शास्त्रार्थ में नेहरूमनोज कुमार |
आज़ाद हिन्दुस्तान के पहले प्रधानमंत्री और उपनिवेशवाद विरोधी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक महत्त्वपूर्ण नेता जवाहरलाल नेहरू की एक बार फिर से भारत के राजनीतिक विमर्श में वापसी हुई है. जिस राजनीतिक वर्ग के पास आज भारत की सत्ता है वह हर प्रकार से एक नए दौर का सूत्रपात करना चाहता है. अब नेहरू के प्रथम प्रधानमंत्री होने के कारण भारत की अनेक लोकतांत्रिक और प्रशासनिक संस्थाओं पर नेहरू की छाप है, इसलिए जाहिर है नेहरू से उलझे बिना नए दौर की शुरुआत हो नहीं सकती है. ऐसी स्थिति में पूर्वपक्ष के रूप में नेहरू की वापसी अपरिहार्य है. शास्त्रार्थ की भारतीय परम्परा में पूर्वपक्ष को समग्रता में रखे बिना उत्तर-पक्ष प्रभावी नहीं हो सकता है.
अगर यह शास्त्रार्थ नेकनीयती से हो तो शायद वह भारत के लोकतंत्र के लिए स्वास्थ्यकर ही होगा, लेकिन वह नेकनीयती ही तो संदेह के घेरे में है.
जिस राजनीतिक वर्ग की ओर पहले अनुच्छेद में इशारा किया गया है उसका नेतृत्व पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में मुख्यतः दो राजनीतिक दलों ने किया है- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी. साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि उस राजनीतिक वर्ग में सिर्फ राजनीतिक दलों के लोग ही नहीं, बल्कि नौकरशाह, अर्थशास्त्री, पत्रकार और तमाम विशेषज्ञ शामिल हैं.
1991-92 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने जब भारतीय अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी पूँजी के लिए खोला तो वह पहला मौक़ा था जब नेहरू से ईमानदारी पूर्वक राजनीतिक शास्त्रार्थ किया जाता- उतनी ही उत्कट बौद्धिक ईमानदारी से जितनी ईमानदारी नेहरू ने गाँधी से अपने संवाद में दिखाई थी. लेकिन कांग्रेस नेहरू से किसी भी तरह के सीधे संवाद से बचती रही और इस सौ-सवा सौ साल पुरानी पार्टी ने नेहरू से शास्त्रार्थ के लिए राजनेताओं के बदले तकनीकी विशेषज्ञों को आगे कर दिया. ऐसे ही एक तकनीकी विशेषज्ञ मनमोहन सिंह पहले वित्तमंत्री बनाए गए और आगे चलाकर पार्टी के ‘मनोनीत’ प्रधानमंत्री भी बने. पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने 90 के दशक में प्रस्तावित नई आर्थिक नीति को एक बेहतर विकल्प के रूप में कम और विकल्पहीन स्थिति में उठाए गए एक अनिवार्य कदम के रूप में अधिक पेश किया. नतीजा इस रूप में सामने आया कि नेहरू और उनकी पीढ़ी के कांग्रेस नेताओं ने जिस पार्टी को एक संवादोन्मुखी पार्टी बनाया था वह पार्टी चुपचाप काम करने वाली राजनीतिक-प्रशासकों और तकनीकी विशेषज्ञों की पार्टी बनती चली गई.
इसकी शुरुआत तो तभी हो गई थी जब संजय गाँधी ने- ‘बातें कम, काम ज्यादा’ का नारा दिया था, लेकिन 1990 के बाद पार्टी और सरकार दोनों ही मंचों पर कांग्रेस में पेशेवर-प्रबंधकीय संवाद का बोलबाला रहा. ऐसी स्थिति में नेहरू के अनेक वैचारिक आग्रहों- जैसे अर्थतंत्र के संचालन में राज्य की सक्रिय भूमिका, राष्ट्र की आर्थिक आत्मनिर्भरता आदि को दरकिनार कर नेहरू की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक छवि को किसी कर्मकांडीय पद्धति से बचाए रखने की कोशिश की गई.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुवाई वाली दूसरी राजनीतिक शक्तियाँ हमेशा से नए दौर के सूत्रपात को लेकर ज्यादा मुखर रहीं. जनसंघ के जमाने से ही इस राजनीतिक धारा के समर्थक नेहरू की धर्मनिरपेक्षता को मुसलमानों के प्रति पक्षपाती मानते रहे. 90 वे के दशक में रामजन्मभूमि आन्दोलन के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ जैसा मुहावरा गढ़कर इस मान्यता को सशक्त अभिव्यक्ति दी. आर्थिक मोर्चे पर जनसंघ हमेशा से वामपंथी नीतियों के विरोध में रही, लेकिन बाज़ार आधारित मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरोकारी के मामले में इस पार्टी के भीतर एक से अधिक मत रहे.
90 वे के दशक तक आते-आते राष्ट्रवादी पार्टी का वैचारिक झुकाव जैसे-जैसे आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर राष्ट्र के बदले वैश्वीकृत व्यवस्था की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उसे राष्ट्रवाद की आक्रामक सांस्कृतिक ज़मीन की तलाश करनी पड़ी.
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में जो उदारता दिखलाई गई उसकी भरपाई साम्प्रदायिक-सांस्कृतिक कट्टरता से की गई. इस प्रकार से यह राजनीतिक धारा हर प्रकार से नेहरू के प्रतिपक्ष में खड़ी हुई. आज जब केंद्र में इस पार्टी की सरकार पूर्ण बहुमत से बन गई है तब उम्मीद की जानी चाहिए कि नेहरू से सीधा शास्त्रार्थ करने में कम से कम यह पार्टी नहीं हिचकिचाएगी, कांग्रेस की तरह इस पार्टी में नेहरू को लेकर कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए. लेकिन फिलहाल सामाजिक माध्यमों में इस पार्टी के समर्थकों के बर्ताव को देखकर इस पर भरोसा करना कि नेहरू से संवाद में यह पार्टी ईमानदारी बरतेगी मुश्किल लग रहा है.
तो कुल मिलाकर इस नए दौर में नेहरू को चाहे-अनचाहे पूर्वपक्ष के रूप में पेश तो किया ही जा रहा है, लेकिन पूर्वपक्ष की प्रस्तुति में एक प्रकार की बे-क़द्री और बे-परवाही है. लोकतंत्र असहमतियों से कमजोर नहीं होता है, लोकतंत्र कमजोर होता है सार्वजनिक संवाद और विवेकशीलता के विघटन से.
स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में गाँधी और नेहरू, गाँधी और टैगोर, गाँधी और आम्बेडकर, सुभाषचंद्र बोस और गाँधी, नेहरू और सरदार पटेल के बीच जो असहमतियां थी वह जगजाहिर हैं. अनेक मुद्दों पर आन्दोलन के दौरान और भावी राष्ट्रनिर्माण की दृष्टि से रूख स्पष्ट करना जरूरी था. ये नेता उन मुद्दों को अलग-अलग तरह से समझते और व्याख्यायित करते थे. उन अलग-अलग व्याख्याओं से हमें उन मुद्दों को समझने में मदद मिलती है. आधुनिक युग में सार्वजनिक संवाद और विवेकशीलता का एक लक्षण यह है कि किसी बात को तर्क के आधार पर परखा जाएगा, न कि बोलने वाले की सामाजिक हैसियत के आधार पर. पिछले कुछ वर्षों से नेहरू को उनके लेखन और सार्वजनिक कर्म के आधार पर कम और उनकी हैसियत के आधार पर अधिक परखा गया है. जाहिर है कि उस हैसियत के कारण ही नेहरू को बगैर किसी प्रश्न-प्रति प्रश्न के स्वीकृति भी मिलती रही, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उसी हैसियत के कारण अनालोचनात्मक ढंग से उनके बारे अनेक मान्यताएं फैलाई गईं
हमारे दौर में नेहरू को समझने की कोशिश करना नेहरू से अनिवार्यतः सभी मामलों में सहमत होना नहीं है, बल्कि सार्वजनिक संवाद और विवेकशीलता की उस परम्परा को पुनर्जीवित करना है जिसका उदारीकरण के इस दौर में लोप होता जा रहा है. यह एक ऐसा दौर है जहाँ विचार एक उत्पाद है और राजनीतिक संवाद एक प्रायोजित तमाशा. लगभग सभी पार्टियों ने इस काम के लिए पेशेवर जनसम्पर्क कम्पनियों को नियुक्त कर लिया है.
नेहरू और उनकी पीढ़ी निजी स्तर भी तमाम दुविधाओं और वैचारिक उलझनों को सुलझाती रही. शायद इसलिए वे जनता से ईमानदार संवाद स्थापित कर सके. जनता तक उनकी तमाम बातें भले जी न पहुँची हों, उनके प्रयासों में जो ईमानदारी थी वह शायद सम्प्रेषित हो गई.
इस लेख में हम नेहरू की कुछ वैसी दुविधाओं को समझने की कोशिश कर सकते हैं जिनसे उलझकर उन्होंने दृष्टिकोण विकसित किया. उन दुविधाओं को एक बार फिर से उजागर करना भी जरूरी है क्योंकि ये दुविधाएँ आज भी हमारे सामने हैं और किसी एक पक्ष में इनका अंतिम समाधान नहीं हो गया है.
1.
राष्ट्रवादी विमर्श का दुचित्तापन
एक ऐसे दौर में जब नेहरू की पश्चिमपरस्ती स्वयंसिद्ध बन चुकी है यह दुहराना आवश्यक है कि वे उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के राष्ट्रवादी नेता थे और राष्ट्रवाद को उन्होंने और उनकी पीढ़ी के अन्य नेताओं ने अपने तरीके से साधने की कोशिश की थी. इस साधने को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए राष्ट्रवादी विमर्श के कुछ बुनियादी उलझनों को समझना जरूरी है. इतिहासकार ज्ञानेद्र पाण्डेय ने राष्ट्रवादी विमर्श के दुचित्तेपन को इन शब्दों में समझने की कोशिश की है:
“राष्ट्रवाद का विमर्श ज्ञानोदय से उपजी आधुनिकता, प्रगति और मानवीय क्षमता का विमर्श है, लेकिन आधुनिकता के इस विमर्श पर पूर्व युगों की भी स्पष्ट छाया है. राष्ट्रवाद एक ओर विवेकशीलता और बराबरी की ज़ुबान बोलता है- उन परिस्थितियों के निर्माण का भरोसा देता है जिसमें हम अपनी इच्छानुसार दुनिया को गढ़ सकें; दूसरी ओर राष्ट्रवाद रक्त और बलिदान की, ऐतिहासिक अनिवार्यता की, प्राचीन (ईश्वर-प्रदत्त) हैसियत और विशिष्टताओं की बात करता है. यह दूसरे प्रकार की भाषा व्यक्ति केंद्रित विवेकशीलता की भाषा नहीं है, यह भाषा उस विमर्श का हिस्सा है जो ‘समुदाय‘ की प्रदत्त अनिवार्य छवि को गढ़ने के काम आता है.”
(ज्ञानेन्द्र पाण्डेय 1990, पृष्ठ संख्या-209, अनुवाद मेरा)
भारत की उपनिवेश्विरोधी राष्ट्रवादी चिंतन परम्परा ने राष्ट्रवादी विमर्श के इस दुचित्तेपन को अपने-अपने ढंग से साधने की कोशिश की और उनका झुकाव कभी सनातन भारतीयता की खोज की ओर रहा तो कभी राष्ट्र-निर्माण की ओर.[1] जिस तरह से नेहरू ने राष्ट्रवाद को बरता उसमें एक ओर ‘भारत की खोज’ है तो दूसरी ओर राष्ट्र-निर्माण की जद्दोजहद. नेहरू के लिए ‘भारत की खोज’ एक शुद्ध अकादमिक अभ्यास नहीं है. भारत की खोज उन्होंने उपलब्ध सामग्री के आधार पर तो की ही, अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में भी वे हाड़-मांस की वास्तविक जनता के बीच भारत का ‘असली’ चेहरा-मोहरा तलाशते रहे. अपने जेल प्रवास में लिखित पाठों के आधार पर जिस ‘सनातन’ भारत की खोज उन्होंने की वह ‘सनातन’ भारत भी एक आयामी और अपरिवर्तनीय नहीं है. नेहरू की माने तो भारतीय मेधा हमेशा से परिवर्तनशीलता और अनेकान्तता में विश्वास करती रही है और यह परिवर्तनशीलता और बहुवचानीयता ही सनातन है. इस तरह नेहरू उदार भारतीय लोकतंत्र के लिए परम्परा की जमीन टटोल रहे थे. इस खोज में अगर एक ओर वे बुद्ध और अशोक तक पहुँचे तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म को उस पैगन परम्परा का हिस्सा माना जो सत्य तक पहुँचने के एकाधिक रास्तों पर विश्वास करती है और सत्य को एक आयामी नहीं मानती है.
2.
राष्ट्र की संवैधानिक कल्पना
“यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर…”
प्रायः यह मान लिया जाता है कि आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र की संवैधानिक कल्पना पश्चिम से उधार ली हुई है. आज हमें यह रेखांकित करने की जरूरत है कि भारत में इस कल्पना की जड़ों को संस्कृति की गहराई यानी सुदूर इतिहास में ही नहीं, फैलाव में भी खोजना चाहिए. अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी की प्राच्यवादी विद्वत्ता की मुश्किल यह थी कि वह राष्ट्रीय- संस्कृति की अपनी एकवचनीय अवधारणा के साथ उस संस्कृति की अकेली जड़ की तलाश सुदूर अतीत में ही जाकर कर सकती थी. दूसरे प्रकार के प्रकन्दात्मक (rhizomatic) – अपने देशकाल में फैले-छितराए जड़ों की कल्पना उस विद्वत्त परम्परा में नहीं थी. शायद इसलिए नजीर अकबराबादी से लेकर कबीर तक राष्ट्रीय संस्कृति की उस परिकल्पना में मौजूद नहीं थे. नेहरू जैसे राष्ट्रवादी नेता भी इस विद्वत्त परम्परा के प्रभाव से मुक्त नहीं थे, लेकिन यह ध्यान रखने योग्य बात है कि नेहरू और गाँधी जैसे नेताओं ने भारत की खोज में सिर्फ प्राचीन ग्रन्थों को ही नहीं उलटा-पलटा, बल्कि भारत के तत्कालीन सुदूर गाँवों और शहरों की यात्राएं की, विशाल राजनीतिक सभाएं कीं, किसानों और मिल मजदूरों से मिले और परस्पर विरोधी विचार के अपने सहकर्मियों से निरंतर संवाद कायम रखा. जिन किसानों और कारोबारियों से वे शहरों और गाँवों में मिले उनमें वैष्णव और सूफी परमपराएं भी कायम थीं और कबीर और नजीर भी मौजूद थे.
जिन ऐतिहासिक अभिलेखों और शास्त्रों से नेहरू जैसे लेखकों का साबका पड़ा उनमें भी अगर एक और औपनिषदिक परम्पराएँ थी तो दूसरी ओर बौद्ध परम्पराएँ भी थी और उन परम्पराओं के सहारे अपनी दुनियावी नीति या राज-नीति कायम करने वाले अशोक जैसे सम्राट भी थे. (अनन्या वाजपेयी, 2012)
नेहरू और तमाम राष्ट्रवादी नेता अपनी सहज राजनीतिक बुद्धि से यह जानते थे कि राष्ट्र एक काल्पनिक सच्चाई है- हालाँकि काल्पनिक समुदाय होने का अर्थ अवास्तविक समुदाय होना नहीं है- लेकिन शायद उन्हें यह भी अंदाज था कि लोकतांत्रिक राष्ट्र की कल्पना किसी एक मूर्तन से हमेशा बंधकर रहने वाली स्थिर कल्पना नहीं है. लोकतांत्रिक राष्ट्र की कल्पना एक गतिशील, असमाप्त सी कल्पना होगी. बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के मध्य में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में भारतमाता के रूप में राष्ट्र की प्रचलित लोकप्रिय कल्पना पर टिप्पणी करते हुए नेहरू लिखते हैं-
“यह एक अजीब बात है कि देश को मानव-रूप में मानने की प्रवृत्ति को कोई रोक नहीं सकता. हमारी आदत ही ऐसी पड़ गई है और पहले के संस्कार भी ऐसे ही हैं. भारत ‘भारत-माता ‘बन जाती है- एक सुन्दर स्त्री, बहुत ही वृद्ध होते हुए भी देखने में युवती, जिसकी आँखों में दुःख और शून्यता भरी हुई, विदेशी और बाहरी लोगों द्वारा अपमानित और प्रताड़ित, अपने पुत्र-पुत्रियों को अपनी रक्षा के लिए आर्त स्वर से पुकारती हुई. इस तरह का कोई चित्र हजारों लोगों की भावनाओं को उभार देता है और उनको कुछ भी करने और कुर्बान हो जाने के लिए प्रेरित करता है. लेकिन हिन्दुस्तान तो मुख्यतः उन किसानों और मजदूरों का देश है, जिनका चेहरा खूबसूरत नहीं है, क्योंकि गरीबी खूबसूरत नहीं होती. क्या वह सुन्दर स्त्री, जिसका हमने काल्पनिक चित्र खड़ा किया है, नंगे बदन और झुकी हुई कमरवाले, खेतों और कारखानों में काम करनेवाले किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करती है? या वह उन थोड़े-से लोगों के समूह का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने युगों तक जनता को कुचला और चूसा है, उसपर कठोर से कठोर रिवाज लाद दिए हैं और उसमें से बहुतों को अछूत तक करार दे दिया? हम अपनी काल्पनिक दृष्टि से सत्य को ढकने की कोशिश करते हैं और असलियत से अपने को बचाकर सपनों की दुनिया में विचरण करने का प्रयत्न करते हैं.” [2]
उपर्युक्त उद्धरण में नेहरू ने अपनी असहमति को बेहद साफ शब्दों में जाहिर किया है और इस कल्पना के वर्गीय चरित्र को भी उघाड़कर रख दिया है, लेकिन भारतमाता से संबंधित ‘भारत: एक खोज’ के जिस उद्धरण को प्रायः उद्धृत किया जाता है उसमें नेहरू उन्नीसवीं सदी से प्रचलित भारतमाता की इस लोक स्वीकृत छवि को नकारे बिना उसकी नई व्याख्या करते हैं. नेहरू की एक जनसभा में उनके आगमन पर जोरदार नारा लगता है- ‘भारतमाता की जय’. नेहरू उपस्थित जनसमूह से पूछते हैं कि जिस भारतमाता की जयकार आप लोग कर रहे हैं वह भारत माता कौन है? एक जाट किसान धरती की ओर इशारा करते हुए कहता है कि यह धरती ही है भारतमाता. नेहरू कहते हैं कि बेशक यह धरती भारतमाता है, इस धरती पर मौजूद, नदी, तालाब, झरनों से हमसब जुड़े हुए हैं, लेकिन जिस भारतमाता की जयकार हम बोल रहे हैं उसमें भारत के लोग भी शामिल हैं- ‘आप हैं भारतमाता, हम सब हैं भारतमाता.’
नेहरू जैसे बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेता राष्ट्र की कल्पना को भारतमाता की स्थिर मूर्ति से न बाँधकर उस मूर्ति की प्रतीकात्मकता को निरन्तर संवाद और व्याख्या के खुला रखना चाहते हैं. राष्ट्र के लोकतांत्रिक गठन के लिए राष्ट्र की इस प्रकार की मुक्त और असमाप्त कल्पना आवश्यक थी. इस गतिशील कल्पना के बिना भारत के उस आधुनिक संविधान की कल्पना संभव नहीं थी जिसमें अधिकार प्राप्त करने वाला और अधिकार देने वाला दोनों एक ही है. आगरा के फक्कड़ शायर नजीर अकबराबादी ने लिखा- यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर. भारत की संविधान की प्रस्तावना को गौर से पढ़ें तो यहाँ भी पीर और मुरीद दोनों एक ही हैं-
राष्ट्र के लोकतांत्रिक गठन के लिए राष्ट्र की इस प्रकार की मुक्त और असमाप्त कल्पना आवश्यक थी. इस गतिशील कल्पना के बिना भारत के संविधान की उपरोक्त प्रस्तावना की संभावना नहीं थी जिसमें ‘पीर’ और ‘मुरीद’ एक ही हैं.
“हम भारत के लोग भारत को [एक सम्पूर्ण प्रभुत्वत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और [राष्ट्र की एकता और अखंडता] सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढसंकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष, शुक्ल सप्तमी संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”
(मूल पाठ में शब्द रेखांकित नहीं हैं) [3]
प्रस्तावना के इस दीर्घ वाक्य को ध्यान से पढ़ें तो यहाँ अधिकार देने वाला और लेने वाला एक ही है. काम करने वाला और जिसे काम का फल मिलाने वाला है दोनों में अद्वैत है. इस प्रस्तावना को पढ़ते हुए भारत की नेहरूवीय कल्पना का अर्थ समझ में आता है और यह भी कि ‘भारत माता’ की स्थिर छवि की गतिशील व्याख्या नेहरू को इतना जरूरी क्यों लगा होगा.
ज्ञानेंद्र पाण्डेय के उपयुक्त उद्धरण की ओर एक बार फिर लौटें तो हमें नेहरू जैसे नेताओं में राष्ट्र के दुचित्तेपण को निरंतर संवाद और व्याख्या द्वारा पाटने की एक ईमानदार कोशिश दिखती है. नेहरू के नेतृत्व में हुए आर्थिक बेहतरी और स्वावलंबन की योजनाओं की, और उन योजनाओं के कार्यान्वयन की सीमाओं की वाजिब आलोचना होनी ही चाहिए, लेकिन नेहरू ने जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में ‘राष्ट्र-निर्माण’ की योजनाओं की शुरुआत की उस पृष्ठभूमि की अनदेखी करना उचित नहीं होगा.
सबसे पहले तो भारत के रूप में एक संप्रभु राष्ट्र की कल्पना कर पाना और उस कल्पना को एक संभव सामूहिक लक्ष्य में तब्दील कर पाना आसान नहीं था. साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व की माँग, देश-विभाजन, बंगाल के भीषण अकाल और अंततः गाँधी जी की हत्या ने इस विश्वास को किस हद तक झकझोरा होगा इसका हम सिर्फ अंदाज लगा सकते हैं.[4] नेहरू ने आजादी के ठीक बाद एक बड़े बाँध का उद्घाटन करने के बाद लिखा-
“जब मैंने थोड़ा सा कंकरीट हीराकुंड बांध की नींव में डाला तो में उत्साह की भावना से भर उठा और कुछ देर के लिए मैं उन तमाम संकटों को भूल गया जिनसे हम घिरे हुए हैं . मुझे लगा तमाम संकटों से हम उबर जाएंगे और ये विराट बाँध और उससे होने वाले कल्याण ही आने वाले युगों में चिरस्थायी होंगे.” [5]
इस उद्गार से आज साठ-सत्तर साल बाद गुजरते हुए ऐसा लग रहा है जैसे देश विभाजन की भीषण हिंसा और बंगाल के अकाल भयावह अनुभव से गुजर चुके देश को किसी उपचार या थेरेपी की जरूरत थी और नेहरू निर्माण कार्य के जरिए खुद को और देश को ‘ऑक्यूपेशनल थेरेपी’ दे रहे थे.
उपनिवेशवाद विरोधी पिछली पीढ़ी के नेताओं की तुलना में नेहरू की पीढ़ी के सामने चुनौती सिर्फ यह नहीं थी कि वे राष्ट्र की मुकम्मल कल्पना संज्ञानात्मक स्तर पर करें, बल्कि उनकी कल्पना का ठोस प्रतिफलन भी होना था. हालाँकि नेहरू और उनकी पीढ़ी के राजनेताओं ने जब बीसवीं सदी की शुरुआत में राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश किया तो संज्ञानात्मक स्तर पर भी स्वतन्त्र संप्रभु भारतीय राष्ट्र की कल्पना एक साहसिक कल्पना थी. हर तरह की आशंकाएँ जतायी जा रही थीं और सिर्फ उपनिवेशवादी अंग्रेज प्रशासक ही नहीं थे जिन्हें अनेक जातियों, विविध धर्मों और भाषाओं में ‘बंटे’ भारतीय समाज के एक राष्ट्र होने में शंका थी, बल्कि दूसरी ओर अतिक्रान्तिकारी समाजवादी राजनीतिज्ञ भी थे जो मानते थे कि वर्ग विभाजित भारतीय समाज के लिए राष्ट्र के रूप में संगठित होना तब तक संभव नहीं है जब तक आमूलचूल परिवर्तन न घटित हो . इस तबके को यह लक्ष्य इतना दूर लगता था कि वे पहला कदम उठाने में भी हिचकते थे. नेहरू ने आरामकुर्सी में घँसे ऐसे समाजवादी राजनीतिक तबके की आलोचना अपनी आत्मकथा में की है. (मेरी कहानी)
समाजवादी लक्ष्यों से सहमति के बावजूद नेहरू को ऐसे अतिक्रान्तिकारी निष्क्रियता से परेशानी थी. कुछ ऐसी ही परेशानी नेहरू को नरमपंथी यथास्थितिवाद से थी. नरमपंथी अभिजन वर्ग की सारी राजनीतिक सक्रियता औपनिवेशिक विधायी संस्थाओं में मनोनीत होने के इर्दगिर्द घूमती थी और जो औपनिवेशिक स्वराज से आगे सोच ही नहीं पाते थे. (मेरी कहानी)
नेहरू की पीढ़ी के राष्ट्रवादी नेताओं का विश्वास था कि राजनीति का अर्थ सिर्फ मौजूदा व्यवस्था का प्रबंधन नहीं है, बल्कि राजनीति के जरिए बुनियादी सामाजिक बदलाव संभव है. इसलिए सतही प्रतिनिधित्व और मनोनयन की राजनीति से वे राष्ट्रवादी राजनीति को आगे ले जाना चाहते थे. बदलाव के तरीकों को लेकर उनमें सहमति नहीं थी, लेकिन बदलाव की उम्मीद गाँधी से लेकर नेहरू तक सब में थी. और चंपारण से लेकर गोरखपुर और अवध तक की जनता बेहाल भले ही थी, लेकिन अपने जीवन में घटित होने वाले बदलाव की उम्मीद से चमत्कृत थी.
पीछे मुड़कर देखने पर ऐसा लगता है कि नेहरू जब जेल के भीतर होते थे तो ग्रंथों में वे भारत की खोज करते थे, लेकिन बाहर राजनीतिक सभाओं में वे भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक भारत की इस जनता से मिलते थे जिनकी आंखों में कुछ ऐसी उम्मीदें थीं जो नेहरू को आशान्वित भी करती थी और आशंकित भी. नेहरू को इस बात का तीखा अहसास था कि वे इस जनता से अलग हैं, इनके बीच से नहीं आते हैं. नेहरू के आलोचक इस भेद को खूब बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं- प्रायः किसी स्वयंसिद्ध की तरह. लेकिन नेहरू इस भेद को स्वीकार करते हैं और शायद इसे संवाद के जरिए पाटना चाहते हैं- यह एक निरंतर चलने वाला दोतरफा लोकतांत्रिक संवाद है.
इस संवाद की सफलता को स्वीकार किए बिना नेहरू की लोकप्रियता की व्याख्या करना मुश्किल होगा- या तो हमें मामना होगा कि जनता बहुत भोली-भाली थी या फिर नेहरू बहुत चतुर-चालक एवं स्वेच्छाचारी. नेहरू के आलोचक भी नेहरू को तानाशाह या स्वेच्छाचारी तो प्रायः नहीं मानते, लेकिन जनता को सीधा-साधा मानकर आजादी के बाद नेहरू की अखंड लोकप्रियता की व्याख्या की जाती है. जनता के साथ नेहरू के संवाद की प्रकृति को लेकर भी टीका-टिप्पणी की गई है .
कहा जाता रहा है कि जनता के साथ नेहरू के संवाद की शैली खासा अध्यापकीय थी. जनता को लेकर उनका नजरिया संरक्षणवादी था और वे हमेशा कुछ सिखाने और बताने के अंदाज में बात करते थे. लेकिन जिस प्रश्नोत्तरी शैली में नेहरू अपने श्रोताओं से बात करते हैं उसमें श्रोता समूह ज्ञान का वह सिरा पकड़ लेता है जो उसका अपना ही है. नेहरू के शब्दों में-
“ मैं उनसे अचानक पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या आशय है? यह भारतमाता कौन है, जिसकी वे जय चाहते हैं, मेरा प्रश्न उन्हें मनोरंजक लगता और चकित करता. उनकी ठीक-ठीक समझ में नहीं आता कि वे मुझे क्या जवाब दें और तब वे एक-दूसरे की ओर, और फिर मेरी ओर ताकने लगते मैं बार-बार सवाल करता जाता.”
(भारत की खोज, संक्षिप्त संस्करण, 1996, पृष्ठ सँख्या- 14-15 . मूल पाठ में शब्द रेखांकित नहीं है)
नेहरू को अपनी और से उत्तर बताने की जल्दी नहीं है, अंततः ‘भारतमाता’ का अर्थ उन्हें यानी जयकार करने वाले को ही लगाना है, लेकिन नेहरू के लिए सही और गलत उत्तर का फर्क कायम रखना चाहते हैं. सत्य को लेकर उनका नजरिया न तो सापेक्षवादी है और न ही रहस्यवादी. बावजूद इसके वैज्ञानिक तार्किक ज्ञान को वे परम और अंतिम ज्ञान नहीं मानते और वैज्ञानिक ज्ञान के इस पहलू को बौद्ध दर्शन से जोड़कर देखते हैं.[6]
सुकरात की तरह नेहरू के लिए भी ज्ञान सद्गुण है और मुक्ति का साधन है. नेहरू काफी दूर तक ज्ञानोदय की परम्परा से निकली हुई आधुनिकता के साथ खड़े होते हैं . उनकी दृष्टि में गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन के लिए किसी हद तक बौद्धिक पिछड़ापन जिम्मेवार है. ऐसा नहीं है कि वे हितों-ख़ासकर वर्ग हितों के टकराव की अनदेखी करते है और उस टकराव में उनका कोई पक्ष नहीं है, लेकिन ज्ञानोदय से उपजी आधुनिकता की धारा में पगे किसी भी बौद्धिक की तरह उनकी आस्था है कि जैसे-जैसे ज्ञान की परिधि बढ़ेगी वैसे-वैसे लोग संकुचित तात्कालिक हितों के बदले व्यापक सामाजिक हित को देख पाएंगे. इनकी आस्था थी कि किसी भी समाज के पढ़े-लिखे लोग ज्ञान की इस परिधि को बढ़ाने में मदद करेंगे. राज्य नाम की इकाई नेहरू के लिए समाज के जागृत सार्वभौमिक ज्ञान का साकार रूप है- कुछ-कुछ राज्य की हीगेलीय अवधारणा की तरह.[7]
इस मुकाम पर पहुँचकर नेहरू एक और द्वैत को पाटना चाहते हैं. यह द्वैत है राजनीति और प्रशासन का द्वैत. परिवर्तनकामी राजनीति के केंद्र में मानवीय इच्छाशक्ति से उपजी सामूहिक कर्मशीलता है, जबकि प्रशासन निर्वैयक्तिक, वस्तुनिष्ठ नियमों के आगे समर्पण और उन नियमों के अधीन किया जाने वाला सुनियोजित कर्म है. राजनीति और प्रशासन के इस द्वैत को एक कदम और आगे बढ़कर दार्शनिक स्तर पर समझने की कोशिश करें तो यह द्वंद्व मानवीय इच्छा शक्ति, स्वतंत्रता और वैज्ञानिक-तकनीकी निर्धारणवाद के बीच है. राजनीति एक चिंतनशील सामूहिक कार्रवाई है, जबकि प्रशासन आदतन किया जाने वाला सांस्थानिक कर्म. इन दोनों के बीच संतुलन साधना और पारस्परिकता को बनाए रखना एक सफल नेतृत्व की पहचान है. आज़ाद हिन्दुस्तान के पहले प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू कई बार राजनीति की ओर झुकाव दिखाते हैं तो अनेक अवसरों पर प्रशासन और तकनीकी विशेषज्ञता पर अपेक्षाकृत अधिक भरोसा जताते दिखते हैं.
3.
राजनीति और प्रशासन
हमारे नवउदारवादी दौर में इसे लगभग स्वयंसिद्ध की तरह स्वीकार कर लिया गया है कि लोक कल्याण के लिए प्रशासन या सुशासन मुख्य चीज़ है और राजनीति को प्रशासन से दूर रखा जाना चाहिए.[8] अच्छी लोकतांत्रिक राजनीति वह है जो सुशासन को सुगम बनाती है, उसमें न्यूनतम दखल देती है और प्रशासनिक क्रियान्वयन को जनता में स्वीकृति दिलाती है. ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीति वर्गीय और अन्य सामाजिक समूहों के हितों को अभिव्यक्त करती है और प्रशासन सार्वभौमिक नियमों के अन्तर्गत काम करती है इसलिए सार्वभौमिक हितों का प्रतिनिधित्व करती है.
आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत से पहले जबतक राजा की स्वयंप्रभुता को स्वीकार किया गया सार्वभौमिक हितों का प्रश्न कभी इतना दुरूह नहीं रहा. राज्य में राजा की उपस्थिति लोकोत्तर (transcendental) हुआ करती थी इसलिए सिद्धांतत: वह किसी विशेष तबके का प्रतिनिधित्व कर ही नहीं सकता था. आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत जनता को स्वयंप्रभु मानने से होती है. इस नई वैचारिकी में जो स्वयंप्रभु है वह लोकोत्तर नहीं है, बल्कि स्वयंप्रभुता जनसमूह में व्याप्त या अंतर्भूत (immanent) है.
आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति को जनता के सामूहिक विवेक पर भरोसा करना होता है. परेशानी यह है कि एक वर्ग, लिंग और जाति विभाजित समाज में ‘जनता’ एक अमूर्तन है- एक इतिहास-इतर अमूर्तन है. ऐसे में सार्वभौमिक हितों का वाहक कौन होगा? मार्क्स की मानें तो वर्ग-विभाजित औद्योगिक समाज में सर्वहारा चूँकि ऐतिहासिक दृष्टि से प्रगतिशील शक्तियों का वाहक है इसलिए उसका हित ही सार्वभौमिक हित है , जबकि राज्य पूंजीपतियों के वर्गहित का प्रतिनिधित्व करता है.
बीसवीं शताब्दी- खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्यों का भरोसा क्रमशः तकनीकी विशेषज्ञों पर बढ़ता चला जाता है और जनता की सामूहिक विवेकशीलता का तर्क पृष्ठभूमि में चला गया. राजनीतिक दर्शन वैधता के लिए राजनेताओं को बार-बार जनता के बीच जाने और वहाँ से चुनकर आने के लिए बाध्य करता रहा, लेकिन रोजमर्रे के राजनीतिक प्रशासन में उनसे अपेक्षा की गई की वे विशेषज्ञों की राय को स्वीकार करेंगे.
भारत में यह ऊहापोह नेहरू के दौर में ही दिखने लगा था. नेहरू उस पीढ़ी के नेता थे जिसने पृथक निर्वाचन क्षेत्र के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए जाति और धर्म-सम्प्रदायों में विभाजित भारतीय समाज में प्रतिनिधान के संकट को नज़र-अंदाज़ कर भारतीय जनता की सामूहिक विवेकशीलता में विश्वास जताया था. स्वाधीनता आन्दोलन से निकले इस पीढ़ी के नेताओं को भारतीय जनता की विवेकशीलता में भरोसा नहीं होता तो वे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के पक्ष में एक स्वर में खड़े नहीं होते.[9]
जाहिर है कि यूरोप के अनेक देशों में वयस्क सार्वभौमिक मताधिकार के लिए जनता के विभिन्न तबकों ने लंबी लड़ाइयाँ लड़ीं, जबकि भारत में यह मताधिकार उस समय एक साथ सबको दे दिया गया जब भारत में कुल दस-बारह प्रतिशत लोग साक्षर थे.
दूसरी तरफ नेहरू के समय ही योजना आयोग जैसी संस्थाओं का गठन हुआ जो विशेषज्ञों द्वारा संचालित संस्था थी. जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से अपेक्षा की गई कि वे इस संस्था के द्वारा निर्मित योजना को लागू करने में सहयोग करें. औपनिवेशिक राज्य से विरासत में प्राप्त प्रशासनिक ढाँचे और कायदे-कानूनों की शुचिता को भी आजादी को बाद ज्यादातर अक्षुण्ण बनाए रखने की कोशिश की गई. बावजूद इसके एक लोकप्रिय नेता के रूप में नेहरू ने वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, नौकरशाहों, स्थानीय राजनीतिज्ञों के बीच लगातार संवाद कायम रखने की कोशिश की. स्थानीय राजनेताओं से बात करते हुए लगातार उन्हें देश-दुनिया और तकनीकी विकास के बारे में बताते रहे और आगाह करते रहे कि हालाँकि जनता के प्रतिनिधि के रूप में राजनीतिक निर्णय लेने और विधान बनाने का अधिकार है, लेकिन ऐसा करते हुए हमें प्रदत्त ऐतिहासिक, आर्थिक और तकनीकी सम्भावनाओं का ध्यान रखना होगा.
नेहरू अपने सहकर्मी राजनीतिज्ञों को समझाते हुए दिखते हैं कि विशेषज्ञ और नौकरशाह हमें इन प्रदत्त परिस्थितियों को समझने में मदद कर सकते हैं . दूसरी ओर नेहरू जब वैज्ञानिकों से बात करते हैं तो उन्हें समझाते हुए दिखते हैं कि वे विज्ञान का कारोबार एक ख़ास सामाजिक सन्दर्भ में चला रहे हैं. हालाँकि वे मानते थे कि वैज्ञानिक ज्ञान हमें सहिष्णु और उदार बना सकता है, लेकिन जिस वैज्ञानिक रुझान को लेकर नेहरू को अकसर सपाट आधुनिकतावादी मान लिया जाता है उसको लेकर नेहरू जो कहते रहे हैं उसे ठीक से सुनने और समझने की जरूरत है-
“वैज्ञानिकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सत्य पर उनका एकाधिकार नहीं है; किसी भी व्यक्ति विशेष, देश या ग्रन्थ विशेष का सत्य पर एकाधिकार नहीं है. सत्य इतना व्यापक है कि वह किसी एक व्यक्ति या ग्रंथ में सिमटकर नहीं रह सकता चाहे वह व्यक्ति और ग्रन्थ कितना भी पाक हो.”
नेहरू ने यह भाषण 14 जनवरी, 1957 को इंडियन साइंस कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में दिया. इस सभा में नेहरू के श्रोता वैज्ञानिक थे. नेहरू इस भाषण की शुरुआत करते हुए कहते हैं कि यहाँ आने से पहले उन्होंने नालन्दा के एक आयोजन में भाग लेने गए थे और वे वहीं से सीधे यहाँ आ रहे हैं . वे इस भाषण में बुध और अशोक को उद्धृत करते हैं. बुद्ध को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि बुद्ध का सन्देश रुढियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध है. वे अपने शिष्यों से कहते हैं कि वे किसी भी सत्य को स्वयं जाँच-परखकर देखें. नेहरू आगे कहते हैं-
“यह पक्के तौर पर वैज्ञानिक मिजाज का सन्देश था. बुद्ध ने कहा कि जिन बातों को प्रयोग और जांच-परखकर सिद्ध कर लिया गया उन बातों के अलावा किसी भी व्यक्ति को कुछ भी स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए.” [10]
विज्ञान के दर्शन के क्षेत्र में कार्ल पोपर के काम से नेहरू परिचित थे या नहीं इस बात का महज़ अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन नेहरू वैज्ञानिक चेतना की सांस्कृतिक जड़ों को तलाशते हुए बुद्ध और अशोक से लेकर पैगन विश्व दृष्टि तक पहुंचते हैं और वैज्ञानिक चेतना को सत्य की निरंतर खोज, दूसरे पक्ष में भी सत्य का कोई दूसरा पहलू होने की संभावना आदि से जोड़ते हुए लोकतांत्रिक सहिष्णुता से जोड़ते हैं.
ऐसा नहीं है कि नेहरू का यह संवाद खाली दीवारों से टकराकर लौट जा रहा था 1968 के एक साक्षात्कार में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहते हैं-
“लोग कोसी-परियोजना को पहले संदेह की दृष्टि से देखते थे. … अब उन्होंने प्रगति की ओर ज़माने की तेज रफ्तार देखी और अब मानव शक्ति में उनकी आस्था बलवती होती जा रही है. कोसी-परियोजना के यान्त्रिक और वैज्ञानिक परिवेश के संपर्क में आने के कारण जन की मान्यताओं और विश्वासों में तर्कों का प्रवेश हो रहा है.” [11]
आगे चलकर कोसी परियोजना पूरी तरह से सफल परियोजना साबित नहीं हुई, लेकिन नेहरू की वैज्ञानिक दृष्टि ने उस समय लोकप्रिय जन समर्थन नहीं मिला हो ऐसा नहीं है.
कुल मिलाकर नेहरू ने राजनीति और प्रशासन, वैज्ञानिक चेतना और लोक चेतना, वैश्विक और स्थानीय के बीच संवाद के जो पुल बनाने की कोशिश की वह प्रेरणादायक है. ऐसा नहीं है कि तमाम तरह के दरारों को पाटने में वे सफल ही रहे. आर्थिक आत्मनिर्भरता की तमाम घोषित दावों के बावजूद विदेशी पूंजी और तकनीकी पर भारत की निर्भरता बनी रही और इस बात के लिए नेहरू की वाजिब आलोचना भी होती रही. 1954 और 1955 में लिखे अपने दो लेखों में मुक्तिबोध ने बाकायदा आंकड़ा पेश कर के बताया कि किस हद तक भारत में साम्राज्यवादी पूंजी की घुसपैठ है. ये दो लेख है-
“अंग्रेज गए, परन्तु इतनी अंग्रेजी पूंजी क्यों?” [12] और “समाजवादी समाज या अमरीकी ब्रिटिश पूंजी की बाढ़” [13].
गौर करने योग्य बात यह है कि नेहरू की नीतियों के विरोधी मुक्तिबोध व्यक्ति नेहरू को लेकर उतने ही स्नेहशील हैं. मुक्तिबोध ने अप्रैल, 1957 में ‘नया खून’ के लिए एक सम्पादकीय लिखा जिसका शीर्षक था- ‘दून घाटी में नेहरू’ जिसमें वे नेहरू के करीबी लोगों को सलाह देते हैं कि उन्हें नेहरू को आराम का मौका देना चाहिए. वे विश्व के कई नेताओं का हवाला देते हैं कि कैसे वे समय निकल कर आराम कर लेते हैं. [14]
इन तीन लेखों को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की अद्भुत बौद्धिक परिपक्वता सामने आती है. नेहरू के ईमानदार प्रयासों पर भरोसा बनाए रखते हुए भी उनकी नीतियों की निर्मम आलोचना कर सकते हैं. मुक्तिबोध की इस आलोचना के बरअक्स नेहरू को जैसे-तैसे खारिज़ करने के वर्तमान प्रयासों को देखने की कोशिश करें तो बड़ी भ्रामक दृष्टि सामने आती है. नेहरू से चिढ़े बैठे राजनीतिक नेतृत्व ने अब नेहरू के ही एक महत्त्वपूर्ण सहयोगी सरदार पटेल की खूब ऊँची मूर्ति खड़ी करने की योजना बनाई ताकि नेहरू की याद धुंधली की जा सके. लेकिन नेहरू के इस अंध विरोध का वैचारिक दिवालियापन तब उजागर हो जाता है जब आप पाते हैं कि सरदार पटेल की यह मूर्ति सरदार सरोवर के तट पर बनने वाली है. [15]
दिक्कत नेहरू से है, नदी-घाटी की नेहरूवीय संकलपना से नहीं. जबकि रामचन्द्र गुहा ने इस बात का जिक्र किया है कि 1958 तक आते-आते बड़े बांधो और विशाल परियोजनाओं को नेहरू संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे. [16]
4.
उत्तर नेहरू चरितम
रामचन्द शुक्ल के शब्द उधार लेकर कहें तो नेहरू अनथक संवाद के जरिए विरुद्धों के बीच जो सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे थे उसमें वे हमेशा सफल हुए हों ऐसा नहीं है . उनके जीवनकाल में ही लोगों को कई बार उनका व्यक्तित्व खंडित होता हुआ दिखने लगा था. फणीश्वरनाथ रेणु ने भवभूति के उत्तर रामचरितम के तर्ज पर एक छोटी सी नाटिका लिखी- ‘उत्तर नेहरू चरितम’. इस नाटिका में नेहरू के छह अलग-अलग अवतार प्रधानमंत्री नेहरू के सामने उपस्थित होकर उनसे सवाल करते है. इनमें पहला पात्र है ‘वीर जवाहर’- ‘रावी के तट पर पूर्ण स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा करने वाला’ , दूसरा पात्र है ‘राष्ट्रपति जवाहरलाल’- ‘जिसने किसानों की समस्या का हल’ बताया था’, तीसरा पात्र है कामरेड नेहरू, चौथा पात्र है मिस्टर जे एल. नेहरू ‘मेरी कहानी’ का लेखक, पाँचवाँ पात्र है मिस्टर नेहरू डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया का लेखक और छठा पात्र है पंडित जवाहरलाल नेहरू 1945 मॉडल- ब्लैक मार्केटियरों को फाँसी पर लटकाने की इच्छा रखने वाला. नेहरू के ये छह रूप प्रधानमंत्री से उत्तर माँगते हैं और प्रधानमंत्री नेहरू एक-एक कर के सबको बाहर का रास्ता दिखाते हैं. [17]
नाटिका शायद इस बात की ओर इशारा करती है कि जो सत्ता का तंत्र है वह इतना समावेशी नहीं है कि वह नेहरू के व्यक्तित्व के अलग-अलग आयामों को समायोजित कर सके. और सत्ता का यह स्वरूप सनातन है जिससे राम जैसे पौराणिक महानायक भी पार नहीं पा सके और उन्हें त्रासद स्थितियों से गुजरना पड़ा .
लेकिन सारी जद्दोजहद तो लोकतांत्रिक सत्ता को समावेशी बना पाने की थी ताकि भारतीय नागरिकता की धारणा महज खोखली औपचारिक धारणा बनकर नहीं रह जाए. जो 1930 के नेहरू हैं वे सिर्फ पूर्ण स्वराज की ही माँग नहीं करते हैं, बल्कि मौलिक अधिकार के दायरे में शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक को लाना चाहते हैं, लेकिन भारत जब आज़ादी के दहलीज पर कदम रखता है तो संविधान सभा में इन प्रावधानों को मौलिक अधिकारों की सूची से बाहर कर के मुश्किल से राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में समायोजित किया जाता है. नेहरू की पीढ़ी ने जो राजनीति की उसमें यह एक प्रकार का क़तर-ब्योंत तो है ही, फिर भी लोकतांत्रिक सत्ता के स्वरूप को सनातन या मिथकीय ढाँचे में ढालना भविष्य में उस राजनीति की सम्भावानाओं को सीमित करके देखना है.
रेणु ने अगर नेहरू को भवभूति की शैली में अयोध्या के मजबूर राजा राम के दर्ज पर ढ़ाला तो नागार्जुन ने अपनी एकाधिक कविताओं में नेहरू को ‘नटराज’ कहकर संबोधित किया-
बाहर की दुनिया के लेखे तुम हो गौतम बुद्ध
घर में लेकिन बात-बात पर क्रुद्ध
बाहर निभा रहे हो पंचशील दसशील
ठोंक रहे हो घर में तरुणों के सीने पर कील
अजी तुम्हारे दिल दिमाग की खूबी कौन बताए
हे अद्भुत नटराज तुम्हारी माया कही न जाए [18]
एक दूसरी कविता ‘जयति-जयति जय सर्वमंगला’ में नागार्जुन फिर से नेहरू को नटराज की मिथकीय छवि में बांधने की कोशिश करने दिखते हैं-
हे अद्भुत नटराज तुम्हारा इंद्रजाल मैं समझ न पाता !
समझ न पाता कॉमनवेल्थी छकड़े पर तुम क्यों सवार हो ! [19]
इस तरह नेहरू का आख्यान उनके जीवनकाल में ही बिखरने लगा था. यह बिडम्बनापूर्ण था कि जिस नेहरू ने धार्मिक-मिथकीय ढाँचे को तोड़कर भारत के सत्त्व को आम भारतीय जन की शक्लों-सूरत में ढूँढ निकालने की कोशिश की थी, उस नेहरू की शख्सियत को ही मिथकीय चरित्रों में ढ़ाला जाने लगा.
आज हमारे राष्ट्रीय संस्कृति और राजनीतिक विमर्श में नेहरू की कलाइडस्कापिक (kaleidoscopic) उपस्थिति है, नेहरू का सुसंगत आख्यान नहीं बचा है. ऐसी स्थिति में शास्त्रार्थ में अगर नेहरू की वापसी होनी है तो उस आख्यान को फिर से रचना होगा.
अंत में
लोकतंत्र एक असमाप्त कथा है. एक ऐसा पाठ है जिसमें हर पीढ़ी , हर तबका आमंत्रित है कि वह अपनी इबारत लिखे. शर्त बस एक ही है- और वह कठिन शर्त है- कि कोई विशेष तबका जब अपने तकदीर की इबारत इस पाठ में लिखेगा तो उसे बाकी तबकों को भी विश्वास दिलाना होगा कि उस तबके की भलाई में सबकी भलाई है.
संविधान इस पाठ का व्याकरण भर है. किसी भी जीवित भाषा का अंतिम व्याकरण नहीं लिखा जा सकता, वैसे ही अंतिम संविधान की रचना भी मुश्किल है. लेकिन व्याकरण पाठ की तुलना में अधिक स्थायी है इसे मानने में किसी को दिक्कत नहीं होगी. कई बार व्याकरण किसी पाठ के लिखे जाने में बाधक साबित होता है. कोई ख़ास तबका जो अपनी सार्वभौमिक अपील खो बैठता है और वैयाकरण बन के व्याकरण से चिपक जाता है. नेहरू की पीढ़ी ने औपनिवेशिक राज्य के वैयाकरणों को बेदखल किया . हालाँकि औपनिवेशिक राज्य लोकतांत्रिक राज्य नहीं था, लेकिन सार्वभौमिकता का एक तरह का दावा उपनिवेशवादी विचारधारा ने भी पेश किया ही था- और वह दावा पूरी मानवता को सभ्य और आधुनिक बनाने का था.
विभिन्न पीढ़ियां समय-समय पर सार्वभौमिकता का दावा पेश करती है. बुर्जवा वर्ग ने दावा किया कि सामंती बंधनों से वह स्वयं को ही नहीं, बल्कि पूरी मनुष्यता को मुक्त करेगा. मार्क्सवादियों ने दावा किया कि सर्वहारा वर्ग की मुक्ति में ही सबकी मुक्ति है. नेहरू की पीढ़ी ने दावा किया कि वैज्ञानिक ज्ञान से लैस जो आधुनिक राष्ट्रवादी बौद्धिक तबका है- जिसमें राज्य की नौकरशाही से लेकर फैक्ट्री के इंजीनियर और अर्थशास्त्री तक शामिल थे- वह सभी वर्गों का ख्याल रखेगा क्योंकि वैज्ञानिक ज्ञान महज तकनीकी ज्ञान नहीं है वह एक प्रकार की नैतिक चेतना भी है जो मनुष्य को विनम्र, सत्यान्वेषी और सहिष्णु बनाती है.
इस दावे का क्या हुआ उस पर बहस अभी चलेगी, लेकिन 1990-91 में नई दावेदारी पेश हुई. लोक कल्याणकारी राज्य की नौकरशाही- जो नेहरूयुगीन धारणा के अनुसार सार्वभौमिक हितों के प्रतिनिधि थे- को एक झटके में सुस्त और संकीर्ण हितों का प्रतिनिधि मान लिया गया. दूसरी ओर पूंजी निवेश कर उद्योग लगाने वाले देशी-विदेशी कंपनियों के मालिक और मैनेजरों को रोजगार प्रदान करने वाला स्वीकार किया गया.
नेहरू के दावों को चुनौती दी जा सकती है. सार्वभौमिकता के अन्य दावे पेश किए जा सकते हैं, लेकिन नेहरू से बहस तो करनी पड़ेगी. दिक्कत यह है कि नेहरू से बहस करने के बजाए नेहरू की स्मृतियों को मिटाने और विरूपित करने की कोशिश चल रही है. मजेदार यह है कि जिस तबके की ओर से यह कोशिश हो रही है वह नेहरू की नीतियों की वजह से लाभान्वित होने वाला तबका है. वह कारीगरों और छोटे किसानों का तबका नहीं है. नेहरूवादी दौर में स्थाई सरकारी नौकरियों के जो नए अवसर पैदा हुए उनसे निकले हुए मध्यवर्ग की पीढ़ियाँ हैं. लाइसेंस परमिट राज में लाभान्वित होने वाले रसूखदार खानदानों से निकले हुए उद्योगपति हैं जो पूंजी के खेल में अब किसी प्रकार की बाधा को बर्दाश्त करने के लिए अब तैयार नहीं है, लेकिन उनके पूर्वजों को विदेशी पूंजी से संरक्षण चाहिए था.
नेहरू की नीतियों से लाभान्वित वर्ग नेहरू की स्मृतियों को नहीं, बल्कि अपने अतीत को मिटाने में लगा है , ताकि वह दावा कर सके उसने जो भी उपलब्धि हासिल की है वह राज्य के किसी सहारे की वजह से नहीं , बल्कि अपनी मेधा के बल पर प्राप्त की है. ताकि वह वर्ग दावा कर सके कि उसका वजूद ऐतिहासिक नहीं, सनातन है और इसलिए उसका दावा भी सनातन है.
इस वर्ग के वैचारिक वर्चस्व को, सनातनता के उसके दावे को अगर चुनौती मिलनी है तो नेहरू को एक समग्र आईने को इनके सामने रखना होगा, फिलहाल नेहरू की उपस्थिति कलाइडस्कापिक है.
शास्त्रार्थ में नेहरू की वापसी का शायद यह सही समय है- सिर्फ पूर्वपक्ष के रूप में नहीं, बल्कि कई बार उत्तर पक्ष के रूप में भी, क्योंकि सारे उत्तर मारग्रेट थैचर और रीगन के जमाने में ही खोज लिए गए ऐसा मान लेने का अब हमारे पास कोई कारण नहीं है. हमारे अधेड़ होते राजनीतिक टीकाकारों को याद दिलाने की जरूरत है कि बर्लिन की दीवार को ढहे पच्चीस वर्ष से अधिक हो गए और 2007-08 की मंदी भी अब एक दशक पुराना हो चला. जिन स्वयंसिद्धियों के सहारे वे नेहरू और नेहरू के समानधर्मा दूसरे राजनीतिज्ञों को चलताऊ ढंग से निपटाते रहे हैं वे स्वयं सिद्धियाँ ताश के पत्तों से बने महल की तरह एक के बाद एक हमारे आँखों के सामने ढह रही हैं.
संदर्भ
[1] 1955 के बेलग्रेड के एक भाषण में नेहरू कहते हैं –“कभी-कभी राष्ट्र अपनी आत्मा की उपलब्धि स्वाधीनता के संघर्ष के अपने दौरान करता है, जबकि अन्य अवसरों पर वह अपने पुनर्निर्माण और रचनात्मक प्रयासों के दौरान उसे हासिल करता है|” (सर्वपल्ली गोपाल , 1983, देखें- द ग्रेट एडवेंचर ऑफ़ मैन. पृष्ठ सँख्या- 372).
[2] देखें -मेरी कहानी, पृष्ठ सँख्या- 508
[3] http://india.gov.in/hi/my-government/constitution-india/constitution-india-full-text#preamble
[4] देखें- Poetics of a nation: remembering Nehru. Shiv Visvanathan.The Hindu, November 15, 2014
[5] राज्यों के प्रमुख को 15 अप्रैल, 1948 को लिखी नेहरू की चिट्ठी, सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, सेकेण्ड सीरीज, वॉल्यूम-6
[6] देखें- सर्वपल्ली गोपाल, 1983, पृष्ठ सँख्या-447-449. द ट्रू साइंटिफिक स्पिरिट
[7] देखें. Hegel’s Theory of the State. Knacksted, M. E. (1994).
[8] देखें – Why everyone loves ‘good governance’- G. Sampath. The Hindu, July 6th , 2015
[9] देखें – Nehru’s Faith. Sunil Khilnani. Economic and Political Weekly November 30, 2002 पृष्ठ सँख्या-4793- 4799
[10] सर्वपल्ली गोपाल, जवाहरलाल नेहरू: एन एंथोलॅाजि, पृष्ठ -448, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुदित
[11] देखें- “मिलिए फणीश्वरनाथ रेणु और उनके परिदृश्य से”, कवि सुवास कुमार से बातचीत, रेणु रचनावली, भाग-4 पृष्ठ सँख्या- 398
[12] देखें – मुक्तिबोध रचनावली: छह, पृष्ठ सँख्या- 61-67
[13] देखें – मुक्तिबोध रचनावली: छह, पृष्ठ सँख्या- 67-70
[14] देखें – मुक्तिबोध रचनावली: छह, पृष्ठ सँख्या- 162-164
[15] देखें – Nehru, Year Of Death, 2014?- SUNIL KHILNANI.Outlook Magazine, November 17, 2014
[16] देखें- Prime Ministers and big dams. Ramachandra Guha. The Hindu. December 18, 2005
[17] रेणु रचनावली, भाग-5, पृष्ठ सँख्या- 298-303
[18] नागार्जुन रचनावली, खंड-1, पृष्ठ सँख्या- 281-282
[19] नागार्जुन रचनावली, खंड-1, पृष्ठ सँख्या- 217-226
पुस्तक सन्दर्भ
- नेहरू, जवाहरलाल. (1996). भारत की खोज. संक्षिप्त संस्करण, सम्पादन और अनुवाद- निर्मला जैन. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नई दिल्ली-16
- नेहरू, जवाहरलाल. (संस्करण-2015). मेरी कहानी. सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन. नई दिल्ली- 1
- जैन, नेमिचन्द्र (सम्पादक). (दूसरा संस्करण 1986) मुक्तिबोध रचनावली, भाग-6 . राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- यायावर, भारत (सम्पादक). (1995) रेणु रचनावली, भाग- राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- यायावर, भारत (सम्पादक). (1995) रेणु रचनावली, भाग- राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- शोभाकांत (सम्पादक) (2003). नागार्जुन रचनावली, भाग-1 . राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- Gopal, Savepalli (Editor). (1983). Jawaharlal Nehru: An Anthology. Oxford University Press. Delhi
- Khosla, Madhav (Editor). (2014). Letters for a Nation from Jawaharlal Nehru to His Chief Ministers: 1947-1963
- Knacksted, M. E. (1994). STATE AND REVOLUTION: HEGEL, MARX, AND LENIN. Retrieved September 30, 2014, from http://www.logomancer.com/state/chapter1.html
- Kohli, A. (2009). Centralization and Powerlessness: India’s Democracy in a Comparative Perspective. In A. Kohli, Democracy and Development: From Sociolism to Pro-Buisness (Oxford India Paperbacks 2010 ed., pp. 23-42). New Delhi: Oxford University Press.
- Pandey, Gyanendra. (1990). The Construction of Communalism in Colonial North India (Oxford India Paperbacks 1992 ed.). Delhi: Oxford University Press.
- Vajpeyi, Ananya. (2012). Righteous Republic: The Political Foundation of Modern India. Cambridge, Massachustts, and London: Harvard University Press.
मनोज सम्प्रति अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय में अध्यापक हैं. शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और समसामयिक मसलों पर इनकी कई रचनाएँ हिन्दी और अंगेजी में प्रकाशित हुई हैं. संपर्क: manoj.kumar@apu.edu.in |
सुंदर, इस वक्त बहुत ही आवश्यक और जरूरी हस्तक्षेप
मनोज कुमार को बधाई और धन्यवाद.एक बेहद सुचिंतित, प्रबुद्ध, और दृष्टि संपन्न लेख के लिए.. कोई भी उनके बौद्धिक दृष्टिकोण को नकार नहीं सकता.
इस विमर्श की आज सचमुच बड़ी जरूरत है। समालोचन जरूरी मुद्दों को जिस गहराई से रेखांकित कर रहा है, हिंदी पत्रकारिता में यह अभूतपूर्व पहल है।
सामयिक समीचीन आलेख| चर्चा प्रारम्भ का इस से अधिक उचित प्रस्ताव नहीं हो सकता|
सुचिंतित विश्लेषण,अकादमिक समृद्ध करने वाला लेख,मनोज सर को बधाई
शोधपरक और बढ़िया आलेख। मनोज कुमार ने कई संदर्भों में सरलता से सहज व्याख्या की है नेहरू और उनके बाद तथा वर्तमान में हो रही राजनीतिक मूल्यों की
मनोज जी नेहरु के सत्य तक पहुंचने के लिए काफी रिसर्च करते है। एक बात जान लीजिए नेहरु की स्मृतियों को मिटाने की जितनी कोशिश की जाएगी वह उतने ही प्रासंगिक होते जाएंगे। नेहरु सिर्फ राजनेता नहीं थे बल्कि वह Statesman थे। उन्हें भारत की हजारों साल की सामासिक संस्कृति परम्परा विविधता इतिहास और भूगोल की समझ थी और वही सबको मिलाकर चल सकते थे। उन्हीं में भारत को आधुनिक बनाने की सलाहियत थी । बाकी सब के अपने-अपने आग्रह और दुराग्रह थे। गांधी ने वैसे ही नेहरु को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं चुना। यही बातें RSS के लिए कुंठा का सबब बनी हुई हैं। मनोज जी को बहुत-बहुत बधाई।
मेरी नज़र में नेहरू को समझने के लिए अब तक का सबसे उपयुक्त आलेख है यह. नेहरू जितने जटिल राजनेता से आज कौन शास्त्रार्थ करेगा ? वह कलाइडस्कापिक (kaleidoscopic) दृष्टि किसके पास है ?
जितनी सरलता से मनोज भाई ने नेहरू की जटिलता समझाई है, उससे तो लगता है कि आज राजनीति में तो कोई नेहरू के समकक्ष नहीं है, लेकिन संभव है कि जनता में से कोई उनसे शास्त्रार्थ के लिए आगे आए.
बहुत बहुत बधाई मनोज भाई और अरुण भाई.