इस वर्ष का दादा साहब फालके पुरस्कार अभिनेता और निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार को दिया गया है. क्या उन्हें अभिनय के लिए यह सम्मान मिला है या फिर निर्देशन के लिए या ‘मनोज कुमार स्टाइल देशभक्ति’ के लिए? आलोचक विष्णु खरे ने बड़े तीखे सवाल उठाये हैं.
इस आलेख को अलग से देशभक्ति और देशद्रोह पर चल रहे विवादों के सन्दर्भ में भी पढ़ा जाना चाहिए.
‘भारत’-भक्ति को एक और ईनाम की बलि
विष्णु खरे
मानना होगा कि उन्होंने यह कभी नहीं छिपाया कि वह ‘’खुदा-ए-अदाकारी’’ दिलीप कुमार से एक मानसिक बीमारी या प्रेत-बाधा की तरह ग्रस्त हैं और बेशक़ इसमें एक वजह ‘मिड’ और ‘लॉन्ग शॉट’ में उनके अपने आराध्य की शक्ल-ओ-सूरत से मिलने की भी थी. दिलीप कुमार की समूची भंगिमा और शैली की खूब नक़ल हुई है. मैं राजकुमार को भी आख़िरकार दिलीप-मैथड-स्कूल का एक्टर मानता हूँ. राजेन्द्र कुमार ने दिलीप-स्टाइल और उनके रिजेक्टेड माल को अपना कर जुबिली कुमार का उपनाम और करोड़ों कमाए. यदि दिलीप की बेपनाह कामयाबियों से अस्सी फ़ीसद सीखते हुए उन्हें कोई आगे ले जा सका है तो वह अमिताभ बच्चन ही हैं. बेचारा अपना अमन वर्मा कास्टिंग काउच अभियान में न फँस गया होता तो वह भी दिलीप की ताज़ातरीन बुरी कॉपी न था. लेकिन अगर उनका जीना मुहाल किया तो फ़क़त मनोज कुमार ने. मुझे तो शक़ है कि युसुफ़भाई सुबह से ही इसलिए व्हील-चेयर पकड़ लेते हैं कि कहीं मनोज कुमार मँडराता आता न हो.
लुब्बेलुबाब यह है कि मनोज कुमार मनसा वाचा कर्मणा कभी भी मौलिक अभिनेता नहीं रहे. जुर्म का इकबाल करने से मुआफी तो मिल नहीं जाती, कुछ रियायत अलबत्ता हो सकती है. लेकिन मनोज कुमार ने तो हद कर दी थी. सितम यह था कि वह बज़ाते-ख़ुद बेहद खराब एक्टर और नक्काल थे और उन्होंने दिलीप-शैली को ही एक हास्यास्पद पैरोडी, स्वाँग या भड़ैती में बदल दिया. वह दिलीप की नक़ल करते थे और लोग उनकी उन ‘अदाओं’ पर हँसते थे.एक ऐसा वक़्त आता है जब एक्टिंग या किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र का कोई-न-कोई छोटा-बड़ा ईनाम-सम्मान किसी को देना ही पड़ता है – उसके कई कारण होते हैं, पानेवाले की क़ाबिलियत ही नहीं. बुज़ुर्गियत के मारे-काटे अपने भारतीय समाज में लम्बी उम्र इसमें बहुत मददगार साबित होती है.
हम कह सकते हैं कि अगर मनोज कुमार को उत्कृष्ट अभिनय के लिए इस बार का दादासाहब फालके पुरस्कार दिया गया है तो वह एक भारी भूल’,अन्याय और पक्षपात है क्योंकि शायद वह स्वयं वास्तविक विनम्रता से मानेंगे कि उन्होंने खुल्लमखुल्ला क़र्ज़ की अदाकारी पर अपना कैरियर बनाया और गुज़ार दिया. यूँ तो कोई भी ऐसा पुरस्कार विवाद से परे या समर्थन का मोहताज नहीं होता फिर भी कुल मिलाकर मनोज कुमार को कभी अल्प-मत से भी काबिल-इ-ज़िक्र अदाकार नहीं माना गया.
हिंदी सिनेमा में मैं अब तक डरते-डरते श्याम बेनेगल, आशा भोसले, हृषीकेश मुखर्जी, बी.आर.चोपड़ा, दिलीप कुमार, लता मंगेशकर, अशोक कुमार, राज कपूर, वी.शांताराम, दुर्गा खोटे, पृथ्वीराज कपूर. नौशाद और सोहराब मोदी को ही फालके-योग्य मान पाया हूँ और पूछता रहा हूँ कि बलराज साहनी, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, बिमल रॉय, गुरुदत्त, अमिताभ बच्चन, मुहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, शम्मी कपूर, जॉनी वॉकर, मोतीलाल, अमरीश पुरी, सईद जाफ़री को वह क्यों नहीं दिया गया और कामिनी कौशल, नूतन, मीना कुमारी, मधुबाला, नर्गिस, वहीदा रहमान जैसी महान अभिनेत्रियों को क्यों नज़रअंदाज़ किया गया ? बेशक़ इस नाइंसाफ़ी में मनोज कुमार का कोई हाथ नहीं रहा और न मैं किसी तरह की असहिष्णुता के प्रतिवाद में उन्हें उसे लौटाने के लिए उकसाऊँगा लेकिन यह ज़रूर याचना करूँगा कि अब वह मुफ़स्सिल अख़बारों में बजरंगबली के किसी चमत्कारी बाजूबंद के इश्तहार में बाबाजी की तरह आने पर पुनर्विचार करें.
लेकिन असली सवाल अभी-भी अपनी जगह पर है – अगर मनोज कुमार को दिलीपकुमार की नक़ल के लिए दादासाहेब नहीं मिला तो क्या पिक्चर बनाने और डायरेक्ट करने के लिए दिया गया? अपने सक्रिय बत्तीस वर्षों में उन्होंने जो फ़िल्में बनाई हैं वह ज़्यादा नहीं हैं – ‘उपकार’ (1967), ’पूरब और पश्चिम’(1970), ‘शोर’ (1972) ,’रोटी कपड़ा और मकान’ (1974), ‘क्रांति’ (1981), ’पेन्टर बाबू’ (1983),’क्लर्क’ (1989) और ‘जयहिंद’ (1999) .इनमें ‘शोर’,’पेंटर बाबू’,’क्लर्क’ और ‘जयहिंद’ फ्लॉप से लेकर सुपर-फ्लॉप तक मानी गई हैं और अंतिम तीन को लेकर मनोज कुमार का खूब मज़ाक़ भी बनाया गया, जबकि बाक़ी चार ने बढ़िया बिज़नेस किया और आराध्य-गुरु दिलीप कुमार की शुभ उपस्थिति वाली ‘क्रांति’ ने तो आज के क़रीब सौ करोड़ रूपए के बराबर कमाई की.
अफ़वाह चली आती है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार अभिनीत भगत सिंह की जीवनी-फिल्म ‘शहीद’ देखकर उनसे कहा था कि वह देशभक्ति से लबरेज़ सिनेमा ही बनाएँ. ताशकंद में अत्यंत रहस्यमय एकांत मृत्यु को प्राप्त होने से पहले शास्त्रीजी इतने नाईव आदर्शवादी थे कि ‘जय जवान जय किसान’ के साथ-साथ ऐसा भी कह सकते थे. इससे प्रेरित हमारे नायक ने सबसे पहले अपने महदोन्माद (मेगालोमैनिया) में स्वयं को राष्ट्र का प्रतीक बना कर अपनी फिल्मों में अपने चरित्र का नाम ‘भारत’ या ‘भारत कुमार’ रखना शुरू कर दिया और हमारे अधिकांश फिल्म मीडिया ने, जो तब भी जाहिल था, उसे कुछ संजीदगी कुछ शरारत से हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों में चला दिया और पुराने विचित्र सिक्कों या नोटों की तरह अब भी उसे बक्से से निकाल कर याद कर लिया जाता है.
1965 के भारत-पाक युद्ध से इमर्जेन्सी तक के दस बरस देशभक्ति के भारतीय-हिन्दू ब्रांड के थे. बीच में हम पूर्वी बंगाल को भी ‘बांग्लादेश’ में तब्दील कर पाकिस्तान से आज़ाद करवा चुके थे लेकिन अचानक इंदिरा गाँधी की राय हुई कि मुल्क का वुजूद ख़तरे में है और आपात्काल अनिवार्य है .’रोटी कपड़ा और मकान’ के मुहावरे में उनके सिंडिकेट-विरोधी ‘’समाजवादी समाज’’ के नारों की अनुगूँज भी थी. जवाहरलाल नेहरू के सत्रह वर्षों में कभी राष्ट्रभक्ति या हुब्बे-वतन को इतना राजनीतिक, सामाजिक या साम्प्रदायिक हर्बा-हथियार नहीं बनाया गया था. मनोज कुमार ने भगत सिंह और उनके साथियों की जुझारू, आत्मबलिदानी, सशस्त्र, सेकुलर, वामपंथी क्रांतिकारी सच्ची देशभक्ति को कभी अपनी फिल्मों का विषय नहीं बनाया. उनके यहाँ देशभक्ति का एक ही मतलब था – पश्चिम, पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का थोक भंडाफोड़ और प्राचीन से लेकर अर्वाचीन भारतीय (कृपया ‘हिन्दू’ पढ़ें) सभ्यता, इतिहास, संस्कृति, इतिहास की उनकी समझ के संस्करण का सॉफ्ट हिंदुत्व वाला प्रचार. देश-विभाजन के बाद जिस वर्णसंकर फ़िर्क़ापरस्त संस्कृति का विकास हमारे यहाँ हुआ, उसे मनोज कुमार मार्का दोमुँही देशभक्ति बहुत पुसाती थी.
विडम्बना यह है कि देश और देशभक्ति न तो ‘उपकार’ के ज़माने में ही वैसे थे और न आज के ‘नव-देशभक्ति’ (Neo-patriotism) के युग में वैसे हैं जैसा हिंदी सिनेमा बना और दिखा रहा है. सस्ती भावुकता, बहादुरी और सतही सोद्देश्यता से भरी, ’मेरे देश की धरती सोना उगले’ या ‘दुल्हन (पहन) चली तीन रंग की चोली’ जैसी फूहड़ देशभक्ति आज़ादी के बाद भारत सरीखे देश में धर्म की तरह जनता की अफीम रही है. मनोज कुमार को उसी देशभक्ति का प्रतिनिधि अभिनेता-निर्माता-निदेशक मान कर कुल जमा चार फिल्मों के दयनीय सैंटिमेंटल देशभक्त नास्टैल्जिया पर दादासाहेब फालके सम्मान दे डाला गया है क्योंकि अभी जनता की भावनाओं को किसी भी बाज़ारू और सस्ते स्तर पर उभाड़ना ही है. दुर्योधन की तरह विदेशी तालाब में सुरक्षित ललित मोदी और सांसद मल्य जैसे मगरमच्छों पर ध्यान नहीं जाना चाहिए. कन्हैया, रोमुला, दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, काले पैसे, और करोड़ों का जुर्माना भर कर यमुना तट पर नटखट विश्व सांस्कृतिक रास-रचैयों आदि पर प्रश्न उठानेवाले भी देशद्रोही हैं. हमें अभी ‘’भारत कुमार’’ जैसे देशभक्त चाहिए जो उन पर कभी फ़िल्म न बनाएँगे न बनने देंगे.
विडम्बना यह है कि देश और देशभक्ति न तो ‘उपकार’ के ज़माने में ही वैसे थे और न आज के ‘नव-देशभक्ति’ (Neo-patriotism) के युग में वैसे हैं जैसा हिंदी सिनेमा बना और दिखा रहा है. सस्ती भावुकता, बहादुरी और सतही सोद्देश्यता से भरी, ’मेरे देश की धरती सोना उगले’ या ‘दुल्हन (पहन) चली तीन रंग की चोली’ जैसी फूहड़ देशभक्ति आज़ादी के बाद भारत सरीखे देश में धर्म की तरह जनता की अफीम रही है. मनोज कुमार को उसी देशभक्ति का प्रतिनिधि अभिनेता-निर्माता-निदेशक मान कर कुल जमा चार फिल्मों के दयनीय सैंटिमेंटल देशभक्त नास्टैल्जिया पर दादासाहेब फालके सम्मान दे डाला गया है क्योंकि अभी जनता की भावनाओं को किसी भी बाज़ारू और सस्ते स्तर पर उभाड़ना ही है. दुर्योधन की तरह विदेशी तालाब में सुरक्षित ललित मोदी और सांसद मल्य जैसे मगरमच्छों पर ध्यान नहीं जाना चाहिए. कन्हैया, रोमुला, दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, काले पैसे, और करोड़ों का जुर्माना भर कर यमुना तट पर नटखट विश्व सांस्कृतिक रास-रचैयों आदि पर प्रश्न उठानेवाले भी देशद्रोही हैं. हमें अभी ‘’भारत कुमार’’ जैसे देशभक्त चाहिए जो उन पर कभी फ़िल्म न बनाएँगे न बनने देंगे.