भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श के अंतर्गत आपने ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले), ‘शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे), ‘नाकोहस’ (पुरुषोत्तम अग्रवाल), ‘अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज), ‘पानी’ (मनोज कुमार पांडेय), ‘कायांतर’ (जयश्री राय), ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’ (विमल चन्द्र पाण्डेय), ‘नीला घर’ (अपर्णा मनोज), ‘दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर) पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की आलोचना पढ़ चुके हैं. जैसा कि आप जानते हैं यह खास स्तम्भ समालोचन के लिए ही लिखा जा रहा है. इस क्रम को आगे बढाते हुए आज प्रस्तुत है राकेश दुबे की कहानी ‘कउने खोतवा में लुकइलू’ पर यह आलेख.
इस बादर्द इश्किया अफसाने को कालजयी कहानी ‘उसने कहा था’ (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) से जोड़कर देखा जा रहा है. राकेश बिहारी ने इसके कुछ स्याह पक्षों की ओर भी संकेत किया है. आपने कहानी पढ़ ली है (कहानी का लिंक इस आलेख के नीचे दिया गया है), यह विवेचना भी देखिये और खुद निर्णय लीजिये कि इस कहानी के साथ कहाँ तक न्याय हुआ है ?
भूमंडलोत्तर कहानी -१०
निजी घटना के सामाजिक चेतना में बदलने की कथा
(संदर्भ राकेश दुबे की कहानी ‘कउने खोतवा में लुकइलू’)
(संदर्भ राकेश दुबे की कहानी ‘कउने खोतवा में लुकइलू’)
राकेश बिहारी
“प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ सम्बन्धों का नाम नहीं है यह एक ‘दृष्टिकोण’ है, एक ’चारित्रिक रुझान’ है- जो व्यक्ति और दुनिया के सम्बन्धों को अभिव्यक्त करता है न कि प्रेम के सिर्फ एक ‘लक्ष्य’ के साथ उसके संबंध को. अगर एक व्यक्ति सिर्फ दूसरे व्यक्ति से प्रेम करता है और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी जरा भी रुचि नहीं है- तो उसका प्रेम प्रेम न होकर मात्र एक समजैविक जुड़ाव भर है, उसके अहं का विस्तार भर है.”
(एरिक फ्रॉम की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’ के हिन्दी अनुवाद ‘प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धान्त’ (अनुवादक- युगांक धीर,से)
अपेक्षाकृत अल्पज्ञात युवा कथाकार राकेश दुबे की कहानी ‘कउने खोतवा में लुकइलू…’ अपनी सघन संवेदनात्मक संरचना और गहरी प्रभावोत्पादकता के कारण यदि एक विलक्षण प्रेम कहानी बन सकी है तो उसके मूल में सिर्फ वंशी और सोना का प्रेम संबंध भर नहीं है. बल्कि परस्पर सम्बन्धों से बहुत आगे जा कर कथा-पात्रों का समय और समाज से संवाद करते हुये अपने परिवेश के बाहरी और भीतरी भूगोल के साथ सूक्ष्म रागात्मक अहसास से युक्त होकर आबद्ध होना प्रेम के बृहत्तर स्वरूप को स्थापित करता है. इस कहानी पर चर्चा करते हुये एरिक फ्रॉम की उपर्युक्त पंक्तियों को याद किए जाने का यही कारण है. प्रेम अपने आरंभिक या कि अपरिपक्व रूप में भले समजैविक जुड़ाव तक ही सीमित हो, लेकिन अपनी सूक्ष्मतम और परिपक्व अवस्था में मानव अस्तित्व के स्थापत्य के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
शुरुआती अवस्था में प्रकटतः एक विशुद्ध निजी घटना की तरह रूपायित होनेवाला प्रेम समय के साथ ‘वयस्क’ होते हुये सामूहिकता के वृहत्तर अहसास में रूपांतरित हो जाता है. यही वह विंदु है जहां निजता और सामूहिकता की सीमाएं इस कदर परस्पर घुलमिल जाती हैं कि प्रेम एक निजी घटना से कहीं आगे एक खास तरह की सामाजिक चेतना का आकार ग्रहण कर लेता है. प्रेम के इसी स्वरूप को रेखांकित करने के कारण विवेच्य कहानी पिछले कुछ वर्षों में लिखी गई ‘प्रेम कहानियों’ में अलग और विशिष्ट होने का हक हासिल करती है. यह कहानी सामाजिकता और सामूहिकता को किसी बोझ की तरह अपने कांधे पर उठाए नहीं फिरती, बल्कि ये इसकी मांस-मज्जा में विन्यस्त हैं.
यह कहानी ‘रचना समय’ के हालिया प्रकाशित कहानी-विशेषांक के दूसरे खंड (मार्च 2016) में शामिल है. गौरतलब है कि इस विशेषांक के पहले और दूसरे खंड में प्रकाशित आलेखों में क्रमशः राहुल सिंह और चन्द्रकला त्रिपाठी ने इस कहानी पर बात करते हुये ‘उसने कहा था’ (चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’) को याद किया है. अंक का संपादक होने के नाते प्रकाशन के पूर्व ही इस कहानी को पढ़ने का मौका मिला था. तब से अबतक जाने इसे कई बार पढ़ चुका हूँ. हर पाठ के बाद मेरे आस्वादक और इस कहानी का परस्पर संबंध कुछ और अंतरंग हो जाता है. हर बार इसे पढ़ते हुये मुझे भी ‘उसने कहा था’ की याद आई, कभी-कभी ‘रसप्रिया’ (फणीश्वर नाथ रेणु) की भी. संभव है कि अन्य पाठकों को कुछ दूसरी महत्वपूर्ण कहानियों की याद भी आए.
किसी प्रसंग विशेष की संवेदनाओं में साम्य के अहसास के कारण इस कहानी से गुजरते हुये एक या कई कहानियों की याद आने का मतलब यह कतई नहीं कि यह कहानी उन कहानियों से प्रभावित है या कि उनकी अनुकृति है. बल्कि अपनी मजबूत बुनावट और सघन संवेदनात्मकता के कारण उन कहानियों की श्रेणी में शुमार किए जाने की योग्यता रखती है. कहानी की कलात्मकता को हर कोण से अक्षुण्ण रखते हुये यह कहानी न सिर्फ लुप्त होती सामूहिकता का जीर्णोद्धार करती है बल्कि निजी जीवन में प्रेम के घटित होने के उपरांत वंशी का अपने बहिर्जगत से व्यवहार प्रेम की चौहद्दी का विस्तार करते हुये प्रेम को एक नितांत निजी घटना से सामाजिक चेतना में बदल देता है.
इस कहानी का एक हिस्सा वंशी और सोना के प्रेम से जुड़ा है तो दूसरा हिस्सा कहानी की स्थानीयता, संदर्भित लोक की संस्कृति और कथापात्रों के बीच की अंतःक्रियाओं के त्रिकोण के बीच सामाजिक सामूहिकता की सघनता को एक मानीखेज विस्तार देता है. इस कहानी को जिन दो भागों में बाँट कर मैं यहाँ देखने की कोशिश कर रहा हूँ वह इस कदर नाभिनालबद्ध हैं कि कोई आस्वादक उन्हें अलग कर के न तो इसके आस्वाद को उसकी पूर्णता में प्राप्त कर सकता है न हीं इस कहानी का सार ही किसी दूसरे आस्वादक के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है. जाहिर है ऐसे में कहानी के विभाजन की यह प्रविधि यहाँ सिर्फ उसकी बहुपरतीयता को उद्घाटित-विश्लेषित करने का एक उपक्रम मात्र है. गौरतलब है कि यह कहानी ‘उसने कहा था’ की तरह ही पुरुष पात्र की तरफ से लिखी गई है.
लेकिन वंशी (‘कउने खोतवा में लुकइलू…’) लहना सिंह (‘उसने कहा था’) की प्रतिछाया नहीं है. गो कि स्त्री का पक्ष यहाँ भी प्रकटत: अनुपस्थित है, लेकिन कहानी का अंतिम वाक्य न सिर्फ कहानी में सोना की उपस्थिति और अनुपस्थिति के मारक द्वंद्व को रेखांकित करता है, बल्कि प्रेम कहानियों में समान्यतया स्त्री के पक्ष का अनकहा रह जाने की त्रासद विडम्बना को भी उद्घाटित करता है –
“… दो और भी आँखें थीं जिनमें पानी छलछला रहा था लेकिन उन पर किसी की नज़र नहीं पड़ी थी.”
यद्यपि कहानी में सोना की उपस्थिति ज्यादा मुखर नहीं है, लेकिन ऊपर उद्धृत अंत सहित कुल तीन जगहों पर उसकी आँखों का उल्लेख हुआ है. पहली बार तब जब बिना कुछ कहे ही फाग के मुक़ाबले के दौरान वंशी और सोना के बीच नयनों ही नयनों में ‘बहुत कुछ’ घट गया था और अपने गाँव लौटकर भी वंशी जैसे नहीं लौटा था- वह “रात को जब भी सोना चाहता है तो दो उदास आँखें सामने खड़ी हो जाती हैं, ‘हमने तो तुम्हें अपना मान लिया है. कहीं तुम वादा भूल तो नहीं जाओगे.’” दूसरी बार सोना की आँखों का उल्लेख तब होता है जब चारों तरफ फैले राप्ती के पानी और रात्रि की निस्तब्धता में अलसाए हुये चाँद के साये में दोनों मिलते हैं – “केवल दो जोड़ी आँखें थीं जिनमें जीवन की सबसे गहरी चमक थी. आज अगर नींद आ गई तो पूरे जीवन सोना मुश्किल हो जाएगा.” और फिर कहानी के अंत में वंशी की मृत्यु के बाद सोना की छलछलाई हुए आँखें जिस पर किसी की नज़र नहीं पड़ी थी. उदास, जीवन से भरी और छलछलाई आंखों की ये तीन छवियाँ प्रेम के अनकहे व्याकरण का एक ऐसा शास्त्र रचती हैं जिसके सहारे प्रेम, स्त्री और समाज के अंतर्संबंधों को बहुत बारीकी से समझा जा सकता है.
यह कहानी खत्म करने के कलात्मक कौशल का ही नतीजा है कि अपने अंतिम पड़ाव पर आते-आते वंशी के एकतरफा प्रेम की कहानी प्रतीत होती यह कथा न सिर्फ वंशी और सोना की संयुक्त प्रेम कहानी में बदल जाती है, बल्कि प्रेम की सामाजिक विफलता से उत्पन्न मर्मभेदी टीस की कसक को सीधे पाठकों के अन्तर्मन पर अंकित भी कर देती है. जबकि इसके विपरीत ‘उसने कहा था’ मूलत: और अंततः प्रेम के नाम पर लहना सिंह के त्याग की कहानी ही है. इसके अतिरिक्त ‘उसने कहा था’ से यह कहानी इस अर्थ में भी भिन्न है कि यहां आरंभ से अंत तक अपने समय और समाज से जुड़े होने के बावजूद प्रेम का अहसास जलतरंग के मीठे धुन की तरह पूरी कहानी में अनवरत बजता रहता है.
होली के अवसर पर दो गांवों के बीच फाग के मुक़ाबले के दौरान वंशी और सोना के बीच प्रथम दृष्टि का प्यार घटित होता है. पहली नज़र में इस कदर घटित होने वाला प्रेम सामान्यतया समय और संयोग के अभाव में अनकहा या एकतरफा हो कर शनैः शनैः किसी रेतीली नदी की तरह सूखने को विवश हो जाता है. लेकिन वंशी और सोना का प्रेम समय और संयोग के अभाव के बावजूद दोनों तरफ ताउम्र जिंदा रहता है. ‘निगाहों-निगाहों’ में प्रेम का प्रस्ताव, स्वीकृति और अहसासों के परस्पर आदान-प्रदान के बाद बिना एक दूसरे से प्रत्यक्षत: कुछ कहे-सुने वंशी और सोना के विलग होने के बाद वंशी की बेबस आकुलता और पुनः बाढ़ की विभीषिका के दौरान बांध पर बने पलास्टिक के शरणार्थी शिविरों में जीवन बसर करते हुये राप्ती के भीषण फैलाव और निस्तब्ध चाँदनी के बीच वंशी और सोना के पहली बार मिलने से लेकर सोना की अन्यत्र शादी के उपरांत वंशी को लगे मानसिक आघात और जीवन जगत के प्रति उसके परिवर्तित व्यवहारों को यह कहानी जिस रससिक्त आत्मीयता के साथ उकेरती है वह हमारे मर्म को गहरे छूता और बेधता है. वंशी के वियोगी स्वरूप और बाढ़ की विभीषिका के बीच प्रेम में डूबे व्यक्ति की सामाजिक प्रतिबद्धता को भी यह कहानी सर्वथा अलग धरातल पर उकेरती है.
आज हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब समाज में व्यक्ति की हैसियत दिनानुदिन अकेले से नितांत अकेले होते जाने तक में परिसीमित होती जा रही है. किसानों से ले कर विद्यार्थियों तक और प्रेमियों से लेकर व्यापारियों तक के जीवन में फैलती आत्महंता प्रवृत्तियाँ इसी अकेलेपन का परिणाम हैं. सामूहिकता का भाव न सिर्फ हमें त्रासदियों से उबारता है बल्कि हमारे भीतर नए सिरे से जीवन जीने की ललक भी पैदा करता है. और इन सबके बीच यदि प्रेम का कोई बीज भी अँखुआ रहा हो तो फिर कहने ही क्या… हमारे भीतर पल रहा प्रेम हमारी व्यवहार संहिता को एक अलग ही धरातल पर ला खड़ा करता है, जहां अपने प्रिय पात्र के लिए उपजा प्रेम सहज ही समस्त जीव और जगत के प्रति संवेदनशील और चैतन्य हो उठता है.
बाढ़ के दौरान समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर वंशी का खाने के पैकेट, दवाइयाँ या कपड़े बांटना हो या फिर सांप काटने के कारण उसकी माँ की मृत्यु के बाद साँप का जहर उतारना सीखना यह सब उसके प्रेमसिक्त होने का ही नतीजा है. जीवन में सोना और माँ की अनुपस्थिति के बाद वंशी दो कारणों से बंजारों के सान्निध्य में जाता है – एक तो यह कि उसे उनके जीवन में व्याप्त खुलापन अकार्षित करता है और वह महसूस करता है की यदि उसके समाज में भी वैसा ही खुलापन होता तो शायद सोना उसकी जीवनसंगिनी होती, और दूसरा कारण है साँप का विष उतारने का मंत्र सीखने की इच्छा ताकि किसी और की अम्मा साँप की जहर का शिकार न हो. वंशी अपने इस लोकमंगलधर्मी संकल्प की परीक्षा अपनी जान दे कर भी ठकुराइन के रूप में पहुंची सोना का विष उतार के करता है.
यह कहानीकार की दृष्टिसंपन्नता ही है कि वह सोना के अन्यत्र विवाह के उपरांत वंशी के आचार-व्यवहार को किसी सतही और स्त्रीविरोधी फार्मूले से नहीं सींचता बल्कि वंशी के बंजारों के सान्निध्य में जाने के बाद प्रेम की इस विफलता के कारणों की पड़ताल करते हुये उसकी की दृष्टि सामाजिक खुलेपन के अभाव और पर्दा प्रथा तक जाती है. गौरतलब है की सूबेदारनी (‘उसने कहा था’) की तरह सोना वंशी से अपने प्रति उसके प्रेम का कोई प्रतिदान नहीं मांगती- “परेम का अर्थ केवल मिलना ही थोड़े ही होता है. हम मिलें या कि न मिलें लेकिन जान कोई नहीं देगा.“ प्रेम में प्राप्त विफलता के बाद जान न देने की इस हिदायत का ही यह असर है कि वंशी तथाकथित आघात और अवसाद के बावजूद ताउम्र लोगों की जान बचाने में लगा रहता है. निजी जीवन में हासिल विफलताओं को लोक कल्याण की आधार भूमि के रूप में विकसित करने का यह जज्बा निश्चित तौर पर इस कहानी को एक खास किस्म की विशिष्टता प्रदान करता है. यहाँ इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि राकेश दुबे लोकमंगल या सामूहिकता की इस अवधारणा को यहाँ किसी फार्मूले या नाटकीय कार्न्तिधर्मिता की तरह नहीं रखते बल्कि निजी अहसास और सार्वजनिकाता के बीच एक ऐसे अंतर्गुंफन की रचना करते हैं जहां वंशी का निजी दुख और उसकी सामाजिक चेतना निरंतर हमजोलियाँ करते चलते हैं.
इस क्रम में राकेश दुबे वंशी की बदलती मनोदशा के बहाने प्रेम में छुअन के अहसास की पुनर्रचना जिस मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता के साथ करते हैं, वह बहुत ही स्पर्शी और उल्लेखनीय है. अपनी प्रियतमा को भर नजर देखने की वंशी की ख़्वाहिश (बड़ा दिन भइल देखला तुहके देखब भरि नजरिया आ जइह…) को सोना का स्पर्श क्या मिलता है, वह उसे ताउम्र जीवन की सबसे बड़ी पूंजी की तरह सम्हाले रखता है. अब उसे जीवन में किसी का स्पर्श नहीं चाहिए, इससे बड़ा और आत्मीय स्पर्श किसी का हो ही नहीं सकता, तभी तो वंशी को कोई छूले तो जब तक वह उसे दुबारा छू न ले चैन से नहीं बैठता. किसी का स्पर्श लौटा कर के मानो वह सोना की उस अनमोल छुअन को अक्षुण्ण रखना चाहता है. ऊपर से एक मानसिक बीमारी, अवसाद का प्रतिफल या पागलपन की तरह दिखने वाली यह प्रतिक्रिया दरअसल कहीं गहरे प्रेम की उस उत्कट अनुभूति से उत्पन्न हुई है जो सामान्य व्यक्ति को पागल और पागल को सामान्य कर देती है, जिसका इलाज किसी ‘पैथ’ या चिकित्सक के पास नहीं होता.
प्राकृतिक आपदा के समय लोक की जीवंत उपस्थिति अपनी ताकत और अपने विपरीतधर्मी रंगों से उत्पन्न विडंबनाओं के सहारे लोगों के बीच किस तरह एक सकारात्मक ऊष्मा का संचार करती है उसे इस कहानी में व्याप्त छोटे-छोटे संकेतों से समझा जा सकता है. ये सूक्ष्म संकेत कहानी के बाह्य और आंतरिक पर्यावरण को न सिर्फ विश्वसनीय बनाते हैं, बल्कि त्रासदी और लोक के परस्पर संवाद से उत्पन्न नए और सकारात्मक बदलावों को भी रेखांकित करते है. त्रासदी और सामूहिकता के सहमेल का ही यह नतीजा है कि अपने बाप को भी उधार न देनेवाला मजीद जिनके पास पैसे नहीं है उन्हें भी गुटखा देता है और आम दिनों में उधार न देने पर मास्टर को गालियां देने वाले लोग उधार लेने से बचने लगते हैं.
कथानायक वंशी स्वभाव से गायक है. ऐसे में कहानी में गीत का उल्लेख होना स्वाभाविक ही है, लेकिन यहाँ कथाकार गीत का उल्लेख सिर्फ पात्रानुकूल माहौल तैयार करने की कसी चालू प्रविधि की तरह नहीं, बल्कि शिकायत के विरुद्ध वेदना की अनुभूति से भरे गीत का चयन करके वंशी की मनोदशा और उसके उत्कट प्रेम के अहसास की पुनर्रचना के लिए एक अपरिहार्य कथायुक्ति की तरह करता है.
किसी कहानी में भाव-संदर्भ का जितना महत्व होता है स्थान-संदर्भ और काल-संदर्भ का भी महत्व उससे कम नहीं होता. भाव पक्ष के अंतरंग और बहिरंग की संयुक्त, जीवंत और मजबूत उपस्थिति निश्चित तौर पर इस कहानी को उल्लेखनीय बनाती है. लेकिन कहानी में संकेतित स्थान-संदर्भ (राप्ती नदी का क्षेत्र) के साथ उसके काल-संदर्भ का अस्प्ष्ट या कि लगभग अनुपस्थित होना कुछ सवाल भी खड़े करता है. सघन और निर्दोष प्रेम की यह कहानी आखिर किस काल खंड की है? आज भी इस कहानी के ठीक उसी तरह घटित हो सकने की कितनी संभावना है? प्रगति और सूचना तकनीक की क्रान्ति से इस कदर अछूता यह कौन सा प्रदेश है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो सजग पाठकों के मन में सहज ही उठ सकते हैं. पैट्रोमैक्स, प्लास्टिक के तम्बू, जींस पैंट और टी शर्ट जैसे कुछ संकेतों से कहानी के काल-संदर्भ का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन संदर्भित कथा-प्रदेश का सूचना क्रान्ति से इस तरह अछूता होना कहानी के काल-संदर्भ संबंधी उन कयासों को मुकम्मल नहीं होने देता.
हालांकि प्रगति के तमाम दावों के बावजूद हमारे देश में आज भी कुछ ऐसी जगहें हैं, लेकिन वे कहानी में संकेतित स्थान-संदर्भ (राप्ती नदी का क्षेत्र) से इस तरह मेल नहीं खातीं. अच्छा होता यदि कहानीकार की दृष्टि इस फांक की तरफ भी गई होती. हो सकता है तब और अधिक स्पष्ट काल और स्थान संदर्भ के साथ कहानी में कुछ और परतें जुड़तीं या फिर हम विकास और ठहराव की अभिसंधि पर खड़े अतीत और वर्तमान की संयुक्त उपस्थिति की विडंबनाओं से युक्त इस समय के चेहरे की कुछ और सलवटें देख पाते! लेकिन यह फांक उतनी बड़ी भी नहीं कि इस कहानी के उल्लेखनीय और अपरिहार्य महत्व को कम कर दे. फिलहाल इस प्रश्न को मैं राकेश दुबे की भाल पर दिठौने की तरह अंकित करना चाहता हूँ ताकि उनके कथाकार की आगामी यात्रा पर यह कहानी भारी न पड़े.
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