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Home » भूमंडलोत्तर कहानी (१३) : जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े) : राकेश बिहारी

भूमंडलोत्तर कहानी (१३) : जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े) : राकेश बिहारी

Pablo Picasso भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी- 1-लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), 2-शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे), 3-नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), 4-अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज),  5-पानी (मनोज कुमार पांडेय), 6-कायांतर (जयश्री राय), 7-उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र […]

by arun dev
August 28, 2017
in आलेख
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Pablo Picasso


भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी- 1-लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), 2-शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे), 3-नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), 4-अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज),  5-पानी (मनोज कुमार पांडेय), 6-कायांतर (जयश्री राय), 7-उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय), 8-नीला घर (अपर्णा मनोज), 9-दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो(तरुण भटनागर), 10-कउने खोतवा में लुकइलू (राकेश दुबे),11-चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर) 12-अधजली (सिनीवाली शर्मा)
आज प्रस्तुत है इस वर्ष के ‘राजेन्द्र यादव कथा सम्मान’ से सम्मानित कहानी ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े) पर युवा आलोचक राकेश बिहारी का आलेख ‘विमर्श और कहन के सवालों के बीच ‘जस्ट डांस’.
 
भूमंडलोत्तर कहानी – 13
विमर्श और कहन के सवालों के बीच ‘जस्ट डांस’                

राकेश बिहारी 


हंस (जून 2017) में प्रकाशित कैलाश वानखेड़े की कहानी ‘जस्ट डांस’ पर बात करना सिर्फ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है कि इसे इस वर्ष का ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा-सम्मान’ प्राप्त हुआ है, बल्कि इसकी चर्चा इसलिए भी होनी चाहिए कि यह कहानी कथा में विमर्श और कहानी के क्राफ्ट दोनों के समकालीन जटिल विस्तार और संकुचन पर बात करने का अवसर एक साथ प्रदान करती है.
अनुभवजन्य प्रामाणिकता के साथ दलित सरोकारों को कथात्मक विन्यास और विस्तार प्रदान करना कैलाश के कथाकार की विशेषता रही है. विवेच्य कहानी में नैरेटर का आदिवासी होना उन दलित सरोकारों का ही सार्थक विस्तार है जो बहुजन और सर्वहारा की अवधारणा को भी नए सिरे से रेखांकित करता है. अस्मिता विमर्श के दौर में कई बार अलग-अलग व्यक्ति समूहों की चेतना अपने सीमित दायरे में ही इस तरह निमग्न होती हैं कि उनके बीच परस्पर जुड़ाव के बदले एक अलग तरह की दूरियाँ और हितों की टकराहट पैदा होने लगती हैं. यह कहानी अलग-अलग पॉकेट में होने वाले अस्मिता विमर्श के बीच उग आए या कि उगा दिये गए ऐसे बाड़ों को तोड़ने का सार्थक जतन करती है. बावजूद इसके क्राफ्ट और कहन की कतिपय असावधानियों और भाषा-विन्यास की  जटिलताओं के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि यह कहानी कैलाश वानखेड़े के अबतक के कथात्मक अवदान में कोई उल्लेखनीय अभिवृद्धि करती है. लेकिन जिस चौकन्नेपन के साथ यह कहानी वर्तमान समय और इसकी राजनैतिक चालबाजियों की सूक्ष्मताओं को रेखांकित करती है उसे समझा जाना बहुत जरूरी है. समकालीन कहानी से सरोकार और राजनैतिक चेतना के गायब होने की शिकायत करने वाले पाठकों-आलोचकों को भी यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए.
कैलाश एक समय सजग कथाकार हैं. वे किसी लेखकीय युक्ति या चतुराई के तहत देश-काल के संदर्भों को अपनी कहानी के परिसर से दूर नहीं रखते बल्कि अपने समय की आँखों में आँखें डाल कर उससे सीधी बात करते हैं. हाँ, कहानी के समय संदर्भ को एक ठूंठ सूचकांक की तरह महज उल्लिखित कर देने के बजाय संदर्भित समय पर मारक टिप्पणी करते हुये अपनी पक्षधरता प्रदर्शित कर जाना भी कैलाश के कहानीकार की उल्लेखनीय विशेषता है. संदर्भित कहानी अपना काल-संदर्भ  देते हुये लगभग शुरुआत में ही कहती है – `अखबार में दूसरी आज़ादी, अन्ना की खबर पसरी हुई है. इस पेपर से पंखा करने का मन होता है.` रेखांकित किया जाना चाहिए कि `यह वही समय था जब…` के फैशनपरस्त जुमलों के साथ सूचना-समय की कहानी होने का भ्रम रचने वाली कहानियों से यह बहुत अलग तरह की बात है. एक वाक्य में अपने कथा समय को रेखांकित करना और दूसरे ही वाक्य में उस समय को एक खास संवेदना से जोड़ अपनी पक्षधरता प्रदर्शित करना इस कहानी और इसके कथाकार को विशिष्ट बना देता है.
किसी और संदर्भ में कही गई अपनी ही बात को मैं यहाँ दुहराना चाहता हूँ कि एक अच्छी कहानी में  लेखक की तटस्थता से ज्यादा उसकी पक्षधरता बोलती है. मुक्तिबोध ने इसे ही और मुखर शब्दों में बहुत पहले कहा था- `पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?` कैलाश वानखेड़े की कहानियाँ अपनी पॉलिटिक्स पर किसी तरह का पर्दा नहीं डालतीं बल्कि उसे दिन के उजाले की तरह साफ-साफ उजागर कर देती हैं. जाहिर है कैलाश इस कहानी में सिर्फ यह नहीं बताते कि इस कहानी का कालखंड अन्ना आंदोलन का समय है, बल्कि उस आंदोलन की सार्थकता और दिशाहीनता को भी प्रश्नांकित करते हैं. तत्काल मेरी स्मृति में नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) के उस आंदोलन को लेकर लिखी गई कोई अन्य कहानी याद नहीं आ रही. हाँ, यहाँ मैं कैलाश वानखेड़े की ही एक और कहानी जो संयोग से हंस में ही छपी थी- `कंटीले तार` को जरूर याद करना चाहता हूँ जो मेरी दृष्टि में अन्ना आंदोलन की सार्थकता को प्रश्नांकित करने वाली पहली कहानी है. मेरा आग्रह है कि `जस्ट डांस` और कंटीले तार` को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए. टेलीविज़न पर दिखाये जाने वाले खबर ‘जीत गए अन्ना, जीत गया इंडिया’ को देखते हुये  ‘जस्ट डांस’ का कथानायक आकाश पूछता है- ‘यह कौन सा खेल है और देश के नाम पर क्यों खेला जा रहा है?’ ‘कंटीले तार’ में मेश्राम की जो चिंताएँ हैं ‘जस्ट डांस’ के नैरेटर के सवालों में कैलाश उन्हीं चिंताओं का विस्तार रचते हैं. भारतीय नागरिक समाज के अलग-अलग घटक अपने हितों के संयुक्त संधान के साथ ऊपर से सरकार के खिलाफ संघर्ष करते जरूर दिखते हैं पर अंदरखाने में शोषित-वंचित समूहों को और दबाने का खेल तथाकथित नागरिक समाज के आंदोलनों की आड़ में खूब चलता है. ये कहानियाँ अंदरखाने के उस खेल की बारीकियों को भले न दिखाती हों लेकिन इनके पात्र उस महीन राजनीति की आग की भयावहता को भली भांति समझतेऔर उससे उद्वेलित होते हैं.
कैलाश वानखेड़े

मैं शैली में लिखी गई यह कहानी एक प्रेम कहानी की तरह शुरू होती है. आकाश की महिला दोस्त जिसे वह मन ही मन प्रेम करता था पर कभी उससे कह नहीं पाया, किन्हीं कारणों से उससे दूर चली गई है. उसे उम्मीद है कि वह एकदिन जरूर लौटेगी. उसके जाने के बाद की बेचैनी और उद्विगनता के बीच थोड़ी देर इधर-उधर भटकने के बाद वह अपने घर में आकर टी वी के सामने बैठ जाता है, जिस पर एक डांस रियलिटी शो आ रहा है. अंतिम दृश्य को छोड़कर लगभग पूरी कहानी टीवी पर जारी रियलिटी शो के बीच उस शो के दौरान सेट पर और उसे देखते हुये आकाश के घर पर घटित हुये छोटे-छोटे दृश्यखंडों के कोलाज से निर्मित होती है. समाज का एक बडा वर्ग जो शोषित-वंचित है के विरुद्ध इलीट क्लास की मानसिकता कैसी होती है और उसके प्रति उन वंचितों के भीतर किस तरह का आक्रोश और प्रतिरोध कुलबुलाता है, को यह कहानी अपने दृश्यों से परत-दर-परत जीवंत करती है. कहानी के ब्योरे बहुत सूक्ष्म हैं.
लेखक की नजर प्रत्यक्ष के पीछे की मानसिकता और तथाकथित सभ्य समाज के उस अनुकूलन तक को खंगाल जाती है जिसमें दलितों-वंचितों की उपस्थिति तक को किस सहजता से एक वर्ग द्वारा भुला दिया जाता है. ऐसे ही एक दृश्य में रियलिटी शो के एक प्रतिभागी की जाति पहचानने के क्रम में एक जज के द्वारा दो ही विकल्प ‘शाह’ और ‘पटेल’ पर विचार करते हुये सही जानकारी तक पहुँचने के दौरान आकाश  की चिंता कितनी बारीक है –‘सराह को अपने ज्ञान के परिपूर्ण का अहसास हुआ, मुझे अपूर्णता का अहसास हुआ कि कैसे जान लिया? रंग है, रूप है, शरीर है, कपड़े हैं, तो किस आधार पर तय कर लिया कि ये कौन है?’ किसी की जाति पहचानने के क्रम में कोई व्यक्ति किन जातियों को विकल्प के रूप में सोचता है यह किसी के लिए एक सामान्य और निर्दोष बात हो सकती है पर ऊपर से सामान्य दिखनेवाली यह घटना सामान्य है नहीं. आकाश इस बात के पीछे की असामान्य स्थितियों को समझता है. तभी तो वह इस पर आगे सोचता है- ‘मेरे गाँव झापादरा से गुजरात की सीमा करीब बीस किलोमीटर है. हमारे इस इलाके में दूर-दूर तक हम ही हम रिश्तेदार हैं और कोई भी नहीं है पटेल या शाह. तो जिस गुजराती को मैं जानता हूँ, उसे ये जज क्यों नहीं जानते, क्यों नहीं उनकी जुबान पर आया कि तुम भूरिया हो, परमार,बुनकर हो?’ आकाश को इस कदर विचलित करने वाला यह सवाल बहुत बारीक और महत्वपूर्ण है.
आखिर कितनी भायवह है यह स्थिति जहां एक पूरा का पूरा समूह एक वर्ग की स्मृतियों का हिस्सा तक नहीं बन पाता? किसी समूह विशेष की उपस्थिति से कोई इतना बेखबर कैसे हो सकता है? इस कहानी की विशेषता इन्हीं छोटे-छोटे ब्योरों में है. इस प्रसंग को समझने के लिए मेरे प्रिय मित्र और प्रखर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने पिछले दिनों इसी कहानी पर हो रही चर्चा के दौरान एक व्हाट्सऐप ग्रुप में ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ के सविता प्रसंग की उचित ही याद दिलाईहै जिसमें कुलकर्णी परिवार की सविता जो वाल्मीकि जी से स्नेह भाव रखती थी, उनके द्वारा अपनी जाति बताए जानेपर इस बात को मानना ही नहीं चाहती की वे दलित हैं. ये कुछ ऐसी जातिजन्य  स्वाभाविकतायें हैं जो स्वाभाविक लगते हुये भी एक खास तरह के श्रेष्ठताबोध से संचालित होती हैं.
किसी जाति की सम्पूर्ण उपस्थिति को भूल जाने या जानबूझ कर भुला देने की स्थिति के विरुद्ध कथानायक की बेचैनी हो या फिर बिना उससे पूछे ही जनगणना अधिकारी द्वारा जातिगत जनगणना पत्र में अपनी मर्जी से उसकी जाति-धर्म से संबन्धित जानकारी लिख लिया जाना,इन सबके प्रति उसका चैतन्य अस्मिता बोध उसकी रगों में दौड़ता फिरता है, इसकी सराहना होनी चाहिए.पर उसकी दिक्कतें तब शुरू होती है जब वह स्त्रीअस्मिता के प्रति न सिर्फ लापरवाह हो जाता है बल्कि उसकी भाषा आपत्तिजनक होने के हद तक स्त्रीविरोधी हो जाती है. इस संदर्भ में चैनल पर ‘सदी के महानायक’ को अपने बेटे के मांगलिक दोष के निवारण के लिएमंदिरों के चक्कर लगातेदेख आकाश के आत्मकथन को देखा जा सकता है- ‘डरा हुआ महानायक पैदल चलता है, टीवी वालों को बुलाता है. दिखता है टीवी पर कि वह दिखना चाहता टी वी पर, समाचार-पत्रों में कि होनेवाली बहूके कुंडली के मांगलिक दोष निवारण के लिए मांगता है कि बेटे की सगाई अब न टूट जाय कि जिससे इश्क किया था, वो तो नहीं मिली लेकिन जिसने इश्क किया था सल्लू से, विवेक से वो अरेंज होने के बाद बनी रहे.’ प्रश्न किया जाना चाहिए कि वह कथानायक जो अपने जातिगत अस्मिता बोध को लेकर लगातार चैतन्य है वही एक स्त्री का संदर्भ आते ही इतना बेपरवाह कैसे हो जाता है?नहीं, यह महज लापरवाही नहीं, उसके भीतर कहीं गहरे बैठी वह पुरुष वृत्ति है जो स्त्रियों को न सिर्फ दोयम दर्जे का नागरिक समझती है बल्कि उस पर संपत्ति की तरह अपना हक भी जताती है.
अव्वल तो यह कि यह प्रसंग ही कहानी में गैरजरूरी है और दूसरी बात यह कि एक खास अस्मिता विमर्श के जागरूक प्रहरी को दूसरे वंचित समूह की अस्मिता के प्रति भी उतना ही चैतन्य होना चाहिए.
अस्मिता विमर्श की दृष्टि से कहानी का अंत विशेष चर्चा की मांग करता है. डांस रियलिटि शो देखने के बाद आकाश के दफ्तर का एक चतुर्थवर्गीय कर्मचारी गुलाब एरिया मैनेजर के कहने पर उसे को बुला लाता है. वहाँ जा जाकर उसे पता चलता है कि देश को दूसरी आज़ादी मिल गई है जिसे सेलिब्रेट करने वह बाहर जाना चाहता है लेकिन उसकी कार स्टार्ट नहीं हो रही अतः वह चाहता है कि दोनों उसकी कार को धक्का देकर स्टार्ट करा दें. आकाश यह कहते हुये गाड़ी को धक्का देने से इंकार करता है कि ‘कार मैं भी चला लेता हूँ, स्टार्ट मैं ही करता हूँ’. कहानी इस बात के संकेत देती है कि अपनी जातीय अस्मिताबोध से प्रेरित हो कर ही आकाश कार को धक्का देने से इंकार करता है. किसी को उसकी जाति के कारण कमतर या हीन समझे जाने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध जरूरी है. पर एक सवाल जो यहाँ मेरे मन में उठता है, वह यह है कि एरिया मैनेजर ने कार को धक्का लगाने केलिए उसे क्यों कहा एक सवर्ण होने के नाते या बॉस होने के नाते? कहानी में एरिया मैनेजर और गुलाब दोनों की जाति का उल्लेख नहीं है.
कल्पना कीजिये कि आकाश ओहदे में ऊंचा होता तो क्या उसका एरिया मैनेजर उससे ऐसा कह पाता? शायद नहीं. मतलब यह कि इस प्रसंग में एरिया मैनेजर की श्रेष्ठता ग्रंथि उसके वर्ग बोध से संचालित है न कि जाति बोध से. शोषण वर्ग के नाम पर हो या जाति के नाम पर दोनों का प्रतिरोध जरूरी है और होना भी चाहिए. लेकिन वर्ग आधारित शोषण को जाति आधारित शोषण में रिड्यूस क्योंकिया जाय?यहाँ इस बात का भी उल्लेख जरूरी है कि एरिया मैनेजर के प्रति आकाश के गुस्सा का असली कारण अपने लिए उसके द्वारा अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाना है –‘अरे वो नालायक भूरिया कहाँ है?उसकी तल्ख आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. लगा जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे भी समझता है. तभी तो इतनी बेअदबी, इतने वाहियात ढंग से बोला.’‘जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे  भी समझता है’ इस कंडिका पर गौर किया जाना चाहिए.  इसका मतलब तो यह है कि आकाश को इससे कोई एतराज नहीं है कि बॉस गुलाब को क्या समझता है, उसे ऐतराज इस बात से है कि उसे वैसा ही क्यों समझ रहा है. क्या पूरी कहानी में जातिगत अस्मिताबोध की जो चिंता आकाश को बेचैन किए दे रही थी, वह नकली है? या यूं कहें कि वह खुद एक वर्गीय उच्चता बोध से ग्रस्त है.
राजेन्द्र यादव 

आकाश के चरित्र के इन अंतर्विरोधों और एरिया मैनेजर की वर्गीय श्रेष्ठता ग्रंथि को नजरअंदाज करते हुये कहानी के अंत पर जातीय अस्मिताबोध को आरोपित किया जाना इस कहानी के विमर्श को कमजोर करता है. जातीय अस्मिताबोध की बात अनुचित नहीं, पर इसके लिए कहानी के चरित्रों को अलग तरीके से विकसित किए जाने की जरूरत थी. चरित्र विकास के वर्तमान स्वरूप को यथावत रखना था तो क्या ही अच्छा होता कि यह कहानी जातीय अस्मिताबोध के प्रति अपनी चिंता जाहिर करने के समानान्तर उसके इन अंतर्विरोधों को भी उजागर करती!
इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि इसके जटिल भाषा-विन्यास तथा कहन और क्राफ्ट की उन कुछ असावधानियों की चर्चा न की जाये जिसका इशारा इस आलेख के आरंभ में किया गया था. जिन लोगों ने कैलाश वानखेड़े की अन्य कहानियाँ पढ़ रखी हैं वे उनके जटिल भाषा-विन्यास से परिचित हैं. लेकिन मैं जिम्मेवारी के साथ कहना चाहता हूँ कि यह जटिलता उनकी इधर की कहानियों में बढ़ी है. कथानक की बहुपरतीय संश्लिष्टता के निर्वाह के लिए  भाषा का जटिल होना जरूरी नहीं होता. कुछ तो प्रयोग और कुछ भाषाई अशुद्धियाँ दोनों मिलकर पाठ को दुरूह बनाते हैं. नतीजतन भाषा में निहित भावों को ठीक-ठीक समझने के लिए यह कहानी पाठकों से बहुत सतर्क और सावधान पाठ का मांग करती हैं. इस आलेख में उद्धृत विवेच्य कहानी के अंशों में भी कुछ हद तक इसे महसूस किया जा सकता है. एक-एक शब्द को बहुत ध्यान से पढ़ना होता है नहीं तो ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी’ के तर्ज पर पाठ के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बना रहता है. आकाश का मित्र जिसे आधी कहानी में प्रेमशंकर बताया गया है आधे के बाद जयशंकर हो जाता है. ऐसी असावधानियाँ भी पाठ में दिक्कतें पैदा करती हैं. कैलाश और ‘हंस’ दोनों को ऐसी भूलों के प्रति भविष्य में सावधान रहने की जरूरत है.
जैसा कि पहले उल्लेख हुआ है कि यह कहानी एक प्रेम कहानी की तरह शुरू होती है, जहां आकाश अपनी महिला मित्र के चले जाने से बहुत बेचैन और व्याकुल है. हर आहट में उसे उसकी ही आहट सुनाई पड़ती है. कहानी के पूर्वार्ध में जल्दी-जल्दी और बाद में अपेक्षाकृत कुछ देर से उसकी आहटों की गूंज कहानी में मौजूद रहती है. लेकिन जैसे-जैसे कहानी में आरोपित विमर्श का शोर बढ़ता है उसकी आहटें कहानी से पूरी तरह गायब हो जाती हैं. नतीजतन समय, समाज, जाति, अस्मिता आदि की सार्थक उपस्थितिके बावजूद कहानी अपूर्ण रह जाती है. कहानी के आखिरी हिस्से में आकाश के महिला मित्र के चरित्र की कोई तार्किक परिणति कहानी को मुकम्मल बना सकती थी. कहानियों से विमर्श खड़ा हो यह तो जरूरी है लेकिन विमर्श का पीछा करते हुये कहानी का हाथ से छूट जाना कहानी और कहानीकार दोनों के लिए चिंताजनक है.

कैलाश वानखेड़े एक समर्थ कथाकार हैं. राजेन्द्र यादव हंस कथा-सम्मान ने उनकी जिम्मेवारियों को और बढ़ा दिया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बढ़ी हुयी जिम्मेदारियों का अहसास उनके कथाकार को भविष्य में और निखारेगा.  
________________
राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी विंध्यनगर, जिला- सिंगरौली 486 885 (म. प्र.)
मोबाईल- 09425823033 ईमेल –brakesh1110@gmail.com


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