लेखन और पराया देश आशुतोष भारद्वाज |
प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी के तमाम अन्य निबंधों की तरह इस निबंध से भी कई टहनियाँ फूटती हैं जिनके सहारे आप एक नये विमर्श तक पहुँच सकते हैं.
पहला, प्रोफ़ेसर त्रिवेदी का यह कथन कि एडवर्ड सईद की मशहूर किताब (Orientalism) ‘स्पष्ट ही एकांगी’ है, नयी व्याख्या को प्रेरित करता है.
दूसरा, हरीश त्रिवेदी याद दिलाते हैं कि ईएम फ़ोर्स्टर कथानक को उपन्यास कला का सबसे ‘निम्नतम तत्त्व’ मानते थे, लेकिन ख़ुद उनके उपन्यास ‘ए पैसेज टु इण्डिया’ की एक बड़ी शक्ति इसका कथा-निर्वाह है. वे लिखते हैं कि
“इस उपन्यास का ‘कथानक रोचक भी है और कलात्मक रूप से सघन बल्कि जटिल भी. इसकी रोचकता के दो मुख्य कारण हैं. पहला यह कि उपन्यास का कथा-तत्त्व, और यह जिज्ञासा कि फिर क्या हुआ, हमें लगातार बांधे रहते हैं”.
इस तरह फ़ोर्स्टर का लेखन ख़ुद उनकी ही मान्यताओं का अतिक्रमण कर जाता है. इससे प्रमाणित होता है कि आवश्यक नहीं कि किसी रचनाकार का स्व-कथन उसकी अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में सत्य हो. बहुत संभव है कि उसका लेखन स्वघोषित प्रस्तावना के एकदम विपरीत चला जाये.
तीसरे, प्रोफ़ेसर त्रिवेदी जब डॉक्टर अज़ीज़ की इस मान्यता पर उँगली रखते हैं कि सबसे महान मुग़ल सम्राट अकबर नहीं बल्कि औरंगजेब थे, और हिन्दुस्तान मुसलमानों का ही मुल्क है, हमेशा रहा है, और जब अंग्रेज़ चले जायेंगे तो फिर हो जायेगा, वे संकेत देते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता से पच्चीस बरस पहले ही एक अंग्रेज़ उपन्यासकार ने विभाजन का पूर्वानुमान कर लिया था.
चौथा, वे एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु का उल्लेख करते हैं कि बेशुमार अंग्रेज़ों ने भारत को अपनी सर्जना का केंद्र बनाया था, लेकिन तमाम भारतीय भाषाओं द्वारा रचे गये साहित्य में अंग्रेज़ किरदार कहाँ हैं? वे लिखते हैं-
“कहाँ है एक भी ऐसा हिंदी उपन्यास जिसका नायक तो क्या कोई मुख्य पात्र भी अंग्रेज़ हो? फुटकर पात्र तो आते रहते हैं, और प्रेमचन्द में ही चार-छह निकल आयेंगे, पर वे विकसित और विश्वसनीय चरित्र कम हैं और प्रतीकात्मक खल-पात्र और कार्टून (या caricature) कुछ ज्यादा,”.
दो
इस बिंदु पर हम फ़ोर्स्टर और उनके उपन्यास से थोड़ा इतर जाकर विचार कर सकते हैं. भारतीय रचनाकारों को पराया भूगोल और संस्कृति उत्प्रेरक अमूमन क्यों नहीं प्रतीत हुए?
अगर अपने देश में रहते भारतीय लेखकों की रचनात्मक कल्पना को अंग्रेज़ किरदार प्रभावित नहीं कर पाये, उन्नीसवीं सदी से इंग्लैंड, अमरीका और यूरोप जाते रहे भारतीय भी इन भूमियों को रचनात्मक दृष्टि से नहीं देख पाये. संस्मरण आपको भले कुछ मिल जायेंगे, लेकिन कहानियाँ और उपन्यास नदारद हैं. हरिवंश राय बच्चन, यूआर अनंतमूर्ति, एके रामानुजन से लेकर वे तमाम लेखक जो विदेश गये थे, उनके लेखन में उस भूमि के दर्शन कहाँ होते हैं जहाँ से उन्होंने रचनात्मक और बौद्धिक ऊर्जा ग्रहण की.
अनंतमूर्ति प्रथमतः और अंततः कन्नड़ भूमि के लेखक हैं. कृष्ण बलदेव वैद ने हार्वर्ड से पढ़ाई की, बरसों तक वहीं पढ़ाया और निवास किया, लेकिन उनका तमाम लेखन एक जलावतन की कसक को थामता है. उनके गल्प में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि अमरीकी संस्कृति और समाज उन्हें कोई रचनात्मक प्रेरणा दी हो.
अंग्रेज़ी में लिखने वाले कई भारतीय लेखक भी ऑक्सफ़ोर्ड इत्यादि से अध्ययन कर लम्बे समय तक परदेस रहे, लेकिन उनके लेखन के केंद्र में अमूमन उनकी पितृभूमि रही. अमिताव घोष के श्रेष्ठतम उपन्यास बंगाल और पूर्वी भारत की कथा सुनाते हैं.
हमारे रूस से गहरे सांस्कृतिक-वैचारिक संबंध रहे, सोवियत लैंड पुरस्कारों की झड़ी लगी, लेकिन कितने भारतीय लेखकों की कृतियों में रूस के प्रमाण मिलते हैं?
इन सबसे बढ़कर रवीन्द्रनाथ टैगोर, अपने समय के सबसे कॉस्मोपॉलिटन रचनाकार, प्रतिष्ठित अंग्रेज़ों के संपर्क में रहे, दुनिया भर की यात्राएं की, लेकिन उनकी कथा-यात्रा बंगाल तक सीमित रही. उनके महानतम उपन्यास स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में उनके बंगाल की विविध स्वरूपों की कथा सुनाते हैं.
भारतीय लेखक की इस निरपेक्षता की क्या वजह है?
तीन
फ़ोर्स्टर का उपन्यास भारत की प्रामाणिक कथा कहता है और सर्वकालिक श्रेष्ठतम अंग्रेज़ी उपन्यासों में शुमार है. उनकी तुलना निर्मल वर्मा से हो सकती है.
निर्मल वर्मा विरले अपवाद हैं जिनका पहला उपन्यास उस शहर पर केन्द्रित है जिसने उन्हें बड़े प्रेम से जिया था. निर्मल ने यूरोप पर तमाम कहानियाँ भी लिखीं, ‘लंदन की एक रात’ के मुरीद नामवर सिंह भी थे. प्राग के निवासी आज भी निर्मल के प्रति कृतज्ञ, और हतप्रभ हैं कि एक भारतीय लेखक साठ के दशक का उनका शहर इतनी मार्मिक और मांसल दृष्टि से आखिर कैसे रच पाया. हालाँकि निर्मल के रचना-कर्म में यूरोपीय भूगोल की उपस्थिति उन्हें ‘विदेशी’ का तमगा दिलवा देती है.
मैं प्रोफ़ेसर त्रिवेदी से यह जानना चाहता हूँ कि जिस तरह हमारी आलोचना का एक बड़ा तबका निर्मल के कथा जगत को भारतीय परिवेश से विलगित बताते हुए उन पर विदेशी प्रभाव से ग्रस्त होने का उल्लेख करता है, क्या यूरोप/अमरीका के रसिक/आलोचक किपलिंग और फ़ोर्स्टर को विदेश-मोह में डूबा मानते हैं?
चार
इंग्लैंड के आलोचकों द्वारा फ़ोर्स्टर को ‘विदेशी’ मानने की एक अन्य ‘वजह’ यह हो सकती है कि इस उपन्यास के करीब पैंतीस वर्ष बाद यानी साठ के दशक में उन्होंने कल्पना की कि अगर इस वक्त वॉल्तेयर होते और किसी राष्ट्राध्यक्ष से संवाद करना चाहते, तो किसे चुनते?
वॉल्तेयर के ज़रिये फ़ोर्स्टर ने पूरी दुनिया को टटोल लिया, लेकिन तमाम देशों के मुखिया उन्हें निष्प्रभावी लगे. यहाँ तक कि अंग्रेज़ रानी एलिजाबेथ द्वितीय भी ‘सम्मोहक थीं, सम्मान की पात्र थीं, लेकिन दार्शनिक नहीं थीं’. पूरी दुनिया में वॉल्तेयर को सिर्फ़ एक राष्ट्राध्यक्ष मिला जिसकी दिलचस्पी उनके साथ संवाद में हो सकती थी- भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू.
इतने लम्बे अन्तराल तक एक अंग्रेज़ लेखक का ध्यान कई समंदर पार किसी देश, उसके समाज और उसकी राजनीति पर ठहरा रहा. उस लेखक के ‘विदेशी’ होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा!
पाँच
दरअसल फ़ोर्स्टर उस ज्ञान-लिप्सा का प्रतीक हैं जिसे तमाम यूरोपीय साझा करते हैं, और जिसका एक बेमिसाल प्रमाण मुझे चेक गणराज्य में मिला.
हम इसे हिंदी की उपलब्धि मानते हैं कि निर्मल वर्मा ने तमाम चेक लेखकों का अनुवाद किया जो तब तक अंग्रेजी में भी अनूदित नहीं हुए थे. लेकिन निर्मल जैसे गिनती के भारतीय लेखक होंगे जिन्होंने चेक से अनुवाद किये, जबकि चेक और स्लोवाक अनुवादक भारतीय भाषाओं से बेशुमार अनुवाद करते रहे हैं.
महज एक करोड़ की जनसंख्या वाले चेक गणराज्य के पास अनुवाद की समृद्ध विरासत है. अनुवाद की इस संस्कृति ने पिछले डेढ़ सौ वर्षों के दौरान चेक के साहित्यिक समाज को आकार दिया है. अनुवाद के कारोबार को इस तरह देखें कि चेक एसोसिएशन ऑफ़ बुकसेलर्स एंड पब्लिशर्स के अनुसार उनके देश में 2021 के दौरान कुल 14200 किताबें प्रकाशित हुई थीं. इनमें से सैंतीस प्रतिशत किताबें विदेशी भाषाओं से अनूदित हुई थीं. मेरे पास दुनिया के अन्य देशों के प्रकाशकीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है, लेकिन अपने भारत में अंग्रेजी और बावन करोड़ लोगों की पहली भाषा हिंदी की स्थिति से परिचित हूँ. किसी भी वर्ष मूल विदेशी भाषाओं से हो रहे अनुवाद की संख्या बहुत कम होती है.
मेरे चेक मित्रों ने बताया कि डेनमार्क, नोर्वे और फ़िनलैंड जैसे यूरोप के कई छोटे देशों में भी प्रचुर मात्रा में अनुवाद होते हैं, लेकिन उनका देश अनुवादकों को कहीं अधिक सम्मान और पारिश्रमिक देता है. चेक गणराज्य के छोटे गांवों में भी विख्यात अनुवादक-प्रकाशक मिल जायेंगे. उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में मोराविया इलाके के स्तारा रयिश नामक गाँव में योसेफ़ फ्लोरियन रहा करते थे. इन आस्थावान कैथोलिक विद्वान ने अपने घर में एक अद्भुत प्रकाशन संस्थान शुरू किया और दर्शन, धर्म व मध्ययुगीन साहित्य पर तमाम किताबें व अनुवाद प्रकाशित किये. योसेफ़ का यह उद्यम आज भी याद किया जाता है.
इसके बाद आते हैं 1931 में जन्मे यान मारेक, जिन्होंने उर्दू सीखी और मीर अम्मन की कृति बाग़-ओ-बहार का अनुवाद किया. 1963 में प्रकाशित हुए इस चेक अनुवाद की दस हज़ार प्रतियाँ प्रकाशित हुई थीं. यान मारेक ने नज़ीर अकबराबादी, कृष्ण चंदर, जोश मलीहाबादी, और उनके साथी अनुवादकों ने ग़ालिब, अली सरदार ज़ाफरी, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी के चेक अनुवाद किये.
इक्कीसवीं सदी में यान मारेक के शागिर्द और मेरे मित्र तोमाश दानियाल उर्दू सीखने लखनऊ आये और नैयर मसूद की कहानियों का चेक भाषा में अनुवाद किया.
एक दिन मैं प्राग के बुकस्टोर में यह देखकर हैरान था कि चार्ल्स विश्वविद्यालय में इंडोलोजी के अध्यापक ज़्देनेक श्तिप्ल द्वारा अनूदित देवी महात्म्य, नैयर मसूद का कहानी संग्रह और निर्मल का प्रतिनिधि चेक संकलन (जिसमें सम्पूर्ण वे दिन के साथ चेकोस्लोवाकिया पर लिखे गए कई निबंध और संस्मरण हैं) के अनुवाद एक शेल्फ़ पर रखे हुए थे.
इस छोटे-से देश के अनुवादकों ने कालिदास, भर्तृहरि, बिल्हण, वाल्मीकि, शूद्रक से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर, तकषी शिवशंकर पिल्लै, अमृत राय, सुमित्रानंदन पंत, प्रेमचंद, अज्ञेय और हरिवंश राय बच्चन की रचनाओं को मूल भाषा से अनूदित किया है.
इस जगमग आकाशगंगा से अगर किसी एक अनुवादक का नाम लेने को कहा जाये, तो मैं व्लादिमीर मिल्तनेर को चुनूँगा. उनका जन्म पिल्सेन में 1933 में हुआ था, वही शहर जहाँ चेक की राष्ट्रीय बीयर पिल्सनर की ब्रुअरी है. वे संस्कृत, मराठी, पाली और बंगला के साथ पाली के भी विद्वान थे. उन्होंने कामसूत्र और महाभारत जैसे ग्रंथों का अनुवाद किया और भारत पर मौलिक किताबें भी लिखीं. इनकी एक किताब है- ‘द हिंदी सेंटेंस स्ट्रक्चर इन द वर्क्स ऑफ़ तुलसीदास’. तोमाश दानियाल बताते हैं कि कामसूत्र का यह अनुवाद “अत्यंत सुन्दर और रचनात्मक” है. 1969 में आये इसके पहले संस्करण की एक लाख नब्बे हज़ार प्रतियाँ बिक गयी थीं.
अपने अंतिम वर्षों व्लादिमीर मिल्तनेर अध्यात्म की ओर मुड़ गए और भारतीय तीर्थ स्थलों की यात्रा पर निकल गये. चेक गणराज्य की सबसे मशहूर बीयर के नगर में जन्मे इस इंसान ने जनवरी 1997 के एक ठिठुरते दिन मथुरा की भूमि पर देह त्याग दी थी. जब मैं उनके बारे में पढ़ रहा था, मुझे नहीं याद आया कि मैंने उनकी मृत्यु पर किसी भारतीय अख़बार या पत्रिका में कोई ख़बर भी पढ़ी थी, श्रद्धांजलि तो दूर. मुझे लगा कि हम भारतीय लेखक-पाठक कितने चेक अनुवादकों से परिचित हैं जिन्होंने अपना जीवन हमारे साहित्य और संस्कृति को समझने में बिताया है?
प्रोफ़ेसर त्रिवेदी द्वारा संपादित फ़ोर्स्टर पर यह पुस्तक इसलिए भी मानीखेज़ है कि यह हमारी विस्मृति को झिंझोड़कर हमें उस लेखक की ओर ले जाती है जिसने सौ बरस पहले भारत के एक चेहरे को रच दिया था.
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आशुतोष भारद्वाज एक कहानी संग्रह, साहित्य और सिनेमा पर निबंधों की एक पुस्तक, पितृ-वध, द डेथ स्क्रिप्ट, और इसका हिंदी संस्करण मृत्यु-कथा आदि प्रकाशित. सम्प्रति : ‘द वायर’ हिंदी के संपादक |
मेरी समझ से बाहर है कि श्री हरीश त्रिवेदी और उनके साथ आशुतोष भारद्वाज यह क्यों कह रहे हैं कि ई.एम. फॉर्स्टर के अपने उपन्यास उपन्यास के बारे में उनकी अपनी ही एक महत्वपूर्ण मान्यता — कि कथानक उपन्यास का निम्नतम तत्व है — के ख़िलाफ़ जाते हैं। मैंने फॉर्स्टर की पुस्तक The Aspects of the Novel जवानी के दिनों में पढ़ी थी। जहाँ तक मुझे याद है वे कहानी को उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण तत्व मानते हैं। यह ठीक है कि वे कहानी को उपन्यास का निम्नतम तत्व कहते हैं, लेकिन उसके तुरन्त बाद ही वे यह भी जोड़ देते हैं कि तब भी कहानी उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है क्योंकि वही उपन्यास को आगे बढ़ाता है। इस तरह उनके अनुसार “What happens next?” उपन्यास में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है जिसका उत्तर कहानी ही देती है।
इस सन्दर्भ में मैं यहाँ फॉर्स्टर को उद्धरित कर रहा हूँ: “Yes—oh dear yes—the novel tells a story. That is the fundamental aspect without which it could not exist…. We are all like Scheherazade’s husband in that we want to know what happens next. That is universal and that is why the backbone of a novel has to be a story…. Qua story, it can have only one merit: that of making the audience want to know what happens next. And conversely it can only have one fault: that of making the audience not want to know what happens next. These are the only two criticisms that can be made on the story that is a story. It is both the lowest and simplest of literary organisms. Yet it is the highest factor common to all the very complicated organisms known as novels. [E. M. Forster, Aspects of the Novel]
इस उद्धरण से मेरी बात स्पष्ट हो जाती है।
‘ई.एम.फ़ास्टर्र’ के उपन्यास ‘ऐ पैसेज़ टू इंडिया’ के कथानक व नायकत्व के बहाने आशुतोष भारद्वाज ने हरीश त्रिवेदी के लेख एवं अनुवाद पर वाज़िब सवाल उठाए हैं।हम भारतीय विदेशी नायको को लेकर लेखन करने में अक्सर कृपण रहे हैं।दूसरी ओर वाल्तेयर का नेहरू को सम्पूर्ण नायक की तरह देखना मिसाल की तरह है।क्या आने वाले समय में यह ढर्रा बदलेगा।या लेखन को लेकर हम हम किसी स्वदेश ग्रंथि के शिकार हैं?