स्मृतियां काल के घमंड को तोड़ती हैंअखिलेश |
स्कूल में बच्चों से सवाल किया जाता है, “बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ?” ज्यादातर बच्चे मुश्किल में नहीं पड़ते; वे जल्द ही बता देते है: डॉक्टर, उद्योगपति, इंजीनियर, क्रिकेटर, फिल्म स्टार, गायक, जासूस, पायलट, सैनिक आदि. कालांतर में कोई अपना चाहा बन जाता है, किसी की मंजिल दूसरी हो जाती है, कुछ अपनी मंजिल का रास्ता भटक जाते हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि बच्चों के उत्तरों में स्वप्न और काल्पनिकता अधिक रहती है; उनके ये जवाब व्यवहार और यथार्थ के धरातल पर नहीं टिके होते हैं.
यूं रोजमर्रापन की बातों जैसे मेरा नाम यह है, मैं वहां गया या यह खाया वह पिया आदि से अलहदा देखा जाए तो संसार के हर उत्तर में सपना, कल्पना, गढ़ंत, गल्प, मनमानीपन में से कोई न कोई यथार्थ से जुदा तत्व जरूर रहता है. ऐसा सवालों के बारे में नहीं कहा जा सकता. वे अमूमन ठोस और यथार्थवादी होते है. उनमें विचार और कल्पना की उड़ान के लिए पंख नहीं होते. तो क्या उत्तर की तुलना में प्रश्न कमतर होता है ? शायद हां या शायद नहीं; क्योंकि एक अभिधात्मक और गद्यात्मक शक्ल वाला प्रश्न अंततः संश्लिष्ट और काव्यात्मक जवाब का जन्मदाता है. यही कारण होगा, दुनिया की महान कलात्मक, जटिल, अर्थगर्भा कविताओं, शायरी और आख्यानों की निर्मिति में किसी न किसी दोटूक सवाल का बल निहित रहता है.
बचपन ही नहीं, बड़े होने पर भी सवाल घेरे रहते हैं. जब हम अधिक बड़े हो जाते हैं, मृत्यु के मुहाने तक बढ़ आते हैं, तब भी प्रश्न पीछा नहीं छोड़ते. बहुत सारे सामाजिक, दुनियावी, व्यक्तिगत जिन्दगी के प्रश्नों के अतिरिक्त खुद अपने से किये गए सवालों की बौछारें पड़ती रहती हैं. जीवन के उत्तरार्ध में अपने से पूछे जाने वाले इन सवालों में कुछ ऐसे होते हैं जिनमें प्रश्न से अधिक पछतावा रहता हैं, आत्म धिक्कार होता है. यहां पर पूर्वज कवि मुक्तिबोध की विख्यात कविता अंधेरे में की निम्नांकित पंक्तियां उद्धृत करने की इच्छा हो रही है:
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!!
जरा ठहरकर मैं दूसरी मनःस्थिति को भी रखना चाहता हूं : जब इन्सान जिंदगी के अंत की ढलान उतरने लगता है तब वह सिर्फ गुजर गए को धिक्कारता ही नहीं है, उसे अपने जिए गए जीवन पर बहुत प्यार भी उमड़ता है. उसके पछतावे की पृष्ठभूमि में यह भी रहता है कि वह दुःख सुख भरा जो भी इतना अपना था, अब छूट गया है; ऐसा छूटा है कि अब आगे नहीं मिलने वाला है. वैसे भी क्या मिलना जब मृत्यु जल्दी आने वाली है. वह वक्त दूर नहीं है जब हम नहीं रहेंगे; यह संसार, यह पृथ्वी यह आकाश, ये नदियां, समुद्र, वृक्ष, पक्षी, यह चर अचर सृष्टि रहेगी किन्तु मैं नहीं रहूंगा. तब उसमें आत्मधिक्कार का भाव भी जन्मता है कि मुझको कैसे सुन्दर ढंग से जीना था, अपने लिए अपनों के लिए खुशियां बटोरनी थीं, जीवन में रंग और छाप भरना था किन्तु मैंने अवसर का उपयोग नहीं किया. आलस्य में, मद में, बेवकूफी में मौका गवां दिया.
हम ही नहीं खुद को धिक्कारते हैं; हमारी आत्मा के पटल पर बहुत से अपने भी प्रकट होकर शिकायत दर्ज करते हैं; मुक्तिबोध की तरह सुनाते हैं : बहुत बहुत ज्यादा लिया, दिया बहुत बहुत कम. तुमने मुझे दुखी किया, मुझे इज्जत नहीं दी, प्यार नहीं किया, अपनाया नहीं. हमारे लोग, हमारे शहर, हमारे गांव सब शिकायतों से भरे हुए हैं; तब लगता है कि ओह कितनी भूल हुई. चूक गए हम. जरा सा और खर्च कर देते, जरा सा कष्ट सह लेते, थोड़ा सा समय निकालते; पिता, मां, भाई, बहनें, दोस्त, रिश्तेदार, समस्त परिचितों के जीवन में शामिल होते; उनको अपने में ले आते.
आज सोचता हूं; पछताता हूं: पिता इस दुनिया में नहीं हैं मगर मैं अपने एकांत में उनसे अक्सर संवाद करता हूं; संवाद क्या करता हूं, माफ़ी मांगा करता हूं; काश मैं उनके जीवित रहते ज्यादा बातचीत कर पाया होता. वह अधिक नहीं बोलते थे तो क्या हुआ, मैं ही बोलता, उनको हंसाता, उनसे उनके पुराने जीवन के बारे में सवाल करता. वह निश्चय ही बताते अपने बचपन के बारे में, अपने स्कूल के बारे में, अपने शौक पसंद स्वाद के बारे में. वह अपने अनुभवों और अहसासों को कहां मुझसे ठीक से कह सके. न जाने कितने किस्से, लतीफे, हिदायतें और आपबीती के पृष्ठ बगैर अभिव्यक्त हुए विदा हो गए. ठीक है कि उनको यात्राओं से खास प्रेम नहीं था लेकिन यदि मैं अनायास ही एक बार उनको हवाई सफ़र करा देता तो वह उनके लिए यादगार बन जाता. वह ताजिंदगी उसके बारे में सोचते और खुश होते.
और वह देखो, मेरा गांव, सुल्तानपुर जनपद का गांव मलिकपुर नोनरा, मुझसे नाराज हो रहा है: तुमने बिसरा ही दिया मुझको. बचपन में छुट्टियों में तुम आते थे. भूल गए उन आम वृक्षों को; जामुन, बेर, रसभरी, करौंदे के पेड़ों को. हमारे तालाब और खेतों को. तुमने बहुत दिनों तक यहां का अन्न खाया है; यहां के कूप का पानी पीया है, खेले कूदे हो, झूला झूले हो, मेला घूमे हो लेकिन तुम हृदयहीन निकले और मुझको मेरे हाल पर छोड़ गए.
मेरा क़स्बा कादीपुर और शहर सुल्तानपुर भी कौन खुश हैं. दोनों अलग-अलग कहते हैं: ठीक है कि तुमको मुझसे बे इंतिहा प्यार है लेकिन यह प्यार केवल कागजी रह गया है. केवल लेखन में मुझसे अपने प्यार की डींग मारते हो. लखनऊ से अधिक दूरी पर नहीं हूं मैं लेकिन मेरे पास आने की जरूरत नहीं तुमको.
मैं छटपटाता हूं: नहीं मेरे सुल्तानपुर, मेरे क़स्बे कादीपुर, मेरे गांव और मेरे प्रिय इलाहाबाद, मेरे परिवार के लोगों, मेरे दोस्तों, मेरे जीवन में आये समस्त जन मैं आप सबको याद करता रहता हूं. आप सब मेरा जीवद्रव्य हो. आपके बिना मेरी एक भी सांस नहीं. दोष देना हो तो मेरे आलस्य को दो और उस आपाधापी को दो जिसने आप से भौतिक रूप से दूर रखा. आप से ही नहीं, मैं उनके भी कहां नजदीक हूं जो बिल्कुल मेरे पास हैं. मैं सदैव आने वाले वक्त की फिक्र करता रहा; बीते कल और बीत रहे आज के वक्त में जिन्होंने मुझे बनाया, गढ़ा, हमेशा साथ दिया है उनकी दहलीज पर जाने से कन्नी काटता रहा हूं. यह अलग बात है कि मेरी इतनी गुस्ताखियों के बावजूद सब मेरे साथ में हैं, मेरी स्मृति में हैं. मेरे दिमाग के द्वार खोलकर अक्सर प्रवेश कर जाते हैं. तब मैं दो हो जाता हूं; एक जो इस समय हूं और दूसरा जो बचपन में था, कैशोर्य और यौवन में था. उस दूसरे ‘मैं’ को देखता हूं; उसको छूना चाहता हूं, उसके गले लगना चाहता हूं लेकिन वह आगे बढ़ जाता है. जैसे मैं अपने से ही विलग हो गया हूं. मैं भीड़ में छूट गया हूं और मैं ही ढूंढ रहा हूं. अनगिनत दृश्य, आवाजें, स्वाद, गतियां और ठहराव. . . न जाने क्या-क्या अभी तो था और अभी नहीं है. मुझे महसूस होता है यह स्वप्न है; महसूस होता है यथार्थ है.
असंख्य सारे होंगे जिनके ह्रदय और मस्तिष्क में करीब-करीब ऐसा ही मंथन चलता होगा. इस मंथन से सुख और पीड़ा का क्रमशः अमृत और विष निकलता है. विष इस अर्थ में कि जो बिछुड़ जाने किन्तु भुला न पाने की पीड़ा है वह चैन से रहने नहीं देती है; एक अशांति, एक बेकली अपनी गिरफ्त कसती रहती है. यह अमृत इसलिए है कि वे वक्त वे जगहें वे लोग, वे वाकये जिनसे हम दूर जा गिरे हैं, उन सबका स्मृति में रूपांतरण हो जाता है. दूर जा चुके का स्मृति में रूपांतरण वह संबल है जिसके तहत मनुष्य वर्तमान और भविष्य का मुकाबला करता है. स्मृति के होने से यह लगता है कि जीवन निरंतर है. मनुष्य तो काल से अंततः परास्त हो जाता है; चाहें जितना हम कहें, काल तुझसे होड़ मेरी, किन्तु एक रोज यह काव्यात्मक पद कमजोर पड़ता है; इन्सान काल का निवाला बन जाता है. मनुष्य भले नहीं मगर मनुष्य की स्मृतियां काल को टक्कर देती हैं; महज इतना ही नहीं वे काल के घमंड को तोड़ती हैं. जिस प्रिय के प्राण का काल ने हरण कर लिया था वह स्मृति में अनंतकाल तक सजीव रहेगा. वाकई एक याद अनगिनत काल से ज्यादा की शक्ति रखती है. मेरे जो अपने अब पृथ्वी पर नहीं रहे, मेरी याद में अपने बीते दृश्यों के साथ रचेबसे हैं. इस बात को जिन्दा रहने और न रहने से इतर भी देखना चाहिए. जो उपस्थित है, समय के साथ-साथ उसके रूप, विचार, रहनसहन, खानपान, उत्साह और सुस्ती सब कुछ में बदलाव होता रहा है; उसका एक समूचा संस्करण ख़त्म होने के बाद नया आ गया है लेकिन स्मृति उस ख़त्म हुए को दुबारा जीवित कर देती है. उसकी अमृतवर्षा से भीगने के पश्चात श्मशान नखलिस्तान बन जाता है. जो बियाबान था वहां मेला लग जाता है. हम ही नहीं परिवर्तित होते हैं, हमारा परिवेश भी बदलता रहता है.
मेरे बचपन, यौवन की जगहें भौतिक रूप से मटियामेट कर दी गयी हैं लेकिन किसी में इतनी ताकत नहीं है कि उनको नेस्तनाबूद कर सके. मेरे गुजरे ज़माने का क़स्बा कादीपुर, मेरा गांव, मेरी आत्मा सुल्तानपुर तुम अभी भी अपनी उसी पुरानी सुन्दरता और चारुता के साथ मेरे स्मृति संसार में हो. लखनऊ के खूबसूरत हजरतगंज, महाबली बाजार ने तुम्हारी धजा बदल दी, अजीज दोस्त काफी हाउस पूरा जमाना तुम्हारा दुश्मन हो गया है, प्यारे इलाहाबाद सरकार द्वारा तुम्हारा तो नाम भी बदल दिया गया, और मेरे ह्रदय सुल्तानपुर तुम्हारा भी नाम भी बदले जाने की कोशिश हो रही है. सत्ता के वे लोग अपने मंसूबे में कामयाब हो रहे हैं; उनको गुमान हो गया है कि पूरे देश की पहिचान बदल देंगे लेकिन उस पहिचान को कैसे अपहृत कर सकेंगे जो असंख्य जन के अन्तःस्थल में अंकित है. यहां पर तो महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल भी अंकित हैं. मैंने तो इन्हें देखा भी नहीं है पर ये भी मेरी स्मृति का हिस्सा हैं.
नेहरू जी की शेरवानी, उनका गुलाब, उनके विचार हममें चलते फिरते रहते हैं; गाँधी बाबा मेरे सामने चरखा से सूत कातते हैं, मैं उनकी तकली को छूता हूं. वह देखो वह लाठी बढ़ाते हुए दांडी मार्च पर निकले हैं और वह जेल में हैं और अभी-अभी वह हिन्द स्वराज लिख रहे हैं. करो या मरो का नारा कौन दे रहा है ? वही जिसको गोली मारी गयी और मरने के वक्त जो हे राम कह रहा है. यह सब कुछ मेरी आँखों के सम्मुख भी घटित हो रहा है जो दरअसल पहले हुआ था. जो वस्तुतः मेरे जन्म के पहले हुआ था. महानता के प्रमेय साधारण पर भी लागू होते हैं: मैंने अपने बाबा दादी को नहीं देखा है; मेरे जन्म के पहले वे दिवंगत हो चुके थे लेकिन मेरी स्मृति में वे करीब-करीब वैसे ही गुलजार हैं जैसे नाना नानी जिनका सान्निध्य मुझे मिला. इस गुत्थी का सुलझाव यह है कि मैंने पिता से, मां से, चचेरे बाबा, दादा, दादी, गांव के बाशिंदों के जरिये, इन सबके वर्णनों और बखान के मार्फ़त अपने बाबा दादी को लगातार देखा जिनको मैंने कभी नहीं देखा. इसी प्रकार महात्मा जी और नेहरू जी को भले हमने नहीं देखा कभी लेकिन दोनों भारत देश में चतुर्दिक व्याप्त हैं. दरअसल जनश्रुतियां भी स्मृति का निर्माण करती हैं. कोई सामूहिक स्मृति कई बार व्यक्ति की भी स्मृति बन जाती है बगैर उसके इन्द्रियबोध से गुजरे मगर उतनी ही या उससे भी ज्यादा प्रगाढ़ और गहरे धंसी हुयी.
इस प्रकार कह सकते हैं कि स्मृतियों की भी एक मौखिक परंपरा होती है. जैसे साहित्य में होता है : आपने राम, रावण, राधा, कृष्ण, होरी, धनिया, सूरदास, शकुंतला, पद्मनी को नहीं जाना देखा है लेकिन ये चरित्र और इनका जीवन व्यापार आपकी स्मृति में बस गया है. उसी प्रकार जैसे कौशलपुरी, सिंघलद्वीप, गोकुल, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र, मेरीगंज, शिवपालगंज, मोहल्ला अस्सी बसे हैं. यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं है कि जनश्रुतियां, कहानी, लोकगीत और गाथाएं स्मृतियों की वाहक हैं; साथ ही वे अपने ढंग से स्मृतियों की सर्जक भी हैं. यह इस तरह होता है: स्मृति के लिए सबसे जरूरी तत्व है अनुभव; सभी जानते हैं कि इन्द्रियबोध से अनुभव जन्म लेता है. कहा जा सकता है, किसी कृति में जो अनुभव है वह मेरा व्यक्तिगत अनुभव नहीं है फिर वह कैसे मेरी स्मृति का हिस्सा बन सकता है. इस मुद्दे पर कहना है कि जैसा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’ में बताया है,
“किसी काव्य का श्रोता या पाठक जिन विषयों को मन में लाकर रति, करुणा, क्रोध, उत्साह इत्यादि भावों तथा सौन्दर्य, रहस्य, गाम्भीर्य आदि भावनाओं का अनुभव करता है, वे अकेले उसी के ह्रदय से सम्बन्ध रखने वाले नहीं होते; मनुष्यमात्र की भावात्मक सत्ता पर प्रभाव डालने वाले होते हैं. इसी से उक्त काव्य को एक साथ पढ़ने या सुनने वाले सहस्त्रों मनुष्य उन्हीं भावनाओं या भावनाओं का थोड़ा बहुत अनुभव कर सकते हैं.”
पाठक अथवा श्रोता को अनुभूत होने वाली भावनाएं प्रथमतः तो लेखक की होती हैं. अगर वह रचयिता उत्कृष्ट हुआ, अपने अनुभव अपनी संवेदना को श्रेष्ठ कलारूप प्रदान करने में समर्थ हुआ तो उसके सृजन का इन्द्रियबोध रसज्ञ का भी निजी इन्द्रियबोध बन जाएगा और अंततः एक निजी स्मृति के सामूहिक स्मृति में रूपांतरण का सिलसिला चल पड़ेगा. इसे यूं भी कहना है कि जैसे ‘देखना’ क्रिया आंखों से होती है जोकि हमारी पंच ज्ञानेन्द्रियों में से एक है. हमारे स्मृतिलोक का अधिकतम हिस्सा ‘देखने’ से तैयार हुआ है. अतः जब कोई दक्ष साहित्यकार अपने शब्दों को पढ़ने से आगे देखने के स्तर पर पहुंचा देता है तो निश्चय ही उस लिखे के लोक स्मृति बनने की गुंजाइश बन जाती है.
दुनिया के अनेक सफल कथाकारों, किस्सागो, गाथाकार, दस्तानगो के अवदान पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने कथ्य को, अपने वर्णन, अपनी समग्र अभिव्यक्ति को कुछ इस तरह रचा है कि वह सजीव दृश्य संसार के रूप में प्रकट होता है. कविता के क्षेत्र में भी, जिन कवियों के यहां दृश्यात्मकता की शक्ति रहती है उनकी कविताएँ प्रायः पाठक परिवार में अधिक स्मरण की जाती हैं. और इतना तो तय है कि वही कविता या आख्यान अपने पढ़ने सुनने वाले की स्मृति में निवास करने का अधिकारपत्र प्राप्त करेगा जिसमें ‘देखना’ की जगमगाहट होगी. ऐसा नहीं कि कविता और आख्यान ही स्मृतियों के सर्जक हैं, यात्रा वृत्तांत और संस्मरण और जीवनी और रेखाचित्र सरीखी विधाओं का भी अवदान कमतर नहीं है. अनगिनत ऐसे लोग होंगे जिन्होंने प्रेमचंद, निराला और शरतचंद्र को कभी नहीं देखा होगा किन्तु अमृतराय द्वारा लिखी प्रेमचंद की जीवनी कलम का सिपाही, रामविलास शर्मा कृत निराला की जीवनी निराला की साहित्य साधना, शरत पर विष्णु प्रभाकर की जीवनी आवारा मसीहा ने उनकी चेतना में इन विरल रचनाकारों को लेकर एक स्मृतिकोष का निर्माण किया है.
ग़ालिब छुटी शराब के अनेक वृत्तांतों को अनेक पाठक ऐसे सुनाते हैं गोया जैसे वे स्वयं उनके किरदार हों. तुलसीराम की मुर्दहिया न केवल एक अमर कृति है बल्कि वह इस मायने में विलक्षण है कि उसने एक हाशिये के दुखमय जीवन को मुख्यधारा के तमाम अध्येताओं की स्मृति में भी बसा दिया है. नंगातलाई का गांव और बिसनाथ का बलरामपुर और ममता कालिया की यादों में बसे शहर हमारी अपनी यादों में उतर आते हैं.
कहने का आशय यह है कि कथेतर साहित्य भी अपने उत्कृष्ट अवदान के जरिये कई बार सामूहिक स्मृतियों का सृजन करते हैं. यात्रा वृत्तांतों में वर्णित जगहें और परिवेश हममें निवास करने लगते हैं तो संस्मरणों के सहारे हमारे जीवन की जमीन पर न जाने कितने जीवन बस जाते हैं और लम्बे समय के लिए अमर हो जाते हैं. आज जब महामारी, दुःख, विपरीत हालात, दुर्घटना, अस्वास्थ्य, उपभोक्ता संस्कृति, अधिक कमाने की अंधी दौड़, घृणा, दमन और हिंसा के विस्तार के चलते जिंदगी भंगुरता और अनिश्चय के अंधकूप में गिर गयी है तब स्मृतियों का वाहक और सर्जक -साहित्य का यह रचनाविश्व-भरोसा जगाता है कि आसान नहीं है जीवन को तबाह करना. वह विनष्ट होने के बाद भी बचा रहता है.
इतना ही नहीं, हमारी याद में बचेरसे जीवन में अक्सर अधिक जीवन रहता है. एक उदाहरण: देशी आम भले बाजार में नहीं मिल रहे हैं, हो सकता है कि वे विनष्ट कर दिए गए हों या उनकी इहलीला समाप्त हो गयी हो, पर बचपन में उसका जो रस जीभ को सराबोर और आत्मा को तृप्त कर देता था वह आज आधी सदी बाद भी वैसा ही सद्यः और ताजा है. जैसे इस स्वाद का दीर्घजीवन है वैसे ही बेशुमार स्वादों, स्पर्शों, रूपों, महकों का काफिला अबाध चलता रहता है; अर्थात जीवन गतिमान रहता है. इस आशावाद के बावजूद यह संकट तो है कि समय का चक्का इतना तेज दौड़ रहा है कि बहुत जल्दी-जल्दी हो रहा है कि जो दृश्य अभी था उसका, अगले कुछ रोज में, विलोप हो गया. वह जमाना नहीं रहा जब एक यथार्थ लम्बे वक्त तक यथार्थ रह पाता था; अब वह अल्पायु में ही बिसर जाता है.
एक इन्द्रियबोध बहुत शीघ्र वास्तविकता से फिसलकर याद बन जाता है और बेहद कम वक्त में याद की याद नहीं बचती. इस तरह तो एक वक्त आयेगा जब कई पीढ़ियां समाप्त हो चुकी होंगी और जो लोग होंगे उनके पास स्मृति का खजाना नहीं बचेगा. आज भी सोशल मीडिया पर बढ़ती व्यस्तता में एक रचना, एक अभिव्यक्ति, किसी हंसी किसी आंसू की आयु बड़ी संक्षिप्त हो गयी है. यूं सब कुछ नश्वर है, भंगुर है पर इंसान की जांबाजी यह रही कि वह इस सत्य से भरपूर वाकिफ होने के बावजूद कम से कम कला, साहित्य और विचारों के अमरत्व का स्वप्न देखता रहा. उसने न केवल स्वप्न देखा बल्कि एक हद तक स्वप्न को साकार भी किया. बाल्मीकि, कबीर, तुलसीदास, सूरदास, भवभूति, कालिदास, जायसी, मीरा, ग़ालिब, मीर, टैगोर, प्रेमचंद आदि अपने पड़ोस के और आज के लगते हैं तो यह अमरत्व नहीं फिर और क्या है. मगर संसार की जो रफ़्तार है उसको अनुभव कर डर लगता है कि जिस तरह लोग मामूली से मामूली चीज को प्राप्त करने के लिए अवसान की मंजिल की तरफ बेतहाशा दौड़ रहे हैं, उनके बूटों तले कहीं कालजयिता की समस्त विरासत कुचल न जाए. सोचकर खौफ महसूस होता है कि एक ऐसा दुर्दिन आ सकता है जब मनुष्यता के पास परंपरा का कुछ भी न रहे; यहां तक कि उसकी याद भी न बचे. वर्तमान को सदैव पीठ पर लादे हांफ रहा विश्व कैसा लगेगा?
वर्तमान. . . वर्तमान. . . हर वक्त वर्तमान. . . एक घड़ी समय अगले घड़ी समय में नेस्तनाबूद हो चुका होगा. हमेशा अतीत ही निर्दय और दमनकारी नहीं होता है, वर्तमान में भी यदि अहंकार आ गया और वह खुद को अतीत और भविष्य से असम्पृक्त मान बैठा तो वह भी भयानक हिंसा करता है. अतीत और वर्तमान के दमन में बुनियादी फर्क यह है कि अतीत यदि अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करके वर्तमान तथा भविष्य को कुचलता है तब रक्तपात होता है, नफरत की फसल खड़ी होती है लेकिन वर्तमान का दर्प भीतरी हिंसा का खेल ज्यादा खेलता है. वह मानव समाज पर ऐसी लाठी मारता है जिसकी आवाज नहीं होती. वह इतनी निपुणता से अपनी निष्ठुरता को अंजाम देता है कि उसके खिलाफ जल्दी कोई सुबूत नहीं मिलता. रहे सहे साक्ष्य वह मिटा देता है. हो सकता है कि समाज और उसके नागरिक किसी एक वक्त में सत्ता के षड्यंत्र, उत्पीड़न का प्रतिरोध विवशतावश न कर सकें किन्तु अत्याचार और प्रतिरोध दोनों समाज और उसके बाशिंदों की स्मृति में दर्ज हो जाते हैं; अतः जब सब कुछ ख़त्म हुआ सा लगता है तब भी स्मृति यह सम्भावना बनाये रखती है कि एक दिन आएगा जब सत्य उजागर हो जायेगा; निश्चय ही वह किसी विद्रोह, महा आन्दोलन का प्रस्थानबिंदु होगा.
संसार की अनेक क्रांतियां इसी सरणी से मुमकिन हुयी हैं. इसीलिये सत्ताएं स्मृतियों को तबाह करती रहती हैं. वे अच्छी तरह अवगत हैं कि यदि उनके गुनाहों और प्रताड़ितों के दुखों का स्मरण जिन्दा रहेगा तो उनकी किलेबंदी कभी भी ढह सकती है. अतः अपनी हिफाजत के लिए जरूरी है, स्मृतियों का आखेट करो. उनकी निर्मिति में पलीता लगा दो, पहचान को मिटा दो. इसके लिए सभ्यता के जल में डाला गया है लालच, खुदगर्जी, किसी भी कीमत पर तुरंत चाहिए की मनोवृत्ति वाली ‘अभी-अभी’ की संस्कृति का महाजाल. अतः यदि षड्यंत्र से भिड़ना है, मानवजाति की धरोहरों को बचाना है, शक्ति संरचनाओं का शिकार होने से बचना है तो उनका विलोम रचो. रोज जगाओ अपनी स्मृतियों को. उन पर निर्मम हमला हो रहा है; उनको बचाने के लिए उन्हें रक्षाकवच दो.
(2)
‘मैं कौन हूं’ एक दार्शनिक सवाल हो सकता है लेकिन यहां यह प्रश्न किसी गहन तथा अनसुलझे सत्य के उद्घाटन के संदर्भ में न होकर सहज मानवीय जिज्ञासा से बावस्ता है. बात को गंभीरता देनी हो तो कह सकते हैं कि मामला खुद को समझने और उसे विश्लेषित करने का है. इस रूप में यह प्रश्न अमूमन जिंदगी के उत्तर समय में मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होता है. बचपन और कैशोर्य में इस तरह के प्रश्न टकराते नहीं हैं, वह तो अहसासों का रंगबिरंगा खजाना है. इस अवधि में ‘मैं क्या हूं कौन हूं’ नहीं ‘वह क्या है कौन है’ का सवाल ज्यादा बेचैन करता है. यह क्या है, वह क्या है, आग की तासीर क्या है, बर्फ को छुओ तो ठंडा लगता है, वह देखो चांद वह देखो सूरज और वह है आसमान का ध्रुव तारा; इन्हीं सब में बीतता है वह दौर. वैसे ऐसा भी नहीं कि यौवन ‘मैं’ से नहीं टकराता है. बेशक तब भी ‘मैं’ का विचार उभरता है किन्तु अपने स्वरूप में तब वह मूलतः एक सवाल न होकर वस्तुतः एक उत्तर है. उसमें मैं कौन हूं से अधिक मैं हूं अथवा मैं ही हूं का भाव निहित रहता है. उक्त भाव की दो परस्पर विरुद्ध फलश्रुतियां संभव हैं. अहंकार जन्म ले सकता है और उसके विपरीत मानवीय गरिमा तथा ज्ञान को उदात्त और समृद्ध बनाने वाला आत्मविश्वास आकार ले सकता है. अपने होने के इसी सात्विक गर्व ने विज्ञान, कला, चिंतन, राजनीति आदि के क्षेत्र में नए-नए आयाम जोड़े.
मनुष्यता ने उक्त आत्मविश्वास के जरिये संसार को विकास, विज्ञान, विचार, कला आदि के अनगिनत पड़ाव पार किये हैं और आगे भी करेगा. मगर यह भी अपनी जगह सच है कि जब-जब वह आत्मविश्वास घमंड में बदला है तो सभ्यता और संस्कृति और मानवीय सुन्दरता की तबाही का सबब बना है. अधेड़ होने पर ‘मैं’ का भाव दूसरी शक्ल ग्रहण करने लगता है; कुतूहल, आत्मविश्वास, अहंकार की जगह खुदगर्जी का वाहक बन जाता है ‘मैं’. व्यक्ति आत्मकेंद्रित ढंग से अपने, अधिक से अधिक अपने परिवार के, वृत्त में क्रियाशील रहता है. दुखद यह है कि उम्र के मध्य में उभरने वाली यह त्रासदी आजकल कम उम्र में, शुरुआती दौर में ही, प्रकट होने लगी है और जीवनपर्यंत घिराव किये रहती है. वह जीवन की सुन्दरता पर लगातार नाखून गड़ाती रहती है. जीवन के औदात्य, रोमांस, रहस्य और उद्घाटन को क्षीण करती ही है, साथ में वह स्मृतियों के सृजन की राह में रुकावट पैदा करती है.
आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध होना मनुष्यता पर दोहरा प्रहार करता है. वह समाज को क्षति पहुंचाता है. ऐसी प्रवृत्ति के लोग अन्य से, देश और दुनिया से लापरवाह हो जाते हैं, अपने सुख सुविधा की अंध लोलुपता में जाने अनजाने देश या समाज या अपना गांव शहर या अपना मोहल्ला अथवा पड़ोस लहूलुहान करते हैं. प्रदूषित पर्यावरण, भ्रष्टाचार, अपराध, हिंसा जैसी विकृतियां इन्सान के खुदगर्ज बनने के कहर के उत्पाद हैं जिनके हमले से समाज तो प्रताड़ित है ही, वे स्वयं भी कम नहीं भुगतते हैं.
लोगों का ‘अन्य’ के प्रति निरपेक्ष होना या अपने को अपने तक महदूद कर लेना एक भिन्न प्रकार की सामाजिक दुर्घटना का भी कारक बना है: कहने की जरूरत नहीं है कि स्मृति कोई नास्टैल्जिया नहीं है. नास्टैल्जिया में अतीत के प्रति मोह होता है; इस तरह वह वर्तमान को धिक्कारता है. वर्तमान के प्रति क्षोभ या धिक्कार भविष्य का स्वप्न जगाये तो सार्थक है; अन्यथा अतीत मोह के दुष्परिणाम से हम सब वाकिफ हैं. स्मृति का अलग अस्तित्व है; वह एक समृद्ध लाइब्रेरी की तरह है. इतिहास, संस्कृति, कविता, उपन्यास, समाज विज्ञान आदि पर कुछ रचना है तो आवश्यकता पड़ने पर पुस्तकालय की बेशकीमती किताबें उत्प्रेरक की तरह रचनाकार की मेधा को जगा देती हैं; स्मृतियां, इससे भी चार कदम आगे, प्रज्ञा को ज्योतिर्मय कर देती हैं. स्मृतियां वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने की मुहिम में अतीत की ओर निश्चय ही ले जाती हैं लेकिन वहां से वे शक्ति ग्रहण करती हैं और जरूरी होने पर अतीत का विरोध करने से, उसकी भर्त्सना करने से गुरेज नहीं करतीं. फ़िलहाल चर्चा ‘सामाजिक दुर्घटना’ की हो रही थी; उस संदर्भ में कहना है कि अपवादों को छोड़ दें, आजकल की स्वपरक जीवन सैद्धांतिकी ने स्मृति के खजाने को क्षीण कर दिया है. यदि स्मृतियों के परीक्षण का कोई वैज्ञानिक जरिया हो तो जांचने पर बेशक यह दिखेगा कि लोगों की स्मृति में मनुष्य, पक्षी, वनस्पतियां, घटनाएं और परिवेश बहुत बहुत कम हो गए हैं. बहुत कम संवाद और वर्णन हैं. तमाम जन की चहलपहल, क्रिया प्रतिक्रिया की यादें नाममात्र की हैं. सबसे अप्रिय बात, स्मृति के घर में काफी कम लोग रह रहे होंगे. क्या यह एक के द्वारा अनेक को त्याग दिया जाना, अकेला कर दिया जाना है ? अथवा इस प्रक्रिया में धीरे-धीरे खुद अकेले पड़ जाने की व्यथा कथा है यह ?
इन दिनों बड़ी तेजी से मनोरोगों में इजाफा हो रहा है, अवसाद की समस्या महामारी की तरह फ़ैल रही है, लगता है इन सबके पीछे स्मृतियों के आयतन का सिमटते जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है. यह भी सोचने की बात है कि स्मृति की दरिद्र थाती वाली जो दुनिया बन रही है और आगे बनेगी उसमें व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और हिंसा, व्यक्ति और संवेदना, व्यक्ति और विचार आदि के मध्य संबंधों का जो स्वरूप बनेगा क्या वह हमारी उम्मीदों, हमारे सपनों के अनुरूप होगा अथवा वह हमारे सर्वाधिक बुरे ख्यालों का प्रतिबिम्ब साबित होगा ?
अभी कुछ पहले अवसाद का जिक्र हुआ, उससे याद आया कि कभी-कभी ऐसा होता है कि जब हम कई दिनों तक घर में रह जाते हैं, खुले आसमान तले नहीं जा पाते हैं तो महसूस होने लगता है कि जीवन नीरस हो गया है. माथा भारी और आंखें मुंदी-मुंदी सी लगने लगती हैं; जैसे सब डूब रहा है. किसी से मिलने, बात करने का मन नहीं करता है. केवल सुस्त पड़े रहने की इच्छा घेरे रहती है. मैं अपने अनुभव के आधार पर बताऊं कि मुझको इस समस्या से मुक्ति कैसे मिलती है: घर से बाहर निकलने का बिल्कुल मन नहीं करता किन्तु कुछ ऐसा अनिवार्य काम आ पड़ता है कि घर की सीमा को लांघना पड़ता है. फिर तो नजारा दर नजारा. . . बाहर के जगत का जड़ जंगम, परिचित अपरिचित हर कोई अपनी कलाओं, अपनी लीला के साथ मेरे तनाव, मेरी उदासी और ऊब और निराशा को बुहारने लगता है.
मैं अंततः इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जब तुम बाहर के संसार में पराजित होने लगते हो, कमजोर और हताश हो जाते हो तो तुम्हारा भीतर, तुम्हारा अंतर्लोक तुम्हें मुकाबला करने के लिए शक्ति तथा ऊर्जा का उपहार प्रदान करता है; उसी प्रकार जब तुम अन्दर से हारते हो, विवश हो जाते हो, एक महा थकान तुमको अपनी गिरफ्त में ले लेती है, ऐसा अहसास होता है कि अभी तुम्हारे दिमाग की नसें फटने ही वाली हैं. . . तब तुमको बाहर की दुनिया निःस्वार्थ भाव से ख़ुशी और उत्साह देने, जीने का हौसला देने के लिए पुकार रही होती है.
अवसाद अगर ज्यादा घातक हुआ तो कभी-कभार उसकी परिणति आत्महत्या में होती है. हिंदी के कवि और सूचना विभाग उ. प्र. के वरिष्ठ अधिकारी राजेश शर्मा ने अपनी आत्महत्या के पूर्व लिखे सुसाइड नोट में लिखा था:
‘जिंदगी में मेरी रुचि समाप्त हो गयी है.’
यह लिखने के बाद उन्होंने लखनऊ की एक ऊंची बिल्डिंग की दसवीं मंजिल से छलांग लगा ली थी. उनकी आत्महत्या की वजह ‘जिंदगी में रुचि का समाप्त होना’ था तो अनेक लोगों की खुदकशी का कारण जीवन की विपत्तियों को बर्दाश्त न कर पाना होता है. जो भी हो, किसी भी सूरत में आत्महत्या को उचित नहीं माना जा सकता है. कानून भी इसको जुर्म मानता है और आत्महत्या के प्रयास में असफल होने वाले को सजा दिलाने की कोशिश करता है. आखिर ऐसा क्यों ?
जब हर किसी के पास जीने का अधिकार है तो फिर मर जाने का अधिकार क्यों नहीं हो सकता ? कोई अपनी ही काया को विनष्ट कर रहा है तो यह कसूर कैसे हो गया ? इन प्रश्नों का जवाब समाज ने हमेशा दिया है. व्याख्या यह है कि हममें से हर कोई पचास बरस, साठ, तिहत्तर, बयासी, पंद्रह, चालीस या कितने भी बरस का अपने आप नहीं बन गया है. हमारी काया और हम न जाने कितने अन्य के अवदान से निर्मित हुए हैं.
हमारी स्मृति, हमारे मस्तिष्क, हमारे ज्ञान अनगिनत के शब्दों, विवरणों, वचनों और तजुर्बों के सम्मिलित प्रयत्न हैं. वैसे ही जैसे हमारी कोशिकाओं हमारी जिंदगी के लिए आवश्यक प्रोटीन की खातिर न जाने कितने किसानों ने गेहूं उगाये, पशुओं ने अपना दूध दिया. मांस खिलाया. हमारी अस्थियों को सूर्य ने अपनी किरणों से मजबूती दी, वृक्ष ऑक्सीजन देते रहे हैं. नदियां पानी देती हैं, पृथ्वी रिहाइश. हम जो हैं सब अन्य की वजह से हैं. कवि अरुण कमल इस सत्य को अपनी विख्यात कविता ‘धार’ में यूं उद्घाटित करते हैं :
अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार.
वाकई अकेले हम कुछ भी नहीं हैं. संसार के परम सत्यों में एक यह भी है कि धरती पर आज तक कोई ऐसा शख्स न हुआ होगा जो अकेले जिया हो और अकेले मरा हो; हर कोई बहुत से रिश्तों, किस्सों, स्मृतियों के साथ मरता है.
हम जब असंख्य के जाने अनजाने प्रयासों के प्रतिफल हैं तब फिर हम कैसे शत प्रतिशत खुदमुख़्तार हो सकते हैं. हममें हमारे माता पिता भाई बहन चाचा मौसी बुआ दोस्त दुश्मन बच्चे पत्नी गुरुजन. . . बिनगिनती वाले भी न जाने कितने सम्मिलित हैं. . . अतः आत्महत्या का फैसले का अर्थ होगा, थोड़ा-थोड़ा उन सबको मिटाना. . . इसीलिए जिन्दगी के असह्य दुख होने के बावजूद, चंद लोगों को छोड़ दें तो सभी जीते रहने का चयन करते हैं और यूं अपने अन्दर निवास कर रहे तमाम चर अचर के संग सहजीवन का सिलसिला बना रहता है.
उपरोक्त जुगलबंदी साहित्य के क्षेत्र में भी अपने ढंग से उपस्थित है. हर लेखक सृजन के अन्यतम क्षणों में आसपास के परिवेश, इधर उधर के क्रिया व्यापार आदि से बेसुध होकर अपनी भीतरी दुनिया को देखता, सुनता, उसके स्पर्श और गंध को महसूस करता हुआ एक क्रम, एक सिलसिला देकर शब्दों के जरिये सजीव करने की छटपटाहट से भरा रहता है. फिर भी कितना दिलचस्प है कि जब रचना रूपाकार ग्रहण कर लेती है तो वह बाहर के संसार से रोशन रहती है. टीक उसी तरह जैसे नितांत सामाजिक यथार्थ के उद्घाटन की प्रतिज्ञा से लिखी गयी कहानी कविता उपन्यास में लेखक का निजत्व झिलमिलाता हुआ अवश्य मिलेगा. बात को आगे ले जाते हुए अपने को कथेतर गद्य की दो साहित्यिक विधाओं पर केंद्रित करते हैं: आत्मकथा और संस्मरण.
आत्मकथा, जैसाकि शब्द से ही स्पष्ट है, किसी एक की अपनी जिंदगी की दास्तान. यहां जरा देर ठहरकर सोचना है कि क्या किसी की आत्मकथा उसकी निजता का महज लिप्यन्तरण अथवा सार्वजनिकीकरण है ? वह आत्म का प्रतिबिम्बन है अथवा वह ऐसा द्वीप है जिस पर किसी इकलौते शख्स का स्वायत्त जीवन फैला हुआ है ? ये सारी बातें आंशिक रूप से ही सच हो सकती हैं वर्ना संसार की कौन सी ऐसी आत्मकथा होगी जिसमें औरों की कथाएं मौजूद न हों. साथ ही यह भी कि वही आत्मकथा श्रेष्ठ होगी जिसमें ‘अन्य’ ‘मैं’ को स्थापित करने का महज माध्यम भर न हों बल्कि उनको उनकी स्वाधीनता के साथ ‘मैं’ से क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए प्रस्तुत किया जाए. और उस महत्त्वपूर्ण किरदार ‘समय’ को भला कैसे अनदेखा किया जा सकता है जिसके रंगमंच पर ‘मैं’ तथा ‘अन्य’ लीला करते हैं.
संस्मरण लिखने के दौरान भी समय नामक किरदार उपस्थित रहता है. उसके ही मंच पर आत्मकथा की ही भांति यहां भी अन्य और मैं लीला करते हैं. हां कुछ अंतर के साथ. आत्मकथा में बहाना अपनी निजकथा बयां करना है किन्तु उस प्रक्रिया में उसमें औरों की और वक्त की आमद हो जाती है. पुरानी पदावली में कहें, आपबीती कहते-कहते जगबीती में प्रवेश हो जाता है. कभी-कभी वह ही प्रमुख दिखने लगता है, निजता का आख्यान कमजोर पड़ जाता है. जबकि संस्मरण में इरादा अन्य या औरों के बारे में कहने या लिखने का होता है मगर प्रत्येक संस्मरण में जो एक प्रच्छन्न ‘मैं’ का वजूद रहता है, वह कम महत्वपूर्ण नहीं होता. वह किसी व्यक्ति या स्थान के विषय में जब बता रहा है तो प्रकट अप्रकट वह स्वयं उसमें अनुस्यूत रहता है. वह विनम्रतावश अथवा लेखकीय कौशल के अंतर्गत अपने को उजागर न करे लेकिन अंततः शामिल रहता है. आखिर अन्य के सम्बन्ध में उसकी ही अवधारणाएं, प्रतिक्रियाएं, अहसास, इन्द्रियबोध, क्रिया प्रतिक्रिया संस्मरण में दर्ज होते हैं. इस तरह संसार में व्यक्ति और समूह दोनों की अपनी-अपनी अहमियत है. रचना के धरातल पर दोनों समानांतर खड़े हैं.
दोनों के रिश्ते को ऐसे भी समझा जा सकता है कि जैसे एक संवेदनशील व्यक्ति अक्सर दुनिया के मेले में, घोर भीड़ भड़क्के में, खुद के अकेले होने का अनुभव अधिक शिद्दत के साथ करने लगता है. इसका विलोम भी उतना ही यथार्थ है कि जब हम अकेले पड़ते हैं, दुःख सुख जिस भी वजह से हम अकेले पड़ते हैं तभी हमारी चेतना में, हमारी स्मृति और हमारे ह्रदय में अपने लोगों का मेला सर्वाधिक सजता है, आकार लेता है. इस तरह संस्मरण अपने अहम् की आग में झुलस गए संसार को पुनर्नवा करना है, फिर से सजीव करना है. साथ ही दूसरों की आवाजाही और भीड़ में गुम हो गए ‘मैं’ को खोजने का जरिया भी है संस्मरण. वह अपने बहाने औरों से मिलाप है तो औरों के बहाने अपनी तलाश भी है. मैं मैं का जाप करते-करते या दूसरों को ही परखते-परखते हम बहुत कुछ को बिसरा देते हैं; संस्मरण उस बिसरा दिए गए की वापसी है.
संस्मरण लेखन क्या किसी लेखक के लिए पूरी तरह स्वाधीन कर्म हैं ? वह जिस पर चाहे लिखे ? शायद ऐसा संभव नहीं है. कई बार ऐसा होता है कि लेखक किसी संपादक की फरमाइश पर या साहित्य जगत की किसी समसामयिकता के कारण तयशुदा व्यक्ति या विषय पर लिखने बैठता है किन्तु लाख जतन कर लेने के बावजूद लिख नहीं पाता अथवा बहुत साधारण या ख़राब लेखन होने लगता है. ऐसे ही जिसको वह लम्बे अरसे से जानता है, जो उसका नजदीकी है उस पर सफल संस्मरण कभी-कभी नहीं लिख पाता. कहने का आशय है कि जरूरी नहीं कि मात्र साहचर्य की समृद्धि से संस्मरण बन जाए; जैसे केवल अनुभव से श्रेष्ठ उपन्यास या कहानी नहीं लिखी जा सकती.
दरअसल आपका नितांत व्यक्तिगत अनुभव भी रचनात्मकता के क्षणों में आपसे इतर एक स्वायत्त अस्तित्व हासिल कर लेता है. तब वह रचयिता से संचालित न होकर रचयिता को अपने पदचिन्हों पर आगे बढ़ने के लिए बाध्य करता है. इस स्थिति में उस स्वायत्त अनुभव के आख्यान या संस्मरण में रूपांतरित होने की संभावना तभी बनती है जब उसमें रचनात्मकता के तत्व मसलन विडम्बना, निजता का वैशिष्ट्य, तनाव, संवेदना, सामाजिक विवेक, संचारी भावों की मौजूदगी आदि के लिए गुंजाइश हो. इसी कारण कई बार गद्यकार अपने किसी अत्यंत आत्मीय पर संस्मरण लिखने की योजना वर्षों से बनाता रहता है किन्तु सफल नहीं हो पाता. उसी प्रकार जैसे एक कथाकार अपने रचना समय में इस समस्या से रूबरू हो सकता है कि वह अपने किसी अनुभव पर आधारित आख्यान रचने के लिए बहुत वक्त से छटपटा रहा है किन्तु कामयाबी नहीं मिल रही है.
हमने देखा कि एक बिंदु पर कथा और संस्मरण दोनों ही विधाएं किस प्रकार समान रचनात्मक मुश्किल का सामना करती हैं. अब सहज ही यह सवाल उभर रहा है कि क्या उसके अतिरिक्त भी दोनों विधाओं में कोई समानधर्मिता, कोई मेलजोल है ? तुरंत तो यही जवाब होगा, नहीं बिल्कुल नहीं. दोनों भिन्न-भिन्न कुल की हैं. संस्मरण सत्य पर आधारित है और कहानी उपन्यास गढ़ंत होते हैं; इस तथ्य को गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन पूरी तरह इससे सहमत भी नहीं हुआ जा सकता. दुनिया में कथा साहित्य का शायद ही कोई सचेत लेखक अथवा पाठक इसे स्वीकार करे कि कहानी उपन्यास सत्य नहीं महज गढ़ंत होते हैं.
वह तो बेसाख्ता दावा करेगा कि वास्तविक सत्य तो यहीं निवास करते हैं. मगर क्या ऐसे ही आत्मविश्वास के साथ यह भी कहा जा सकता है कि संस्मरण में गढ़ंत का कम ज्यादा अंश मिला रहता है ? ठीक इसी तरह तो नहीं किन्तु यह तो देखा ही है कि जब हम अपनी किसी स्मृति को वर्तमान में ले आते हैं तो वह हूबहू वही नहीं रह जाती; हमारी आकांक्षाएं, हमारे सरोकार और वक्त की आवाजें उसकी शक्ल को ज़रा सा बदल देती हैं. यह संभवतः उसी तरह है कि आप कोई गाना कई दफा गायेंगे तो हर बार किसी मोड़ पर कोई अंतर आ ही जायेगा. या कोई व्यक्ति एक व्यंजन समान विधि से समान तत्वों की समान मात्रा से प्रतिदिन तैयार करता है लेकिन इसके बावजूद हर रोज स्वाद में जरा सा फर्क आ जाता है.
इस तरह संस्मरण जो स्मृतियों की चौपाल है वह करीब-करीब एक कहानी भी है. एक ऐसी कहानी जिसमें चरित्र, स्थान और घटनाएं कदापि काल्पनिक नहीं होतीं. आप बेहतरीन संस्मरणों को पढ़ते समय पाते हैं कि वे कमोबेश आख्यान की तरह हैं. इस प्रसंग में यह भी कहना है कि जिस प्रकार आख्यान में जब उसके कथाकार की विचारधारा ज्यादा शोर मचाने लगती है, कोई उपन्यास या कहानी ज्यादा नारा लगाने लगती है तो उसका जीवद्रव्य सूखने लगता है; वह मुरझा जाती है. इसी तरह यदि संस्मरण में लिखने वाला अपना गुणगान करने लगता है, मैं मैं का कीर्तन शुरू कर देता है तब संस्मरण दूषित हो उठता है और उसकी दीप्ति मलिन हो जाती है.
सच्चा संस्मरण तभी बन सकता है जब खुद को और जिस पर संस्मरण लिख रहे हो उसको निस्संगता से रचो; जैसे कोई तीसरा ही उन दोनों को लिख रहा है. एकदम कथा लेखक वाली रचनात्मक तटस्थता और शरारत से लिखो. वैसे ही दुःख और आनंद से लिखो. और फिर एक कथा रचना भी क्या है, जैसे स्मृतियों की बहुत सारी तितलियां आपस में उड़ रही हैं, परस्पर क्रीड़ा करती हुयीं, एक दूसरे से आगे बढ़ जातीं और पीछे मुड़ आतीं, अचानक अपने उड़ने की दिशा बदल लेती हुयीं.
कहते हैं कि एक कथाकार के भीतर कोई अनुभव, कुछ स्मृतियां उसे बेचैन कर देती हैं, अशांति से उसको भर देती हैं; वे बार-बार उसके नजदीक आकर कहती हैं, हमें लिखो. तब वह कहानी या उपन्यास में उन्हें स्वरूप देता है और उनके तनाव तथा भार से वह मुक्त हो पाता है. यूं भी कह सकते हैं कि कथात्मक लेखन एक तरफ स्मृतियों और अनुभवों का मोक्ष है तो दूसरी तरफ वह कथाकार की भी मुक्ति है. जबकि संस्मरण का अलग ही मिजाज रहता है. स्मृतियों और अनुभवों को बंधन में बांध देता है संस्मरण. वह उनको मुक्त नहीं करता बल्कि दीर्घायु का वरदान सिपुर्द कर देता है. वह उनको ऐसा रक्षाकवच पहना देता है कि वे वक्त के थपेड़े, गर्द, आघात के बीच और बावजूद चमकते रहते हैं.
अखिलेश जन्म: 6 जून,1960 सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश). कहानी संग्रह- अँधेरा, आदमी नहीं टूटता, मुक्ति, शापग्रस्त. सम्मान: श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, वनमाली कथा पुरस्कार, इंदु शर्मा कथा सम्मान, परिमल सम्मान, अयोध्या प्रसाद खत्री पुरस्कार, स्पंदन सृजनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार, राजकमल प्रकाशन कृति सम्मान आदि तद्भव पत्रिका का संपादन |
अखिलेश जी सदा अपने दिल की गहराइयों को खंगाल देते हैं।
हमारे समय के जिस तेज़ाबी यथार्थ को उन्होंने यहां उकेरा है वह हमसब के लिए चुनौती की तरह है। बावजूद इसके,वे मायूसी फैलाने के बजाय हमें उम्मीद की किरण दिखाते हैं।
संस्मरण की तो उन्होंने सीधे सादे तरीके से एक सिद्धांतिकी ही रच दी है जो पारंपरिक अवधारणा को धीमे से खारिज़ करके नई अवधारणा सामने रखती है।
साधुवाद।
‘स्मृतियाँ काल के घमंड को तोड़ती हैं’ यह निबन्ध ‘तद्भव’ के सम्पादक अखिलेश ने लिखा है । बहुत से पाठकों को यह अपनी आपबीती लग रही होगी । कुछ भी सुंदर लिखने में मेरी गति नहीं है । इसके बावजूद भी मैं थोड़ी मात्रा में लिख रहा हूँ । उम्र के जिस पड़ाव पर मैं हूँ; मैं आसानी से लिख सकता हूँ कि ज़्यादा कुछ खो दिया और बाक़ी थोड़ा बचा है । वाबस्ता होता हूँ । अखिलेश ने मुझे मौज लेकर जीने की प्रेरणा दी है । अतीत को नहीं कोसूँगा । जबकि समय व्यर्थ गँवा दिया था । लाल जी (पिता जी) ने समय रहते मुझे कॉलेज का टीचर बनाने का सोचा था । नहीं बन पाया । उन्होंने ग़लत नहीं कहा था । चूक मेरी थी । ख़ुद को टटोलता । कड़ी मेहनत करता । जब समझा तो देर हो चुकी थी । समय बाक़ी बच गया था । बैंक में अपने काम में अव्वल आने का भरसक प्रयास किया । ख़ुद को गलाकर बहुत पाया । आदर्श काम के नक़्श छोड़ आया । एक बी.टेक. बच्चा मेरी कार्य शैली को समझा । वह क्लर्क भर्ती हुआ था । आज आफ़िसर है ।
मेरे लाल जी ने अपने बारे में मुझे कुछ नहीं बताया । बक़ौल अखिलेश जी, मैंने पहल करके उनके जीवन के बारे में क्यों नहीं पूछा । मेरे पूछने पर वे बताते । ख़ुश 🙂 होते । उनके संस्मरण को लिपिबद्ध करता । उनके विषय में इतना भर जानता हूँ कि देश के विभाजन से पूर्व वे अपने तहसील केन्द्र कबीरवाला ज़िला मुल्तान में जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे तब आजीविका कमाने के लिए दर्ज़ी का काम सीखने लग गये । वे तज्ञ दर्ज़ी बन सके । जिस कपड़े को बना देखा उसे वे बना लेते । दीक्षांत समारोह में पहने जाने वाले गाउन को भी । विभाजन के बाद हाँसी ज़िला हिसार हरियाणा में बस गये । बसाने की योजना सरकार ने की थी । जिन घरों को मुसलमान छोड़कर पाकिस्तान चले गये थे वे घर हमें अलॉट हुए । अपने रहने के लिए वह मकान ढूँढा जो शहर का सबसे ऊँचा स्थान था । यहाँ के ऐतिहासिक और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षण प्राप्त बड़सी दरवाज़ा के तल की सड़क से डेढ़ मंज़िल ऊँचा । परमात्मा करे कि शहर में बाढ़ न आये । बाढ़ आने पर भी हमारा और पड़ोस के घर नहीं डूबेंगे । हिन्दुस्तान आकर शुरू में औरतों के पहनने के कपड़े भी सीलते थे । एक धनाढ्य परिवार की औरतों के 56 क़मीज़ और सलवार सीने थे । सभी की क़मीज़ों के गले के डिज़ाइन अलग बनाये । इसी तरह सलवारों के टखनों के ऊपर के हिस्से को दोहरा करके उनके अलग डिज़ाइन सीले ।
अब देशी आम जिनका ज़िक्र अखिलेश जी ने किया है । जब हम पाकिस्तान से आये थे तब हमारा शहर क़स्बा होता था । चहुँओर बाग़ थे । जब मैं सातवीं से नौंवी कक्षा में पढ़ता था तब एक बाग़ में पढ़ने के लिए जाता । वहाँ देशी अमरूद, अनार, आम, आड़ूँ, ख़रबूज़े, जामुन, पपीते, फ़ालसे और शहतूत उगाये जाते थे । ख़ैर ! बाग़ और बाग़ीचे अस्तित्व में नहीं हैं । और देशी फलों को याद करना ही अच्छा होगा । एक शायर का कलाम
याद करके भी उन्हें तकलीफ़ होती थी अदीम
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
अभी-अभी दूसरी टिप्पणी लिखूँगा ।
सम्वेदनशील मन की बातें लिखीं अखिलेश जी ने , कहीं न कहीं सबके मन की बात है । जीवन में स्मृतियों के आलम्बन से उठी विचार शृंखला हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाती है । बेहतरीन प्रस्तुति है । अपने समय के बेहतरीन कथा – शिल्पी का चिंतक रूप भव्य है । साधुवाद
अद्भुत,अनुपम आलेख पढ़ कर समृद्ध हुई।समालोचन में अखिलेश का लेख इस वर्ष का सबसे कालजयी निबंध समझा जाय तो कोई आश्चर्य न होगा।स्मृतियां एक समृद्ध लाइब्रेरी की तरह हमें रचने का वैभव देती हैं।संस्मरण और कथा आख्यान का विभेद भी स्पष्ट किन्तु संवेदनशील किया गया है।लेखक और समालोचन को शुभ आभार
व्यक्ति की निजता और सामाजिकता के अनंत स्पेस में पसरी रहती हैं स्मृतियां और सपने. क्षण की वर्तमानता में रुंधी भौतिक जरूरतों के साथ मुठभेड़ करके वे अनुभव में तब्दील हो जाते हैं. सामान्य इंसान की जिंदगी में अनुभव संघर्ष, ऊर्जा या अवसाद बन कर आता है, लेकिन रचनाकार के हाथों वह अपना नया जीवन पाता हैं. तब अनुभव, स्मृतियां और स्वप्न एक ही लय- तान में गुंथ कर संघर्ष की राह बदल लेते हैं ज़रा सी, और फिर चुन लेते हैं परणति की अलग पगडंडियां.
स्मृतियां और अनुभव साहित्य की हर विधा का मूल हैं. रचनाकार तो महज एक दर्पण है, उसका संवेदन है दर्पण पकड़ने का नया कोण भर, जिसमें उद्भासित होने लगते हैं वे सब दार्शनिक सवाल, छिपी हुई अकुलाहटें और अपने को अंतरतम तक रीत कर समृद्ध कर देने की व्याकुलताएं जो अनुभव को सत्य का चेहरा बना देते हैं.
सत्य के इस चेहरे के साथ तादात्मीकरण की प्रक्रिया मनुष्य को मनुष्य से, मनुष्य को दिक्-काल से जोड़ कर क्षण में सृष्टि का व्यापक ठहराव भर देती है.
अखिलेश जी ने स्मृतियों को केंद्र में रखकर जीवन के अन्य पहलुओं की जिस गहराई से पड़ताल की है; उन्हें देखा- परखा है-वह उनकी गहरी दार्शनिक जीवन-दृष्टि का परिचायक है। यथार्थ और कल्पना, संस्मरण,आत्मकथा और कथा, जीवन का अतीत,वर्तमान और भविष्य,आपबीती का जगबीती में साधारणीकरण-ये सारी चीजें स्मृतियों के साथ-साथ इस आलेख में एक नया सौंदर्यबोध रचती हैं। साधुवाद !
भारतीय संदर्भ में ‘स्मृति’ को लेकर अखिलेश जी ने जो गहरी बातें रखी हैं उसे एक अलग अंदाज में मिलान कुंदेरा ने अपने उपन्यास ‘द बुक ऑन लाफ्टर ऐंड फौर्गेटिंग’ में तदयुगीन चेकोस्लोवाकिया की निरंकुश वामपंथी राजनीति को बेनकाब करते हुए रचा है।
Teji Grover
सोचता हूं; पछताता हूं: पिता इस दुनिया में नहीं हैं मगर मैं अपने एकांत में उनसे अक्सर संवाद करता हूं; संवाद क्या करता हूं, माफ़ी मांगा करता हूं; काश मैं उनके जीवित रहते ज्यादा बातचीत कर पाया होता. वह अधिक नहीं बोलते थे तो क्या हुआ, मैं ही बोलता, उनको हंसाता, उनसे उनके पुराने जीवन के बारे में सवाल करता. वह निश्चय ही बताते अपने बचपन के बारे में, अपने स्कूल के बारे में, अपने शौक पसंद स्वाद के बारे में. वह अपने अनुभवों और अहसासों को कहां मुझसे ठीक से कह सके. न जाने कितने किस्से, लतीफे, हिदायतें और आपबीती के पृष्ठ बगैर अभिव्यक्त हुए विदा हो गए. ठीक है कि उनको यात्राओं से खास प्रेम नहीं था लेकिन यदि मैं अनायास ही एक बार उनको हवाई सफ़र करा देता तो वह उनके लिए यादगार बन जाता. वह ताजिंदगी उसके बारे में सोचते और खुश होते.
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आजकल कुछ कुछ ऐसा ही सोचती रहा करती हूँ । माँ अभी हैं, लेकिन संयुक्त परिवार में कुछ इस तरह के अनुभव उसे हो रहे हैं जिन्हें लेकर मेरी व्यथा का कोई ओर-छोर या अंत नज़र नहीं आता। न अपना स्थान छोड़कर माँ मेरे साथ रहना मंज़ूर करेगी।
अखिलेश जी ने मेरे लिए एक खिड़की खोली है इस पाठ में। जीवन रहा तो मैं भी अपने अंधेरे से निकलने की राह खोजने का प्रयास करूँगी।
अभी-अभी अखिलेश जी का लेख पढ़ा. आत्मकथा और संस्मरण (या इतिहास भी) समान रूप से आख्यान हैं यह post-modern धारणा कोई पूरी तरह से काट तो नहीं सकता पर इन भिन्न विधाओं से लेखक और पाठक दोनों की अपेक्षायें तो अलग होती ही हैं. “मैं” का अनुपात भी दोनों में फ़रक होता है और किरदार भी. मैं तो मानता हूँ कि संस्मरण में यदि “मैं’ अपने को अदृश्य रख कर चले तो उसके साक्ष्य का महत्त्व घट जाता है. पता तो चले कि वह किस दृष्टि से या किस बूते पर यह सब बता रहा है, और वर्णित व्यक्ति को कैसे और कितना जानता रहा है. अस्तु…
स्मृतियों पर हमले के इस दौर में स्मृतियों के महत्त्व पर बहुत ही सारगर्भित और उपयोगी आलेख है.
आत्मकथा और संस्मरण की रचना प्रक्रिया पर अद्भुत गद्य। अभी यात्रा में हूं। और इस लेख से बातचीत भी कर रहा हूं। कल रायपुर में उतरूंगा तो एक बार फिर इसके सौंदर्य और सवालीपन से होकर गुजरना चाहूंगा। संस्मरण और आत्मकथा की रचना प्रक्रिया थोड़ी उपेक्षित रही है। अखिलेश जी ने इस बारे में महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाएं की हैं। यह सही लग रहा है कि कथा और कथेतर दोनों में आख्यान तत्व होता है। आख्यान और यथार्थ के संबंध दोनों जगह हैं। शायद गुरुत्व केंद्र भिन्न-भिन्न होते होंगे। कथा को अनुभवों व स्मृतियों के मोक्ष के रूप में देखना अभिनव तो है, मगर बहसतलब भी। यह सही है कि कथा लिख कर लेखक मुक्त होता है और उसमें संस्मरण के तथ्याग्रह का भार नही होता।
बहुत विचारोत्तेजक लेख है । बधाई ।
I find such lucidity rare in Hindi writing .
यह लेख सचमुच बहुत अच्छा है। लेकिन यह सामग्री उसी बात की तस्दीक करती है जो लेख में कही गयी है। वही, ऐसे ही नही लिख जाता कोई ऐसा लेख। हमें उन लोगों को भी याद रखना पड़ता है, जिन्होंने ऐसी सामग्री के लिए अथक प्रयास किया । अखिलेश भाई को बधाई । उंन्हे पढना, स्वयं को समृद्ध करना है ।
कथाकार और तद् भव के संपादक अखिलेश का आलेख पढ़ रहा था। स्मृतियों का मनोविज्ञान और जीवन में स्मृतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह न हो तो जीवन को समझना और उसको व्यक्त करना असंभव लगता है। लेख को पढ़ते हुए यह महसूस किया कि कोई चीज है जो हमसे छूटी जा रही है और हम उस पर विचार नहीं कर रहे।
जैसे कि मैं नई चीज पढ़ रहा हूं।
इस मौलिक सोच का विस्तार हो सकता है। आप देखें । अखिलेश जी को बधाई।
अखिलेश जी बहुत गहन उतरते हैं। बहुत गहराई तक पहुंचाते हैं। स्मरण, संस्मरण, संस्मरणात्मक, कथात्मक रचना- कर्म को इनके अंतःसंबन्धों के साथ कितनी बारीकी- से खोलकर रख दिया!
– दिवा भट्ट
अद्भुत निबंध. ये हमें भीतर और बाहर की एक ऐसी दुनिया में ले जाता जिसमें हमें खुद अपना ही प्रतिरूप दिखने लगता है. यह अलग बात है कि उसे बयान करने लायक भाषा अर्जित करने में हम समर्थ नहीं हो पाते. बेहतरीन गद्य, जो उनके ही लिखी संस्मरणों की किताब ‘वह जो यथार्थ था’ से भी आगे जाता है.
बदहवास और बौराये हुए-से ‘लेखन’ के समय में इतना ठोस और सारगर्भित आलेख या निबंध अखिलेश जी के बूते की ही बात हो सकती थी. वे अपने विचारों को इतनी स्पष्टता से सामने रखते हैं कि साहित्य और जीवन की एक सैद्धांतिकी ही तैयार हो जाती है.
उनको पढ़ना हमेशा ही कुछ नया और ज़रूरी सीखने जैसा होता है,एक बेहतर मनुष्य बनने जैसा होता है.
Elegant prose! The power of remembrance…is nibandh me Akhilesh ne smriti ki shakti ki pahchan jis samvedna aur detachment ke saath kiya hai vah adbhut hai.Vah jo yatharth tha se bahut aage aur bahut peechhe gayi hai unki lekhni is yaadgar rachna me.
स्मृतियों पर अखिलेश जी ने इतने व्यापक रूप में जो बातचीत की है ( बातचीत इसलिए कि एकालाप में इसमें संवाद है ) उसे किस विधा की रचना कहा जाय , यह कहना कठिन है क्योंकि विधाओं के बारे में जो हमारी सर्वमान्य समझ है उसके हिसाब से इसको किसी विधा की परिभाषा में बांधना कठिन है । ऐसा भी नहीं है कि स्मृतियों को आधार बनाकर पहली बार लिखा गया है , अनेक लेखकों ने समय – समय पर अपनी स्मृतियों को ‘ आत्म ‘ या ‘ मुड़ मुड़ कर देखने ‘ , ‘ क्या खोया क्या पाया ‘ अथवा किसी अन्य रूप में सामने लाने का काम किया है । लेकिन स्मृतियों को व्यवहार में अपने ‘ स्व’ से मुक्त करके समय के यथार्थ में रूपांतरित करने का जो महत्वपूर्ण काम अखिलेश जी ने यहां किया है , उस पर बहुत गहराई से विचार करने की जरूरत है । स्मृतियों की यह यात्रा लेखक के ‘ आत्म ‘ से शुरू होती है और वर्तमान के मानवीय संघर्ष से जुड़े तमाम किस्म के प्रश्नों से मुठभेड़ करती है ।
उम्र की ढलान पर आकर सब कुछ ‘ छूट ‘ जाने की पीड़ा हर आदमी को अपने भीतर झांकने के लिए विवश करती है और स्वाभाविक रूप से स्मृतियां सजीव होकर सामने आने लगती हैं । इसी मनोदशा का परिणाम यह रचना है । लेकिन यह सिर्फ उम्र की ढलान पर उत्पन्न होने वाली हताशा नहीं है , भले ही इसमें जिये गए जीवन को लेकर कुछ दुख , कुछ भौतिक या मानसिक अभाव दिखलाई देता है लेकिन उसी के साथ लेखक यह भी कहता है कि दुख या अभाव की जो स्मृतियां हैं , उनके प्रति प्यार भी उमड़ता है । यही प्यार है जो स्मृति को सर्जनात्मक बनाता है । अपने परिवार के प्रति कर्तव्य में कोई कमी रह जाना , पिता के साथ संवाद न होने का क्षोभ लेखक को व्यथित करता है और व्यथित होना ही स्मृतियों को आज के समय से सूत्रबद्ध करता है । यह व्यथा या क्षोभ दो समयों की फांक को भरने काम करता है और शायद इसीलिए अखिलेश जी ने इसका जो शीर्षक दिया है ( स्मृतियां काल के घमंड को तोड़ती हैं ) वह बहुत सटीक मालूम पड़ता है ।
छूटने की पीड़ा को अखिलेश जी ने बहुत बारीकी से महसूस किया है । इसमें अपने वर्तमान परिवेश के छूटने के साथ – साथ स्मृतियों के छूटने की आशंका भी है । लेकिन लेखक इस आशंका को सृजनात्मक बनाता है । व्यक्ति के रूप में एक ओर वह विक्षोभ का शिकार है तो दूसरी ओर स्मृतियों का रूपांतरण करके आज के समय के कठिन प्रश्नों से भी मुठभेड़ करता है । यही एक लेखक का रचनात्मक संघर्ष होता है और चाहें तो प्रचलित अर्थ में इसे रचना – प्रक्रिया भी कह सकते हैं । फर्क इतना है कि जब कोई लेखक अपनी रचना – प्रक्रिया का वर्णन करता है तो उसमें वह सहजता और लगाव नहीं रहता जो सहजता और लगाव अपनी स्मृतियों के रूपांतरण की चर्चा से उत्पन्न हुई है । इसीलिए मैंने शुरू में ही कहा है कि इसे उस रूप में लेखक की रचना – प्रक्रिया का नाम नहीं दे सकते जिस रूप में हम अबतक किसी लेखक की रचना – से रूबरू होने के अभ्यस्त रहे हैं । यहां छूटने की पीड़ा जितनी व्यक्तिगत है , उतनी ही रचनात्मक भी । रचनात्मक कहने का अर्थ रूप – रचना भर से नहीं है बल्कि इसमें लेखक ने स्मृतियों के माध्यम से आज के यथार्थ के बहुविध रंगों , छवियों और उसकी अमानवीयता को प्रस्तुत किया है ।
मिथकों , किस्सों , गाथाओं और लोक जीवन में परंपरा से प्रचलित गीतों की किसी समाज की मानसिक निर्मिति में कितनी बड़ी भूमिका होती है और आज के दौर में उन्हें किस तरह मिटाया जा रहा , इस प्रश्न को भी लेखक ने अपनी स्मृतियों के माध्यम से उठाया है । इसी क्रम में शहरों के नाम बदलने की राजनीति पर वे टिप्पणी करते हैं । कहीं पढ़ा था कि किसी अमरीकी लेखक ने शहरों की मृत्यु पर किताब लिखी है । अखिलेश जी जब शहरों के नाम बदलने का प्रश्न उठाते हैं तो यह सिर्फ संज्ञा बदलने का मामला नहीं होता बल्कि शहरों , स्थानों के साथ जुड़ी तमाम स्मृतियों , यानी इतिहास – बोध को मिटाने की चेष्टा भी मालूम पड़ती है । महत्वपूर्ण यह नहीं है कि इलाहाबाद प्रयागराज हो गया । महत्वपूर्ण यह है कि लेखक की स्मृतियों में जो इलाहाबाद बसा है वह खो गया । प्रयागराज का महत्व अपनी जगह है , उसका धार्मिक और पौराणिक महत्व है और इलाहाबाद ने प्रयागराज को नष्ट नहीं किया , वह इस देश की परंपरा , मिथकीय पहचान की रक्षा करते हुए एक नए शहर , नए बाजार के रूप में के रूप में उदित हुआ । बंद सामंती पूंजी से आगे , व्यापारिक पूंजी के केंद्र के रूप में इलाहाबाद , आगरा जैसे शहरों का विकास हुआ और इसमें उसी समुदाय की भूमिका थी जिसके विरुद्ध आज के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के फासीवादी विमर्श का निर्माण हुआ है । इलाहाबाद प्रतीक है उस शहरीकरण का जो मुगलों के शासन के दौरान उद्योग और नए बाजार के विस्तार के रूप में हो रहा था । इस पहचान को प्रयागराज में समाहित कर देना भारत के ऐतिहासिक विकास की परंपरा के चक्र को आगे के बजाय पीछे की ओर मोड़ देने का प्रतिगामी प्रयास है । अखिलेश जी की चिंता का सबब यही है । आज इतिहास को सुधारने के नाम पर स्मृतियों को कैरिकेचर में बदला जा रहा है और इसके पीछे की दृष्टि घनघोर रूप से क्रूर और मनुष्य विरोधी है । स्मृतियों से प्यार और अतीत में जड़ें जमा लेना अलग – अलग बातें हैं । अखिलेश स्मृतियों को वर्तमान में रूपांतरित करते हैं , न कि वर्तमान को अतीत में ले जाकर वहां मूल डालते हैं ।
आज के दौर में समकालीनता को लेकर साहित्य में जो एक भेड़चाल दिखलाई देती है , अखिलेश उस पर भी प्रश्न उठाते हैं । समकालीनता आज एक किस्म के तदर्थवाद में बदल गई है और इसका परिणाम यह हुआ है कि रचना और आलोचना दोनों में एक बेहद टुटपुंजिया मनोवृत्ति नजर आती है । तीव्रगामी संचार तरंगों ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि कुछ भी स्थिर नहीं है , न विचार , न अनुभूति । इसका प्रभाव आज के लेखन पर भी पड़ रहा है । कोई भी घटना या स्थिति लेखक के अनुभव , बोध और संवेदना का हिस्सा बनने के पहले ही रचना में रूपांतरित हो जाती है । इसका परिणाम होता है कि लेखक यथार्थ के छद्म को समझे बिना खुद उसी फासीवादी विमर्श का हिस्सा बन जाता है जो आज के हिंसक , विभेदकारी , पूंजी के केंद्रीकरण और लोक से विच्छिन्न लोकतंत्र की वैचारिकी से बना है । मुक्तिबोध इसी को व्यक्तित्व का व्यवसायीकरण कहते हैं। स्मृतियों , यानी इतिहास बोध से मुक्त समकालीनता के प्रति आज के साहित्यकारों में जो भीषण उत्साह दिखलाई दे रहा है वह व्यक्तित्व के व्यवसायीकरण का ही परिणाम है । इस प्रकार अखिलेश समकालीन लेखन से जुड़े प्रश्नों को भी रेखांकित करते हैं ।
अंत में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अखिलेश जी का यह आलेख ( आलेख सिर्फ कामचलाऊ अर्थ में कहा जा रहा है ) रचना – प्रक्रिया के प्रचलित ढांचे से मुक्त है और विधा के रूप में संस्मरण के दायरे में भी बंधा हुआ नहीं है । संस्मरण में लेखक उपस्थित तो होता है पर उसका हिस्सा नहीं बनता , एक प्रकार की तटस्थता बरतता है । अखिलेश इसमें तटस्थ नहीं हैं , न ही वे अपने ‘ मैं ‘ तक सीमित रहते हैं । एक जगह वे खुद से प्रश्न करते हैं — ‘ मैं कौन हूँ ‘ , इससे यह समझना भूल होगी कि वे निर्मल वर्मा की भांति खुद की अस्मिता तलाश करते हैं या बर्गसां के रहस्यवाद से प्रभावित है । यहां ‘ मैं ‘ व्यक्ति की अस्मिता में सीमित नहीं है , सामाजिकता के विस्तार की इकाई है । यह उसी तरह का प्रश्न है जिस तरह का प्रश्न अरुंधति राय अपनी किताब ‘ न्याय का गणित ‘ में करती हैं — क्या भारत भारतीय है ? अखिलेश का यह प्रश्न वास्तव में मनुष्य होने के प्रश्न से जुड़ा है और मनुष्य होने की शर्त है सत्ता की हिंसक , जनविरोधी प्रवृत्ति का प्रतिरोध । वर्तमान सत्ता को अतीत से मोह है , स्मृतियों से नहीं क्योंकि स्मृतियां ठोस नहीं होतीं , वह इतिहास – दृष्टि का निर्माण करती है । स्मृतियों में मिथक , किस्से , गाथाएं , गीत होते हैं , इसमें मनुष्य को बांटने की नहीं , जोड़ने की बात है । राम , कृष्ण , शिव की जो छवि हमारे मिथकों , किस्सों , गीतों में है वह लोकविरोधी नहीं है , सत्ता मिथक को इस रूप में स्वीकार करने से डरती है । इसीलिए ‘ राम – राम ‘ का संबोधन ‘ जय श्रीराम ‘ के डरावने नारे में बदल गया । कहने की जरूरत नहीं कि राम की यह छवि हमारी स्मृतियों में नहीं है , जो है , सत्ता उसे मिटाना चाहती है । इसीलिए अखिलेश स्मृतियों के खत्म होने की चिंता व्यक्त करते हैं । इसीलिए स्मृतियों से वे प्यार करते हैं और कहते हैं कि स्मृतियां काल के घमंड को तोड़ती हैं । आज की पीढ़ी की आत्ममुग्धता , छद्म बोध के प्रति अश्लील किस्म का दुराग्रह गहरे अवसाद का कारण है । उन्होंने एक अधिकारी की आत्महत्या का जिक्र करते हुए बतलाया है कि उसने सुसाइड नोट में लिखा कि जिंदगी में मेरी रुचि खत्म हो गई है । यह अवसाद एक हिंसक , क्रूर और विकृत समाज की रचना कर रहा है । अभी हाल में ‘ बुली बाई ‘ एप मामले में जो गिरफ्तार हुए हैं , उनकी उम्र अठारह से पच्चीस है । एक लड़के के पिता ने पुलिस को बताया कि यह तो किसी से मिलता – जुलता भी नहीं था , अपने कमरे में ही रहता था , किसी से बात तक नहीं करता था । वास्तव में समस्या यहीं से शुरू होती है । इन सब स्थितियों पर बहुत विस्तार और बारीकी से अखिलेश जी ने चर्चा की है और आज के समय , समाज से जुड़े कठिन प्रश्नों की पड़ताल की है । इसे स्मृति कथा कह सकते हैं ।
@ अजय वर्मा
अन्नदा कॉलेज , हजारीबाग
झारखंड