शायर शहरयार और अफ़सानानिगार क़ाज़ी अब्दुल सत्तार समकालीन थे और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में साथ थे. दोनों का क़द अदब की दुनिया में बहुत बड़ा है, इसके साथ उनके क़द में भी कुछ ऐसा था जो उन्हें यादगार बनाता है. क्या ख़ूब दिलचस्प बातें हुईं हैं. आलोचक सूरज पालीवाल का दोनों के साथ आत्मीय रिश्ता रहा है. ये बातें कोई नजदीकी ही लिख सकता है.
प्रेम कुमार की शहरयार और क़ाज़ी साहब पर बातों मुलाकातों की लिखी किताबें इस आलेख का आधार बनीं हैं.
आइये पढ़ते हैं.
प्रेम कुमार की शहरयार और क़ाज़ी साहब पर बातों मुलाकातों की लिखी किताबें इस आलेख का आधार बनीं हैं.
आइये पढ़ते हैं.
\’उसने ये जाना कि गोया/ये भी मेरे दिल में था\’
सूरज पालीवाल
क़ाज़ी अब्दुल सत्तार और शहरयार दोनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से सेवा निवृत हुये थे. यह उनका अकादमिक परिचय है, जिसके लिये लोग आजीवन तरह-तरह की तिकड़में करते हुये उस पायदान पर पहुंच जाते हैं पर क़ाज़ी साहब या शहरयार साहब का यह परिचय उनका मुकम्मल परिचय नहीं हो सकता. क़ाज़ी साहब उर्दू अदब के तारीखी अफ़सानानिगार थे और शहरयार साहब अपने समय के बेहद मकबूल शायर. एक विभाग में अक्सर इतनी प्रतिभाएं एक साथ नहीं होतीं पर उर्दू विभाग को एक साथ दोनों को देखने और सुनने का सौभाग्य मिला था, जिसकी स्मृतियां लोगों के जेहन में अभी भी ताज़ा हैं.
शहरयार साब और राही मासूम रज़ा दोनों क़ाज़ी साब के अध्यापन जीवन के पहले सत्र के विद्यार्थी थे. शहरयार साब अक्सर कहा करते थे कि क़ाज़ी साहब ऐसे अध्यापक हैं, जिन्हें पहले ही दिन पढ़ाने के लिये एम.ए. की कक्षा मिली वरना ज्यादातर अध्यापक पीयूसी पढ़ाते हुये बहुत बाद में एम.ए. तक पहुंच पाते हैं. क़ाज़ी साहब कहने में तो कहीं नहीं चूकते थे इसलिये शहरयार साब के जवाब में वे कहा करते थे कि हाई स्कूल से लेकर एम.ए. तक जिसने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया हो, यह सौभाग्य उन्हीं को मिलता है. जाहिर है कि क़ाज़ी साब जितने पढ़ने में होशियार थे उतनी ही उनकी याददाश्त भी तेज थी. एक बार वे थोड़ा-सा समय दे दें और सुनने वाला मन से सुनने को तैयार हो तो क़ाज़ी साब बताते हुये थकते नहीं थे.
उन्हें इतनी चीजें पता थीं कि शागिर्दों को छोड़ दीजिये अध्यापक भी कहीं अटकते थे तो क़ाज़ी साब से पूछने जाते थे. जब उनका ‘दाराशिकोह’ उपन्यास प्रकाशित हुआ तब इरफान हबीब साब ने टिप्पणी की कि दाराशिकोह के खाने पर तो क़ाज़ी साब ने कुछ लिखा नहीं.
क़ाज़ी साब ने जवाब दिया कि
‘मुगलों का खाना शाही दरबार से न होकर निजी होता था इसलिये उसके बारे में कुछ लिखना फिजूल होता.’
उन्होंने यह भी कहा कि
\’मैं दाराशिकोह की जीवनी नहीं वरन् उपन्यास लिख रहा था इसलिये उपन्यास में जितना बताना जरूरी था, उसे बताया गया है.’
शहरयार साहब इस मामले में चुप रहते थे, वे तुरंत जवाब देने या विवादों में पड़ने वाले इंसान नहीं थे. वे शायरों की तरह जिंदगी जीते थे और शायरों की तरह ही व्यवहार करते थे. उन्हें बहुत कुरेदिये तो छोटा-सा जवाब देकर चुप हो जाते थे. असल में यह अंतर विधाओं का अंतर है, कथाकार बगैर जीवनानुभवों के लिख ही नहीं सकता और शायर अपनी तरह से चीजों को देखता है, कभी चुप होकर तो कभी आंखें बंद कर. उसके अनुभव करने के तरीके कथाकार की तरह नहीं होते.
डॉ. प्रेम कुमार ने अच्छा काम यह किया कि अपने समय के दो अदीबों के लंबे साक्षात्कार लेकर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाये. ‘बातों-मुलाकातों में शहरयार’ पुस्तक 2013 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई तो ‘बातों-मुलाकातों में क़ाज़ी अब्दुल सत्तार’ पुस्तक 2016 में अमन प्रकाशन से प्रकाशित हुई.
प्रेम कुमार अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे और शुरू में कहानियां लिखा करते थे. जहां तक मेरी जानकारी है वे उर्दू नहीं जानते लेकिन इन पुस्तकों से ज्ञात होता है कि उर्दू अदब और उर्दू के अदीबों से बातें करना उन्हें अच्छा लगता था. अलीगढ़ के ही हमारे दोस्त सुरेश कुमार ने तो उर्दू सीखने के लिये उर्दू की विधिवत् पढ़ाई की थी. यह एक प्रकार का जुनून है, जो दोनों दोस्तों में अलग-अलग तरीके से देखा जा सकता है. एक लंबे समय तक अपने सारे काम छोड़कर साक्षात्कार लेने में व्यस्त है तो दूसरा उर्दू पढ़ने और जानने के लिये बेचैन हैं. दोनों पुस्तकें मेरे लिये कम से कम इसलिये महत्वपूर्ण हैं कि क़ाज़ी साब और शहरयार साब दोनों मेरे उस्ताद रहे हैं. हालांकि उन्होंने मुझे कक्षा में कभी नहीं पढ़ाया पर वह उस्ताद ही क्या जो केवल कक्षाओं तक ही सिमटकर रह जाये. इन पुस्तकों की खूबी यह है कि इनमें दोनों लेखकों को खुलकर अपनी बात कहने का अवसर दिया गया है. यह बात दूसरी है कि इन साक्षात्कारों को यदि कोई उर्दू वाला लेता तो उर्दू अदब की रवायतें और उसके खास खास अदीबों के बारे में और ज्यादा जानकारी मिल सकती थी, इसलिये प्रेम कुमार की कुछ सीमाएं हैं जो दोनों पुस्तकों में बार-बार अलग-अलग तरीके से झलकती हैं.
क़ाज़ी साहब अपने निजी जीवन के बारे में खुलकर बताते हैं पर शहरयार साहब ऐसा नहीं करते. क़ाज़ी साहब के पास कहने को बहुत कुछ है, वे अफ़सानानिगार हैं उनके पास लाजवाब किस्सागोई है कि सुनने वाला भी झूम उठे पर शहरयार साब तो शायर हैं. शायरों को तो बहुत कम शब्दों में यानी एक शेर में अपनी बात कहनी होती है, उनके पास उपन्यास के पन्ने नहीं हैं जो भरते जाइये इसलिये वे अपने जीवन के बारे में बहुत कम बताते हैं. प्रेम कुमार बार-बार पूछते भी हैं पर शहरयार नहीं खुलते. जबकि क़ाज़ी साब का जीवन तो खुली हुई किताब थी, जहां मौका मिलता वे अपने बारे में बताना शुरू कर देते. जब प्रेम कुमार उनके प्रेम संबंधों के बारे में पूछते हैं तो वे बताना शुरू करते हैं
‘गुलाबजान और मुनीरज़ा न तो हमारी फुआ थीं, नूरजहां, बेगम पारा … नाम याद आ रहे और … वगैरह के नाचने ने मेरी पसंद को बहुत मुतास्सिर किया. हमको इनसे इश्क हो गया. नूरजहां हमारे ही इलाके के बिरसवा की रहने वाली थी. एक शहजादी ने हमसे मोहब्बत की. उन पर हमने इस उम्र में नाविल लिखा है. वो मेरी पसंद थीं और नाविल में जैसे शहजादी ही मुजस्सिमा हो गई. मेरी हर कहानी, हर नाविल में, कहीं कम, कहीं ज्यादा, कहीं न कहीं से, किसी न किसी तरह उन्हीं की मोहब्बत झलकती है. नाविल में तो पूरी तस्वीर-सी झलकती है. मैं इनको पेश करने के बहाने ढूंढ़ता रहता हूं.
मुझे लड़कियो ने कभी मुतास्सिर नहीं किया. मछरेटा, सीतापुर और लखनऊ या अलीगढ़ में भी, किसी ने मुझे हुस्न के आम तराजू पर उतरने वाली लड़कियों में दिलचस्पी लेते नहीं देखा. मेरी पाक़बाजी का मछरेटा में जो जिक्र होता है, उसका सबब यही है. खुदा गवाह है, मैंने आज तक किसी लड़की से, किसी औरत से यह नहीं कहा या यह नहीं लिखा कि मैं तुम्हें चाहता हूं. दुनिया की कोई लड़की मेरा एक खत पेश नहीं कर सकती. हां, फली-फूली, भरी-भराई, पकी औरतें कल भी मुझे परेशान करती थीं और आज भी मुझे वे ही अच्छी लगती हैं.’
ये क़ाज़ी साहब हैं, जिनके बहुत सारे किस्से इस पुस्तक में बिखरे पड़े हैं, जिनका आगे भी जिक्र किया जायेगा पर बात यह है कि क़ाज़ी साब अपने बारे में कुछ छुपाते नहीं है. लेकिन शहरयार ऐसा नहीं करते, वे बहुत नहीं खुलते. प्रेम कुमार यहां-वहां से घुमाकर कई बार उन्हें उस मुकाम पर लाये हैं जहां शायर भावुक हो जाया करते हैं पर शहरयार हमेशा चैकन्ने बने रहते हैं. प्रेम कुमार ने इसका जिक्र करते हुये लिखा है
‘खूबसूरती पर शुरू हुई बात की अंतिम तान यहां आकर टूटेगी-सोचा ही नहीं जा सकता था. उनकी आंखों की तरफ निगाह गई तो लगा कि जैसे वो उस समय किसी बेहद खूबसूरत चेहरे को देखने में मुब्तिला थीं. मन किया कि उन आंखों द्वारा खूबसूरती का खिताब पाने वाले के बारे में कैसे ही कुछ जानूं-कोई ऐसी यादगार तारीफ ? सुनकर कुछ और खिले-खुले से दिखे- एक शेर है हमारा ‘तुमसे मिलते न हम तो लगता है/ जिंदगी में बड़ी कमी रहती….’
कुछ और कहलवाने के लिये जरा और कुरेदा तो रहस्यमयी-सी एक मुस्कान के साथ कहा-
ज़ाहिर है कि जिसको देखकर या जिससे मिलकर ये शेर कहा होगा, उसने मेरी जिंदगी में क्या-क्या न परिवर्तन किया होगा. मैंने नाम जानने के लिये बच्चे जैसी एक जिद की. उन्होंने बड़े गुनी अनुभवी के कौशल के साथ उसे फिर से एक शेर सुनाकर जैसे अनसुना कर दिया-
‘आगे बढ़े न किस्सए-इश्के बुतां से हम
सब कुछ कहा खुले न मगर राजदां से हम.’
मैं अपने इरादे को पराजित होने नहीं देना चाहता था. किसी सीखतर खिलाड़ी की तरह अपने इरादे की गेंद को साहस की हाकी से सटाए-चिपकाए मैं लगातार इधर-उधर घुमा रहा था. पर वो थे कि मुझे गेंद को हिटकर सकने तक का मौका नहीं दे रहे थे. गोल तक तो भला मैं उसे क्या पहुंचा पाता. मेरी कोशिश जारी रही-कभी उस रिश्ते का समय पूछा तो कभी उम्र और कभी वर्तमान! मेरे प्रश्नों को सुन-सुनकर वो बताते-बताते ऐसे मुसकुराते रहे थे जैसे कोई श्रेष्ठ खिलाड़ी किसी किशोर के खेल में के बचपने को देख-देखकर मुसकुरा रहा हो-
सब कहा-बुतों से इश्क का तरीका बताते रहे. … नहीं मिले थे- तब नहीं- शेर तो बाद में-बहुत बाद में कहा गया. वो किस्सा सन् अट्ठावन वगैरह का है. उस रिश्ते की उम्र बहुत चली… अब भी वो रिश्ता … इमोशनल रिश्ता-बाकी है. मन हार मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था-
अच्छा ऐसी कोई स्मृति जब आपने समर्पण किया ? मुस्कान हंसी में तब्दील हुई. जैसे उसे भी मेरे पूछने और उस आग्रह पर हंसी आ गई थी-
\’वो तो म्यूचल ही था- अन्यथा दूसरा आदमी इतना दीवाना नहीं हो सकता था-दोनों तरफ थी आग बराबर लगी हुई….’
इन दोनों उद्धरणो से एक कथाकार और एक शायर की जिंदगी के फर्क को भी समझा जा सकता और उनके खुलने-बताने की गहराई को भी.
क़ाज़ी साहब के अनगिनत किस्से हैं पर शहरयार साब इस प्रकार के किस्सों से बचते हैं. क़ाज़ी साब जिस माहौल में पले-बढ़े थे उससे वे आजीवन निकल नहीं पाये. देश आजाद हुआ, जमींदारी उन्मूलन में मछरेटा की जागीरदारी चली गई पर उनके मन से जमीदारी कभी नहीं निकली. वे आजीवन उसी ठसक से रहे और उसी ठसक से सामने वाले से बातें कीं. इस ठसक में सामंती भाव था तो उदारता भी थी, जो उनमें हमेशा विद्यमान रही. क़ाज़ी साब की विशेषता यह है कि वे किसी बात को छुपाते नहीं हैं. तवायफों के यहां जाना और मुजरे सुनना ताल्लुकदारों की अपनी खासियत है इसके लिये उन्हें किसी प्रकार की शर्मिंदगी न होकर गर्व है. क़ाज़ी साब अपने बेहद संवेदनशील और मार्मिक प्रेम प्रसंग को सुनाते हुये कहते हैं- एम. ए. में पढ़ने के दौरान लखनऊ यूनिवर्सिटी के हास्टल से निकाल दिया गया तो क़ाज़ी साब रिश्ते के मामू के यहां चले गये. मामू रईस थे उनका बंगला क्या महल था, क़ाज़ी साब उसमें रहने लगे. वहीं शमीम से मुलाकात हुई, उस घटना के बारे में उन्होंने बताया
‘क्या तुमको यकीन आयेगा कि तीन महीने तक हम दोनों एक-दूसरे के हाथ चूमते रहे और पेशानियों पर बोसे लिखते रहे. न हम आगे बढ़े और वो तो लड़की थी- वो भी रईसजादी- उनके आगे बढ़ने का सवाल ही क्या था? हर तीसरे-चौथे दिन वो छुपकर मेरे पास आतीं या मुझको चोरी-चोरी बुलवा लेतीं. हम दोनों एक ही कोच पर हाथों में हाथ दिये बातें करते रहते.’
वे कट्टर शिया परिवार से थीं और क़ाज़ी साब कट्टर सुन्नी परिवार से इसलिये शादी नहीं हो सकती थी. इसलिये वे जहर खाकर मर गईं. क़ाज़ी साब ने स्वीकार किया कि ‘शमीम जैसी खरी-सच्ची माशूका नहीं मिली. उसने मेरा इंतजार तक नहीं किया.’
उनकी मौत के बाद की स्थितियों पर उन्होंने बताया
‘काफी दिनों तक मैं आदमक़द आईने के सामने खड़ा अपने आपको देखता और सोचता रहा कि मेरा और शमीम का क्या मुकाबला ? न दौलत में, न जायदाद में, न सूरत में, न शक्ल में. वो अपने रईस बाप की इकलौती बेटी … और इस तरह चली गई जैसे वो दस-बीस बेटियों में से एक बेटी हो. आज भी जब याद करता हूं तो सारी-सारी रात बैठा रहता हूं. इस उम्र में भी. हां, यह सच है.’
इस मार्मिक प्रेम प्रसंग का उन्होंने अपने उपन्यास ‘पहला और आखिरी खत’ में जिक्र किया है. यह प्रसंग कई पृष्ठों में समाहित है, इसके चित्रण से ही लग जाता है कि वे शमीम से कितना प्रेम करते रहे होंगे. क़ाज़ी साब बहुत सुंदर नहीं थे लेकिन जिस तरह रहते थे, उसमें उनकी नफासत साफ झलकती थी.
क़ाज़ी साहब पाकिस्तान गये वहां फौजी तानाशाह सदर ने उन्हें डिनर पर बुलाया, खुद पोर्च में लेने और छोड़ने आये, लौटकर आये तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुलाया. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से उनकी बहनों के माध्यम से मिलते-जुलते रहते थे तथा किस-किस बड़े आदमी ने उन्हें और उनके लेखन को इज्जत बख्शी, इस बारे में वे अक्सर बताया करते थे. बताने में उन्हें आनंद आता था और देखते-देखते मछरेटा उन पर हावी होता जाता था. वे इस बात को स्वीकार भी करते थे कि मछरेटा के ताल्लुकेदार होने के नाते एक प्रकार का गुरूर हमेशा उनके अंदर रहा, जिसने उन्हें कभी किसी के सामने न झुकने दिया और न समझौता ही करने दिया. उनके विभाग में ऐसे कई अध्यापक थे जो इस कला में माहिर थे, पर क़ाज़ी साहब उस रास्ते पर कभी नहीं गये, चाहे कितना भी नुकसान हो गया हो. खुद्दारी तो शहरयार साब और क़ाज़ी साब दोनों में थी, शहरयार साब को किसी कुलपति ने कहा
‘आप आलोचना पर एक किताब लिख दो तो मैं प्रोफेसर बना दूंगा.’
उन्होंने मना कर दिया कि
‘जो इलाका अपना है ही नहीं उसमें जाने से क्या फायदा ?’
आज के समय में मुझे उर्दू का नहीं मालूम कि वहां अकादमिक जगत की क्या स्थिति है पर हिंदी के बारे में मैं जानता हूं कि अब सहायक प्रोफेसर बनने से लेकर आगे तक किसी का कोई इलाका नहीं है, एक आदमी भाषा विज्ञान पर भी लिख रहा है, काव्य शास्त्र पर भी लिख रहा है, कहानी और उपन्यासों पर भी लिख रहा है और शमशेर और मुक्तिबोध की कविता पर भी लिख रहा है. जहां जैसी संगोष्ठी होती है, वैसा लिख देता है, उसका अपना कोई विषय और विशेषज्ञता नहीं होती. इसलिये हिंदी विभागों में ऐसे अनाम व्यक्ति पदों पर बैठे हैं कि उनसे एक मिनट भी गंभीरता से किसी विषय पर बात नहीं की जा सकती. बस उन्हें जुगाड़ आता है, मोबाइल में सारे अध्यक्षों से लेकर कुल सचिवों तक के नंबर भरे हुये हैं, जिन्हें वे होली दीवाली ही नहीं बल्कि वैसे भी याद करते रहते हैं इसलिये लेन-देन का व्यापार शुरू हो गया है.
क़ाज़ी साब और शहरयार साब इस प्रकार के लेन-देनों से कोसों दूर रहे उन्हें इसके नुकसान भी खूब हुये पर इस प्रकार के अनैतिक नुकसानों की उन्होंने कभी चिंता नहीं की.
क़ाज़ी साब के बहुत से ऐसे किस्से हैं जो इस पुस्तक में नहीं हैं. यह पुस्तक की भी सीमा हो सकती है और सुनाने की मनःस्थिति की भी.
कहते हैं कि एक बार किसी अध्यक्ष ने उनका टाइम टेबल सुबह आठ बजे से लगा दिया तो उन्होंने अध्यक्ष को कुछ नहीं कहा बल्कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास पहुंच गये और टाइम टेबल बदलवा दिया. ‘दाराशिकोह’ उपन्यास पर जब कुलपति ने कुछ ऐतराज किया तो उन्हें उनके चेंबर में ही डांटकर आ गये. प्रोफेसर पद के लिये साक्षात्कार की बात आई तो यह कहकर नहीं गये कि मेरे जैसे अफ़सानानिगार से कौन क्या पूछ सकता है ? मैं किसी मीरासी या भांड को कुछ बताने से रीडर बने रहना अधिक पसंद करूंगा.
अपने एम.ए. के दौरान हुई मौखिकी का जिक्र करते हुये उन्होंने बताया कि विभागाध्यक्ष ने उनसे पूछा ‘हजरत आप ग़ालिब के बारे में क्या जानते हैं ? मैं घूम गया. फिर संभला- सर, अगर आप यह पूछें कि ग़ालिब के बारे में क्या नहीं जानता तो मुझे आसानी होगी.’
कहना न होगा कि एम.ए. की मौखिकी एक औपचारिकता होती है, जिसमें नपे-तुले और रटे-रटाये उत्तर ही दिये जाते हैं. पर क़ाज़ी साब ने तो अपने परीक्षक को ही चुनौती दे डाली थी. परीक्षक थोड़ी देर में संभले और बगैर नाराज हुये पूछा-
‘तो चलिये, यही बताइये कि आप क्या नहीं जानते !’ क़ाज़ी साब ने कहा-
‘सर, कहा जाता है कि ग़ालिब की माशूका डोमनी थी. मेरा नाचीज ख्याल है कि ग़ालिब मुगल एरिस्ट्रोक्रेसी की यादगार था. वो अगर डोमिनी पर आशिक भी होता तो उसका इजहार करना अपनी तौहीन समझता. आपके खादिम की राय है कि ग़ालिब की माशूका तुर्क बेगम थी.’
यह सहज सामान्य उत्तर नहीं था. किसी एम.ए. के विद्यार्थी से मौखिकी के दौरान इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा नहीं की जाती है. इस उत्तर ने सबको चौकाया ही नहीं बल्कि भयभीत भी किया. ग़ालिब की माशूका के बारे में उर्दू में अभी तक स्थायी राय थी कि उनकी माशूका डोमिनी थीं पर क़ाज़ी साब ने तर्क के साथ उस स्थापना का खंडन कर दिया. सवाल यह नहीं है कि कौन कितने नंबर देगा बल्कि सवाल यह है कि क्या कोई विद्यार्थी इस प्रकार की नयी स्थापना से परीक्षक को चुनौती देकर उत्तीर्ण भी हो सकता है. आज कोई विद्यार्थी इस प्रकार की हरकत करके देख ले तो उसका उत्तीर्ण होना कठिन हो जायेगा.
सर्दी और बरसात की सुबह कोई विद्यार्थी पढ़ने आ गया, क़ाज़ी साब की क्लास थी और क़ाज़ी साब विभाग के अपने कमरे में बैठकर सिगरेट पी रहे थे. विद्यार्थी की हिम्मत नहीं हुई कि वह क्लास के बारे में कुछ कह सके पर बार-बार उनके कमरे के चक्कर काटता रहा. क़ाज़ी साब समझ गये और उसे बुलाकर पूछा-
‘क्या क्लास के लिये आये हो. उसने हां कहा तो क़ाज़ी साब बिफर पड़े. नाराज होकर कहा- मियां मेरा हेड से झगड़ा है इसलिये आया हूं तुम्हारा किससे झगड़ा है. जाओ हास्टल में आराम करो.’
विद्यार्थी चुपचाप चला गया. ये छोटे-छोटे मगर अर्थपूर्ण किस्से हैं, जिनसे क़ाज़ी साब की एक तस्वीर बनती है. वे अपनी बात कहने में किसी से डरते नहीं थे. पाकिस्तान गये तो उनसे जोश के बारे में पूछा गया. जोश मलीहाबादी अपने बारे में बताते होंगे तो पाकिस्तान के लोग उनकी बातों पर यकीन नहीं करते थे. क़ाज़ी साब ने उस झूठ का खंडन किया और बताया कि
‘जोश के बाप मलीहाबाद के तालुकेदार थे. एक लाख सत्तर हजार की निकासी थी. दरवाजे पर तीन-तीन हाथी थे. घोड़ों से अस्तबल भरा था. घर में जवान औरतें भरी थीं- काली भी, गंदुमी भी और सफेद भी. नाश्ते में हलुवे, परांठे, मुर्गे, अंडे, बालाई, मक्खन, दूध. ये रोज होता था. जोश बाहर निकलते तो नौकरानियां उनकी जेबों में मेवे भर देती थीं. जोश नौकरों के बच्चों को बांट-बांटकर खाते. कलमी आमों की गाड़ियां उतरती थीं. अमरूद, अंगूर, केले और संतरों के ढेर लग जाते थे. खुशामदें की जाती थीं- भैया तनी खाए लेओ. जोश गालियां बकते हुये भाग जाते थे. इलाके की लड़कियां इंतजार करती थी कि मझले भैया बस हमारी तरफ मुस्कराकर देख तो लें.’
क़ाज़ी साब यहीं नहीं रुके बल्कि अवध के खाने से लेकर सजावट और पोशाकों तक का जो ब्योरा पेश किया, उससे सुनने वाला भी शर्मिंदा होकर चुप हो गया. पाकिस्तान में जोश को लेकर जिस प्रकार अविश्वसनीय वातावरण बनाया गया था, क़ाज़ी साब उससे वाकिफ थे इसलिये उन्होंने तफसील से जोश और उनके खानदान के बारे में बताया.
क़ाज़ी साब और शहरयार साब की तुलना वैसे ही संभव नहीं है जैसे अफ़सानों और शायरी की तुलना नहीं की जा सकती. शहरयार साब की मकबूलियत का एक दौर था जो ‘उमराव जान’ फिल्म के आने के बाद तो और अधिक परवान चढ़ा था. उनकी गज़लों की धूम ने रातों-रात उन्हें अदबी दुनिया से बाहर भी शोहरत दिलाई थी. वे जहां भी जाते उनकी प्रसिद्धि उनसे पहले पहुंच जाती थी. वे मन ही मन खुश तो होते थे पर बाहर किसी प्रकार का प्रदर्शन करने की उनकी आदत नहीं थी. वे अपने बारे में कुछ कहते हुये पहले भी शरमाते थे और बाद में भी उनकी यह आदत छूटी नहीं. मुंबई अपने रंग में रंगने के लिये मशहूर है पर शहरयार उस रंग से बचकर निकल आये थे. वे कहते थे कि
‘मियां, मैं तो इल्मी दुनिया का शायर हूं फिल्मी दुनिया का नहीं. अलीगढ़ में होता हूं तो बहुत सारे हाथ सलाम को उठते हैं और मुंबई में खुद सलाम करना पड़ता है. इसलिये ऐसी अजनबी दुनिया में अपना क्या काम ?’
अलीगढ़ के ही उनके सहपाठी राही मासूम रज़ा मुंबई के रंग में रंग गये थे पर शहरयार को यह मंजूर नहीं था इसलिये वे अलीगढ़ लौट आये. उन्हें अपने जीवन से किसी प्रकार की कोई असंतुष्टि नहीं थी. वे कहा करते थे कि जो मिला है वह मेरी काबिलियत से कुछ ज्यादा और समय से पहले मिला है. इसके लिये वे ऊपर वाले को शुक्रिया देते थे पर साथ ही वे स्वयं को मार्क्ससिस्ट भी कहते थे और पूछने पर कहते थे कि – ‘हां पक्का मार्क्ससिस्ट हूं लेकिन ऊपर वाली किसी ताकत पर यकीन भी करता हूं.’
वे इसमें किसी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं देखते थे. ग़ालिब के बाद फ़ैज़ के वे दीवाने थे और कहा करते थे कि
‘फ़ैज़ की शायरी में मुझे ग़ालिब जैसी बड़ाई नजर आती है.’ अपनी ही बात को आगे बढ़ाते हुये उन्होंने कहा था ‘फ़ैज़ और ग़ालिब दोनों की खूबी ये भी है कि इनके स्टाइल और रंग पर इनकी इतनी गहरी छाप है कि अगर उनके रंग में कोई लिखने की कोशिश करे तो फौरन पकड़ा जाता है और दूर से मालूम हो जाता है कि ये फ़ैज़ का या ये ग़ालिब का शेर है.’
फ़ैज़ की मकबूलियत के बारे में उनका ख्याल है
‘जहां तक मकबूलियत का सवाल है- तो वो ख़ास -ओ-आम में जितने मकबूल हैं उसकी वजह ये भी है कि वो जेल गये और मार्क्ससिस्ट रहे. उनका जेल जाना या लंबे अरसे तक जेल में रहना और मार्क्ससिस्ट होना उनके लिये बहुत फायदेमंद रहा. और जहां तक सियासी एलीमेंट की बात है तो वो उनके यहां बहुत रूमानी और इश्किया अंदाज में आया. कई जगह तो उनका इंकलाब गोश्त और पोस्त का इंसान या माशूक मालूम होता है. मसलन ये शेर देखिये-
कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल कब रात बसर होगी
किस दिन तेरी सुनवाई, ऐ दीद-ए-तर होगी. या
‘आ गई फसले सुकूं चाक गरीबां वालो
सिल गये होठ कोई जख्म सिले या न सिले\’.
\’दोस्तों बज्म सजाओ कि बहार आई है
खिल गये जख्म कोई फूल खिले या न खिले.’
ग़ालिब और फ़ैज़ के बारे में इस स्थापना का मतलब शहरयार जानते थे इसलिये वे उदाहरण देकर अपना पक्ष रख रहे थे. उर्दू में ग़ालिब का मकाम बहुत ऊंचा है, उर्दू वालों का मानना है कि उनकी तुलना किसी से नहीं हो सकती पर वे कोई अल्लामियां तो हैं नहीं शायर ही तो हैं इसलिये तुलना क्यों नहीं हो सकती ?
शहरयार खुले मन से फ़ैज़ को अपना प्रिय शायर मानते हैं जैसे वे ग़ालिब को मानते हैं. इसी प्रसंग में वे यह भी मानते हैं कि जिनकी मादरे जबान उर्दू नहीं थी उन्होंने उर्दू में बड़ा काम किया है
‘एक ओैर बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर जिनकी मादरी जबान उर्दू नहीं थी- उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं- उनकी जबान एक खास तरह की बोलचाल की जबान से थोड़ी दूर ही रहती है. जैसे एक्वायर्ड लैंगुएज होती है न ! फ़ैज़ की मादरी जबान पंजाबी थी. पंजाबी में ज्यादा नही मगर उन्होंने शयरी भी की है. फ़ैज़ के अलावा राशिद, यासिर काजमी, इब्ने इंशा, कृश्नचंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमें किसी की मादरी जबान उर्दू नहीं थी. इसलिये यू.पी., बिहार के राइटर्स के मुकाबले में इनकी जबान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज्यादा मेहनत की और ज्यादा पढ़ा. इसलिये इनके यहां निस्बतन यू.पी. वालों के डेप्थ ज्यादा हैं.’
शहरयार साब ने अपनी परंपरा को न केवल पढ़ा था बल्कि उससे बहुत सीखा भी था. इसलिये वे बहुत लंबे समय तक मुशायरों में नहीं गये. वे कहा करते थे कि मुशायरे सबसे ज्यादा हिंदुस्तान में ही होते हैं, हमारे बराबर का मुल्क है पाकिस्तान जहां बहुत कम मुशायरे होते हैं.
‘बंटवारे से पहले ही वहां यह ट्रेडिशन रहा है कि वहां ओरल शायरी नहीं है. बहुत कम मुशायरे होते हैं वहां. वहां लिखित शायरी होती है. वहां के शायरों की मादरी जबान पंजाबी रही है. उर्दू उन्होंने एक्वायर की है और शुरू से ही ये कोशिश रही कि उर्दू जबान के इलाके वालों के बराबर वे कांपीटेंट हो जायें. उन्होंने सीखने-पढ़ने पर जोर दिया, जबकि हिंदुस्तान में रहने वाले शायरों ने पढ़ने-लिखने पर इतनी तवज्जोह नहीं दी. यहां के लोगों की उर्दू मादरी जबान थी. पाकिस्तानी शायरी को बेहतर समझा जाता है लेकिन यहां के भी सीरियस शायर पाकिस्तान के सीरियस शायरों से किसी तरह कम नहीं हैं. मुशायरे जब भी दुनिया में कहीं होते हैं तो पाकिस्तान से वे ही शायर बुलाये जाते हैं जिनकी लिटरेरी अहमियत होती है.
दूसरी तरफ इंडिया से अस्सी प्रतिशत, कभी-कभी सौ प्रतिशत वे ही शायर बुलाये जाते हैं जो पक्की रोशनाई से न छपे हैं न छपने की ख्वाहिश है. अदब और जिंदगी से जिनका कुछ लेना-देना नहीं. जिनके पास कुछ शायरी ऐसी है जिसको वे कहीं तरन्नुम से और कहीं चीख-चिल्लाकर पढ़ते हैं. उन्हें वे दाद देते हैं जो मुशायरे को गाने-बजाने या तफरीह का जरिया समझते हैं. पाकिस्तान में साल में मुश्किल से दो-तीन मुशायरे होते हैं और उन्हें भी मुहाजिर आयोजित करते हैं. सवा सौ साल से ज्यादा के दौरान जो बड़ा अदब आया है वो पंजाब के लोगों ने लिखा है.’
शहरयार ये मानते हैं कि किसी शायर को गले और फेफड़ों के दम पर मकबूलियत नहीं मिलनी चाहिये पर हमारे यहां कवि सम्मेलन या मुशायरा सबमें वे ही कवि और शायर सबसे अधिक पसंद किये जाते हैं, जो न सिर्फ अच्छा गाते हैं बल्कि अदाओं की लटक-झटक भी दिखाते हैं. इसलिये लंबे समय तक शहरयार मुशायरों में नहीं जाते थे, बाद में जाने लगे तो कहा इस बहाने दुनिया घूम ली. लेकिन कभी तरन्नुम में नहीं गाया. अपनी तरह से शेर पढ़ते थे और उदाहरण दिया करते थे कि
एक बार फ़ैज़ से किसी ने कहा कि यदि आप तरन्नुम में गायें तो मंच लूट लेंगे. फ़ैज़ ने जवाब दिया कि हम अच्छा लिखें भी और अच्छा गायें भी फिर आप क्या करेंगे.
फ़ैज़ के बहाने शहरयार अपनी बात कहते थे. इसलिये उर्दू में मुहावरे के रूप में यह वाक्य प्रयुक्त किया जाता है कि जो गाकर पढ़ता है वह अच्छा शायर नहीं होता.
जिस तरह शहरयार साब को अपनी परंपरा का ज्ञान था उसी तरह क़ाज़ी साब भी अपनी परंपरा से बखूबी परिचित थे. वे कहा करते थे ‘हमने टाल्सटाय के वार एंड पीस को इतनी बार पढ़ा कि यह याद नहीं कितनी बार पढ़ा है. अब भी कभी-कभी हम पढ़ते हैं. लेकिन मसला उर्दू का था. हमने मोहम्मद हुसेन आजाद को पढ़ा नहीं है, पिया है. हमने अनीस के मर्सियों को इस तरह पढ़ा है, समझा है जिस तरह लोग माशूकों के खत पढ़ते हैं. लेकिन जब उर्दू के पहले बड़े लिटरेरी तारीखी नाविलनिगार शरर को पढ़ा तो बहुत मायूसी हुई. अगर वो जिंदा होते तो मैं उनको निपिल लगाकर दूध की बोतल जरूर देता.
हां, अजीज अहमद के दो नाविल-जब आंखें आहनपोश हुईं और खदंगे जस्ता‘ पढ़े तो अच्छे लगे. मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि उर्दू में किसी नाविलनिगार ने एक मैदाने जंग नहीं लिखा. कि लिखने की ताकत नहीं है. अजीज अहमद में भी नहीं. अल्लामा शिबली में भी नहीं. वरना वो ‘यरमूक’ पर जरूर लिखते. .. तब मैंने ‘सलाउद्दीन अयूबी’ लिखी और मैदाने जंग बयान की. एक नहीं कई. प्रो. कलीमुद्दीन ने कलम से और जबान से उसकी तारीफ की और जब वो छपी तो ग़ालिब अवार्ड मिला. जब मैंने ‘खालिद इब्ने वलीद’ लिखी और सैयद हामिद ने उसे अलीगढ़ से निकलने वाली मैग्जीन ‘तहजीबुल अखलाक’ में सीरियलाइज करने का मुझे हुक्म दिया तो इस्लामी तारीख के बड़े-बड़े आलिम उसका लफ्ज-लफ्ज पढ़ते थे, लेकिन कोई आज तक किसी एक लाइन का हवाला देकर ऐतराज न कर सका.
‘दाराशिकोह’ पर शम्सुर्ररहमान फारूकी ने तारीखी गलतियां निकालते हुये मजमून लिखा. सुरूर साहब जो उनके परस्तदार थे, ने मुझसे पूछा कि आपने जवाब क्यों नहीं दिया ? मैंने कहा, सर अगर कोई आपके सामने मुझसे यह कहने लगे कि ताजमहल उसके दादाजान ने बनाया है तो क्या मैं इसका जवाब दूंगा ?
मैं तो तब मुसकुराकर आगे बढ़ गया था, पर जवाब दिया प्रो. इक्तदार आलम खां ने, जिसके पढ़ने वालों ने मुझसे कहा कि फारूकी साहब के मजमून के चिथड़े उड़ा दिये है.’
यह क़ाज़ी साब ही कह सकते थे, उन्हें अपने लिखे पर यकीन था इसलिये वे अपनी बात चुनौती पूर्ण ढंग से कहते थे, जिसे लोग उनका गुरूर समझ बैठते थे. उन्होंने एक और घटना का जिक्र किया है, उसकी भी भाषा वैसी ही है, जैसा वे अक्सर बोलते थे
‘जब मुझे जफर अवार्ड मिला, तब एक साहब खड़े हुये और पूछा कि आपने ‘हजरत जान’ क्यों लिखी ? मैंने कहा कि इसी क्यों ने तो सारी तरक्कीपसंद तहरीक को दफन कर दिया. किसी तहरीक को कोई हक नहीं पहुंचता कि वो किसी राइटर से पूछे कि हमने क्यों लिखा ? हमने यह इसलिये लिखी कि हम लिख सकते थे. तुमने इसलिये नहीं लिखी कि तुम नहीं लिख सकते थे.\’
किसी ने कुर्रतुल ऐन हैदर से पूछा कि क़ाज़ी साहब को जफर अवार्ड क्यों दिया जा रहा है तो उन्होंने जवाब दिया कि क़ाज़ी साहब जैसी प्रोज अगर कोई लिखता है तो उसका नाम बताइये और चुप हो गईं. मैं भी कहता हूं कि मैं तीन स्टाइल्स में लिखता हूं. कल्लू-बुध्दू भी मेरे हीरो हैं, राजा-नवाब भी मेरे हीरो हैं, शहंशाह और फातेह भी मेरे हीरो हैं. कोई दूसरा हो ऐसा तो उसका नाम बताइये? पैदल दस्त बांधकर उसकी जियारत करने जाऊंगा. अभी हाल में एक साहब चुपके से डरते-डरते बोले कि मुसलमानों पर ऐसी विपदा पड़ी है और आप ‘जानेजाना’ लिख रहे हैं ? मैंने जवाब दिया-
\’मैं जर्नलिस्ट नहीं हूं कि कल जो हुआ उसे आज लिख डालूं और फिर ये विपदा- मेरे पास कलम है, हायड्रोजन बम नहीं कि फेंक दूं. चालीस बरस बाद मैं अपनी मोहब्बत बयान कर रहा हूं. उर्दू में कोई नाविल नहीं जिसमें किसी हुक्मरां रियासत का रहन-सहन बताया गया हो. मैंने इसलिये लिखा कि आपको किसी शहजादी ने एक प्याली चाय भी नहीं पिलाई. हमको तो जवाहरपोश हाथों ने सोने की प्लेटों में खाना ही नहीं खिलाया बल्कि एक-एक निवाला इस तरह खिलाया है जैसे मथुरा के चैबे को श्रद्धा से लड्डू खिलाया जाता है.अगर किसी को खिलाया है तो लिखो.’
ये क़ाज़ी साहब का अपना पक्ष रखने का तरीका है, जो चुनौतियों से भरा हुआ है. यकीनन उनके पास यादों का अकूल खजाना और इतिहास की गहरी समझ है इसलिये वे तारीख और जंगों पर लिख सके.
क़ाज़ी साहब और शहरयार साहब अब अपने परिचितों के बीच एक मिथ की तरह जीवित हैं, उनके अनेक किस्से हैं जो बार-बार याद आते हैं. किसी ने क़ाज़ी साहब से पूछा कि आप मुसलमान होकर शराब क्यों पीते हैं ? क़ाज़ी साहब इस प्रश्न को सुनकर चौंके और संभलकर जवाब दिया
‘कुरान पाक में एक सतर भी ऐसी नहीं है जो यह कहे कि शराब हराम है. हां, सुक्र का लफ्ज आया है. उसके मायने है नशा. तो नशा दौलत का भी होता है, हुकूमत का भी होता है, हुस्न का भी होता है, ताकत का भी होता है, अक्सरीयत का भी होता है. तो सबको हराम कर दीजिये, मैं भी शराब छोड़ दूंगा. पर पहले आप यह हराम कीजिये. दूसरी बात और आखिरी बात जब हमारे प्रोफिट आसमान पर गये तो खुदा ने दो प्याले भेजे. एक दूध का और दूसरा शराब का. हमारे हुजूर ने दूध का प्याला कुबूल किया.
सच है लेकिन यह तो तय हो गया कि शराब की पहुंच कहां तक है. यह भी तय हो गया कि फरिश्ता लेकर आया और यह भी तय हो गया कि जन्नत में शराब की नहरें भी हैं. तो भाई हम जरा-सी पी लेते हैं. शराब हमारी जबां पर तलवार की धार रख देती है, शराब हमारी इमेजीनेशन को आसमानों पर झपटने का सबब देती है, शराब हमारे कलम को मोती लुटाने की तालीम देती है.
शराब हाफिज पीते थे, शराब खैयाम पीते थे, शराब ग़ालिब पीते थे और डंके की चोट पर पीते थे. हमारी तरह चुराकर नहीं पीते थे. बोतलों की बोतलें चढ़ाते थे, हमारी तरह पैग नहीं पीते थे- दवा की खुराक की तरह. हमारी शराब का इल्म हमारे मां-बाप को था, हमारे मामू और चचा को था, हमारी बेगमों को था, हमारे उस्तादों को था, मगर किसी ने एक लफ्ज भी हमसे नहीं कहा. तो आप मुझसे शराब पर बात करने वाले कौन ? आप मेरे बाप हैं ?’
पूछने वाले के होश उड़ गये थे और सुनने और देखने वाले सांस रोककर चुप बैठे थे. क़ाज़ी साहब को जानने वाले यह भी जानते थे कि क़ाज़ी साहब से इस वक्त कुछ कहने का मतलब क्या है ?
शहरयार साहब और क़ाज़ी साहब की किसी हिसाब से तुलना नहीं की जा सकती. इसलिये इन दोनों को अलग-अलग करके ही समझा जा सकता है. दोनों की फितरत अलग थी और दोनों का जीने का ढंग अलग था. शहरयार साहब तो क़ाज़ी साहब के शागिर्द रहे थे पर अदब की शागिर्दी दूसरी तरह की होती है इसलिये क़ाज़ी साहब ने शहरयार साहब पर शागिर्द होने का हक कभी नहीं जमाया. दोनों एक दूसरे के लिखे को पढ़़ते थे और भरपूर अदब भी करते थे. शहरयार साहब मस्त होने के साथ दुनियादार आदमी थे, उनके संबंधों का दायरा बड़ा था और वे उन्हें निभाना भी अच्छी तरह जानते थे.
लेकिन क़ाज़ी साहब अलग प्रकृति के थे, उनसे विनम्रता से मिलिये तो उनकी विनम्र सहजता याद करने योग्य होती थी पर किसी ने छेड़ दिया तो उसको पनाह देने वाला कोई नहीं होता था. इस मामले में वे भावुक ताल्लुकदार थे. मुझे याद है कि होली दिवाली कभी फोन नहीं लगता था तो वे मेरे परिचितों से कहकर दुआएं देते थे और मिलने पर ऐसे मिलते थे जैसे अपने ही परिवार के किसी सदस्य से बहुत दिनों के बाद मिल रहे हों.
मुझे इस बात पर फक्र है कि मैं दोनों के साथ रहा हूं, दोनों का मुझे खूब प्यार मिला है, खूब बातें की हैं और उन्हें खूब सुना है. उनकी अनगिनत यादें मेरे जहन में अब भी उसी तरह तरोताजा हैं, जैसे वे अभी मिलकर गये हैं.
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सूरज पालीवाल
वी 3, प्रोफेसर्स आवास, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 442001
मो. 9421101128, 8668898600