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Home » पिल्ले : हीरालाल नागर

पिल्ले : हीरालाल नागर

कोरोना में आफत मनुष्यों पर तो थी ही, पशु भी इससे प्रभावित हुए. हीरालाल नागर ने कुत्तों ख़ासकर जो पालतू नहीं हैं उनसे जुड़ी यह कहानी लिखी है. हीरालाल नागर लेखक के साथ-साथ साहित्य के कार्यकर्ता भी हैं, लम्बे समय से वह साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़े रहें हैं.

by arun dev
July 30, 2021
in कथा
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पिल्ले : हीरालाल नागर
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पिल्ले

हीरालाल नागर

बड़ा बुरा समय आ गया है. किसी को किसी से मतलब ही नहीं है जैसे. पहले जो लोग दो-चार रोटियां खाने को दे देते थे, वे नजर ही नहीं आ रहे. और जो दिखाई दे रहे हैं, वह खाने को नहीं पूछते. अगर कोई दिखता भी है, तो मुँह में पट्टी बाँधे. किसी जुर्म की सजा भोग रहे हों जैसे? सड़क किनारे अधबनी दो मंजिला इमारत के खाली मैदान में सपाट लेटी मानो यही कुछ सोच रही है- रंजिता.

रंजिता! हां यही नाम है- उस काली कुतिया का, जिसने पिछले महीने प्यारे-प्यारे चार पिल्लों को जन्म दिया था. दो चित्तकबरे और दो गहरे काले रंग के पिल्ले. वह अपनी अगली टांगों पर अपना उदास लंबोतरा चेहरा रखकर आँखें झप-झप कर रही है. उसे ऐसे देखकर लगता है कि वह किसी गहरे चिंतन में है. इस वक्त रंजिता की गम्भीरता स्वाभाविक है. एक तो वह इस बदले हुए मनुष्य को देखकर हैरान है, दूजे उसे अपने नवजात पिल्लों की फिक्र सताती रहती है. न कोई कुछ बोल रहा है, और न कुछ बताने को तैयार है.

सूरज अपनी नजरों में खुद को रोबोट जैसा पाता है. वह जो, मुँह पर कपड़ा बाँधे सुबह-सुबह निकलता है, अजनबियों की तरह और दूध-ब्रेड लेकर चल देता है चुपचाप. न हँसता है, न रोता है, न चीखता है और न चिल्लाता है. कोई दुख, अफसोस, संत्रास, पीड़ा से सना भावहीन चेहरा लिए, बिना बोले-बताये हाट-बाजार सब कुछ कर लाता है?

रंजिता मूक बनी शायद यह बदलाव गली-सड़क पर आने-जाने लोगों में भी देखती है. वह शुक्रगुजार है उन मजदूरों का जो इमारत को अधबना और खुला छोड़कर चले गए, जहाँ इसे खुली शरण मिली. यहाँ शरण न मिली होती तो कहाँ जाती-बच्चे जनने, कुछ तो आड़-बाड़ चाहिए ही होता है-इन दिनों. कल की घटना को लोग भूले भी नहीं होंगे, जब कोरोना के रहते दूर-दूर तक न गाड़ी थी और न घोड़ा. टैम्पो-टैक्सी वालों की औकात ही क्या जो शहर की इस सूनी, शुष्क और उदास सड़क पर चलने वाली किसी गाड़ी के एक्सीलेटर पर पैर भी धर लेते. इस मुसीबत में पुलिस की गाड़ी ही दौड़ सकती थी- किशनपुरा की ओर और अस्पताल पहुँचा सकती थी-निर्विघ्न उस औरत को जो बच्चे को जन्म देने वाली थी. वह अस्पताल पहुँच ही कहाँ पाई. और उसने रास्ते में ही पुलिस वैन में स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. लेडीज पुलिस साथ थी और वैन की मर्यादा तो थी ही. रंजिता को भी एक आश्रय मिल गया था, जहां उसने अपने बच्चों को जन्म दिया. वह भोर होते ही बैठ जाती है- अधबनी इमारत के सामने वाली खाली जमीन पर अपने बच्चों को लेकर. बच्चे बड़ी मस्ती के साथ माँ का दूध पीते हैं और पेट भर जाने पर उछल-कूद मचाते हैं. दो कदम पर सड़क है जो पॉश कॉलोनी और बस्ती के मकानों और आसपास की दुकानों को जोड़ती है. ट्रैफिक चलता रहता है, पर आजकल बिल्कुल शांति है. न टैम्पो, न टैक्सी, न स्कूटर, न स्कूल की बसें. मोटर साइकिल और कारें भी बहुत कम. नाम मात्र को. सुबह साढ़े पाँच बजे अमूल दूध वाला टैम्पों आता है, जहां-जहां दूध की कैरट देनी होती है, देकर चला जाता है. फिर सांची दूध की गाड़ी आती है, जो दूध के पैकेट, छाछ और दही की थैलियां देकर वापस हो जाती है.

अखबार वाला भी आता है, लेकिन गेट तक, अखबार रखकर चला जाता है.

आज रंजिता ने चारों पिल्लों को दूध-पिलाया और खेलने को छोड़ दिया. बच्चों की तो आदत होती ही है- सड़क पर खेलने की. रंजिता उन्हें बहुत टोकती है, मगर वे मितलाकर सड़क की ओर चल देते हैं. जब पिल्ले भी अपनी आदत से बाज नहीं आते तो रंजिता उन्हें भाग्य के भरोसे छोड़ दूर छाया में जाकर बैठ जाती है.

लॉकडाउन खुलने की उम्मीद थी, पर मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण इसे बढ़ा दिया गया. आदमी अपने घरों में पहले से ज्यादा बेरहमी के साथ बंद हो गया. वह अपसेट हो रहा है, लगता है मानसिक बीमारी के घातक विषाणु अंदर ही अंदर पनपते जा रहे हैं. कभी वह कोरोना का इलाज कर रहे डॉक्टरों पर हमला करता है, कभी सब्जी बेचने वालों पर लट्ठ बरसाता है. रंजिता सोचती है, देश की आर्थिक स्थिति को गिरने से कोई नहीं रोक सकता. उसे यह फर्क कोरोना के उठ जाने के बाद ही महसूस होगा. जब उसके बच्चे भूख से बिलबिलाने लगेंगे. उसके बच्चों को कोई रोटी का एक टुकड़ा डालने वाला न होगा. रंजिता, जब अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित होती तो उसकी रूह काँप उठती है. शर्मा जी का ढाबा न जाने कब खुलेगा, किसी को कुछ पता नहीं, लेकिन उसके सहारे जीने वाले मजदूरों को अब भी आस बँधी है. दिहाड़ी वाले, रेहड़ी वाले, खोमचे वाले- यदि अपना काम न कर सके तो बेमौत मारे जाएंगे. इस मौके का राज्य सरकारें भरपूर फायदा लेंगी. केन्द्र सरकार द्वारा युवा बेरोजगारों के श्रम-शोषण की संभावनाएं बढ़ जाएंगी.

रोज की तरह सूरज की पहली किरण के साथ बहुमंजिला इमारतों और डुप्लैक्स फ्लैटों से एक-एक आदमी निश्चित दूरी लिए निकलते हैं और चलते-चलते किसी अदृश्य संकेत से सहमे हुए से खड़े हो जाते हैं. जैसे कोई अजूबी ताकत उन्हें नियंत्रित कर रही है. जन-विहीन सड़क अब आवारा पशुओं और जानवरों से भी महफूज होती जा रही है. सड़क पर घूमती गायें, बछड़े और सांड कहीं दिखाई नहीं देते. पॉश कॉलोनी के हरे-भरे मैदान, फूलों के बगीचे और सघन वृक्षावलियां हरी-भरी लताओं से आच्छादित क्षेत्र इन्हें आकर्षित करते हैं, और मिलन के लिए एक-दूसरे का घंटों इंतजार करते हैं. वैसे बेशर्म दुनिया में छिपाने को रखा क्या है. सब खेल, खुले में चलता है.

लॉकडाउन को महीना भर होने को हैं. पिछले दो दिनों से न तो रंजिता ही दिखी है और न उसके निठल्ले. लगता है उसके बच्चों को एक-एक कर कोई उड़ा ले गया है. यह सही है कि रंजिता देसी ब्रीड की कुतिया नहीं है. एक समय वह एक बड़े घर की डॉगी थी, जिसे उसका स्वामी अपने अंतिम आंसू की तरह यहाँ छोड़कर चला गया था. यही तो बताया था कॉलोनी के सबसे पुराने गार्ड चेतन प्रसाद ने. यह सन् 2018 की बात है, जब ‘डॉल्फिन’ संस्थान के मैनेजर गिरजेश्वर पांडे का कोयम्बटूर ट्रांसफर हुआ था. वे सड़क से कोयम्बटूर जाते तो शायद रंजिता भी चली जाती. दुर्भाग्य से यह संभव न हुआ और रंजिता को दोबारा आकर ले जाने की प्रतिबद्धता को वह दोहरा न सके. लैब्राडोर ब्रीड की इस कुतिया को गिरिजेश्वर पांडेय ने पाँच हजार में अपने दोस्त से खरीदा था. खैर! अब तो सब कुछ बदल गया. वीआईपी होने का उसका रौब जाता रहा. अब तो उसने सड़क के वीराने को ही अपना आशियाना बना लिया है. जब तक उसके बच्चे छोटे हैं, वह कहीं नहीं जाएगी. बच्चों के बड़े होने तक वह यहीं रहेगी. तब तक इन नामुरादों को सड़क पर दौड़ने-भागने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता चल जाएगा. आदमी भी बड़ा फितरती जीव है. कभी तो वह दयालु होकर कृपा की बौछार करता है, कभी राह चलते कमजोर पिल्लों को ठोकर मारता है.

भोर अभी ठीक से सँभल भी नहीं पाई थी कि दुर्घटना हो गयी. किसी गाड़ी वाले ने रंजिता के काले पिल्ले को बेरहमी से कुचल डाला. अभी सुबह के साढ़े छह ही बजे हैं. जरूर कोई रात ड्यूटी से लौट रहे सिरफिरे ने उस पर गाड़ी चढ़ा दी. कुचले सिर को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह करतूत किसी नौसिखिये ने की होगी. न भीड़ न भड़क्का, न सिग्नल न ट्रैफिक, फिर मासूम पर कैसे चढ़ा दी गाड़ी. पिल्ला हो या आदमजात, है तो आखिर जीव हत्या ही. सड़क पर बेसहारा घूम रहे पालतू जानवरों की यह एक प्रकार की हत्या का मामला ही है. पिल्ले के पिचड़े जबड़े से काला रक्त लगातार बह रहा है, जो सड़क पर भयावह विद्रूप आकार लेता जा रहा है, जिसे देख सूरज उदास तबियत लिए साईं स्टोर की ओर आया. प्रतिदिन का दूध वह यहीं से ले जाता है.

‘पता नहीं, कौन साला पिल्ले को कुचल कर भाग गया.’
सूरज झुंझलाया. उसके मुँह पर लगा मास्क खिसक कर गले तक आ गया था. उसनेे उसे जल्दी से सँभाला और घर की ओर उलटे पैर भागा.
हवा थमी है और पेड़ की पत्तियां झुलस-सी रही हैं.

मास्क मुँह में लगाए लोग गूंगे की तरह सड़क पर आ-जा रहे हैं. वे एक-दूसरे को देख रहे हैं, समझ रहे हैं, मगर बोल नहीं रहे हैं. बातों को अफवाह की तरह लिया जा रहा है. कोरोना एक तरह का वायरस बम है, जिसे चीन ने अपने देश की जनसंख्या कम करने के लिए छोड़ा है. गलती से लीक हो गया. एक कहता है- सब सुनते हैं. यूरोपीय देशों से उसकी पुरानी दुश्मनी है. चीन ने जानबूझकर वायरस छोड़ा है- अपनी वुहान शहर के लैब से. वर्षों की मेहनत उसके आज काम आई.

‘हिन्दुस्तान में वायरस न आता, यदि ये जमाती न आते. मरकज में आने वाले ढाई हजार मुल्लाओं ने ही देश में कोरोना फैलाया है.’

जितनी तरह के लोग, उतनी तरह की बातें हैं. एक नहीं सैकड़ों दिलफरेब अफवाहें हैं जो सीना चीरती हुई निकल जाती हैं. लोगों की अफवाहों पर यकीन करना ठीक नहीं, फिर भी करना पड़ रहा है. गो कि कुछ लोगों ने अफवाहें फैलाने का ठेका ले रखा है. जैसे इस काम के लिए तनख्वाह दी जा रही हो. देश में भाई-चारे और आपसी मोहब्बत का जो माहौल बना था, कोरोना ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया. सब्जी बेचने वालों की रेहड़ी में सांप्रदायिक झंडा लहराने लगा है. ईमानदार, मेहनतकश, भरोसेमंद इंसान को कुछ समझ ही नहीं आ रहा है. पता नहीं क्या हो गया है लोगों के दिमागों को. बाहर जाना पूरी तरह बंद है, फिर भी मानते नहीं, निकल ही पड़ते हैं-लोग अपनी गाड़ियाँ लेकर.

अस्पतालों में जीवन और मौत का खेल चल रहा है. हजारों मजदूर शहरों, कस्बों और नगरों के मुहानों पर भूखे-प्यासे फँसे हैं. इस समय एक ही आवाज निकल रही है- जो हो न सके पूर्णकाम, उनको प्रणाम!

बहुत उदास है- रंजिता. वह श्लथ होकर बैठी है- जमीन पर. उसकी शक्ल ही बदल गई है- चार दिन में. घटना के चार ही दिन हुए हैं. और वह सूख गयी है. दूध से भरे उसके थनों की लावण्यता गायब है. चार में से उसका एक भी बच्चा जीवित नहीं बचा. कोरोना महामारी से ये तो बचे हुए थे, फिर इन्हें कौन लील गया. दो तो सड़क पर कुचलकर मारे गए और दो…उसके चितकबरे बच्चे…? वह बेचैन है. वह यहाँ से वहाँ डोल रही है. चारों तरफ निगाह उठा-उठाकर देख रही है. नथुनों की ध्राण शक्ति भी उसकी काम नहीं कर रही है. वह सड़क पर आने-जाने वालों की तरह विक्षिप्त है. जो बेआवाज सड़क पर चल फिर रहे हैं. शोरगुल गायब है और शायद मनुष्य की वह चेतना भी….

सूरज घर के अंदर दाखिल हुआ… धूप जैसे अपनी संपूर्ण ताप के साथ अन्दर घुस आयी है. दरवाजे, खिड़कियां पूरी तरह खुली हैं और घर में धूप का तांडव है, पर उसके भीतर घुटन भरा अँधेरा है- सिर्फ वह और उसकी आँखें देख रही हैं.

पत्नी ने हाथ से थैला लेकर सोफे पर पलट दिया है. वह बुदबुदाई है, ‘नीबू नहीं लाए हैं?’
सूरज को कुछ नहीं दीख रहा है- सिवा पिल्ले के चिथड़े मुँह से बहते काले खून के….
‘किसी ने कुचल डाला उसके बच्चे को….’
उसकी आवाज काँप रही है.
‘किसके बच्चे को कुचल डाला?’ पत्नी बोली.
‘कॉलोनी में वो जो काली कुतिया रहती थी, जिसने महीने भर पहले पिल्लों को जन्म दिया था, उसके एक बच्चे को.’
‘कोरोना ने पूरे देश को पागल बना दिया है. घरेलू हिंसा में अब तक चार-पाँच सौ लोग मारे जा चुके हैं. इतने तो कोरोना में भी नहीं मारे गए.’

दिल्ली की दहशत अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दंगे की आशंका एक बार फिर मंडराने लगी. कोरोना ने अराजक तत्त्वों को संगठित होने का एक बार फिर मौका दे दिया है.

‘इस देश में जो नहीं हुआ कभी, वह कोरोना कराएगा.’

घर में रहना है. बाहर नहीं निकलना है. सभी कार्यस्थल बंद हैं-आदमी फिर करेगा क्या?

कोरोना का खतरा बढ़ता जा रहा है. संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. आदमी दुबका बैठा है. जो बाहर हैं- वे बाहर ही रहेंगे और जो अंदर हैं, वे अन्दर ही बने रहेंगे. घर में बंद आदमी की औकात किसी पिल्ले से ज्यादा नहीं लगती.

हीरालाल नागर
(०३ जुलाई, १९५१) 

साहित्यिक पत्रकारिता से लम्बे समय से जुड़ाव
लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियां प्रकाशित.जंगल के ख़िलाफ़ (कविता संग्रह), अधूरी हसरतों का अंत (कहानी संग्रह), डेक पर अँधेरा (उपन्यास) तथा कुछ जीवनियाँ और संपादित पुस्तकें प्रकाशित. 

कथा के लिए आर्य स्मृति साहित्य सम्मान तथा शैलेश मटियानी सम्मान प्राप्त. 

मोबाइल- 9582623368

Tags: कोरोनापिल्ले
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Comments 5

  1. Hammad Farooqui says:
    4 years ago

    शुक्रिया,लेखन,समालोचना, संवेदनशील कहानी, हमने ऐसी ही हालत खूब महसूस की है, जहां आवारा कुत्ते खुद और फिर अपने और साथियों के साथ घर पर सुबह दोपहर,शाम जमा हो जाते,यहां तक कि लॉकडाउन में दुकानदारों के कुत्ते, कई बार तो बिल्लियों के साथ भी एक ही जगह थोड़ा भौंक,म्याऊं कर के खाते पीते। कहानी के लिए आभार

    Reply
  2. महेश दर्पण says:
    4 years ago

    मार्मिक कथा लिखी है नगर जी ने।

    Reply
  3. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत मार्मिक है कहानी।मन उदास हो गया।कहानी की जीवंतता मारक है।बहुत दिनों बाद ऐसी कहानी पढ़ी।शुक्रिया नागर सर जी

    Reply
  4. पूनम मनु says:
    4 years ago

    बहुत मार्मिक कहानी है।बहुत बधाई सर जी

    Reply
  5. राज बोहरे says:
    4 years ago

    पशुओँ पर कम ही कहानी लिखी गयी हैं, जिनमें से यह भी एक है।नागर जी ने चित्र उम्दा प्रस्तुत किये है

    Reply

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