(किताब) |
चर्चित कथाकार प्रवीण कुमार का दूसरा कहानी संग्रह ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ अभी-अभी ही राजपाल से प्रकाशित हुआ है. इसमें सात कहानियाँ शामिल हैं. इनमें से एक ‘सिद्ध पुरुष’ आप समालोचन पर भी पढ़ चुके हैं. इस संग्रह की विवेचना कर रहें हैं सत्यप्रकाश सिंह.
वास्को डी गामा की साइकिल: छिपाए गए दृश्यों की कहानियां
सत्यप्रकाश सिंह
ये देखे हुए दृश्यों की नहीं, छिपे और छिपाए गए दृश्यों की कहानियां हैं. वे दृश्य जिन्हें आँखों से नहीं भाषा से छिपाया जा रहा है. वास्को डी गामा की साइकिल’ जन-जनता-प्रजा से छिपाए गए दृश्यों की यात्रा है. एक देश की यात्रा. हिंदुस्तान की यात्रा. वैसे हिन्दुस्तान की बहुतेरी यात्राएं दर्ज हैं. बहुतों ने इसे खोजा है. विदेशी यात्रियों ने भी, राजाओं ने भी, व्यापारियों ने भी, यहाँ तक कि अपनी गुलामी को भुगतते देश के पहले प्रधानमंत्री ने भी. अगर किसी के खोजने की कहानी नहीं मिलती तो वो है जन,जनता अथवा प्रजा. जिसे राजा के साथ ही ‘प्रकृति’ ने बनाया था. राजाओं ने देश खोजा और शासन किया. प्रजा ने देश न खोजने की सजा पायी और शासित हुई. पाने की अनिवार्य शर्त है खोजना. ‘संग्रह’ की कहानियां, ‘देश को जन-जनता-प्रजा’ की निगाह से खोजे जाने का उपक्रम करती कहानियां हैं.
अपने किसी ‘प्रवचन’ में ओशो ने कहा था, ‘जानना है तो मानना छोड़ दो’, जानने के लिए जरुरी है कि जिसे जिस रूप में जानते-पहचानते हैं, उसे छोड़ और तोड़ दिया जाए. व्यक्ति के सहज-साधारण अनुभवों से अधिक ओजस्वी और कुछ भी नहीं है. न प्राप्त आदर्श, न मूल्य, न विचार और नाहीं मान्यताएं और धारणाएं. इनमें से कोई भी वर्तमान के अपने अनुभवों को अपदस्त करने जितना वजन नहीं रखता. और, जब-जब ये अनुभवों से वजनी रहे हैं, पूरी की पूरी पीढ़ियाँ अँधेरे में डूबती चली गई हैं. आज हम जिस ‘देश’ के नागरिक हैं, वो सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर ही नहीं अपितु राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर भी धारणाओं-मान्यताओं का द्वीप ज्यादा है. हरेक क्षेत्र पर ऐसी मान्यताएं काबिज हैं जिनके सामने अनुभव तो छोडिये जिन्दा लोग भी बौने नजर आने लगे हैं. विचारों की लडाई लड़ने वालों की निगाह से भी लोग कब छिटक गए, उन्हें खुद पता नहीं चला. परसेप्शन और इमेज आज के दौर के सबसे पैने अस्त्र हैं. व्यवस्था के भीतर न्यायधीश की हैसियत उन्हें प्राप्त हो चुकी है. अब उनके बल पर लोग तो क्या मुल्क के मुल्क मिटाए और लूटे जा सकते हैं.
धारणाएं और छवियाँ वैसे तो कोई बुरी चीज नहीं हैं. पर इधर के दशकों में इन्हें वैश्विक महाजनों और समाजार्थिक सवर्णों द्वारा, जिस तरह की व्यवस्थित भूमिकाओं में ढाला गया है, वो इन्हें अब हासिल सांस्कृतिक ‘सिद्धियों’ की तरह और बरतते जाने से सावधान जरुर करती हैं. इन धारणाओं और छवियों के सहारे कितने क़त्ल हुए हैं और कितनों की अनुशंसाएं की जा चुकी हैं, इसका अवलोकन अपरिहार्य हो चुका है. आपके हमारे भीतर विराजमान ‘घृणाएं’ और ‘दुश्मनियाँ’ जिन रास्तों से दाखिल हुईं हैं, वो रास्ते किस मिटटी से बने हैं, सोचना चाहिए.
सोचते हुए आप खुद को ‘सिद्ध पुरुष’ कहानी के उस ‘गोगिया’ की जगह खड़ा पायेंगे, जिसकी धारणाओं ने उसकी अपनी निगाह में ‘हीन’ एक अन्य को मार डाले जाने जैसी अनुकूलता की रचना की. आज धारणाएं साधारण हैसियत नहीं रखती. वे जीवन और मृत्यु की संभावनाओं को साथ-साथ लिए हुए हैं. इसीलिए, आज धारणाओं की ताकत को देखना हो तो जाति, वर्ग, लिंग और धर्म को लेकर खुलेआम आयोजित होने वाली उन नोंच-खसोंटों को देखिए, जिसमें फसने वाला चीथडों में कब बदल जाता है, मालूम भी नहीं पड़ता. इसे मुख्य संकट की तरह देखे जाने में अब और देरी असल में स्युसाईडल एक्ट होगी, कि हमारी नागरिक निर्मिति को दुनियाभर के शासकों ने लोकली-ग्लोबली हिंसक, उन्मादी और कुंठित धारणाओं से नत्थी कर दिया है. और, हम अपनी वैयक्तिक-सामाजिक निर्मिति में कुंठित नैतिकता और उन्मादी आदर्शों के विस्फोटकों में तब्दील होते चले जा रहे हैं. हम जिस ‘राजपथ’ पर चल पड़े हैं उसकी आने वाली नस्लें एक तरफ कबीलाई उन्मादों से भरी होंगी और दूसरी तरफ इंसानी उदासियों से.
ये दौर इसी रस्ते पर चल पड़ा है. और ये जनता में नागरिक अनुभूति के लगातार असंभव होते जाने का रास्ता है. ‘संग्रह’ में संग्रहीत ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ और ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’ कहानियां इस रस्ते धकेली जा चुकी जन-जनता-प्रजा में उस संभावना को रचती हैं, जिसे राजा और राज्य द्वारा हास्यास्पद भाषा में बदल दिया गया है. इस अर्थ में ये कहानियां राजा के विरुद्ध प्रजा का विलोमत्व रचने वाली कहानियां हैं. अपने समय के उस पंचांग को पढने की चेष्टा से प्रेरित कहानियां, जिसके हरेक घर में देशी-विदेशी व्यापारी, श्रेष्ठी अपने-अपने उन प्रजाप्रियों के साथ विराजमान हैं, जिन्होंने विश्व के अधिकांश से जन-जनता-प्रजा को विस्थापित करने का यज्ञ भलीभांति जारी रखा हुआ है.
इस जारी यज्ञ की ‘क्रोनोलोजी’ पकड़ने की चेष्टा, ‘संग्रह’ की कहानियों को वैश्विक बाजार के दौर की कहानियां बनाती है. बाजार, राज्य और जनता के त्रिकोण को देखने वाली कहानियां. वैश्वीकरण के इस दौर में देशज के बदलते ‘समीकरणों की कहानियां. अब, ये तो आप भी मानेंगे ही, कि जब दौर पहले से अलग रस्ते चल पड़ा है, तब पुराने रस्तों पर मिले किस्सों- कहानियों को कितने समय तक सुनाया जा सकेगा? उन कहानियों के पात्र उन्हें और उनके ‘अर्थगर्भत्व को छोड़ फ़रार न हो जाएंगे, इसकी क्या गारंटी है. और,कहने की जरुरत नहीं, कि अगर ऐसा हुआ तो वे कहानियां असम्बोध्यता के साथ ही खीज भी पैदा करेंगी. फिर, इस खीज और एक असम्बोध्य कहानी के आलावा कहानीकार के पास, कहानी का एक दुःख और भी होगा. कहानी समेत उसके अकेले पड़ जाने का दुःख.
हालाँकि, ऐसा नहीं है कि ये दुःख सिर्फ कथाकारों के ही हिस्से रहेगा, उनके हिस्से भी आएगा, जिनके पास अभी कुछ दशकों पहले तक व्यक्ति से लेकर समाज तक के लिए बड़े स्वप्न थे. ये दौर असल में विरूपण का दौर है.बोध के विरूपण का दौर. जो हासिल हुआ था, वो ठीक वैसा ही आज उपलब्ध नहीं है. सच और झूठ की भूमिकाएं ही नहीं बदली, जगहें भी बदल गई हैं. विश्व-बाजार मानवीय स्थिति का निर्धारक हो नहीं रहा है, हो चुका है. और सवाल भी इसे लेकर बचे कहाँ हैं. केदारनाथ सिंह ने इसी की गवाही दी थी, ये कहते हुए कि ‘कवि होना अब बेकार है’. और, ये बात कहानीकार पर लागू नहीं होगी, ये कौन कह सकता है.
तो, बड़ी कहानियां लिखने की बजाये, ज्यादा जरुरी है कि अपने इस बदलते दौर की कहानियां लिखी जाएं. वो कहानियां जो उस ‘पंचाग’ को निशाना बनाएं, जिसे वैश्विक प्रजाप्रियों, वणिकों और चौधरियों ने अपने हितार्थ लिखा है, और लागू कर रहे हैं. इस पंचांग के केंद्र में राजा है. हालाँकि प्रजा इस बात को जानती है. लेकिन, प्रजा का समय राजा से परिभाषित है, और देशी-विदेशी व्यापारिक-कुलीनों से अपहृत, इसे राजा ने गुनाह की तरह छिपा दिया है. राजा प्रजा का गुनाहगार नहीं अपितु हमदम है, इसे प्रजा से मुखातिब ये ही देशी-विदेशी व्यापारी, जादूगर,नर्तक,कलाकार, कलाबाज और आतिशबाज मनोरंजक तरीकों से बता-समझा रहे हैं. राजा भी प्रजा के बीच पहुंचकर, उन्हें खुद से ही और दूर कर देता है. किन्तु ‘संग्रह’ की कहानिया देख लेती हैं कि प्रजाप्रिय की ‘साधना में अभी कई रोड़े’ हैं और ‘यह प्रकृति भी तो मूलत: उनकी विरोधी ही’ है; न जाने क्यों प्रकृति ‘राग के साथ द्वेष को, महानता के साथ क्षुद्रता को, उजाले के साथ अँधेरे को और सत्य के साथ असत्य को जन्मती’ है? ‘..उसी प्रकृति ने राजा के साथ प्रजा को भी जन्मा’ है.
इस नजर से कहने को कहा जा सकता है कि संग्रह की पहली ही कहानी ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’ प्रतीकात्मक कहानी है, जिसमें समाज, सभ्यता और संस्कृति की समीक्षा करने की एक गंभीर चेष्टा की गई है, और, बात सही भी हो सकती है. किन्तु इस कहानी का जो भीतरी केंद्र है वो प्रतीकात्मकता से ज्यादा एक विपर्याय पर टिका है. ये विपर्याय है राजा और प्रजा के उस द्वंद्व का जिसे ढकने में करोड़ों चेष्टाएं आज लगी हुई हैं. ये द्वन्द निर्मित हुआ है, धारणा और सत्य के अंतर से. सत्य जिसे प्रजाप्रिय और उनके दरबारी व्यापारिक कुलीन जानते हैं और धारणा जो प्रजा का सच है.
‘संग्रह’ की न केवल पहली कहानी, बल्कि अन्य दूसरी कहानियां भी धारणा और वास्तविकता के वर्तमान द्वंद्व को संबोधित करती हैं. धारणाओं की उस शक्ल को पहचानने की चेष्टा करती हैं, जो भव्य रथों से मिलती जुलती है. रथों की तरह सजी-धजी धारणाएं जिन भूमिकाओं का निर्वाह कर रही हैं, उनके रोरव से हमारे देशज-वैश्विक समकाल के सबसे भयावह दृश्य भरे हुए हैं. सत्ता और राजनीति ने जन-जनता-प्रजा के विरुद्ध अवधारणाओं, धारणाओं और विचारों का यही जाल बुना है. क्यों..?
ताकि, देशी-विदेशी श्रेष्ठियों के वैश्विक स्वप्नों का अश्वमेघ पूरा हो सके. और, वो भी जनता की ‘सहमति’ के साथ. इसीलिए ‘वर्तुल’ राज्य नहीं नगर हो रहा है, उसके सारे द्वार खोल दिए गए हैं. देशी-विदेशी व्यापारी और श्रेष्ठी इससे प्रसन्न हैं. ज्ञानियों-विज्ञानियों की तमाम चिंताएं या तो राजा से जुडी हैं या फिर व्यापारियों और श्रेष्ठियों से. इनके हितों का रक्षण ही राजा का शासन है.
फिर प्रजा? प्रजा को इसी सच से दूर रखना है. और, दूर रखने का पारदर्शी विकल्प है तर्क, धारणा, मान्यता और विश्वास की रचना. इतनी सजग और सक्षम कि मरते हुए भी प्रजा को मारे जाने का अहसास छू ना सके. क्योंकि, सच के सामने आते ही राजा का सारा शासन धारणाओं समेत जमीदोज हो जायेगा. मालूम पड़ जायेगा कि राजा प्रजा का हिस्सा नहीं बल्कि उसका विलोम है. मानव नहीं दानव है. पिशाच है. ऐसे में देशी-विदेशी शासकों और वणिकों द्वारा देशज जनता के विरुद्ध बुने गए इस वैचारिक जाल की अहमियत और उनके लिए इसकी जरुरत को सहज ही समझा जा सकता है. इन्होने प्रजा के सच पर ही कब्ज़ा जमा लिया है. राजा की धारणा ही जनता का सच होना चाहिए, इसी यज्ञ के तहत राजाओं और वणिकों ने मिलकर सिक्के के दो पहलुओं वाली पुरानी व्यवस्था को ख़त्म कर, सिर्फ राजा के ही पहलू वाली व्यवस्था को लागू कर लिया है.
‘संग्रह’ की कहानियां रेखांकित करती हैं, कि वैश्विक बाजार के तमाम राज्यों के स्वघोषित प्रजाप्रिय प्रजा को चुनौती की तरह ले चुके हैं. प्रजा उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न है. प्रजा का अनुकूलन ही ‘राज्य’ की उम्र है. जितना ज्यादा अनुकूलन उतनी ही ज्यादा उम्र. और, इस युद्ध के अस्त्र-शस्त्र खोजे गए हैं उन्हीं खोजों से जो शासन और शोषण की मंशाओं के साथ ही होती आयी थीं. और ऐसा नहीं है कि जनता को ‘परिभाषित’ करने की खोजें आज जारी नहीं हैं. ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ के भाई जी इसी खोज के यात्री हैं. कहानीकार की टिपण्णी है, ‘ताश में बावन पत्ते होते हैं और राजनीति में तिरपन. हर माहिर खिलाड़ी यह तिरपनवा पत्ता ऐन मौके पर फेंकता है. तिरपनवे पत्ते का रंग जाति,धर्म, क्षेत्र, दल, ..के हिसाब से बदलता रहता है.’ कहानी के भाई जी राजनीति के ऐसे ही माहिर खिलाड़ी हैं. जो जानते हैं कि जनता के होते तो बावन ही पत्ते हैं, किन्तु इसे खोज नहीं कहा जा सकता, साथ ही इसे मान लेने से राजा भी नहीं हुआ जा सकता. क्योंकि राजा वही हुआ जिसके पास वो तिरपनवा पत्ता था.और, ये तिरपनवा पत्ता है उस जनता की खोज जिसे राजाओं और व्यापारियों ने भिन्नताओं और विपरीतताओं में खोजा है, जिसे चलते ही जनता का खेल बिगड़ जाता है. जनता ‘खेल’ से बाहर हो जाती है.
सत्ता और राजनीति के इस तिरपनवे पत्ते को जन्म देने वाली प्रचलित-स्थापित धारणाओं, मान्यताओं और विश्वासों की चिन्दियाँ बनाती संग्रह की कहानियां, पूरी सफाई के साथ इनकी उन सत्तात्मक भूमिकाओं को रेखांकित करती हैं, जिनमें नागरिक समाज चुपचाप गुलामी के नित नए फंदों को अपने हांथों पहनता चला जाता है. बजरंगी की साईकिल बजरंगी को बताती है, ‘साहेब सर से पंद्रह मिनट की मुलाकात के लिए, अपनी जिंदगी के कितने घंटे खोये?’ पूरे नौ घंटे. छोटे-बड़े नेताओं की चाकरी को, किस्मत बदलने की कुंजी की तरह जनता में खुद जनता ने नहीं, व्यापारिक-कुलीनों समेत उन ‘वर्गों’ ने रचा है जो ‘जनता’ को भीड़ में बदलकर प्रजाप्रियों के दरबार का हिस्सा होना चाहते हैं. ‘कहानी’ के ‘भाई जी’ इसी ‘दलाल-वर्ग’ के नुमाइंदे हैं.
ऐसा नहीं है कि इस वर्ग के नुमाईंदे ‘सिर्फ’ राजनीति में ही पाए जाते हैं, वो उन बौद्धिक-तबकों में भी विद्यमान हैं, जो जन-जनता-प्रजा की दारुण कथाएँ लिखते और गढ़ते हैं. इनके लिखे हुए की एक सामान्य विशेषता है कि इनका लिखा हुआ जन और जनता को मुक्त करने की बजाये, उसे वैचारिक मरू-स्थलों में कैद करता चला जाता है. जनता उनके लिखे में छवियों के सांचों में कैद रहती है. इसी से बगावत की कहानी है, ‘रामलाल फ़रार है’. असल में, ‘संग्रह’ की कहानियां जाहिर करती हैं कि धारणाओं और विश्वासों की प्रतीति भले सामाजिक और सार्वजनिक हो, किन्तु उसकी भूमिकाएं विशिष्ट और वर्गीय हुआ करती हैं. इसे फोकस में ले आने की जद्दोजेहद से ‘संग्रह’ की कहानियां स्पंदित हैं. ‘संग्रह’ की कहानियां जनता के वैचारिक संसाधनों को जुटाने और साधने की चेष्टा करती हैं. इसके लिए भाषिक संभावनाओं का पूरा पूरा इस्तेमाल भी करती हैं. कहानियों के शीर्षकों की ‘बनावट’ इसीलिए कौतुक नहीं रह जाती.
इस अर्थ में ‘एक राजा था…’ कहानी ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ से थोड़ी अलग है. वो धारणाओं की उस महारथी भूमिका की कहानी होने के साथ ही, जो राजा और बाजार के पक्ष में सहमतियों को एकत्रित और संगठित करती हैं, वैश्विक बाजार के दौर में ‘राज्य’ के वैधानिक संकट की कहानी भी है. आधुनिक ‘राज्य’ से आगे बढ़ चुके उस राज्य की कहानी जिसे ‘उत्तर-राज्य’ जैसा कुछ कहा जाना अभी बाकि है. पिछली सदी के राज्य अब और नहीं रह सकते. उन्हें विश्व-बाजार के भीतर धारणा से चमचमाता ‘नगर’ होना ही होगा. इस बाध्यता को राजाओं ने अपने सिर ओढ़ लिया है.
लेकिन, अगर कभी खुद प्रजा ही इन चमचमाती धारणाओं के सूर्यों को बुझाने पर आमादा हो ही गई, तब….’कहानी’ संकेतित करने की गंभीर चेष्टा करती है कि राजा अपने मुकुट उतारने में देर नहीं करेंगे. ‘प्रजाप्रिय’ का मुकुट उतारना बाजार और राजनीति के गठजोड़ से जन्में उस संभावित दुस्वप्न की तरफ इशारे जैसा है, जिसे हवाओं में महसूस तो किया जा सकता है, पर नाम देना शायद अभी संभव नहीं है. इस अर्थ में कहानी वैश्विक बाजार में लोकतांत्रिक राज्य के उस संकट को कहने की चेष्टा करती है जिसका सामना किया जाना उसी समय तय हो गया था, जिस समय दुनियाभर के श्रेष्ठियों ने विश्व को बाजार की तरह देखने की इच्छाएं अपने-अपने प्रजाप्रियों के सामने प्रस्तुत की थीं.
और, उसी समय यह भी तय पाया गया था कि देश और समाज का अतीत, और उसकी अंधकारमय स्मृतियाँ, दोनों जितनी गाढ़ी होंगी, बाजार के तर्क और धारणाएं उतनी ही मारक. वो सूर्य सी दमकेंगी. वो दूर तक निशाने लगाने में सक्षम होंगी. जनता के बीच धारणा और छवि ही राजा के शासन की कुंजी होगी. जनता जितनी और जिसकी धारणा और छवि में ढलेगी, उसके शासन की उम्र भी उतनी ही होगी. इसीलिए समाज और देश पर विराजमान ‘शनि’ से मुक्ति के यज्ञ, जिसे जानी पहचानी भाषा में ‘विकास’ कहा जाता है, दुनियाभर में अंजाम दिए गए.
लेकिन इसे लेकर राजा की व्यापारियों और श्रेष्ठियों के साथ हुई मंत्रणा के बारे में “आज तक कोई कुछ भी नहीं जान पाया. प्रजा को इस दौरान बस यही बताया जा रहा था कि कुछ ऐसा बदलेगा जो इतिहास में कभी संभव नहीं हुआ था. इससे ज्यादा प्रजा कुछ नहीं जान पाई.” विकास और निजीकरण की स्थापनाओं ने जिस उत्साह के साथ भिन्न-विभिन्न प्रजाओं के बीच अपनी जगह बनाई, उसका कारण इनके साक्षात् अनुभव नहीं बल्कि इनसे संबद्ध धारणाएं थीं. सूर्य सरीखी अवधारणाएं. जिनमें जनता के अंधकारमय अतीत की कथाएँ शामिल थीं. विकास के सूर्य की उपासना उस स्वप्न की उपासना है जिसे व्यक्ति, समाज और इतिहास ने नहीं अपितु व्यापारिक घरानों ने जन्मा है. जो नदियों-महानदियों, समुद्रों, पर्वतों और पहाड़ों की ही भौगोलिक सीमाओं को ही नहीं पाट देना चाहते हैं अपितु दिन-रात के अंतरों को भी पाट देना चाहते हैं. इस स्वप्न की उपस्थति सूर्य सरीखी उन धारणाओं के रूप में दिखती है, जिनका स्मरण भर सारे सवालों को मंचों से विस्थापित कर देने वाला होता है.
लेकिन ‘संग्रह’ की कहानियां इसका दूसरा पाठ पढ़ती हुई भी देखी जा सकती हैं. राजा-बाजार-प्रजा के त्रिकोण में राजा और व्यापारी भले केंद्र हों, किन्तु हाशिया होते हुए भी प्रजा इस त्रिकोण का एक केंद्र जरुर है. हसियाकृत ही सही, पर है. जनता से उसका सबकुछ छीन लेने के बावजूद भी इसे जाहिर तो नहीं किया जा सकता. इसी मायने में शासन अब शस्त्र के नहीं उस ‘तर्क’ के अधीन है जो स्वीकृति को स्थापित करता हो. लेकिन, ये ‘प्रजाप्रियों-श्रेष्ठियों’ की बाध्यता भी तो है, क्योंकि, राज्य और राजनीति की भूमिका तो व्यापारियों और व्यापारिक श्रेष्ठियों से अनुकूलित हो सकती है किन्तु, उनसे वो वैद्यता नहीं निर्मित होती जिस वैद्यता पर राज्य और उसके प्रजाप्रिय शासन कायम करते हैं. वो वैद्यता तो फ़िलहाल निर्मित होती है, जन और जनता के क्षेत्र में ही.. और, यही वो बाध्यता है जो अंतत: राजा को बनिया और बाजार से अलग कर जनता से बांधती है. और, यही बंधन राजा का भय है. जिसका समाधान वैश्विक बाजार के राजाओं और श्रेष्ठियों के पास भी नहीं है.
‘संग्रह’ की कहानियां इसी भय का छोर पाठक के हांथों पकड़ाने की चेष्टा करती हैं. इस छिपे ‘भय’ को उघाड़ने का काम करती हैं. साथ ही इसे भी कि हमारे ‘प्रजाप्रिय’ प्रजा के नहीं हैं, बल्कि उसका ठोस विलोम हैं. जैसे दिन का विलोम होती है रात और उजाले का विलोम होता है अँधेरा. ठीक वैसे ही आज के तमाम प्रजाप्रिय जन-स्वीकृति नहीं हैं बल्कि शासन की राजाज्ञाएं हैं. ‘राजा प्रजाप्रिय है और इसे डुगडुगी बजाकर नगर में कहलवा दिया गया है. राजाज्ञा है कि राजा प्रजाप्रिय है और इसे नहीं मानने का दंड साधारण नहीं बल्कि महादंड है.’ धारणा और वास्तविकता का यही द्वन्द प्रवीण कुमार की कहानियों का कोर है. उनका केंद्र है. और कहानी में उभरने वाला राज्य, बाजार और जनता का त्रिकोण भी बताता है कि हमारे देशकाल का केंद्र भी यहीं हैं, यही है. ‘संग्रह’ की कहानियां बताती हैं कि, सारा शासन इसी एक सच को, इसी एक त्रिकोण को और इसी एक भय को छुपाने में ही संलिप्त हो चुका है. ‘एक राजा था…’ कहानी का ‘सुंग’ कहता है, “ इस राज्य में सोने की मनाही नहीं नागरिक, लेकिन गुप्त-गृह बनाना अवश्य दंडनीय है.” मानो, कहा जा रहा हो, कि लोकतंत्र है सभी को अपनी बात कहने का हक़ और अधिकार है किन्तु इसे संगठित रूप देने का हक़ किसी को नहीं. विरोध करो, लेकिन उसे संगठित करने की मंशा और दिशा, दोनों से दूर रहो. अन्यथा आप द्रोही होंगे. और, इस द्रोह के परिणाम साधारण नहीं होने, महादंड लायक होंगे.
जहाँ ‘कहानी’ इसी द्वन्द्व को पकड़कर प्रजाप्रिय की समूची व्यवस्था का मुकुट उतार देती है वहीँ समानांतरता में जन की बची रह जाने वाली संभावनाओं का सूत्र भी पाठक को पकड़ा देती है. ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ का बजरंगी जन-जनता-प्रजा का वही संभावनाशील सूत्र है. ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’ और ‘वास्को डी गामा की साइकिल’, इन दोनों कहानियों को एक साथ रखने और देखने पर जो अपने समय का ‘जफरनामा’ उभरता है, उसमें अब सत्य और धारणाओं की आपस में बदली गईं वे जगहें देखी जा सकती हैं, जिनसे वैश्विक बाजार का प्रपंची जाल निर्मित हुआ है. वो त्रिकोण साफ-साफ उभर आता है, जिसमें जनता हसियाकृत बना दी जा चुकी है. इस पूरी वैचारिक स्पष्टता के साथ कि इसी भय के अँधेरे को दूर करने की चेष्टाएं हैं वो धारणाएं और मान्यताएं जिनका इस्तेमाल बाजार की गति से राजनीति में जारी है. जिसे कहानीकार तिरपनवा पत्ता कहता है.
संग्रह को इस दृष्टि से भी पढ़ा जाना चाहिए कि भाषिक सक्षमताओं को हासिल किये बगैर किसी अबूझी बात को कहने की ललक ‘रचना’ नहीं होती.रचना अपने दौर के केन्द्रों को पढ़ने और उलटने के मंसूबों से पैदा होती है. साथ ही, ये भी कि ‘रचनाकार’ को ये मंसूबे गढ़ने नहीं होते, बल्कि अपने उस वर्ग में देखने होते हैं जिसको कहने-सुनने-सुनाने और जिसके साथ अपनी साझेदारी को जाहिर करने के लिए लिखने का रास्ता लिया गया होता है. ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ संग्रह की कहानियां इसी रस्ते को देखती-दिखाती कहानियां हैं. उस जन-जनता-प्रजा की कहानियां जो राजाओं की भयाक्रांत कहानियों के जाल में फसी अवश्य है, पर अभी हारी नहीं है. इसीलिए राजाओं के ‘कुलगुरुओं को ये हैरत बनी हुई है कि अपने भय को छिपाने के लिए जो ‘अँधेरा’ राजा, प्रजा को दिखा रहा है, प्रजा को उस अँधेरे का कोई डर शायद सता नहीं रहा है, बल्कि उनकी आँखें अन्यमनस्क भाव से..सारे कर्मकांडों को देख रही है’ क्या जन-जनता-प्रजा का पूर्वी छोर सचमुच शाप-छाया ने ग्रस लिया है, पूरी तरह से?’
वास्को डी गामा की साइकिल, जिसे कहानीकार ने लोहे की फेक्टरी में लोहे को गलाने वाले एक मजदूर को सौंपा है, की कहानियां अपने पाठक को ये विश्वास दिलाती कहानियां हैं कि वैश्विक बाजार के ‘प्रजाप्रिय’ वैसे तो संतुष्ट हैं, किन्तु…एक डर है, जिसे उन्होंने अपने हांथों बनायीं जा रही इसी ‘व्यवस्था’ के भीतर ही कहीं छिपा दिया है. संग्रह की कहानियां व्यवस्था के निर्धारकों और नियंताओं के इस डर की कहानी को कहती-सुनती-सुनाती दिखलाई पड़ती हैं..राजाओं और उनके वैश्विक वणिकों का भय, जिसे छुपाया तो जा रहा है, पर वो नष्ट होता ही नहीं. वो उन जगहों में फिर फिर बचा ही रह जाता है जहाँ पूरी ताकत और दमन के साथ उसे मिटाया जाता है. संग्रह की कहानियां ये विश्वास जाहिर करती हैं कि दमन जनता को भेड़ों में बदल तो सकता है किन्तु भेडें बना नहीं सकता. ‘बस, जरुरत है आज कविता को इस विश्व-प्रपंची जाल में , इस त्रिकोण में फंसे होने की पीड़ा कहने की, और कथाओं को इस जाल की परतें एक एक कर उघाड़नेकी. भाषिक-साहित्यिक अभिव्यक्ति की ये वो अपरिहार्यता है जिसे उठाये बगैर आगे बढ़ा नहीं जा सकता.
‘वास्को डी गामा की साइकिल’ कुल सात कहानियों का संग्रह है. प्रवीण कुमार का पहला कहानी संग्रह ‘छबीला रंगबाज का शहर’ जिसने भी पढ़ा है वो इस बात को नोट किये बगैर नहीं रह सकता कि इस संग्रह की कहानियां ‘रिपिटेशन’ नहीं, बल्कि आगे बढ़ने की गवाही देती हैं. ‘सिद्ध पुरुष’ और बसई दारापुर की संतानें’ इस संग्रह की अन्य ऐसी कहानियां हैं जो व्यक्ति और परिवेश के भूगोल को ऐतिहासिक-स्थिति में पकड़ने की चेष्टा करती हैं.
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सत्यप्रकाश सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच. डी : रेणु के कथा साहित्य पर.
कई पत्र पत्रिकाओं में लेख और समीक्षाएं तथा जाति-विमर्श पर एक पुस्तक प्रकाशित.