसामयिक और समृद्ध कथ्य के विवरणों से जुड़ी कहानियां पाठक की संवेदना और दिलो-दिमाग को देर तक प्रभावित करती हैं.
  

इस संग्रह की कहानियँ सामान्य कथ्य और घटनाओं के साथ भी उदारीकरण के बाद समकालीन समाज के आधारभूत ढांचे और मानवीय-पारिवारिक सम्बंधों में जो तबदीली आई उन्हें रोज़मर्रा की विडम्बनाओं से जोड़ते हुए उन कारणों को भी परत दर परत खोलती हैं जो इनके मूल मे हैं. पहली कहानी ‘खिला हो ज्यों बिजली का फूल’ आधुनिक संदर्भों में मध्यवर्गीय परिवारों में पति-पत्नि के सम्बंधों में आये बिखराव और तनावों के बीच छोटी- छोटी परेशानियों और उलझी हुई जटिल जीवन स्थितियों में नील और अंतरा के चरित्रों के माध्यम से मोबाइल संदेशों के बीच सच्चे और आत्मीय संबंध और सहज मित्रता के रिश्ते की मार्मिक कहानी है. मुक्त पूंजीवाद ने अपने अर्थशास्त्रीय विस्तार के लिए मनुष्य को एक यांत्रिक उपभोक्ता में बदलते हुए उसे उत्पादन और लाभ के लिए एक टूल की तरह इस्तेमाल किया है.

दूसरी कहानी “और अन्ना सो रही थी’ कॉर्पोरेट कम्पनियों में भ्रष्ट राजनीति और षडयंत्रों को यथार्थ के धरातल पर दिखाते हुए नैतिक रूप से ईमानदारऔर सिद्धांतप्रिय कार्यरत व्यक्ति के संघर्ष और निर्मम प्रतियोगिता में मिसफिट होने की त्रासदी को उभारती है साथ ही यह रोजगार संकट और मंदी में समाप्त होती नौकरियों के  प्रभाव से टूटते परिवारों की प्रभावपूर्ण कहानी है.
 

भूमंडलोत्तर आर्थिक परिवेश का घातक प्रभाव जहाँ मनुष्य के संवेदनात्मक क्षरण और भावनात्मक शून्यता के रूप में हुआ वहीं दूसरी ओर  मानवीय विवेक और बौद्धिकता को नष्ट करके उसमें विचार के स्थान परबाज़ार को स्थापित करने का कुटिल कार्य भी उसने किया. बाज़ार तो चाहता ही है कि समाज से संघर्ष और द्वंद्व की चेतना समाप्त हो जाए. इस दृष्टिकोण से ‘वह सपने बेचता था’ इस किताब की बहुत सशक्त और प्रतिनिधि कहानी है. इस कहानी का केन्द्रीय चरित्र पीटर जिसकी आंखों मे दुनिया और समाज को बदलने, विषमताओं से लड़ने और मानवता के लिये सामूहिक संघर्ष के बडे-बडे सपने थे. जो एक समय में अपने आदर्शों और सिद्धांतों के जुनून की वज़ह से लाखों युवाओं की प्रेरणा और एक नयी रोशनी की उम्मीद बना था. अंधेरों के विरुद्ध दुष्यंत, गोरख पांडे और पाश के गीतों के द्वारा प्रतिबद्ध क्रांति की ज़मीन और मनोभूमि तैयार करने वाला वह कामरेड  और विलक्षण पात्र भी अंतत: बाज़ार और मुनाफे की चालों का शिकार होकर इस ग्लोबल विश्व में अपने ही लोगों को आभासी सपने बेचने लगता है जो आज के युवाओं की त्रासद नियति है.

दो दशकों में आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव से चारों ओर पसरता अलगाव, यांत्रिक सबंध और संवेदनहीनता आज जिस भयावह स्थिति में पहुंच चुकी हैउसकी सूक्ष्म अनुगूंज इन कहानियों में नये रूपों में सुनी जा सकती है. आत्मचेतना के खो जाने पर मनुष्य जैसे एक देह और रोज़मर्रा की जरूरतों का एक आवरण मात्र है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. इस कटु यथार्थ और अनैतिकता के संकट को ‘सागर-संगीत’ कहानी मार्मिकता से उभारते हुए भी उसमें निस्वार्थ मानवीयता की खोज करती है.‘बिसात’कहानी एक गहरी नज़र से शतरंज के खेल में पूर्णतय दक्ष खिलाडी सारांश के चरित्र के माध्यम से स्त्री-विमर्श के सर्वथा नये आयाम को बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है. शतरंज के खेल को उच्च स्तर तक ले जाने और उसी को अपना सर्वस्व मानने वाले सारांश को कोच के रूप में अपने अधूरे सपनों को पूरा करने की एकमात्र उम्मीद और भविष्य अपनी टीम की बेहद प्रतिभाशाली छात्रा अन्वेषा में दिखती है और वह उसके सपने को पूरा करने के लिए निस्वार्थ रूप से जी जान से जुट जाता है.  यह कहानी वास्तविकता के निकट लगते हुए पुरुष प्रधान समाज और खेल के क्षेत्र में स्त्री के लिए एक चुनौती के रूप में सामने आती है –“कितनी विरोधाभासी है यह बात कि जिस खेल में वजीर और प्यादे से ज्यादा सबसे ताकतवर महिला  होती है उसमें सिर्फ पुरूषों का वर्चस्व है. उम्मीद करूँ कि तुम्हारी ऐकेडमी इस खेल को कुछ सचमुच के ‘क्वींस’देगी..?’’
   

एक गंभीर कथाकार के रूप में राकेश बिहारी ने बहुत यथार्थपरक तरीके से इन कहानियों में निजी क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपंनियों में काम करने वाली युवा पीढी की बदलती जीवन शैली, उसकी छिनती हुई आज़ादी, हताशा, उदासी, अकेलेपन और उसको जीवन के साझे सुख-दुख ,प्रेम जैसी भावनाओं से वंचित होने की त्रासदी को भी मार्मिकता से उभारा  है. हमेशा अधिकतम टार्गेट और बोनस की चिंता में डूबी नौकरीपेशा युवा पीढी अवसाद और तनाव में जीने के लिए विवश है. ‘प्रस्थान’ कहानी में दीपिका और धीरज के सम्बन्धों और सपनों के बीच दीपिका का प्रोमोशन और मंदी में नौकरी को किसी तरह सुरक्षित रख्नने की मजबूरी हमेशा आ जाती है. इस विडबंना की अंतिम परिणति धीरज जैसे भावुक चरित्र की आत्महत्या के रूप में होती है. संवेदनाओं का विखंडन और विघटन जो पूरे युवा वर्ग को अपनी संस्कृतिऔर मूल्यों के साथ साथ आत्मकेंद्रित बना कर भावनात्मक रूप से रिक्तकरके सभी संबंधों से निर्वासित कर रहा है जो सच में अमानवीय और त्रासद है.

आज भी तथाकथित आधुनिक समाज मे स्त्री-पुरुष की सहज मित्रता को रूढिबद्ध तरीके से ही देखा जाता है और जेंडर की समानता अभी भी दूर की चीज़ है. उच्च शिक्षा संस्थानों में पढने वाला युवा शिक्षित वर्ग भी इस नकारात्मक सोच का अपवाद नही है. ‘मैक्सग्रेगर का एक्स सिद्धांत’ कहानी आईटी कम्पनी के प्रशिक्षण कार्यक्रम में आये अभिषेक और मेधा के माध्यम से आज के परिवेश की इस क्षुद्र मानसिकता को वास्तविकता के धरातल पर चित्रित करती है जिसका उनके  पारिवारिक संबंधों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इस विसंगतिके मनोवैज्ञानिक पक्ष का अंकन भी कहानी गहराई से करती है. ‘बाकी बातें फिर कभी’ और ‘अगली तारीख’ जैसी कहानियाँ प्राईवेट सेक्टर और कम्पनियों की अंदरूनी राजनीति,  भ्रष्ट कार्य- व्यवस्था और शोषण के हथकंडों मे पिसते और बेरोजगार होने के भय से कार्य करने वाले नैतिक लोगों की विवश त्रासदी को उभारती हैं. उनके जीवन की खुशियों की डोर और मुनाफे का सारा गणित बॉस और उच्च अधिकारियों के हाथों में है.

कहानी जीवन के कुछ यादगार क्षणों और अनुभवों को लेकर भी लिखी जा सकती है जो सहज स्वाभाविक रूप से पाठक की संवेदना को स्पर्श कर के उससे आत्मीय संवाद भी कर सके.‘किनारे से दूर’ प्रतीकात्मक अर्थों में नर्मदा नदी के भेड़ाघाट में प्राकृतिक सौंदर्य के बीच नावकी एकयात्रा के बहाने उसमें सवारपिकनिक मनाते परिवारों के साथ-साथ, नाविक और रोजी-रोटी के लिएजान का खतरा उठाते गरीब बच्चों की मजबूरी, हास-परिहास के बीच ही सभी के जीवन की विडंम्बनाओं को व्यक्त करती अनूठी कहानी है. धूप और छाँव में रंग बदलते संगमरमर के सफेद पत्थरों की तरह जीवन के बदलते रंगों के साथ एक पूर्ण और अंतिम किनारे की खोज ही जैसे उनकी नियति है.

‘परिधि के पार’ नेहा और अभिनव के अनाम लेकिन खूबसूरत और निस्वार्थ रिश्ते की मार्मिक कहानी है। बेहतरीन पेंटिंग करने वाली कलाकार नेहा को और उसके चित्रों को अभिनव के रूप में कला का सच्चा प्रंशंसक और दोस्त मिलता है जो बीस साल के दौरान भी उपेक्षा के कारण उसे कभी नरेन यानि अपने पति में नहीं मिला. उसकी बेटी खुशी अभिनव की कविताओं के साथ नेहा के चित्रो की प्रदर्शनी का प्रस्ताव जब अपनी माँ के सामने रखती है तो दोनो का मजबूत रिश्ता और नेहा की सपनों की उड़ान जैसे पूरी होने लगती है. एक नयी दृष्टि के साथ कहानी बहुत खूबसूरती से पाठक से संवेदना के स्तर पर अपना रिश्ता कायम कर लेती है.अंतिम कहानी ‘प्रतीक्षा’में परिस्थितियों  की टूटन,  आर्थिक-पारिवारिक सम्बंधो की विवशताओं और कार्यालयों में ऑडिट और मुनाफे का हिसाब रखते- रखते आज की यांत्रिक और बेचैन ज़िंदगी में कुछ सुकून के क्षणोंऔर रिश्तों को संगीत और खतों में बचाये रखने का हेमंत का मार्मिक प्रयास पाठक को गहराई से प्रभावित करता है.

वास्तव में ‘ग़ौरतलब कहानियाँ’ अपने समय से संवाद करते हुए यथार्थ के धरातल पर उसका मूल्यांकन करती हैं और पाठकों की चेतना को भी झकझोरती हैं. इस संवेदनशून्य समय और व्यवस्था में आधुनिक मनुष्य की त्रासदी को अनेक परतों और आयामों में चित्रित करते हुए ये कहानियाँउस जटिल यथार्थ को दर्ज़ करती हैं जिसमें उदारीकरण के बाद जीवन के सभी मूल्य और मान्यतायें जैसे खंडित हो चुकी हैं और उसने सामाजिक संरचना के विघटन के साथमनुष्य केअस्तित्व पर सर्वाधिक गहरा आघात किया है. कार्पोरेट सेक्टर ने व्यावसायिक लाभ और बाज़ार के हितों को साधने के लिए कार्य संस्कृति में जिस निर्मम प्रतियोगिता और शोषण के नये तरीकों को अपनाया उसने बहुत आंतरिक स्तरों पर मनुष्य को आत्मकेंद्रित, अवसरवादी और विवेकशून्य भी किया. भूमंडलोत्तर समय के इन बदलावों, संकट और सरोकारों से गुजरते हुए कथाकार के अनुभवों की अनूगूंजें इन कहानियों मे स्पष्ट सुनाई देती है. सहज-स्वाभाविक भाषिक शिल्प में भी गहन संवेदना और समकालीन सरोकारों की प्रतिबद्धता रचनाकार की सजग दृष्टि का प्रमाण है क्योंकि अंतत: कहानी अपने समय के यथार्थ का ही सशक्त प्रतिबिम्ब होती है. 


ये १२ कहानियाँ अपने जीवंत और विश्वसनीय कथ्य एवं शिल्प के साथ समय के जिस बिंदु पर जीवन की कठोर सच्चाईयों को रेखांकित करती हैं और साथ ही सँवेदना के सूक्ष्म अन्तर्सूत्रों से बंधी हैं वह राकेश बिहारी जी की व्यापक, परिपक्व और अनुभव संपन्न रचना-दृष्टि का भी प्रमाण हैं. समकालीन कथा-परिदृश्य में यह कहानी- संग्रह एक विशिष्ट और सार्थक उपलब्धि कहा जा सकता है.


___


मीना बुद्धिराजा
एसोसिएट प्रोफेसर- हिंदी विभाग
अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
9873806557
Tags: राकेश बिहारी
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