नेपथ्य का नायक – तिलका मांझी
राकेश बिहारी
राकेश बिहारी
बाहरीशक्तियों द्वारा किसी समाज या समुदाय विशेष की पहचान और अस्मिता के अतिक्रमण तथा उसके विरोध की कड़ियों के दस्तावेजीकरण से इतिहास की शृंखला का एक बड़ा हिस्सा तैयार होता रहा है. इसके समानान्तर एक सच यह भी है कि घुसपैठ और विद्रोह की न जाने कितनी द्वन्द्वात्मक संघर्ष गाथाएँ इतिहास का हिस्सा बनने से रह जाती हैं या कि जानबूझ कर उन्हें इतिहास से बेदखल कर दिया जाता है. भारत के आदि-निवासियों की प्रमुख जनजाति पहाड़िया का स्वतन्त्रता-संघर्ष भी इतिहास में दर्ज होने से छूट गई या कि छोड दी गई उन्हीं अनाम गाथाओं में से एक है. ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित उपन्यासों की भूमिका इन अर्थों में दोहरी हो जाती है कि वे न सिर्फ इतिहास में दर्ज घटनाओं का एक रचनात्मक पुनर्पाठ प्रस्तुत करते हैं बल्कि इतिहास में अंकित होने से रह गई घटनाओं का कथात्मक दस्तावेजीकरण भी करते हैं. सुपरिचित कहानीकार-उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह का उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’, आदि विद्रोही बाबा तिलका माझी की समरगाथा के बहाने न सिर्फ पहाड़िया जनजाति के इतिहास से हमें रूबरू कराता है बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों और गल्प के सहमेल से तैयार कथाकृतियों के रचनात्मक औचित्य और उसकी उपादेयता को भी रेखांकित करता है.
गोकि ऐतिहासिक उपन्यासों का मूल आधार निश्चित रूप से शोध और श्रम से इकट्ठा की हुई तथ्यात्मक जानकारियाँ ही होती है, फिर भी उपन्यासों को मानक ऐतिहासिक ग्रन्थों की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए. कारण कि इतिहास को उपन्यास बनाने के क्रम में लेखक कई ऐसी युक्तियों का प्रयोग करता है जो सीधे-सीधे इतिहास के जीने से उतर कर नहीं आतीं. न सिर्फ कथारस के प्रवाह और प्रभाव को बचाए रखने के लिए बल्कि अतीत की गाथाओं के कुछ खोये हुये सूत्रों की तार्किकता को पुनर्सृजित करने के लिए भी ऐसा किया जाना बहुत जरूरी होता है. किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ते हुये इतिहास और उपन्यास के बीच की इस बारीक विभाजक रेखा का ध्यान रखा जाना बहुत जरूरी होता है. दरअसल तथ्य और गल्प के मिश्रण की सही आनुपातिकता ही इस तरह के उपन्यासों की सफलता या असफलता को तय करते हैं. उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ निश्चित तौर पर इस कसौटी पर खरा उतरता है. राकेश कुमार सिंह पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संघर्ष की यह गाथा कहते हुये इतिहास और रचना के फर्क को इस तरह पाट देते हैं कि पाठक को यह एहसास ही नहीं रहता कि कब ‘फैक्ट्स’ ‘फिक्सन‘ में बदल जाता है और कब ‘फिक्सन‘ ‘फैक्ट्स’ में. तथ्य और गल्प का इस तरह ‘दूध-पानी’ हो जाना ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है.
उपन्यास की शुरुआत राजमहल पहाड़ी पर बसे एक पहाड़िया-गांव का नया मांझी यानी मुखिया चुनने की घटना से होती है. दिलचस्प है कि किसी गाँव के वर्तमान मांझी का ज्येष्ठ पुत्र जो स्वाभाविक रूप से अगला मांझी नियुक्त होने की पात्रता रखता है को भी मांझी घोषित होने के पूर्व कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है. यदि वह इस परीक्षा स्वरूप दी गई जिम्मेवारियों का सकुशल निर्वहन नहीं कर पाया तो मांझी बनने की उसकी पात्रता स्वत: खत्म हो जाती है. उल्लेखनीय है कि यह परीक्षा नामलेहाजी नहीं होती बल्कि उम्मीदवार को सामाजिक कल्याण से जुड़े तीन महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करना होता है. कुशल नेतृत्व क्षमता तथा सामाजिक सरोकारों के प्रति संभावित माझी की प्रतिबद्धता को जाँचने की यह आदिवासी परंपरा न सिर्फ वंशवाद के भीतर ही वंशवाद का प्रतिपक्ष रचती है बल्कि वर्तमान लोकतान्त्रिक परम्पराओं को भी आईना दिखाने का काम करती है. यह और इस जैसी कई अन्य आदिवासी परम्पराओं, आदिवासी जीवन की दुरूहताओं, कठिनाईयों आदि के बीच उपन्यास का प्रतिपाद्य पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संग्राम और उसमें जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका माझी उर्फ तिलका बाबा की अग्रणी भूमिका के रूप में निखर कर आता है.
जबरा सच्चे अर्थों में अपने समाज का नेता है. अपने लोग और अपनी माटी की सुरक्षा के लिए उसका समर्पण देख ‘मानस’ में तुलसी द्वारा बताया गया एक आदर्श मुखिया का गुण सहज ही याद हो आता है – ‘मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान सह एक, पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक’. पहाड़ी एकता के लिए पल-पल कटिबद्ध और प्रयासरत जबरा के समानान्तर उपन्यास की मांस-मज्जा में ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी-विस्तारवादी नीतियों के क्रमिक क्रियान्वययन की बारीक कहानी भी घुली हुई है. साम-दाम-दंड-भेद की चरणबद्ध कूटनीतिक चाल को अंजाम देते कंपनी के सिपहसालारों यथा– जेम्स ब्राउन, क्लीवलैंड, मिटफोर्ड, ह्वीलर आदि की व्यूहरचना के विरुद्ध फागुन, कुंजरा, तेतर, चांदो, करमा, कार्तिक जैसे मन-प्राण से समर्पित जन-योद्धाओं के साथ तिलका मांझी की प्रति-व्यूहरचना के बीच अतिक्रमण के विरुद्ध विद्रोह की यह समरगाथा न सिर्फ इतिहास में दर्ज होने से रह गए नायकों को अंधेरे से बाहर निकालने का जतन करती है बल्कि सत्ता और शासन द्वारा इतिहास के मनोनुकूल लेखन की सच्चाई से भी पर्दा उठाती है.
यूं तो सामान्यतया पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संग्राम का यह इतिहास नायकों (पुरुषों) की वीरगाथाओं से ही विनिर्मित हुआ है, पर उपन्यास में आए दो स्त्री चरित्र – तिलका की पत्नी रूपनी और सुलतानाबाद की रानी सर्वेश्वरी अपनी न्यून लेकिन अति महत्वपूर्ण उपस्थिति के कारण न सिर्फ उपन्यास के घटित होने के दौरान बल्कि इसके समाप्त होने के बाद भी हमें देर तक याद रहते हैं. बल्कि सच तो यह है कि इन दोनों स्त्री पात्रों का होना इस उपन्यास के होने को भी निर्धारित करता है. रानी सर्वेश्वरी जहां कंपनी के साथ जारी संघर्ष में पहाड़ियों का गुप्त रूप से साथ देती हैं वहीं रूपनी न सिर्फ तिलका की अनुपस्थिति में उसका घर-बार संभालती है बल्कि प्यार,धिक्कार, और प्रोत्साहन के अवसरानुकूल भावावेग से तिलका के जबरा पहाड़िया से तिलका मांझी और तिलका माँझी से बाबा तिलका होने की प्रक्रिया में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है. इसके अतिरिक्त फागुन जो रिश्ते में उसका देवर लगता है, के साथ हास-परिहास में जिस तरह वह कई मम्म विंदुओं को छूती है, वह उल्लेखनीय है. संकेतो में कहे गए उसके संवादों का ही असर है कि फागुन की पत्नी गेंदी पूरे उपन्यास में सिरे से अनुपस्थित रहते हुये भी पाठक-मन में गहरे उपस्थित हो जाती है. इस तरह की कई कलात्मक उचाइयाँ उपन्यास में आरंभ से अंत तक मौजूद हैं.
उपन्यास में इन दोनों चरित्रों (रूपनीऔर सर्वेश्वरी) को और विस्तार मिल सकता था, लेकिन लगता है उपन्यासकार इतिहास की गहनतर होती घटनाओं में इस तरह धँसता चला गया है कि इन नायिकाओं के व्यक्तित्व की निर्मिति और उनमें निहित संभावित विस्तार की तरफ उसका अपेक्षित ध्यान जाने से रह गया है. रूपनी का चरित्र तो फिर भी अपनी सीमित उपस्थिती के बावजूद एक तार्किक अंत को प्राप्त होता है लेकिन रानी सर्वेश्वरी उपन्यास के कथा-यात्रा के बीच में ही कहीं गुम-सी हो गई है. रानी सर्वेश्वरी जो इस संघर्ष में पहाड़िया समुदाय खास कर तिलका के साथ थी, एक दिन कंपनी के सैनिकों द्वारा अपने ही किले में नज़रबंद कर दी जाती हैं. तिलका मांझी जो उन्हे भी कैद से मुक्त कराना चाहता था, अविराम संघर्ष की लगभग सभी शुरुआती लड़ाइयों के जीतने के बाद एक दिन अपने साथियों समेत शहीद हो जाता है. पर रानी सर्वेश्वरी का क्या हुआ, उपन्यास उसके संदर्भ में कुछ नहीं बताता. हो सकता है इस संदर्भ को लेकर पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध न हों. लेकिन, ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास है,इतिहास का मानक ग्रंथ नहीं. जाहिर है लेखक इतिहास की उन छूटी हुई कड़ियों को किसी दूसरी युक्ति के साथ इसे उपन्यास का हिस्सा बना सकता था, लेकिन यह अवसर उसके हाथ से फिसल गया है.
उपन्यास में इन दोनों चरित्रों (रूपनीऔर सर्वेश्वरी) को और विस्तार मिल सकता था, लेकिन लगता है उपन्यासकार इतिहास की गहनतर होती घटनाओं में इस तरह धँसता चला गया है कि इन नायिकाओं के व्यक्तित्व की निर्मिति और उनमें निहित संभावित विस्तार की तरफ उसका अपेक्षित ध्यान जाने से रह गया है. रूपनी का चरित्र तो फिर भी अपनी सीमित उपस्थिती के बावजूद एक तार्किक अंत को प्राप्त होता है लेकिन रानी सर्वेश्वरी उपन्यास के कथा-यात्रा के बीच में ही कहीं गुम-सी हो गई है. रानी सर्वेश्वरी जो इस संघर्ष में पहाड़िया समुदाय खास कर तिलका के साथ थी, एक दिन कंपनी के सैनिकों द्वारा अपने ही किले में नज़रबंद कर दी जाती हैं. तिलका मांझी जो उन्हे भी कैद से मुक्त कराना चाहता था, अविराम संघर्ष की लगभग सभी शुरुआती लड़ाइयों के जीतने के बाद एक दिन अपने साथियों समेत शहीद हो जाता है. पर रानी सर्वेश्वरी का क्या हुआ, उपन्यास उसके संदर्भ में कुछ नहीं बताता. हो सकता है इस संदर्भ को लेकर पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध न हों. लेकिन, ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास है,इतिहास का मानक ग्रंथ नहीं. जाहिर है लेखक इतिहास की उन छूटी हुई कड़ियों को किसी दूसरी युक्ति के साथ इसे उपन्यास का हिस्सा बना सकता था, लेकिन यह अवसर उसके हाथ से फिसल गया है.
एक महत्वपूर्ण पात्र को बीच में ही छोड़ दिये जाने की इस लेखकीय युक्ति या नियति को रेखांकित करते हुये उपन्यास के शुरुआती अध्याय के बाद सूत्रधार की भूमिका में आए प्रो. श्याम बिहारी सिंह और जेनी के होने की उपयोगिता पर बात करना भी जरूरी लगता है. रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रोफेसर श्यामबिहारी सिंह और जेनी का आगमन जब उपन्यास में होता है, पहाड़िया जनजाति की यह कथा एक परिपक्व आवेग के साथ सीधे इतिहास के हवाले से निकल चुकी होती है. एक खास अंतराल के बीच कई बार की आवाजाही के बाद ये पात्र भी उपन्यास के पटल से ओझल हो जाते हैं. ऐसे में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि अपनी रफ्तार पकड़ चुकी कथा यात्रा में लेखक ने अचानक से सूत्रधार को लाने की जरूरत क्यों महसूस की और फिर उसे बीच में ही क्यों छोड दिया? मुझे लगता है उपन्यास की दिक्कतें इन्हीं पात्रों के होने और न होने की संभावनाओं के बीच अवस्थित है. ये पात्र इतिहास और गल्प के बीच की सेतु का काम कर सकते थे, कुछ हद तक उपन्यासकार ने इन पात्रों की भूमिका को वहाँ तक ले जाने की कोशिश भी की है. लेकिन उपन्यास में उनका और इस्तेमाल हो सकता था, होना चाहिए था. जेनी उत्कंठाओं से भरी एक शोधार्थी है. प्रो श्यामबिहारी सिंह उसकी जिज्ञासाओं का समाधान करते चलते हैं. लेकिन मेरे मन में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि रानी सर्वेश्वरी की नियति को लेकर जो जिज्ञासाएँ एक पाठक के मन में जागती हैं, वह जेनी के मन में क्यों नहीं जागतीं? हाँ, प्रो श्याम बिहारी सिंह और जेनी की बातचीत के दौरान उपन्यास में पहले से घट चुकी घटनाओं का दुहराव भी खटकता है. इन पात्रों का किंचित और रचनात्मक उपयोग उपन्यास को बेहतर और पूर्ण बना सकता था. बावजूद इसके लगभग भुला दिये गए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाक्रम को अपेक्षित पठनीयता और कथात्मकता के साथ जिस तरह राकेश कुमार सिंह ने औपन्यासिक विस्तार दिया है, वह बहुत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. हिन्दी जगत को इस तरह के कई और उपन्यासों की जरूरत है.
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हुल पहाड़िया (उपन्यास) / लेखक – राकेश कुमार सिंह
प्रकाशक – सामयिक बुक्स, नई दिल्ली / पृष्ठ संख्या – 320 / मूल्य – 495 रुपये
राकेश बिहारी : संपर्क: एन एच 3/सी 76, एनटीपीसी,
पो.-विंध्यनगर,जिला – सिंगरौली 486885 (म. प्र.)
मो.– 09425823033 ईमेल – biharirakesh@rediffmail.com