‘वंचना’, भगवानदास मोरवाल (१९६०) का सातवां उपन्यास है, जिसे राजकमल ने प्रकाशित किया है. मोरवाल जी के उपन्यासों के अनुवाद मराठी,उर्दू और अंग्रेजी में हुए हैं, उन्हें दिल्ली हिंदी अकादेमी जैसी अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.
वंचना की समीक्षा कर रहें हैं युवा लेखक अंकित नरवाल
वंचना
सलीब पर टंगी ‘वंचनाओं’ का रोज़नामचा
अंकित नरवाल
“उपन्यास में जीवन के मूल संगीत को, उसकी छलना को, उसके अरूप, अनगढ़, मटमैलेपन को पकड़ने की कोशिश होती है और यही प्रयास उपन्यास को जीवंत बनाता है.”
हेनरी जेम्स
“इसमें संदेह नहीं है कि उपन्यास की रचना-शैली सजीव और प्रभावोत्पादक होनी चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शब्दों का गोरखधंधा रचकर पाठक को इस भ्रम में डाल दें कि इसमें जरूर कोई न कोई गूढ़ आशय है. जिस तरह से किसी आदमी का ठाट-बाट देखकर हम उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में गलत राय कायम कर लेते हैं, उसी तरह से उपन्यासों के शाब्दिक आडंबर देखकर भी हम खयाल करने लगते हैं कि कोई महत्व की बात छिपी हुई है. संभव है, ऐसे लेखक को थोड़ी देर के लिए यश मिल जाये, किन्तु जनता उन्हीं उपन्यासों को आदर का स्थान देती है, जिनकी विशेषता उनकी गूढ़ता नहीं, उनकी सरलता होती है.”
प्रेमचंद
निःसंदेह औपन्यासिक दुनिया अपने बिम्बों के लिए नहीं, बल्कि स्थितियों के बीच की प्रभावोत्पादक गुथियों के संयोजन पर टिकी होती है. समकालीन हिन्दी उपन्यासों को यदि आप उक्त दोनों तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखेंगे, तो उनकी मूल्यांकन प्रक्रिया को लेकर किए जाने वाले दावों के साथ-साथ कथा-समीक्षाओं के पीछे छिपी मंशाएँ भी सामने आने लगेंगी. दूसरी ओर, उपन्यास को पढ़ने की मंशा तक पर सवाल उठने लगेंगे. यदि यही सवाल आलोचकों पर उठाए जाएँ, तो वे इन पार्टनरस की पोलटिक्स तक को साफ कर सकते हैं. हालाँकि, कई बार ये सवाल सैद्धांतिक मान्यताओं को लेकर उठते हैं और कई बार कथ्य की नवीनता के बरक्स. इनमें से बहुतेरे सवाल इसलिए नज़रअंदाज किए जाते हैं, ताकि उपन्यासों की बाढ़ में अपने को बचाए रखा जा सके. किंतु, इस अतिशय बाढ़ में किनारे पर छिटक आए उपन्यास ही लंबे समय तक याद किए जाते हैं. यहाँ यह सवाल करना भी वाजिब है कि किसी भी उपन्यास में ऐसी क्या खासियत हो जो उसे याद रखने के लिए मजबूर कर दे? यहाँ इसका उत्तर देना जरूरी न होते हुए भी उन सवालों की श्रृंखला तो खड़ी की ही जा सकती है, जिन्हें औपन्यासिक दुनिया पर नक्तेनिगाह की तरह प्रयुक्त किया जा सके. हालाँकि, जहाँ उपन्यासों की सैद्धांतिक मान्यताएँ तक तय न हों, वहाँ ऐसे प्रश्न करना ख़तरे से खाली न होगा!
अक्सर देखा जाता है कि अधिकतर उपन्यास चरित्र-निर्माण की एक लंबी फहरिस्त में उलझकर रह जाते हैं, बल्कि होना यह चाहिए कि वहाँ चरित्रों की सृजना पर बल हो. जैसा कि प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में ‘होरी-धनिया’ के रूप में करके दिखाया है. दूसरी ओर, हम देखते हैं कि कथा में घटनाओं की तारत्मयता, अर्थ संयोजन और स्थितियों का एक निश्चित क्रम बनने के बाद भी वह प्रभाव छोड़ने में नाकाम रह जाती है. यहीं हमें थोड़ी देर ठहरकर सोचना पड़ता है कि कथा में उक्त संयोजन के बावजूद यदि प्रश्नों को उठाने, भावों को उद्वेलित करने और परिस्थितियों पर थोड़ी देर ठहरकर सोचने के लिए विवश करने का मादा नहीं है, तो वे कथाएँ निःसंदेह एक उबाऊ और बोझिल गद्य भर बनकर रह जाती हैं. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि एक अच्छी कथा वह होती है, जिसका अंत खुला होता है. अर्थात् जो साफ-साफ कुछ नहीं कहती, जिसकी अनिश्चयात्मकता बस सवाल खड़े करती है और हमें सवालों के घेरे में खड़े करके अपने अभिप्रेत को पूरा हुआ मानती है, क्योंकि सार्थक सवाल उठाना ही सही दिशा में सफर की शुरुआत होता है. दरअसल, हजारों उत्तर तलाशने से बेहतर होता है, नए की खोज को उठा एक प्रश्नाकुल कदम. बावजूद अपनी लड़खड़ाहट के, वह मंजिल की ओर जाने की मंशा तो रखता है.
वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘वंचना’ उक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में रखकर पढ़ा जा सकता है. यह उपन्यास दुनिया की आधी आबादी का वह सच सामने लाता है, जिसे लोकतंत्र की न्यायवादी प्रक्रिया के पीछे अँधेरे की तरह वंचित करके रखा गया है. पितृ सत्ता की चालाकियों ने बहुत व्यवस्थित ढंग से उसके शोषण की सारणियाँ तैयार की हैं. वर्तमान समाज के राजनीतिक एजेंडे में भले ही ‘बेटी पढ़ाने और उसे बचाने’ की मुहिम शामिल है, किंतु तमाम सत्ताएँ उसे बिस्तर पर खींच लेने को आमादा हैं. हाल ही में आई आदर्श बहु निर्माण की खबरें भले ही किसी दृश्यमान एजेंडे में शामिल न हों, किंतु वर्षों से समाज ऐसी ही स्त्री की कल्पना करता आया है. उसके लिए घर की चारदीवारी दरअसल उसे महफूज रखने की एक तयशुदा साजिश है. स्त्री के चारों ओर की गई ‘इस किलेबंदी’ में धर्म ने हमेशा ही एक मजबूत पहरेदार की भूमिका निभाई है. कभी भय का पहाड़ा पढ़ाकर, कभी परलोक की ज्यामिती सिखाकर, कभी पतिव्रता की त्यागमयी लोकोक्तियाँ रटवाकर. हालाँकि उसका मकसद हमेशा ही बराबरी के मोर्चे पर उसे फतह करना रहा है. मोरवाल ने अपने इस उपन्यास में लोकतंत्र के तीसरे स्तम्भ न्यायपालिका के सामने इंसाफ के लिए कुलबुलाती ऐसी स्त्रियों की कथा को चुना है, जिन्हें सामाजिक संरचना की जटिलताओं ने मौत के मुहाने पर ला खड़ा किया है और न्यायमूर्ति की आँखों से पर्दा हटाए नहीं हट रहा है.
इस उपन्यास का कथानक संपूर्ण भारतीय समाज की कथा बाँचता है. यहाँ जितनी मात्रा में हिन्दू जिन्दगियाँ हैं, उतनी ही मात्रा में मुस्लिम समाज भी मौजूद है. दोनों ही ओर अँधेरा स्त्री के हिस्से आता है. उपन्यास की शुरुआत सदानंद नामक युवक के वैवाहिक समारोह से होती है, जिसे किसी 15 वर्षीय लड़की के साथ ब्याहा गया है. मिलन की प्रथम रात्रि में ही यह लड़की दम तोड़ देती है. पुलिस की ईमानदार कार्यवाही के चलते सदानंद को 10 वर्ष की सजा सुनाई जाती है. यहीं से हिन्दू विवाह अधिनियम व बलात्कार अधिनियम को लेकर अनेक बहसें शुरु होती हैं. न्यायालयों की जटिल प्रणाली और बाल-विवाह की तमाम गुथियाँ भी आगे पन्ना-दर-पन्ना खुलती चलती हैं. दूसरी ओर, इसी परिवार के एक निकट संबंधी के लड़के बलविन्दर द्वारा किसी निम्न जाति की लड़की का बलात्कार कर दिया जाता और वह न्यायालय से बा-इज्जत बरी हो जाता है. ऐसा एक बार नहीं, बल्कि दो बार होता है, जिसके चलते सदानंद के माता-पिता को अपने लड़के के कार्य में कोई जुर्म दिखाई नहीं देता. फिर यहीं से शुरु होता है, स्त्री के लिए सलीब के निर्माण का काला अध्याय.
कथा में दूसरी ओर मुस्लिम परिवार की समीना के निकाह की कथा आकार लेती है. वह विवाह के तीन वर्षों तक अपने पति आसिफ के लौटने का इंतजार करती है, किंतु उसका पति नहीं लौटता. इंतजार से आजिज आकर उसके माता-पिता उसका दूसरा निकाह कर देते हैं. किंतु निकाह के कुछ समय बाद ही पहला शौहर हाजिर हो जाता है और समीना पर अपना हक जताता है. समीना के लिए शरीअत और न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार पहले पति के पास लौटने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता. इस पूरी घटना में उसका होने वाला दैहिक और मानसिक शोषण किसी खाते दर्ज नहीं होता. वह केवल एक गोस्त भर बनकर रह जाती है. जिसे हक दिखाकर कोई भी नोच सकता है.
इस पूरी कथा में विवाह-संस्था, सहवास-संबंध, प्रेम-संबंध और ऑनर किलिंग के सवाल भी रंगमंच पर लगातार अपनी आवाजाही बनाए रखते हैं. दिसंबर 2012 में हुए दिल्ली के चर्चित निर्भया-कांड के बाद से आकार लेकर यह कथा अपने वर्तमान तक के उन सभी प्रावधानों पर कड़ी नज़र रखती है, जिन्हें अदालतों द्वारा बार-बार बदला गया है. ये प्रावधान चाहें विवाह को लेकर तय की गई न्यूनतम उम्र से संबंधित हों या फिर अपनी मर्जी से बनाए गए शारीरिक संबंधों को लेकर हों. यहाँ लेखक ने हिन्दू धर्म-ग्रंथों से लेकर मुस्लिम धर्म-ग्रंथों तक को भी छाना है और वे पूरी ईमानदारी के साथ इन वंचनाओं की लड़ाई की अग्रिम पंक्ति में शामिल हो गए हैं. लेखक ने एक कानूनविद् से खुलकर कहलवाया है, ‘स्त्री से संबंधित हमारी इन सारी धाराओं और हिन्दू विवाह अधिनियम की पुनः समीक्षा होनी चाहिए.
हालाँकि 2013 में निर्भया केस के बाद 375 में संशोधन जरूर हुआ है लेकिन उसको सख्ती से अमल में लाने की जरूरत है. जिस दिन इस पर सख्ती से अमल होना शुरू हो जाएगा, इस देश में बाल-विवाह अपने आप कम हो जाएंगे. सरकार ने पोक्सो के तहत अठारह साल से कम उम्र की बच्चियों को नाबालिग़ की श्रेणी में ला तो दिया है, लेकिन उससे अठारह साल से कम उम्र की लड़कियों के विवाह होने कम तो नहीं हुए हैं न. यह कहना बहुत आसान है कि पन्द्रह से अठारह के बीच की कम उम्र की लड़कियों की भले ही शादी हो जाए मगर सहवास अठारह के बाद ही हो. अगर कोई इस अधिनियम का उल्लंघन करता है तो उसकी शिकायत की जा सकती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि शादी के बाद यह शिकायत करेगा कौन? वह नाबालिग़ लड़की जिसकी सहमति-असहमति और इच्छा-अनिच्छा का समाज में कोई अर्थ नहीं है? (पृष्ठ- 160)
(भगवानदास मोरवाल) |
यह वही लड़की है, जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के अनुसार आज भी अपने नाजायज संबंध बनाने वाले पति की शिकायत करने की इजाजत नहीं है.जिसके विषय में ईरानी विद्वान इब्बे माजा ने लिखा है, ‘यह दुनिया जिन्दगी गुजारने का सामान है और इसका बेहतरीन सामान है भली औरत.’(पृष्ठ- 137) यह ‘भली औरत’ ही सभी के लिए ‘आदर्श बहू’ है. इसी आदर्श बहू की कामना भारतीय विवाह संस्था में अधिकतर पुरुषों को रहती है. गाहे-ब-गाहे यदि किसी अपराजिता ने किसी निम्न जाति के लड़के से प्रेम-विवाह करने की गुस्ताखी कर दी, तो फिर यही समाज उसे घट श्राद्ध से लेकर मृत्यु-दंड देने का अधिकार सौंप देता है. पूरे प्रशासन के नाक नीचे वे कत्ल कर दी जाती हैं और कहीं जूँ तक नहीं रेंगती. इस औपन्यासिक कथा में जया के साथ भी यही होता है. ‘इसी के चलते अदालत का फैसला सिर्फ कागजों पर लिखी इबारत बनकर रह गया. अभी महीना भी खत्म नहीं हुआ था कि एक दिन रुखसत बी से ही पता चला कि जया के पेट में इस बार भी कोई दर्द हुआ. ऐसा दर्द जिसका किसी को पता नहीं चला. इस बार न उसे किसी डॉक्टर के पास ले जाया गया. न किसी हाकिम के पास. भला, जिसकी पहले से मौत तय हो उसे बार-बार उपचार के लिए किसी के पास ले जाने का क्या फायदा. जिसे पता चला भी, उसे बस इतना चला कि सुबह की नारंगी धूप में लिपटे, आसमानी धुएँ में श्मशान घाट से एक जानी-पहचानी चिरायंध साथ उठती लपटों के बीच कोई चीरनिद्रा में लीन है. सुबह-सुबह आसमान से उठती नारंगी धुएँ में लिपटी लपटों को देख किसी को हैरानी नहीं हुई. हैरानी इसलिए नहीं हुई क्योंकि सबको जैसे पहले से पता था कि ऐसी जयाओं का एक दिन यही अन्त होता है.’(पृष्ठ- 94)
दूसरी ओर, यदि बलविन्दर जैसे आदमखोरों को तीसरी बार बलात्कार व कत्ल के जुर्म में उम्र कैद हो भी जाती है, तो वे अपने पीछे जाने कितनी स्त्रियों की जिन्दगी को लील जाते हैं. हालाँकि, उसकी माँ चंचला को अंत तक उसके लिए एक आदर्श बहू की ही तलाश रहती है. यह एक ऐसी स्त्री है, जिसे भारतीय आपराधिक दंड संहिता की धारा 198 के अनुसार पति के व्यभिचार को मौन सहने की सज़ा दी गई है. वह अपने पति की संपत्ति है. उसे चाहे तो वह खुद इस्तेमाल करे, चाहे तो न करे और चाहे तो किसी को इस्तेमाल करने दे. पत्नी की इच्छा, मरज़ी या सहमति का न कोई अर्थ है, न अधिकार. पति की सहमति के बिना सम्बन्ध रखने का परिणाम होगा पुरुष के लिए जेल और पत्नी के लिए तलाक़. ऐसे पुरुषों के लिए औरत एक गर्म गोस्त और जिन्दा लहू के अतिरिक्त शेष कुछ नहीं होती. ऐसे पुरुषों के संबंध में अमेरिकी पत्रकार व स्त्रीवादी लेखक सुसन ब्राउमिलर की माने तो, ‘बलात्कार’ पुरुषों द्वारा औरतों को लगातार बलात्कार से भयभीत रखकर, समस्त स्त्री जाति पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखने का षड्यंत्र है.’
सामाजिक संरचना में पुरुषों का यह वर्चस्व इतना दबे-छिपे होता है कि बिना गहरी शिनाख्त के स्वयं औरतें ही औरतों के आड़े आने लगती हैं. दरअसल, एक उम्र के बाद पितृ सत्ता की लगाम इन स्त्रियों के ही हाथों में महफूज करके पुरुष पर्दे के पीछे चला जाता है. हालाँकि, रंगमंच पर दिखाई देने वाली आधिकारिक स्त्री केवल एक कठपुतली होती है, जिसकी डोर कहीं ऊँचे मर्द के ही हाथों में रहती है. मोरवाल का यह उपन्यास बहुत गहरे में इन सारे सवालों से टकराता है.
औपन्यासिक कथा के अंत में परौल पर आए सदानंद का घर से भागकर साधु मंडली में शामिल होना पाठकों को कुछ नए सवालों से टकराने का रास्ता दिखाता है. ये सवाल धर्म-गुरुओं को भले रास न आएँ, किंतु लगातार बढ़ती श्रद्धालुओं की भीड़ पर एक तर्क शील नज़र दौड़ाने के लिए मजबूर तो करती हैं. यह भीड़ कहाँ से खाद-पानी पाती है और लगातार तुंबे की तरह बढ़ती रहती है, यह जुर्मों में शामिल लोगों की बहुत महीन तलाश का दरवाजा भी खोलता है. उपन्यास का खुला अंत दरअसल गुनाहों के संसार में हमें अकेले छोड़ देता है. यहाँ से कहाँ जाया जाए इसकी तलाश भी हमें खुद करनी है. यह हमें अपने आप से पूछना है कि क्या आधी आबादी की बराबरी का प्रश्न मुल्तवी रखकर हम सुनहरे भविष्य को पा सकेंगे? क्या एक व्यक्ति की हवस दूसरे के अस्तित्व से भी बड़ी है? क्या गुलामी के इस इतिहास को आँकड़ो और अधिनियमों में उलझाकर लंबे समय तक स्त्री को गुमराह रखा जा सकेगा? आदि-आदि.
जहाँ तक औपन्यासिक नायक का सवाल है, वह यहाँ किसी चरित्र की बजाय इसके कथानक में मौजूद घटनाओं के ताने-बाने में दर्ज न्यायिक-प्रकिया की शिनाख्त को मानना चाहिए. उसे पहचाने के लिए यहाँ आए तमाम पात्र केवल औपचारिकता भर हैं. दरअसल, वास्तविक नायक वे वंचनाएँ हैं, जो न्याय के सलीब पर टंगी इंसाफ की राह ताकती दम तोड़ रही हैं. उनके धर्म, गौत्र व वर्ग भिन्न हो सकते हैं, किंतु उनके हिस्से का अँधेरा एक जैसा ही है.
यह उपन्यास उस अँधेरे की गिल्ट से लड़ने का रुख इख्तियार करता है. यही इसके सृजन का संघर्ष भी है. यहाँ आई धूसर जिन्दगियाँ अपने मटमैलेपन के बावजूद लंबे समय तक याद रखी जाने योग्य हैं.
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