हिंदी के वरिष्ठ कथाकार बटरोही के ‘हम तीन थोकदार’ की नौवीं क़िस्त प्रसिद्ध लेखिका शिवानी और उनके कथा-संसार के इर्दगिर्द है.
हिंदी साहित्य को बड़े पाठक वर्ग से जोड़ने में शिवानी (१९२३-२००३) का अहम योगदान है. उनका साहित्य स्तरीय और लोकप्रिय दोनों था. शिष्ट हास्य और भाषा के आभिजात्य की वे अद्भुत कलाकार थीं. न जाने कितने लोगों ने उनके लिखे शब्दों को पढ़ते हुए साहित्य में प्रवेश किया.
हिंदी कथा-जगत में न उनकी अपेक्षित चर्चा होती है न योगदान को याद किया जाता है. यह आलेख इस कमी की कुछ पूर्ति करता है.
आलेख प्रस्तुत है.
हम तीन थोकदार (नौ)
शिवानी के साथ खलनायक-पिता का प्रस्थान
बटरोही
पिछली क़िस्त में शैलेश मटियानी की कहानी ‘माता’ की विस्तार से चर्चा हुई थी. अब तो यह परम्परा लगभग ख़त्म हो गई है, पचास साल पहले युवा लड़कियों का इस नरक में फसना आम बात थी. शेष समाज अलग-अलग कारणों से इसका आदर्शीकरण करता था; खास बात यह कि इस प्रथा को ख़त्म करने को लेकर स्थानीय लोगों के द्वारा भी कोई बड़ी पहल नहीं की गई.
शैलेश मटियानी की ‘माई’ पिछली सदी के पांचवे दशक में लिखी गयी थी. इस कहानी की विषयवस्तु की प्रासंगिकता ही है कि मटियानी ने इसे बार-बार ‘माता’ और दूसरे नामों से लिखा. इसके बावजूद उन्हें लगता रहा कि पहाड़ी औरत की इस विडंबना का मर्म पूरी तरह उजागर नहीं हो पाया. करीब दस साल बाद उत्तराखंड की पहली महिला कथाकार शिवानी ने इस विषय को अपनी पहली कहानी ‘लाटी’ (१९६२-४) में उठाया इसलिए यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि अपने समाज की ज्वलंत समस्या पर जब एक स्त्री रचनाकार की दृष्टि पड़ेगी तो उसके अंतर्विरोध स्पष्ट होंगे.
शिवानी तेज झोंके की तरह हिंदी कहानी के क्षेत्र में दाखिल हुईं और जब तक लोग उनके लेखन को लेकर कोई राय बनाते वो हिंदी पाठकों के विशाल वर्ग की ज़बान पर चढ़ चुकी थीं. ‘लाटी’ उस दौर की सबसे लोकप्रिय पत्रिका ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी और उस वक़्त तक हिंदी में लोकप्रिय बनाम साहित्यिक लेखन का विभाजन विधिवत शुरू नहीं हुआ था. देखा जाए तो इस तरह की खानेबाजी शिवानी की कहानियों के प्रकाशन के बाद ही शुरू हुई थी. उनकी कहानियों और उपन्यासों ने चुनिन्दा लेखन करने वाले गुरु-गंभीर समीक्षकों के सामने मूल्यांकन-मानदंडों का संकट पैदा कर दिया था. शायद यही कारण है कि शिवानी को लेकर आज तक हिंदी के लेखकों के बीच कोई राय नहीं बन पाई, न अच्छी, न बुरी. वो आज भी उसी तरह उपेक्षित हैं, जैसी १९६४ में थीं. आम पाठकों की वो तब भी सबसे प्रिय लेखिका थीं और लेखकों की दुनिया में आज की तरह आउटसाइडर.
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में अच्छे और ख़राब लेखन का विभाजन तब न रहा हो. हिंदी के पहले समर्थ किस्सागो-उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की तिलस्मी और गोपालराम गहमरी की जासूसी दुनिया को गंभीर लेखकों के बीच तब भी जगह नहीं मिली थी, लेकिन शिवानी के लेखन की चर्चा इस तरह के कटघरे में रखकर भी नहीं की गयी. सस्ती अभिरुचियों वाले पाठकों को तैयार माल परोसने वाले लेखकों की बगल में भी उन्हें नहीं रखा जा सकता था, शिवानी उनसे बहुत आगे और ऊपर थीं.
गुजरात के राजकोट में एक कुलीन पुरोहित परिवार में जन्मी इस पहाड़ी कन्या गौरा पन्त के साथ एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी हुई थी और उसे यह साहित्यकार-नाम हमारे देश के मिथक बन चुके रचनाकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दिया था. वो हिंदी की आधुनिक पंडित-परम्परा के सबसे प्रभावशाली अध्यापक-लेखक हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रिय शिष्या थीं. ये सारे प्रमाण हिंदी की एकांत-तिरस्कृत दुनिया के बीच जिन्दगी गुजारने वाले लेखकों के लिए सहज ईर्ष्या के विषय हो ही सकते थे. वास्तविकता तो यह है कि हिंदी के लोगों ने उनका स्वागत आकाश-पथ पर मुक्त विचरण करने वाली प्रेरणा के रूप में करना चाहिए था, जैसी कि हिंदी की स्त्री-अकाल समय-धारा में गिलगिली परम्परा पहले से मौजूद थी. मगर ऐसा नहीं हुआ… हो सकता है कि इसके पीछे यह कारण रहा हो कि उन्होंने अपना मुख्य-लेखन चालीस की उम्र के आस-पास शुरू किया था जहाँ किशोर भावुकता के लिए कोई जगह नहीं होती.
जरा हिंदी समाज के उस दौर में लेखिकाओं की स्थिति पर नजर डालें. हिंदी साहित्य के रंगमच पर उनसे उम्र में बड़ी सिर्फ दो लेखिकाएं थीं – सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा. दोनों को उनके पाठक निजी अनुभूतियों के चितेरे के रूप में जानते थे. (महादेवी का परवर्ती गद्य लेखन जरूर अपवाद है; सुभद्राजी के सामाजिक सरोकार लेखिका की अपेक्षा एक्टिविस्ट के रूप में अधिक मुखर हुए.) यह वो दौर था जब हिंदी समाज अंग्रेजों की भाषा और वैचारिकता की कॉलोनी बन चुका था; उसका वैचारिक पक्ष अंग्रेजी भाषी-पंडितों की झोली में शरण ले चुका था और हिंदी लेखन के लिए स्त्री-शिक्षा का एकांत कोना सुरक्षित किया जा चुका था. लम्बे मानसिक ऊहापोह के बाद औरत अपनी वैचारिक क्षमता का लोहा तो मनवा चुकी थी, मगर हिंदी लेखन में (हिंदी समाज में भी) उसे अपना हिस्सा अब भी नहीं दिया गया. इसी अंधड़ में हिंदी के लेखकों को यह पता भी नहीं चल पाया कि लेखन की दुनिया में शिवानी का प्रवेश कब हुआ और कब वो अस्त हो गयीं. इससे यह बात तो साफ हो गयी कि हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य आज भी अपनी मानसिकता में बहुत नहीं बदला है. अधिकांश अपने लोगों के बीच ही सिमटा हुआ.
१९२३ में जन्मीं शिवानी का लेखन की दुनिया में विधिवत प्रवेश बहुत बाद में, चालीस की उम्र के आस-पास हुआ जब यौवन की दहलीज वाली किशोर भावनाएं पीछे छूट चुकी होती हैं. मगर जिन्दगी के किशोर सपने उनके पास नहीं थे, यह कहना गलत होगा क्योंकि अपने समाज के बीच महसूस होने वाले अंतर्विरोधों का दर्द उनकी रचनाओं में साफ दिखाई देता है. बंगाल के साहित्य-परिवेश से अंकुरित हुई शिवानी रूमानी भावुकता से मुक्त तो नहीं हो सकती थीं; शायद मुक्त हैं भी नहीं, लेकिन उनकी यह मुक्ति-प्रक्रिया बाकी लेखकों से भिन्न है. जिस समाज में उनकी पैतृक जड़ें थीं, उनके संस्कार उस समाज में नहीं विकसित हुए हालाँकि उनका लेखन उसी धरती से उपजा है. स्त्री होने के नाते उनके सामने इसीलिए अनेक तरह की चुनौतियाँ थीं. शायद यही कारण है कि उनका लेखन दूसरी महिला लेखिकाओं की तरह उनसे बचकर किनारा करने का नहीं था, न उससे लड़ने-भिड़ने का. महादेवी की तरह वो न तो अपने पाठकों को शास्त्र और आध्यात्म की भारी-भरकम शब्दावली की सैर कराती हैं और न सुभद्राजी की तरह सीधे समाज से टकरातीं. पुरुष किस्सागो की अपेक्षा कहीं अधिक मुखरता के साथ वह किस्सा गढ़ती हैं और बिना अभद्र-अश्लील हुए पाठकों से अपना लोहा मनवाती हैं. तो भी, यह बात समझ में नहीं आती कि उन्हें लेकर हिंदी के लेखकों में उपेक्षा का भाव क्यों दिखाई देता है. क्या कारण हो सकता है इसका?
(शिवानी : चित्र के लिए आभार -अमिताभ पाण्डेय) |
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थोकदारी समाज की कहानी के साथ शिवानी का उल्लेख पाठकों को अटपटा लग सकता है, मगर इससे पहले कि मैं आख्यान को आगे बढ़ाऊं, अपना पक्ष प्रस्तुत कर देना चाहता हूँ. थोकदारी समाज का हिस्सा न होते हुए भी शिवानी के पात्रों का बड़ा हिस्सा इसी समाज के बीच से हैं. यानी कठिन पहाड़ी ढलानों में खेती-बाड़ी के द्वारा गुजर-बसर करने वाला स्त्री समाज. कथित-आधुनिकता (अंग्रेजियत) की लहर के प्रवेश से पूर्व गाँवों-कस्बों की सीमित दुनिया में एक-दूसरे पर निर्भर रह कर सुख-दुःख बाँटने वाला. यही कारण है कि उनके कथा-चरित्रों में जो अंतर्विरोध दिखाई देते हैं वे उसी टकराहट में से जन्म लेते हैं जो इस दौर में अंग्रेजों की कॉलोनी बन चुके पढ़े-लिखे पहाड़ी समाज और गाँवों से पढ़ने के लिए सीधे शहर आये थोकदारों के बच्चों की भावनात्मक टकराहट में से जन्म लेते हैं. शायद यह दो भिन्न संस्कारों के टकराहट की बानगी थी जो उनके पुरखों के खून में मौजूद तो थी लेकिन वो लोग अपनी नयी शिक्षा-दीक्षा से इतने बदल चुके थे कि मूल संस्कार को महसूस कर पाना उनके लिए कठिन था. शायद यही कारण था कि पहाड़ी ग्रामांचलों से उभरे शिवानी की तरह के उनसे पूर्व के रचनाकारों ने इस द्वंद्व को उजागर करने का जोखिम नहीं उठाया. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि थोकदारी समाज से इतर जो भी लेखक सामने आये, शैलेश मटियानी को छोड़कर, उनकी वरीयता समाज नहीं भाषा, साहित्य और विधागत ढांचे से जुड़े अपने ज्ञान से पाठकों को चमत्कृत करना था.
लगभग सामान पृष्ठभूमि से उभरे मनोहरश्याम जोशी ने शिवानी की तरह यह जोखिम उठाया. फर्क यह है कि मनोहरश्याम ने अपनी जड़ों का पुनर्सृजन किया, काफी हद तक उन्हें अपने रचनात्मक जीवन का हिस्सा भी बनाया, मगर स्त्री के लिए शायद यह प्रत्यावर्तन इतना सहज नहीं होता. इसीलिए अपने कथा-चरित्रों की तरह वो अनेक बार इस तरह के द्वंद्व से घिरी दिखाई देती हैं. यह द्वंद्व परम्परा की मर्यादा में जकड़ी एक स्वतंत्र स्त्री के अधिकारों की चेतना और जिम्मेदार माँ के व्यक्तित्व में से जन्मा संसार था; पुराने समाज से मुक्ति और नए समाज के वरण का अहसास था… बहुत स्पष्ट रूप में, अकेले निर्णय लेने की चेतना और विवेक से पैदा हुआ रचना-संसार, जिसका अधिकार उसे हाल ही में अपने बूते प्राप्त हुआ है.
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इन अनसुलझे सवालों से जूझने के लिए हमें करीब साठ साल पहले के उस परिवेश के बीच लौटना होगा जब उन्होंने शैलेश मटियानी की भगवती और पारबती माई की प्रतिरूप वैष्णवी बन्नो ‘लाटी’ का चरित्र खड़ा किया.
‘लाटी’ एक पहाड़ी फौजी अफसर की मामूली पढ़ी-लिखी सुन्दर पत्नी बानो की कहानी है जो शादी के कुछ समय बाद ही क्षय रोग से ग्रस्त होकर सेनिटोरियम में इलाज करा रही है. पिथौरागढ़ के गाँव-देहात में पली-बढ़ी बानो शहरी जीवन के द्वन्द-फंदों से बेखबर भावुक लड़की है जो पति के प्रति पूरी तरह समर्पित है. फौजी कप्तान जोशी भी उसे खूब चाहता है मगर अनेक विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपस्थिति के बावजूद वह स्वस्थ नहीं हो पाती. क्षय रोग उन दिनों असाध्य माना जाता था, इसलिए मरीज को मृत्यु के निकट पाकर उसे घर भेज दिया जाता था. बानो को भी घर भेजने का निर्णय लिया गया, लेकिन उसका पति भवाली में एक प्राइवेट कमरा लेकर उसका उपचार करने का निर्णय लेता है. कुछ ही दिनों बाद कप्तान को युद्ध-क्षेत्र में जाना पड़ता है और इधर बानो नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है. एक बीमार और अनपढ़ लड़की से मानो विशिष्टता के दर्प में फूले जोशी परिवार को मुक्ति मिली; इस बार पूरी सावधानी बरतकर माँ-बाप उसके लिए सर्वगुण-संपन्न लड़की खोजते हैं जो दो होनहार बेटों तथा एक सुन्दर बेटी को जन्म देकर खुशहाल कुलीन परिवार की आधारशिला रखती है. फिर एक दिन अचानक कप्तान को बदले हुए रूप में बानो मिलती है, मगर वह उसे पहचानने से इनकार कर देता है.
पहले पढ़ें कहानी का एक अंश:
‘लाटी’
शिवानी
‘
खूब गरम दो गिलास चाय लाओ पधान!’ मेजर ने पहाड़ी में कहा और दुकानदार का मुँह खुला ही रह गया. ऐसे अंग्रेजी में बोलने वाला अनोखा जोड़ा पहाड़ी कैसे हो गया, वह सोचने लगा.
वह चाय बना ही रहा था कि अलख-अलख करते वैष्णवियों के दल ने भीतर घुसकर दुकान घेर ली. ‘ओ हो गुरू, भल छा, भल छा!’ कहकर हेड वैष्णवी ने बड़े प्रभुत्वपूर्ण स्वर में सोलह गिलास चाय का ऑर्डर दे दिया. हेड वैष्णवी बड़ी ही मुखर और मर्दानी थी, इसी से शायद मर्दाने स्वर में बोल भी रही थी, ‘सोचा, बामण ज्यू की ही दुकान की चाय छोरियों को पिलाऊंगी. आज एकादशी है.’
‘क्यों नहीं, क्यों नहीं!’ दुकानदार बोला. ‘अरे, लाटी भी आई है?’
‘अरे, कहाँ जाएगी अभागी’, वैष्णवी ने कहा. प्रभा और मेजर की दृष्टि एक साथ ही लाटी पर पड़ी.
कुत्सित बूढ़ी अधेड़ वैष्णवियों के बीच देवांगना-सी सुंदरी लाटी अपनी दाड़िम-सी दंतपंक्ति दिखाकर हँस दी. मेजर का शरीर सुन्न पड़ गया. स्वस्थ होकर जैसे साक्षात् बानो ही बैठी थी. गालों पर स्वास्थ्य की लालिमा थी. कान तक फैली आँखों में वही तरल स्निग्धता थी और गूंगी जिह्वा का गूंगापन चेहरे पर फैलकर उसे और भी भोला बना रहा था.
‘हाय, क्या यह गूंगी है? माय गॉड, व्हाट ब्यूटी!’ प्रभा बोली.
‘हाँ सरकार, यह लाटी है’, दुकानदार ने कहा और मेजर के दिल पर आ गिरी भारी पत्थर की चट्टान उठ गई.
‘क्या नाम है जी इसका?’ प्रभा मुग्ध होकर लाटी को ही देख रही थी.
‘नाम जो होगा, वह तो बह गया मीम शाब, अब तो लाटी ही इसका नाम है.’ हेड वैष्णवी ने कहा, ‘हमारे गुरू महराज को इसकी देह नदी में तैरती मिली. जीभड़ी इसकी कटकर कहीं गिर गई थी. राम जाने कौन था वह. गले में चरयो (मंगलसूत्र) था, ब्याह हो गया होगा. फिर हमारा गुरू महराज इसको गुरू मंतर दिया. भयंकर ‘छे रोग’ था. एक-एक सेर खून उगलता था. पर गुरू का शरण में आया तो सब रोग-सोग ठीक हो गया इसका. लाटी, जीभ दिखा!’
घूं-घूं कर लाटी ने भुवन मोहिनी हंसी हँस दी. जीभ नहीं दिखाई.
‘कुछ नहीं समझती साली. बस खाती है ढाई सेर, सब भूल गया, हमारा ऑर्डर भी नहीं मानती. असंतुष्ट स्वर में मर्दानी वैष्णवी बोली.
‘ओह माइ गॉड! अपने आदमी को भी भूल गयी क्या?’ प्रभा बोली.
‘जो था, सो था. इसको कुछ याद नहीं. खाली फिक-फिक कर हंसती है, हरामी. अब परभू इसका मालिक और परभू इसका सहारा है. हाँ गुरू, कितना पैसा हुआ?’
हेड वैष्णवी ने पैसे चुकाए और उसका दल अलख जगाता उठ खड़ा हुआ. लाटी बैठी ही रही. मेजर एकटक उसे देख रहा था. यह वही बानो थी जिसे डॉक्टर दलाल और कक्कड़ जैसे
\’प्रसिद्ध विशेषज्ञों की मृत्युंजय औषधियां भी स्वस्थ नहीं कर सकी थीं.
‘उठ साली लाटी,’ हेड वैष्णवी ने हलकी-सी ठोकर से लाटी को उठाया. एक बार फिर अपनी मधुर हँसी से मेजर का हृदय बींधकर लाटी उठी और दल के पीछे-पीछे चल दी. काश, उसके भोले चेहरे से गाल सटाकर मेजर कह सकता, ‘मेरी बानो, बन्नी, बन्नू!’ शायद उसकी गूंगी जबान के नीचे दबी उसकी गूंगी पिछली जिन्दगी बोल उठती.
पर मेजर जिन्दगी की दौड़ में बहुत आगे निकल आया था, पीछे लौटकर बिछुड़े को लाना सबसे बड़ी मूर्खता होती. दो जवान बेटे और बेटी, राष्ट्रपति के सह्भोजों में चमकती उसकी शानदार दूसरी बीवी, गरीब, गूंगी लाटी का आना कैसे सह सकते?’
‘उठो डार्लिंग, लंच गरमपानी में करेंगे.’ प्रभा ने कहा और मेजर उठ खड़ा हुआ. कुछ ही पलों में वह बूढ़ा और खोखला हो गया था.
बानो मर गई थी. अब तो वह लाटी थी. परभू अब उसका मालिक और परभू ही उसका सहारा था.
शिवानी की प्रत्येक कहानी और उपन्यास में स्त्री के दो रूप दिखाई देते हैं: उसका ‘थोकदार’ (उपेक्षित, ग्रामीण) रूप और दूसरा ‘आधुनिक’ (चमकदार, शहरी). इन दोनों में वो हमेशा ‘थोकदार’-स्त्री का ही पक्ष लेती हैं. उनकी अधिकांश रचनाओं में नायक की एक से अधिक पत्नियाँ हैं; पहली बार पढ़ते हुए ऐसा लगता है, मानो वह पहली उपेक्षित स्त्री का उपहास कर रही हैं, मगर अंतत लेखिका की सारी संवेदना उसी के पक्ष में खड़ी हो जाती है. ‘लाटी’ की नायिका यह पहली पत्नी ही है जो पिथौरागढ़ के ग्रामांचल से लाई गयी ठसकदार फौजी अफसर की हाईस्कूल पास बीवी है, जिसको ठीक से बोलना भी नहीं आता. करुणा और संवेदना से लबालब इस स्त्री को त्यागने के बाद उसे दुबारा देखने पर उसके पति के मन में उसे स्वीकार करने या उसके अतीत को जानने की जरा भी उत्सुकता नहीं जागती. इसीलिए कहानी के आखिरी हिस्से में लेखिका से नहीं रहा जाता और वह अपने बौद्धिकता के लबादे को फैंक कर मानो उसके मुँह पर थूक कर अपनी पक्षधरता सिद्ध करती है: “कुछ ही पलों में वह बूढ़ा और खोखला हो गया था.” यह अनायास नहीं है कि शिवानी की प्रायः सभी कहानियों-उपन्यासों के पिता अंततः इसी तरह खलनायक का रूप धारण कर लेते हैं. और यह किसी साजिश के तहत नहीं, आजादी के बाद के दौर में उभरी शिक्षित-कर्मठ स्त्री के पत्नी बनने के बाद सामने आई नयी पारिवारिक संरचना के कारण यह अनायास संभव हो सका है. पिता यहाँ एक परिवार का आर्थिक भरण-पोषण करता हुआ मुखिया ही नहीं, पढ़ी-लिखी विचारशील व्यक्तित्व-संपन्न जीवन संगिनी है. उसे परिवार के सचेत आधे हिस्से की अपेक्षा है. इसके लिए वह दूसरे नारीवादी बौद्धिकों की तरह बड़बोला संघर्ष नहीं, परिवार की मर्यादा के भीतर अपना हक़ खुद ही हथियाती है; बिना ‘लाउड’ हुए.
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शिवानी के इस ‘पिता’ को उस दौर के ‘पिता’-चरित्रों की सापेक्षिकता में देखेंगे तो साफ दिखाई देगा कि इस चरित्र की नींव सबसे पहले शिवानी ने ही रखी. हिंदी लेखन का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वह अपने अस्तित्व के लिए सत्ता-केन्द्रों का मुहताज रहा है. ये सत्ता-केंद्र आर्थिक तथा बौद्धिक दृष्टि से संपन्न पढ़े-लिखे लोगों के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे टापुओं के रूप में निर्मित होते रहे हैं जिनका लोक जीवन के साथ कोई लेना-देना नहीं रहा. हिंदी समाज का साठ का दशक गाँवों से शहरों की ओर पलायन का एकदम नया रूप था. आजादी से पहले भी पहाड़ी गाँवों में रहने वाला इक्का-दुक्का युवा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहरों-महानगरों में आता था, मगर उनमें गाँव का वास्तविक ‘थोकदार’ नहीं होता था. बहुसंख्यक थोकदारी समाज इसमें से किसी कोटि में नहीं आता था इसलिए आजादी से पहले का पहाड़ी समाज लगभग उच्च शिक्षा से वंचित रहा है और अपने में सिमटा हुआ.
१९६० के आसपास वह पीढ़ी, जो आजादी के आसपास पैदा हुई थी, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहरों की ओर पलायन करने लगी. जो अधिकार अब तक उच्च जाति के लोगों के लिए सुरक्षित था, उसकी गांठ ढीली हुई और वर्षों से स्वनिर्मित बंधनों को खोलकर चौतरफा आजादी के बीच साँस लेता हुआ थोकदारी समाज सामने आया और पहले से मौजूद जाति-धर्म के विशेषाधिकार से लैस गैर-थोकदारी समाज के सामने चुनौती बनकर उभरा.
जिन दिनों इस पीढ़ी ने शहरों में प्रवेश किया, वहां कथित विशेषाधिकार प्राप्त समाज में से कुछ लोगों की ‘पिता पीढ़ी’ वहां पहले से मौजूद थी. उनमें ज्यादातर लोगों की पिताओं की ही नहीं, माँओं की भी पढ़ी-लिखी पीढ़ी मौजूद थी. यह पीढ़ी मैदानों में रहने वाले पढ़े-लिखे युवाओं की तरह बौद्धिक दृष्टि से संपन्न थी, जाहिर है, उनके बच्चे भी आगे बढ़े हुए थे. शिवानी का परिवार भी ऐसा ही परिवार था. दुर्भाग्य से घर से बाहर निकले ऐसे परिवारों में से बहुत कम लोगों में अपनी जड़ों के साथ जुड़ने का वास्तविक संकल्प दिखाई देता है. बहुत कम लोगों ने पीछे लौटकर देखा. साठ के दशक में जब शहर में रह रही पहाड़ की युवा पीढ़ी और गाँवों से आई ‘थोकदारी’ पीढ़ी का टकराव हुआ, पहाड़ का नया सांस्कृतिक चरित्र उभरा. रोचक बात यह है कि इसने पुरानी पीढ़ी के दाम्पत्य जीवन को ही नहीं, नयी पीढ़ी के दाम्पत्य सरोकारों की भी नयी आधारशिला रखी. हालाँकि आज सब कुछ नए रूप में ढल चुका है, लेकिन साठ के दशक के पीढ़ी-बोध के माध्यम से मूल्यों के संक्रमण और परिवर्तन को आसानी से चीन्हा जा सकता है.
‘पिता पीढ़ी’ का मूल्यबोध इसी परिवर्तन में से उत्पन्न हुआ था. यह मात्र संयोग नहीं है कि हिंदी कथा-लेखन में ‘पिता’ के इस नए चरित्र का लेखन भी इन्हीं दिनों सामने आया था. ज्ञानरंजन की सर्वाधिक चर्चित कहानी ‘पिता’ का प्रकाशन इसी दशक में हुआ था, और उस पहली कहानी ‘फैंस के इधर-उधर’ का भी, जिसके बारे में हिंदी के अधिकांश आलोचकों का मानना है कि ‘पिता’ का जन्म इसी कहानी का कलात्मक विस्तार है. पिता का यह नया संस्करण अब नायक नहीं, खलनायक बन चुका था. इस रूपांतरण को लेकर अनेक कहानियां लिखी गयीं; सिर्फ कहानियां और उपन्यास ही नहीं, नयी लहर की फिल्मों में भी इस चरित्र के विभिन्न आयाम सामने आये. कला के क्षेत्र में इसने नयी बहस को जन्म दिया और भारतीय परिवारों का चौंकाने वाला पक्ष उदघाटित किया. हिंदी के अनेक चर्चित कथाकारों ने इस विषय पर यादगार कहानियां लिखीं; मोहन राकेश, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती आदि की दर्जनों चर्चित कहानियों की श्रृंखला तो इस क्रम में हैं ही, तीन रचनाएँ इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय हैं, भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत, पंकज बिष्ट का उपन्यास ‘उस चिड़िया का नाम’ और चित्रकार राम कुमार की कहानी ‘दीमक’. दरअसल, इस नयी ‘पिता ग्रंथि’ के लिए रामकुमार का शीर्षक ‘दीमक’ सबसे उपयुक्त है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह ग्रंथि युवाओं की क्षमताओं को दीमक की तरह चाटकर किस तरह ख़त्म कर रही थी, इससे अच्छा उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता.
शिवानी की कहानियों का चरित्र-गठन हिंदी की मुख्यधारा की चर्चित रचनाओं की तरह वैचारिक स्तर पर जूझने वाला अवसादग्रस्त नहीं है, सीधे समस्या से संवाद करता है और दोषी को तत्काल दण्डित करने की वकालत करता है. स्त्री वहां प्रेमिका नहीं, विशुद्ध मानवी है. मजेदार बात यह है कि शिवानी को छोड़कर अधिकांश दूसरी महिला कथाकारों में भी स्त्री अकेली, अवसादग्रस्त और कमनीय ही है. उनका विद्रोह दुखी होकर खुद को ही दंड देने के सामान अनुभव होता है. भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ में पत्नी हर कदम पर अपने खलनायक पति का मूक समर्थन करती है, कृष्णा सोबती की कहानी ‘बादलों के घेरे’ में, जिसका परिवेश ‘लाटी’ वाला ही है, अवसाद की कहानी बनकर रह जाती है. मोहन राकेश और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिक हिंदी के मानक-कथाकार भी स्त्री को उसका एकांत सौंपते हुए उसका आदर्शीकरण करते हैं. कहा जा सकता है कि ये कथाकार शहरी और महानगरी संवेदना के कथाकार हैं, १९८० में प्रकाशित थोकदारी जीवन पर लिखा गया शिवानी के बाद की पीढ़ी के कथाकार पंकज बिष्ट के उपन्यास ‘उस चिड़िया का नाम’ का हरीश भी तो इसी ‘पिता-ग्रंथि’ के कारण पिता को कभी माफ़ नहीं कर पाता और उनकी मृत्यु पर अंतिम संस्कार में भी भाग नहीं लेता. यही उसका विद्रोह है.
पहले राम कुमार की कहानी ‘दीमक’ का एक छोटा-सा अंश:
दीमक (कहानी)
राम कुमार
‘कमरे में आ जाइए, बिस्तर लगा दिया है.’ उसकी आवाज सुनकर वे चौंक गए.
‘खाना तो आप खाकर ही आये होंगे! यहाँ कुछ नहीं है. तीन दिन पुरानी डबलरोटी के दो टोस्ट बचे हुए हैं.’ उसके स्वर में कर्कशता पहले से अधिक बढ़ गयी थी.
वे उदासीन स्वर में बोले, ‘मैंने स्टेशन पर ही खा लिया था…’
‘आप इस चारपाई पर सो जाइए. मैं नीचे…’
‘मैं नीचे सो जाता हूँ. मुझे तो आदत है…’
‘आज तो ऊपर ही… कल देखा जायेगा.’
कमरे की बत्ती बुझ जाने पर दोनों को बांधने वाले कमजोर तार अचानक टूट गए. वे दो छोटे-छोटे द्वीप बन गए जो धीरे-धीरे बहाव के साथ एक-दूसरे से दूर होते गए. कम्बल से सिर-मुँह ढककर बच्चू के मन में वही एक बात रह-रह कर घूम रही थी, जिससे उसका क्रोध और खीझ गहराई में उसे घसीटे लिए जा रहे थे. उनके यहाँ अचानक आने का कौन-सा कारण हो सकता है जो वह अब तक समझ नहीं पाया. पहले पत्र लिखकर उसे इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार तो कर दिया होता! लेकिन शायद उन्हें आशंका थी कि तब वह उन्हें यहाँ आने से रोकता या छुट्टी लेकर कहीं कुछ दिनों के लिए चला जाता.
लेकिन अब कल दिन के उजाले में उनकी शक्ल-सूरत, उनकी बातचीत, उनकी आदतें, उनकी गंध को कैसे सहन करेगा? मन में उठते हुए प्रश्नों के जालों में फंस कर फटे कम्बल और दरी के बीच सिकुड़े हुए उसे सर्दी नहीं लग रही थी. लेकिन आँखों में नींद का कहीं कोई पता नहीं था.
ऊपर चारपाई से पिता के खर्राटों की तेज आवाज सुनकर उसका आक्रोश और भी बढ़ गया. इस कमरे में मेरी चारपाई पर लेटकर पहले दिन नींद की समस्या उनके सामने नहीं आई. उसकी इच्छा हो रही थी कि उन्हें झिंझोड़ कर वह उठा दे और कहे कि वह लेट सकते हैं, लेकिन सो नहीं सकते. यह अधिकार उन्होंने खो दिया है.
गुरुकुल में गुरुदेव व सहपाठियों के साथ शिवानी . (अंतिम पंक्ति में दाहिने से दूसरी,चश्मे में) : आभार सहित मृणाल पाण्डेय
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शिवानी की कहानियों की चर्चा में रामकुमार की कहानी का सन्दर्भ हिंदी के उस लेखक-पाठक को, जो अंग्रेजी की कॉलोनी बन चुका है, अटपटा ही नहीं, असंगत भी लग रहा होगा. इस मनोवृत्ति का कोई इलाज नहीं है. मगर किसी भी रचना का सम्बन्ध देश-काल-परिस्थिति के अलावा उस शैक्षिक चेतना के साथ भी तो होता है जिसके सहारे वह रचना की अपेक्षित संवेदना के साथ जुड़ता है. थोकदारी समाज और उस समाज के बीच से मुक्त होने की आकांक्षी स्त्री की मानसिकता और सामाजिक दबावों को जाने बगैर कैसे हम रचना के प्रभाव पर बातें कर सकते हैं? एक खुशहाल खाते-पीते, कला की बारीक़ दुनिया में गोता लगाते आदमी को यह बात नहीं समझायी जा सकती कि उम्दा-से-उम्दा बिम्ब और प्रतीक मन की हर बेचैनी को शांत नहीं कर सकते. कितना ही प्रबुद्ध और कला का सम्मान करने वाला पाठक रचनाकार के परिवेश से अलग होकर उसका आनंद नहीं ले सकता.
मजेदार बात यह है कि शिवानी-जैसी लेखिकाओं की आगामी पीढ़ी में भी इस तरह के अंतर्विरोध साफ दिखाई देते हैं. इसका कारण भी यही है कि जड़ों के जिस संस्कार से ताकत ग्रहण करके नयी पीढ़ी को ऊर्जा मिल सकती थी, वह परिवेश उन्हें कभी उपलब्ध नहीं हो सका, और इसीलिए वे अपेक्षित रचनात्मक अनुभव से वंचित हो गए. ऐसे में यह पीढ़ी घुटन ही महसूस कर सकती थी. खास बात यह है कि शिवानी और उनके परिजनों की अगली पीढ़ी में समर्थ लेखिकाओं-लेखकों की लम्बी श्रृंखला आज भी मौजूद है, शक्ति के केंद्र भी उनके पास मौजूद हैं, मगर ‘कॉलोनी-मानसिकता’ का वहां इतना जबरदस्त दबाव है कि कोई भी अपने घोंसले से बाहर झांकना नहीं चाहता; इसीलिए उस परिवेश की जीवन्तता को नहीं पकड़ पाया. जब कोई बाहर झांकेगा ही नहीं तो अनुभव कहाँ से लायेगा?… बहुत मुश्किल होता है अपनी बिछड़ी स्मृतियों के साथ उन्हीं की शर्तों से जुड़ पाना. और वर्तमान के दबाव से मुक्त हो पाना भी उतना ही मुश्किल.
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शिवानी की ही एक अन्य कहानी है, ‘पिटी हुई गोट’. कहानी नैनीताल के एक लफंगे जुआरी महिम भट्ट की है जो अपनी तिकड़म से भोले लोगों को अपने चंगुल में फंसाता है और सब कुछ लूटने के बाद उनसे अपनी जवान बीवियों को दाँव पर लगाने को मजबूर करता है. इसी क्रम में वह साठ साल के एक बूढ़े जुआरी गुरुदास शाह को जुए के दाँवों से ललचाता है और जब वह सब कुछ हार जाता है, सारी रकम लौटाने की एवज में उसे अठारह साल की अपनी तीसरी बीवी को दाँव में लगाने के लिए ललचाता है. कहानी सिर्फ इतनी है कि गुरदास अपनी बीवी को भी जुए में हार जाता है और इस सदमे में पाषाण देवी के मंदिर के पास तालाब में कूदकर आत्महत्या कर लेता है. कहानी में लेखिका की सहानुभूति न गुरदास के साथ है, न महिम भट्ट के प्रति और न उनके समाज के साथ. गुरदास की तीसरी बीवी का पक्ष लेती हुई भी लेखिका उसका मुखर समर्थन नहीं करती. यहाँ भी वह उस ‘पिता’ मनोवृत्ति की छीछालेदर करती दिखाई देती है जो स्वामी-भाव के अहंकार में औरत को सिर्फ ‘वस्तु’ समझता है. खास बात यह है कि लेखिका सारे किस्से को औरत की नजर से देखती है और कौतूहल और कहानीपन को बरक़रार रहते हुए ‘पुरुष-ग्रंथि’ के मनोविज्ञान को बेहद बारीकी के साथ उजागर करती है.
कहानी के अंत में साठ साल के बूढ़े पति के हाथों हारी जा चुकी अठारह साल की उसकी तीसरी बीवी महिम भट्ट के साथ रात गुजारने के बाद उस जाड़े की रात में घर आकर जब अपनी फटी रजाई में घुसती है, जिन्दगी में पहली बार उसे गहरी नींद आती है और लगता है, पहली बार उसे दाम्पत्य सुख मिला है.
देखें उसका छोटा-सा अंश:
पिटी हुई गोट (कहानी)
शिवानी
“अच्छा! अब देर कैसी भट्ट जी? हो जाए आखिरी दाँव!”; गुरुदास ने प्याले की चीनी को अँगुली से चाट कर कहा.
“क्यों नहीं, क्यों नहीं!” महिम ने चाँदी के पानदान से कस्तूरी बीड़ा दोनों की ओर बढ़ाकर कहा, “दाँव तो लगा रहे हो दाज्यू, पर क्या भाभी से पूछ लिया है?” विजयी, मुँहफट, उद्दाम यौवन की चोट से गुरुदास की जर्जर काया काँप उठी.
“बुरा मान गए दाज्यू?”, महिम ने बीड़े से गाल फुलाकर कहा, “हिसाब-किताब साफ़ रखना ठीक ही होता है. देखो भाभी, दाज्यू आज सब कुछ मुझसे हार गए हैं. तुम्हें ही दाँव पर लगाने का सौदा तय हुआ है. ज़रूरी नहीं हैं कि तुम्हें हार ही जाएँ. हो सकता है कि तुम्हारी शकुनिया देह की बाजी इन्हें खोए आठ हज़ार दिलाकर, एक बार फिर मेवे की दूकान पर बिठा दे. पर अगर हार गए, तो तुम आज ही की रात से मेरी रहोगी. तुम्हारे जीवन की प्रत्येक रात्रि पर मेरा अधिकार रहेगा.
मैं इसका विशेष प्रबंध रखूँगा कि तुम्हारे पति की हार और मेरी जीत का
भेद प्राण रहते हम तीनों को छोड़ और कोई भी नहीं जान पाएगा. तुम्हारी अटूट पति भक्ति का बड़ा दबदबा है और इससे मुझे बड़ी मदद मिलेगी. तुम्हारे पति यदि हार गए, तो?”, बीच ही में महिम को रोककर गुरुदास क्रोध से काँपता खड़ा हो गया. गुस्सा आने पर बलगम का गोला घर-घर कर पुरानी जीप के इंजन की भाँति उसके गले में घरघराने लगता था. अवरुद्ध कंठ से दोनों मुठि्ठयाँ भींचकर वह बोला, “मैं कभी हार नहीं सकता, कभी नहीं!”
“अच्छा, भगवान करे ऐसा ही हो दाज्यू! जल्दी क्या है? बैठो तो सही,” मुस्कराकर महिम ने उसे हाथ पकड़कर बिठा दिया और ओवरकोट उतारकर पत्ते हाथ में ले लिए. गरम धारीदार नाइट ड्रेस में सुदर्शन तेजस्वी, नरसिंह महिम भट्ट, पान और दोख्ते से अपने विलासी अधरों की मुस्कान बिखेरता, गाब-तकिये के सहारे लेटा, पत्ते बाँटने लगा. दूसरी ओर गबरून के कोट की फटी कुहनियों से, लहसुन की गाँठ-सी हडि्डयाँ निकाले, दोरंगी मफलर से अपनी लाल-गीली नाक को बार-बार पोंछता गुरुदास जोर से देवी कवच का पाठ कर रहा था –“रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि.“ उन दोनों विवेकभ्रष्ट जुआरियों के बीच काँपती-थरथराती चंदो-कुमाऊँ की सरला पतिव्रता किशोरी, जिसके लिए पति की आज्ञा कानून की अमिट रेखा थी, जो पति की आदेशपूर्ण वाणी को ब्रह्मवाक्य समझकर ग्रहण करने को सदा तत्पर थी. पत्ते बँटे, चालें चली गईं, गुरुदास के बूढ़े चेहरे पर सहसा जवानी झलकने लगी. खुशी से झूमकर बूढ़ा नाच-नाचकर, महिम के सामने ही चंदो को पागलों की तरह चूमने लगा. वह बेचारी लज्जा से मुँह ढाँपकर पीछे हट गई.
“ठीक है, ठीक है दाज्यू! दिल के अरमान निकाल लो. फिर मत कहना कि मैंने मौका नहीं दिया…” अपने पत्तों को चूमकर महिम ने माथे से लगाकर कहा.
“अबे, जा हट! आया बड़ा मौका देने वाला! ऐसे पत्ते ब्राह्मणों के पास नहीं आया करते, वैश्य पर ही लक्ष्मी जी कृपालु होती हैं, हाँ!” गुरुदास ने फिर नाक पोंछकर कहा. “क्यों नहीं, क्यों नहीं! पर मैं तो तुम्हें आगाह किए दे रहा हूँ. दाज्यू, जरा सँभल के आना, यहाँ भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं.“
महिम ने चाल तिगुनी की. पत्तों को बार-बार चटखारे लेकर चूमता वह चंदो की ओर देखकर ऐसी धृष्टता से मुस्करा रहा था, जैसे पत्तों को नहीं उसे चूम रहा हो. गुरुदास ने देख लिया और गुस्से से भर-भराकर वह पत्ते पकड़कर उठ गया. उसका शक्की स्वभाव अब तक खेल की लग्न में कुंडली मारे सर्प की तरह छिपा था.
“देखो, हम ताश खेलने आए हैं, इशारेबाजी देखने नहीं.”
“वाह यार दाज्यू, कैसे खिलाड़ी हो! ट्रेल आने पर ही पत्ते चूमे जाते हैं”, महिम के स्वर में अहंकार था.
“किसे सुना रहे हो गुरु! यहाँ भी ट्रेल है,” बूढ़ा बुरी तरह हाँफने लगा.
“कोई बात नहीं. इसमें घबराहट कैसी! लाखों ट्रेलें देखी हैं शाह जी!”
द्यूत-क्रीड़ा के छिपे दानव ने दोनों को सहसा विवेक की चट्टान से बहुत नीचे पटक दिया. चंदो बेचारी के लिए सब कुछ नया था. वह दोनों हाथ गोदी में धर, आँखें फाड़कर दोनों को देख रही थी. उसकी विस्फारित भोली दृष्टि देखकर महिम से नहीं रहा गया.
“तो लो दाज्यू, खोलो पत्ते!” उसने सौ का नोट फेंका और अपने पत्ते भी खोल दिए. तीन-तीन इक्कों की ट्रेल ने बूढ़े की छाती में तीन-तीन नंगी संगीनें घुसेड़ दीं. उसके हाथ से गिरी पान, हुकुम और इंर्ट की बेगमें जमीन पर सिर धुन उठीं.
“वाह-वाह! तीन-तीन बेगमें भी तुम्हारी चौथी बेगम को नहीं बचा सकीं!” महिम ने हँसकर कहा. गुरुदास कुछ देर पत्थर की तरह बैठा रहा, फिर अपने गंदे रूमाल से आँख और नाक की जल-धारा पोंछता एक बार चंदो की ओर देखकर बुरी तरह सिसकता किसी पिटे बालक की भाँति गिरता-पड़ता बाहर निकल गया.
महिम ने कुंडी चढ़ा दी और बड़े प्यार से चंदो की नुकीली ठुड्डी हाथ में लेकर बोला, “भाभी, आज से मैं जुआ नहीं खेलूँगा. जानती हो क्यों? आज संसार की सबसे बड़ी संपत्ति जीत चुका हूँ!”
बड़ी देर बाद कार्तिक की ओस-भीनी रात्रि के अंतिम प्रहर में काँपती चंदो को उसके गृह के जीर्ण जीने तक पहुँचाकर महिम तीर की भाँति लौट गया. वह कमरे में पहुँची तो कमरा खाली था. गुरुदास तड़के ही उठकर पाषाण देवी के मंदिर में, नित्य माथा टेकने जाता था. वह चुपचाप फटी रजाई सिर तक खींचकर सो गई. कैसी नींद आई थी, बाप रे बाप!
“मामी-मामी! उठो गजब हो गया!” लालबहू का कंठ-स्वर सुन वह हड़बड़ाकर उठी.
“मामी, मामाजी ताल में कूद गए. मंदिर के पुजारी ने देखा, काँटा डाला है, पर लाश नहीं मिली. नाश हो इन जुआरियों का! बेचारे को लूट पाट कर धर दिया!” स्तब्ध चंदो द्वार की चौखट पकड़े ही धम्म से बैठ गई. किसने उसका सिंदूर पोंछा, किसने चूड़ियाँ तोड़ीं और कौन नोचकर मंगलसूत्र तोड़ गई, वह कुछ भी नहीं जान पाई. वह पागलों-सी बैठी ही थी.
“राम-राम!…बेचारा आठ हज़ार नकद और दूकान सब-कुछ ही तो दाँव में हार गया! वही धक्का उसे ले गया.”
पंडित जी कह रहे थे, “सोलह बरस से मेरा यजमान था. बड़ा नेक आदमी था.”
अब तक चुप बैठी चंदो, दोनों घुटनों में माथा डालकर ज़ोर से रो पड़ी. एकाएक जैसे उसे रात की बिसरी बातें याद हो आईं. दूकान और आठ हज़ार का धक्का नहीं, उसके पति को जिस दूसरे ही दाँव की हार का धक्का ले गया था, उसे क्या कभी कोई जान पाएगा?…
थोकदारी समाज के परिप्रेक्ष्य में शिवानी की कहानियों के पुनर्पाठ की जरूरत है और इस बात की भी कि हिंदी कथालेखन से वह जीवन्तता कहाँ गायब हो गई जिसकी बेहतरीन शुरुआत शिवानी ने की थी.
क्रमश :
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