(*रामन राघव बने नवाजुद्दीन सिद्दीकी) |
तीक्ष्ण और बेधक हमेशा की तरह.
फिर खुले रामन राघव का पूरा मुकदमा
(असली रामन राघव और उसका हथियार) |
असली रामन राघव वाकई एक जटिलतम मनोविज्ञान का आदमी था. पुलिस के गिरफ्तार होने के बाद वह रोया-चीखा-चिल्लाया नहीं. उसके जटा-जूट थे. उसने अपनी सारी हत्याओं को ईश्वर-आदेशित कहा. बालों में अपना प्रिय सुगंधित तेल लगाकर और चहेती चिकन बिरयानी खाकर वह एक के बाद एक अपने जुर्म बयान करता गया. बहुत पहले उसने एक डकैती की थी और जैसा कि अनुराग ने बताया भी है अपनी सगी बहन से बलात्कार भी किया था.
राघव की कोई घर-गिरस्ती न थी. वह चिंचवड और मालाड के तत्कालीन मकानों में किसी तेंदुए की तरह भटकता रहता था और आज जिस तरह हमला कर तेंदुए घरेलू कुत्तों को खा रहे हैं, वह झोपड़पट्टिïयों के लोगों को किसी तांत्रिक, अघोरी या नकपटीमार बाबा की तरह परलोक पठा देता था. पुलिस सर्जन ने अदालत से कहा कि राघव को कोई मानसिक बीमारी नहीं है. वह कानूनी कार्रवाई को समझ रहा है और डॉक्टरी तौर पर उसे पागल नहीं कहा जा सकता. बचाव पक्ष की दलीलों को दरकिनार करते हुए मुंबई ए.डी.जे. ने उसे हत्याओं के लिए मौत की सजा दी. हाइकोर्ट ने इस पर तीन मनोवैज्ञानिकों का बोर्ड गठित करवाया जिसने पहले राघव की मेडिकल जांच करवाई और फिर उसके मनोलोक के बारे में कुछ अत्यंत सनसनीखेज बातें बताईं.
(निर्देशक अनुराग कश्यप) |
‘रामन राघव 0.2’ वह करती है जो बहुत कम फिल्में कर पाती हैं. ‘सैराट’ की तरह वह अपने दर्शकों को पथभ्रष्टी अफोम नहीं चटाती, वह उन्हें सतह से ऊपर उठने में गैर-कृपालु मदद करती है. हमारे बीच कई प्रकट-प्रच्छन्न रामन-राघव हैं. खुद हम सबमें छिपा हुआ रामन-राघव कभी भी अपना हिंस्र हथौड़ा उठा लेता है. कानून अपराधी बन जाता है जबकि अपराधी स्वयं को दैवीय माध्यम समझने लगता है. अनुराग की यह फिल्म ऐसे उपदेश नहीं देती, न हम उसे देखकर फ्राइड, युंग, आडलेर या क्रिमिनिल साइकोलॉजी की लाइब्रेरी खोजने निकल जाते हैं, बल्कि हमारे घरों, बिरादरियों, समाज, राजनीति, प्रशासन, पुलिस, संसद, विधानसभाओं, न्यायपालिकाओं में जो बहुत कुछ होता आ रहा है उसे ठंडे पसीने के साथ समझते हैं, तब, शेक्सपिअर के शब्दों में, रामन राघव के बारे में हम आतंकित होकर स्वीकारते हैं कि There is a method behind his madness- उसके पागलपन के पीछे एक प्रणाली- एक अनुक्रम- एक सिलसिला है. जरा उसके बरक्स उन पुलिस वालों को देखिए- कितने sane, कितने होशमंद हैं, लेकिन उसमें रामन राघव से कितने हिंस्र, कितने दरिंदे.
अनुराग कश्यप इस फिल्म से निदेशकों की अंतरराष्ट्रीय ‘बिग लीग’ में शामिल होता लग रहा है, मुझे तो इसमें शक ही नहीं कि यह उसकी ही नहीं, भारत की ऐसी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. अनुराग की यह फिल्म बहुत सस्ते में बनाई गई है और उसका अजेंडा नैनो-तकनीक और ब्लैक होल जैसा सघन है. दरअसल वास्तविक रामन राघव पर एक महान फिल्म बन सकती है और अनुराग यह जानते रहे होंगे, इसलिए उन्होंने राघव के जीवन के कई पहलुओं को छिपाए रखना ही बेहतर समझा होगा. मसलन, यह तो तय है कि राघव के साथ समलैंगिक बलात्कार हुआ होगा. क्या वह स्वयं में कुछ स्त्रैणता देखता था/ अमेरिका में एक प्रच्छन्न मुस्लिम समलैंगिक ने एक होमोसैक्सुअल क्लब में हाल में जो लाशें गिराईं, वह रामन राघव की क्रमबद्धता में ही था. ईश्वर, राजनीति और ‘गवर्नेंस’ को लेकर भी राघव की कुछ धारणाएं थीं. अकबर, अंग्रेज और कांग्रेस का उसका सिलसिला क्या था/ सरकारें उसे कौन से प्रलोभन देती लगती थीं/ वह स्वयं ‘स्लमडॉग’ था, फिर अपने भाइयों-बहनों से इतनी नफरत क्योंकि उन्हीं की हत्या करनी पड़े/ क्या वह अपनी passive homosexuality में भारत के करोड़ों गरीबों की मजबूर passivity देखता था और किसी भयावह चाणक्य की तरह यूं उनका उन्मूलन करना चाहता था.
अनुराग की इस बेहद सार्थक फिल्म के बाद, जिस पर बहुत कुछ लिखना बाकी है रामन राघव के विचित्र हत्यारे पागलपन का मुकदमा करीब पचास बाद हमारे सामने फिर खुल गया है. वह जहां जैसा भी हो, रामन राघव फिर हाजिर हो.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)
विष्णु खरे