‘जीवन एक उत्सव है’: महाश्वेता देवी
गरिमा श्रीवास्तव
साहित्यिक संस्कार विरासत में मिले थे-पिता मनीष घटकबांग्ला में लिखते थे और चाचा फ़िल्मकार ऋत्विक घटक थे, उनके मामासचिन चौधरी थे जो ‘इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के व्यवस्थापक– संपादक बने. लेकिन महाश्वेता को क्या पसंद था – भूखे नंगे बच्चों के बीच बैठना, उनसे बातें करना, उनकी भूखी आँखों के ज़रिये दुनिया-धंधा देखना, मैक्सिम गोर्की और तोल्स्तोय को पढ़ना. सन 43 में क्या तो उम्र रही होगी, बंगाल के अकाल के बाद राहत कार्य में जुटी संस्थाओं के साथ वे गाँवों में गयीं दिखाई दिया बंगाल का असल चेहरा- तो ये है मेरा देश भूखा-नंगा, विवश, लाचार, बीमार, भात के कण-कण को तरसता, कीचड़ से भरी गढ़ही से चुल्लू भरता, दवा नहीं इलाज नहीं, क्षुद्रता की सीमा को पार करती अनैतिकता के लिए विवश और दूसरी ओर राहत कार्यों के नाम पर लूट-खसोट, सरकार चुप. पशु और मनुष्य में कोई फर्क नहीं. कड़वा यथार्थ आँखों में चुभ गया, जलने ही तो लगीं आँखें -जिन आँखों को सत्रह वर्ष की रोमानी आँखें होना था उनमें भर गयीं अनंत बिजलियाँ, जिन आँखों को भविष्य के सुनहले सपनों की जागी नींद में खो जाना था- वे आँखें बंगाल के सुदूर गावों में अकाल की महामारी के बाद फैले अभेद्य सन्नाटों के चीत्कारों से विस्फारित थीं –‘एई कि आमार देश ?’.
1965 में पालामऊ में आदिवासियों का जीवन देखा -जो थे मूल निवासी उन्हीं के पिछड़े अति पिछड़े रहवास! जल नहीं, जमीन नहीं, जंगलों से भी दुरदुराये जाते-जिन्हें मनुष्य समझने के लिए कोई तैयार नहीं उन्हीं के आंसुओं का खारापन महाश्वेता के कंठ को अवरुद्ध कर गया. पश्चिम बंगाल की शबर जनजाति हो, बिहार हो या छत्तीसगढ़ कहाँ नहीं गईं?, कार्यकर्ता हो उठीं, मनुष्यता के पक्ष में खड़ीं महाश्वेता, भव्य कारों में चलतीं, रेशमी साड़ियों की सरसराहट संभालती, सर्वांग आभूषणों से लदी-फंदी,नुमाईशी कार्यकर्ताओं से बिलकुल अलग थीं -नितांत स्ट्रेट फॉरवर्ड, सभाओं में गोबर पुती जमीन पर फसक्कड़ा मारयालकड़ी के स्टूल या मूढ़े पर बैठ जातीं, पैर दुखते तो ऊपर करके बैठ जातीं, होठों में फंसी गणेश छाप बीड़ी-साधारण तांत की साड़ी,पैरों में चप्पल-यही थी धज उनकी, या यों कहें धज थी ही नहीं. जो हो वही रहो, जो सोचो वही करो दिखावे और आडम्बर से दूर. देश-दुनिया में जहां कहीं भी कोई शोषित -पीड़ित हो महाश्वेता उनके साथ थीं, जिसने भी ज़रूरत के समय उन्हें पुकारा उनके लिए वे उठ खड़ी हुईं. कितनी सभाएं कितनी समितियां -चाहे वह पश्चिम बंगाल की खेड़ीया शबर कल्याण समिति हो या देश में बंधुआ मजदूरों के हक़ का पहला संगठन, सिंगूर में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा हो या नंदीग्राम में निहत्थे लोगों की हत्या का मामला या नर्मदा बचाओ आन्दोलन में मेधा पाटेकर के साथ संघर्षरत लोगों का साथ देना हो -वे हर कहीं खड़ी थीं. ये महाश्वेता ही थीं जिन्होंने रिक्शा चलाकर जीवन यापन करने वाले मनोरंजन व्यापारी को लेखक बनने की प्रेरणा दी –‘बर्तिका’शीर्षक पत्रिका में उसकी कहानी छापी और एक दिन ऐसा भी आया कि मनोरंजन ब्यापारी को पश्चिमबंग बांग्ला अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया.
उनके व्यक्तित्व के कई आयाम थे ,उनको देखना- मिलना दो बार संभव हुआ.पहली बार तो तब जब वे शान्तिनिकेतन आश्रम की खाली पड़ी ज़मीन पर भूमाफ़िया द्वारा कंक्रीट के जंगल उगाये जाने के विरोध और वानप्रस्थी आश्रमिकों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करने कलकत्ता से तुरंत पहुंची थीं. देवेन्द्रनाथ ठाकुर की साधना स्थली कुछ ही समय के लिए सही भू-माफ़िया के जबड़े में जाने से बच गयी, ये बात और है कि ऊंची तनख्वाह और कारों के गिरते दामों ने आश्रम की शांति और पवित्रता को ट्रेफिक के शोर से हाल के वर्षों में भर दिया.इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाले वर्षों में प्रत्येक धनाढ्य बंगाली का एक हॉलिडे फ़्लैट शान्तिनिकेतन में रहनेवालों की बात जोहते सूख -मुरझा रहा होगा.
महाश्वेता दी को सब लोग एक सामाजिक कार्यकर्त्ता और लेखिका के रूप में जानते रहे, लेकिन बहुत कम ने जाना कि उनके भीतर गृहस्थ जीवन जीने की लालसा थी जो हमेशा अतृप्त रही.निज और पर का कुछ गोपन रख पाना उनके स्वभाव में ही नहीं था, न एक जैसा काम हमेशा कर पाना, उन्होंने कई नौकरियां बदलीं, कभी पत्रकारिता की तो अध्यापकी, पहली किताब ‘झांसीर रानी’ को मिलाकर सौ और बीस कहानी संग्रह, सामाजिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर ढेरों लेख, अखबारी लेखन. मीडिया ने उनको बहुत ज्यादा कवरेज दी लेकिन उनका आत्म बेचैन ही रहा -किसी खोज में निरंतर! चाहे उन्हें मैग्सेसे पुरस्कार से ही क्यों न नवाजा गया हो – राजनीतिक तौर पर वे हमेशा ऐसी जन क्रान्ति की पक्षधर रहीं जो व्यवस्था को आमूल -चूल बदलने के लिए सन्नद्ध है.
पुत्र नवारुण मेधावी कवि था पर हमेशा उनसे दूर ही रहा, और एक दिन ऐसा भी आया कि वह हमेशा के लिए सबसे दूर चला गया, जिसका अफ़सोस मां होने के नाते महाश्वेता दी को हमेशा रहा, लेकिन इसे भी उन्होंने चुनौती की तरह लिया. पी लिया अपने मन के दुःख का तप्त वाष्प.मन के अँधेरे कोनों में निज दुःख को जगह ही कहाँ देना सीखा था, इसलिए तो लिख पायीं ‘रुदाली’-स्त्री के निज और राजनीतिक सम्बन्धों पर लिखा उपन्यास अनूठा है जो भारतीय परिप्रेक्ष्य में ,राजस्थान के गाँवों में विधवा स्त्री की दशा का पता बताता है. रुदन ही जिसका रोजगार है वह है रुदाली -जो सामाजिक ,आर्थिक और धर्म के गंठजोड़ का क्रिटीक रचती है -ये स्त्री का रुदन है-जिसके पक्ष में कोई नहीं खड़ा – न समाज, न धर्म और न व्यवस्था-यह अरण्यरोदन है. एक वक्त ऐसा भी आता है जब उसके पास आंसू ही नहीं बचते, लेकिन उस से अपेक्षित है कि वह रोये, सामन्त के मरने पर, धनी और रसूख वाले व्यक्ति के मरने पर, जितना बेहतरीन रोएगी, मेहनताना उतना बेहतरीन मिलेगा. इसी तरह महाश्वेता की कहानी द्रौपदी जो सबाल्टर्न का एक नया चेहरा पाठक के सामने लाती है और पाठक पौराणिक चरित्रों को समकालीन सन्दर्भों में देखने लगता है. गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक से महाश्वेता देवी ने कहा था – ‘जीवन गणित नहीं है न ही राजनीति. मैं वर्तमान परिस्थितियों में बदलाव चाहती हूँ और दलबंदी की राजनीति में विश्वास नहीं करती’.
महाश्वेता जी 90 से अधिक की उम्र में गयीं. वयस जनित रोगों से लड़ना उनके शरीर के लिए कठिन और कठिनतर हो रहा था. देखा जाए तो ये जाने की ही उम्र थी पर उनका जाना उपेक्षित, विवश,अधिकारों की मांग भर करने पर मार खाते हजारों लाखों, भूमिहीन, आश्रयहीन लोगों को दिशाहारा कर गया है, जीवन का यथार्थ प्रामाणिक ढंग से व्यक्त करने वाली लेखनी थम गयी है, जो कहती थी कि ‘जीवन का हर दिन एक उत्सव है -जिसे पूरी तरह जीना चाहिए’.