संभवतः यही वजह है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के आते-आते हर प्रतिरोध एक विराट शून्य में जाता नज़र आने लगा और यह शून्य ही था कि जिसके धरातल पर तिरछी इमारतों का एक युग स्थापित किया गया. दुनिया के एक हिस्से में लोगों ने एक बार फिर धरती की शक्ल को बदलने की कोशिशें की. एक पीढ़ी आई जिसने यह घोषणा की कि वह अतीत और भविष्य से मुक्त महज़ वर्तमान के लिए जीना चाहती है. और वर्तमान भी कितना, महज़ क्षण भर का. इस तरह युगों में बदलने वाली दुनिया के विषय में यह भ्रम रचा गया कि दुनिया अब हर क्षण में बदल रही है. हर क्षण आगे बढ़ रही. आबादियों का एक रेला पीछे छूटता नज़र आता. लेकिन उत्तराधुनिकता के धूपी चश्मे में उनके स्याह चेहरों को नज़रंदाज़ करना आसन था, किया गया.
तीसरी दुनिया में वक्त के पहिये को रोके रखने के लिए जरुरी था कि विकसित देशों में तर्कहीनता की एक नई संस्कृति विकसित की जाए. यही उत्तराधुनिकता की संस्कृति का आधार था.
लेकिन अठारहवीं सदी के आखिरी दशक में यह तार्किकता उन सामंती मूल्यों के समक्ष एक बड़ी बात थी. सामन्ती संस्कृति शोषण की प्रक्रिया को विस्तारित कर सकने में इसलिए भी सक्षम थी क्योंकि लोगों के विवेक में समय की कोई वास्तविक गणना मौजूद ही नहीं थी. हम यह भी कह सकते है कि लोगों की चेतना के निर्माण में समय की गति का विशेष महत्व नहीं था. ऐसे में कांट का समय का इस कदर पाबन्द होना, यह बताता है कि परिवर्तन को लेकर वे किस हद तक सचेत थे. वे दर्शन को सिद्धांत और व्यवहार के द्वंद्व में देखने की कोशिश कर रहे थे. एक तरह से फ्रेंच क्रांति के निष्कर्षों का सैद्धान्तिकरण. उन्होंने और उनके बाद के दार्शनिकों ने जिस दर्शन की बुनियाद रखी उसे हम जर्मन आदर्शवाद के रूप में जानते हैं.
चिंतन की एक व्यवस्थित प्रणाली, जिसके अंतर्गत इन सभी को समेटा जा सके की खोज हो और इसे दर्शन के मुख्य उद्देश्य के रूप में देखा जाए. इसी संदर्भ में कांट की कोशिश यह थी कि वे एक ऐसे केंद्रीय सूत्र की तलाश कर सके जिसके अनुरूप इन तमाम शाखाओं को समेटते हुए किसी भी वस्तु की समुचित दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की जाए. यह एक नई परिकल्पना थी.
मनुष्य की चेतना को अधिक संगत और सम्यक बनाने की कोशिश, सौन्दर्य के नये बोध को रचने की कोशिश. हम यह कह सकते हैं कि जर्मन आदर्शवादियों ने एक ऐसे आदर्श की परिकल्पना को रचा जिसके दायरे में दुनिया के अधिकांश लोगों के विवेक को समाहित करना संभव हो सका. पहली बार दुनिया के विषय में यथार्थ और आदर्श की साझा जमीन की तलाश संभव हुई. मनुष्यता की मुक्ति के लिए एक नये स्वप्न की रचना संभव हुई . इस समूचे दार्शनिक अंतर्द्वंद्व की उपलब्धि थी, उन्नीसवीं सदी में मार्क्स का चिंतन.
हीगेल का महत्व यह था कि उन्होंने दुनिया को देखने के द्वंद्वात्मक नज़रिए को केंद्रीय नज़रिए में बदल दिया. यह भविष्य की दुनिया को समझने के लिहाज़ से एक बड़ी उपलब्धि थी. कांट की तार्किकता और हीगेल के द्वंद्ववाद ने दुनिया को बदल दिया. दुनिया के अबूझ प्रश्नों को अब दैवीय कहकर ठुकराया नहीं जा सकता था. मनुष्य की प्रश्नाकुलता और जिज्ञासा ने दुनिया की पुनर्रचना कर दी, यह कोई साधारण परिघटना नहीं थी.यह मनुष्यता के मध्यकाल से आधुनिक युग में प्रवेश करने की कुंजी साबित हुई.
लेकिन अब भी एक आयाम यह था कि इस आधुनिक ज्ञान, जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता का उद्देश्य क्या है? क्या इस नये और आधुनिक मनुष्य से एक नये समाज की रचना की जा सकती है? क्या व्यक्ति के लिए अनिवार्य ये स्वतंत्रता, समानता और न्याय किन्हीं सामाजिक स्वतंत्रता, न्याय और समानता के आधार स्तम्भ बन सकते हैं? क्या समाज समग्र तौर पर इन आदर्शों को अपने भीतर समाहित कर सकता है? अगर नहीं तो ये सब महज़ एक कोरे आदर्श में बदलकर रह जायेंगे.
इस प्रश्न का उत्तर उन्नीसवीं सदी के मध्य मार्क्स ने दिया. मार्क्स ने स्वतंत्रता, समानता और न्याय की सामाजिक पृष्ठभूमि की तलाश वर्ग संघर्ष की चेतना में की. मार्क्स ने इस बात को सामने रखा कि आखिर दुनिया को देखने का हमारा क्रांतिकारी नजरिया क्या हो?
व्यक्ति से समाज की अवधारणा दरअसल वर्गीय चेतना के रूपांतरण की अवधारणा है. इसलिए यह जरुरी है कि वर्ग चेतना से समाज को क्रांतिकारी समाज में बदल दिया जाए. जर्मन आदर्शवाद की बहस का समापन करते हुए मार्क्स ने कहा कि सवाल दुनिया की व्याख्या का नहीं बल्कि सवाल है दुनिया को बदलने का और दुनिया के इस परिवर्तन में सर्वहारा की भूमिका निर्णायक होगी .मार्क्स ने दुनिया को बदलने के लिए दर्शन को क्रांति के दर्शन में बदलने का प्रयत्न किया. मार्क्स ने समाज की अवधारणा को वर्गीय दृष्टिकोण में बदल दिया. मार्क्स ने इस बात पर विशेष बल दिया कि समरसता का समाज वर्ग संघर्ष के रास्ते ही निर्मित होगा. मार्क्स ने यह भी भविष्यवाणी की कि विकसित पूंजीवादी देशों में सर्वहारा क्रांति का नेतृत्व करेगा और उसे अंजाम तक पहुंचाएगा.
यहाँ से एक नये इतिहास का पाठ आरम्भ हुआ. यूरोप का ज्ञान, ताकत के इतिहास में तब्दील होने लगा. पश्चिम ने पूरब को गढ़ना शुरू किया. वहां की संस्कृति, समाज और जीवन शैली की नई व्याख्याएं आरम्भ हुई. इस बात को बार –बार प्रमाणित करने की कोशिशें की गयी कि पूरब में आधुनिकता तभी आ सकती है जब पश्चिम उसमे निर्णायक भूमिका अदा करे. यह निर्णायक भूमिका क्या थी? यह थी पूरब में साम्राज्य की स्थापना. जिसे उन्नीसवीं और बीसवीं सदी ने साम्राज्यवादी क्रूरता के रूप में देखा.
यूरोप ने स्वतंत्रता, समानता और न्याय की जो परिकल्पना रची, क्या वह उनके साम्राज्यवादी मंसूबों से नहीं टकराई? यह प्रश्न बीसवीं सदी के तमाम दर्शिनिकों के लिए सबसे जरुरी प्रश्न था कि आखिर अपने लिए स्वंत्रता समानता और न्याय के लिए संघर्ष करने वाला आधुनिक यूरोप दूसरों की स्वतंत्रता, समानता और न्याय की राह में स्वयं ही बाधा किस तरह बन गया? आखिर यूरोपीय नवजागरण का एशिया और अफ्रीका के देशों में निर्मित साम्राज्यवाद से क्या सम्बन्ध था? एशिया और अफ्रीका के साम्राज्यवादी संघर्ष में यूरोप की जनता ने क्यों स्वयं को शामिल नहीं किया? आखिर स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना वैश्विक क्यों नहीं बन सकी?
ज्ञान मुक्ति की ओर नहीं वर्चस्व और ताकत की ओर ले जाता है. यही वह ताकत की चेतना थी जिसने उन्नीसवीं सदी में साम्राज्यवाद को अनिवार्य बना दिया. अगर हम साम्राज्यवाद की अवधारणा को फ़्रांसीसी क्रांति के विस्तार के रूप में देखें तो क्या वह एक असफल क्रान्ति नहीं ठहरती? मनुष्यता के जिन मूल्यों का उसने संधान किया, वह इतने क्षणिक और आत्मकेंद्रित क्यों साबित हुए? यूरोप का ‘आत्म’ शेष दुनिया की मनुष्यता के नकार को क्यों प्रश्रय देता है? ये जरुरी प्रश्न थे. हिंदी में रामविलास शर्माने साम्राज्यवाद की अवधारणा की खूब व्याख्या की है, लेकिन वे इन प्रश्नों से नहीं टकराते. वे साम्राज्यवाद की समूची परिकल्पना को राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व तक सीमित कर देखते हैं.वे साम्राज्यवादी वर्चस्व की चेतना की पड़ताल ज्ञान की अवधारणा में नहीं करते हैं.
गांधी के महत्व को अमूमन इसलिए स्वीकार किया जाता है कि उन्होंने साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में सत्य और अहिंसा को निर्णायक बना दिया. गांधी के विषय में ये बातें सही थी परन्तु गांधी का महत्व इसलिए भी था कि उन्होंने पश्चिम के प्रबोधन के मूल्यों को अस्वीकार कर दिया. उन्होंने साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष को पश्चिम की चेतना के विरुद्ध संघर्ष में बदल दिया. उनका अस्वीकार उस वर्चस्व का अस्वीकार था जो ज्ञानोदय युग की परम्परा के भीतर से विकसित हुई थी. गांधी आत्म-विस्तार की बात करते हैं.
वे एक ऐसे ‘आत्म’ की तलाश करते है जिसमें विश्व के हर मनुष्य के लिए स्थान सुनिश्चित किया जा सके. वे उस ज्ञान को नकारते हैं जिसमें किसी की छाती पर पैर रख खड़े होने की तमीज विकसित की जाती है. गांधी द्वारा आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिया गया आत्मनिर्भरता का सिद्धांत यूरोप के अति उत्पादन की अवधारणा को नकारता है. गांधी सीमित साधनों में जीवन बसर करने के सिद्धांत की बात इसलिए भी करते हैं ताकि अंतिम आदमी तक अनिवार्य जरूरतों की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके. गांधी उपभोग को अतिरिक्त की बजाय एक नैतिक उपभोग में बदलने का सामूहिक दर्शन विकसित करते हैं.
यूरोप की जनता का उत्पादन और उपभोग के बीच का अनुपात एशिया और अफ्रीका की जनता के मुकाबले काफी भिन्न था. साम्राज्यवाद की प्रक्रिया ने सामान्य लोगों से जरुरत के लायक उपभोग का अधिकार भी छीन लिया. उन्नीसवीं सदी जहाँ एक ओर यूरोप में अकूत सम्पदा के संचयन का गवाह बना वहीँ एशिया और अफ्रीका ने भुखमरी और अकाल को बार-बार झेला. इन परिस्थितियों में एशिया-अफ्रीका के देशों के सामान्य जन विलगाव की स्थिति में पहुँच गये. वहां का उच्च वर्ग बहुत तेज़ी से यूरोपीय प्रभाव में ढलने लगा. आज भी जब हम एशियाई और अफ़्रीकी मुल्कों के सामान्य जन की संस्कृति से यूरोप की तुलना करते हैं तो हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ के लोगों ने वर्चस्व की संस्कृति को यूरोप की संस्कृति के रूप में पहचाना है.
उन्होंने शासक वर्ग को यूरोप मान लिया. यह चेतना किसी न किसी रूप में आज भी इन मुल्कों में कायम है. साम्राज्यवाद का बाहरी शोर भले वर्तमान में नज़र न आता हो लेकिन आज भी यहाँ के शासक वर्ग की चेतना साम्राज्यवादी ही है. यह समाज के हर हिस्से में मौजूद है. अगर किसी को किसी पर रौब ग़ालिब करना हो तो वह सामान्य हिंदी से एकदम टूटी फूटी अंग्रेजी में चला आता है. यह साबित करता है कि एशिया-अफ्रीका के सामान्य जन के लिए आज भी औपनिवेशिक संस्कृति से निर्णायक संघर्ष करना शेष है.
हेबरमास के अनुसार प्रबोधन में वर्चस्व के मूल्य पहले से मौजूद नहीं थे. उन मूल्यों को विज्ञान और तकनीक के द्वारा उत्तरोत्तर विकसित किया गया. प्रबोधन ने व्यक्ति की चेतना को सामाजिक मुक्ति की अवधारणा से जोड़ा. समाज के भीतर सतत् आलोचनात्मकता का विकास हुआ. निजता की बहुलता से सामाजिक यथार्थ का निर्माण हुआ. ये यथार्थ अपने मूल में सत्ता के साथ एक तनाव रचते थे. इस तरह सतत् आलोचनात्मकता की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति की चेतना समाज के साथ एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध बनाती थी. लेकिन विज्ञान और तकनीक ने वैयक्तिक तार्किकता को तकनीकी तार्किकता में बदल दिया. यही वह बिंदु है जहाँ प्रबोधन के मूल्यों को वर्चस्व के मूल्यों में रूपांतरित कर दिया गया. द्वंद्वात्मकता की रचनात्मक भूमिका नष्ट होने लगी और एडोर्नो के शब्दों में द्वंद्वात्मकता नकारात्मक भूमिका अदा करने लगी.
यह कम दिलचस्प नहीं है कि जिन यंत्रों के द्वारा उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में मनुष्य ने प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने की कोशिशें की, वे ही यंत्र उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ तक आते –आते मनुष्य पर वर्चस्व कायम करने लगते हैं.
उन्नीसवीं सदी में साम्राज्यवादी लूट से जितनी सम्पदा यूरोप ने अर्जित की उसका अधिकांश हिस्सा उसने दो विश्वयुद्धों में नष्ट भी कर दिया. लेकिन सवाल सम्पदा के नष्ट होने भर का नहीं था. सवाल था कि इन युद्धों के अनुभवों ने मनुष्य को अधिक क्रूर और हिंसक बना दिया.
यह बर्बरता 1928 की आर्थिक मंदी के बाद और वीभत्स रूप धारण करती है. समाज के मूल में मौजूद स्वंत्रता और न्याय की अवधारणा कमजोर होने लगती है. क्या जर्मनी में हिटलर का उदय महज़ एक इत्तेफाक भर था? क्या सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक परिदृश्य ने हिटलर के आगमन को अनिवार्य नहीं बना दिया था? उन्नीसवीं सदी में जिस वर्चस्व का आरम्भ साम्राज्यवादी नृशंसता के रूप में हुआ था क्या हिटलर का आगमन उसकी निर्णायक परिणति नहीं थी? सबसे अहम सवाल यह कि आखिर जर्मनी की जनता ने हिटलर के आगमन का समर्थन क्यों किया? क्या यह ठीक उसी क्रम की पुनरावृत्ति नहीं थी जिसके तहत यूरोप की जनता ने एशियाई-अफ़्रीकी देशों में न सिर्फ साम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया बल्कि वे इस प्रक्रिया का हिस्सा भी बने. फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के लिए सबसे बड़ी पहेली जनता की अवधारणा थी. वर्चस्व की अवधारणा ने जनता की समूची अवधारणा को ही बदल दिया था. प्रतिरोध की संस्कृति और जन संस्कृति के बीच विकसित हो रही फांक को समझे बगैर बीसवीं सदी को नहीं समझा जा सकता था.
फूको तमाम संस्थाओं जैसे कि विश्वविद्यालय, अस्पताल, न्यायालय, कारावास आदि की संरचना में मौजूद समाज की अवधारणा और इन अवधारणाओंके तहत निर्मित होने वाले मनुष्य को रेखांकित करते हैं. फूको इस बात को सामने रखते हैं कि बीसवीं सदी में तमाम संस्थाओं के मध्य्यम से एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण किया जा रहा है जो न सिर्फ दमन की बाहरी शक्तियों से घिरा हुआ है बल्कि वह स्वयं दमन की प्रक्रिया का अंग बन चुका है. संस्थाओं की चेतना उसके भीतर प्रविष्ट हो चुकी है. उन्होंने उसे भीतर से जकड़ लिया है. उसपर हर वक्त न सिर्फ बाहरी संस्थाएं निगरानी रख रही हैं, बल्कि वह खुद स्वयं पर निगरानी रख रहा है. इस नई स्थति ने उसे पहले से अधिक ग़ुलाम बना दिया है. सवाल है ऐसे में मुक्ति की क्या कोई अवधारणा बची है.
तो क्या यह अंत की अवधारणा इसी निराशा से जन्मी है? फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने समाधान के सरलीकरण की तलाश की बजाय विश्लेषणों के आयामों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया. फूको के काम को फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों द्वारा किये गये कार्यों के समानांतर देखा जा सकता है. यह दिलचस्प है कि फूको द्वारा निकाले गये कई निष्कर्ष फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों द्वारा निकाले गये निष्कर्षों से मिलते हैं. लेकिन दोनों के चिंतन की प्रक्रिया भिन्न है. यह भिन्नता बीसवीं सदी के मध्य फ्रेंच और जर्मन पद्धत्ति के बीच दर्शन की भिन्नता भी है.
इतिहास का संघर्ष वर्तमान के दमन से किस तरह जुड़ जाता है? क्या यह इतिहास की क्रमिकता की वजह से है? क्या इतिहास की शक्तियां मनुष्य को हर बार बेबस और लाचार बना देती है? आखिर उस इतिहास का अर्थ ही क्या है, जो अंततः एक दमन में बदल जाता है? क्या हम इतिहास से मुक्त होके मनुष्य की परिकल्पना रच सकते हैं?
वह अपने वर्तमान को एक ऐसे अंधे मोड़ पर पाता है जहाँ उसकी चेतना में देश और काल गायब है. उसकी नियति युद्ध में मारे गये लोगों से भी बदत्तर है, उसे लगातर जीते हुए मरना होगा. वह महसूस कर रहा था कि इस जीवन में जीने लायक उसके पास कुछ भी बचा नहीं रह गया है. एक ठंडी दीवार पर अपना सीना चिपकाये वह अपनी धडकन की प्रतिध्वनियों को सुन रहा है. वक्त उसके लिए बस इतना ही रह गया है.
उपभोग की संस्कृति और कल्याणकारी राज्य की सुविधाओं ने क्रांतिकारी स्थितियों को अमूर्त बना दिया है. लालच और उपभोग ने उनके अवचेतन को बदलना आरम्भ कर दिया है.कम्युनिष्ट पार्टियों ने इन परिवर्तनों का ठोस अवलोकन किया हो, ऐसा नज़र नहीं आता .इसका परिणाम यह हुआ कि वे मार्क्स के इस निष्कर्ष से ही विमुख हो गयी कि सवाल दुनिया को बदलने का है. दुनिया बदल रही थी लेकिन यह बदलाव एकायामी था. किसी किस्म की मुक्कमिल क्रांतिकारी चेतना के न होने से कम्युनिष्ट पार्टियों से जुड़े लोगों को गहरे नैतिक अंतर्विरोधों से गुजरना पड़ा. कहना न होगा कि यह क्रम आज भी जारी है. मार्क्सवादी व्याख्याओं ने दुनिया को ठोस और मूर्त साबित किया था. इस मूर्तन के मूल में श्रम की अवधारणा थी. 60’ के दशक के पश्चात् एक ऐसी दुनिया की परिकल्पना विकसित की गयी जिसमें श्रम का अमूर्तन किया जा सके.
दुनिया को प्रकट तौर पर अधिक वायवीय बनाने की कोशिशें हुई.हत्याओं को दुर्घटनाओं की तरह प्रस्तुत किया गया. असुरक्षा के बोध को मनुष्य की चेतना का स्थायी भाव बनाने की कोशिशें हुई. मनुष्य के रूप में अस्तित्वान होने का अर्थ महज़ उपभोग की क्षमता के तौर पर निर्धारित कर दिया गया.बाज़ार के रूप में एक नई चेतना विकसित की गयी. समाज में व्यक्ति की पहचान महज़ एक उपभोगकर्ता के तौर पर निर्धारित कर दी गयी. वस्तुओं के क्रम और उनके निर्माण को शिक्षा और ज्ञान के श्रोत के रूप में विकसित किया गया.मनुष्य की समस्त ज्ञानात्मक संवेदनाओं को कोरी भावुकता के रूप में नकार दिया गया.फ्रेंच समाजशास्त्री बौद्रिया इन स्थितियों की पहचान करते हैं. श्रमविहीन उत्पादन से एक नये युग का आरम्भ होता है.
इसके पश्चात् हम पर वस्तुओं को खरीदने का दबाव बनाया जाता है. यह दबाव कहीं और से नहीं हमारे भीतर आरोपित सूचनाओं के माध्यम से विकसित होता है. इन दबावों को हम स्वाभाविक मानने लगते हैं क्योंकि हम इन्हें अपने भीतर से विकसित हुआ पाते हैं. दरअसल सूचना माध्यमों ने वर्चस्व की समुची प्रक्रिया को अप्रत्यक्ष बना दिया है. यह एक नई स्थिति है, जिसे किसी भी अर्थ में प्रतिरोध के पारम्परिक तरीकों द्वारा नहीं समझा जा सकता. न ही उनकी क्रमिकता में इन्हें ठीक व्याख्यायित किया जा सकता है.
यह बाज़ार उस बाज़ार से बहुत भिन्न है जिसे हमने विनिमय की संस्कृति के रूप में हजारो वर्षों में विकसित किया था. इसी संस्कृति से सामुदायिकता की संस्कृति विकसित हुई थी. इस अर्थ में बाज़ार की संस्कृति एकायामी नहीं थी. वह अपने में एक द्वंद्व की चेतना को आत्मसात किये हुए थी. लेकिन यह नया बाज़ार इन संदर्भों में भिन्न है. इस बाज़ार से मुक्ति की अवधारणा का रास्ता, इसके विश्लेषण से गुजरता है. आने वाले कठिन दिनों में मनुष्य को कई निर्णायक मुठभेड़ों से गुजरना है.
ज्ञान की ताकत का विकल्प आत्म का विस्तार हो सकता है. लेकिन साथ ही उसके लिए यह जरुरी है कि इस लगातार बदलते हुए आत्म की पहचान की जाए. क्या हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत में मौजूद गतिशीलता की अवधारणा को समाज के संदर्भ में फिर से व्याख्यायित करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती?
anmishra27@gmail.com
___
अच्युतानंद मिश्र को यहाँ और पढ़ें
1. माइकल फूको
2. बौद्रिला
3.हर्बर्ट मार्क्युज़
4. एडोर्नो
5. जुरगेन हेबरमास
6.विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग