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Home » देह ही देश: मृत्यु की राजनीति: नरेश गोस्‍वामी

देह ही देश: मृत्यु की राजनीति: नरेश गोस्‍वामी

गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास-डायरी ‘देह ही देश’ जब से प्रकाशित हुई है, चर्चा में है, बड़े स्तर पर इसने लेखकों और पाठकों का ध्यान खींचा है. कथाकार और समाज-वैज्ञानिक नरेश गोस्वामी ने इस पुस्तक के ब्योरों को भित्तिचित्र की तरह देखते हुए यह विवेचना लिखी है. पठनीय और विचारणीय है.

by arun dev
October 5, 2021
in समीक्षा
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देह ही देश: मृत्यु की राजनीति: नरेश गोस्‍वामी
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देह ही देश
मृत्यु की राजनीति

नरेश गोस्‍वामी

युगोस्लाविया एक असंभव देश था. छह राष्‍ट्रीयताओं— बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोशिया, मैसिडोनिया, मोंटेग्रो, सर्बिया तथा स्‍लोवेनिया का बेमेल जमावडा जो शीत-युद्ध के दौरान सोवियत और अमेरिकी प्रभाव-क्षेत्रों में बँटी दुनिया की एक लंबित त्रासदी.

संघीय राष्ट्र की संरचना में ज़बरदस्ती कतारबद्ध की गयी इन राष्ट्रीयताओं की सीवन आठवें दशक में उधड़ने लगी थीं. नवें दशक के मुहाने पर वह एक भयावह गृहयुद्ध की ओर फिसलने लगा था. 1989 के चुनावों में स्‍लोबोदान मिलोसेविच सर्बिया का राष्ट्रपति चुना गया. ग़ौरतलब है कि पूर्व युगोस्‍लाविया में शामिल प्रत्‍येक राज्‍य एक गणतंत्र की हैसियत रखता था. विखंडन की स्थिति में उन्‍हें स्‍वायत्‍त होने का अधिकार था, परंतु मिलोसेविच और उसके समर्थक पिछले राष्‍ट्र की जगह ले रही नयी व्‍यवस्‍था के केंद्र में सर्बिया को रखना चाहते थे.

1990 के चुनाव में स्‍लोवेनिया, क्रोएशिया, बोस्निया हर्जेगोविना और मैसिडोनिया में ग़ैर साम्राज्‍यवादियों की जीत हुई. स्‍लोवेनिया और क्रोएशिया ने खुद को स्वाधीन घोषित कर दिया. मिलोसेविच का गिरोह जिस बृहत्‍तर सर्बिया का सपना देख रहा था उसमें ऐसी घोषणा बगावत से कम नहीं थी. लिहाज़ा, मिलोसेविच ने ग़ैर-सर्बों के सफाए का नारा उछाला और देखते-देखते यह पूरा इलाक़ा एक भयावह त्रासदी के गर्त में गिरता चला गया. तीन वर्षों (1992-1995) की बर्बरता, नस्‍लवादी रक्‍तपात और नियोजित हिंसा के इस दौर में सामाजिक-नागरिक जीवन पूरी तरह ध्वस्त हो गया. मसलन, युद्ध से पहले बोस्निया में प्रति व्‍यक्ति आय 2500 डॉलर थी जो 1995 के बाद 500 डॉलर रह गयी. युद्ध-विराम तक 80 प्रतिशत जनता बेरोजगार हो चुकी थी.

गरिमा श्रीवास्‍तव की किताब-  ‘देह ही देश’ इसी पूर्व-युगोस्‍लाविया के घटक रहे क्रोएशिया प्रवास की डायरी है. कहने को यह डायरी है, लेकिन इसमें युगोस्‍लाविया के विखंडन और उससे उपजे विस्‍थापन, उग्र राष्‍ट्रवादी आकांक्षाओं, संगठित हिंसा और यातनाओं के विस्‍तृत आख्‍यान के साथ स्त्रियों के यौन शोषण की जघन्य दास्तानें दर्ज है.

इस इतिहास को हम यंत्रणा और यातना के एक ऐसे भित्ति-चित्र की तरह भी देख सकते हैं जिसमें जितना उपस्थित है, शायद उतना ही फ्रेम से बाहर रह गया है. इस चित्र में 480 कैंप हैं जो सर्बिया ने बोस्निया हर्ज़ेगोविना क्रोएशिया के खिलाफ बनाए थे. यहां गाँवों पर हमला करते और दस साल की बच्चियों से लेकर साठ साल की औरतों के साथ बलात्‍कार करते सर्ब सैनिक और उनके मुखबिर हैं;  इसमें लिलियाना है जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. उसे गर्भ ठहरा. लेकिन उसने हार नहीं मानी. वह चुप नहीं रही. उसने रिपोर्ट दर्ज कराई. उसे सब कुछ याद है, लेकिन अब वह याद नहीं करना चाहती. यहां एक छोटा-सा रेस्‍त्रां चलाने वाली हासेसिस है जिसके साथ उसके सर्बियाई पड़ोसियों ने पुलिस के तहखाने में बलात्‍कार किया. उसे याद नहीं है कि वहां वह कितने दिन बंधक रही. इस यातना के बाद उसका पति से तलाक़ हो गया क्योंकि वह बर्फ़ की तरह ठंडी हो गयी थी. इसमें विलिना व्लास होटल में काम करने वाली बूढ़ी बाल्कन औरत है जिसके सामने उसके सोलह साल के बेटे का गला रेत दिया गया था.

इस चित्र के किसी एक कोने में बोस्निया की औरतें हैं जिनके साथ उनकी बच्चों की मौजूदगी में बलात्‍कार किया गया. उनमें बहुत सी मर गयीं. कुछ पागल हो गयीं. कुछ वेश्या बन गयी और बाक़ी चुप रहने लगीं. बीती घटनाओं को बताते वक्‍त पचपन साल की सेम्का को पसीना और चक्कर आने लगता है. इसके एक किनारे पर एकांत और गरीबी में जिंदगी गुज़ार रही एमिना अपनी उम्र से बूढ़ी दिखाई देती है. अपमान और शोषण की स्‍मृति के कारण वह लोगों पर विश्वास नहीं करती. जिंदा रहने भर के लिए वह हर दिन दवाईयों की अठारह खुराक लेती है.

अभी और देखते जाइये. यह ऐना होर्वंतिनेक है. उसके और उसकी बेटी के साथ छह सैनिकों ने बलात्कार किया. अड़तालिस साल की याद्रांका प्राईमरी स्‍कूल में पढ़ाती है. उसके साथ छह सैनिकों ने बलात्‍कार किया था, लेकिन वह हिम्मती निकली. उसने आत्मविश्वास नहीं खोया. मेलिसा गर्भाशय में टहनी डालकर गर्भ को ख़त्‍म करना चाहती थी. 1992 में उसने जाग्रेब के अस्‍तपाल में मृत बच्‍चे को जन्‍म दिया. एनिसा 1992 में सोलह बरस की थी. दादा और पिता को उसकी आंखों के सामने क़त्‍ल कर दिया गया. उसे पता तक नहीं था कि बाहर युद्ध जैसा कुछ चल रहा है. वह पुरुष मात्र से घृणा करती है. नीसा यातना से बचने के लिए पागल होने का नाटक करती रही. रोगाटिया के मुस्लिम परिवार की दादी, चार बहुओं और पांच पोतियों के साथ बलात्‍कार किया गया. पुरुषों और बच्‍चों को जिंदा जला दिया गया.

ग्रामीण किसान महिला स्‍नेजना अब थक गयी है. वह कह रही है कि ‘हमें तो देश के हालात की भी सही जानकारी नहीं थी. फिर हमारे साथ ऐसा क्यों किया गया’.

इस विशाल चित्र के दूसरे सिरे पर पंद्रह से पैंतीस साल की उन सौ से ज्‍़यादा औरतों का हुजूम है जिन्‍हें स्‍कूल के जिम्‍नेजियम में कैद किया गया था और जिनकी यह जांच की गयी कि उनमें कौन-कौन गर्भ धारण कर सकती हैं. इस आधार पर गर्भवती और बच्‍चों वाली महिलाओं को अलग कर दिया गया. बच्‍चे वाली औरतों को सफ़ाई और खाना बनाने जैसे कामों में लगाया गया. गर्भवती महिलओं में अधिकांश को मार दिया गया. इस चित्र में एक स्‍याह बिंदू है. यह जंगल में बनी एक कब्र है जिसमें दो सौ ज़्यादा महिलाएं छिपी हैं. इस भित्ति चित्र में ऐसी भी तमाम औरतें हैं जिन्‍होंने अपने साथ हुई जघन्‍यता के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया. वे उस गंदगी और ग़लाजत को अपने भीतर पीकर नीलकंठ हो गयीं थीं.

 

मैं एक बार इस चित्र से नज़र हटा कर सोचना चाहता हूं कि इसमें ऐसा क्‍या है जो अनुपस्थित रह गया है. फिर मुड़कर देखता हूं. इन चेहरों के आसपास जहां और चेहरे होने चाहिए थे, उस अंतराल में जिबह की गयीं, मार खाई, लहूलुहान और क्षतविक्षत औरतों की स्‍मृति का निदाघ सन्नाटा है. ये औरतें सामान्‍य जीवन की ओर लौट सकती थीं. लेकिन उन्‍हें समय पर भावनात्‍मक सहारा या चिकित्सा सुविधा नहीं मिली. किसी को परिवार ने भगा दिया. कोई वैवाहिक जीवन जीने में अक्षम हो गयी, कईयों ने आत्‍महत्‍या कर ली और बहुत-सी अपने परिचित संसार से दूर चली गयीं.

अब ज़रा इस चित्र का हाशिया देखिए. यह एरिजोना मार्केट है. पैंतीस एकड़ में फैली हुई. इसे सर्बों, क्रोआती, बास्नियाई लोगों के बीच संबंध सुधारने के मक़सद से शुरू किया गया था. लेकिन इसका असली रूप 1995 के बाद सामने आया. यह स्त्रियों की खरीद फरोख्‍त और वेश्‍यावृत्ति का अड्डा बन चुका था. विदेशी सैनिक और सिविल अधिकारी खुद खरीदार और दलाल बन बैठे. संयुक्‍त राष्‍ट्र की उपस्थिति के कारण वेश्‍यागृहों, मसाज पार्लरों, पीप शोज और पोर्न फिलमों की बाढ़ आ गयी. 1999 में मानवाधिकार संस्‍थाओं को इस इलाके में कई ऐसे वेश्‍यालय मिलें जिनमें औरतें पशुओं की तरह ठूंसी पड़ी थी. उनके पास न पासपोर्ट था, न पहचान. एक वेश्‍यालय से दूसरे वेश्‍यालय में औरतों की खरीद बेच होती थी. संयुक्‍त राष्‍ट्र की एजेंसियों ने 280 नाइट क्‍लबों की शिनाख्त की. लेकिन यह संख्‍या वास्‍तव में हजार से ऊपर थी. एक वेश्‍यालय में 4 से 25 तक स्त्रियां बंधुआ होकर रहती थीं. इनके साठ प्रतिशत ग्राहक विदेशी मुख्‍यत: शांति सेना के सदस्य होते थे.. युद्ध से पहले सर्बिया की आर्थिक स्थिति पूर्वी युरोप के अन्‍य देशों से बेहतर थी, लेकिन युद्ध के बाद वह मानव व्‍यापार का अस्‍थायी अड्डा बन कर रह गया.

 

मैं खुद को बहुार कर हॉल से बाहर ले आया हूं. दरवाज़े से बाहर निकलता हूं. सामने इस भित्ति-चित्र की रचनाकार खड़ी हैं. मैं उन्‍हें बधाई देना चाहता हूं. लेकिन, यातना की घटनाओं, प्रसंगों और ब्‍योरों की सिहरन अभी ख़त्‍म नहीं हुई है. शायद यह अनकहा उन तक पहुंच गया है. वे बुदबुदाती हैं :

 ‘युद्ध के दौरान बलात्कार, यौन हिंसा के हज़ारों मामले सामने आए. कुछ सरकारी फ़ाइलों में दब गए, कुछ भुला दिए गए, कुछ शिकायतें वापस ले ली गयीं…  बोस्निया हर्जेगोविना की औरतों की बात अंतरराष्ट्रीय स्‍तर पर नहीं उठाई गयी. बलात्‍कार के आँकड़ों तक में एकरूपता नहीं थी. कोई 20 हज़ार कहता था तो कोई 50 हज़ार. इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्‍युनल बलात्कार को मानवता के प्रति अपराध घोषित करके पन्‍ने काले करता रहा. जेस्मिया हुस्‍नावोइच जैसी अध्‍येता उल्‍टे पीडि़ताओं को प्रवचन सुनाती रहीं कि शोषिताओं को पिछला सब कुछ भूलकर नया जीवन शुरू कर देना चाहिए.’

कुछ देर के लिए वे एकदम ख़ामोश हो जाती हैं. लेकिन पीडि़ताओं की स्‍मृति शायद फिर लौट आई है :

‘दरअसल, युद्ध एक उद्योग है. हिंसा, हत्‍याओं, बलात्‍कार, विस्‍थापन पुनर्र्वास के आंकड़ों पर बेतहाशा खर्च किया जाता है. वहां संगोष्ठियों और कार्यशालाओं के लिए कच्‍चा माल होता है. सेब्रेनिका और किगाली पर्यटन स्‍थल बन जाते हैं क्‍योंकि वहां कुछ भयावह घटित हुआ है­­­­…  गृहयुद्ध के कारण पूर्व-युगोस्लावियाई क्षेत्र की औरतों को जिस चरम शारीरिक और मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ा उसके तार अंध-राष्ट्रवाद, पूँजी और अमेरिकी वर्चस्व से जुड़े थे. वर्ना कोई वजह नहीं थी कि मिलोसेविच की क्रूरता, युयुत्सु योजनाओं, यातना-शिविरों के साक्ष्यों के बावजूद उसके ख़िलाफ़ चार सालों बाद अंतरराष्ट्रीय लामबंदी की गयी.’

अभी कुछ देर पहले भित्ति-‍चित्र को देखते हुए सोच रहा था कि आंखों में उतरता भारीपन बाहर जाकर छंट जाएगा. लेकिन, वह चित्र तो यहां तक चला आया है.

 

परिसर के प्रवेश-द्वार से बाहर आता हूं. सड़क पर सूखे पत्‍तों का एक ढेर तितर-बितर उड़ा जा रहा है. चारदीवारी के कोने पर नज़र जाती है. अरे, ये तो अशील मेंबे खड़े हैं. कुछ सोचते हुए और उदास. मेरे क़दम तेज़ हो जाते हैं.

‘क्‍या आप भी देह ही देश का इंस्टा..’  मैं वाक्य पूरा नहीं कर पाया हूं कि उन्होंने आँखों से इशारा कर दिया है.

‘यह चित्र विचलित कर देता है’. मैं जानता हूं कि यह एक बहुत घिसापिटा जुमला है. लेकिन, बात शुरू करने के लिए मुझे और कुछ नहीं सूझ रहा.

अशील के चेहरे पर एक संक्षिप्‍त थरथराहट आकर गुज़र गई है.

‘यह क्रूरता की राजनीति का प्रतिनिधि बिम्ब है… असल में लोगबाग सोचना नहीं चाहते कि टेक्नोलॉजी का हर नया चरण राज्य को और खूंखार बना देता है… राज्‍य अब व्‍यक्ति के जीवन को बचाने के बजाय उसका जीवन छीनने की तकनीकी में दिलचस्पी लेता है. वह अब सिर्फ़ अपनी ओर से युद्ध नहीं करता बल्कि उसमें अपराधियों और भाड़े के गुटों को भी शामिल कर लेता है. याद करिये कोसोवो में तेल और जल संयत्रों, बिजली घरों और पुलों को कैसे निशाना बनाया गया. मक़सद यह था कि लोगों का दैनिक जीवन अस्‍तवयस्‍त कर दिया जाए. और बेल्‍ग्रेड का पेट्रोकेमिकल प्‍लांट! पूरा इलाक़ा कैसे देखते-देखते विनायल क्‍लोराइड, अमोनिया, डायोक्सिन जैसी जहरीली गैसों से भर गया. गर्भवती औरतों को आनन-फ़ानन में एबॉर्शन करवाना पड़ा. और अगले दो सालों तक उन्‍हें गर्भ धारण न करने की हिदायत दी गयी… क्या इसे युद्ध कहा जा सकता है ?  नहीं, यह मृत्‍यु की… मनुष्‍य के उन्मूलन की राजनीति है.’ (1)

आखि़र तक आते-आते अशील के शब्‍द लड़खड़ाने लगे हैं. उनकी बात बीच में ही रह गयी है.  सामने सड़क पर उठा धूल, पत्‍तों और टहनियों का एक अनाकार गुबार बहुत तेज़ी से हमारी तरफ़ आ रहा है. हमने उससे बचने के लिए अपना मुंह चारदीवारी की तरफ़ कर लिया है.

टिप्‍पणी :

(1) अशील मेंबे अफ्रीकी-फ्रेंच विद्वान हैं. उनके चिंतन और कृतित्‍व में उपनिवेशवाद, अस्मिता और हिंसा के प्रश्‍न अनूठी आभा के साथ उभरते हैं. नागरिक के जीवन पर राज्‍य-सत्‍ता के अनंत और निर्बाध अधिकार पर-जिसे वे नेक्रोपॉलिटिक्‍स अर्थात् मृत्‍यु की राजनीति कहते हैं, उनका लेखन पिछले वर्षों में बेहद चर्चित रहा है.
______________

सम्प्रति:
सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’  में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com
Tags: गरिमा श्रीवास्तवदेह ही देशनरेश गोस्वामी
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Comments 11

  1. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    यह बहुत अच्छी और जरूरी किताब है।
    आलेख भी बेहतर है।

    Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      धन्यवाद कुमार अम्बुज जी .

      Reply
  2. Dr.Chaitali sinha says:
    4 years ago

    बहुत ही मार्मिक और सार्थक समीक्षा की है sir आपने। सत्य तो यह है कि इस पुस्तक पर कुछ टिप्पणी करने का साहस नहीं होता। इतना विस्तार है इसमें कि मानों यातनाओं और क्रूरताओं का सिलसिला कहीं किसी बिंदु पर जाकर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। पीड़िताओं की कारुणिक चीत्कार मानों हमसे न्याय की गुहार लगा रही हों । एक से एक वीभत्स घटनाओं को सहा उन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी हाड़ मांस की देह पर।

    Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      आभार डाक्टर चैताली

      Reply
  3. रवि रंजन says:
    4 years ago

    इस कृति को भित्ति चित्र की तरह देखना नरेश जी की कला चेतना का प्रमाण है जो इतिहास चेतना की ज़मीन पर खड़ी है।
    इस कृति के भाषिक सौंदर्य पर अगर विचारें तो इसकी संरचना से यातना के फूटते करुण स्वरों को जिस तरह लेखिका ने पिरोया है,वह उनके गद्य की अंतर्निहित शक्ति का परिचायक है
    इसके अलावा हिंदी लेखन में बंगला साहित्य का संतुलित रचनात्मक विनियोग के कारण यह रचना सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध हुई है।

    Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      आभार रविरंजन सर,

      Reply
  4. रमेश अनुपम says:
    4 years ago

    देह और देश को पढ़ते हुए हम जिस देश और दुनिया से रू ब रू होते हैं ,वह हमारी संवेदना को छीलती चली जाती है। गरिमा श्रीवास्तव की यह किताब एक देश नहीं असंख्य जीवित और मृत लोगों की दुनिया से, उनकी यंत्रणा और वेदना से हमें परिचित करवाती है। गरिमा की अंतर्दृष्टि हमें चकित कर सकती है । उनकी संवेदना हमें बहुत दूर तक अपने साथ बहा ले जाने का सामर्थ्य रखती है । नरेश गोस्वामी ने गरिमा श्रीवास्तव की इस किताब के साथ जिस तरह से संवाद स्थापित करने की कोशिश की है वह अद्भुत है।आलोचना के प्रचलित ढांचे से बाहर निकल कर उन्होंने जिस तरह से इस कृति का मूल्यांकन किया है इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं । गरिमा श्रीवास्तव और समालोचन को भी ढेर सारी बधाई।

    Reply
  5. MADAN PAL SINGH says:
    4 years ago

    नरेश जी, अपनी भावनाएँ आपने प्रेषित कीं, उनकें लिए धन्यवाद। इधर मैंने भी इस पुस्तक पर कुछ पृष्ठ लिखें हैं। गरिमा जी की यह डायरी कहन के लिए बाध्य करती है।

    Reply
  6. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    मानवता को शर्मसार करनेवाली ये घटनाएं पढ़कर दुनिया के इतिहास में मानव समाजों की हैवानियत और दरिंदगी का पता चलता है। कारण चाहे जो भी रहे हों।सचमुच सभ्यता का इतिहास बर्बरताओ का इतिहास भी रहा है।आश्चर्य की बात है कि ये कुकृत्य बीसवीं सदी के हैं। डायरी की विधा में इन्हें प्रकाश में लाने के लिए गरिमा जी एवं आलेख के लिए नरेश जी को साधुवाद !

    Reply
  7. बटरोही says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव की यह अद्भुत जीवट यात्रा ही इतनी महत्वपूर्ण रचना को जन्म दे सकती है। लगभग असंभव-सा लगता है सब कुछ।

    Reply
  8. RAMA SHANKER SINGH says:
    4 years ago

    जितनी शिद्दत, प्रामाणिकता और संवेदना के साथ यह किताब लिखी गयी है, वैसी ही इसकी समीक्षा की है नरेश जी ने। वे खुद एक हुनरमंद कथाकार हैं तो उसकी झलक उनके लिखे में भी है। यह समीक्षा अपने आप में एक सृजनात्मक गद्य है💐

    Reply

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