कोरोना-जनित वर्तमान महामारी ने विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध विद्वानों को अपने विषय पर, जिसे वो दशकों से पढ़ते-पढ़ाते आ रहे हैं, नए सिरे से सोचने पर विवश किया है. नतीजतन पिछले दो वर्षों में महामारी को केंद्र में रखकर लिखे गए आलेखों एवं पुस्तकों की बाढ़ सी आ गयी है. प्रस्तुत पुस्तक ‘महामारी और कविता’ कोरोना महामारी द्वारा बौद्धिक जगत में मचायी गयी इस खलबली का ताजा उदाहरण है. इसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संबद्ध श्रीप्रकाश शुक्ल, जो मूल रूप से हिंदी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े हुए हैं, ने एक ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि के तहत लिखा है.
यहाँ यदि हम बात करें इतिहास और साहित्य के बीच के अन्तर्सम्बंधों पर तो समय-समय पर कई विद्वानों ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा एवं कहा है. सुप्रसिद्ध उत्तर-आधुनिक चिंतक हेडेन वाइट का तो यहाँ तक मानना था कि इतिहास एवं साहित्य के मध्य कोई मूलभूत अंतर है ही नहीं. वाइट के अनुसार इतिहासकार भी किसी साहित्यकार की ही भांति टुकड़ों में उपलब्ध श्रोतों का अध्ययन कर एक ‘अर्थपूर्ण कहानी’ गढ़ता है जो सत्य हो भी सकती है और नहीं भी. इसी कारणवश एक ही श्रोत का उपयोग कर अलग-अलग इतिहासकार भिन्न-भिन्न प्रकार के आख्यान गढ़ते हैं. [1]
इस संदर्भ में मार्क्सवादी इतिहासकार के. एन. पणिक्कर का भी यह मानना था कि चाहे इतिहास हो या साहित्य, दोनों ही अपने-अपने तरीकों से भूतकाल में घटित घटनाओं को प्रतिबिंबित मात्र करते हैं. वे सत्य के करीब तो हो सकते हैं, परन्तु ‘शाश्वत सत्य’ नहीं हो सकते.[2] साहित्य के बारे में तो कहा ही गया है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’. अब समाज कोई अमूर्त तत्त्व तो है नहीं; कोई भी समाज किसी ख़ास कालखंड एवं किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र से संबद्ध होता है. ऐसे में साहित्य समाज के साथ-साथ उस कालखंड और भौगोलिक क्षेत्र एवं उससे जुड़ी संस्कृति को भी प्रतिबिंबित करता है. अतः इतिहासकार के लिए साहित्य एक श्रोत की भांति भी महत्त्वपूर्ण हो सकता है.
जहाँ तक महामारी के इतिहासलेखन का सवाल है, वहाँ भी साहित्य का अपना महत्व है. अंग्रेजी की एक प्रचलित उक्ति है: ‘A single death is a tragedy, but a million deaths are a statistic.’ कहने का आशय यह है कि जब किसी व्यक्ति विशेष की मृत्यु होती है तो उसे उसके परिवार वालों एवं मित्रों के लिए एक त्रासदी के तौर पर देखा जाता है. किन्तु जहाँ हजारों-लाखों की संख्या में लोग रोज मर रहे हों, सारी बातचीत एवं विमर्श आंकड़ों का रूप लेते चले जाती है. महामारी के दौर में कुछ ऐसा ही होता है. वर्तमान महामारी के दौरान भी एक समय के पश्चात सारा विमर्श आंकड़ों तक ही सिमट कर रह गया और मानवीय संवेदनायें ‘पब्लिक डिस्कोर्स’ से गायब होते चली गयीं. हालाँकि, यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो वह सिर्फ एक आंकड़ा मात्र नहीं रहता है, बल्कि कई बार उससे जुड़े हुए लोगों का पूरा संसार ही छिन्न-भिन्न हो जाता है. ऐसे में जब भी कोई इतिहासकार महामारी जनित इन मौतों के मानवीय असर की विवेचना करना चाहेगा, उसे साहित्य की शरण लेनी पड़ेगी. अभिलेखागारों में दर्ज आंकड़े महामारी के उस मानवीय मूल्य जिसे हर समाज को चुकाना पड़ता है का बयान करने में सर्वथा अक्षम हैं.
प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जो इतिहासकारों और साहित्यकारों दोनों को ही महामारी जैसी त्रासद घटना को समझने में मदद करती है. उदाहरण के तौर पर इसी पुस्तक में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा अपनी दिवंगत बेटी की स्मृति में लिखी गयी कविता ‘सरोज-स्मृति’ से उद्धृत निम्न मार्मिक पंक्तियाँ (पृष्ठ 215) उल्लेखनीय हैं:
धन्ये मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका
जाना तो अर्थगमोपाय
पर लख सदा रहा संकुचित काय
कन्ये गत कर्मों का कर अर्पण
मैं करता तेरा तर्पण.
महामारी के दौर में एक पिता द्वारा अपनी बेटी के असमय काल-कवलित हो जाने का यह दर्द कदाचित किसी भी आंकड़े व अभिलेखागार के माध्यम से बयान नहीं किया जा सकता. यह साहित्य के माध्यम से ही संभव है जिसकी तरफ श्रीप्रकाश शुक्ल इस पुस्तक के माध्यम से हमारा ध्यान आकृष्ट करने में सफल हुए हैं.
बहरहाल, प्रस्तुत पुस्तक में श्रीप्रकाश शुक्ल साहित्य की एक विशिष्ट विधा ‘कविता’ के माध्यम से महामारी के इतिहास की पड़ताल करते जान पड़ते हैं. यहाँ पर शुक्ल द्वारा प्रतिपादित ‘कोरोजीवी कविता’ के सिद्धांत का उल्लेख यथोचित है. शुक्ल के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान लिखी गयी कविताओं को ‘कोरोजीवी कविता’ की संज्ञा दी जा सकती है. यहाँ ‘कोरोजीवी कविता’ से शुक्ल का आशय सिर्फ उन कविताओं से नहीं है जिनमें कोरोना महामारी का सीधे तौर पर विवरण मिलता है, बल्कि उन सारी कविताओं से है जो इस दौरान लिखी गयीं. इसके पीछे शुक्ल का यह तर्क है कि चाहे कोई कविता महामारी के बारे में प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख न भी करे, परन्तु यदि वो महामारी के दौरान लिखी गयी है तो उस दौर की त्रासदी का कुछ-न-कुछ छाप उसके विषय-वस्तु, भाव, बनावट, आदि पर स्वतः ही देखी जा सकती है. शुक्ल के अनुसार कोई भी कवि चाह कर भी महामारी के दौरान अपने आस-पास बिखर रहे संसार से अछूता नहीं रह सकता. यहाँ पर शुक्ल वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव के हवाले से कहते हैं (पृष्ठ 207):
जो कवि भीगने से डरते हैं
वे कभी बारिश पर अच्छी कविताएँ नहीं लिखते,
बादलों से दोस्ती तो बहुत दूर की बात है.
वह कवि या साहित्यकार ही क्या जो अपने आस-पास घटित हो रही घटनाओं से अछूता रहे. हाल ही में कई विद्वानों ने शेक्सपियर के संदर्भ में यह तर्क देना शुरू कर दिया है कि शेक्सपियर अंग्रेजी में बेहतरीन ‘ट्रैजडी’ इसलिए लिख पाए क्योंकि जिस दौर में वे लिख रहे थे वह लंदन में प्लेग महामारी के प्रकोप का काल था. उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के समाज की टूटन एवं चहुँओर फैली निराशा करीब से देखी होगी. संभवतः इसी वजह से महामारी के समय का अवसाद शेक्सपियर की लेखनी में स्वतः ही ‘ट्रैजडी’ का रूप लेते चले गयी.
यदि शेक्सपियर के संदर्भ में यह कहा जा रहा है, तो क्या रविदास और तुलसीदास के साथ ऐसा न हुआ होगा. आख़िरकार, जिस दौर में रविदास एवं तुलसीदास भारतीय उपमहाद्वीप में लिख रहे थे, वह भी तो महामारी का दौर था. जैसा कि शुक्ल हमें बताते हैं रविदास के समय बनारस में चेचक महामारी फैली हुई थी, वहीं तुलसीदास का काल काशी में प्लेग महामारी के प्रकोप का काल है. क्या इन महामारियों की छाप ‘कोरोजीवी कविता’ की ही भांति रविदास और तुलसीदास की लेखनी पर न रहा होगा! इन सवालों की पड़ताल प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम दो अध्यायों के विषय-वस्तु का निर्माण करते हैं.
यहाँ यह ध्यातव्य है कि कोरोजीवी कविताओं के अध्ययन के दौरान लेखक श्रीप्रकाश शुक्ल ने वरिष्ठ कवि मदन कश्यप द्वारा कोरोना काल में लिखी गयी कविताओं में एक अद्भुत बात पायी. यह बात थी निरीश्वरवाद की तरफ मदन कश्यप का झुकाव जो उनकी निम्न पंक्तियों (पृष्ठ 149) में स्पष्ट तौर से परिलक्षित होता है:
वह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था
कि जिससे होती थी ईश्वर के होने की अनुभूति
कोरोना ने मुझे निरीश्वर बना दिया.
जब मदन कश्यप महामारी के वर्तमान दौर में निरीश्वरवादी हो गए तो क्या रविदास या फिर तुलसीदास के साथ भी ऐसा कुछ हुआ होगा. श्रीप्रकाश शुक्ल की यह जिज्ञासा रविदास और तुलसीदास के पदों को देखने की एक नयी अंतर्दृष्टि प्रदान करती है. शुक्ल ने यह पाया कि यदि रविदास एवं तुसलीदास की समग्र रचनाओं का गूढ़ता से अध्ययन किया जाये तो उसमे सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति की तरफ एक संक्रमण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. शुक्ल के अनुसार यह संक्रमण संभवतः उनके दौर की महामारी-जनित विभीषिकाओं का ही परिणाम था. वे कहते हैं,
‘जीवन की कठिन स्थितियों में जब ब्रह्म का अवतारी रूप साथ नहीं देता तब ब्रह्म की सूक्ष्म नाम सत्ता की तरफ मनुष्य का बढ़ना स्वाभाविक है’ (पृष्ठ 24).
रविदास एवं तुलसीदास जैसे भक्तिकालीन कवियों के साथ भी शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा जो संभवतः उनके समय का ‘वायरल प्रभाव’ था. इस संदर्भ में प्रस्तुत पुस्तक में उद्धृत रविदास का निम्न पद भक्तिकालीन कवियों पर बीमारी और संत्रास की स्थितियों के दबाव को स्पष्ट तौर पर परिलक्षित करती हैं (पृष्ठ 24):
गोबिन्दे भौजल व्याधि अपारा
ता तें कछु सूझत वार न पारा…
कुछ इसी प्रकार तुलसीदास निम्न पद में महामारी-जनित मृत्यु के भयानक दृश्यों के बीच बनारस से देवताओं के भागने व राजा द्वारा कर्तव्य से पलायन कर जाने को दर्ज करते हैं (पृष्ठ 61):
देव न दयाल महिपाल न कृपाल चित्त
वाराणसी बाढ़ति अनीति नित नयी है
देवताओं को कुछ ऐसी ही उलाहना तुलसी ‘हनुमान बाहुक’ के निम्न छंद में देते हैं जहाँ वे भूत, पितर, दुष्ट ग्रहों के साथ-साथ देवताओं को भी अपनी शारीरिक पीड़ा के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं (पृष्ठ 57):
पाँय पीर, पेट पीर, बाँह पीर, मुँह पीर
जर्जर सकल सरीर पीरमयी है.
देव भूत पितर करम खल काल गृह
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है.
कुछ ऐसी ही मनःस्थिति बीसवीं सदी में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की रही होगी जहाँ महामारी में अपनों को खोने के दर्द ने उन्हें बेख़ौफ़ एवं फक्कड़ बना दिया. विशेष तौर से स्पेनिश फ्लू महामारी (1918-20) के दौरान मौत का जो तांडव फैला उसका जैसा विवरण निराला के साहित्य में मिलता है, वो शायद ही कहीं अन्य उपलब्ध हो. अपने जीवन संस्मरण ‘कुल्ली भाट’ (1939) में निराला लिखते हैं :
‘अखबारों से मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी. गंगा के किनारे आकर प्रत्यक्ष की. गंगा में लाशों का ही जैसे प्रवाह हो.’
निराला के अनुसार
‘इस समय का अनुभव जीवन का विचित्र अनुभव है. देखते-देखते घर साफ़ हो गया. जितने उपार्जन और काम करने वाले आदमी थे साफ़ हो गए. चार बड़के दादा के दो मेरे. दादा के सबसे बड़े लड़के की उम्र 15 साल मेरी सबसे छोटी लड़की साल भर की. चारों ओर अंधेरा नजर आता था.’
निराला की इन पंक्तियों में महामारी-जनित विभीषिका में फंसे मनुष्य का अप्रतिम चित्रण मिलता है जिसका इस्तमाल समय-समय पर कई इतिहासकारों ने स्पेनिश फ्लू महामारी के संदर्भ में किया है.
यहाँ पर जो बात समीक्षाधीन पुस्तक को दिलचस्प बनाती है, वो है लेखक श्रीप्रकाश शुक्ल द्वारा ‘कुल्ली भाट’ से इतर निराला के अन्य कृतियों में महामारी के छापों की उपस्थिति की तलाश. इस क्रम में वे 1933 में प्रकाशित निराला के उपन्यास ‘अलका’ का विशेष उल्लेख करते हैं. लेखक के अनुसार ‘अलका’ में जिस इन्फ्लुएंजा महामारी का चित्रण निराला करते हैं वह रोंगटे खड़े करने वाला है. निराला ‘अलका’ में लिखते हैं: ‘महासमर का अंत हो गया, भारत में महाव्याधि फैली हुई है, एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को भय के धुएँ की तरह घेर लिया है. चरों ओर त्राहि-त्राहि मची है. विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं सब अपने घर वालों की बीमारी का हाल पाकर.’
इसी प्रकार 1920 से आरम्भ हुए निराला के कविकर्म की विवेचना करते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल तर्क देते हैं कि यद्यपि निराला की कई कवितायें महामारी से सीधे तौर पर नहीं जुड़ी हुई हैं, परन्तु उनमें जो संत्रास का पुट है वह महामारी के मानस के बगैर कदाचित संभव न था. हालाँकि, जैसा की लेखक हमें बताते हैं निराला की कविताओं में महामारी के साथ वसन्त की व्याप्ति भी मिलती है. दूसरे शब्दों में निराला रचनावली में महामारी तथा वासन्तिक मानस दोनों ही समान रूप से मौजूद है जिस कारण उनकी कविताओं से गुजरते हुए वेदना व वसन्त की अनुभूति बराबर होती है.
श्रीप्रकाश शुक्ल द्वारा वर्तमान कोरोजीवी कविताओं की व्याख्या भी कम दिलचस्प नहीं है. इस संबंध में वे मुख्य तौर से मौजूदा दौर के तीन प्रतिष्ठित कवियों राजेश जोशी, अरुण कमल तथा मदन कश्यप की कविताओं पर चर्चा करते हैं. साथ ही अंत के दो अध्यायों में वे कई युवा कवियों जैसे कि अमरजीत राम, कुमार मंगलम, नीरज मिश्र, रश्मि भारद्वाज, प्रतिभा श्री, कर्मानन्द आर्य, आदि की कविताओं पर भी एक संक्षिप्त निगाह डालते हुए उन पर वर्तमान कोरोना महामारी के असर को देखते हैं जो कहीं-न-कहीं कोरोजीविता के उनके सिद्धांत को पुष्ट करती है.
दरअसल प्रस्तुत पुस्तक का महत्व सिर्फ इस बात में नहीं है कि यह हमें रविदास, तुलसीदास, निराला, राजेश जोशी, अरुण कमल, मदन कश्यप आदि को पढ़ने-समझने की एक नयी युक्ति से लैस करती है, वरन इस बात में भी है कि यह इतिहास एवं साहित्य दोनों के ही शोधार्थियों के लिए शोध के नए दरवाजे खोलती है. आखिरकार जिस दौर में रविदास और तुलसीदास लिख रहे थे, उसी दौर में विद्यापति भी लिख रहे थे एवं उसी दौर में कबीर भी लिख रहे थे. जिस दौर में निराला सक्रिय थे, ठीक उसी समय प्रेमचंद व फणीश्वरनाथ रेणु भी साहित्य का सृजन कर रहे थे. क्या इनकी लेखनी में भी महामारी के दौर की छाप देखी जा सकती है! यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है, जिसपे चर्चा होनी चाहिए.
अंत में जिस तरीके से यह पुस्तक विश्व साहित्य में चल रही सामानांतर हलचलों को दर्ज करती है, वह भी काबिल-ए-गौर है. चाहे वो अल्बेयर कामू की ‘दि प्लेग’ (1947) हो या गेब्रियल गार्सिआ मार्खेज की ‘लव इन दि टाइम ऑफ़ कॉलरा’ (1985), या फिर हाल ही में आयी ऐलिस क्वीन द्वारा संपादित कोरोनाकालीन कविताओं का संग्रह ‘टूगेदरनेस इन अ सडेन स्ट्रेंजनेस’ (2020) तथा के. सच्चिदानंदन एवं निशि चावला द्वारा संपादित ‘सिंगिंग इन दि डार्क’ (2020), प्रस्तुत पुस्तक इनसे निहायत ही खूबसूरती से संवाद करती है. साथ ही लेखक इतिहास की भी कई पुस्तकों (जैसे कि चिन्मय तुम्बे की ‘दि एज ऑफ़ पैंडेमिक‘, 2020; मार्क होनिग्सबॉम की ‘दि पैंडेमिक सेंचुरी’, 2019; आदि) का उल्लेख करते हैं, जो उनके तर्कों को अतिरिक्त धार प्रदान करती है. लब्बोलुआब यह है कि महामारी आधारित पुस्तकों की श्रृंखला में यह पुस्तक एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है. साथ ही पुस्तक की साज-सज्जा एवं प्रकाशन संबंधी गुणवत्ता के लिए इसके प्रकाशक सेतु प्रकाशन भी बधाई के पात्र हैं.
श्रीप्रकाश शुक्ल, महामारी और कविता, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ xvi+238, पेपरबैक, 260 रुपये. |
[1] हेडेन वाइट, मेटाहिस्ट्री: दि हिस्टोरिकल इमेजिनेशन इन नाइनटीन्थ सेंचुरी यूरोप, बाल्टिमोर: जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी प्रेस, 1975.
[2] के. एन. पणिक्कर, ‘लिटरेचर ऐज हिस्ट्री ऑफ़ सोशल चेंज’, सोशल साइंटिस्ट, खंड 40, संख्या 3-4, मार्च-अप्रैल 2012, पृष्ठ 3-15.
![]() सौरव कुमार राय |
अच्छी समीक्षा!
इस सुचिंतित टिप्पणी के लिए सौरव राय के प्रति आभार।