(sculpture by great ketelaars) |
ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए यह
पितृ–वध
फ़्योडोरोविच करामाजोव मारे जा चुके हैं. पिता निर्दयी था. धन और स्त्री को लेकर बेटे पिता से अरसे से झगड़ते आए थे. पिता की हत्या करना चाहते थे, बड़े बेटे दिमित्री ने उन पर हमला भी किया था. लेकिन पिता के जाने के बाद बेटों के भीतर सहसा अपराध-बोध उमड़ आया है.
“मैं दोषी नहीं हूँ. मैं अपने पिता की हत्या का दोषी नहीं हूँ… मैं उन्हें मारना चाहता था. लेकिन मैं दोषी नहीं हूँ… मैं वाक़ई उनकी हत्या कर देना चाहता था… कई बार मैंने सोचा था… मैंने इस बारे में कभी अपनी भावनाओं को नहीं छुपाया था. पूरा शहर इस बारे में जानता था.”
“इन भयावह दो महीनों में जब भी तुम अकेले पड़े हो तुमने यह ख़ुद से कई बार कहा है. तुमने ख़ुद को दोषी ठहराया है, यह स्वीकार किया है कि तुमने ही हत्या की है, किसी और ने नहीं. लेकिन तुम हत्यारे नहीं हो. सुना तुमने? वह तुम नहीं हो. ईश्वर ने मुझे तुम्हें यह बताने केलिए भेजा है.”
“मेरे पिता की हत्या उसने (स्मेरद्याकोव) की थी. हत्या उसने की थी और मैंने उसे इसके लिए उकसाया था… कौन अपने पिता की मृत्यु की कामना नहीं करता?”
स्वतंत्र भारत की नींव राष्ट्र-पिता के वध से निर्मित होती है. भारतीय अवचेतन आज भी इस अपराध बोध की गिरफ्त में है. स्वातंत्रयोत्तर भारत की राजनीति कारतूसों से बिंधे इस शव के इर्द-गिर्द घूमती आयी है. सत्तर से अधिक वर्ष हुए लेकिन यह अपराजेय और असम्भव लाश अभी तक नहीं बुझी है, इस राष्ट्र के आकाश पर अपने डैने फैलाये पसरी है.
पश्चिमी सभ्यता की नींव भी उन दो पितृ-पुरुषों के शव से रची गयी है जो इस सभ्यता के दर्शन, धर्म, विचार और व्यवहार के आदि स्रोत हैं— सुकरात और ईसा मसीह. पश्चिम के अवचेतन में दफ़न एक स्याह तहख़ाने में इस पिता की लाश दो हज़ार वर्षों से रखी हुई है. लेकिन पश्चिम इस घाव को स्वीकारना नहीं चाहता. वह इससे संवाद करने से भी बचता रहा है. क्या पश्चिम द्वारा दुनिया भर में की गयी हिंसा की एक वजह इस पितृ वध से उपजा अपराध बोध है? क्या अन्य समुदायों और संस्कृतियों को ‘सैविज’ घोषित कर वह अपने नृशंस कृत्य, अपने ‘ओरिज़िनल सिन’ पर पर्दा डाल देना चाहता है? इस प्रश्न को किसी आगामी निबंध के लिए रखते हैं.
(दो)
यह निबंध उपरोक्त प्रस्तावनाओं से परे जा दो प्रस्तावना देना चाहता है. पहली, भारतीय संदर्भ में पितृ-हत्या को माँ के केंद्रीय आइने से देखने की आवश्यकता नहीं है. चूँकि माँ की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है इसे इडिपल हत्या कहने के बजाय, एक कृत्य जो माँ को बीच में रख पिता और पुत्र के बीच एक विशिष्ट यौनिक तनाव का संकेत देता है, पितृ-वध कहा जा सकता है. हत्या नहीं, वध. वध में वैधानिकता का भाव है. वध अमूमन ऐसे विराट व्यक्तित्व का होता है जिस पर प्रहार करते वक्त भी वधिक उसे नमन करना नहीं भूलता. वध मृतक की गरिमा में वृद्धि करता है, अक्सर अनुत्तरित प्रश्न पीछे छोड़ जाता है.
पांडव भीष्म के पास उनके “वध” की वजह जानने गए थे, गोड़से ने भी अपने कृत्य को “गांधी-वध” कहा था.
दूसरा, इस वध के अनेक रूप हो सकते हैं. यह सिर्फ़ इतिहास या पुराण के पन्नों में ही नहीं विचार में भी घटित होता है, अपने अविजित पिता को रास्ते से हटा देने की आकांक्षा में घटित होता है. वह क्षण जब पुत्र को एहसास हो जाता है कि भले ही पिता की मृत्यु के बाद उसके भीतर का पुरुष भी धीरे-धीरे मरना शुरू हो जायेगा, लेकिन पिता के रहते वह सिंहासन हासिल नहीं कर पायेगा.
यह महापुरुष भी अपने परवर्ती की इस आकांक्षा से अनजान नहीं है, शायद वह भी यही चाहता है, इसमें ही उसकी मुक्ति है, और पहले से कहीं विराट पुनर्जन्म है. संस्कृत का श्लोक है — सर्वतो जयमिच्छेत. पुत्राच्छिष्यात्पराजयम्.सभी लोगों को जीतना चाहता हूँ, लेकिन पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूँ.
इसलिए रामानुजन और मकरंद जब लिखते हैं कि चूँकि भीष्म की मृत्यु उनकी अनुमति से हुई थी इसलिए वह पितृ-वध नहीं है, वे व्यास की कथा के मर्म को शायद अनदेखा कर देते हैं.
महाभारत के युद्ध को नौ दिन हो चुके हैं. पांडव हताश हैं. उन्हें अपनी पराजय दिख रही है. नवीं रात पांडव शिविर में युधिष्ठिर कृष्ण से कहते हैं:
“विकट पराक्रमी महात्मा भीष्म हमारी सेना का उसी प्रकार विनाश कर रहे हैं जैसे हाथी सरकंडों के जंगलों को रौंद डालते हैं…अब मैं वन को चला जाऊँगा. मेरे लिए वन में जाना ही कल्याणकारी होगा. मेरी युद्ध में रुचि नहीं रही क्योंकि भीष्म हमारा विनाश कर रहे हैं. जैसे पतंगा अग्नि की ओर दौड़ा जाकर मृत्यु को प्राप्त करता है, हमने भी भीष्म पर आक्रमण कर मृत्यु का ही वरण किया है.”
अर्जुन का युद्ध से पहले मोहभंग हुआ था, युद्ध की निरर्थकता जान वह युद्धभूमि से हट जाना चाहते थे. युद्ध के बीच भीष्म के सामने अपनी पराजय अवश्यंभावी देख युधिष्ठिर रण छोड़ देना चाहते हैं. चारों भाईयों और कृष्ण से मंत्रणा के बाद उन्हें लगता है कि “देवव्रत भीष्म के पास जा उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछा जाए”. लेकिन पितामह के प्रति यह विचार आते ही युधिष्ठिर ग्लानि से भर उठते हैं:
“बाल्यावस्था में जब हम पितृहीन हो गए थे, उन्होंने ही हमारा पालन पोषण किया था. माधव, वे हमारे पिता के पिता और हमारे प्रिय हैं, फिर भी मैं उनका वध करना चाहता हूँ. क्षत्रिय की इस जीविका (धर्म) को धिक्कार है.”
“हे सर्वज्ञ, युद्ध में हमारी जीत कैसे हो?…आप स्वयं ही हमें अपने वध का उपाय बताइए.”
“यह तुम्हारे लिए पुण्य की बात है कि तुम्हें मेरे इस प्रभाव का ज्ञान हो गया है” कि मेरे रहते तुम कभी विजयी न हो सकोगे.
घृणा से भरे गोड़से भी गांधी के योगदान को स्वीकारते थे. अदालत में उन्होंने अपने बयान में कहा था कि ट्रिगर दबाने से पहले वह गांधी के समक्ष “सम्मान में झुक गए” थे. जैसा आशीष नंदी और उनसे पहले रॉबर्ट पायने ने लिखा है कि गांधी की हत्या किसी एक इंसान ने नहीं की थी, इस कृत्य के अनेक मूक सहभागी थे, गांधी ख़ुद उनमें से एक थे. कांग्रेस के अनेक नेता निश्चित ही गांधी की मृत्यु नहीं चाहते थे, लेकिन वे गांधी को नए भारत की राह में बाधा ज़रूर मानते थे. गांधी की भी भीष्म जैसी ही स्थिति थी. गांधी की राजनैतिक संतानों को बोध हो गया था कि गांधी के रहते वे भारत को हासिल नहीं कर पाएँगे. यह बोध ज़ाहिर है गांधी को दरकिनार करते जाने के अपराध बोध का जुड़वाँ था.
(तीन)
लेकिन उससे पहले दो कृतियों के जरिये देखते हैं कि यह भाव कितने रूप में और कितनी बारीकी से प्रकट हो सकता है. निर्मल वर्मा की लम्बी कहानी बीच बहस में और उपन्यास अंतिम अरण्य. एक कथा का नायक पिता को अस्पताल में मरते हुए देख रहा है, दूसरा पिता-तुल्य मेहरा साहब की अंतिम साँसों को सहेज रहा है. इन दोनों युवकों के भीतर पिता की मृत्यु एक कोरी घटना बतौर दर्ज नहीं हो रही, उनके अंदर इस मृत्यु की आकांक्षा भी बनी हुई है. दोनों पिता की मृत्यु के साक्षी होने उनके अंतिम समय पर आ गए हैं. लेकिन वे तटस्थ दर्शक नहीं हैं, इस मृत्यु में भागीदार हैं, जीवित पिता की कपाल क्रिया करते हैं, इस प्रक्रिया में खुद अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ते जाते हैं. पिता की सेज सजाते हैं, उनके शव का अपनी अस्थियों से श्रृंगार करते हैं.
(death-of-jesus) |
मेहरा साहब ने नायक को अपनी जीवनी सुनने और लिखने के लिए बुलाया है, लेकिन वह सिर्फ़ जीवनी नहीं लिख रहा, दरअसल उन्हें अपनी मृत्यु-कथा रचने में मदद कर रहा है. वह मेहरा साहब की ओर चलती आती मृत्यु को लिपिबद्ध कर रहा है, बग़ैर उन्हें बताए अपने रजिस्टर के पन्नों में उस मृत्यु को दर्ज कर रहा है.
दोनों ही युवकों को यह बोध है कि पिता की मृत्यु बग़ैर न पिता को मुक्ति मिलेगी न उन्हें. दोनों इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं जो ओर्हान पामुक ने अपने पिता की मृत्यु पर लिखा था: “एक आदमी की मौत अपने पिता की मृत्यु के साथ शुरू हो जाती है.”
(चार)
किसी लेखक के सामने यह प्रश्न शायद कहीं गहरा और तीखा होता है. अपने पितामह लेखक से मुक्ति कैसे पायी जाए? उसके वध का उपाय किससे पूछा जाए? किस तरह अपने स्वर की संप्रभुता हासिल की जाए?
“तुम उस बूढ़े का शोकगीत लिख रहे थे या उसके ज़रिए दरअसल तुम ख़ुद को ही सम्बोधित थे? क्या तुम ही तो वह बूढ़े नहीं थे जो इस युवक के भेष में अपना शोकगीत लिखने आ गए थे?”
यह भाव वह नहीं है जिसके बारे में एलियट ने लिखा है कि हरेक लेखक अपने पूर्वजों को रचता है, या जब काफ़्का को पढ़ते वक़्त बोर्हेस उनके तमाम पुरखों को चिन्हित कर लेते हैं, काफ़्का के शब्दों के आलोक में पूर्ववर्ती रचनाओं का पाठ एकदम बदल जाता है. यह भाव वह भी नहीं जिसे हैरल्ड ब्लूम ‘द ऐंज़ाइयटी अव इन्फ़्लूयन्स’ कहते हैं जो अपने पूर्वज के ‘ग़लत पाठ’ से जन्म लेता है, एक ऐसी प्रक्रिया जहाँ एक लेखक अपने अग्रज के शब्दों को संशोधित करने की आकांक्षा लिए उन्हें मरोड़ देता है, उनसे एक नया अर्थ हासिल कर लेता है.
(पांच)
एक सत्य लेकिन और भी है. इस प्रश्न के मायने पुरुष और स्त्री रचनाकार के लिए भिन्न हो सकते हैं. स्त्री का लेखकीय परंपरा के साथ शायद वह संबंध नहीं जो पुरुष का होता है. चूँकि मानव इतिहास के लम्बे अंतराल में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से पहले कुछ अपवादों के सिवाय लेखन पुरुष-कलम से ही हुआ है, जिन अर्थों में परम्परा को पुरुष देखता है वह स्त्री के लिए सम्भव नहीं है, उसका सरोकार भी नहीं है. स्त्री के पास शायद ऐसे बहुत अधिक पूर्वज नहीं है जिन्हें वह जिन्हें गुरु-स्थान पर अधिष्ठित कर सके.
पुरुष अपनी परम्परा को व्यास, वाल्मीकि, होमर और अरस्तू से लेकर बाणभट्ट, शेक्सपियर, कबीर और बंकिम चन्द्र में देख सकता है, लेकिन स्त्री शायद इनमें से अनेक के साथ कोई अपनापा नहीं जोड़ पाएगी. वह अरस्तू जो कथा में किरदार के चित्रण की चर्चा करते वक्त अपने ग्रंथ पोएटिक्स में घोषित कर देते हैं कि स्त्री “हीन प्राणी” है, उसके अंदर शौर्य का गुण नहीं है. वह होमर जिनके महाकाव्य ओडिसी में पश्चिमी साहित्य की शायद पहली ‘ऑनर किलिंग’ घटित होती है जब यूलिसीज़ अपनी पत्नी की बारह सहायिकाओं की हत्या करवा देता है क्योंकि उन्होंने उसकी अनुपस्थिति में अन्य पुरूषों को अपने साथ सम्बंध बनाने की अनुमति दे दी थी.
“उसका (स्त्री) अपने पुरुष पूर्वजों से संघर्ष सृष्टि के प्रति उनकी दृष्टि को लेकर नहीं, बल्कि ख़ुद उसके (स्त्री) प्रति उनकी दृष्टि पर है.”
“स्त्रियाँ अपनी माताओं के ज़रिए विचार करती हैं. महान पुरुष लेखकों के पास सहारे के लिए जाना व्यर्थ है.”
“हम बूढ़े लोगों को युवाओं से सिर्फ़ चापलूसी ही नहीं चाहिए, कहीं गहरे हमें उनके ख़ून की भी ज़रूरत होती है. एक बूढ़े को ढेर सारा ख़ून चाहिए.”
आशुतोष भारद्वाज