हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री और अभी हाल ही में अनुवाद के लिए स्वीडन द्वारा नाईट की उपाधि से सम्मानित तेजी ग्रोवर का आज जन्म दिन है. समालोचन की तरफ से जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई.
वाणी प्रकाशन उनके संग्रह ‘मैत्री’ का पुनर्प्रकाशन कर रहा है. इस संग्रह से कुछ कविताएँ और अशोक वाजपेयी की टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है.
“बहुत सारी कविता सदियों से जगहों के बारे में होती आयी है. पर ऐसी भी कविताएँ हुई हैं जो जगह बनाती है: अपनी जगह रचती है. वह जगह कहीं और नहीं होती न ही जानी-पहचानी जगहों से मिलती-जुलती है. वह सिर्फ़ कविता में होती है.
तेजी ग्रोवर के इस नये कविता-संग्रह की कविताएँ मिलकर ऐसी ही जगह गढ़ती हैं. उनकी चित्रमयता, अंतर्ध्वनियां और अनुगूँजें इधर-उधर की होते हुए भी उस जगह का सत्यापन हैं जो कविता से रची गयी है. “दुख”, “अनगढ़ मृत्यु”, “सियाह पत्थर पर शब्द”, “कठपुतली की आँख”, “क्षिप्रा की सतह पर काई”, “हरा झोंका”, “श्वेताम्बरी”, “लौकी-हरा गिरगिट”, “शब्दों की आँच”, “एक बच्चे का सा उठ जाता मन”, “देहरियों पर नाचती हुई ओस की रोशनी”, “सूर्य की जगह कोयले”, “सितारों के बीच अवकाश” आदि मिलकर और अलग-अलग भी उस जगह को रोशन करते हैं जो कविता ही बना सकती है.
इन कविताओं में परिष्कार और परिपक्वता है. भाषा निरलंकार है, चित्रमय लेकिन दिगम्बर. उसमें संयम भी है और अधिक न कहने का संकोच भी. यह ऐसी कविता है जो संगीत की तरह मद्धिम लय में अपना लोक गढ़ती है और आपको धीरे-धीरे घेरती है पर ऐसे कि आप आक्रान्त न हों. वह भी बचे और आप भी बचें. उसकी मैत्री यही है कि वह मुक्त करती है क्योंकि वह मुक्त है. उसकी हिचकिचाती सी विवक्षा उसकी मुक्ति है.
तेजी ग्रोवर की ये कविताएँ आज लिखी जा रही ज़्यादातर हिन्दी कविता से बिलकुल अलग हैं. यह अलगाव उन्हें एक ऐसी आभा देता है जो नाटकीय नहीं शान्त और मन्द्र है, लगभग मौन जैसा. तेजी की कविता आपको चकाचौंध और चीख-पुकार से हल्के से हाथ पकड़कर उधर ले जाती है जहाँ कुछ मौन है, कुछ शब्द हैं और कुछ ऐसी जगह जहाँ आप शायद ही पहले गये हों.“
अशोक वाजपेयी
तेजी ग्रोवर की कविताएँ
One does not know [in Jacobsen’s poetry]
when the verbal weave finishes and when the space begins.
दूर से कोई देखता है कठपुतली की आँख से
रात में गए हुओं के चिह्न उभरते हैं
एक ही झाड़ी जलकर ख़ाक हुई है
एक ही पतरिंगे के पंख झड़े हैं
एक ही पाँव का निशान है पानी के पास
प्यास लगती है
दूर से पता नहीं चलता, टीले के पार तक
किसे
वह अबूझ
पूछ-पूछ कर यात्री के पीछे जाती है
रोशनी हर जगह चहचहाने लगती है
और पक्षी चमकते हैं
जो गए हैं
वे गए हैं अपनी छाया में सोए
वे आँसुओं की तरह सूख कर गए हैं
संकेत में
कोई संकेत भी नहीं है
कठपुतली सो सकती है
सूर्य की हवा में
उनका जाना
कठपुतली की आँख में था
वे इतने रंगीन थे
कि कोई भी हरा सकता था उन्हें
इतने मोहक
कि उनके जाने का कोई पर्याय भी नहीं था
जिसे वे अपनी जगह भेज सकते थे
वे रख सकते थे, वे चाहते, तो अपने नृत्य को
जाने की जगह
वे एक आकार में
ठहर जाते
और अभिनय को तीर की तरह छोड़ देते
उनकी मृदुता
उनका भय
उनकी देह का स्वाँग, उनका प्रेम
कठपुतली की आँख में था
वह देखती है उन्हें
वे देखने देते हैं
वह निहार
उनके अंगों में प्रत्यक्ष है
और दर्पण में नहीं है
बहुत दूर तक कुत्ते एक गन्ध के पीछे घूरते हुए जाते हैं
हल्की-सी हवा में एक तलवार हिलती है
और हवा की एक तितली गिर जाती है
वह देखती हैं उन्हें
वे देखने देते हैं
वह निहार
उनके अंगों में प्रत्यक्ष है
और दर्पण में नहीं है
एक अकुलाहट में वे उठकर पानी पीते हैं
चन्द्रमा
झील से
अक़्स को खींच लेता है
बिम्ब के बिना रचना एक इच्छा थी
और इच्छा
अपने स्वभाव से बिम्ब के पीछे जाती थी
इस तरह
वे आए
और सरसराते हुए घूमने लगे यहाँ से वहाँ
वे धू-धूकर जलने लगे
और जलाने लगे
वे इतने मुखर हो गए
कि शान्त करना उन्हें
एक और रचना में व्यक्त होने लगा
फिर वे इतने शान्त
कि उठाने से भी उठते नहीं थे
फिर भी
दहकती रही अग्नि
सरसराहट
आती रही
वे बिम्ब ही थे
जिनसे और बिम्ब उपजते थे
कुछ और मिट जाते थे
उनसे निकलना
उनकी अति के बाद ही सम्भव होता
उनका तिरस्कार
उन्हें रचने की सामर्थ्य से
रचने की सामर्थ्य को रचते भी बिम्ब थे
मिटाते भी थे
वे करघे
जो सुख
और दुख को रचने
सामने रखे दिखाई देते थे
उन्हीं में
सुख और दुख का वास था
पूरे प्रान्त में
करघों के सिवा कोई बिम्ब नहीं थे
प्राण में
काँप-काँप जाती थीं उँगलियाँ
बारिश होने लगती है
कठपुतली की आँख में
अपने कुल को बचाने
चींटियाँ
दायरों में घूमने लगी हैं
दानों को बगराते हुए
वे पूस उठाते हैं
और खड़ी-खड़ी
बैठ जाती है एक चिता
कठपुतली की आँख में
कठपुतली के रंग उतर आए हैं
साँप की तरह
टकटकी लगाए
कोई एक इन्द्रधनुष-सा
तन जाता है दृश्य में
ग़ौर से देखो
तो कुछ नहीं है
कठपुतली की आँख में
कहानी बुझ गई थी
अलाव से उठने का शुऊर
किसी में दिखाई नहीं देता था
वे बैठे रहे
अपनी चादरों की गुलकारी को छूते हुए
अपने सोने के दाँतों से मुसकुराते
पौ फट रही थी
कठपुतली की आँख में
सूर्य की जगह
कोयले सुलग रहे थे
पगडण्डी के बीचों-बीच
पक्षियों की हड्डियाँ थीं
और सूर्य की धूप में
चमक रही थीं
उनका नाम लेने से वे उड़ते हुए सामने नहीं आते थे
उनके पैर कोमल थे
और गर्दन के रंगों से वे
चहचहाते फिरते थे वन में
अंडे ही अंडे थे
झाड़ियों के नीचे
हड्डियों में देखो
तो दुख दिखाई नहीं देता था
वे उठे
और पानी पीने से पहले
उन्होंने दीवार को सजा दिया
कठपुतली की आँख से
प्यास लगी थी उन्हें
जो दीवार से दिख रही थी
वे जल्दी में थे
और पानी को उनकी देह में
रास्ता नहीं मिल रहा था
उन्होंने पुतलियों को नचाया
कभी ऊपर कभी नीचे
पानी
किसी हड्डी की तरह तड़प रहा था
कठपुतली की आँख में
उसे भी नींद आती थी
कठपुतली की आँख को
लेकिन वह सोती नहीं थी
वह ज़िद थी
या धैर्य
कोई काम था उसे
या निष्काम थी वह
इसका पता लगाना कठिन था
कहीं नीचे
रँगो में हिलते हुए हाथ की तलवार में
कभी-कभी
पलक झपकने की आवाज़ आती थी
जिसे कठपुतली के कान से
वह सुन नहीं सकती थी
उसकी आँख से
कुछ नहीं बरसता था
कुछ नहीं
जो अनस्तित्व की तरह था
अनस्तित्व
जो इच्छा में
उतर आता था
वह रेत में
रेत पर
रेत के बिना
एक चिह्न था
जिसके खेल में
इतना रँग दिखाई देता था
कि वह भी डर जाती थी
जो कहने को
सिर्फ़ कठपुतली की आँख थी
रेत
तूफ़ान में थी
और
खुली हुई थी वह
जो कठपुतली की आँख थी
पनाह लेने
कई निर्गुणी आए
और चले गए
वे पक्षी
जिनकी आँख में रेत थी
वे भी पनाह लेने आए
घास
जो रेत में उगती थी
वह ओस
जो गिरती थी
तिनकों के हिलने से
और भी गिर जाती थी —
वह भी आई
वह धूप
जो ओस को पीती थी
उसे भी आना था
धूप की तरह
वह भी आई
और इस तरह
कोई अन्त नहीं था
कठपुतली की आँख में
उसे कुछ दिखाई नहीं देता था.
(शिव के शब्दमय शरीर के दर्शन)
आप रह भी तो नहीं सकते
अपने शब्दमय शरीर में
हमें ठीक से पढ़े बिना.
इकार और ईकार में
हमारे ही अक़्स हैं
जो आँसू उमड़ रहे हैं, वे हम ही हैं, दुखहारी,
कोई और नहीं है
सियाह पत्थरों पर
गूँज कहाँ है
श्वेताम्बरी के मुख में
उच्चारण निर्दोष नहीं है
न वह
जहाँ जल है
तारल्य नहीं है
हठ है
प्यास है
और, स्पष्टाक्षर,
यही हमें लिखना है
पशुपति!
उकार और ऊकार में
जिन अश्वों का रुदन आप श्रवण कर रहे हैं
वे नहीं हैं, प्रभो; भस्मशायी, वे नहीं हैं
सिर्फ़ उनकी प्यास है, महानाद,
वे नहीं हैं
इस भूखण्ड में
नैमिषारण्य के मौनी वृक्ष
तेल के कुँओं में दहक रहे हैं
यह अग्नि है
प्यास है, हव्यवाह,
और सूक्ष्म नहीं हैं हम, कम हैं, सुन नहीं सकते
सियाह पत्थरों के किनारे
देखें तो कितने फन हैं, सौन्दर्य-धर्मा,
रस के अभाव में
जिन्हें डस लिया गया है
जटाधारी!
अर्घ्य में हल्की सी फेनिल होती हुई वह अमल जलराशि
क्या नाम था उसका
इस पृष्ठभाग में
हमें क्यों थे कनेर, कर्णिकारप्रिय,
हमें क्यों थे सौन्दर्य के सहस्र फ़न
ये आभूषण हमें क्यों थे, व्याली
हमारे हृदयाकाश में
क्यों थे, विशालाक्ष,
आप कहाँ निकल आये थे.
सुखी! यह भी तुम्हारा नाम है
(अजातशत्रु शिव और दिव्य-ज्योति घाट, होशंगाबाद में बहती नर्मदा मैया की स्तुति में)
यह भी तुम्हारा नाम है
और अगर तुम्हें याद हो
सूक्ष्म भी तुम्हीं हो, प्रभो.
हे मदनदहनकारी!
यह देह
जो इस संसार में मुझ निरीह को है
मेरे पड़ोसी
मेरे मित्र
और मेरे इन दिनों के शत्रु को भी
क्या वही देह है
हे अर्धनारीश्वर!
हे परन्तप!
शत्रु-भाव रखने वाले को सन्ताप देते हो
और शत्रु भी तुम्हीं देते हो
जो मित्र हैं.
उन्हें भी, जो शत्रु हैं,
ऐसे ही शत्रु देते हो
जो मित्र हैं, हे अजातशत्रु!
हे भक्तवत्सल, हम मनुष्य हैं,
दुखहारी शब्द की ध्वनि करते हैं
और तुम्हारी ओर देखने लगते हैं.
हे नीलग्रीव, हमारी ग्रीवा कभी किस दिशा में
तारक समूहों के अभाव में, नक्षत्रविहीन अवकाश में
तुम्हें ढूँढ़ती है, हे व्यालाकल्प!
हम तुम्हारे ही सर्पों से बचते हुए
इस प्रपंच में उतर आये हैं
हे जटिल कलाधर!
वे कौन सी कलाएँ हैं जिनके लिए युद्ध रचा रहे हैं?
उतने विषधर भी नहीं हम कि सह सकते
मित्रों के मर्म तक अदृश्य हैं हमें
और उनके वध्य-स्थल ही दृश्य हैं
जिन पर उठ जाते हैं हमारे हाथ
और उचित कार्य का बोध मिट जाता है, हे स्पष्टाक्षर!
देवासुरमहामित्र!
हमारी शुभ्र आत्म-छवियाँ वे हाँक ले गये हैं जो शत्रु हैं
और अकम्पित हाथों से उन्हें बदल रहे हैं
जैसे वे मित्र हों.
उनकी शुभ्र आत्म-छवियाँ
हमारी शरण में आयी हैं, हे आश्रितवत्सल!
और हम उन्हें बदल रहे हैं,
और ज़ार-ज़ार रो रहे हैं, हे प्रसन्नात्मा,
कि साँझ के समय और कुछ नहीं था हमें, हे निरुपद्रव!
“तुमने जिन शिष्यों को उपदेश दिया है
उनमें कौन तुम्हारे समान है?
वे अधम शिष्य आज भी
अन्यान्य शास्त्रों में भटक रहे हैं”
कार्तिकेय से पूछे गये प्रश्न से
तुम्हारे ही पुराण से
ये पंक्तियाँ हम यहाँ लेकर बैठ गये हैं
उस जलराशि के पास
जिसके एक क्षीणाकायी बिम्ब के तट पर
तुम ले आये हो हमें, हे अस्थिधन्वा!
(शिव को समर्पित ऊपर की दो कविताएँ शिवपुराण के दो अध्यायों पर आधारित है: “भगवान शिव के शब्दमय शरीर के दर्शन” और “सहस्रनाम सूची”)(सभी पेंटिग तेजी के हैं)_______
तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक. आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हैं. इसके अलावा स्वीडी भाषा में 2019 में उनकी कविताओं का संचयन।
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वाणी फाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान (२०१९), स्वीडी शाही दम्पति द्वारा दी गयी Knight की उपाधि, रॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.
बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.
2016-17 के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
tejigrover@yahoo.co.in