मंगलेश डबराल: तीन प्रसंग, दो पाठहरीश त्रिवेदी |
हिंदी जगत में मंगलेश डबराल का कवि के रूप में अनन्य स्थान था यह तो पहले से ही सर्वविदित था पर अपने स्वभाव व व्यक्तित्व के कारण वे कितने लोकप्रिय थे, बल्कि हर-दिल अज़ीज़, यह उनके पिछले वर्ष कोरोना-कवलित होने के बाद अधिक प्रकाश में आ रहा है. मेरा सौभाग्य था कि उनसे मित्रता रही. सहकर्मियों जैसी रोज़ की घनिष्ठता भले न रही हो और न ही उनके साथ के हिंदी लेखकों जैसा आपसी भाईचारा, पर गाहे-बगाहे उनसे हुई अनेक मुलाकातों में सहज अंतरंगता का एक धागा था जो हमें लगातार बाँधे रहा.
मंगलेश पहाड़ से उतर कर दिल्ली आये 1969 में पत्रकारिता करने, और संयोगवश मैं भी उसी वर्ष अपने अतीत-गौरव के शिखर से स्खलित होते इलाह़ाबाद विश्वविद्यालय से उतर कर, जहाँ मैं अंग्रेजी पढ़ा रहा था, तब नयी ऊंचाइयां चढ़ते दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ाने लगा. महानगरीय संत्रास तो नहीं पर विस्थापितों की भटकन के मारे हुए हम कुछ लोग अपने छोटे-छोटे परिवार-विहीन सुनसान डेरों से निकल कर शाम को नियम से मंडी हाउस से लगे सप्रू हाउस के लॉन या कैंटीन में मिलते थे. तब वहां स्थित अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के हॉस्टल में पुष्पेश पन्त, रमेश दीक्षित, और जावेद आलम इत्यादि अनेक मित्र रहते थे, और प्रयाग शुक्ल और अशोक सेकसरिया अक्सर आ जाते थे. उन्हीं के माध्यम से मंगलेश से मिलना हुआ. इन लेखकों में पुष्पेश की चमत्कारी द्विभाषीय वाग्मिता के हम सब मुरीद थे और उनके लिखे जा रहे उपन्यास के प्रारंभ के दो-तीन अध्यायों को पढ़ कर आशान्वित थे कि वे कोई लम्बी कालजयी कृति लिखेंगे.
प्रयाग का पहला कविता-संग्रह, जिसका सटीक शीर्षक था “कविता-सम्भव,” कुछ “कुमार-सम्भव” की तर्ज़ पर और कविता का जन्म के अर्थ में, 1968 में छप कर आ गया था; मेरी अब तक जतन से सहेजी प्रति में उनके हस्ताक्षर की तारीख है 9 अप्रैल ’71, और उसके ऊपर उन्होंने लिखा है
“प्रिय हरीश जी की पुस्तक, जिन्हें ये कविताएँ /कुछ/ पसंद आयीं, मेरा सौभाग्य”.
स्पष्ट ही, वे तभी से शालीन, सौम्य और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे. अशोक जी सरल और स्नेही जीव थे जो वेश-भूषा और केश-विन्यास आदि की सतही दृष्टि से कुछ औघड़ बाबा जैसे थे (उन पर अलग से लिख चुका हूँ), और मंगलेश कुछ शर्मीले पर साथ ही चपल-चंचल होनहार बालक की भाँति थे जो अधिकतर चुप रहते थे पर कभी-कभी अचानक कुछ शोख बात कह जाते थे.
इन पचास वर्षों के दिल्ली के संग-साथ के अनगिन छोटे-बड़े प्रसंग हैं जिनमें अभी यहाँ बस तीन का उल्लेख अभीष्ट है, मंगलेश के कुछ विशेष आयाम सामने लाने के लिए. पहला है सन 1990 की जनवरी में साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित एक हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद कार्य-शाला जिसमें हम करीब बीस-बाईस लोग पूरे पखवाड़े रोज़ दिन-भर साथ-साथ उठे-बैठे और कई रस-रंजित शामें भी साथ ही गुजारीं. दूसरा एक छोटा सा अवसर है, बस दो-तीन घण्टों का, जिसकी लौ मन में अलग ही जलती रही है, जब उसी साल एक शाम मैं रघुवीर सहाय जी के प्रेस एन्क्लेव वाले मकान में बैठा था और उनकी कुछ कविताओं के जो अनुवाद कर के लाया था उनकी बाल की खाल निकाली जा रही थी. तभी अकस्मात मंगलेश वहां प्रकट हुए अपने झोले में एक बोतल सहेजे. और तीसरा प्रसंग है दिल्ली विश्वविद्यालय के खचाखच भरे एक हॉल का, जिसमें बस दो ही कवि निमंत्रित थे कविता-पाठ के लिए, कुंवर नारायण जी और मंगलेश, और जिसमें मंगलेश ने एक छात्र के कुछ बे-अदब प्रश्न का जो उत्तर दिया वह बस वही दे सकते थे. अंत में उनकी दो कृतियों का संक्षेप में ही उल्लेख करूंगा जो मुझे विशेष प्रिय रही हैं.
स्मृतियाँ
1990 की उस अनुवाद कार्यशाला में जैसी संतों की भीड़ जमा हुई वह मेरे अनुभव में अब भी बेजोड़ है. दस कवि थे जिनमें रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, प्रयाग शुक्ल और ऋतुराज वरिष्ठ कहे जा सकते थे यानी तब पचास पार कर चुके थे या बस कर ही रहे थे, और कनिष्ठों में थे गिरधर राठी, मंगलेश, आलोकधन्वा और असद ज़ैदी. दस ही अनुवादक थे जिनमें मैं भी था. संयोजक थे गिरधर, और विशेष अतिथि थे अमेरिका में आयोवा विश्वविद्यालय से आये हुए रूसी कविताओं के प्रख्यात अनुवादक डैनियल वाइसबोर्ट (Daniel Weissbort). वे हिंदी बिलकुल नहीं जानते थे तो उनके ज्ञानवर्द्धन के लिए सभी हिंदी कवि बीच-बीच में धड़ल्ले से अंग्रेजी में बोले, बस विनोद कुमार जी और ऋतुराज को छोड़ कर.
उस कार्यशाला का 25 पृष्ठों का विस्तृत वृत्तान्त (किंवा कच्चा चिट्ठा) मैंने तभी लिखा था जो उन अनुवादों की पुस्तक में ही परिशिष्ट के रूप में छपा. (Survival:…Translating Modern Hindi Poetry, eds. Daniel Weissbort & Girdhar Rathi, Sahitya Akademi, New Delhi, 1994)
इस कार्यशाला में मंगलेश बड़े फॉर्म में थे. उनका उत्साह अपितु उल्लास देखते ही बनता था, और बीच-बीच में की गई उनकी टिप्पणियों में छलकता रहता था. रघुवीर जी की कविता में एक बार चालीस की उम्र का कोई पात्र आया तो मंगलेश तत्काल उनसे बोले, “Your favourite age!” कुंवर जी अपनी कविताओं के स्वयं अनुवाद किये हुए प्रारूप लाये थे जिन्हें पढ़ कर आम राय बनी कि वे तो पहले से ही काफी polished हैं. इस पर मंगलेश उमग कर बोले, “Let us depolish them!”
आखिरी दिन सभी लोगों को बारी-बारी से मौका मिला कि अब तक वाइसबोर्ट को जो आवश्यक बातें न बता-समझा पाए हों वे अब समझा दें. मंगलेश की बारी आयी तो उन्होंने कहा कि हिंदी में एक नई प्रवृत्ति उभरी है ऐसी कविता लिखने की जो भले ही गद्य जैसी लगे और छपे पर हो निश्चित ही कविता. वैसे पूरी कार्यशाला में बस दो ही कवि थे जो ऐसी गद्य कविताएँ ले कर आये थे, एक रघुवीर जी और दूसरे खुद मंगलेश.
रघुवीर जी का मंगलेश पर गहरा प्रभाव था और साफ़ दिखता था. (आज के कई होनहार कवियों पर शायद मंगलेश का प्रभाव भी कुछ उसी प्रकार लक्षित किया जा सके.) प्रभाव तो रघुवीर जी का अनेक कवियों पर था और बहुत से सामान्य पाठकों में भी उनके प्रति अगाध श्रद्धा-भाव था पर मंगलेश की विशेषता मुझे यह लगी कि बीच-बीच में वे रघुवीर जी से भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते थे! यह उनका स्वभाव था, उनकी तबीयत थी, उनकी अदम्य जीवन्तता का लक्षण था. हर बात में उनको हास-परिहास की सम्भावना सूझ जाती थी पर मजाक उड़ाने वाले अंदाज़ में नहीं, केवल मंद-मृदु खुश-मिजाजी के अंदाज़ में.
कार्यशाला में तो दसो कवि और दसो अनुवादक सभी कवियों की सभी कविताओं पर समान भाव से ध्यान देते रहे पर बाद में हर कवि के नाम एक अनुवादक कर दिया गया कि वे दोनों मिल कर उस कवि की कविताओं के अनुवाद का अंतिम प्रारूप तैयार करें. मुझे मिले रघुवीर जी, जो अवश्य ही उनसे पूछ कर तय किया गया होगा. इसी सिलसिले में उनके घर कई बार जाना हुआ, लम्बी बैठकें हुईं (तब तक वे “दिनमान” छोड़ चुके थे या “दिनमान” उन्हें छोड़ चुका था), पर उस सब का वृत्तान्त कभी और. फिलहाल यही पर्याप्त है कि इसी तरह मैं रघुवीर जी के यहाँ एक दिन जमा हुआ था कि मंगलेश आये. झुरमुटा हो आया था, चाय हम लोग पहले ही पी चुके थे, तो जल्दी ही मंगलेश ने अपने झोले से निकाल कर एक बोतल मेज़ पर रख दी. खनकते हुए गिलास आये, निरे अनुवाद परे खिसकाए गए, और कुछ ऐसी महफ़िल जमी जो बस दो ही लोग हों तो जम ही नहीं सकती या कुछ ग़मगीन होने लगती है.
इस तरह किसी प्रशंसक का बोतल के साथ आना मेरे लिए बिलकुल नया था. इलाहाबाद में जब कुछ इने-गिने वरिष्ठ प्रोफेसरों से बेतकल्लुफी हुई, खुद मेरे भी प्राध्यापक बनने के बाद, तो सब साज़-ओ सामान उन्हीं का रहता था. बाद में मैंने पाया कि दिल्ली में अन्य पढ़े-लिखे तबकों में भी यह प्रथा प्रचलित थी. इससे भी अजीब मुझे यह लगा कि जब रस-रन्जन हो चुकता तो जो भक्त बोतल लाया था वह उस आधी या तिहाई हो गयी बोतल को वापस लेकर कस-के ढक्कन लगा कर अपने घर ले जाता था. मैं तब तक दो खेपों में कुल-जमा सात साल इंग्लैंड रह आया था, “ब्रिंग ए बॉटल” वाली पार्टी देने के विधान से परिचित था जिसमें हर मेहमान एक वाइन की बोतल ले के आता है और फिर सभी बोतलें सामूहिक रूप से पी जाती हैं, पर उसका यह भारतीयकरण मेरे लिए नया था. (वैसे वहां भी सामान्यतः जो बुलाता है वही खिलाता-पिलाता है.) बाद में लगा कि ठीक ही है, क्या बुराई है, सभी की सुविधा है- वैसे न मैंने यह कभी किया न किसी को करने दिया.
उस शाम क्या बातें हुईं, यह सब क्या बताना. कार्यशाला के दौरान अनेक डिनर हुए तो हम सब एक दूसरे की पीने-खाने की सामर्थ्य आँक ही चुके थे. तो हम लोग जब रघुवीर जी के घर से अन्ततः निकले तो मंगलेश खासी मौज में थे. हम आठ ही दस क़दम चले थे तो वे रुक गए, हँसे, और बोले,
“आपने देखा, हरीश जी, चने-चबेने के नाम पर क्या निकाला?– बस चने ही चने!”
फिर हंसने लगे. उनकी श्रद्धा सच्ची थी पर अश्रु-विगलित कदापि नहीं थी. (प्रसंगतः, वे मुझे हमेशा ‘हरीश जी’ कहते रहे और मैं उनसे उम्र में एक साल एक महीने बड़े होने का फायदा उठाते हुए उन्हें ‘मंगलेश’ कहता रहा.)
तीसरा प्रसंग एक कविता-पाठ का है जो जनवरी 2010 में आयोजित हुआ. दिल्ली विश्वविद्यालय में आर्ट्स फैकल्टी का सबसे बड़ा कमरा, नंबर 22, भर चुका था, पर और भी भरे जा रहा था. (यह आयोजन अंग्रेजी विभाग के ही मेरे एक पूर्व छात्र श्री सच्चिदानंद का था जो अब अध्यापक हैं, और जो इतने उद्यमी और उत्साही हैं और इतना धाराप्रवाह बोलते हैं कि एक बार उन्होंने टीवी पर अर्नब गोस्वामी की भी घिग्घी बंधवा दी थी: “But…Ppprofessor! …Professor…!”)
कुंवर जी समय के पहले ही आ गए थे, पर मंगलेश पूरे एक घण्टे बाद आये. कुछ सफाई सी तो उन्होंने दी कि अखबार में ज़रूरी काम आ गया था पर क्षमा-याचना के स्वर में नहीं, कुछ इस तरह कि आप लोग समझते ही हैं कि अख़बारों का जीवन क्या होता है. खैर, कविता पाठ हुआ, पहले कुंवर जी द्वारा और फिर मंगलेश द्वारा, और सभी ने बड़े ध्यान और चाव से सुना.
जो बाद में अटपटा-सा प्रश्न पूछा गया वह एक अनाम छात्र द्वारा था. वह बोला:
“मंगलेश जी, क्या कारण है कि मैं आपकी कविताओं से कुछ उस तरह नहीं जुड़ पा रहा हूँ जैसे कुंवर नारायण जी की कविताओं से?”
मैं अध्यक्ष था, दोनों कवियों के बीच बैठा था, तो पहले तो मन में आया कि कुछ मज़ाकिया सा कह कर मैं खुद ही उस प्रश्न को टाल दूं. फिर मन में लोभ जागा कि देखें मंगलेश कहते क्या हैं, बात बढ़ेगी तो बाद में तो टाल या रोक सकता ही हूँ. मंगलेश थोड़ा अचकचाये, उनकी हकलाहट कुछ बढ़ी, और फिर मुस्कराते हुए बोले:
“मुझे कुछ समय दीजिये! कुंवर जी सीनियर हैं, मुझे भी वहां तक पहुँचने दीजिये.”
लोग हँसे, तो वे स्वर बदल कर गंभीरता से बोले:
“वैसे मैं खुद भी कुंवर जी की कविताओं से जिस प्रकार जुड़ पाता हूँ उस तरह अपनी कविताओं से भी नहीं.”
मैं चकित रह गया, कि यह हुई सच्ची विनम्रता. सभा-विसर्जन के बाद हम लोग नीचे उतरे तो कुंवर जी की पत्नी भारती जी ने मंगलेश से कहा,
“वैसे मैं तो जितना आपकी कविताओं से जुड़ पाती हूँ उतना इनकी कविताओं से नहीं.”
और लगा कि यह केवल लखनवी अंदाज़ नहीं था. यह तय हुआ था कि कुंवर जी, भारती जी और मंगलेश मेरे साथ घर आयेंगे जो कैंपस में ही था, पर मंगलेश हड़बड़ी में थे, उन्हें तुरंत दफ्तर लौटना था. बाकी हम सभी बैठ कर कुछ देर तक मंगलेश की ही बात करते रहे.
मंगलेश में कुछ महीन चुहल करने की प्रवृत्ति थी. एक बार प्रेस क्लब में जो नीचे दो बड़े कमरे हैं उनमें एक में कुछ मित्रों के साथ मैं बैठा हुआ था और पाया कि दूसरे कमरें में उसी तरह मंगलेश बैठे हैं. (दोनों कमरों के बीच के दरवाजे खुले रहते हैं.) छोटा-सा मौन संभाषण हुआ यानी दुआ-सलाम, फिर जब मैं घण्टे डेढ़-घण्टे बाद चलने लगा तो वे भागते आये और हँसते हुए बोले,
“हरीश जी, मैं आपकी प्रत्येक मुख-मुद्रा, हस्त-संचालन, और हाव-भाव दूर से देख रहा था!”
मैं भी हँसा क्योंकि मुझे पता है कि मेरी बॉडी-लैंग्वेज (या अवयव-अभिव्यक्ति!) कुछ अवसरों पर अधिक ही मुखर हो उठती है. मैंने पूछा:
“तो क्या निष्कर्ष निकला?” वे हँसे और बोले, “वह अभी तो गोपनीय ही रहेगा.”
उनसे कुछ मतान्तर एक ही बार हुआ. खबर मिली कि वे भूल से या अज्ञानवश किसी ऐसे मंच से बोल आये थे जो उनके कुछ मित्रों को खरी वामपंथी विचारधारा की दृष्टि से नागवार था तो उन्होंने उनसे या सबसे माफी मांगी. अगली बार जब मिले तो मैंने कहा:
“वहाँ चले गए और बोले तो अच्छा ही किया, उन लोगों पर कुछ असर पड़ा होगा, उनको कुछ अकल आई होगी. पर यह नयी छुआ-छूत क्यों चला रहे हैं आप लोग?”
वे चुप रहे और फिर खिन्न स्वर में बोले, “हरीश जी, आप जानते नहीं वे लोग कितने नीच हैं.”
जब नामवर जी का 90 वर्ष के होने पर एक अ-वामपंथी संस्था द्वारा सम्मान हुआ तो मंगलेश ने लिखा: “ॐ नमो नामवराय!” उनका प्रतिरोधी स्वर समय के साथ-साथ और सख्त होता चला गया जो शायद हमारे बदलते हुए समय की दरकार थी, या उन्हीं के अन्दर घुमड़ती हताशा. उनका वह पुराना खिलंदड़ा उत्साह सूख सा गया था, उनका पहाड़ी कलरव करता स्नेह-निर्झर बह तो नहीं गया था पर शायद बस सोते के बराबर रह गया था. उम्र के साथ शायद सब के साथ होता है.
कृतियाँ
मंगलेश का लिखा सब तो मैंने नहीं पढ़ा है पर अधिकांश पढ़ा है और एक से अधिक बार. उनकी कई सौ कविताओं में शायद बीस-तीस ही होंगी जिन्हें अधपकी या मामूली कहा जा सके. पर यहाँ मैं एक ऐसी पुस्तक का ज़िक्र करूंगा जो मुझे उनकी “सेल्फी” या आत्म-चित्रित छवि सी लगती है (self-portrait), और फिर एक कविता का, जिसका अर्थ मैं समझते-समझते रह जाता हूँ.
यह आत्म-चित्रण है उनका अपनी पहली विदेश-यात्रा का वृत्तान्त, एक बार आयोवा. यह कई वर्ष पहले की पतली-सी किताब है, 1996 की छपी; मेरी प्रति में उन्होंने लिखा है “प्रिय हरीश जी के लिए, विलम्ब से पर प्रेम के साथ,” और तिथि है 12 मार्च 97. उनकी कवि के रूप में बाद में बढ़ती ख्याति से यह पुस्तक कुछ दब सी गयी है और जब मंगलेश के कृतित्व का आकलन होता है तो इसका ज़िक्र कम ही आता है.
पर यह किताब मुझे बहुत प्रिय है. यह उनकी डायरी पर आधारित है तो इसमें सहज निश्छल आत्मीयता है, बेबाक खुलापन है अपने बारे में और सभी और लोगों और चीज़ों के बारे में भी, और यदि एक हद तक आत्म-निरूपण व आत्मोद्घाटन है तो उतना ही आत्म-विवेचन, आत्म-विश्लेषण और यदा-कदा आत्म-ग्लानि भी है. और इस सब पर हलकी परत है व्यंग्य-विनोद की, जिसके निशाने पर जितना कोई या कुछ और है उतने ही वे स्वयं खुद भी हैं. उनका स्वर भर्त्सना का कम और मनोरंजन या विडम्बना का अधिक है, यानी wit अवश्य है पर उससे बढ़ कर humour है. तो उनके लेखन में यहाँ चटनी का चटपटा स्वाद नहीं आता बल्कि चाशनी की पतली परत की मिठास लगती है.
आकर्षण का एक और कारण है मंगलेश की कुछ भोली-भाली दृष्टि और अंदाज़, जैसे कि टेहरी गढ़वाल के काफलपानी गाँव के किसी नवयुवक को सीधे पैराशूट से अमेरिका में उतार दिया गया हो. इतनी सारी चीज़ें हैं जो उनके लिए अजीब या अजूबा हैं, पर वे यह सब देख कर आक्रांत, चकित या प्रभावित नहीं हैं, बल्कि उस पर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देते हैं. जैसे:
“अमेरिकियों को देख कर कुछ-कुछ अपने यहाँ के जाटों की याद आती है.” (वैसे अब शायद यह कोई कह नहीं सकता, कि अमेरिकियों को तो जाने दीजिये, कहीं हमारे जाट भाई बुरा न मान जाएँ.) या फिर:
“अमेरिकन फुटबॉल अपने आप में एक बुरी छीनाझपटी, उजड्डता, बर्बरता और शारीरिक बल-प्रदर्शन का अदर्शनीय-सा खेल है.”
मंगलेश के इस प्रकार के आविष्कारों और प्रतिक्रियायों से दो और पुस्तकों की याद आती है, एक तो अमेरिकन लेखक Mark Twain का यूरोप का यात्रा-वृत्तान्त जिसका शीर्षक है The Innocents Abroad (1869), और दूसरे अनुराग माथुर का उपन्यास The Inscrutable Americans (1991; हिंदी अनुवाद में शीर्षक है, उफ़, ये अमेरिकन!). पर पहली पुस्तक में एक अमेरिकन अपने भोलेपन के मुखौटे के पीछे से यूरोप की प्राचीन सभ्यता का मजाक उड़ा रहा है, और दूसरी में अमेरिका जाने वाला उपन्यास का नायक तो भोला है पर उपन्यासकार स्वयं चतुर-सुजान है और वह इस भोलेपन की निर्मिति का कलात्मक प्रयोग कर रहा है. मंगलेश के यहाँ पुस्तक का नायक और लेखक एक ही व्यक्ति हैं, तो उनका भोलापन गढ़ा हुआ नहीं है, भले कहीं-कहीं कुछ अतिरंजित अवश्य हो. मज़ा यह कि वे समझते तो अपने को चतुर-सुजान हैं पर उस झीने आवरण के पीछे उनका सरल स्वभाव झलकता रहता है.
तो एक बार आयोवा में स्थिति कुछ यूं बनती दिखती है कि एक ओर तो है दुनिया का महानतम या कम से कम बलिष्ठतम देश, जो हाल में ही सोवियत संघ के विघटन और शीत-युद्ध में विजय के बाद पूरे विश्व में लगभग एकछत्र वर्चस्व का अधिकारी बन गया है, और दूसरी ओर हैं हमारे अकेले, निःशस्त्र, पर बहादुर, अदम्य और बुलंद हौसले वाले मंगलेश: रावन रथी बिरथ रघुबीरा. यह सभ्यताओं की टक्कर तो नहीं है और न मंगलेश द्वारा अमेरिका की विधिवत सभ्यता-समीक्षा, पर इन दोनों के तत्त्व इस पुस्तक में यहाँ-वहाँ अवश्य विद्यमान हैं. उनके मन में विचारधारा-गत शंका व पूर्वग्रह तो अमेरिका के विरुद्ध पहले से था ही जो हम सब में कुछ न कुछ रहता है, चाहे धुर वामपंथी किस्म का या चाहे उत्तर-उपनिवेशवादी. यहाँ मुकाबला बराबरी का नहीं है बल्कि कुछ कृष्ण और पूतना वाली स्थिति है या David और Goliath वाली, तो पाठक का पूरा समर्थन तो मंगलेश के साथ है ही.
पर जल्दी ही स्थिति बदलती है. बस हफ्ते-दस दिन नहीं पर डेढ़-दो माह के प्रवास के लिए आयोवा आये हुए मंगलेश के वहां मित्र बनने लगते हैं जो अधिकतर और देशों के आये हुए कवि हैं, जो सभी उसी Writer’s Program में भाग लेने आये हैं. डैनियल वाइसबोर्ट तो वहां हैं ही जिनकी पहल पर मंगलेश आमंत्रित हुए हैं, क्रिस्टी मेरिल नाम की एक हिंदी सीख रही छात्रा से वार्त्तालाप होते रहते हैं, और कोरिया की एक कवयित्री के प्रति मंगलेश का विशेष आकर्षण जागता है. वे अब पार्टियों में जाते हैं तो महिलाओं का हाथ देख कर उनका भूत और भविष्य बताने लगते हैं. शास्त्रीय संगीत सुनाते हैं तो मन्द्र सप्तक का स्वर सुन कर इनसे श्रोता-गण “मुक़र्रर” की फरमाइश करते हैं और दो महिलायें तो उन्हें अपने गालों पर चुम्बन लेने का निमंत्रण देती है जो वह सहज भाव से स्वीकार करते हैं.
एक अंग्रेजी कविता की बहु-उद्धृत पंक्ति है, “those who came to scoff remained to pray” यानी आये थे खिल्ली उड़ाने और बन के रह गए मुरीद. यह तो नहीं होता मंगलेश के साथ पर उनका मन वहाँ इतना रम अवश्य जाता है कि लौटने का समय आने पर कुछ टीस उठे. अर्थात इस पुस्तक के प्लाट या कथाक्रम में भी पर्याप्त विपर्यय है जो इस पूरे प्रसंग को अधिक रोचक व मार्मिक बनाता है. मंगलेश ने आत्मकथा तो लिखी नहीं, तो यह पुस्तक ही उनके व्यक्तित्व व स्वभाव को जानने का उत्तम उपाय है, विशेषतः उन पाठकों के लिए जिन्हें उनको व्यक्तिगत रूप से जानने का अवसर नहीं मिला.
एक विशेषता इस पुस्तक की और है, कि कई स्थानों पर इसका गद्य स्पष्ट ही एक कवि का गद्य है. (गद्य-कविता की जो हिमायत उस अनुवाद कार्यशाला में उन्होंने की थी उसी का शायद यह एक और रूप है.) एक दिन वे दूर तक टहलते चले जाते हैं एक शांत नदी के किनारे-किनारे जो उन्हें लगता है कि ऐसी बच्ची है जिसने अभी बोलना नहीं सीखा. विश्वविद्यालय की बड़ी इमारत के पीछे कई सीढियां हैं
“जहां जब कोई नहीं बैठता तो एक खामोशी जैसी बैठी दिखती है.” मंगलेश की वहीं लिखी कुछ कविताओं के आरंभिक प्रारूप भी यहाँ दर्ज हैं.
“एक पत्ता पेड़ पर ज़रा सा अटका रहता है/…भाषा में ज़रा-सा अटकी रहती है कविता.”
कहीं-कहीं और कवियों के उद्धरण हैं जो अनायास उनके मन में तैरते चले आये हैं जिनमें यह वाला पढ़ कर शायद उनके कुछ पाठक चौंके भी: “सकल करम करि थकेहुँ गोसाईं.” और कवि-संकुल उस जमावड़े में, उस कवितामय माहौल में, मंगलेश को कवि-कर्म और कवि के समाज में स्थान और दायित्व के बारे में भी सोचने का मन होता है. एक लम्बा प्रसंग है लगभग ढाई पृष्ठों का जो शुरू होता है “कवि होना क्या है?” और समाप्त होता है इस चिंता से कि समाज में कविता का स्थान कितना छोटा और विपन्न है:
“क्या यह सारी मह़ाकविता (इस) महापृथ्वी में” कुछ वैसे ही नहीं रहती “जैसे बड़े शहरों में झुग्गी बस्तियाँ रहती हैं?” कवि का यह उद्वेग और उनकी आकुलता पाठक को भी झकझोरती है.
मंगलेश के साथ मैं भी आयोवा में अधिक रम गया तो दूसरे पाठ वाली उस प्रिय कविता के लिए अब अधिक जगह नहीं बची. छोटी ही है तो पूरी उद्धृत कर देता हूँ. शीर्षक है “बाहर”.
मैंने दरवाज़े बंद किए
और कविता लिखने बैठा
बाहर हवा चल रही थी
हल्की रोशनी थी
बारिश में एक साइकिल खड़ी थी
एक बच्चा घर लौट रहा था
मैंने कविता लिखी
जिसमें हवा नहीं थी बच्चा नहीं था
दरवाज़े नहीं थे.
पढ़ते ही स्पष्ट हो जाता है कि बड़े विषय पर यह बड़ी कविता है. इसको जब-जब पढ़ता हूँ तो मन में एक नया समीकरण बनता है इसके कई घटकों के अन्तर्सम्बंध को लेकर: बाहर और भीतर के बीच, कवि के पूर्व-संकल्प और लिखी जाती और कुछ और ही बनती जाती कविता के बीच, समाज और एकांत के बीच, जीवन और कला के बीच– और अंत में बाहर और अन्दर को अलगाने वाला दरवाज़ा ही मिट जाना, जो पहले जतन से बंद किया गया था, तो चमत्कार है. पाठक के मन में यह सब सोचने की जगह बनाये इससे बढ़ कर कोई अच्छी कविता और क्या कर सकती है.
अन्त में
मंगलेश से आखिरी मुलाक़ात हुई 9 मार्च 2019 को, कोरोना आने के एक साल पहले, और तिथि इसलिए ठीक याद है कि एक साहित्यिक अवसर था. कुछ शुरू में और फिर बाद में चाय-पानी पर आराम से बात करने का अवकाश मिला. निर्मल जी के जाने के बाद एक लम्बी मौन-साधना से निकलने पर गगन गिल की तीन पुस्तकें एक साथ आयीं, जिनमें एक का शीर्षक ही था मैं जब तक आयी बाहर, और उनके लोकार्पण व परिचर्चा समारोह के निमंत्रण-पत्र में दी गयी वक्ताओं की सूची थी:
“हरीश त्रिवेदी, मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल, सुकृता पॉल कुमार”.
देखकर क्रम तो खटका पर यह अच्छा लगा कि पचास साल से साथ चले रहे हम तीन हमराही फिर एक साथ कन्धे से कन्धा मिला कर एक ही मंच पर बैठेंगे. किसे पता था कि बाद में तो आवाजाही ही बंद हो जाएगी और मंगलेश से गपियाने का यह अंतिम अवसर सिद्ध होगा.
उनसे अंतिम बातचीत सितम्बर 2020 के आखिरी दिनों में हुई, उनके जाने के दो-तीन महीने पहले. मैंने अन्यत्र भी लिखा है कि एक मित्र-सम्पादक के आग्रह पर मैंने अंग्रेजी और हिंदी दोनों में कोरोना पर दो-दो कवितायेँ लिखीं (छात्र जीवन के बाद पहली बार ऐसी हरकत), और हिंदी की एक कविता में अनायास रघुवीर जी की एक कविता-पंक्ति की ध्वनि आ गयी. जब यह भान हुआ तो वह कविता तो याद आई, और छोटी-सी कविता है तो लगभग पूरी-ही याद आ गयी, पर उसका शीर्षक या किस संग्रह में है यह तुरंत याद नहीं आया. किस से पूछूं यह सोचने पर मंगलेश का नाम ही सबसे पहले ध्यान में आया. फ़ोन किया तो वे बोले, “हरीश जी, पांच मिनट का समय दीजिये, अभी देख कर बताता हूँ.” दो ही तीन मिनट में फ़ोन आया कि कविता का नाम है “बचे रहो” और यह हँसो हँसो जल्दी हँसो में है.
उनका अंतिम स्पर्श यही था– this is the last time we were in touch. रघुवीर जी निमित्त बने यह मात्र संयोग नहीं था, लगता है कि यह सर्वथा समीचीन भी था क्योंकि वे मंगलेश के आराध्य कवि थे और मेरे प्रिय अनुवाद्य कवि. पिछले वर्ष डेढ़-वर्ष में मेरे कई निकट के मित्र नहीं रहे, कोरोना से या अन्य कारणों से भी, जिनमें अधिकतर मुझसे उम्र में बड़े थे: साहित्यिक मित्रों में जैसे कपिला वात्स्यायन, शम्सुर्रहमान फारूकी और शमीम हनफ़ी. पर मंगलेश तो मुझसे छोटे थे. तेरह महीने छोटे थे पर कम से कम तेरह साल छोटे लगते थे. हमारी भारतीय परंपरा में जहां वरिष्ठ होने के इतने फायदे हैं तो शायद दायित्व भी बनता है कि आप पहले जाएँ. इसमें व्यतिक्रम हो जाये तो उसकी कचोट अलग ही सालती है. मंगलेश को कोरोना हुआ और वे बचे नहीं रहे, बाद में मुझे भी हुआ और मैं बचा हुआ हूँ.
हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
रुचिकर संस्मरण यथार्थ को उकेरता हुआ।
हरीश जी की उपस्थिति का वैश्विक आयाम है।यह उन्हें अंग्रेजी आलोचना में मौलिक योगदान के नाते हासिल है। बावजूद इसके हिंदी के घर में वे जिस सहजता और विनम्रता से दाखिल होते हैं वह प्रणम्य है।
बहुत सुन्दर। हरीश जी ही ऐसा लिख सकते हैं।मंगलेश जी से जुड़ी बहुतेरी बातें ताजा हुई।एक ही बैठक मे पढ गया।
यह संस्मरण अपनी काव्यात्मकता के लिए भी याद रहेगा। आत्मीयता की स्मृति इसमें सुगंध की तरह फैली है। बाद में असमय बिछोह की एक मद्धिम कराह इसे संपूयहर्ण कर देती है।
संपूर्ण
हरीश जी को पढ़ना और सुनना एक प्रकार का सम्मोहन पैदा करता है।
बातचीत व्यक्तिगत हो या सार्वजनिक मंच पर, उनकी शालीनता हमारे लिए अनुकरणीय है।
भारत में आम तौर पर अंग्रेज़ी में लिखनेवाले विद्वान भारतीय भाषाओं के हो रहे लेखन से या तो अपरिचित हैं या नावाकिफ होने का ढोंग करते हैं।
हरीश जी की खूबी यह है कि वे न केवल हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता हैं,बल्कि उसके अनुवादक और व्याख्याता भी।
मंगलेश जी पर उनका यह संस्मरण ग़ैरकादमिक और आत्मीय है जो सीधे सीधे पाठक में दिल में उतर जाता है।
साधुवाद।
मंगलेश जी पर अबतक लिखे गये कुछ अत्यंत सुंदर एवं साहित्यक दृष्टि से उत्कृष्ट संस्मरणों में यह भी एक है।उनके व्यक्तित्व, कृतित्व एवं कवि-हृदय को समझने में काफी कुछ मददगार। हरीश जी ने उन्हें आत्मीयता से याद करते हुए उनकी काव्य संवेदना को भी छुआ और टटोला है। उन्हें साधुवाद !💝
Lyrical prose …आख़िरी paragraph ख़ास तौर पर बहुत मार्मिक है …
– ‘विलम्ब से पर प्रेम के साथ’ …किताब की प्रति पर इतनी धीरज वाली पंक्ति मंगलेश जी ही लिख सकते थे …
वाह! कमाल का संस्मरण। भाषा का सम्मोहन सा रच दिया है हरीश जी ने।
हरीश त्रिवेदी जी को जानता हूँ लेकिन वे भी मुझे जानते हों ऐसा परिचय नहीं है। मंगलेश जी और उनके बहाने हिन्दी जगत पर बहुत जुड़ाव के साथ लिखा है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा है। मंगलेश जी से मेरा भी बहुत पुराना परिचय रहा है। सबसे पहले थोड़े कायदे की उनसे भेंट दयानंद कालोनी, नई दिल्ली वाले कवि शमशेर बहादुर सिंह जी के घर पर हुई थी। शमशेर जी उन दिनों मेरे पहले कविता-संग्रह ‘रास्ते के बीच ‘ के लिए कविताओं का चयन कर रहे थे। शायद 1976 की बात है। मंगलेश जी शमशेर को बहुत मानते थे ।बाद में तो बहुत बार मिलना हुआ। हम कुछ संस्थाओं की समितियों में एक साथ सदस्य रहे। उन्होंने मेरी रचनाओं को बहुत बार बहुत अच्छे से प्रकाशित किया। मेरे द्वारा अनूदित कोरियाई कविताओं के संग्रह ‘कोरियाई कविता यात्रा’ ( साहित्य अकादेमी के द्वारा प्रकाशित) पर शानदार लेख लिखा। अपना कविता-संग्रह भेंट किया।
मंगलेश डबराल के मुख की मंद-मंद मुस्कान आज भी मेरे सामने जीवंत है।
बहुत-बहुत याद आ रहा है।
–दिविक रमेश
मंगलेश जी पर उनके जीवन व्यक्तित्व और साहित्य के अनेक आयामों को समेटता संस्मरणात्मक लेख। केवल संस्मरणात्मक ही नहीं विचार परक भी। उनकी एक बार आयोवा पुस्तक मुझे भी बहुत पसंद है। इस आलेख में हरीश जी ने बड़े आत्मीय ढंग से मंगलेश जी को समझने की अन्तर्दृष्टि यां दे दी हैं। समालोचन की यह उपलब्धि है। पढवाने के लिए लेखक और संपादक दोनों का आभार।
हरिमोहन शर्मा
हरीश जी की अपनी सहजता के साथ लिखा गया विशिष्ट संस्मरण
बहुत समय बाद मंगलेश जी से एक जीवंत मुलाकात। जिंदादिली से भरपूर। धन्यवाद भाई हरीश त्रिवेदी जी।…यह स्मरणीय सामग्री देने के लिए भाई अरुण जी और समालोचन का भी आभार।
स्नेह,
प्रकाश मनु
हरीश त्रिवेदी का मंगलेश डबराल पर यह आत्मीय संस्मरण पढ़कर समृद्ध हुआ। हरीश जी को बधाई।
कितनी आत्मीयता से लिखा है हरीश जी ने। भाषा को बरतने का अंदाज और भी मोहक।एक भी गैर जरूरी शब्द नहीं,एकदम पछोरे -फटके चावल माफिक।
बहुत सुंदर | पढ़कर समृद्ध हुआ |