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Home » मैं कहता आँखिन देखी : अरुण कमल

मैं कहता आँखिन देखी : अरुण कमल

अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार                                                                         सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार . (अपनी केवल धार) देखो हत्यारे को मिलता राजपाट सम्मान जिनके मुहं में कौर मांस का उनको मगही पान. (सबूत) मैं जल चुका कागज़ जिस पर दौड़ती जा रही आखिरी लाल चिंगारी. (पुतली में संसार) अरुण […]

by arun dev
January 22, 2011
in बातचीत
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अपना क्या है इस जीवन में

सब तो लिया उधार                                                                        
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार .
(अपनी केवल धार)
देखो हत्यारे को मिलता राजपाट सम्मान
जिनके मुहं में कौर मांस का उनको मगही पान.
(सबूत)
मैं जल चुका कागज़ जिस पर दौड़ती जा रही आखिरी लाल चिंगारी.
(पुतली में संसार)
अरुण कमल औसत जीवन के वैभव के कवि हैं. मितभाषी कवि. भाषिक जिम्मेदारी के निर्वहन के साथ-साथ गहरी जीवन दृष्टि और पक्षधर दृष्टिकोण के कवि. उनकी कविताओं में एक तरह की शास्त्रीय उद्दात्ता है..
अशोक वाजपई ने ठीक ही लिखा है.. सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन और आत्मीयता.
यह आत्मीयता कविता के बाहर भी है. बात और व्यवहार में भी. निवेदिता ने कविता के विस्तृत फलक पर बड़ी तैयारी से बात की है.

अरुण कमल से निवेदिता की बातचीत 

आपके लिए कविता के क्या मायने हैं ?

अंग्रेजी के कवि डब्लू.बी.यीट्स ने कहा है कि जब संघर्ष खुद से होता है तो कविता और जब बाहर से होता है तो राजनीति का जन्म होता है. इसमें मैं यह जोड़ना जरूरी समझता हॅूं कि व्यक्ति का खुद या स्वयं भी दूसरों से, बाहर से, समाज से, पूरी सृष्टि से मिलते-जुलते, लड़ते-झगड़ते बनता है . इसलिए कविता भी अंततः सब कुछ के बारे में होती है. वैसे इसकी कोई भी परिभाषा संभव नहीं है,  क्योंकि कविता को पहचानना ज्यादा जरूरी है जो ज्यादा कठिन है. मैं नहीं बता सकता कि इन पंक्तियों में ऐसा क्या है जो मुझे और मेरे जैसे पाठकों-श्रोताओं को परेशान कर देता है – उड़ जाएगा हंसा अकेला  या डासत ही गयी बीति निसा सब कबहूँ न नाथ नींद भरि सोयो  या आज तो बधाई बाजे मंदिर महर में  या चलु पग गंगा-जमुना तीर  या फिर मुझे दीद-ए-तर याद आया . मेरे लिए कविता का मतलब है भाषा की रचना से मिलने वाला सुख जो कहीं और से नहीं मिल सकता. बहुत कुछ गूंगे के लिए गुड़ के स्वाद की तरह या जैसे हम सबके लिए गुड़ या हरी मिर्च के स्वाद की तरह, हममें से कोई ठीक-ठीक बता सकता है इस स्वाद को ?
1980 के दशक में कविता अपने नये रूप में दिखाई पड़ती है. वह वामपंथी ताकतों की वापसी का दौर था. पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, पंजाब समेत कई राज्य वामपंथ आन्दोलन के प्रभाव में थे. उस दौर की कविताओं में भी उसका प्रभाव दिखता है. ठीक उसी समय राजेश जोशी, उदय प्रकाश और आपके कविताओं के संसार में दाखिल होना एक ताजी हवा की तरह था. अशोक वाजपेयी उस दौर को कविता की वापसी का दौर कहते हैं. 80 से 2011 के  लगभग 30 वर्षों के अन्तराल में कविताएं कहां पहुंची है? क्या सोवियत संघ के विघटन और मार्क्सवाद  के धाराशायी होने का असर कविताओं पर भी पड़ा? किस तरह के बदलाव से आपकी पीढ़ी जूझती रही ?

इसमें पहली बात तो मैं यह कह दॅूं, निवेदिता जी कि कविता और राजनीति में यानी दोनों में होने वाले परिवर्तनों में कोई सीधा और समानुपातिक रिश्ता नहीं होता. सन् 1980 में भी नहीं था और आज भी नहीं है. आज जब सोवियत संघ नहीं है तो क्या हुआ. सन् 1917 के पहले भी तो नहीं था. तब भी प्रतिरोध की कविता थी और आज भी है और आगे भी रहेगी. दूसरी बात यह कि सोवियत संघ नहीं है, लेकिन चीन, वियतनाम, क्यूबा तो है. पूरी दुनिया में पूंजीवाद विरोधी आंदोलन हो रहे हैं, नेपाल में भी बड़ा बदलाव आया और भारत में भी लोग संघर्ष कर रहे हैं. हो सकता है हम हार जाएँ कोई बात नहीं. जैसा कि ब्रेख्त ने कहा है, अंधेरे समय में भी गीत होंगे, अंधेरे के गीत . और एक प्रसिद्ध कहावत है कि मिनर्वा (जो पश्चिम में ज्ञान की देवी है) का उल्लू (जो मिनवी का वाहन है) अॅंधेरे में ही अपनी उड़ान भरता है. तो कविता किसी अनुकूल समय का इंतजार नहीं करती. तीसरी बात यह कि कविता तो मनुष्य और सम्पूर्ण जीवन के सारे अनुभवों, सुख-दुख, ट्रेजेडी सबके बारे में होती है. उसका काम ही है उन सबों को दर्ज करना. यह काम भी कभी नहीं रूकता. इसीलिए हर काल में कवि-कलाकार होते ही हैं, उनका होना कोई रोक नहीं सकता नहीं तो इस जीवन का दस्तावेज कौन तैयार करेगा? कविता की कभी वापसी नहीं होती, क्योंकि कविता कभी कहीं लुप्त नहीं होती. हाँ  उसके कार्यभार बदलते रहते हैं जैसे पिछले दो दशक की कविता पहले की तुलना में अधिक स्याह, उदास और अंतर्मुखी हुई है. ज्यादा गंभीर. साथ ही अनेक नयी लयों का समावेश हुआ है. जीवन के अनेकानेक नये-नये प्रसंग कविता में आये हैं. आज नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,  धूमिल सरीखी मुखर कविताएँ कम हुई है, हालांकि प्रतिरोध उतना ही  संश्लिष्ट और तीव्र है.
आपके समय की कविताओं में एक नया रचना संसार से पाठकों का परिचय हुआ. एक खास तरह की भाषा और शिल्प जिसमें घरेलूपन और आम आदमी के संघर्ष की गूंज सुनाई पड़ती है. क्या यह नहीं लगता है कि आप अपने मुहावरे में कैद हो गए हैं. क्या उन मुहावरों से निकलने की कोशिशें हुई है?
फिर मुझे कहना जरूरी लग रहा है कि जहां  तक मेरा सवाल है मेरा कभी कोई रूढ़ मुहावरा नहीं रहा. जिन्होंने मेरी किताबें पढ़ने का कष्ट गंवारा किया है उनमें से लगभग सबने हर किताब के अलग-अलग स्वभाव को रेखांकित किया है. दुख की बात है कि लोग आम तौर पर ध्यान से पढ़ते नहीं . कवि तो अपने रास्ते पर रास्ता बदलते चलता चला जाता है और कुछ लोग उसे उसके पुराने, पहले घर के नाम से पुकारते रहते हैं.
आप कविता संसार में एक वैचारिक धार के साथ दाखिल हुए.  एक सृजनशील व्यक्ति के लिए  किसी खास विचारधारा के साथ रचना प्रक्रिया में शामिल होना कैसा रहता है.

इस बारे में मैंने अक्सर यह बात कही है और एक बार फिर कह रहा हॅूं (वैसे मेरे साक्षात्कारों की किताब कथोपकथन, जो 2009 में छपी है, इस पर विस्तृत चर्चा है) कि एक कवि के लिए विचारधारा से बड़ी चीज है दर्शन और दर्शन से भी बड़ी चीज है जीवन-दृष्टि जो प्रत्येक कवि की अपनी, निजी एवं स्वअर्जित होती है. विचारधारा तो मुक्तिबोध और एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता  की एक ही है, लेकिन दोनों दो अलग-अलग व्यक्तित्व है. यह तो  जीवन दृष्टि है प्रतिरोध की जो भौतिकवादी दर्शन, द्वन्द्वात्मक मार्क्सवाद  सब कुछ के संयोग से बनी है, लेकिन उससे भी अधिक वह जीवन के अनुभवों से सृजित है. विचारधाराएँ सूख भी सकती है, लेकिन जीवन का वृक्ष हरा रहता है, जैसाकि गोयथे ने कहा था.
आपकी पीढ़ी के  उदय प्रकाश हों या राजेश जोशी उन्होंने कविताओं  के अलावा दूसरी विधाओं में भी बेहतरीन काम किया. उन्होंने अभिव्यक्ति के नये रास्ते तलाशे. उदय प्रकाश और असगर वजाहत ने फिल्में भी बनायी. आपने कविताओं के अलावा दूसरे माध्यमों की तलाश क्यों नहीं की ? खासकर जब साहित्य में नाटकों की कमी रही है. आप साहित्य के दूसरे अभिव्यक्ति रूपों से क्यों नहीं जुड़े ?


आपने सही देखा निवेदता जी कि मैंने न तो कहानी लिखी न उपन्यास, न चित्र बनाये न फिल्में, न नाटक किया न संगीत. जबकि दूसरों ने ये सब किया. इसमें मुख्य बात यह है कि मेरी शक्ति सीमित है. प्रतिभा भी कम है. मैं तो इतना सुस्त और अहदी हॅूं कि मुझे अपने काम के लिए यह दिन-रात के चैबीस घंटे भी कम लगते हैं. ठीक से कविता लिखने के लिए भी मुझे एक-दो उम्र और चाहिए.


कविता बनने की क्या प्रक्रिया है ? मुक्तिबोध के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी कविताओं पर पांच-पांच वर्ष काम करते थे. आप की रचना प्रक्रिया…  

किसी ने हुसेन से पूछा था आपकी क्या उम्र होगी. उन्होंने कहा था पांच हजार साल यानी जितनी खुद आदमी की उम्र है. तो मुझे भी लगता है कि कविता लिखने में मुझे उतना ही वक्त लगता है जितनी मेरी उम्र है या जितनी आदम की उम्र है .
यह तो एक बात हुई. लेकिन सच बात यह है कि कविता लिखने का काम लगातार चलता रहता है.  शादी-विवाह की तरह इसका  कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता. नींद में भी यह काम जारी रहता है. मैं कई दफा लिखता, काटता-पीटता हॅूं. कई बार छपने के बाद भी. कई बार भूल भी जाता हॅूं. फिर कभी अचानक देखने पर जोड़-घटाव करके काम चलता है. कविता बनाने का काम रोटी बनाने या मेज़ बनाने से भिन्न है. रोटी या मेज एक बार बन गयी तो बन गयी. आपने हुनर सीख ली. लेकिन कविता हर बार फिर से बनानी पड़ती है. कभी-कभी कई-कई टुकड़े आप जमा करते जाते हैं और फिर एक दिन जोड़-जाड़ कर एक ढांचा तैयार करते हैं, बहुत कुछ तेलचट्टे के शरीर की तरह. कई बार एक ही पत्थर के टुकड़े को तराश कर एक अक्स निकाल लेंते हैं. वैसे कविता तत्काल जरूरत के मुताबिक भी तैयार हो सकती है जैसा कि कई बार शेक्सपियर ने किया और महान कविता रची.
आप अंग्रेजी के प्रध्यापक रहे हैं और हिन्दी में कविताएं लिखते  हैं, नुकसान या फायदा


निवेदिता जी, अर्ज कर दॅूं कि मैं अंग्रेजी बहुत कम जानता हॅूं. पढ़ाने का मौका भी ज्यादा नहीं मिला. कक्षा में विद्यार्थी कम ही आते हैं. बाकी लोगों का कहा भी ईमानदारी पूर्वक मानना है कि मेरी अंग्रेजी सातवीं जमात की अंग्रेजी है. इसलिए समझिए कि मैं केवल हिन्दी ही जानता हॅूं, वो भी कामचलाऊ. इसलिए मुझे न तो कोई फायदा हुआ न नुकसान. थोड़ी बहुत भोजपुरी और मगही जरूरत जानता हॅूं जिससे मेरी हिन्दी को शायद कुछ फायदा हुआ. वैसे एक बात जरूर लगती है कि चाहे जितनी भी भाषाएं आप जाने कविता करते वक्त आप सब कुछ भूल कर केवल अपनी भाषा-मातृभाषा को ही जानते हैं – माँ का दूध पीते बच्चे की तरह दत्तचित्र, तन्मय. तुलसीदास और निराला संस्कृत के महान् पंडित थे, टी0एस0 इलियट फ्रेंच के, लेकिन कविता केवल अपनी भाषा में की. वैसे, ऐसे कवि भी हो सकते हैं कार्तिकेय की तरह जिन्हें छह माताएं दूध पिलायें.
अंग्रेजी ने आपको विश्व साहित्य के नजदीक आने का मौका दिया. वहां किस तरह का बदलाव देखते हैं.

अंग्रेजी के जरिए आप लगभग पूरी दुनिया के साहित्य को जान सकते हैं. समकालीन साहित्य में कविता का अनुवाद अब बहुत कम हो रहा है. उपन्यास का ज्यादा, बहुत ज्यादा. इसका कारण बाजार है. कविता में आठवें-नवें दशक (पिछली शताब्दी) में  पूर्वी यूरोप की कविता, खासकर पोलिश एंव हंगेरियायी तथा कुछ रूसी या चेक के अनुवाद ज्यादा आए जो बिल्कुल नयी तरह की कविता थी, नेरूदा या ब्रेख्त या हिकमत से भिन्न. इस कविता ने हमसबों को प्रभावित किया. फिर दक्षिणी अमेरिका के उपन्यासों तथा कविताओं ने भी बहुत प्रभावित किया.
पूरे विश्व साहित्य में ब्योरों की अधिकता, सूक्ष्म निरीक्षण तथा जीवन की संलिप्तता का बोध बढ़ा है, सत्ता के प्रति विरोध तथा पूंजीवाद के मानवविरोधी चरित्र पर आक्रमण बढ़ा है. साथ ही मिथकों, स्वप्नों, दास्तानों और लोकगाथाओं के प्रति आकर्षक और जादुई-यथार्थ की निर्मित की आकांक्षा बढ़ी है. आज मेरे प्रिय कवियों में जन्यू हर्बत  और शिंबोर्स्का  और मिस्त्राल और आए छीङ है. कलाकारों में मार्केस और बोर्खेस.
क्या कविताओं के लिए जगह कम हुई है .

नहीं. पहले भी जगह कम थी, आज भी कम है. लेकिन एक जगह है जरूर . दुनियां के इतने बड़े नक्शें में हिंद महासागर के एक छोटे से टापू जितनी जगह. कम ही लोग कविता पढ़ने है. उपन्यास भी तो कम ही लोग पढ़ते हैं . और दर्शन ? और शुद्ध विज्ञान ? और गणित? क्या कोई आज के किसी दार्शनिक का नाम बता सकता है? आज की पूंजीवादी दुनिया में हर गंभीर बात के लिए जगह बहुत कम है. मैं तो किसी को किसानों की आत्महत्या के बारे में बात करते नहीं सुनता. क्रिकेटरों और फिल्म अदाकारों और सटोरियों की बात तो सब करते हैं. पूंजीवाद केवल एक अर्थव्यवस्था नहीं है . वह एक पूर्ण मानव-विरोधी, अच्छाई-विरोधी, हिस्र व्यवस्था है .
किताबों के साथ पाठकों के रिश्ते ..

किताबें आज बहुत बिकती है. अगर नहीं बिकती तो इतने प्रकाशक कहां से होते ? इतने मेले क्यों लगते ? लोग भी खरीदते हैं. अब जब खाना ही मोहाल हो तो किताब कौन खरीदेगा ?
नई तकनिकी माध्यम से परहेज …

परहेज तो नहीं है . लेकिन ये सब महंगे माध्यम है . जब तक आप एक को सीखते हैं तब तक वह पुराना पड़ जाता है. इसलिए कलम-कागज ही मेरे को ज्यादा मुफीद बैठता है .
इस  दौर में भाषा की शुद्धता…..  


भाषा कभी भी शुद्ध नहीं रही. किसी ने आज तक शुद्ध भाषा न देखी न सुनी. जैसे ही मेरे जूठे गंदे मुहं से एक पवित्र शब्द निकलता है वह अपवित्र हो जाता है . मुझे अंग्रेजी कवि जॉन डन की एक पंक्ति याद आती है – Nor chaste unless thou ravish me – जब तक तुम मुझे भोग न लो मैं पवित्र  नहीं होती . यही बात भाषा के साथ है. एक दिलचस्प वाकया सुनाता हॅूं . अभी तीन-चार साल पहले स्पेनी भाषा के वैयाकरणों का विश्व-सम्मेलन हुआ जिसमें आयोजकों ने आज के महानतम स्पेनी भाषा के उपन्यासगार मार्केस को भी बुलाया था. वैयाकरणों ने एक स्वर से मार्केस को बुलाने का विरोध यह कह कर दिया कि उसने स्पेनी भाषा को अशुद्ध  किया है. खैर ! हर बार जब आप रचते हैं तो भाषा को अपवित्र करते हैं ? शाद इसीलिए बच्चे के जन्म को भी सूतक माना जाता है कुछ समाजों में . फिर भी भाषा लगातार पवित्र बनी रहती है- Spending again what is already spent. (शेक्सपियर).
हिन्दी साहित्य से महिलाएं गायब दिखती है. क्या साहित्य में भी लैंगिक असमानता है ?

नहीं, महिलाएं गायब नहीं हो रही हैं, बल्कि पिछले दो दशकों में जितनी स्त्रियां  हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में जितनी बड़ी संख्या और प्रतिभा में सामने आयी है उतनी पहले कभी नहीं आयी थी. हिन्दी में तो कथा-साहित्य में कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, मैत्रेय पुष्पा, अलका सरावगी, चन्द्रकला, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, मधु कालिया आदि शीर्ष पर है और कविता में भी गगन गिल, अनामिका कात्यायनी नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल, सविता सिंह आदि अग्रणी स्थान रखती हैं. और मेरा सौभाग्य है कि अभी मैं एक स्त्री, लेखिका, विदुषी और पत्रकार से बात कर रहा हॅूं. आमीन !


अरूण कमल से मिलना वैसा ही है जैसे आप कविताओं के बीच से गुजर रहे हों. उनके भीतर कविताओं की एक बहुत बड़ी दुनिया है. कविता उनके जीवन के रेशे-रेशे में है जो जितनी बाहर है उससे कहीं ज्यादा उनके भीतर है.  मेरा रिश्ता उनमें सिर्फ एक पेशेवर पत्रकार का नहीं है मेरे लिए वे एक ऐसे इन्सान हैं जो आज भी मनुष्यता को बचाए रखने की मुहीम में शामिल है

.

अरुण कमल : १५-२-१९५४, रोहतास (बिहार)
अपनी केवल धार (१९८०), सबूत (१९८९), नये इलाके में (१९९६), पुतली में संसार (२००४) कविता–संग्रह
आलोचना समय (१९९९), आलोचना –पुस्तक
वियतनामी कवि तो हू, मायकोवस्की की आत्मकथा  का अनुवाद
अंग्रेजी में वॉयसेज नाम से भारतीय युवा कविता के अनुवाद की किताब
सम्मान – भारतभूषण अग्रवाल सम्मान (१९८०)
सोवियत भूमि नेहरु पुरस्कार (१९८९)
श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (१९९०)
रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९६)
शमशेर सम्मान (१९९७)
साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९९८ )
देशी –विदेशी भाषाओँ में कविताएँ अनूदित.
पटना विश्वविद्यालय में अंगेजी विभाग में.
ई-पता : arunkamal@gmail.com



निवेदिता : पत्रकार,एक्टिविस्ट,कवयित्री

Tags: अरुण कमल
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