विमल कुमार से अरुण देव की बातचीत.
कवि – रचनाकार विमल कुमार के जीवन के 50 वर्ष, हिंदी की सृजनात्मकता के भी वर्ष हैं. विमल कुमार बड़े अपनापन से अपने साथिओं और सहयात्रियों को अपनी बातचीत में लाते हैं. अपने से अधिक उन्हें अपने मित्रों की सुधि है.
उनकी ही एक कविता का अंश उनके लिए
‘सबसे बड़ी बात थी
कि आज की तारीख में
उसके पास अपनी एक भाषा थी
जिसकी चमक में
शब्द कौंधते थे
हीरे की तरह.’
कहना ना होगा इस हीरे की चमक उनके आत्मसंघर्ष से इधर और भी आलोकित हुई है.
\”कविता पढ़ना-लिखना एक तरह से ‘प्रेम’ करने जैसा सुख देता रहा है मुझे\”
दिल्ली में हिंदी के कवि का रहना कैसा है ? क्या यह किसी और महानगर में कवि के रहने से अलग है?
दिल्ली देश की राजधानी ही नहीं, बल्कि वह एक गरीब देश में ‘सत्ता’ और ‘समृद्धि’ का प्रतीक भी है। दिल्ली पूरे देश को संचालित करती है। लेकिन दिल्ली एक सांस्कृतिक शहर भी है पर उस अर्थ में नहीं जिस तरह कभी इलाहाबाद या बनारस जैसे शहर होते थे। दरअसल संस्कृति की सत्ता का भी केंद्र है दिल्ली। दिल्ली में एक कवि का रहना, अकेलेपन के अंधेरे में छटपटाने जैसा है। लेखकों का एक जमघट जरूर लगा रहता है, पर आपसी संवाद और आत्मीयता की गहरी कमी है। महानगर का चरित्र ही कुछ ऐसा है। भागदौड़, रफ़्तार की जिन्दगी में समय का नितान्त अभाव, फिर दूरियां… इसलिए लेखकगण या तो किसी सभा गोष्ठी में मिलते हैं या फिर किसी लेखक की मृत्यु पर। कस्बों और छोटे शहरों का जीवन अपेक्षाकृत अधिक सरल तथा तनावरहित है। लेकिन पिछले कुछ सालों में हुए बदलाव से छोटे कस्बे, गांव और शहर भी प्रभावित हो रहे हैं। सूचना क्रांति तथा बाज़ार ने भी जीवन को काफ़ी बदल दिया है। हिन्दी का कवि भी इसी में घिसटता हुआ जीता है पर आज भारतीय आदमी की भी यही हालत है। इसलिए हिन्दी के कवि का जीवन आम भारतीय नागरिक के जीवन से अलग नहीं होना चाहिए। पर पेशगत मजबूरियों के कारण कवि-लेखकों का समाज के विभिन्न पात्रों, चरित्रों से उस तरह का संपर्क नहीं है, जिस तरह कभी निराला, अमृतलाल नागर, या रेणु का हुआ करता था। यह एक तरह की क्षति है। विकास का साइड इफेक्ट है, जिसकी त्रासदी कवि भी झेल रहा है.
जिस गणतंत्र में जनपथ को राजपथ काटता हो वहां 50 पार का निहत्था विमल कुमार क्या सोचता रहता है?
इस गणतंत्र में निहत्था केवल विमल कुमार नहीं है। वे तमाम वंचित और हाशिये के लोग निहत्थे हैं जो जनपथ और राजपथ से गुजरते हैं, पर अब जनपथ और राजपथ का प्रतीक भी आपस में गड़मड हो गया है। ‘जनपथ’ भी सत्ता का केंद्र है। 12, जनपथ से हम सब वाकिफ हैं। यानी जो लोग ‘जन’ की राजनीति करते हैं, आम आदमी के साथ हाथ की राजनीति करते हैं, वे भी सत्ता के केंद्र में हैं। दरअसल भारतीय लोकतंत्र का ‘अपहरण’ कर लिया गया है। ‘राजपथ’ और ‘जनपथ’ की राजनीति करनेवालों के अलावा मीडिया, उद्योग समूह और नौकरशाह की भी उसमें भूमिका है। पूरा तंत्र ताकत के खेल से संचालित होता है। फूको ने उसे सत्ता-विमर्श का नाम दिया था। नोम चाम्सकी तथा न्गुगी ने भी भाषा के जरिये इस विमर्श को रेखांकित किया है.
यह निहत्था कवि संसद की रिपोर्टिंग करने जाता है और जनपथ, राजपथ के अलावा संसद मार्ग से भी रोज गुजरता है। उसे कई बार धूमिल का काव्य सग्रह ‘संसद से सड़क’ तक याद आता है, पर हाल के वर्षों में तो यह संसदीय लोकतंत्र भी मज़ाक बनकर रह गया है। यह निहत्था कवि तो संसद की कार्यवाही कवर करते-करते बोर भी हो गया है। उसे कोई रास्ता ही सूझ नहीं रहा है। वामपंथी आंदोलन के निस्तेज हो जाने तथा बाज़ार की ताक़तों के बढ़ जाने के बाद से तथा मीडिया के ‘माया जाल’ से हमारी लड़ाई काफी जटिल हो गई है। सबसे बड़ी बात है कि हम ‘नायकविहीन’ दौर में जी रहे हैं। जहां विचारधारा का अस्तित्व भी गहरे संकट में हैं। यह एक संक्रमण काल है.
सपने में एक औरत से बातचीत’ कविता पर १९८७ का भारत भूषण अग्रवाल सम्मान देते हुए निर्णायक विष्णु खरे का मत था-“‘सपने में एक औरत से बातचीत’ इसलिए एक विलक्षण रचना है कि उसमें एक ओर फंतासी की रहस्यमयता और जटिलता की रूढि को तोड़ा गया है तो दूसरी ओर सपने की रुमानियत और वायवीयता को. कविता सुपरिचित भारतीय निम्न मध्यवर्गीय प्रेम-प्रसंग जैसे दृश्य से शुरू होती है लेकिन धीरे-धीरे, जीवन और समाज में प्रवेश कर जाती है. फिर जो मानवीय छुअन उसमें पैदा होती है वह कई कोनों और छोरों तक पहुचती है. संबंध कथा परिवार कथा में बदलती हुई, सपने की बातचीत यथार्थ की एक हमेशा उपस्थित स्मृति बन जाती है”.
वही विष्णु खरे, उर्वर-प्रदेश-३ (२००९) की भूमिका में लिखते हैं-“लेकिन कुल मिलाकर आपको जब आज के महत्वपूर्ण कवियों के नाम याद आते हैं तो स्वत: स्फूर्त ढंग से विमल कुमार उसमें नहीं होते.उनकी कविता में उच्चावचन और झोल औसत से ज्यादा है.”
कुछ कहेंगे ? विष्णु खरे की उम्मीदों पर ऐसा लगता है खरे साबित नहीं हुए है.आप.
हो सकता है मैं उनकी उम्मीदों पर खरा न साबित हुआ हूँ. मैं अभी यात्रा में हूँ, मंजिल तक नहीं पंहुचा हूँ. मेरी आने वाली कविताओं से हो सकता है उनके विचार बदले. वैसे भी हमेशा अच्छी कविताएँ नहीं लिखीं जाती है. खुद विष्णु खरे की अर्जुन सिंह पर लिखीं कविताएँ उस स्तर की नहीं है जिसके लिए विष्णु खरे जाने जाते हैं.
हो सकता है मैं उनकी उम्मीदों पर खरा न साबित हुआ हूँ. मैं अभी यात्रा में हूँ, मंजिल तक नहीं पंहुचा हूँ. मेरी आने वाली कविताओं से हो सकता है उनके विचार बदले. वैसे भी हमेशा अच्छी कविताएँ नहीं लिखीं जाती है. खुद विष्णु खरे की अर्जुन सिंह पर लिखीं कविताएँ उस स्तर की नहीं है जिसके लिए विष्णु खरे जाने जाते हैं.
हिंदी की कविता के पास आप उम्मीद से जाते है ? कविता को आप से अभी भी उम्मीद रखनी चाहिए ?.
हिन्दी की कविता ने मुझ जैसे व्यक्ति को काफ़ी राहत दी है। कविता एक ऐसी शरणस्थली रही है, जहां वह हमें तनावरहित करती है, गहरा सुकून देती है। ‘प्रेम’ भी यही काम करता है। हिन्दी कविता पढ़ना-लिखना एक तरह से ‘प्रेम’ करने जैसा सुख देता रहा है मुझे। कविताओं ने जीने की उम्मीद भी है, एक सहारा दिया है। जाहिर है, कविता को भी हमसे उम्मीदें रही हैं, पर दुभाग्र्यपूर्ण है कि समकालीन हिन्दी कविता की उम्मीदें कविगण पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इसमें मैं भी शामिल हूं। दरअसल यह सारा संकट आधुनिकतावाद का है। आजादी के बाद हिन्दी कविता जिस तरह के ‘आधुनिकतावाद’ में फंस गई, वह भी एक कारण है। हिन्दी पट्टी में जिस तरह का सांस्कृतिक पिछड़ापन आया, वह भी एक कारण है। प्रतिष्ठानों और प्रकाशनगृहों की भी दिलचस्पी साहित्य के प्रचार-प्रसार में नहीं। मीडिया की भी रूचि नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया भी एक मंच हो सकता था, पर उसे राजनीति, फिल्म और क्रिकेट के अलावा फुर्सत ही नहीं है। स्कूल-कालेजों में अधिक से अधिक काव्य पाठ के कार्यक्रम हों तथा दूसरी भाषाओं के लोगों को भी इसमें जोड़ा जाए तो स्थिति बेहतर हो सकती है। कविगण को भी सोचना चाहिए कि वह किस भाषा, मुहावरे और किस रूपक में लिख रहे हैं? इस समय हिन्दी कविता, विलक्षणतावाद, उक्ति-वैचित्र्य ‘अति-बौद्धिकता’ की भी शिकार है। कविता में संवेदना तत्व अधिक घनीभूत होना चाहिए। उसमें एक आत्मसंघर्ष और तनाव भी होना चाहिए। कवि का आत्मसंघर्ष भी झलकना चाहिए। कविता केवल हुनरमंदी और कौशल से नहीं लिखी जाती, बल्कि वह गहरी वेदना से लिखी जाती है। आलोचाक और निर्णायक पहेलीनुमा गद्यात्यमक कविता को अधिक तरजीह दे रहे हैं.
अपने साथ के किन कविओं को आप बेहतर पाते है ?
मेरे साथ देवीप्रसाद मिश्र , कुमार अंबुज, अष्टभुज शुक्ल, हरीश चंद्र पांडे ने लिखना शुरू किया था। फिर पीछे-पीछे बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय भी आए। निर्मला गर्ग, अनामिका,सविता सिंह तथा कात्यायनी भी आईं। धीरे-धीरे 10-15 कवियों का एक समूह बन गया। सत्यपाल सहगल, लालटू, मोहन राणा, प्रमोद कौंसवाल, नवल शुक्ल जेसे अनेक साथी आगे आए। पर कई कवि धीरे-धीरे शिथिल पड़ते गए। देवी और अंबुज लगातार लिखते गए। उनकी एक पहचान बनी। बद्री की भी पहचान बनी। देवी और अंबुज ने समकालीन हिन्दी कविता को समृद्ध किया। देवी में एक गहरी बेचैनी और नवीन शिल्प के प्रति आग्रह नजर आता रहा है। वह चुस्त मुहावरे का कवि हैं और उसमें एक चमक है। अंबुज में जीवन और समाज को देखने-परखने की एक गंभीर दृष्टि है। वह शांत, स्थिर मन से चीजों को समग्रता में पकड़ते हैं। ये सभी कवि मुझसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार और बेहतर हैं। अनामिका, कात्यायनी तथा सविता ने भी समकालीन हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। राजेश जोशी, मंगलेश और अरूण कमल की पीढ़िी से इस पीढ़ी में कवियों की संख्या काफी है, पर सभी कवि अपने काव्य-कर्म के प्रति अधिक सचेत नहीं है। संजय चतुर्वेदी जैसा प्रतिभाशाली कवि चुप हो गया। मुझे इस बात का बहुत दुख है। इसमें साहित्य की राजनीति ने भी काम किया है। यह हर दौर में होता है। कुछ कवि आगे रह जाते हैं, तो कुछ पीछे छूट जाते हैं, पर सभी मुझसे बेहतर लिखते हैं। आशुतोष दूबे, निरंजन क्षेत्रिय, बोधिसत्व और एकांत की भी कविताएं पढ़ता रहा हूं.
नये कविओं को पढ़ते हैं ?. कुछ कहना चाहेंगे इनके लिए.
नए कवियों में मोहन कुमार डहेरिया, कुमार मुकुल, हरि मृदुल, मिथिलेश श्रीवास्तव, संजय कुंदन, प्रेम रंजन अनिमेष. अरुण देव, चेतन क्रांति,बसंत त्रिपाठी, नीलेश रघुवंशी, राकेश श्रीमाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव, अनीता वर्मा, रश्मि रेखा, पवन करण, के अलावा पंकज चैधरी, पंकज राग, अच्चुतानंद मिश्र, विमलेश, त्रिपाठी, तुषार धवल, रोहित प्रकाश, हरे प्रकाश तथा निर्मला पुतुल की भी कविताएं पढ़ता रहा हूं। पंकज राग की दिल्ली पर लिखी कविता पसंद है। शिरीष कुमार मौर्य, शैलेय आदि की भी कविताएं पढ़ी हैं। अब कविता-कहानी में काफी लोग आ गए। मैं खुद ही एक कवि नहीं बन पाया हूं, नए कवियों को क्या कहूंगा। मैं खुद भी नया कवि ही हूं। लेकिन एक बात है, आज कवियों तथा कहानीकारों की संख्या इतनी है कि सबकी पहचान नहीं बन पाती है। पत्रिकाओं को चाहिए कि वे लेखकों पर फोकस करें तथा अच्छी एवं बुरी रचना के फर्क को बताएं.
प्रिय कवि !
निराला’ मेरे प्रिय कवि हैं, क्योंकि उनमें विविधता है, आत्मसंघर्ष है, उनकी संघर्ष चेतना बनावटी नहीं है। अज्ञेय भी मुझे पसंद हैं। हालांकि हिन्दी में ‘अज्ञेय’ को वामपंथियों ने एक खलनायक की तरह पेश किया है। शमेशर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह जैसे कवियों से हमारे जैसे लोग सीखते रहते हैं। धर्मवीर भारती की कुछ कविताए पसंद हैं तो सवेश्वर दयाल सकसेना तथा कुछ गिरिजा कुमार माथुर की भी। लेकिन हिन्दी में कुछ कवियों को बट्टेखाते में डाल दिया गया। ‘तार सप्तक’ की परंपरा से काफ़ी कवि आए पर कुछ पीछे रह गए तथा कुछ छूट गए। साठ के दशक के बाद वेणु गोपाल, धूमिल और आलोक धन्वा की कविताएं मुझे पसंद रहीं। पहले वेणु गोपाल का भी बहुत नाम था। अक्षय उपाध्याय भी चर्चा में थे। बाद में राजेश जोशी काफी उभरे। राजेश, मंगलेश और अरूणकमल एक त्रयी बन गई। इब्बार रब्बी, विष्णु नागर तथा मनमोहन त्रयी से बाहर के कवि मान लिए गए। रब्बी में जो मौलिकता हैं, वह कम दिखाई देती है। वह उनके व्यक्तित्व में भी है। उदय प्रकाश का सुनो कारीगर काफी चर्चित हुआ पर वह कहानीकार के रूप में अधिक प्रतिष्ठि होते गए। नागर जी का पत्रकार एवं व्यंगाकार रूप कवि रूप से अधिक विकसित होता गया। विष्णु खरे ‘सबकी आवाज के पर्दे’ संग्रह के बाद नए रूप में आए और अपनी महत्वपूर्ण पहचान बनाई। उन्होंने कुछ शानदार तथा जानदार कविताएं लिखीं। असद जैदी के पहले संग्रह का मैं मुरीद था, पर बाद में वह अपने कवि कर्म को लेकर शिथिल पड़ गए।ज्ञानेंद्रपति और गिरधर राठी भी मुझे प्रिय हैं. प्रयाग शुक्ल भी हैं, पर वे तथाकथित मुख्यधारा से अलग हैं। अकविता के कई कवि दिल्ली में हैं, पर वे मुख्य धारा से अलग माने जाते हैं। इस बीच, लीलाधर मंडलोई ने भी हिन्दी कविताओं में नए अनुभवों की कविताएं लिखीं। विनोद दास ने भी कुछ अच्छी कविताएं लिखीं पर वे खुद अपने कवि रूप के प्रति सचेत नहीं हैं। गगन गिल का संग्रह एक दिन लोटेगी लड़की भी मुझे पसंद आया था। तेजी ग्रोवर की आरंभिक कविताएं भी अच्छी लगीं थीं। अशोक वाजपेयी का पहला कविता संग्रह मुझे पसंद है। चंद्रकांत देवताले, भगवत रावत विनय दुबे, नवीन सागर, राजेंद्र शर्मा को भी पढ़ता रहा हूं। नरेश सक्सेना मेरे प्रिय हैं। विनय दुबे भी अलग तरह के कवि थे। नवीन सागर मुझे बहुत प्रिय थे। वह मुझे बहुत स्नेह देते रहे। मनमोहन जैसे कवि ‘ग्रीनरूम’ में रहना पसंद करते हैं। ध्रुव शुक्ल और उदयन वाजपेयी की भी कई कविताएं मुझे पसंद रही हैं। मैं यह भी जानता हूं कि कविता को सार्थक होनी चाहिए। हिन्दी में काफी कुछ निरर्थक काव्य भी लिख गया। नीलाभ और वीरेन डंगवाल की कई कविताएं मुझे प्रिय हैं। दरअसल, मेरे लिए कोई एक कवि का नाम लेना मुश्किल है, बल्कि मैं कई कवियों की कई कविताएं पसंद करता हूं तो उसी कवि की कई कविताएं नापसंद भी करता हूं। मदन वात्स्यायान और रंजीत वर्मा भी मेरे प्रिय लोगों में रहे हैं.
कविता से परे … कुछ भी. जो अच्छा लगा हो इधर.
आलोचना और वैचारिक किताबे पसंद आती हैं. नामवर सिंह अभी भी आकर्षित करते हैं. मैनेजर पाण्डेय को पढ़ना अच्छा लगता है.उनमें परम्परा की अच्छी समझ है और वह नवजागरण के सवालों से बखूबी परिचित है. पुरुषोत्तम से बहुत उम्मीदें है. वह बहुत विचारोत्तेजक बोलते हैं. उनकी कबीर वाली किताब अभी पढ़ नहीं पाया हूँ, उसे पढ़ने की गहरी लालसा है. सुधीश पचौरी भूमंडलीकरण,बाज़ार,उत्तर आधुनिकता के अच्छे विचारक-टिप्पणीकार हैं. गोपेश्वर सिंह की नलिन विलोचन शर्मा पर आयी किताब मुझे अच्छी लगी. धर्मवीर को भी पढता हूँ..गहरा अध्ययन है पर अक्सर वह निम्न स्तरीय विवादों में उलझ जाते हैं. बहुत पूर्वाग्रह है उनके यहाँ.
मैं कविता के अलावा कहानियां भी पढ़ता हूं। कहानीकारों में उदय प्रकाश ख़ास पसन्द है.स्वयं प्रकाश,अखिलेश, मंजूर एहतेशाम अच्छे लगते हैं. इनकी कहानियोके स्तर तक अभी नये कहानीकार नहीं पहुच पाए हैं.इधर वंदना राग. प्रत्यक्षा सिन्हा, मनीषा कुलश्रेष्ठ तथा संजय कुंदन की कहानियां पढ़ीं। अच्छी लगीं। रवि बुले की भी एक कहानी अच्छी लगी है। गौरव सोलंकी ने भी मुझे आकृष्ट किया है। पर भाषा का खेल वह ज्यादा करते हैं। कुणाल सिंह के साथ और चंदन पांडेय से भी मेरी यही शिकायतें हैं। पर वे सभी प्रतिभाशाली हैं। प्रत्यक्षा में अनुभव की एक गजब चमक है। मनीषा में जीवन की ललक है। संजय में अकुलाहट, विरोध और विद्रोह तथा असंतोष की आग है। वंदना में भी जीवन की सहज सरल आकांक्षाएं हैं, जो मुझे काफी पसंद आई। अल्पना मिश्र की कहानियों को भी पढ़ा है। अभी सबके सभी संग्रह नहीं पढ़ पाया, इसलिए कोई राय नहीं बना पाया हूं। नए लोगों में काफी लोग कुछ अच्छा लिख रहे हैं, पर परिदृश्य पर से कूड़ा-कचरा भी साफ होना चाहिए। उमाशंकर चैधरी, कविता और ज्योति चावला की भी कहानियां पढ़ीं। नए लोगों को पढ़ना हमेशा इच्छा लगता है।
कोई पछतावा … जो परेशान करता रहा हो..
पछतावा तो वैसे नहीं है, पर दुख है कि कइयों पर विश्वास किया, पर उन लोगों ने उसे तोड़ दिया। मैं मानता हूं कि कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं होता। वह समय के दबाव में जीता है। जिस तरह की सामाजिक व्यवस्था है और उसकी परवरिश हुई है, उससे वह संचालित होता है। इसलिए मेरे लोगों के साथ खट्टे-मीठे अनुभव भी हैं। लेकिन मैं लोगों को प्यार करता हूं। अपने दुश्मनों को भी अगर कोई है तो। मुझे रूठे लोगों को मनाना भी पसंद है, बशर्ते उसे बुरा न लगता हो.
कोईं स्वीकरोक्ति...
‘प्रेम’ का न होना यही स्वीकोरिक्त है। जीवन में तीन-चार लोगों को चाहा। अभी भी चाहता हूं-पर प्रेम को अव्यक्त ही रहने देना चाहता हूं। ‘प्रेम’ की असफलता रचना के लिए बड़ी उर्वर भूमि है। अगर प्रेम हुआ होता तो शायद नहीं लिख पाता। ‘प्रेम’ की खोज में ही लिखता रहा हूं। यह ‘प्रेम’ किसी से भी मिले चाहे किसी पुरुष दोस्त से या महिला मित्र से।प्रेम से सुंदर कोई चीज नहीं जीवन में।विश्वास और ईमानदारी बहुत बड़ी चीज़ है मनुष्य के लिए। पत्नी का विश्वास और साथ मिला है। इसके लिए शुक्रगुजार हूं। जिसने मेरे साथ पांच मिनट भी प्रेमपूर्वक गुजारा है, उसका मैं आभारी हूं।
क्या कर रहे हैं? और अभी क्या करने के मंसूबे हैं..
अभी-अभी एक उपन्यास लिखा है, जो छप गया- चाँद @आसमान.काम । दो-तीन उपन्यास और लिखना चाहता हूं। 9 दिसंबर, 1959 से 5 दिसंबर के बीच लिखी प्रेम कविताओं का एक संग्रह तैयार करना चाहता हूं। एक काव्य संग्रह भी निकालना चाहता हूं। दो-तीन और किताबों पाईपलाइन में है। पत्रकारिता संबंधी टिप्पणियों का एक और संग्रह। कुछ कहानी भी लिखना चाहता हूं। समय का अभाव है। साधन का अभाव है। लिखने को काफी कुछ है इस समय पर सबसे बड़ी इच्छा है जीवन को। जीने की ललक बहुत बढ़ती जा रही है। किसी बच्चे और स्त्री की हंसी देखना चाहता हूं। किसी की उदासी कम करना चाहता हूं। मुल्क की हालत से काफ़ी तकलीफ़ होती है। आखिर हम किस देश में रह रहे हैं, जहां इतनी गरीबी, इतनी बेरोजगारी और इतना अन्याय तथा दमन है। संवेदना और प्रेम का इतना अभाव, सोचा भी नहीं था कभी। जब से बाजार का हमला हुआ है, संवेदनाएं मरती जा रही हैं.
विमल कुमार:(९-१२-१९६०) गंगाढ़ी, बक्सर
तीन कविता संग्रह प्रकाशित- सपने में एक औरत से बातचीत (१९९२), यह मुखौटा किसका है (२००२) और पानी का दुखड़ा(२००९) भारत भूषण अग्रवाल(१९८७), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान,शरद बिल्लौरे सम्मान ,हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
कहानी संग्रह कालगर्ल (२०१०)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)
पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता