ज्ञान चंद्र बागड़ी समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े हैं. उनके पहले उपन्यास \’आख़िरी गाँव\’ का प्रकाशन वाणी ने किया है. इसकी चर्चा कर रहें हैं – रामानंद राठी
आख़िरी गाँव की कथा
रामानंद राठी
\’आखिरी गाँव’ एक ऐसा उपन्यास है जो लेखक की अपनी जीवन कथा कहने के साथ-साथ उसके अपने गाँव और प्रकारांतर से उस समूचे जनपद की कथा भी कहता है. यह जनपद राजस्थान के उत्तर-पूर्वी सीमांत पर स्थित है और \”राठ \”कहा जाता है इसके आगे फिर हरियाणा प्रांत है. लेखक का भौगोलिक अवबोध चूंकि राजस्थान से जुड़ा हुआ है इसलिए राजस्थान के सीमावर्ती रायसराना गाँव को ‘आख़िरी गाँव’ कहां गया है.
शुरू में एक संप्रभु और स्वतंत्र रियासत तथा बाद में, अंग्रेजों से मुठभेड़ और पराजय के बाद, अलवर रियासत की एक चीपशिप में अवनत राठ में वर्तमान हरियाणा का भी कुछ हिस्सा शामिल रहा है. देश की आजादी के समय , राज्यों के गठन की प्रक्रिया में, राठ की प्राचीनतम गद्दी नीमराणा और आसपास के इलाकों को जब तत्कालीन पूर्वी पंजाब प्रांत में शामिल करने का सिलसिला चला तो इसके खिलाफ वहाँ एक बड़ा जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ था. जन आंदोलन के नेतृत्व कर्त्ता पंडित विशंभर दयाल को नीमराणा के राजा की ओर से तत्काल नीमराणा चीपशिप की सीमा छोड़ देने के आदेश दिए गए थे किंतु फिर भी इस भू-भाग को पंजाब में शामिल करवाने की राजा कि वह मंशा पूरी नहीं हो सकी थी. राठ की जनता को इस आंदोलन में डॉ. राममनोहर लोहिया का भी समर्थन हासिल था जो बाद में अनेक वर्षों तक इस इलाके की चुनावी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे.
‘आख़िरी गाँव’ पर चर्चा करने से पूर्व इस संक्षिप्त राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि जिस सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश और जिन चरित्रों का इस उपन्यास में वर्णन हुआ है वे सब राजपूताना के उन बहुज्ञात ऐतिहासिक संस्कारों से बिल्कुल भिन्न है. सामंती ऊंच-नीच और \’घणी खम्मा’ पृष्ठभूमि से अलग राठ के लोग अपने दिल के बादशाह और स्वाभिमानी है. देहात के श्रमशील जीवन में रचे बसे आम किरदारों के साथ-साथ वहां के राजनीतिक नेता भी ऐसा ही व्यक्तित्व रखते हैं. लोक- लुभावन लल्लो-चप्पो की बजाए वे प्रायः जंची बात करते हैं. हालांकि, बीते डेढ़- दो दशक के दौरान इस स्थिति में बदलाव आया है लेकिन व्यक्तित्व का वह मूल स्वभाव अभी भी बरकरार है. अपने गाँव रायसराना की ग्राम पंचायत और उससे जुड़ी विधानसभा की राजनीति का वर्णन करते हुए एक जगह लेखक ने अपने अनुभवों को इस तरह दर्ज किया है-
\”विधानसभा में मेरे समय उन्नीस सौ अस्सी, उन्नीस सौ पिचासी में सुजान सिंह यादव कांग्रेस से हमारे बहरोड के विधायक थे. उसके पश्चात भी वह एक बार निर्दलीय विधायक रहे थे. सुजान सिंह यादव ने अपना कार्य पेट्रोल पंप पर एक मुंशी के रूप में प्रारंभ किया था जिसे बाद में उन्होंने खरीद भी लिया था. तन-मन से विशुद्ध सुजान सिंह जी खाँटी यादव थे तथा पट्टे के कच्छे के ऊपर धोती पहनकर पेट्रोल पंप पर बैठे रहते थे. दिन की शुरुआत में आम आदमी की तरह एक छोटी सी कुल्हाड़ी लेकर घूमने निकलते जिसको वे नीम की दातुन काटने के लिए प्रयोग करते थे. सुजान सिंह दिमाग के बजाय दिल से अधिक सोचते थे. सुजान सिंह को गाँव के आदमी की तरह जो जंच गया तो फिर जंच गया, नहीं जंचा तो फिर नहीं ही जंचा.”
उपन्यास में कुल मिलाकर इक्कीस अध्याय हैं और कोटपुतली कस्बे पर लिखे गए आखिरी अध्याय को छोड़ दे तो बाकी समूचा उपन्यास राठ के देहाती जीवन और मुख्यतः रायसराना गाँव की जमीनी हकीकतों पर केंद्रित है. गाँव की इन सच्ची घटनाओं का साक्षी इस उपन्यास का नरेटर यानी \’मैं\’ यानी लेखक स्वयं है. यह घटनाएं चूंकि लेखक के मूल गाँव, घर-परिवार, मोहल्ला और आसपास के गाँव- ढाणियों से संबंधित हैं इसलिए जो बेबाकी और साहसिकता लेखक ने इस वर्णन में दिखाई है, वह दुर्लभ और एक हद तक जोखिमपूर्ण है. रायसराना गाँव में अपने परिवार की दागबेल और अपनी जातीय जड़ों को लेकर बागड़ी लिखते हैं-
\’खटीक भेड़-बकरियों का काम करते हैं तो उनके घर बिल्कुल पहाड़ की तलहटी में हैं जिससे उनकी भेड़-बकरियाँ चरने के लिए पहाड़ पर छोड़ी जा सकेँ. राठ के इस क्षेत्र में यह जाति सामान्य नहीं है. कोई पंद्रह- बीस गॉवों में किसी एक में यह मिलेगी.
कहते हैं कोई सात पीढ़ी पहले हमारे दो दादा किसी का कत्ल करके सीकर जिले के गाँव गोहटी से आकर हमारे गाँव के पास अहीरों के गाँव सांतो में आकर बस गए थे. माँस खाने के शौकीन हमारे गाँव के ठाकुरों ने कहा कि भाई अहीरो! खटीक आपके किस काम के? इनमें से एक को हमारे गाँव भेज दो. एक हमारे गाँव आकर बस गया तो दूसरे का भी मन नहीं लगा और वह भी अपने भाई के पास ही आ गया और इस प्रकार हम इन्हीं दो दादाओं की सन्तान हैं और उन्हीं के नाम पर हमारे दो थोक या कुनबे हैं.’
यह पिछली शताब्दी में नब्बे के दशक से पहले का परिदृश्य था. जब राठ अँचल में भाभियाँ जीवन के रसरंग का एक अहम किरदार होती थीं. उस जमाने का कोई विरला ही देवर ऐसा (अभागा) होगा जो अपनी प्राथमिक कक्षाओं की उस मासूम उम्र में मर्दखोर भाभियों का आसान शिकार न बना हो. उपन्यास का एक दृश्य-
\”उम्र कितनी ही छोटी हो भाभियां लालाजी, स्याणा कहकर ही बुलाती थी. जाते ही शिकायत के बाद रामा भाभी कहती, पहले तो बताओ मेरे देवर के लिए क्या बनाऊं ? क्या खाओगे ? भाभी बड़ी थी तो मैं शर्माता और कहता कुछ नहीं भाभी. ओ हो, शर्मा रहा है मेरा देवर, ऐसा कहकर वह मेरा गाल काट लेती. अचानक मेरा हाथ पकड़ कर अपने दिल पर रखती और हाथ से अपने अंगों को छुवाती.
दो साल बाद मुझे कुछ समझ में आने लगा तो मैं वहां जाने से शरमाने लगा क्योंकि भाभी मेरा नेकर उतार देती और मज़ाक उड़ाती – \”देवर जी बुन्नी बड़ी करो \”
और यह रही मँजू नाम की दूसरी भाभी \”मुझे जबरदस्ती बिस्तर पर खींचती और गंदी हरकत करती. मैं कहता भाभी छोड़ो तो कहती भाभी सोहणी ना लागै देवर जी. मँजू भाभी अपने सारे अंगों पर मेरे हाथ फिराती- इतनी गंदी हरकतें करती कि मैं उन्हें लुच्ची भाभी कहता.”
मोबाइल पर मनचाही बातचीत और संदेशों के त्वरित आवागमन के वर्तमान युग में आज की युवा पीढ़ी शायद उस गुजिश्ता दौर की कल्पना भी न कर सके, जब गाँव के किसी घर में एक चिट्ठी का आना उस दिन को उस घर विशेष के लिए एक विशिष्ट और यादगार दिन बना देता था. ‘आख़िरी गाँव’ से एक मजबून –
\”चिठ्ठियाँ मात्र कागज का टुकड़ा न होकर खुशी, दर्द,आशंका,चेतावनी,मजबूरी, बेबसी और ना जाने कितने चेहरे लिए हुए आती थी. कई बार तो एक पोस्टकार्ड सारे गाँव की मनोदशा बदल देता था. गाँव में शायद सबसे अधिक चिठ्ठियाँ मुझे ही पढ़नी पड़ती थी. इस आधार पर कह सकता हूं जिंदगी में खुशियाँ बहुत कम होती हैं और दर्द कहीं अधिक पसरा पड़ा है.
तार का मामला चिट्ठी से अधिक गंभीर होता था. तार की खबर सुनते ही किसी अनहोनी आशंका के डर से हालत खराब हो जाती थी. तार की खबर आग की तरह सारे गाँव में फैल जाती थी कि फलां के यहां तारा आया है. वैसे भी तार खुशियों की सूचना कम और नब्बे प्रतिशत अवसरों पर गमी की खबर ही लाते थे. चंद अक्षरों में लिखी वह सूचना सारे गाँव पर भारी पड़ती थी और चंद मिनटों में ही गाँव में रोना पड़ जाता था.”
‘आखिरी गाँव’ का फलक बहुत विस्तृत है- एक उजलती हुई नदी का ऑटूपाट. लोक जीवन के प्राय: हर पक्ष को लेकर इसमें एक किस्सा मौजूद है और हर एक किस्सा इस अंतरंग की किसी एक ठोस हकीकत को बयान करता है, जातीय संरचना, भाई-बिरादरी, लोकाचार, शत्रु और मित्र, रीति-रिवाज, इश्क- मोहब्बत, राजनीति, तीज-त्यौंहार, मेले-ठेले, जन्म-परण- मरण, खान-पीन , भाषा-बानी, कोई ऐसा रंग नहीं है जो लेखक की नजर से छूट गया है. सैकड़ों जिन्दा किस्सों और जमीनी हकीकतों को समेटे हुए यह रोचक कृति अपनी आंतरिक बनावट में उपन्यासों की विधागत स्मृति का भी अतिक्रमण करती है जहाँ मूल कथा और पात्रों का विकास शुरू से अंत तक एक धारावार घटनाक्रम के रूप में देखने को मिलता है.
यह एक ऐसा अफसाना है जो किसी भी अध्याय के बाद समाप्त किया जा सकता था. हर अध्याय यहाँ अपने आप में एक स्वतंत्र कथा है और संलिष्ट रूप में यह सभी कथाएं फिर एक अंचल की महागाथा बनकर एक उपन्यास का रूप ले लेती हैं.
आजादी से पूर्व ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा राजस्थान की हर छोटी-बड़ी रियासत के वार्षिक गजेटियर जारी किए जाते थे जिनमें उस रियासत के आर्थिक एवं मानव संसाधनों तथा इतिहास का उल्लेख होता था. इलाके की फसलें, खान पान, वेश-भूषा, रीति- रिवाज, बोलियाँ, तीज-त्यौंहार, उच्चावच एवं मिट्टी के प्रकार. यातायात के साधन, जलस्त्रोत ,पुरानी हवेली , किले एवं गढ़ी, वन्यजीव ,पशुधन , खनिज पदार्थ- – यानी उस रियासत का सम्पूर्ण खाका उस गजटियर में मौजूद होता था जो वहाँ के प्रशासनिक एवं वित्तीय प्रबंधन हेतु एक दिग्दर्शक की भांति उन अधिकारियों के काम आता था. ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में अलवर रियासत का जब पहला विस्तृत गजेटियर प्रकाशित हुआ था इससे पचहत्र वर्ष पूर्व ही राठ के इलाके को अंग्रेजों द्वारा इस रियासत में एक उप रियासत में अथवा चीफशिप के रूप में मिलाया जा चुका था. आजादी के बाद अलवर के कुछ गजेटियर आए लेकिन पिछले पचास वर्षों से यह कार्य ठप्प है.
ज्ञानचंद बागड़ी के ‘आखरी गाँव’ का इसलिए भी स्वागत किया जाना चाहिए उसमैं राठ अंचल की आजादी के बाद की स्थितियों का एक नृशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध होता है. इस तरह एक साहित्यिक कृति के साथ-साथ नृविज्ञान के दस्तावेज के रूप में भी यह पढ़नीय कृति है.
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रामानंद राठी
संपादक, हिंदी बुनियाद
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी,
झालाना संस्थान क्षेत्र,
जयपुर, राजस्थान 302015
मो. 98292-58006