कथाकार तरुण भटनागर का उपन्यास, ‘राजा,जंगल,और काला चाँद’ आधार प्रकाशन से २०१९ में प्रकाशित हुआ था, जो ४१ अध्यायों में विभक्त है. इनके नाम दिलचस्प और मानीख़ेज़ हैं जैसे- राजा जो मरना नहीं चाहता था, चौराहे पर टिमकता लैंप, एक जंग साजिशन, रौशनी का शीशा-शीशे में औरत,सागौन की फुनगियों पर चाँद, चाँद है कि कालिख़ आदि. इसमें इतिहास है और किस्से भी.
बस्तर के इतिहास और वर्तमान पर केंद्रित इस उपन्यास को देख-परख रहें हैं- उमेश गोंहजे
टकराहटों का आख्यान
तरुण भटनागर : राजा, जंगल और काला चाँद
उमेश गोंहजे
बस्तर पर राजनीतिक और सामाजिक लेखन की भरमार रही है, पर ऐसा कोई उपन्यास देखने में नहीं आता जो बस्तर के आदिवासी समाज, वहाँ की राजनीति और संघर्षों के इर्दगिर्द लिखा गया हो. फिर एक दिक्कत यह भी है कि बस्तर के आदिवासी समाज पर लिखे समाजशास्त्रीय अध्ययनों की अपनी-अपनी सीमाएं रही हैं. समाजशास्त्रीय अध्ययन कारणों और उनकी वैज्ञानिक व्याख्याओं पर केंद्रित रहते हैं जो कि उस समाज की मन: स्थिति और उसकी बनक को पूरे विस्तार में बता नहीं पाते.
वैरियर एल्विन से लेकर नंदिनी सुंदर की बहुचर्चित किताब ‘गुण्डा धुर की तलाश’ तक यह दिक्कत देखी-समझी जा सकती है. जो दिखता है और जो तलाशा गया उसमें कई चीजें छूट गईं हैं. जिस तरह से सरकारी व्यवस्थाएं और आदिवासी समाज का आपसी द्वंद्व चलता रहता है उसे संपूर्णता में देखने की जरूरत भी रही ही है. इस लिहाज से एक साहित्यिक रचना उस गैप को भर सकती है जिससे बस्तर के विषय को उसकी समग्रता में जाना जा सकता है. उपन्यास ‘राजा, जंगल और काला चाँद ’ इस कमी को पूरा करता है. यह बस्तर की समाजशास्त्रीय व्याख्या के परे बस्तर की तमाम दुनियाओं की समझ और उनकी वास्तविकताओं का आख्यान है. न यह वैरियर ऐल्विन के यथास्थितीवाद को पुष्ट करती कोई रचना है और न ही आधुनिक समाजशास्त्रीय अध्ययनों की जिनमें कार्य-कारण परिसर से व्याख्याएँ ढूँढी समझी गईं. यह बस्तर के आदिवासियों और उनके संघर्षों पर लिखा एक ऐसा उपन्यास है जो अपने कथारस के मार्फत बस्तर की दुनिया को एक्सप्लोर करता है, उसके सवालों से टकराता है और आदिवासी जीवन की आयरनी को उसके यथार्थ में प्रस्तुत करता है.
विकास की जिस अवधारणा के आधार पर बस्तर के समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए वह आदिवासी समाज के विकास की अनिवार्य अवधारणा हो ऐसा जरूरी नहीं है. न ऐसा होते हुए देखा गया है. एक आदिम समाज अपने विकास क्रम में जरूरी नहीं कि आधुनिक दुनिया के मापदंडों को चुन ही ले. पूंजी और पूंजी की समानता की लड़ाईयों के बीच उसका रास्ता कहाँ है, किस तरफ और यह रास्ता कैसे बना, किस लिए बना ? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो इस उपन्यास को पढ़ते वक्त मन में आते रहे. हर समाज को चुनने का हक है, जो कि होना ही चाहिए और समाजशास्त्रीय अध्ययनों की परंपरा में इसे तरजीह दी ही जानी चाहिए, तब उनके चुने को आधुनिक विकास के लिए चुने से कमतर क्यों माना जाये ?
उपन्यास ‘राजा, जंगल और काला चाँद’ इस प्रश्न को बखूबी उठाता है. यह आदिवासी समाज की दुनिया और बाहरी दुनिया से उनकी टकराहटों का एक रोचक महाकाव्य है. किस्सों के माध्यम से इस बात को प्रस्तुत करना दुरूह होता ही होगा, पर यह काम इस उपन्यास में बखूबी हुआ है.
तरुण भटनागर हिंदी के उन बेहद कम लेखकों में से हैं जिनमें भाषा और भाषा के प्रयोग को लेकर एक किस्म की छटपटाहट दिखती है. विषय और पात्रों के अनुरूप भाषा का चयन और लेखन में तदनुसार भाषा को बदलते रहना उनकी कहानियों में भी दिखता ही है. इस लिहाज से अपने पहले उपन्यास ‘ लौटती नहीं जो हँसी’ के बाद इस उपन्यास में उन्होंने अपनी भाषा में बदलाव किया है. उपन्यास राजा, जंगल और काला चाँद’ किस्सागो शिल्प में है. इसलिए भी सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा का प्रयोग इसमें दिखता है. छोटे और सरल वाक्यों में लिखे इस उपन्यास में एक अलहदा किस्म का प्रवाह और तरलता है.
अच्छी बात यह है कि पूरा उपन्यास भाषा के इसी टोन में है, जिससे कहीं कोई रुकावट या बाधा उत्पन्न नहीं होती है. बस्तर जैसे जटिल विषय को ऐसी सरलता से लिखने की वजह से भी इस उपन्यास की अपनी अहमियत है. उपन्यास को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है, यद्यपि इसके कथानक के ये तीनों हिस्से लगभग सौ पेज के बाद एक दूसरे में घुलते मिलते जाते हैं. शुरुआत में उपन्यास के तीन हिस्से या यों कहें तीन किस्म की कहानियाँ अलग-अलग चलती हैं. कम से कम दो कहानियाँ तो बिल्कुल ही अलग चलती हैं. पहला राजा का किस्सा और दूसरा जंगल का किस्सा. पर फिर धीरे-धीरे ये एक दूसरे में मिलते जाते हैं और एक कथा बनकर आगे बढ़ते हैं. इस तरह इन दो और एक को लेकर तीन हिस्से कहे जा सकते हैं. और जैसा कि मैंने लिखा कि ये तीन हिस्से अलग नहीं हैं, एक ही कहानी का हिस्सा हैं, पर इनका विन्यास और विस्तार अलग दिखता है जो बस्तर के इस उपन्यास को, उसकी कहानी को जो लगभग 320 पृष्ठों में फैली है पूरा करता है.
अगर इन तीन हिस्सों को तीन अलग-अलग दुनिया माना जाये तो शायद उपयुक्त होगा, क्योंकि मूल कहानी में वे इस तरह गूंथे हुए हैं कि उनका कोई अलगाव दिखता नहीं है. इनमें से एक हिस्सा बस्तर की राजनीति और सत्ता के अभ्युदय और उसकी स्थापना पर केंद्रित है. तेरहवीं सदी में तेलंगाना पर तुगलकों के हमले के दौर से, जहाँ से यह उपन्यास शुरु होता है, यह हिस्सा शुरु होता है. इतिहास के इस वाकये का परिणाम बस्तर में काकातीय राजवंश की स्थापना के रुप में हुआ. पर यहीं एक दिक्कत यह भी थी कि राजा एक ऐसे इलाके का राजा बना जहाँ सत्ता या राज्य की चेतना नहीं थी. उस दौर का आदिवासी समाज राजा नाम की किसी चीज को न जानता था. यानी राजा एक ऐसी जगह पहुँच गया जहाँ राजा नाम की कोई चीज न थी, न तो समाज की चेतना में और यहाँ तक की उनकी जबान में भी नहीं. प्रकृति में उन्मुक्त विचरण करने वाले आदिवासी राजा, प्रजा, सत्ता जैसे शब्दों से अनभिज्ञ थे. उस समाज में राजा के न तो कोई किस्से थे और न ही राजा जैसी किसी चीज की कोई चेतना. तो राजा को एक ऐसे इलाके का राजा बनना था जहाँ राजा नाम की किसी चीज आ अस्तित्व ही न था. बस्तर की कहानी का यह हिस्सा यहीं से शुरु होता है और बस्तर में सत्ता के अभ्युदय तक जाता है. साथ-साथ वह सत्ता के उन चरित्रों को भी बताता चलता है जिनसे आदिवासी समाज की टकराहटें होती रहीं. चाहे आदिवासी नायक धुर्वाराव का अंग्रेजों के साथ संघर्ष हो और उसमें राजा की भूमिका हो या चाहे लुहण्डीगुडा का गोलीचालन.
बस्तर में सत्ता का उदय किस तरह से हुआ इस बात को यह उपन्यास पूरे विस्तार से बताता है. आदिवासी इलाके की सत्ता को प्रश्नांकित किया जाना लाजमी है, खासकर बस्तर की सत्ता को जिसने आदिवासी समाज के शोषण और अन्याय के पूरे तंत्र को उत्पन्न किया. पर इस सत्ता का निर्माण कैसे हुआ ? वह बनी कैसी ? उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा इसी बात पर है. राजा के रुपक के माध्यम से, यद्यपि इसे रुपक कहना ठीक न होगा क्योंकि वह राजा ही था, सत्ता के निर्माण और उसकी प्रवृत्तियों के बनने की कथा वह पहली कथा है जो इस हिस्से में सबसे पहले आती है. राजा की यह सत्ता किस तरह से काम करती रही इसको काफी विस्तार से यह उपन्यास बताता चलता है. राजा नाम का यह चरित्र जो ऐतिहासिक राजा से लेकर बस्तर के आखिरी राजा प्रवीरचंद्र भंज देव तक आता है, राजा और मध्य काल से लेकर आधुनिक काल तक बस्तर में उभरती राजनीति और सत्ताओं के चरित्र और उनसे आदिवासियों के तादात्म्य और विरोध की वजहों को तमाम किस्सों से व्याख्यायित करता है.
बस्तर में इस लिहाज से एक बड़ा बदलाव तब आया जब भारत आजाद हुआ. बस्तर उन रियासतों में से एक था जिन्होंने आजादी के वक्त भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत नहीं किये थे. यह किस तरह हुआ और किस तरह इसके रास्ते राजा की वही सत्ता जिसके हाथों बस्तर का आदिवासी छला जाता रहा नई सत्ता के हाथों आई और कैसे इसकी वजह से राजा और आजादी के बाद आई सत्ता के संघर्ष हुए इसका विवरण भी इसमें है जिसका अंत बस्तर के आखिरी राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या के साथ हुआ.
इस वक्त में बस्तर में उभरती वे प्रवृत्तियां जो खुद को आदिवासियों का मसीहा बताती थीं, पर जिनके मंतव्य कुछ और ही थे इसे पूरे विस्तार से यह उपन्यास बताता है. यह एक ऐसा सत्ता संघर्ष था जो राजा और उस समय की सरकारों के बीच हुआ और आजादी के बाद लगभग दो दशकों तक चला और उसके बाद बस्तर के राजा की हत्या कर दी गई. राजा की हत्या के बाद भी राजा नहीं मरा. यह किस्से के इस भाग का आखिरी हिस्सा है जो एक काल्पनिक और छद्म सत्ता के आधार पर भी आदिवासी समाज को लूटता है और उसका बेइंतहा शोषण करता है. इस हिस्से का यह आखिरी भाग सत्ता के चरित्र और शक्ति के दुरुपयोग का एक ऐसा दस्तावेज है जो अपनी बानगी में बेहद दारुण और बस्तर के सच का बेहद कठिन दृश्य है. सत्ता के समानांतर किस तरह से एक काल्पनिक सत्ता जीवित बनी रहती है यह बस्तर में हो सकता था और हुआ भी. किस तरह आदिवासियों के विश्वास और उनकी नेक नियति को राजनीति और ताकत ने अपने फायदे के लिये प्रयोग किया इसका बड़ा ही भयावह चित्रण इस हिस्से में है.
यह एक तर्कसंगत बात है कि बस्तर में प्रचलित रहीं विभिन्न सत्ताओं की प्रवृत्तियों को जाने समझे बिना वहाँ के आदिवासियों के संघर्ष के किस्सों को ठीक से जाना समझा नहीं जा सकता है. इसीलिए बस्तर पर लिखी गई राजनीतिक-सामाजिक किताबों का जिक्र भी मैंने किया ही. उन प्रवृत्तियों को मूल रुप से शोषण, लालच और अन्याय की वजह रहीं और तंत्र में पलती बढ़ती रहीं उनकी प्रवृत्तियों की पड़ताल बस्तर विषयक अध्ययनों का मूल होना चाहिए. पर ऐसी चीजें लगभग न के बराबर हैं. ऐसे में तेरहवीं सदी से लेकर आज तक बस्तर में सत्ता की प्रवृत्तियों और उसके उभार के समूचे किस्से का बखान करने वाला यह उपन्यास अपने तरीके से महत्वपूर्ण हो जाता है.
यह बात रोचक और मार्क करने की है कि बस्तर में ताकत और अन्याय के खेल के पैदा होने में तमाम ऐतिहासिक और ऐतिहासिक से लेकर आधुनिक प्रवृत्तियाँ जिम्मेदार रही हैं. बस्तर का राजा किसी भी भू-भाग के राजा से एकदम अलहदा था जो कि चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी में उसके राजा बनते चले जाने और राजा के प्रचलित अर्थ से अलग राजा होने में रहा. बस्तर की लड़ाइयों और तमाम मुद्दों की शुरुआत यहीं से हो जाती है. बस्तर की राजनीतिक प्रवृत्तियों को समझने के लिहाज से भी यह उपन्यास अपनी अहमियत रखता है. यद्यपि सत्तर-अस्सी के दशक तक आते-आते यह उपन्यास अपने आखिरी पन्नों पर आ जाता है. जिससे एकदम वर्तमान की बातें इसमें नहीं हैं, पर आज की तमाम दिक्कतों की वजहों का जो खुलासा इसमें हुआ है वह काफी विस्तृत और सार्थक है.
राजा की कहानी जो कि बस्तर की सत्ता विमर्श की कहानी है उसके साथ-साथ उसी कहानी का हिस्सा होकर एक दूसरी कहानी चलती है जिसे इस उपन्यास का दूसरा हिस्सा कहा जा सकता है. यह हिस्सा आदिवासी समाज की हमारी समझ के परे एकदम नये तरीके का आख्यान रचता है. यह कुछ बेहद बुनियादी और साधारण से दीख पड़ने वाले दृश्यों में वह सब दिखाता है जिससे बस्तर के आदिवासी को जाना-समझा जा सके. यह उपन्यास की जरूरत भी है ही. इसकी वजह यह भी है कि सत्ता विमर्श के किस्से के आखिरी हिस्से में राजा के मरने के बाद, नकली राजा के आ जाने वाली बात को शायद जाना न जा सके. हो सकता है बस्तर के आदिवासियों की यह कथा लोगों को विस्मयकारी लगे. लगे कि भला ऐसा भी हो सकता है. पर लेखक ने बड़ी चतुराई से कुछ ऐसे दृश्य बनाये हैं जो बस्तर के न होकर हमारी अपनी दुनिया के हैं और जो उस विस्मय को हमारी दुनिया जोड़ते चलते हैं जिससे उन बातों पर पढ़ने वाले को यकीन होता जाता है. शुरु में यह हिस्सा अलग-अलग कहानियों की शक्ल में है. पता नहीं ऐसा लेखक ने क्यों किया ? शायद उस वातावरण और मानस को बरतने के लिए जो कि इन आदिवासी पात्रों के जीवन को और खासकर उस बात को जानने समझने के लिए है जिससे यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि आदिवासी समाज और आधुनिक समाज किस तरह से एक दूसरे से अलग-अलग हैं.
एक पिता हैं जिनका नाम शशांक है. वे अपने बेटे विशु को जंगल का किस्सा सुनाते है. इन किस्सों में इन आदिवासियों की छवियाँ आती जाती हैं और धीरे-धीरे वे उपन्यास के पात्र बन जाते हैं. यह अद्भुत है कि जो कहानियों में सुना जाता है, वैसे पात्र फिर मूल कथा का हिस्सा हो जाते हैं. हो सकता है यह लगे कि पिता का बेटे को कहानी बताना और वास्तविक पात्रों में कोई अलगाव हो. पर लेखक ने यह काम इतनी सफाई से किया है कि कहीं कोई अलगाव महसूस नहीं होता. पिता की बेटे को सुनाई कहानियों के पात्र जीवन के पात्रों के साथ एकाकार हैं और इस तरह कि उनका इस तरह से रूपांतरण हो जाना एक हकीकत की तरह से है.
किस्सागो के तरीके और कल्पना के प्रयोग से उपन्यास में यह काम बेहद सफाई से हुआ है. पिता शशांक और विशु खुद इस उपन्यास के पात्र हैं एक तो इसके कारण, दूसरा कथाओं का मूल कथा से तादात्म्य जो कई जगह इतना जीवंत है कि बस्तर की दुनिया के तमाम दृश्य साक्षात कर देता है. बस्तर के आदिवासी समाज की संरचना, उसकी सोच, उसकी जिंदगी और उसकी वह तमाम दुनिया जो कम ही देखी जानी गई है, इस सब की बेहद बारीक और दृश्यमय उपस्थिति इस उपन्यास का एक बेहद मजबूत पक्ष है. इस लिहाज से उपन्यास का यह भाग बस्तर को जानने का एक शानदार मौका भी देता ही है, वहाँ की बतकही, बनाव-श्रृँगार, उनके सुख-दुख…..आदि. इसके साथ ही बस्तर की यह कहानी उन पात्रों के साथ भी चलती ही है जो उपन्यास के मुख्य पात्र नहीं हैं, पर जिनके बिना शायद बस्तर का किस्सा पूरा नहीं होता.
प्रवीर चंद्र भंज देव तथा बिहारी बाबा के अलावा आर.सी.व्ही.पी. नरोन्हा, ब्रह्मदेव शर्मा और उस दौर के बस्तर के स्थानीय राजनेताओं की आवाजाही है. ये वास्तविक लोग रहे हैं और अपने क्रम में इस उपन्यास में आते ही हैं. उपन्यास की पूरी कहानी बस्तर में घटित वास्तविक घटनायें हैं जिनके मायनों और प्रभावों को बताने के लिए कुछ दीगर किस्सों का प्रयोग किया गया है.
उपन्यास का एक हिस्सा जिसे तीसरा हिस्सा कह सकते हैं पर जो इसकी कहानी से ही उठता है वह है तेलंगाना के डाक्टर राजू का किस्सा. यद्यपि यह किस्सा भी तमाम दूसरे किस्सों की तरह एकहरा नहीं है, पर इसकी एक रीढ़ है, मुख्य शाखा जिससे तमाम दूसरे किस्से निकले हैं. क्या इस कहानी में कोई सच्चाई है ? किताब में लेखक तरुण भटनागर के पिता का जिक्र है जो उस वक्त बस्तर में थे. रामशरण जोशी की ‘यादों का लाल गलियारा’ एक ऐसे शख़्स की ओर इशारा करती है जिसका हवाला लेखक के पिता ने खुद दिया. हो सकता है जो उपन्यास में है और जिसका हवाला रामशरण जोशी जी ने दिया है उसमें अन्तर हो और उपन्यास लिखने की लेखकीय छूट के अंतर्गत लेखक ने अपनी तरह से कुछ काम किया हो पर यह कहा जा सकता है कि शशांक और विशु के बाद उपन्यास का तीसरा प्रमुख चरित्र डाक्टर राजू ही है. 1946 के तेलंगाना मूवमेण्ट से शुरु होने वाली डाक्टर राजू की कहानी उन लोगों की कहानी है जो बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ने बस्तर आये और फिर यहीं रह गये. जिनमें से कइयों को नक्सलाईट कह कर प्रताड़ित किया गया.
लेखक ने किसी किस्म की वैचारिकी या पूर्वाग्रह में पड़े बिना ऐसे लोगों के दुःख, आक्रोश, वैचारिकी और जिंदगी की पड़ताल की है. तमाम संकटों और जीवन के अजीबोगरीब वाकयों से भरा डाक्टर राजू का जीवन एक किस्म की प्रेरणा है तो एक किस्म की त्रासदी भी. यह बस्तर में काम करने वाले ऐसे हजारों नौजवानों के जीवन को गहराई और शिद्दत से तलाशने का यत्न भी है, जो बेहद रोचक है.
उपन्यास ‘राजा,जंगल और काला चाँद’ इस लिहाज से अहमियत वाला उपन्यास है कि बस्तर के संकटों पर यह बिना किसी पूर्वाग्रह के और बहुत बेबाकी से एक रोचक कथा कहता जाता है. लंबे उपन्यास के अनिवार्य तत्व रोचकता, पठनीयता और प्रवाह इसमें है. बस्तर का जो पाठ यह प्रस्तुत करता है वह बस्तर के बारे में हमारी सोच से बहुत हद तक अलहदा है और यथार्थ वादी है. लेखक तरुण भटनागर स्वयं बस्तर के रहनेवाले हैं, यद्यपि यह बात ऐसे किसी उपन्यास की रचना में कितनी सार्थक होती होगी यह चर्चा का विषय हो सकता है, पर इतना तय है कि इस तरह के उपन्यासों का लिखा जाना एक आश्विस्त की तरह से है कि हमारे वक्त के सबसे मुश्किल और कठिन जगहों में से एक, उस जगह के संघर्षों और अन्याय की मुखालफत को तरुण भटनागर का यह उपन्यास न सिर्फ दर्ज करता है बल्कि अनुसंधान और अनुभवों से अर्जित सच को एक ऐसे रोचक उपन्यास के रुप में गढ़ता है जिसका एक माकूल और सार्थक प्रभाव है. यह उपन्यास सिर्फ इस वजह से ही नहीं पढ़ा जाना चाहिए कि बस्तर के आदिवासी जीवन पर यह हिंदी का पहला उपन्यास है, बल्कि इसलिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए कि किस्से गढ़ने और बरतने का जो तरीका इसमें अख्तियार किया गया है और जिस तरह की आख्यानात्मक शैली में इसकी किस्सागोई है वह इस उपन्यास को एक अलग पहचान देती है.
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फिल्म निर्माता, स्क्रिप्ट राइटर एवं समीक्षक
(डायरेक्टर, यूजी फिल्मस ग्वालियर)
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