कोई लेखक अपने लेखन से बड़ा तो होता ही है इससे भी होता है कि उसने कितने नए लेखकों को तैयार किया, उनका संस्कार किया, उन्हें नये विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया आदि.
मुझे नहीं मालूम हिंदी के किसी लेखक के बिलकुल अंतिम समय तक के सिखावन और लगाव को उसके किसी शागिर्द ने लिखा है कि नहीं. कवयित्री और संगीत आदि पर लिखने वाली रंजना मिश्र का मंगलेश डबराल से संवाद ५ दिसम्बर तक चलता रहा. हालाँकि पारम्परिक अर्थ में इसमें कोई उस्ताद या शागिर्द नहीं है. यह किसी युवा का अपने वरिष्ठ से चलने वाला पर अनौपचारिक और गर्माहट से भरा संवाद था. इसकी खुली अंतरंगता और निश्छलता मन को मोह लेती है.
मंगलेश डबराल पर विचलित करने वाली स्मृति.
मंगलेश डबराल
‘जिनसे मिलना संभव नहीं हुआ
उनकी भी एक याद बनी रहती है मन में’
रंजना मिश्र
‘छूने के लिए ज़रूरी नहीं कोई बिलकुल पास बैठा हो
दूर से भी छूना संभव है
उस चिड़िया की तरह दूर से ही जो अपने अण्डों को सेती रहती है
कृपया छुएँ नहीं या छूना मना है जैसे वाक्यों पर विश्वास मत करो
यह लम्बे समय से चला आ रहा एक षड्यंत्र है’
उनकी शालीन संयत प्रतिरोध की भाषा की ठंडी आग ने आनेवाली पूरी पीढ़ी के लिए नई काव्य भाषा सहज करा उसे बरतने का संयम सामने रखा.
उनका जाना मुझे एक अधूरी कविता का हमेशा के लिए अधूरा रह जाना लग रहा है, वे खुद थे वह कविता जिसके शब्द कई जिंदगियों को छूकर उनमें स्पर्श के नए मायने पैदा कर सकते थे, जिनमें अभी कई कवितायेँ रचने की, प्रतिरोध के स्वर को बुलंद बनाए रखने की संभावना थी.
उनके इस तरह जाने की जानकारी दो बरस पहले तक मेरे लिए साहित्यिक परिवार के एक वरिष्ठ कवि के प्रस्थान की जानकारी से अधिक न बन पाती, अगर उस हरी बत्ती के पीछे बैठे इंसान और कवि को मैं उन संवादों के जरिये इतने करीब से न जान पाती जिसके बारे में कई बार इशारों और दबी कुटिल मुस्कानों में बात होती रही हैं.
उनसे मेरे संवादों और आत्मीयता भरी नोक झोंक का एक सिरा मेरी ओर से “पुणे कब आइयेगा, सवाई गन्धर्व महोत्सव की तारीख तय हो गई है” और दूसरा सिरा उनकी ओर से “अपनी कविताओं की फ़ाइल भेज दीजिये” के बीच की यात्रा थी जो बार–बार की जाती और इस यात्रा में हास्य, चुहल, हलकी बहसें, कविता, संगीत, अनुवाद और सरल वाक्यों में गूढ़ जीवन दर्शन के कई पड़ाव आते जाते रहते. इनमें स्नेह अपनेपन, विश्वास, सहजता और आश्वासन की अंतर्धारा बहती रहती जिसे शब्दों में न वे व्यक्त करते न मैं सुनने को इच्छुक रहती. यह साथ कई बार कुछ मिनटों का होता, कई बार लम्बा खिंचता. कठिन सवालों के जवाब देने से वे यथासंभव बचते और मेरी ज़िद उन्हीं सवालों के इर्द गिर्द घूमती. वे कहते कुछ यात्राएं अकेले ही करनी चाहिए.
इन संवादों की शुरुआत उस समय हुई जब मेरी एक कविता पढ़कर उन्होंने उसपर टिप्पणी की और मैंने उन्हें अपनी मित्र सूची में जोड़ने का साहस और धृष्टता की. ९० के दशक के बाद के लम्बे अंतराल के बाद जब मैं हिंदी की दुनिया, खासकर हिंदी साहित्य की दुनिया (जहाँ मैं दोबारा लौटकर आई थी) को करीब से जानने की कोशिश कर रही थी तो उनके नाम की चमकदार उपस्थिति का आभास हुआ पर उनकी काव्य यात्रा को बहुत ठीक तरीके से नहीं जानती थी बस ‘पहाड़ पर लालटेन’ की कवितायेँ सरसरी तौर पढ़ रखी थीं. मैं एक पाठक थी और वह भी बुरी. मेरी अपनी सीमाएं मुझे नामचीनों से दूर रखतीं. ९० के दशक में भी जिन कवियों को मैंने पढ़ा था उनमें मंगलेश डबराल नहीं थे हालांकि हिंदी कविता की दुनिया में वे शीर्ष के कवियों में वे तब भी थे. पर न मालूम क्यों मैं उनके प्रभामंडल से आतंकित नहीं थी इसका एक कारण संभवतः मेरी उम्र और साहित्य की दुनिया से रही दूरी थी, ऐसा अब लगता है. उनके दूर से नज़र आनेवाले प्रभामंडल के बावजूद उनका सौम्य और संकोची व्यक्तित्व उनकी तस्वीरों में भी उभर आता था और उनकी कवितायेँ पढने के बाद यह मानना मुश्किल था कि वे किसी ‘गिरोह के सरगना’ हो सकते हैं, जैसा उन्हें कई बार साबित करने की कोशिशें होती रहीं. उन्हें जानना एक बेहद सहज, संकोची, सरल, गंभीर और अपने सरोकारों से गहरे जुडे व्यक्ति को जानना था जो अपनी वरिष्ठता में गरिष्ठ नहीं हो चला था, जिसका ज्ञान उसके हास्य बोध के आड़े नहीं आता था और संगीत, यायावरी, फिल्मों, बतकही, और सहज सौम्यता से भरपूर उनका व्यक्तित्व किसी को भी प्रिय हो सकता था. हालांकि पिछले कुछ महीनों में उनपर जितने वार हुए उसे देखते यह गलत साबित हुआ. उनके व्यक्तित्व में किसी छोटे पहाड़ी कस्बेनुमा शहर से महानगर में चला आया युवा अभी जीवित ही था.
पहले ही संवाद में उन्होंने मुझे अपनी कुछ कवितायेँ मेल करने को कहा जो मैंने नहीं किया. मुझे यह उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष भर लगा, अंग्रेजी में जिसे ‘गुडविल जेस्चर’ कह सकते हैं. कुछ समय बाद उनका सन्देश फिर से आया “अपनी कवितायेँ मेल कीजिये. क्या कथादेश में उत्तर पूर्व यात्रा संस्मरण वाली रंजना मिश्र आप ही हैं? अगर हाँ तो वह भी मुझे मेल कीजिये वह मैं दोबारा पढना चाहूँगा, कथादेश का वह अंक कहीं गुम है”. मैं चकित थी, हालांकि अब मैं जानती हूँ यह उनके व्यक्तित्व का अंग था. नए नामों को प्रोत्साहित करना उन्होंने रूचि और पूरी ईमानदारी से किया. इस सूची में अनेक नाम मिलेंगे. आने वाले समय में यह मैंने बार बार अनुभव किया.
वे अक्सर देर रात तक उस हरी बत्ती के पीछे नज़र आते पर हमारा कोई ख़ास संवाद न होता. उस दिन मैं लम्बे समय के बाद जब फेसबुक पर आई तो अचानक उनका सन्देश आया – ‘रंजना जी, कहाँ हैं आप? बड़े दिनों बाद नज़र आईं. माँ के शोक का उन्हें पता चला तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा –
“माएं कहीं नहीं जातीं, वे हमारे आस पास बनी रहती हैं. मैं तो अपनी माँ को अपने साथ ही पाता हूँ”
उस वाक्य में संवेदना और दुःख का प्रतिकार था पर दुःख की उपस्थिति से इनकार नहीं. बाद के दिनों में मैंने उन्हें ऐसे ही छिटपुट, कभी सहज हास्य से भरपूर, कभी कुछ कविताओं (जो वे अक्सर मेल करते) और बेहद गंभीर गहन वाक्यों से उन्हें जाना और शायद वे भी इसी तरह मुझे जानते रहे होंगे और परस्पर विश्वास ने हमारे बीच की वह दयनीय औपचारिकता ख़त्म कर दी जिसके चंगुल से आज़ाद हो पाना हिंदी भाषी समाज में बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए, जहाँ सहज मित्रता को कलुषित कुत्सित जामा पहनाने में देर नहीं लगती. बाद के समय में हमारा संवाद उनकी और से अक्सर इस तरह शुरू होता –
‘या देवी सर्वभूतेषु रेडियोरुपेण संस्थिता’
जवाब में मैं कहती –
‘महामहिम ऑफ हिंदी कविता नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः’
उनका लिखा एक निबंध ‘प्रसिद्धि एक उद्योग’ पढने के बाद किसी कविता आयोजन के बारे बातचीत करते हुए मैंने कहा ‘सोचती हूँ दो चार अच्छी साड़ियाँ और मेक अप का सामान खरीद लूं, कवयित्रियों की भीड़ में मैं अकेली गरीब लगती हूँ. जाहिरन मैं कविता आयोजनों के ताम झाम और वहां कवियों के व्यवहार पर तंज कर रही थी, तुरंत उनका जवाब आया– जी, लगे हाथों एक मुकुट भी खरीद लीजिये, शोभा बढ़ेगी’ ! मैं हँसते हँसते दोहरी हो गई. ये थे मेरे प्रिय मंगलेश जी, जो सहज चुटीले वाक्यों में सार्थक और निरर्थक में फर्क समझा देते थे. क्या यही वे अपनी कविताओं में भी नहीं करते रहे ? उनकी कविताओं में एक भी अतिरिक्त शब्द मैं अब तक नहीं ढूंढ पाई हूँ.
उनकी प्रतिबद्धता और जीवन शैली में कोई दुराव नहीं था, यह दूर से भी नज़र आता था. किसी आयोजन के वीडिओ में उन्हें हाल ही में देखा जहाँ कुछ कवियों का जमावड़ा, शराब, सिगरेट और संगीत का दौर था और वे बड़ी मौज में कुछ गा रहे थे, जिसके लिए वे जाने जाते थे. उनकी खाने की प्लेट में जरा भी जूठन न बची थी जबकि अगल बगल रखी प्लेटों में खाना ख़त्म नहीं किया गया था. उस दृश्य में मैंने एक गरीब देश के ईमानदार कवि को देखा जहाँ कुछ प्रतिशत लोग अब भी दो वक़्त की रोटी नहीं जुटा पाते हैं. उस दृश्य में मुझे उनकी कविता ‘ताकत की दुनिया’ साकार होती दिखी जिसकी एक पंक्ति हैं –
मैं क्यों कब्ज़ा करूँगा इस धरती पर,
किसी को ज़रुरत हुई तो दे दूंगा उसे जो भी होंगे मेरे खेत खलिहान’.
उन्होंने अपनी भूख भर भोजन अपनी प्लेट में लिया और उसे पूरा ख़त्म किया था.
मेरी कुछ कविताओं पर भी उनकी एक बार की गई टिप्पणी याद आती है, उन्होंने कहा– आपकी अमुक कविता कुछ ज्यादा बोल रही है, इसपर काम कीजिये. कविताओं को संकोची होना चाहिए, उनमें अंतर्ध्वनियां मुखर होनी चाहिए, वह इशारे भी करे तो काफी हैं. अमुक कविता को आप और नुकीला बना सकती हैं’. कुछ कवितायेँ उनके कहने पर मैंने दोबारा लिखीं और वे उन्हें बेहतर लगीं. हालांकि यह मेरे लिए मुश्किल था. इस अस्वीकार का उन्होंने बुरा नहीं माना– ‘कविताओं से ज्यादा छेड़ छाड़ नहीं करनी चाहिए’. पर साथ ही टी एस इलियट का ‘विज़न एंड री-विज़न’ जैसा सूत्र वाक्य भी थमा दिया. कई बार जब अपने लेखन को लेकर संशय में होती तो वे कहते– ‘संशय बना रहना चाहिए, संकोच हमें अधिक मनुष्य बनाता है’. ऐसे ही कई संक्षिप्त सारगर्भित संवादों पर वे गहरी बात कह दिया करते.
उनके कंधे का झोला अक्सर मेरी तानाकशी का केंद्र होता पर वे उसका भी बुरा नहीं मानते कहते–‘आप मेरे झोले का पीछा छोड़ दीजिये इसने मेरा लम्बे समय तक साथ दिया है’.
ऐसे ही किसी दिन उन्होंने अपने पुराने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए चुहल की – ‘अच्छा तो बताऊँ आपको, जब हम बिलकुल युवा थे तो रेडियो स्टेशन जाते हुए बिल्कुल सहमे रहते, क्या पता कोई मैडम हमें बुलाकर डांट न दे! क्या आप भी नए लोगों को इसी तरह डराती हैं ? मैंने भी मज़े लेते हुए कहा– ‘जी, मेरे पैर उलटे हैं, चुडैलों की तरह ! जवाब हाज़िर था– ‘झाड़ू कौन से ब्रांड की पसंद करती हैं आप!
इसी तरह एक बार बड़े मज़े मज़े हमने बचपन की खुराफातों पर बातें की और उन्होंने कई पहाड़ी अपशब्द और कहावतें जो बच्चे कहते हैं, बताए. मैंने भी उन्हें बताया हम किस तरह अपशब्दों को उल्टा कर कहा करते थे. यहाँ कोई दुराव छिपाव नहीं था, न ही अनावश्यक सतर्कता. हर बार नोंक झोंक, सवाई गन्धर्व और कविता की पाण्डुलिपि पर हम एक दूसरे को राम राम कहते. पुणे आने की बात पर वे कहते:
‘अब तो जाते हैं बुत कदे से ‘मीर’
फिर मिलेंगे गर ख़ुदा लाया’.
मीर उनके पसंदीदा शायर थे ये सभी जानते हैं.
पिछली बार सवाई गन्धर्व महोत्सव की तारीखें तय होने पर मैंने पूछा आ रहे हैं? उनका जवाब आया-‘आऊंगा रंजना जी, यह बहुत पुराना सपना है’.
वे नहीं आए.
कई बार हफ़्तों तक कोई खबर नहीं आती तो पता चलता किसी अनुवाद या अपने नए संग्रह को लेकर व्यस्त हैं. कुछ कवितायेँ या कोई आलेख भेजकर कहते ‘बताइये कैसी हैं’. यह बराबरी का व्यवहार उनका सहज स्वभाव था उनके करीब रहे लोग यह जानते होंगे.
संगीत और अनुवाद से उनका जुड़ाव उन्हें मेरे लिए विशेष बनाता था. कई बार वे पूछते– रियाज़ कर रही हैं? (जो मैं अक्सर नहीं करती थी) लगातार पूछने का नतीजा यह था कि मैंने फिर से रियाज़ करना शुरू किया और उन्हें अपने रियाज़ की रिकार्डिंग भेजी. वह राग दुर्गा का आलाप था. शाम को ही उनका फ़ोन आया– रंजना जी, अब रियाज़ बंद न हो ! वैसे थोड़ी भूप की छाया आ गई है आलाप में. यह सच था, बाद में सुनने पर मैंने अनुभव किया. संगीत से जुडी लम्बी चर्चाएँ जिनमें संगीत का व्याकरण, घरानों, अलग अलग क्षेत्रों की जीवन शैली, जलवायु, मिटटी और भोजन का कंठस्वर पर प्रभाव ऐसे कई विषय थे जिनपर वे लगातार बातें कर सकते थे. इस बातचीत के बाद उन्होंने संगीत से जुड़े अपने आलेख मुझे भेजे और मैं जानती हूँ अगर वे कवि न होते तो निश्चय ही श्रेष्ठ संगीतकार और गायक हो सकते थे. उनका प्रतिबद्ध स्वभाव उन्हें संगीत के प्रति प्रतिबद्धता से भी दूर नहीं जाने देता. उनकी गंभीर और भारी आवाज़ में सिगरेट की वजह से आया एक रूखापन था और अभ्यास की कमी के कारण लोच की कमी पर यह निश्चित है कि शास्त्रीय संगीत की समझ और उसके प्रति प्रेम के कारण वे अच्छे गायक गायक सिद्ध होते. विधिवत संगीत न सीख पाने के टीस हमेशा उनके मन में रही.
इन सबके बावजूद एक हल्का सा अवसाद उन्हें घेरे रहता और कई बार वे इसे स्वीकार भी करते हालांकि इसपर लम्बी बात करने से कतराते और ऐसे में उनका एक ही जवाब होता–‘करेंगे रंजना जी करेंगे, इसपर भी बातें करेंगे’ और वह समय फिर न आता. तात्कालिक राजनीतिक सामाजिक यथार्थ से उपजी निराशा और उनपर होनेवाले लगातार हमले उन्हें बेचैन करते थे. एक बार यह कहने पर कि आपको हर हमले का जवाब नहीं देना चाहिए आप उसके बिना ही प्रतिरोध को बनाए रख सकते हैं उनका जवाब था– अब इस उम्र में क्या बदलें रंजना जी. कई असहमतियों और बहसों के बावजूद वे उपलब्ध रहते. नाराजगी, नफरत और गिरोहबंदी उनका मूल स्वभाव था यह मानना बेहद मुश्किल है.
साहित्य और हर तरह का समाज अपनी कुंठाओं को आरोपित करने के लिए ऐसे पात्र की तलाश करता है जो उनके बीच से हो और सफल हो. सफलता भी आलोचनीय होने का कारण है. मंगलेश जी ही नहीं हिंदी साहित्य के कई लेखक/ कवि इसका शिकार हुए हैं और आगे भी होंगे. उनमें मानवीय कमजोरियां न थीं ये कहना कठिन है पर इन कमजोरियों के बावजूद वे प्रथमतः और मूलतः श्रेष्ठ कवि और इंसान रहे.
कोरोना की बंदी का समय उनके लिए कुछ कम त्रासद नहीं था, कहीं न जा पाना, शाम को मित्रों की बैठकी का न होना और पूरे राजनीतिक और सामाजिक घटनाक्रम ने उन्हें और हर संवेदनशील व्यक्ति को विचलित किया था. मई में हुई उनसे एक बातचीत याद आती है जिसमें अपने जानते पहली बार वे मुझे इतने आक्रोशित और दुखी नज़र आए. थोडा स्थिर होने पर मुझसे पूछा ‘आप क्या पढ़ रही हैं इन दिनों, फेसबुक पर आपकी गतिविधियाँ देखता रहता हूँ’. उस दिन हमने अमीर खान साहब की गायकी पर लम्बी बातचीत की हालांकि उनका मन उस बातचीत से जल्द ही उखड गया और उन्होंने फ़ोन रख दिया.
बंदी खुलने के बाद जब उनसे मेरी बात हुई तो वे पहले की तरह उत्साहित लगे. कुछ फ़िल्में जो उन्होंने भेजी थीं उनपर थोड़ी बातचीत की और कहा जल्दी से अपनी पांडुलिपि भेजिए, आप बहुत देर कर रही हैं. सोचा था अब पांडुलिपि भेज ही दूँगी.
अक्टूबर में प्रतिमा बेदी पर आलेख पढ़कर फिर से उन्होंने फ़ोन किया, हौसला बढ़ाया और कहा कविताओं की पांडुलिपि के बाद आपको कला से जुड़े व्यक्तित्वों पर लिखने के बारे गंभीरता से सोचना चाहिए. कुछ नामों पर हमारी चर्चा हुई और उन्होंने कुछ सामग्री मेल की. उनमें से एक नाम सुरबहार वादक अन्नपूर्णा देवी का भी था. अगला सन्देश उनका इसी से सम्बन्धित था– ‘आपने काम करना शुरू किया या नहीं’?
वे मानो किसी जल्दी में थे. ‘हरी अप मैम् ! व्हाट आर यू अप टू!’ उनका अगला सन्देश था. वे जानते थे मैम कहने पर मैं कुढ़ जाऊँगी.
इस बीच गायन के कई यू टयूब लिंक मैंने उन्हें भेजे और कुछ कवितायेँ उन्होंने मुझे. सब कुछ पहले की तरह था और मैं उनसे पूछना चाहती थी, वे बाहर कितना निकल रहे हैं, मुझे मालूम था वे ज़रूर घुमक्कड़ी कर रहे होंगे और संभवतः वे करते रहे. हालांकि वे मुझे बराबर ताकीद करते पुणे में स्थिति बुरी है आप संभल कर रहिये. मैंने उन्हें बताया था मैंने कोरोना से जुड़े आंकड़े देखने बंद कर दिए हैं और अपनी नियमित दिनचर्या में हूँ जिसपर उन्होंने हलकी सी डांट पिलाई– ‘मुझे पता है आप धारा के विरुद्ध ही चलेंगी’ मैंने दांत चियार दिए.
आज मुझे महसूस होता है, वह उन्हें डांट पिलाने का दिन था, क्योंकि अक्टूबर के अंत में उन्होंने बताया वे और पूरा परिवार बारी–बारी से बुखार झेलते रहे. अभी हालांकि बुखार नहीं पर बदन में अत्यधिक दर्द और खांसी है. बुखार नहीं यह राहत की बात थी.
दोबारा फ़ोन करने पर पता चला अब वे बेहतर हैं.
नवम्बर के तीसरे सप्ताह में मैंने अपनी पांडुलिपि उन्हें भेजी और दो चार दिनों के लिए भूल गई कि उनका कोई जवाब नहीं आया. दो दिन और बीते फ़ोन करने की सोचते–सोचते और जब मैंने फ़ोन किया तो उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया. उनसे इन दो वर्षों के संपर्क में यह पहला अवसर था जब उन्होंने मेल का जवाब नहीं दिया और फ़ोन भी नहीं उठाया था. फेसबुक पर आना संभव नहीं हो पा रहा था, जब आई तो उनकी दो तीन दिन पहले की बुखार से सम्बंधित पोस्ट दिखी और एक खटका सा हुआ.
उसके तीसरे दिन खबर मिली कि वे अस्पताल में कोरोना संक्रमण के कारण एडमिट हैं.
यह ३ दिसम्बर का दिन था और उनके चैट विंडो की हरी बत्ती जली नज़र आई. मैंने उन्हें मेसेज किया– ‘प्रिय कवि को मेरी उम्र लगे’.
४ दिसम्बर को उनका जवाब आया – ‘दुर्गा सुना दीजिये’. रोमन में लिखे सन्देश में ‘दुर्गा’ की जगह ‘दुर्जा’ लिखा था. वह एक मनहूस दिन था और ऑफिस की अफरातफरी में इस मनहूस काले दिन की मनहूसियत मुझपर तारी रही. पंडित भीमसेन जोशी की युवावस्था और पंडित नारायण राव व्यास का गाया दुर्गा मैंने उन्हें भेजा, और करीब–करीब पूरे दिन मेसेंजेर पर रहने की कोशिश करती रही ताकि उनका हाल पता चले. उनकी कविता ‘गाता हुआ लड़का’ का पाठ कभी मैंने रिकॉर्ड किया था और सोचा था उन्हें भेजूंगी पर भेज नहीं पाई थी, वह उन्हें भेजा. ५ दिसम्बर उन्होंने नारायण राव व्यास की वही लिंक मुझे वापस भेजी जिसमें उन्होंने इमोटिकॉन बनाकर भेजा था. वे मानसिक रूप से चेतन थे और कोरोना का पूरी ताकत से प्रतिरोध कर रहे थे. एक घंटे बाद मेरे फ़ोन पर उनकी एक मिस्ड कॉल थी मैंने तुरंत फ़ोन किया तो उनकी उखड़ी सी, मुश्किल से सांस लेती हुई आवाज़ फ़ोन के दूसरी ओर थी– आप कैसे हैं? ‘मैं ठीक हूँ, ठीक हूँ रंजना जी, बहुत याद आ रही है’.
मैं नहीं जानती उन्हें क्या याद आ रहा था- पहाड़, उसकी चोटियों पर जमी बर्फ, बचपन का गाँव डांग काफलपानी वाला घर और घर की वह रसोई जहाँ उनकी माँ ने कनस्तरों में छीमी, तोर और लोबिया के दाने सर्द मौसम के लिए बचा रखे थे या पिता का बनाया ज्वरांकुश और उनकी जर्मन रीड वाला हारमोनियम.
वे संभवतः स्मृति के दूसरे समय में थे.
मैंने कहा– ‘आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे चिंता न करें, बस हौसला बनाए रखें. बहुत काम पड़ा है. सब लोग आपको बहुत प्यार करते हैं ’
कुछ समय बाद फिर से उनकी मिस्ड कॉल थी और जब मैंने दोबारा फ़ोन किया तो उन्होंने बड़ी कोशिश से बताया– रंजना जी, मुझे एम्स शिफ्ट कर रहे हैं. उनकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी और सांस लेने में तकलीफ स्पष्ट थी. मैंने कहा आस–पास कोई हैं तो उन्हें फ़ोन दीजिये. उनके करीब संभवतः कोई नर्स थीं जिन्होंने बताया पेपर तैयार कर रहे हैं और उन्हें एम्स शिफ्ट किया जा रहा है. मैंने पूछा वे कैसे हैं? क्या पहले से बेहतर ? नर्स ने जवाब दिया हाँ पहले से तो ठीक हैं.
वह पांच दिसम्बर की दोपहर १ बजकर १० मिनट का समय था.
वे ठीक नहीं थे. मेरा मन जान गया था पर मान नहीं रहा था.
थोड़ी देर बाद मैंने फिर से उन्हें मेसेज किया ‘बहुत बहुत बहुत स्नेह, आपको लगातार याद कर रही हूँ. उन्होंने थम्पस अप वाले इमोटिकॉन भेजे.
वह उनका आखिरी सन्देश था और उसमें मैं आश्वासन ढूँढने की हर संभव कोशिश कर रही थी.
छह दिसम्बर को वे नहीं दिखे और मैंने भी फ़ोन या मेसेज करना उचित नहीं समझा.
७ दिसम्बर को उन्हें लगातार मेसेज करती रही कि कभी तो देखेंगे, ठीक होने के बाद देखेंगे, समझेंगे लोगों के लिए वे क्या हैं. फेसबुक और सोशल मीडिया पर लगातार उनकी बीमारी के चर्चे थे और मन पहले से बेचैन था. कुछ मित्रों से लगातार बातें हो रहीं थीं और सभी चिंतित थे.
७ दिसम्बर को वे वेंटीलेटर पर थे.
उसके बाद के दो दिन जैसे धुंध में गुम हैं. वे सिर्फ प्रार्थना की कातरता और हर घंटे और मिनट क्षीण होते जाने वाली उम्मीद से भरे हैं. फेसबुक पर उनकी स्थिति जानने के लिए मैं असद जैदी जी की वाल पर ही निर्भर थी और दिल्ली के मित्रों ने बताया उनकी स्थिति गंभीर बनी हुई है.
७ दिसम्बर के दिन आठ मेसेज जो मैंने उन्हें किये वे अब भी देखे जाने बाकी हैं. वे कभी देखे नहीं जाएंगे. वे दुआएं, प्रार्थनाएं, स्नेह और प्यार उनतक कभी नहीं पहुचेंगा जो इनमें छुपा था.
९ दिसम्बर की शाम मंगलेश जी इन सबसे दूर जा निकले. इस बार उनका झोला उनके साथ नहीं था.
मैं नहीं जानती थी हम कभी नहीं मिलेंगे. हमारा साथ उनके नाम की चैट विंडो में जलने वाली हरी बत्ती तक ही महदूद रह जाएगा.
पंडित जसराज और प्रतिमा बेदी पर लिखने के बाद अन्य लोगों पर लिखने के बजाय मुझे मंगलेश जी पर लिखना होगा यह भी मुझे कहाँ मालूम था, मुझे तो अभी उस किताब में आने वाले सभी व्यक्तित्वों पर उनसे लम्बी बात करनी थी जो संभवतः अब कभी लिखी नहीं जाएगी.
आपको अभी बहुत कुछ करना था, आप यूँ चले क्यों गए मंगलेश जी? मिलने पर पूछूंगी.
_______________________