हिंदी साहित्य का अधिकांश ऐसे लेखकों द्वारा सृजित है जो स्वभाव से दरवेश थे/हैं- सांसारिक अर्थों में निपट अव्यावहारिक पर साहित्य और विचार को लेकर सतर्क और सन्नद्ध. भारतेंदु से शुरू करके आप विष्णुचंद्र शर्मा आदि तक इसकी पूरी अटूट परम्परा देख सकते हैं. कोरोना ने जो कहर ढाया है उसके शिकार बड़ी संख्या में कला-साहित्य-संस्कृति के मूर्धन्य हुए हैं. दिल्ली के सादतपुर में किसी ऋषि की तरह रहते ८७ वर्षीय कवि, संपादक, आलोचक, अनुवादक और जीवनी-लेखक विष्णुचंद्र शर्मा भी इसकी चपेट में आ गये और २ नवम्बर २०२० को उनका देहावसान हो गया.
प्रमोद कुमार तिवारी ने विष्णुचंद्र शर्मा को याद करते हुए बड़ी ही ऊष्मा और आत्मीयता के साथ यह स्मरण-आलेख लिखा है, उनकी महत्ता का अचूक आकलन किया गया है.
प्रस्तुत है.
विष्णुचंद्र शर्मा
वह एक अकेला कर्मशील
प्रमोद कुमार तिवारी
और विष्णु जी चले गए, उसी ठसक के साथ, जिसमें उनका होना निहित था; उसी सादगी और नामालूमपन के साथ जो आखिरी जन की पहचान हुआ करती है; उन्हीं शर्तों के साथ जिसके बगैर उनकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. 2 नवंबर की दोपहर में उनके पड़ोसी और बेहतरीन कथाकार महेश दर्पण जी का संदेश मिला कि विष्णुजी को दिल्ली के सेंट स्टीफेन अस्पताल लेकर जा रहे हैं, शायद वे कोविड संक्रमित हैं और फिर थोड़ी ही देर बाद ही दूसरा संदेश मिला कि ‘नहीं रहे’.
हिन्दी के युवा अध्येताओं की तरह बहुत लोग पूछेंगे कौन विष्णु जी? वही विष्णु जी, जिन्होंने अपने जीवन के घनघोर मेहनत भरे 80 वर्ष हिन्दी भाषा और साहित्य को दिये थे. वही विष्णु जी जिन्होंने मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन और काजी नजरूल इस्लाम की जीवनी लिखने के लिए, उनसे जुड़े इलाकों से सामग्री पाने और उनके भावबोध के बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए अपने ढेर सारे खूबसूरत वर्ष खपा दिए थे. वही विष्णु जी जिनके नाना रामनारायण मिश्र नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से थे, और जिनके पिता कांग्रेस के इतने बड़े नेताओं में से थे कि जवाहरलाल नेहरू अपने भतीजे विष्णु के कहने पर कॉलेज के कार्यक्रमों में न केवल पहुंच जाते थे बल्कि अव्यवस्था होने पर खुद ही भीड़ को संभालते भी थे. वही विष्णु जी जिन्होंने विरासत के नाम पर एक जिद पायी थी और साहित्य के लिए अलग ही तरह का समर्पण पाया था जिन्होंने नौकरी से लेकर दूसरी तमाम सुविधाओं को लेने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मेरे पिता ने आजादी की लड़ाई किसी प्रतिदान या बदले के लिए नहीं लड़ी थी. कि उन सुविधाओं को स्वीकार करना पिता की परंपरा को शर्मिंदा करना होगा. वही विष्णु जी जो दिल्ली पहुंचने वाले हिंदी के बहुत शुरुआती साहित्यकारों में से थे परंतु जो दिल्ली के कभी ना हो सके. भारत के केंद्र दिल्ली में रहकर भी वे सादतपुर नामक हाशिये के नागरिक रहे जिनसे दिल्ली मुहावरे वाले अर्थ में हमेशा दूर ही रही.
कोई चाहे तो पूछ सकता है कि जो जीवन उन्होंने जिया वह उनका चयन था, इस बात पर इतनी शिकायत क्यों? सराहना से ज्यादा नाराजगी मोल लेने वाले विष्णु जी पर लोगों ने स्याही नहीं खर्च की तो क्या हो गया? पूरा जीवन सिर्फ साहित्य को समर्पित करने वाले विष्णु जी प्रकाशकों, साहित्यकारों आदि से खुद ही उलझते रहे तो यह होना स्वाभाविक ही था. आप ही बताइए भला ऐसा भी कोई होता है कि अपने ही सम्मान समारोह में, सम्मानित करने वाले लोगों को जम के सुना दे (लहक सम्मान), व्यावहारिकता भी कोई चीज होती है कि नहीं?
सच में दिनों दिन हम उस ओर बढ़ रहे हैं जब हमें साहित्यकारों और सच्चे लोगों की बजाय कुछ मैनेजरों की जरूरत रह जाएगी. जो सब को खुश करना जानते होंगे, जो लोगों को साधना जानते होंगे और अनेक स्तरों पर विपरीत ध्रुवों में भी जैसे तैसे संतुलन बिठाना जानते होंगे. विष्णु जी ऐसे बिल्कुल नहीं थे किसी भी बात को गलत महसूस करने पर तड़ाक से वहीं हिसाब बराबर कर देने वाले और फिर अपनी धुन में रम जाने वाले विष्णु जी बहुत व्यस्त आदमी थे. एक साथ अनेक परियोजनाओं पर काम करने वाले, पूश्किन को पढ़ने के लिए रूसी सीखने वाले, नजरूल पर ढंग का काम करने के लिए बांग्ला सीखनेवाले और बुढ़ापे में स्पेनिश सीख कर लैटिन अमेरिकी साहित्यकारों को पढ़ते हुए उनका देश घूमने का स्वप्न देखने वाले विष्णु जी के पास लोगों को सहला कर खुश करने के लिए सच में समय नहीं था.
कुछ दिन पहले एक अनौपचारिक बातचीत में विष्णु जी का संदर्भ आने पर कथाकार ज्ञान रंजन जी ने जब कहा कि \’हिंदी समाज एक कृतघ्न समाज है\’ तो 60 करोड़ जनसंख्या वाले हिंदी समाज की सांस्कृतिक बनावट पर फिर से विचार करने का मन हुआ.
यह तो हम सब मानेंगे ही कि हिन्दी साहित्य की दुनिया में अनेक प्रकार के झोल हैं. कुछ चमकती हुई प्रतिभाओं के बावजूद हिंदी साहित्य की अकादमिक एवं बाहरी दुनिया काफी हद तक साहित्य और जन केंद्रित होने की बजाय संबंध केंद्रित है. ऐसी स्थिति में अगर कोई व्यक्ति सिर्फ साहित्य को ही ओढ़ता बिछाता है तो उसका उपेक्षित होते जाना स्वाभाविक ही कहा जाएगा. निश्चित रूप से इस मामले में विष्णु जी अकेले नहीं थे बल्कि हिंदी में विष्णुओं की बड़ी संख्या रही है.
विष्णु जी कई मामलों में अनूठे थे. खुशामद पसंद लोगों को बनारसी अंदाज में ठेंगा दिखाने वाले और प्रकाशकों से दुश्मनी मोल लेने वाले तथा युवा रचनाकारों को रात के 12:00 बजे खुद रोटी बनाकर खिलाने वाले विष्णु जी से मिलने करीब 20 साल पहले जब पहली बार सादतपुर जा रहा था तो प्रो. मैनेजर पांडेय ने सावधान करते हुए कहा था थोड़ा संभल के जाना वे ऋषि दुर्वासा हैं. जब मुलाकात हुई तो लगा कि ये तो हमारे गांव के निश्छल पुरनिया हैं नेह से भरे, बातों में एकदम बेलाग; जिनके पास लोक की अद्भुत पकड़ के साथ ही शास्त्र की मौलिक जानकारी थी, जिनके पास पिछले 100 वर्षों का धड़कता इतिहास था.
वे देश के उन गिने-चुने लोगों में से थे जिनके पास रहकर आप तथाकथित मुख्यधारा के इतिहास के चमकते पन्नों के अंधेरेपन को और अंधेरे में गुम हो चुके पन्नों की ठोस और संग्रहणीय चमक को साफ महसूस कर सकते थे. पहली ही मुलाकात में उन्होंने भोजपुरी की एक काव्य पंक्ति ‘‘सगरी देहिया बलम के जागीरदारी हs’’ उद्धृत करते हुए हिंदी के बड़े कवियों की तरफ एक सवाल उछाल दिया ‘जरा बताओ इसके टक्कर की पंक्तियां कितने कवियों ने लिखी हैं?’
विष्णुजी का घर भी बहुत हद तक उन्हीं के जैसा लगा. दशकों से दिनों दिन हो रहे सादतपुर के भौतिक विकास के उत्थान के कारण गड्ढा हो चुके उनके घर में हाथ रखने से घिस चुकी लकड़ी की कुर्सी पर बैठते हुए मैं हिंदी के एक बड़े लेखक की उपलब्धियों के बारे में सोच रहा था, किताबों को हटाकर बनाई गई जगह में खाना खाते हुए और उनके दुर्लभ संगी कुत्ते यानी शेरू के साथ उनकी बातें सुनते हुए उनकी गरबीली अमीरी का भरपूर एहसास होता था. हर ओर किताबें थीं, टेलीफोन भी जर्द हो चुके पन्ने वाली किसी पुरानी किताब सा दिख रहा था. पूरे घर में अगर नया कुछ था तो वे थे स्वयं ‘विचंश’ यानी विष्णुचंद्र शर्मा, उत्साहित, ऊर्जावान बालसुलभ गति से भरे हुए.
ज्यादातर नामचीन लोगों को उनसे घबराते देखा था परंतु युवाओं को उनसे उतना ही जुड़ते पाया था. युवाओं के लिए वे इतने सहज और सुलभ थे कि कुछ कवि नयी कविता लिखते ही विष्णुजी को पढ़ाने की कोशिश में लग जाते. उनसे मिलने के बाद हर बार यह भाव मन में आता था कि सुख सुविधाएं जिंदगी में इतनी भी महत्वपूर्ण नहीं होतीं हैं कि उनके लिए हर कदम पर रीढ़ झुकाई जाए, कि अभी भी ऐसे लोग हैं जो नहीं जानते कि समझौता किस चिड़िया का नाम है.
तीक्ष्ण स्मृति वाले विष्णुचंद्र शर्मा चलते-फिरते इतिहास थे. उनका इतिहास बोध केवल किताबों से नहीं जीवन से उपजा था. उन्होंने जबरदस्त यात्राएं कीं थीं, किसिम-किसिम के अनुभवों और घनघोर संघर्ष से खुद को खूब मांजा था. 1940 से 2020 तक के सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक घटनाओं के जीवंत दस्तावेज थे विष्णु जी. जो हर बात को एक साथ स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय परिवेश में रखकर देखते थे. जो किसी गांव की बहुरिया के गीत को जितनी तन्मयता से बताते उतनी ही ऊर्जा के साथ इस बात की भी चर्चा करते कि फलाना मुद्दे पर अमेरिका और चीन का रुख क्या है.
करीब चार साल पहले ‘जनपथ’ पत्रिका का विशेषांक निकालने के संदर्भ में जब उनके घर गया और बातचीत शुरू हुई तो 50-60 साल पहले की तमाम घटनाएं सजीव होकर सामने आने लगीं. किस साहित्यकार या राजनेता ने कब क्या कहा था, समय और समाज की समझ किस नेता की कैसी थी; उनकी किस किताब, किस कहानी या कविता पर किस लेखक ने क्या प्रतिक्रिया दी थी, उन्हें सबकुछ पंक्ति दर पंक्ति याद था.
निश्चित रूप से विष्णु जी करीने से सजी-संवरी फुलवारी नहीं, तरह-तरह के जीवों-वनस्पतियों से भरा वन रचते थे. उनकी रचनाओं में झाड़-झंखाड़ भी मिलेंगे और रसदार फल भी, कठोर गर्म चट्टानें भी मिलेंगी और खूबसूरत अनोखे फूल भी, कह सकते हैं कि वे ‘जीवन जैसा जीवन’ रचते हैं. बड़ी-बड़ी बातों को रखते हुए साहित्य रचना फिर भी सरल है, पर उन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप जीवन जीना और व्यक्तित्व बनाना शायद उतना ही मुश्किल. विष्णुजी ने अपना व्यक्तित्व गढ़ा- धारा के विपरीत, समय प्रवाह के प्रतिकूल खड़े रहकर, तथाकथित असामाजिक कहलाने की सीमा तक जाकर. परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि विष्णुजी के मित्रों की और उन्हें चाहनेवाले लोगों की भरपूर संख्या थी. एक जमाने में महाकवि निराला, मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह जैसे लोगों से उनकी भरपूर निकटता थी. जब मैं उन पर अंक निकाल रहा था तो विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, भगवान सिंह, शेखर जोशी, रमेश उपाध्याय, रामनिहाल गुंजन, आनंद प्रकाश, राजेश जोशी इब्बार रब्बी आदि ने उन्हें जिस तरह से याद किया, वह मेरे लिए एक नया अनुभव था.
विष्णुचंद्र शर्मा,जो शर्मा नहीं मूलतः अमृतसर के बग्गा (पिता कृष्णचंद्र बग्गा) थे, ने बचपन में ही भरपूर अध्ययन किया, जिस उम्र में बच्चे खेलने-कूदने में रमे रहते हैं उस उम्र में आचार्य नरेन्द्र देव (छठी कक्षा में) और जवाहरलाल नेहरू के व्याख्यान आयोजित करते रहे. बनारस से ‘तरुण भारत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला जिसका लोकार्पण जवाहर लाल नेहरू ने किया था. आज यह चर्चा हो रही है कि दलित और मुस्लिम नेताओं को उनकी जाति या समुदाय तक सीमित कर दिया जाता है जबकि सवर्ण नेता अखिल भारतीय माने जाते हैं. विष्णु जी के पिता श्री कृष्णचंद्र शर्मा के बुलावे पर अबुल कलाम आजाद बनारस आए थे और दुख के साथ कहा था कि ‘‘जवाहर ने मुझे सीमित दायरे का नेता बना दिया.’’ (विष्णु जी के साथ 18-06-2017 की बातचीत के अनुसार) और इस बात को विष्णुजी ने ढंग से दर्ज कर लिया था. विष्णुजी ने बाद में केवल कांग्रेस का ही विरोध नहीं किया जब उनके नाना रामनारायण मिश्र माधव सदाशिव गोलवलकर का स्वागत कर रहे थे तो विष्णु जी उस पूरे कार्यक्रम का विरोध कर रहे थे. जिसके कारण रात भर उन्हें जेल में रहना पड़ा था. जिस आनंदस्वरूप वर्मा ने उनकी किताब प्रकाशित की थी, उनके खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए. परंतु मैंने जब पूछा कि विशेषांक में किस-किस का लेख लिया जाये तो शुरुआत में ही बड़े ही प्रेम से आनंदस्वरूप वर्मा का नाम लिया.
विष्णुचंद्र शर्मा कबीर-तुलसी, मीर-गालिब, निराला से लेकर भारतीय और विश्व साहित्य तक को खंगालते रहे. निजी संसाधनों से संचालित अपनी पत्रिकाओं में दुनिया के श्रेष्ठतम लेखकों को प्रकाशित करते रहे. शुरू से ही व्यष्टि की बजाय समष्टि बनने की कोशिश उन्होंने जिद की सीमा तक की. व्यवस्था को लेकर एक गुस्सा शुरू से ही दिखता है पर उस गुस्सा की सबसे बड़ी ताकत यह रही कि उसके साथ एक स्वप्न भी रहा, बेहतर की संकल्पना भी रही जो आरंभिक रचनाओं में ही पुष्ट रूप में नजर आती है.
विष्णुचंद्र शर्मा के संदर्भ में मेरी जिनसे भी बात हुई लगभग सभी ने उनकी तारीफ की, बहुत लोगों ने उनके स्पष्टवादी होने, पारदर्शी होने, समझौता न करने, जिद्दी होने, अप्रिय सच बोल देने, बाहर-भीतर एक होने आदि की प्रशंसात्मक चर्चा कुछ इस तरह की, मानो यह उनकी सीमा है. यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि दुर्लभ जीवट के धनी और घनघोर पढ़ाकू विष्णु जी का अपने काम में इस तरह लगे रहना कि संपर्क हेतु या लोगों को कृतार्थ करने हेतु समय नहीं निकाल पाना कमी क्यों मान ली जाती है? नाना राम नारायण मिश्र और पिता कृष्णचंद्र शर्मा की समृद्ध विरासत का लाभ न उठाना, ऊँचे संपर्कों का निजी हितों हेतु उपयोग न करना अवगुण क्यों हो जाता हैॽ
अगर व्यक्तित्व में कुछ ज्यादा ही खरापन है भी तो उनकी लेखकीय ईमानदारी और वृहत तथा विविधता पूर्ण रचना संसार की बात क्यों नहीं की जाती? उन्होंने जिस तरह और जिस उम्र में ‘कवि’ जैसी पत्रिका निकाली और आगे भी कहानी, जनयुग, सर्वनाम जैसी पत्रिकाओं के द्वारा जैसा योगदान दिया उस दूरदर्शी संपादकीय दृष्टि की चर्चा क्यों नहीं होती? युवा संपादक के रूप में विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि पत्रिका से तहलका मचा दी थी. 10 कवियों को विशिष्ट कवि बताते हुए उनपर जो अंक विष्णु जी ने निकाले वे उनकी दूर दृष्टि के परिचायक रहे. इन कवियों के रूप में उन्होंने त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ अग्रवाल गजानन माधव मुक्तिबोध, नलिन विलोचन शर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, नामवर सिंह केदारनाथ सिंह, कीर्ति चौधरी, रामदरश मिश्र एवं दुष्यंत कुमार की कविताओं को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया और इन्हें ‘जातीय चेतना का कवि’ बताते हुए इन्हें नई कविता की प्रगतिशील धारा के कवि के रूप व्याख्यायित किया.
इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन कवियों पर टिप्पणियां लिखने वाले लोग कौन थे. विष्णुजी के कहने पर हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, चंद्रबली सिंह, रामअवध द्विवेदी, केदारनाथ सिंह जैसे लोगों ने विशिष्ट कवियों पर टिप्पणियां लिखी थी. खुद विष्णुचंद्र शर्मा ने तो लिखा ही था. यही नहीं कवि पत्रिका की बड़ी खासियत यह थी कि उस दौर में और शायद आज भी वह अकेली ऐसी पत्रिका थी जिसमें जनपदीय भाषाओं की कविताएं प्रकाशित होती थीं. विष्णुजी ने ‘कवि’ में भोजपुरी के रूपनारायण त्रिपाठी, श्रीमती शीला गुप्ता, भगवान सिंह, परमहंस पाठक; अवधी के चंद्रभूषण त्रिवेदी, रमई काका; मगही के रामनगीना सिंह, गढ़वाली के गोविन्द चातक आदि को प्रकाशित किया था.
(केदारनाथ अग्रवाल का पत्र विष्णुचंद्र शर्मा के लिए : सौजन्य प्रमोद कुमार तिवारी) |
यह सही है कि विष्णुजी विद्रोही स्वभाव के थे. ज्ञानपीठ के समारोह में किसी बात पर सरेआम वक्ता को घेर लेनेवाले या जार्ज फर्नांडीज से सरेआम भिड़ जाने वाले, बड़े से बड़े व्यक्ति के मुंह पर खरा सच बोलकर अप्रिय बन जाने वाले विष्णुचंद्र शर्मा ने काजी नजरूल इस्लाम, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन आदि की जीवनी के लिए कितनी मेहनत की, कितना समय दिया इस पर बात नहीं होती? मुक्तिबोध की आत्मकथा लिखने के लिए पांच साल मेहनत की. रमेश मुक्तिबोध के साथ तीन महीने रहे. काजी नजरूल इस्लाम की जीवन लिखने के लिए बांग्ला सीखी और उन जगहों को जा जाकर देखा जिनसे नजरूल का संबंध था. खुद नजरूल ने यह कहा कि इस तरह से तो किसी बांग्ला लेखक ने भी मेरे बारे में काम नहीं किया, तुम कहां से आ गए. क्या मुक्तिबोध और नजरूल विष्णुजी की निजी संपत्ति हैं, क्या इनसे साहित्यिक दुनिया का कोई लेना देना नहीं है? कहीं हिन्दी जगत का एक वर्ग विष्णु जी से इसलिए तो दूर नहीं भागता रहा कि वे एक ऐसे आईने की तरह सामने आ जाते थे जिसके भीतर उसे अपनी कुरूपताएं नजर आने लगती थीं.
निजी बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘पुरस्कारों की राजनीति को करीब से देखा है, इसलिए पुरस्कारों में रुचि नहीं रही.’ लगभग 85 साल की उम्र में हिन्दी को समर्पित लेखक जब यह कहता है कि ‘जितनी ईर्ष्या और द्वेष मैंने यहां देखा उतना और कहीं नहीं. इसमें आ गया हूं, क्या करूं?’ तो क्या यह हिन्दी की दुनिया के लिए आत्ममंथन का विषय नहीं होना चाहिए?
अंततः सवाल यह उठता है कि हम अपने समाज में कैसे लोग पसंद करते हैं, क्या हिन्दी पाठक भी एक बने-बनाए कृत्रिम पब्लिक स्फीयर रचना-इतर कार्यों से अर्जित महानता से संचालित हो रहा हैॽ विष्णुचंद्र शर्मा ने जनता को ही जनाधार माना, क्या यह पूछा जा सकता है कि जनता ने या हिन्दी के साहित्यकार समाज ने ऐसे लोगों को कितना अपना मानाॽ जो व्यक्ति जीवन भर ‘संज्ञा’ होने की मानसिकता के खिलाफ लड़ता रहा और ‘सर्वनाम’ बनने की कोशिश करता रहा, उसे हिन्दी समाज ने कितना मान दिया.
इस बात में कोई संदेह नहीं कि विष्णु जी आजीवन हिंदी साहित्य की बेहतरी चाहते रहे. उनका पूरा जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित था. श्रेष्ठतम विदेशी रचनाओं का अनुवाद करना, देश की दूसरी भाषाओं के साहित्य को हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध कराना, युवतम लोगों को हिंदी साहित्य से जोड़ना उनका दिन रात का काम था. सन 2000 में जब से विष्णुचंद्र शर्मा से मुलाकात हुई, उन्हें जब भी देखा हमेशा व्यस्त दिखे, रत दिखे, जब भी मिले चार योजनाओं के साथ दिखे, साहित्य अकादेमी में या मंडी हाउस पर चलते हुए भी मिले तो हमेशा ऐसी हड़बड़ी में नजर आए मानो वह काम अगर उसी दिन पूरा न हुआ तो कोई बड़ा नुकसान हो जाएगा. ये योजनाएं उनकी व्यक्तिगत न थीं, जब 2001 में सादतपुर के घर में वे बोले कि जेएनयू से ऐसे लड़के को लेकर आओ जो मुझे स्पेनिश सिखाए तो उसके पीछे यह मंतव्य था कि सीधे स्पेनिश साहित्य को पढ़ना समझना चाहता हूं ताकि हमारी हिन्दी में उसका बेहतर रूप आए. ‘कवि’, ‘सर्वनाम’ जैसी पत्रिकाओं और अन्य माध्यमों के द्वारा विष्णु जी ने विश्वनाथ त्रिपाठी, भगवान सिंह, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी जैसे अनेक लोगों को साहित्यिक पहचान दी, यह छोटा काम नहीं था. और यह सब मुझे स्वयं इन रचनाकारों ने बताया. विष्णु जी ने खुद अपना बखान कभी नहीं किया. जब भी मिला शास्त्र और लोक में पगे, नेह और ऊर्जा से भरे एक ‘युवा’ दोस्त से मुलाकात हुई जो हर पल समाज की चिंता करता और साहित्य को ओढ़ता-बिछाता नजर आया.
यह गहरी आश्वस्ति का विषय है कि विष्णुजी को महेश दर्पण जैसा संवेदनशील रचनाकार साथी मिला. कुछ साल पहले महेश जी ने उनका लंबा साक्षात्कार लिया था. वर्षों साथ रहकर महेश जी ने और उनके पूरे परिवार ने जिस तरह से विष्णुजी जैसे व्यक्ति को संभाला है उसके लिए हिंदी जगत को उनका ऋणी होना चाहिए.
विष्णुचंद्र शर्मा लगभग 60 पुस्तकों का भरा-पूरा रचना संसार छोड़ कर गए हैं. ये पुस्तकें एक व्यक्ति के साथ-साथ हिन्दी भाषा एवं साहित्य की समृद्धि की भी सूचक हैं. विष्णु जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं पर बात करना व्यक्ति से ज्यादा प्रवृत्ति पर बात करना है. उन पर बात करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि विष्णु जी ने ही मुझे सबसे पहले छापा था, वे मेरे साहित्यिक अभिभावक हैं. करीब तीन साल पहले जब एक बार मेरे सामने इन दोनों वरिष्ठों की मुलाकात हुई तो वह एक अद्भुत मुलाकात थी. एक व्यक्ति के सहारे और छड़ी से खुद को संभालते हुए त्रिपाठी जी जब विष्णु जी से मिले तो पहले उनके पांव छुए यह कहते हुए की उम्र में आप से बड़ा हूं और उसके बाद इतनी दुलार से उनकी ठुड्डी पकड़कर हिलायी कि वह दृश्य आंखों में फ्रीज हो गया. शायद इब्बार रब्बी जी ने घुसते ही विष्णु जी से पूछा था \”कैसे हो नवजात?\” विष्णु जी और विश्वनाथ जी का मिलन दो \”नवजातों\” का मिलन था. उसी विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा था कि मुझे विष्णुजी से डर लगता है, मैंने उनकी डांट सुनी है. फिर यह भी कहा कि विष्णुजी जिस पर नाराज न हों वह उनका आत्मीय नहीं है.
हिंदी साहित्य से टूट कर प्यार करने वाला और इतने आत्मीय ढंग से नाराज होनेवाला हमसे बहुत दूर चला गया.
(प्रमोद कुमार तिवारी. विष्णुचंद्र शर्मा के साथ) |
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