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Home » विष्णु खरे: यह भी क्या कोई जीवनी होगी !

विष्णु खरे: यह भी क्या कोई जीवनी होगी !

यह जानते हुए भी कि अज़हर की भूमिका में इमरान हाशमी हैं, हिन्दुस्तानी क्रिकेटर मुहम्मद अज़हरुद्दीन के जीवन पर आधारित फ़िल्म ‘अज़हर’ आप किन कारणों से देखना चाहेंगे?  क्या अज़हरुद्दीन का जीवन सच में ऐसा नाटकीय है कि उन पर हिंदी की कोई मनोरंजक फ़िल्म बनाई जा सकती है? जबकि खेलों की दुनिया में ही […]

by arun dev
August 30, 2015
in फ़िल्म
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यह जानते हुए भी कि अज़हर की भूमिका में इमरान हाशमी हैं, हिन्दुस्तानी क्रिकेटर मुहम्मद अज़हरुद्दीन के जीवन पर आधारित फ़िल्म ‘अज़हर’ आप किन कारणों से देखना चाहेंगे?  क्या अज़हरुद्दीन का जीवन सच में ऐसा नाटकीय है कि उन पर हिंदी की कोई मनोरंजक फ़िल्म बनाई जा सकती है? जबकि खेलों की दुनिया में ही कई ऐसे चरित्र हैं जिनका जीवन-संघर्ष आज भी रोचक और प्रेरणादायक बना हुआ है.

विष्णु खरे का आलेख.
यह भी क्या कोई जीवनी होगी !                      
विष्णु खरे  

दूसरे समझें न समझें,  हर इन्सान को हक़ है कि अपनी ज़िंदगी को सार्थक और लाज़िम माने. ऐसा न होता तो यह दुनिया सिर्फ़ फकीरी और ख़ुदकुशी के लायक़ होती. विडंबना यह है कि हम ऐसे समाज में जीते हैं जहाँ आपके जीवन पर परायों और अपनों द्वारा मुसल्सल निगरानी और राय और उसमें वाजिब या बीमार दिलबस्तगी रखी जाती है. बाज़ औकात लगता है कि हमारे बजाए दूसरे हमारी ज़िन्दगी ज़्यादा जीते और गढ़ते हैं. हम कोई भी हों, अपनी आत्मकथा अलग रचते चलते हैं, समाज, जिसमें आपका घर-परिवार-प्रियजन सभी शामिल हैं, आपकी जीवनी, जैसी भी हो, अलग दर्ज़ करता रहता है. क्या हमें याद है कि हमें दिन में कितनी बार कहना-सोचना पड़ा है कि हमें फिर ग़लत समझा गया ? तुफ़ैल यह है कि आदमी किसी भी वजह से जितना भी मशहूर या बदनाम होता जाए, ज़माना उसकी निजी और समाजी ज़िन्दगी के बारे में उतना ही जानना, पढ़ना, देखना चाहता है. उस पर ख़बरें छपती हैं, इश्तहार आते हैं, किताबें लिखी जाती हैं, नाटक खेले जाते हैं,फ़िल्में बनती हैं. वह, सही या ग़लत, चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने एक बाज़ारी, मुफ़ीद ‘ब्रैंड’, ’कमोडिटी’, ’फ्रैंचाइज़’, ‘पब्लिक प्रॉपर्टी’ बन जाता है.


अपने देश में भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी, गाँधीजी, नेहरू, सरदार पटेल, बाबासाहेब आम्बेडकर आदि पर सीरियल/फ़िल्में बनें इसमें क्या आश्चर्य – मुझ जैसे करोड़ों उत्सुकों को तो परेश रावलद्वारा पिछले वर्ष घोषित प्रधानमंत्री-भाजपा-अध्यक्ष वाली फिल्म के मुहूर्त की विकल प्रतीक्षा है – लेकिन हाल के वर्षों में जब से पानसिंह तोमर, मेरी कोम,मिल्खा सिंह आदि ज्ञात-अज्ञात खिलाड़ियों पर फ़िल्में सफल हुई और रुस्तमे-ज़माँ गामा पहलवान तथा हॉकी-सम्राट ध्यानचंद आदि पर पिक्चर बनाने के ऐलान हुए हैं, युवा निर्माता-निदेशकों में खेलों-खिलाड़ियों को पर्दे पर उतारने का एक छोटा-मोटा टूर्नामेंट छिड़ गया लगता है. लेकिन यह एक विचित्र विडंबना है कि चंद खेलों को छोड़ दें तो सवा अरब आबादीवाला सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा  अभी विश्व-मैदान में फ़िसड्डी से कुछ-ही ज्यादा है और हम बुलबुलें तो क्या, शोरबे-लायक पिद्दियाँ भी नहीं हैं.उसके खिलाड़ी अपनी ऊलजलूल ‘नैशनल ड्रैसों’ वाली  उद्घाटन-समापन परेडों, डेरों और तम्बुओं में ज्यादा नज़र आते हैं, ट्रैकों,स्टेडियमों और पूलों में कम और विक्ट्री-स्टैंडों पर सबसे कम.मुझे इसमें कोई शक़ नहीं कि इसके लिए सारे मैडल हमारी भ्रष्ट केंद्र और राज्य सरकारों और सड़ी हुई खेल संस्थाओं के गँधाते हुए पदाधिकारियों और नालायक कोचों को दिए जाने चाहिए.स्कूलों,कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में स्पोर्ट्स का अकल्पनीय पतन हुआ है. अधिकांश के पास तो टेबिल-टेनिस के भी लायक कोना नहीं है, हॉल, पूल, बैडमिंटन-टेनिस कोर्ट, मैदान और स्टेडियम की चर्चा ही बेकार है.

खिलाड़ियों पर जो फ़िल्में हिट हुई हैं वह एक निर्वात में हुई हैं, उनके पीछे महज़  सस्पैन्स, उत्तेजना, विजय-गर्व, देशभक्ति और हीरो(इन)-वर्शिप की भावनाएँ हैं. फिर उन खिलाड़ियों का और उनके खेलों का  राष्ट्रीय स्तर पर परिचित होना या हो पाना भी अनिवार्य है.चुन्नी गोस्वामी, रामनाथन कृष्णन, नंदू नाटेकर, डॉली नाज़िर, ब्रजेन दास, मिहिर सेन, आरती साहा, हवा सिंह आदि बीसियों ऐसे नाम हैं जिन पर फ़िल्में बन सकती हैं लेकिन वह भुला दिए गए हैं. खेल जब  हमारे लोकप्रिय साहित्य में ही कोई हैसियत नहीं रखते तो ‘’गंभीर’’ साहित्य में कैसे पदार्पण कर सकते हैं ? हैरत इस बात की है कि क्रिकेट, जो हमारे यहाँ एक धर्म का दर्ज़ा रखता है,सीरियल या फ़िल्म के अवतार में हमारे छोटे और बड़े पर्दे से भी नदारद है.

इसलिए जब खबर आती है कि पिछले एक भारतीय क्रिकेट कप्तान पर जीवनचित्र (बायोपिक) बनने जा रहा है तो मुझ सरीखे क्रिकेट-प्रेमी को बहुत खुशी होती है लेकिन वह तुरंत दिग्भ्रम, तरद्दुद और आशंका में बदल जाती है जब मालूम होता है कि वह मुहम्मद अज़हरुद्दीनपर है. मैंने 1950 से गली-मैदान, स्कूल और यूनिवर्सिटी स्तर पर कुछ बरसों तक क्रिकेट खेला है,तब ओबेरॉय स्पोर्ट्स नागपुर से एक बैट भी लिया था, लेकिन कभी उल्लेखनीय बल्लेबाज़ी नहीं की, हालाँकि कॉलेज की कप्तानी की है,अंतर्ज़िला टूर्नामेंटों में स्कोरिंग और अंपायरिंग भी करता था,बाद में क्रिकेट पर लिखा भी,पत्रकार की हैसियत से एक बार दिल्ली में कप्तान अज़हरुद्दीन से मिल भी चुका हूँ  – लुब्बेलुबाब यह कि क्रिकेट और अज़हर पर कुछ टिप्पणी करना मेरे लिए उतनी अनधिकार चेष्टा भी नहीं.

क्रिकेट संयोग का ही नहीं, व्यक्तित्वों का खेल भी है. इसमें एक बेहतरीन मशीन की तरह रनों और सेंचुरियों का अम्बार लगा देना ही काफ़ी नहीं, पैवीलियन से निकलने और लौटने सहित मैदान पर आपके शरीर और चेहरे की एक-एक भंगिमा, अदा और हरकत का भी महत्व होता है.आप पर क्रिकेट-संसार के करोड़ों आँख-कान लगे रहते हैं. पिच से परे भी आपके कुछ भी बोलने-लिखने को वैसे ही सुना-पढ़ा जाता है. बड़े खिलाड़ी होते ही पहली बार अपना विकेट खोने से बहुत पहले आप अपने निजी जीवन से क्लीन बोल्ड, कॉट,एल बी डब्ल्यू या रन-आउट हो जाते हैं.

हमारे यहाँ सबसे नीरस क्रिकेट-जीवन सचिन तेंडुलकर ने जिया है.उससे कुछ कम फीका सुनील गावस्कर का रहा है. यह दोनों पारम्परीण बूर्ज्वा मराठी ब्राह्मण परिवार से रहे हैं और अपने क्रिकेट-जीवन को इन्होने अपने जनेऊ की तरह कान से उतार कर ज्यूँ-का-त्यूँ अष्टविनायक  के सामने रख दिया है. लेकिन बतौर खिलाड़ी यह अजहर से बहुत बड़े रहे हैं, रनों, सलाहियत और उपलब्धियों में. किसी तरह के आपराधिक स्कैंडल में दोनों का नाम अब तक नहीं आया है जबकि सटोरियों के साथ मिलीभगत से कमाई करने के बीसीसीआइ के निष्कासन-निर्णय  ने, जिसे बाद में अदालत ने खारिज़ भले ही कर दिया, अज़हर के कई क्रिकेट-वर्ष खारिज़ कर दिए और उनकी वापिसी बेमानी और नामुमकिन कर दी.उ धर उनकी दो शादियों और ख़ासकर दूसरी बीवी संगीता बिजलानी से उनके तलाक़ ने भी उनकी मुश्किलें आसान नहीं कीं. 

ज्वाला गुत्ता जैसी दबंग खिलाड़ी महिला वाला प्रसंग भी कुछ मदद न कर सका. सियासत में दाख़िल होने के पहले अज़हर इतने कुख्यात हो चुके थे कि 2009 में लोकसभा के लिए जीत जाने के बावजूद लोग सोचते रहे कि ऐसे आदमी को काँग्रेस ने टिकट दिया कैसे ? और 2014 तक आते-आते आलम यह हो गया कि आज कोई ज़िक्र तक करने को तैयार नहीं कि पिछले बरस काँग्रेसी प्रत्याशी मुहम्मद अज़हरुद्दीन को  टोंक-सवाईमाधोपुर लोकसभा सीट से भाजपा के सुखबीरसिंह जौनपुरिया ने एक लाख 34 हज़ार वोटों से पैवी- लियन दिखा दिया था. आज अजहर की जीवनी में ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है कि उस पर बनी कोई फिल्म मनोरंजन ही कर सके – मानव-नियति या ट्रैजडी का तो वह मार्मिक या सार्थक आख्यान है ही नहीं. उनके युवा बेटे की दुखद मृत्यु अवश्य हुई, लेकिन वह  एक ‘स्वतंत्र’ त्रासदी है, किसी बड़े नैरेटिव का हिस्सा नहीं. सवाल यह है कि अजहर की जीवनी को बनाया क्या जाएगा, क्रिकेट और शादियों से वह  चल नहीं सकती, ग्रीक ट्रैजिक हीरो की बतौर अजहर उर्फ़ इरफ़ान हाशमी को, जो कहीं से भी अज़हर नहीं लगते, कोई छूना नहीं चाहेगा.शक होता है कि कहीं यह फिल्म किसी फ़िक्सिंग का परिणाम तो नहीं ?

यदि क्रिकेट के हालिया  व्यक्तित्वों पर कोई फिल्म बनानी ही है तो मैं सचिन तेंदुलकर – विनोद  काम्बली की तनाव-भरी दोस्ती पर बनाने की सलाह दूँगा, जिसके कई आयाम निकल सकते हैं. लेकिन भारत में एक-से-एक बहुरंगी क्रिकेटर हुए हैं – रणजीतसिंहजी, दलीपसिंहजी, बी.बी. निम्बालकर, महाराजकुमार विजयनगरम्, मुश्ताक़ अली, विजय सैमुएल हजारे, पॉली उम्रीगर, दत्तू फडकर, विनू मांकड़, सी के नायुडु, विजय मर्चेंट, सुभाष ‘’फर्जी’’ गुप्ते और, सबसे ऊपर, मोहिंदर-सुरिंदर के बाऊजी लाला अमरनाथ दि ग्रेट. लेकिन ‘’एक खुदा दो शादी और मैच-फ़िक्सिंग’’ के जाहिलों को यह कौन बताए.

____________

(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल ) 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
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