“हिंदी की शक्ति और क्षमता का
देना तुम्हें प्रणाम.”
बच्चन
फादर कामिल बुल्के ने कहीं लिखा है कि परलोक में जाकर जिससे मिलकर उन्हें अनिर्वचनीय खुशी होगी वह शिवपूजन सहाय हैं. हिंदी साहित्य की नीवं जिनके ऊपर तैयार हुई है उनमें वह अन्यतम हैं. उन्हें १९६० में पद्म भूषण मिला और १९६२ में उन्हें जयप्रकाश नारायण, दिनकर और लक्ष्मी नारायण \’सुधांशु\’ के साथ मानद डी. लिट. की उपाधि प्रदान की गई . हालाकि वह मेट्रिक ही पास थे.
१० खंडो में शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र का प्रकाशन हो रहा है.इस अवसर पर डॉ. मंगलमूर्ति ने उन्हें और उस समय को याद किया है.
मेरे पिता शिवपूजन सहाय ने १९२० के असहयोग आन्दोलन में आरा के एक सरकारी स्कूल से इस्तीफा देकर ‘मारवाड़ी सुधार संपादक’ के रूप में अपना पत्रकार जीवन कलकत्ता से प्रारम्भ किया था. यही वह समय था जब वह अपना उपन्यास- देहाती दुनिया लिख रहे थे. उनकी कुछ कहानियाँ और लेख भी आए थे. कलकत्ता उन दिनों हिंदी लेखन और पत्रकारिता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण केंद्र था. हाल तक वह देश की राजधानी रहा था. उद्योग और व्यवसाय का भी वह उतना ही बड़ा केंद्र था. महादेव प्रसाद सेठ भी घर-परिवार छोड़कर व्यवसाय की दृष्टि से कलकत्ता पहुंचे थे, और वहां अपना प्रेस बैठाया था. मुंशी नवजादिकलाल वहीं उनके प्रबंधक-सखा के रूप में उनके साथ जुड़े. सहायजी भी वहां पहुंच चुके थे इस तरह ‘मतवाला’ का वह अद्भुत आकस्मिक संयोग जुटा.
मतवाला की प्रेस कापी लेकर सहाय जी जब अपने साहित्यिक गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा के साथ महादेवप्रसाद सेठ के पास बालकृष्ण प्रेस पहुंचे तो सेठ जी और नवजादिक लाल को सहसा विश्वास नहीं हुआ कि ऐसा सम्यक संपादन उनका किया हुआ है. बाद में मतवाला का संपादन सहाय जी ही करने लगे. निराला उसी प्रेस के ऊपरी तल्ले में रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के साथ रहते थे. एक नवोदित उर्जस्वित कवि के रूप में वह भी मतवाला से जुड़ गए. निराला और शिवपूजन सहाय ने तब एक-दूसरे को नज़दीक से जाना-परखा. सेठ जी का निराला पर बहुत स्नेह था, यहाँ तक कि उनके लिए केश–रंजन और जावा कुसुम तेल लाकर रखते थे. निराला जब बाहर घूमने निकलते वह उनके जेब में रूपये–पैसे डाल देते थे. सेठ जी का मतवाला के लिए फरमान था कि चाहे कोई कितना भी बड़ा हो,जरा भी लचे तो धरकर रगड़ डालो. जेल जाने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे.
एक तरह से देखें तो ‘मतवाला’ हिंदी को शिवपूजन सहाय की एक अनोखी देन थी. पूंजी और प्रेस महादेवप्रसाद सेठ का था. नवजादिकलाल श्रीवास्तव की हैसियत वहां मूलतः प्रेस मैंनेजर की ही थी, पर वे ही ‘मतवाला’ की रीढ़ थे. निराला की नई-नवेली कविताओं के लिए पहली अलबेली पालकी ‘मतवाला’ ने ही सजाई. पर इसे एक भंग-बूटी की मिलावट की तरह देखें, तो दूध-केसर- इलायची की सुगंध तो इन सब के मिलने से ही उड़ती थी, पर भंग की पत्ती सहायजी ही थे. इसीलिए जब सहायजी ने ‘मतवाला’ को छोड़ा तो उसका नशा काफी मद्धिम हो गया. लेकिन सहायजी ने ‘मतवाला’ को हमेशा के लिए कभी नहीं छोड़ा. उन्होंने मिर्जापुर तक उसका साथ निभाया. ‘मतवाला’ में वे मार्च, १९२४ तक तो थे ही, जिसके बाद होली में कई महीनों बाद वे अपने गांव गये, और गांव जाते वक्त सेठजी ने मुंशीजी की सलाह पर उनको पारिश्रमिक के तौर पर जो रकम दी, वह बहुत कम थी – उनके पिछले आठ महीनों और ३०-३२ अंकों की घनघोर मेहनत की तुलना में. घर जाने पर पत्नी ने भी इस पर अवश्य अपनी नाराज़गी जताई होगी.
उधर माधुरी के संचालक दुलारेलाल सहायजी के संपादन-कौशल और पत्रकारिता के बाज़ार में उनकी टकसाली कीमत के गंभीर गाहक बन चुके थे, इस लिए गांव से सहायजी सीधे लखनउ चले गये. लेकिन वहां के सेठ को उन्होंने और हृदयहीन पाकर फिर कलकत्ता ही लौटने का फैसला किया, यद्यपि इस बार वे मतवाला से बिलकुल अलग-थलग रहे. मतवाला-मंडल भी अब बिखर चुका था. निराला स्वयं अब उससे अलग हो चुके थे. लेकिन यह कहना शायद ज्यादा सही होगा कि न सहायजी ने ‘मतवाला’ को पूरी तरह कभी छोड़ा, और न ही ‘मतवाला’ ने सहायजी को. निराला
निराला की कविताएँ मतवाला में तो आती ही थीं, जुही की कली को सहाय जी ने समन्वय पत्रिका में प्रकाशित किया था. निराला से अधिक वह प्रसाद के निकट थे. प्रसाद की जो मण्डली थी जिसमें विनोद शंकर व्यास, लाला भगवानदीन, राय कृष्ण दास उसमें वह भी शामिल थे. वहां बहुधा रामचंद्र शुक्ल भी आते थे. प्रसाद जी कभी किसी कवि-सम्मेलन में नहीं जाते थे, उनको देखते ही काशी निवासी, ’हर-हर महादेव’ कहकर उन्हें करबद्ध प्रणाम करते, यह प्रतिष्ठा काशी में केवल बनारस में काशी-नरेश को ही प्राप्त थी. नागरी प्रचारिणी पत्रिका में उनके जो शोध प्रधान ऐतिहासिक निबन्ध प्रकाशित हुए उन्हें पढकर इतिहासज्ञ डॉक्टर काशीप्रसाद जायसवाल ने श्री रायकृष्णदास के घर पर जाकर उनका हार्दिक अभिनंदन किया था. प्रसाद कोई रचना लिखते तो सहाय जी को जरूर सुनाते थे उनसे एक तरह से परामर्श लेते थे. प्रसाद जी के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान था. कहीं लिखा है उन्होंने कि प्रसाद जी भोजन बहुत ही स्वादिष्ट बनाते थे.
कलकत्ता में ही प्रेमचन्द से उनकी पहली भेंट हुई थी. उनके उपन्यास रंगभूमि का संपादन सहाय जी ने ही किया था. प्रसाद और आचार्य द्विवेदी से उनका संपर्क तीसरे दशक में काशी-प्रवास के दौरान हुआ जब वे पाक्षिक जागरण और द्विवेदी-अभिनंदन-ग्रन्थ का संपादन कर रहे थे. प्रसाद जी के ठहाके मशहूर थे और प्रेमचंद के भी. राय कृष्णदास कहा करते थे कि हिंदी के दो अनोखे ठहाके बाज़ हैं- प्रसाद और प्रेमचंद. उनकी पत्नी शिवरानी देवी का एक गल्प–संग्रह, ‘नारी ह्रदय’ सरस्वती प्रेस से निकला था. उसकी भूमिका सहाय जी ने लिखी थी. मौलाना मुहम्मद अली उर्दू में एक साप्ताहिक ‘हमदर्द’ निकालते थे. उसमें प्रेमचंद जी की कहानियाँ छपा करती थीं. उनको पुरस्कार के रूप में प्रति कहानी एक गिनी मिला करती थीं. बहुत कम लोग जानते हैं कि हँस पत्रिका का नामकरण प्रसाद जी ने किया था. उनके पत्रों से पता चलता है कि प्रेमचंद सहाय जी, से बार-बार कहते हैं कि तुम रंगभूमि की समीक्षा कर देना. लेकिन उन्होंने समीक्षा नहीं लिखी. उग्र जी के साथ वह बनारस में रहे. उग्र जी जुआ खेलते थे. जुआ में जब सब पैसा हार गए तो शिवपूजन सहाय के पास पैसा मांगने के लिए गये उसी समय सहाय जी की पत्नी का देहांत हुआ था. पर इसके बाद भी उन्होंने उग्र जी को भोजन कराया और पैसों से मदद की.
शिवपूजन सहाय अपनी पत्नी के साथ
हिंदी में अभिनन्दन ग्रन्थ निकालने की परम्परा हिंदी में सहाय जी ने ही शुरू की. आचार्य महावीर प्रसाद द्ववेदी अभिनन्दन ग्रन्थ के मूल में सहाय जी की ही प्रेरणा रही है और उसका एक तरह से संपादन भी उन्होंने ही किया. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई ने कही लिखा है कि ऐसा अभिनंदन ग्रन्थ हिंदी में कोई दूसरा नहीं है. वैसे तो उनके गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा थे लेकिन अपना आराध्य गुरु वे आचार्य द्विवेदी को मानते थे. वे द्विवेदी के ही पद चिन्हों पर आगे बढ़े. उनका गद्य ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ की परम्परा में है. शुरू में वह बहुत आलंकारिक भाषा लिखते थे. बाद में ठेठ हिंदी की परम्परा में आए, फिर हिंदी-उर्दू की ओर गए. बिहार राष्ट्र भाषा का संचालन किया जो उस समय बहुत ही महत्पूर्ण संस्था बन गई थी. उनके समय में जो किताबें वहां से प्रकाशित हुई वे आपने आप में मानक हैं. उनके निर्देशन में वासुदेवशरण अग्रवाल का हर्ष-चरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन, कादम्बरी: एक सांस्कृतिक अध्ययन, महापंडित राहुल सांकृत्यायन का सरहपा कोश जैसे ग्रंथों को तैयार करा कर प्रकाशित किया. यह बिहार राज्य भाषा परिषद का स्वर्णिम काल था.
बहुत ही सीधा-सरल उनका व्यक्तित्व था. एक तरह से उनके व्यक्तित्व ने उनके कृतित्व को ओझल कर दिया. हिंदी में क्रियटिव लेखक चर्चा के केन्द्र में रहे. ऐसे लोग जो हिंदी के साधक थे और चुपचाप उसकी श्री वृद्धि में लगे रहते थे अक्सर अदेखे रह गए. आज की पीढ़ी को जानना चाहिए सहाय जी को. यह जानना अपनी धरोहर को जानना है.
सभी चित्र शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र से लिए गए हैं
डॉ. मंगलमूर्ति
अंग्रेजी साहित्य के प्रोफसर पद से सेवानिवृत्त (भागलपुर विश्वविद्यालय)
शिवपूजन सहाय समग्र का संपादन
कई मौलिक और संपादित पुस्तकें
आरवेल के उपन्यास का अनुवाद जानवर फ़ार्म और
जुन इचिरो के जापानी उपन्यास चाबी का अनुवाद प्रकाशित
बनारस में रहते हैं.
ई-पता: bsmmurty@gmail.com