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Home » ग़ालिब: तशरीह-2 : नरगिस फ़ातिमा

ग़ालिब: तशरीह-2 : नरगिस फ़ातिमा

फ़िराक़ गोरखपुरी का मानना था कि ग़ालिब की शायरी में खुदा से उलझते सवाल हैं, जवाब नहीं और यही उन्हें महान बनाता है. एक सभ्यता के विघटन और दूसरी के निर्माण की उस ऐतिहासिक संधि-बेला में, यही प्रश्नाकुलता और बौद्धिक बेचैनी ग़ालिब की शख्सियत और उनकी शायरी की बुनियाद बनी. पहले अंक में आपने ग़ालिब के कुछ चुनिंदा अशआर की व्याख्या पढ़ी थी. यह दूसरा अंक ग़ालिब के उन अशआर पर केंद्रित है, जिनमें रूहानी और इलहामी मिज़ाज झलकता है. नरगिस फ़ातिमा ने इन शेरों को फ़ारसी और हिन्दुस्तानी दोनों परंपराओं के संदर्भ में समझने की कोशिश की है. उनकी यह मेहनत क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. ग़ालिब के चाहने वालों के लिए यह अच्छी ज़ेहनी ख़ुराक साबित होगी. प्रस्तुत है.

by arun dev
July 22, 2025
in कविता
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ग़ालिब: तशरीह-2 : नरगिस फ़ातिमा
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ग़ालिब
तशरीह-2
नरगिस फ़ातिमा

 

(1)

इस मज़मून में मैं ग़ालिब के जिन दो अशआर की तशरीह करने जा रही उन दोनों अशआर में ग़ालिब ने लिखने के अमल को इक रूहानी (आध्यात्मिक) और इलहामी (दिव्य) तजुर्बे के तौर पर पेश किया है. वो इक तरह से शायरी के रूहानी सफ़र को इबादत का दर्जा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. उनका कहना है कि उनकी शायरी किसी आला मक़ाम से ‘वही’ की तरह उतरती है यानी ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल होती है यानी इक तरह से शायरी निदा-ए-ख़ुदा (ईश्वर की पुकार) है. आइये पहले शेर की जानिब चलते हैं-

“दिल को इज़्हार-ए-सुख़न अंदाज़-ए-फ़तह-उल-बाब है
याँ सरीर-ए-ख़ामा ग़ैर-अज़-इस्तिकाक-ए-दर नहीं”

यहाँ शायर कहता है कि शायरी दानायी या खिरदमंदी (बुद्धिमानी) का दरवाज़ा खोलती है यहाँ क़लम की खर्र खर्र की आवाज़ महज़ दो चीज़ों के टकराने की आवाज़ (काग़ज़ और कलम) नहीं है. यहाँ ग़ालिब क़लम के लिखने की आवाज़ को दरवाज़े के खुलने की आवाज़ से तशबीह (उपमा) दे रहे हैं. इक तरह से वो कह रहे कि क़लम महज़ लिखने का आला (उपकरण) नहीं है बल्कि दिल और रूह में छिपे नए इल्म और असरार (रहस्य) को ज़ाहिर करने की और उसके कुफ़्ल (ताले) को खोलने की कुंजी है.

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि दिल में जो ख़यालात और जज़्बात हैं उनका इज़हार करना इस तरह है जैसे किसी बंद दरवाज़े को खोलने की कोशिश की जाये यानी जब दिल अपनी बात कहना चाहता है तो उसका अंदाज़ ऐसा होता है जैसे कोई दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रहा हो . गोया दिल के अंदर जो राज़, जज़्बात, अहसासात या असरार (रहस्य) छिपे हुए हैं वो किसी दरवाज़े के पीछे क़ैद हैं. शायरी करना उसी दरवाज़े को खोलने का अमल (कार्य) है. इक तरह से वो कहना चाहते हैं कि शायरी इलहाम (दिव्य ज्ञान) या नए ख़यालात के दरवाज़े खोलती है. शायर कहता है कि किसी शायर के क़लम की आवाज़ इक ऐसे दरवाज़े के खुलने की आवाज़ जैसी होती है जिसके पीछे असरार-ए-ज़िंदगी (जीवन के रहस्य) छिपे होते हैं. तख़लीक़ (रचना) दरअसल रूह की गहराई में छिपे इल्म, दर्द या ख़याल का इंकेशाफ़ (छिपी चीज़ का ज़ाहिर होना) करने का इक ज़रिया है. आइए अब इसी मौज़ू (विषय) पर उनके दूसरे शेर की जानिब चलते हैं-

“आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है”

शेर की पहली सतर (पंक्ति) में ग़ालिब कह रहे हैं कि ये मज़मून (विषय) आलम-ए-बाला (अलौकिक दुनिया) से मेरे ख़याल (तसव्वुर) में आते हैं. फिर दूसरी सतर में वो कहते हैं कि लिखते वक्त मेरी क़लम से जो आवाज़ ( किर्र-किर्र की आवाज़) निकलती है वो दरअसल उस फ़रिश्ते की आवाज़ है जो ये मज़ामीन-ए-आलिया (उच्च स्तर के विचार) मेरे दिल पर अलक़ाअ (विचार डालना) करता रहता है यानि दिल-ओ-ज़ेहन में उतारता रहता है.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि ग़ालिब ख़ुद से और तमाम शायरों से कह रहे हों कि ये जो मज़ामीन तेरे क़लम से निकलते हैं यानी ये जो कुछ तू लिखता रहता है ये ग़ैब (अदृश्य) से तुझ पर नाज़िल (अवतरित) होते हैं इसलिए तुझे अपनी क़लम की आवाज़ को ख़ुदाई फ़रिश्ते की आवाज़ समझना चाहिए. ग़ालिब ने इन अशआर के ज़रिए ये भी वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया है कि शायरी सिर्फ़ मामूली बातों को दिलकश अंदाज़ में बयान करने का नाम नहीं है.

इक तरह से वह पूरे जहान को इन अशआर के ज़रिए ये पैग़ाम देना चाह रहे कि तख़लीक़कार (रचनाकार) यूँ ही फ़िज़ूल और बेमकसद बातें नहीं लिखता रहता है यानी उसकी तहरीरें (लिखाई) किसी आम सोच का नतीजा नहीं होतीं बल्कि वो इल्हामी सूरत ( दिव्य मार्गदर्शन) में, आलम-ए-बाला (अलौकिक दुनिया) से उसके दिल पर नाज़िल (अवतरित) होती हैं या फिर तखलीकार (रचनाकार) अपनी रूह या ज़ेहन के अंदर सात दरवाज़ों में क़ुफ़्लबंद (ताले में बंद) इल्म या असरार (रहस्य) को ख़ुद ही बाहर निकाल लाता है. फ़राज़ भी तो कहते हैं-

“शाइ’री ताज़ा ज़मानों की है मे’मार ‘फ़राज़’
ये भी इक सिलसिला-ए-कुन-फ़यकूँ है यूँ है”

इस शेर में तो फ़राज़ ने शायर या कह लें तख़लीक़कार (रचनाकार) को ख़ुदा का दर्जा अता कर दिया है. वो शायरी को महज़ लफ़्ज़ों का खेल नहीं मानते बल्कि ख़ुदा जैसी तख़लीक़ी (रचनात्मक) ताक़त बता रहे हैं जो नए ज़माने की तामीर (निर्माण) करती है.

 

 

(2)

“तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन ‘असद’
सरगश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था”

ग़ालिब ने कई अशआर ऐसे लिखे हैं जिनमें इश्क़ के ख़ुदा माने जाने वाले आशिक़ों मजनू-ओ-फ़रहाद पर गहरा तंज़ (कटाक्ष) किया गया है. कहीं कहीं तो उन्होंने ख़ुद को उनसे बेहतर आशिक़ साबित करने की भी कोशिश की है. इस शेर में भी वो फ़रहाद पर तंज़ करते ही नज़र आ रहे हैं.

इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करने से पहले हम इस शेर के पीछे जो रिवायती कहानी है उस पर इक नज़र डालते हैं. ये फ़रहाद के इश्क़ की कहानी है. कहते हैं फ़रहाद नाम का इक कोहकन (पहाड़ काटने वाला) था जिसे आर्मीनिया की राजकुमारी शीरीन से इश्क़ हो गया लेकिन शीरीन पहले से ही फ़ारस के बादशाह ख़ुसरो के इश्क़ में गिरफ़्तार थी. खुसरो ने फ़रहाद के सामने अजीब शर्त रखी. उसने कहा कि अगर वो पहाड़ काट कर शीरीन के महल तक दूध की नहर पहुँचा दे तो वो शीरीं को फ़रहाद के लिए छोड़ देगा. फ़रहाद ने खुदाई का काम तक़रीबन पूरा ही कर लिया था कि किसी ने उस तक ये ख़बर पहुँचा दी कि शीरीं मर गयी. बस फिर क्या था, कहते हैं फ़रहाद ने उसी तेशे को जिससे वो पहाड़ खोद रहा था अपने सिर पर मार लिया और अपनी जान दे दी.

आइए अब इस शेर की तशरीह से लुत्फ़अन्दोज़ (आनंद उठाना) होते हैं. इस शेर का मफ़हूम (अर्थ) कुछ इस तरह है कि ग़ालिब फ़रहाद पर तानाज़नी करते हुए कह रहे हैं कि फ़रहाद जिसे आशिक़ों में इतना ऊँचा मक़ाम हासिल है उसे भी इश्क़ में अपनी जान देने के लिए इक वसीला (साधन) चाहिए था. फ़रहाद को जान देने के लिए तेशे (कुदाल या ज़मीन खोदने वाला आला)की ज़रूरत पड़ी. वो शीरीं के इश्क़ के बजाए रस्म-ओ-क़ुयूद (रूढ़ियाँ और सामाजिक बंधन) यानी रस्म-ओ-रिवाज और मआशरी (सामाजिक) बंदिशों के नशे में दीवाना था. मरने के लिए भी उसे रिवायती तरीक़ा ही दरकार था. अगर वो शीरीं का सच्चा आशिक़ होता तो शीरीं की मौत की ख़बर सुनते ही इक आह भरता और इस फ़ानी दुनिया से कूच कर जाता. इक तरह से वो कहना चाहते हैं कि अगर फ़रहाद की जगह वो ख़ुद होते तो उन्हें मरने के लिए किसी बाहरी वसीले (साधन) या सदमे जैसे तेशे या शीरी की मौत की ख़बर की ज़रूरत न पड़ती यानि वो ख़ुद को फ़रहाद से बेहतर आशिक़ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. इतने रिवायती और पामाल मज़मून (घिसा हुआ विषय) में भी ग़ालिब ने अपनी ख़याली तवानाई (काल्पनिक सामर्थ्य) से जान डाल दी है.

इस शेर की इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि ग़ालिब को फ़रहाद के इश्क़ पर यक़ीन ही नहीं या यूँ कह लें कि इश्क़ पर ही यक़ीन नहीं है. जब ही तो वो कह रहे कि अगर फ़रहाद के इश्क़ में ताक़त होती तो शीरीं के मरने की ख़बर सुनते ही उसकी जान ख़ुद ब ख़ुद निकल जाती. उसे अपनी जान देने के लिए रिवायती तरीक़े या किसी वसीले का सहारा नहीं लेना पड़ता.

आइए उनके दूसरे शेर जो इसी मौज़ू पर है की तशरीह करते हैं-

“इश्क़ व मज़दूरी इशरत गह ए खुसरो! क्या ख़ूब
हम को तसलीम नुकोनामी ए फ़रहाद नहीं”

ये भी ग़ालिब का इक निहायत लतीफ़ (सुरुचिपूर्ण) और तहदार (अर्थपूर्ण) शेर है. इस शेर में ग़ालिब उस निज़ाम पर तंज़ कर रहे जिसमें फरहाद को इश्क़ में मशक़्क़त (परिश्रम) और मज़दूरी क़ुबूल करनी पड़ी और ख़ुसरो ऐश-ओ-इशरत (आराम और खुशहाली) से शीरीन के साथ महल में आराम करता रहा. क्या ख़ूब इंसाफ़ ठहरा कि इश्क़ करने वाला मज़दूरी करे और अय्याश बादशाह महबूब के साथ रहे.

आइए इस दिलचस्प शेर की तफ़सील (विस्तारपूर्वक) से तशरीह (व्याख्या) करते हैं. कहते हैं कि फ़रहाद ने ख़ुसरो के महल की तामीर (निर्माण) में हिस्सा लिया था जिससे वो शीरीन का रोज़-ब-रोज़ दीदार कर सके. इसी बात पर तंज़ करते हुए ग़ालिब कहते हैं कि फ़रहाद जिसे दुनिया ऊँचे पाये का आशिक़ मानती है उसने अपने रक़ीब (महबूब का चाहने वाला) की मज़दूरी क़बूल करके अपने इश्क़ पर दाग़ लगा दिया इसलिए वो ये मानने को तैयार नहीं कि फ़रहाद की गिनती नेकनाम आशिक़ों में की जानी चाहिए.

फ़रहाद के इस काम को वो बेवक़ूफ़ी का दर्जा देते हैं. उनका कहना है कि उसने तो अपनी अना का कोई मान न रखा और अपने रक़ीब ख़ुसरो की मज़दूरी क़बूल कर ली. इक तरह से ग़ालिब ये कहना चाहते हैं कि वो फ़रहाद की जगह होते तो कभी भी रक़ीब के सामने ख़ुद को इतना माज़ूर (मजबूर) साबित नहीं करते क्यूँकि इश्क़ की अपनी इक अना (स्वाभिमान) होती है. आइए अब इक नज़र उन्हीं के इस शेर की जानिब भी करते हैं-

“कोहकन नक़्क़ाश यक तिमसाल-ए-शीरीं था असद
संग से सर मारकर होवे ना पैदा आशना”

कहते हैं कि फ़रहाद ने तेशे को सिर पर मारकर जान दे दी थी लेकिन कुछ रिवायतों में मिलता है कि फ़रहाद ने पत्थर से सिर फोड़कर जान दी थी. यहाँ पहली सतर में ग़ालिब कह रहे हैं कि फ़रहाद शीरीं का आशिक़ नहीं था बल्कि वो तो इक संगतराश (पत्थर गढ़ने वाला) था जो शीरीन का मुजस्समा (बुत) बना रहा था. दूसरी सतर (पंक्ति) में वो कह रहे हैं पत्थर पर सिर फोड़ने से कोई आशिक़ नहीं हो जाता. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अगर वो सच्चा आशिक़ होता तो उसे पता होता कि पत्थर पर सिर फोड़ने से माशूक़ नहीं मिला करती है.

या फिर इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि अगर वो सच्चा आशिक़ होता तो वो पत्थर पर सिर फोड़कर शीरीन को ज़रूर हासिल कर लेता. वो तो पत्थर पर सिर फोड़कर मर तक गया लेकिन तब भी शीरीन उसे नहीं मिली.

ग़ालिब यहाँ कहना चाह रहे कि दुनिया चाहे फ़रहाद को कुछ भी समझे आशिक़ी के कितने भी ऊंचे दर्जे पर क्यूँ ना फ़ायज़ कर दे, उनकी नज़र में वो महज़ इक

पहाड़ खोदने वाला कारीगर या मुजस्समा (मूर्ति) बनाने वाला नक़्क़ाश (कारीगर) ही रहेगा. वो नहर खोदने के लिए पत्थरों से सिर टकराता रहा लेकिन उसने कभी शीरीन के दिल तक पहुँचने की कोशिश नहीं की. वो उसकी सूरत ही बनाता रहा लेकिन उसकी सीरत न जान सका जिससे उसकी दीवानगी, उसका जुनून ज़ाया हो गया. अगर वो सच्चा आशिक़ होता तो उसे शीरीन ज़रूर मिलती. इक तरह से वो कहना चाह रहे महज़ इश्क़ में महज़ जुनून या दीवानगी से या जान देने से माशूक़ हासिल नहीं होता.

तो देखा आपने किस ख़ूबसूरती से ग़ालिब साहेब ने ख़ुद को फ़रहाद से बेहतर आशिक़ साबित करने की कोशिश की है. साथ ही उन्होंने ये भी साबित कर दिया कि फ़रहाद सच्चा आशिक़ नहीं था और उसे आशिक़ के ऊँचे दर्जे से नींचे खींच कर उसे मज़दूर या कारीगर भी साबित कर दिया. इतना ही नहीं फिर इक शेर में यूँ भी कह दिया-

“पेशे में ऐब नहीं रखिए न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों में वो जवाँ-मीर भी था”

ग़ालिब फिर ग़ालिब ही हैं. फ़रहाद को आशिक़ों की फ़ेहरिस्त से बाहर करने के बाद इस शेर के ज़रिए उन्होंने फ़रहाद को फिर अपने जैसों में शामिल भी कर लिया है.

 

(3)

“जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रु-ए-कार
सेहरा मगर ब-तंगी-ए-चश्म-ए-हसूद था”

इसके पहले वाले मज़मून में आपने पढ़ा कि ग़ालिब साहब ने मशहूर आशिक़ फ़रहाद पर कैसा तीखा तंज़ किया है. ये शेर भी उन्हीं अशआर में से एक है, बस फर्क इतना है कि इस शेर में उन्होंने क़ैस यानि मजनू पर तंज़ किया है. आइए इस शेर की बतफ़सील (विस्तारपूर्वक) तशरीह (व्याख्या) करते हैं.

पहली सतर (पंक्ति) में वो कह रहे मजनू सेहरा नवर्दी यानि सेहराओं (रेगिस्तानों) की ख़ाक़ छानने के लिए मशहूर था. जब भी सेहरा नवर्दी का ज़िक्र किया जाता है, मजनू का नाम अव्वल (पहले) नंबर पर आता है.

दूसरी सतर में ग़ालिब कह रहे ये बहुत हैरतअंगेज़ बात है कि मजनू के सिवा किसी और आशिक़ को सेहरा नवर्दी (रेगिस्तानों की ख़ाक़ छानना) में इस दर्जे की शोहरत (मशहूरियत) न नसीब हो सकी. ऐसा लगता है सेहरा भी चश्मे हासिद (ईर्ष्या करने वाले की ऑंख) की तरह तंग नज़र (छोटी सोच रखने वाला) था यानी उसकी आँख भी हसद (ईर्ष्या) करने वाली आँख जैसी तंगनज़र थी जो उसे किसी और आशिक़ की शोहरत गवारा न हो सकी.

इतना वसीअ (बड़ा) और कुशादह (फैला हुआ) होने के बावजूद सेहरा इस क़दर तंग नज़र है कि इतना वक़्त गुज़रने के बावजूद भी उसे मजनू के सिवा कोई दूसरा जुनूनी आशिक़ सेहराओं की ख़ाक़ छानने वाला न मिला. इक तंग नज़र के मानिंद वो बजुज़ (सिवाय) मजनू के किसी और पर मेहरबान ना हो सका.

ग़ालिब यहाँ सेहरा (रेगिस्तान) से शिकवा कर रहे कि क्या उसकी नज़र में कोई दूसरा आशिक़ इस दर्जे पर फ़ायज़ होने के लायक़ नहीं था? मुझे तो लगता है कि ग़ालिब यहाँ ख़ुद अपनी बात कर रहे हैं और उनके दिल में सवाल कुछ यूँ उठ रहे हैं-

क्या वो ख़ुद सेहरा नवर्दी (सहराओं की ख़ाक़ छानने में) में मजनू से पीछे हैं?
क्या वो आशिक़ी में मजनू से कमतर हैं?
क्या सेहरा को उन्हें मजनू से ऊँचा दर्जा नहीं देना चाहिये था?

आइए अब इसी मौज़ू पर उनके दूसरे शेर से लुत्फ़अंदोज़ होते हैं इसमें भी उन्होंने मजनू पर फ़ख़्रआमेज़ (ग़ुरूर से भरा हुआ) तंज़ किया है-

“तुम को भी हम दिखायें कि मजनू ने क्या किया
फ़ुरसत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले”

यहाँ पहली सतर (पंक्ति) में ग़ालिब दुनिया वालों ये कह कर मजनू साहब को सीधा चैलेंज कर रहे कि हम भी वो सब काम करके दिखा सकते हैं जो काम मजनू ने लैला की मुहब्बत में किए. फिर दूसरी सतर में वो कहते हैं कि लेकिन क्या करूँ मुझे उस ग़म और उस इज़तेराब (बेचैनी) से फ़ुर्सत ही नहीं जो दुनिया की नज़रों से ओझल है.

इक तरह से ग़ालिब कहना चाह रहे कि मेरे अंदर भी इक मजनू सा आशिक़ मौजूद है जो सेहरा नवर्दी ( रेगिस्तान में भटकना) भी कर सकता है और इश्क़ में जुनून की हद को भी पार कर सकता है. मैं भी आशिक़ी में वही जुनून और दीवानगी दिखा सकता था जो मजनू ने दिखायी लेकिन मेरे अपने छिपे हुए दुख इतने गहरे हैं कि मैं बातिनी जद्दोजहद (आंतरिक संघर्ष) में मुब्तिला हूँ और इसे ज़ाहिर भी नहीं कर सकता हूँ. इस शेर से उनकी बेबसी भी ज़ाहिर हो रही है लेकिन शेर में तंज़ (कटाक्ष) हावी है.

हमने दूसरे भी कई अशआर में देखा है कि ग़ालिब साहेब का हमेशा ख़ुद को बेहतरीन शायर साबित करने के साथ साथ इक जुनूनी और सच्चा आशिक़ साबित करने पर बहुत ज़ोर रहता है. वो मीर कहते हैं ना-

“दिल तड़पे है जान खपे है हाल जिगर का क्या होगा
मजनूँ मजनूँ लोग कहे हैं मजनूँ क्या हम सा होगा”

ग़ालिब साहब और मीर साहब दोनों के मुश्तरका (मिले-जुले) जज़्बात इस शेर में हैं. खैर! ग़ालिब अपनी बात को कहाँ से कहाँ कितनी ख़ूबसूरती से जोड़ देते हैं. ग़ालिब साहेब के इन अशआर को पढ़ कर मजनू साहब और फ़रहाद साहब के चेहरे पर भी ख़ुल्द (जन्नत) में इक हसीन मुस्कुराहट आ गई होगी.

 

(4)

कभी कभी यूँ लगता है कि “यार से छेड़ चली जाये असद” में यार से ग़ालिब की मुराद सिरिफ़ महबूब से नहीं ख़ुदा से भी है. इन अशआर में हमें ग़ालिब की शोख़ तबियत की बख़ूबी झलक मिलती है. वो ख़ुदा से बेहद शोख़ अंदाज़ में ठिठोली करते नज़र आ रहे हैं या कह लें उन्हें चिढ़ाते नज़र आ रहे हैं लेकिन बेहद शाइस्ता (शिष्ट) तरीके से.. इन दोनों शेर में ग़ालिब अपने मख़सूस (विशिष्ट)अंदाज़ में ख़ुद का और तमाम नौए इंसानी (इंसानी प्रजाति) का मज़ाक़ बना रहे हैं.

ख़ुदा से शोख़ी से मुख़ातिब हैं.
ख़ुदा से शिकवा गो भी हैं.
शोख़ी ज़रूर कर रहे लेकिन इंसानी फ़ितरत (स्वभाव) की गहराई को भी बयान कर रहे हैं.

आइए इन अशआर की तफ़सील (विस्तारपूर्वक) से तशरीह करते हैं. पहला शेर है-

“दरिया-ए-मआसी तुनक आबी से हुआ ख़ुश्क़
मेरा सरे दामन भी अभी तर ना हुआ था”

‘दरिया-ए-मआसी’ कहते हैं गुनाहों के दरिया को और तर दामन गुनाहगार को कहते हैं. ग़ालिब यहाँ कह रहे हैं कि मेरे दामन का किनारा भी अभी गुनाहों से तर (भीगना) भी नहीं हुआ था यानी मैंने अपने दामन को ठीक से गुनाहों में अभी डुबोया भी नहीं था कि गुनाहों के दरिया का आब (पानी) ख़ुश्क (सूख) हो गया यानी गुनाहों का दरिया तो ख़ुश्क हो गया लेकिन मेरा दिल गुनाहों से सेर (तृप्त) नहीं हुआ. इक तरह से ग़ालिब ख़ुदा से शोख़ अंदाज़ में शिकायत कर रहे हैं कि इंसान का दिल अभी गुनाहों से भरता भी नहीं है कि उसका इस दुनिया से कूच करने का वक़्त आ जाता है यानी इस दुनिया में इंसान के रहने का वक़्फ़ा (समयांतराल) बहुत थोड़ा है. इसी बात को आनंद नारायण मुल्ला साहेब यूँ कहते हैं-

“वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है”

फ़ैज़ भी तो कहते हैं ना “इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन” यानी ये जो मोहलत मिली है गुनाह करने के लिए वो बहुत कम है इसमें तो हम अपने दामन को भी गुनाहों से तर नहीं कर पाते हैं. वो ग़ालिब ख़ुद भी तो कहते हैं ना –

“हज़ारों ख़्वाहिशें कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले”

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि जितने अरमान निकलते हैं उससे ज़ियादा पैदा हो जाते हैं.

ख़ैर! दूसरी तशरीह इस शेर की यूँ भी हो सकती है कि वो इक तरह से ख़ुदा के सामने ऐतराफ़ (स्वीकारना) कर रहे हों कि मैंने इस शिद्दत से गुनाह किए कि गुनाहों का दरिया ही ख़ुश्क (सूख जाना) हो गया लेकिन मेरे दिल से गुनाह करने की आरज़ू ख़त्म ना हुई. मैंने गुनाह के ज़रिए दिली सुकून पाने की कोशिश की लेकिन वो कोशिश ज़ाया हो गई क्यूँकि मुझमें अभी भी गुनाह करने की हवस बाक़ी है. वो दरिया जिसमें मैं डूबा रहा वो ख़ुश्क हो गया लेकिन मेरे सीने का ख़ला (ख़ालीपन) अभी भी भरा नहीं.

इसकी इक तशरीह यूँ भी हो सकती है कि ग़ालिब इस शेर के ज़रिए इंसानी ख़ुदग़र्ज़ी ,नफ़्स परस्ती (अपनी इच्छाओं की पूजा करना) और उसकी ना ख़त्म होने वाली ख़्वाहिशात पर रौशनी डाल रहे हों. इक तरह से वो कहना चाह रहे हैं कि गुनाह करने में हमारा हौसला इस क़दर फ़राख़ (विस्तृत) है कि हम जितने गुनाह मुमकिन हो सकते हैं वो सब के सब भी कर लें तो हमारा दिल नहीं भरेगा और हमारा अंदरून (अंतःकरण) ख़ाली का ख़ाली ही रहेगा.

इस शेर का मज़मून इस क़दर अनूठा है कि ये शेर ग़ालिब साहेब के मुक़ाबिल (प्रतिद्वंदी) इब्राहिम ज़ौक़ को भी बहुत पसंद था. साथ ही वो ये भी कहते थे कि ग़ालिब साहेब को ख़ुद भी अपने अच्छे शेरों के बारे में पता नहीं है. आइए अब इसी मौज़ू (विषय) पर ग़ालिब साहेब के दूसरे शेर की जानिब नज़र करते हैं-

“ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है”

इस शेर में ग़ालिब जिस शोख़ी (शरारत भरी मासूमियत) से खुदा से मुख़ातिब है उसकी दाद कौन दे सकता है?

तबातबाई कहते हैं कि मीर तक़ी मीर भी जन्नत में हैरान हुए होंगें कि ये मज़मून ग़ालिब के लिए कैसे बच गया. इन अशआर को पढ़ने के बाद मुझे ग़ालिब से जुड़े दो क़िस्से याद आ रहे हैं. थोड़ा वक़्त तो ज़ाया (बर्बाद) होगा लेकिन इन क़िस्सों को पढ़कर आपको अंदाज़ा होगा कि ग़ालिब कितने शरारती और हाज़िर जवाब थे और ये भी अंदाज़ा होगा कि उन्होंने ये अशआर क्यूँकर लिखे होंगे.

पहला क़िस्सा यूँ है-इक दफ़ा रमज़ान के दिनों में ग़ालिब इक कमरे में दोस्तों के साथ चौसर खेल रहे थे. तभी वहाँ इक मौलाना साहेब आ गए और रमज़ान के पाक महीने में उन्हें चौसर खेलते हुए देख कर बेहद हैरान और नाराज़ हुए और कहने लगे

“सुना था कि रमज़ान में ख़ुदा शैतान को क़ैद कर देता है”. इस पर ग़ालिब ने तपाक से जवाब दिया कि “ख़ुदा ने शैतान को इसी कमरे में तो क़ैद किया है.”

दूसरा क़िस्सा यूँ है-अपने दोस्त को ख़त में लिखा कि

“लोग सोचते हैं मैं रोज़ा नहीं रखता. कैसे उन्हें बताऊँ कि रोज़ा रखता हूँ लेकिन रोज़े को बहलाये रखता हूँ कभी पानी पी लिया, कभी हुक्क़ा पी लिया , कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया.”

तो समझे आप ग़ालिब साहेब किस क़दर जिंदादिल और शरारती थे. आइए अब शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं. यहाँ ग़ालिब कह रहे कि ये जो अज़ीयत और तकलीफ़ हम उठा रहे हैं ये उन गुनाहों की सज़ा है जो हमने माज़ी (भूतकाल) में किए हैं तो ख़ुदाया! जो गुनाह हम करने की ख़्वाहिश रखते थे लेकिन नहीं कर पाये उसकी कम अज़ कम शाबाशी, तारीफ़ या ईनाम तो ज़रूर मिलना चाहिए.

इक तशरीह इस शेर की यूँ भी हो सकती है कि यहाँ ग़ालिब खुदा से इल्तेजा कर रहे कि जो गुनाह उन्होंने नहीं किए हैं उसकी भी सज़ा उन्हें मिलनी चाहिए. वो कह रहे हैं कि अगर जो गुनाह हमने किए हैं उनकी सज़ा मिलनी तय है तो जो गुनाह हमारी हसरत बनकर रह गए या जो गुनाह हम किसी वजह से नहीं कर सके सिरिफ़ उनको तसव्वुर (कल्पना) में ला सके उनकी भी तो दाद मिलनी चाहिए यानी उनकी भी सज़ा हमें मिलनी चाहिए. हो सकता है कि ग़ालिब इस बात की जानिब इशारा कर रहे हों कि गुनाह का तसव्वुर (कल्पना) ही गुनाह का बाईस (कारण) बनता है इसलिए उसकी भी सज़ा मिलनी चाहिए.

ख़ैर गुनाह न कर पाने का अफ़सोस यूं जाहिर करना भी इक फ़नकारी है हर किसी के बस की बात नहीं और गुनाहों की हसरत (ख्वाहिश) करने की दाद भी ली जा सकती है, वो भी ख़ुदा से,ऐसा सिर्फ़ ग़ालिब ही सोच सकते हैं . अगर करदा गुनाहों की सज़ा मिलनी तय है तो कुछ गुनाह ना कर पाने का अफ़सोस भी तो समझा जाये. तभी तो वो यूँ भी कहते हैं-

“आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग”

ग़ालिब साहब के इस तर्ज़-ए-बयां (कहने का ढंग), उनकी बेबाकी और उनकी इन गुस्ताख़ियों को सुनकर अर्श-ए-बरीं (सातों आसमान के भी ऊपर का पवित्र स्थान) पर बैठा ख़ुदा न चाहते हुए भी मुसकुरा दिया होगा.

 

(5)

“देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं है”

ये शेर भी ग़ालिब साहब का ख़ूबसूरत सा फ़लसफ़ियाना (दर्शन से संबंधित) शेर है इसमें भी बहुत शोख़ी से अपनी बात रखी गई है. ग़ालिब गहरे फ़लसफ़े (दर्शन) को भी बहुत हल्के – फुल्के मज़ाहिया (ह्यूमर से भरपूर) अंदाज़ में कहने का हुनर रखते थे.

आइए इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं. पहली सतर (पंक्ति) में वो कहते हैं अगरचेह ख़ुदा ने इस दुनिया में उठायी गयी तकलीफ़ों के बदले जन्नत अता करने का वादा किया है लेकिन इतने मसायेब (दुख और तकलीफ़) के बदले ये मुआवज़ा बिल्कुल भी वाजिब नहीं है.

दूसरी सतर में वो कह रहे कि ये नशा पी गई शराब के मुताबिक़ काफ़ी कम है. ये बात उन्होंने पहली सतर वाली बात वाज़ेह (स्पष्ट) करने के लिए कही है यानि जितने ग़म हमने उठाये हैं उसके बनिस्बत जन्नत का तोहफ़ा बिल्कुल मामूली है.

इस्लाम के मुताबिक़ इस दुनिया की ज़िंदगी तर्क करने (त्याग देने) या उसे सही तरीके से गुज़ारने के बदले ख़ुदा ने बहिश्त (जन्नत) का वादा किया है. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि इस दुनिया में मुख़्तसर (छोटे) वक्फ़े के लिए चाहे हम कितने दुखों का सामना करें, कितने ही कर्ब-ओ-अन्दोह (दुख और तकलीफ़) से क्यूँ न गुज़रें हमें उफ़्फ़ तक नहीं करनी चाहिए क्यूँकि इसके बदले हमें जन्नत की आराम-ओ-आसाइश (ऐशो आराम) की तवील (लंबी) और पुरसुकूँ ज़िंदगी मिलने वाली है. वहाँ कोई रंज, कोई दुख हमें छू कर भी नहीं गुज़रेगा. हर पसंद की चीज़ हमारे दस्तरस (पहुंच) में होगी. शराब-ओ-शहद की नहरे होंगी. खजूर- ओ- अनार जैसे फलों के हज़ारों दरख़्त होंगे और भी जाने कौन कौन सी नेमतें हमारे एक इशारे पर हमारी नज़रों के सामने हाज़िर होंगी.

फिर भी ग़ालिब ये कह रहे कि ये जन्नत इस दुनिया में उठाये गए हमारे दुखों और तकलीफ़ों का मदावा (उपचार) नहीं हो सकती है. जिस बेचैनी और बेसुकूनी में हमने दहर (दुनिया) की ये ज़िंदगी गुज़ारी है वो जन्नत जाकर भी कम नहीं होगी.

 तो आख़िरश इसका मदावा (समाधान) क्या होगा??

क्या दर्द-ओ-ग़म का नेमुलबदल (उत्तम विकल्प) सिर्फ़ आराम और सुकून होता है?

हमें तो वही शिद्दत-ए-एहसास (भावनाओं की तीव्रता) चाहिए. हमें वही सरशारी (मदहोशी), वही ख़ुमार चाहिए जो दुनियावी तजुर्बात (अनुभवों) से पैदा होता है. हमें वो जन्नत इस दुनिया जितनी पुरकशिश (आकर्षक) नहीं नज़र आती. जन्नत अगरचेह आराम-ओ-आसाइश (सुकून और सुविधा) से भरपूर हो लेकिन उसमें इश्क, रंज और रूहानी तजुर्बात (आध्यात्मिक अनुभवों) जितनी शिद्दत (तीव्रता) नहीं है.

ग़ालिब को इस दुनिया में उठाए गए रंज-ओ-ग़म के बदले में क्या चाहिए उसका जवाब वो ख़ुद ख़ुदा से मुख़ातिब अपने इस शेर में यूँ दे रहे हैं-

“सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे वो तेरा जलवागाह हो“

मफ़हूम (अर्थ) हुआ कि हमने जो ये ज़िंदगी इस दुनिया में तेरी फ़ुरक़त (विरह) में गुज़ारी है उसके बदले हमें तेरा दीदार (दर्शन) चाहिए. शायद इसी से हमारे ज़ख्मों पर मरहम लगेगा. देखिए अल्लामा इक़बाल भी ख़ुदा की बारगाह में यही इल्तिजा कर रहे कि उन्हें भी जन्नत नहीं उनका दीदार चाहिए-

“ये जन्नत मुबारक ज़ाहिदों को
कि मैं आपका सामना चाहता हूँ”

अल्ताफ़ हुसैन हाली भी यही कह रहे लेकिन तर्ज़े बयां (कहने का ढंग) अलग है. वो कह रहे हैं हमें बतौर जन्नत तेरा दीदार चाहिए. जिस जन्नत की वाइज़ (बुद्धिमान लोग) बात करते हैं उसके बारे में सुनकर हमें ज़रा भी लुत्फ़ (मज़ा) नहीं आता है. थोड़ी सी भी राहत नहीं मिलती है.

“कहते हैं जिसको जन्नत वो इक झलक है तेरी
सब वाईज़ों की बाक़ी रंगी बयानियाँ हैं”

यहाँ पर इक म’आनी ये भी निकाला जा सकता है कि आशिक़ों को जन्नत की रंगीनियों या आसाइशों से कोई वास्ता नहीं, उनके लिए जन्नत का मतलब महबूब का दीदार है, चाहे वो महबूब-ए-मजाज़ी (इंसानी प्रेमी) हो या महबूब-ए-इलाही (ख़ुदा).

 

(6)

“ज़र्रा ज़र्रा साग़र-ए-मै-ख़ाना-ए-नै-रंग है
गर्दिश-ए-मजनूँ ब-चश्मक-हा-ए-लैला आश्ना”

ये ग़ालिब साहेब के बेहद दिलचस्प है क्यूँकि इसमें इश्क़ और फ़लसफ़े (दर्शन) के असरार (रहस्य) को इक ही शेर में बाँधा गया है. आइए इस पुरअसरार (रहस्यमय) शेर की तशरीह करते हैं.

इस शेर की तशरीह हम दूसरी सतर से शुरू करेंगे. यहाँ ग़ालिब कहते हैं कि मजनूँ अपनी पूरी ज़िंदगी लैला की मर्जी के मुताबिक़ बसर करता रहा. मजनूँ की आवारगी, उसका गालियों और सेहराओं में दीवानवार फिरना लैला की आँखों की जुम्बिश (हरकत) के ताबेअ है. वो लैला की आँखों के इशारे, उसके चश्मक (पलकें झपकाना) पर जुनूनी तरीक़े से गर्दिश (चक्कर काटना) करता है. लैला की आँखों की हरकतें (अदायें) ही उसके जुनून, उसकी बेक़रारी, उसकी बेचैनी की असली वजह हैं. लैला अपनी पुतलियाँ घुमाती है और मजनूँ की बागडोर जिस तरफ़ चाहे उस तरफ़ मोड़ देती है. मजनूँ का पागलपन भी लैला की ही इक अदा है. मजनूँ जैसा हर आशिक़ अपनी माशूक़ के इक इशारे पर दीवानावार गर्दिश करता (घूमता) है.

दूसरी सतर (पंक्ति) में वो कहते हैं इस मैख़ाने (शराबख़ाने) सी दुनिया का हर ज़र्रा सागर (प्याले) की मानिंद है और उसी की तरह मुस्तक़िल गर्दिश (लगातार घूमना) में है. हर ज़र्रा यूँ झूम रहा है जैसे उसने जाम-ए-इरफ़ान (आत्मज्ञान का प्याला) पी लिया हो यानी जिस तरह सागर (प्याला) या जाम शराब से लबरेज़ होता है उसी तरह हर ज़र्रा (कण) ख़ुदा के इश्क़ (इलाही शराब) से लबरेज़ है.

ऐसा किसके इशारे पर हो रहा है?

ऐसा महबूब-ए-हक़ीक़ी यानी ख़ुदा के इशारे पर हो रहा है. जिस तरह साग़र (प्याला) गर्दिश करता है उसी तरह महबूब-ए-हक़ीक़ी (ख़ुदा) के इशारे पर कायनात का हर ज़र्रा (कण) गर्दिश करता है. इस कायनात की सारी सरगर्मी उस ख़ुदा के ही इशारे पर है.

यहाँ लैला और मजनूँ को इश्क़-ए-मजाज़ी (इंसानी मोहब्बत) की मिसाल के तौर पर नहीं, बल्कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी (ख़ुदाई मोहब्बत) की मिसाल के तौर पर पेश किया गए हैं. बेशक लैला-मजनूँ ज़ाहिरी तौर पर इश्क़-ए-मजाज़ी (इंसानी मोहब्बत) के किरदार हैं, मगर उनका क़िस्सा हमें दरस (शिक्षा) देता है कि सच्चा इश्क़ ख़ुदा तक पहुँचने का ज़रिया बन जाता है.

शेर का मफ़हूम (अर्थ) यूँ हुआ कि जिस तरह मजनूँ दीवानवार लैला की आँखों की हरकतों पर रक़्स (नृत्य) करता है उसी तरह कायनात का ज़र्रा ज़र्रा ख़ुदा के इशारे पर हरकत करता है. यहाँ तक कि इसकी मिसाल इलेक्ट्रान की प्रोटॉन के गिर्द (चारों ओर) गर्दिश (घूमना) से भी दी जा सकती है. साइंसदान (वैज्ञानिक) तक इस गर्दिश की वजह नहीं बता सकते हैं.

ग़ालिब इस शेर में इश्क़-ए-हक़ीक़ी (ख़ुदा से मुहब्बत) को ही कायनात के छोटे से छोटे ज़र्रे (कण) से लेकर सूरज और चाँद की गर्दिश की वजह बताते हैं और इस रक़्स की तशबीह (उपमा) सूफ़ियाना रक़्स-ए-मुसलसल से देते हैं जो कायनात के ख़त्म होने तक जारी रहेगा.

ग़ालिब ये भी कहना चाहते हैं कि इंसान (मजनूँ) की आवारगी बेजा नहीं है क्यूंकि उसे अपनी माशूक़ की झलक में ख़ुदाई नूर नज़र आता है और सारी कायनात उसे इस इश्क़ के नूर से सराबोर (भीगी हुई) और सरशार (उन्मत्त) नज़र आती है.

वो मौलाना रूमी कहते हैं ना-

“दौर-ए-गर्दूँ राज़-ए-इश्क़ वाँ
गर नबूद-ए-इश्क़, ब-फ़सद दे जहाँ”

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि आसमान की गर्दिश और कायनात का चलना सब कुछ इश्क़ की ही कारस्तानी है. अगर इंसान के दिल में महबूब (ख़ुदा) के दीदार की तड़प ना होती और उससे विसाल की प्यास ना होती तो ये दुनिया बेरूह, बेमक़सद और वीरान होती. इसी बात को क़ातिल शेफ़ाई आसान अल्फ़ाज़ में यूँ कहते हैं-

“गुलों का रंग सय्यारों का नूर है दुनिया
न जाने किसकी मोहब्बत में चूर है दुनिया
कोई उम्मीद न होती तो ख़त्म हो जाती
किसी उम्मीद पर क़ायम ज़रूर है दुनिया”

 

(7)

“किस पर्दे में है आईना परदाज़ ऐ ख़ुदा
रहमत का अज़्र ख़्वाह लब बेसवाल है “

इस शेर में ग़ालिब का ख़ुदा से तलब-ए-रहमत का अन्दाज़ मुझे बहुत पसंद आता है जिस दिलकश अन्दाज़ में वो ख़ुदा से मुख़ातिब है वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. उनके लहजे में इक मज़ाहिया (ह्यूमर से भरपूर) नरमी भी है. इस शेर के ज़रिए ग़ालिब जिन सवालों से ख़ुद जूझते रहते हैं वही सवाल वो हमारे दिल-ओ-ज़ेहन में उठाने की भी कोशिश कर रहे हैं-

वो खुदा जो हर चीज़ को ज़ाहिर करता है (आईना-परदाज़), वो खुद क्यों परदे में है?

जिस खुदा ने पूरी कायनात को ज़ाहिर किया, उसका खुद का ज़हूर (प्रकटीकरण) क्यों नहीं होता?

ख़ुदा तो हर ज़बान (भाषा) का जानने वाला है तो क्या वो खामोशी की ज़बान नहीं समझता होगा?

आइए अब इस ख़ूबसूरत से शेर की तशरीह करते हैं-

पहली सतर में ग़ालिब ख़ुदा से मुख़ातिब होकर कहते हैं कि ऐ ख़ुदा! वो कौन सा पर्दा है जिसमें तू छिप कर ख़ुद को संवारने में मसरूफ़ है? यानि तेरी हक़ीक़त किस परदे के पीछे छुपी हुई है? तू वो है जो हर चीज़ को रौशन करता है, सच्चाई को दिखाता है, मगर तू खुद कहां छुप गया है? मुझ पर भी इक करम की नज़र फ़रमा दे लेकिन ख़ुदा को अपने जमाल (ख़ूबसूरती) को संवारने से फ़ुर्सत नहीं मिलती है. इस बात को ग़ालिब यूँ भी कहते हैं-

“आराईशे जमाल से फ़ारिग़ नहीं हनोज़
पेशे नज़र है आईना दायम नक़ाब में”

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि ऐसा नहीं है कि ख़ुदा को दुनिया बनाने के बाद आराम मिल गया हो बल्कि वो हर लम्हा ख़ुद को यानी अपनी क़ुदरत (सृष्टि) को संवारने में मसरूफ़ रहता है यानी इक तरह से वो अपने हुस्न की नुमाइश में मसरूफ़ रहता है. वो हमेशा नक़ाब में रहता है (यानि सामने नहीं आता है) लेकिन आईना यानी उसकी क़ुदरत हमारी निगाहों के सामने रहती है. पर्दे में छुपे होने के बावजूद वो हमेशा अपने ज़र्रे-ज़र्रे को सजाता रहता है.

आइए वापिस ऊपर वाले शेर की जानिब चलते हैं. दूसरी सतर में वो कहते हैं कि मेरी ज़बान ज़रूर चुप है और सवाल से आरी (ख़ाली) है लेकिन मैं तेरी तवज्जोह (ध्यान) का तलबगार हूँ. मेरी ज़बान भले बेसवाल है लेकिन मेरे दिल में लाख सवाल पोशीदा (छिपे हुए) हैं.

मफ़हूम (अर्थ)ये हुआ कि शायर ख़ुदा से सवाल गो है कि ऐ ख़ुदा! तू पर्दे के पीछे पोशीदा (छिप कर) होकर अपने जमाल की आराइश में मसरूफ़ है यानी तू अपनी क़ुदरत को संवारने में लगा हुआ है और यहाँ तेरा बंदा अपने ख़ामोश लब के पर्दे में हज़ारों सवाल छिपाये हुए है.

ये तेरा एहतेराम (सम्मान) है कि हमने तेरे सामने कोई सवाल नहीं किया, कोई इल्तिजा नहीं की. इंसान की ख़ामोशी भी एक दुआ है. वो शायद अपनी बेबसी, शर्मिंदगी, या अदब की वजह से कुछ नहीं कहता लेकिन दिल ही दिल में खुदा की रहमत का तलबगार रहता है.

इक तरह से वो ख़ुदा से मुख़ातिब होकर कह रहे हैं कि मेरे लब ज़रूर ख़ामोश हैं लेकिन तू तो दिल में पिन्हाँ (छिपे) राज़ को जानने वाला है इसलिए मेरे दिल की आरज़ूओं और हसरतों को भी जानता होगा तो तू जल्द मेरी जानिब निगाह कर और मेरी आरज़ूओं और हसरतों (इच्छाओं)को बर ला (पूरा कर).

 

(8)

“गर तुझको है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
यानि बग़ैर यक दिल-ए-बेमुद्द्दआ न माँग”

ये शेर भी ग़ालिब के उन फ़लसफ़ियाना (दार्शनिक शैली में लिखे) अशआर में से एक है जो सूफ़ियाना रंग में रंग हुआ है. इस शेर में ग़ालिब ने पिछले मज़मून के उलट बिल्कुल नया नुक़्ता लेकर आए हैं.

आइए इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं. यहाँ शायर कह रहा है कि अगर अपनी दुआ की क़ुबूलियत को लेकर तू पुरऐतमाद (आत्मविश्वास से भरा हुआ) है तो कोई दुनियावी आरज़ू (सांसारिक इच्छा) और ज़ाती ग़रज़ (व्यक्तिगत स्वार्थ) के लिए दुआ मत माँग, सिवाय इसके कि ख़ुदा तुझे ऐसा दिल अता कर दे जिसमें कोई आरज़ू (इच्छा) न बचे. क्यूँकि जब दिल आरज़ू से आरी (ख़ाली) हो जाएगा तो दुआ माँगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी हमारे दिल में सिर्फ़ ख़ुदा के क़ुर्ब (निकटता) , उसकी रज़ा (स्वीकृति) और उसके दीदार (दर्शन) की ख्वाहिश बची रह जाएगी.

बेदिल दहलवी इसी बात को फ़ारसी में यूँ कहते हैं-

“दिल तलब-ए-चीज़ नदारद ज़ तू, या रब, ब-रज़ा
कुश्ता शवीम ओ ज़ करम, नाम-ए दुआ बर न दहीम”

मफ़हूम यूँ हुआ कि ऐ परवरदिगार मेरा दिल तुझसे किसी चीज़ का सवाल नहीं करता है हम तो बस तेरी रज़ा (स्वीकृति) पर मरने वाले हैं और उसे भी दुआ नहीं कहते हैं.

अब सवाल उठता है कि किसी को कैसे यक़ीन हो जाता होगा कि उसकी दुआ ख़ाली न जाएगी ज़रूर बर (पूरी होना) आएगी?

इस यक़ीन की वजह ये हो सकती है कि ख़ुदा से उसका रूहानी (आध्यात्मिक) रिश्ता बहुत मज़बूत होगा. उसे इल्म-ए-इरफ़ान (ख़ुदाई इल्म) हासिल हो गया होगा. जो इंसान रूहानी (आध्यात्मिक) तौर पर इतना क़वी (मज़बूत) होगा उसे इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया की फ़ानी अश्याअ (नश्वर चीज़ों) की क्या ही ख़्वाहिश (इच्छा) रह जाएगी. उसकी सारी ख़्वाहिशात फ़ना (नष्ट) हो जायेंगी और जब दिल में कोई ख़्वाहिश कोई तमन्ना न बचेगी तो फिर उसे दुआ माँगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी. यानि उसमें इस दुनिया की किसी भी चीज़ के लिए कोई ख्वाहिश, कोई लालच नहीं बचेगा.

दिल को ख़्वाहिशात से आरी (ख़ाली) करना यानि दिल को इतना क़वी (मज़बूत) बनाना कि उसमें कोई ख़्वाहिश न रह जाये इतना आसान नहीं है , तभी तो कबीरदास जी कहते हैं-

“माया मरी न मन मरा, मर मर गए शरीर
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर”

मआनी (अर्थ) ये हुआ कि इंसान मर जाता है लेकिन उसकी ख़्वाहिशात फ़ना (नष्ट) नहीं होती हैं.

वही कबीर दास जी यूं भी कहते हैं-

संतौ भाई आई ग्यान की आँधी. रे!
भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी, माया रहै न बाँधी रे II

मफ़हूम (अर्थ) क्या हुआ कि जब इल्म-ए-इलाही (ख़ुदाई ज्ञान) हमें हासिल हो जाता है तो कोई माया कोई ख़्वाहिश बाक़ी नहीं रह जाती है यानि दिल-ए-बेमुद्द्दआ (बिना इच्छा का दिल) हासिल हो जाता है.

यहाँ देखिए रहीमदास जी इसी मौज़ू पर कितनी ख़ूबसूरत बात कहते हैं-

“चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह
जिसको कछु न चाहिए वो शाह्नन के शाह”

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि बादशाह वो नहीं है जिसके पास बहुत सारा माल-ओ-ज़र (संपत्ति) है बल्कि वो है जिसके दिल से सारी ख़्वाहिशात (इच्छाएँ) सारे लालच मिट गए हैं और जिसे इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया से कुछ भी नहीं चाहिये. यानि जिसके पास ख़्वाहिशात से आरी (ख़ाली) दिल है वही असली बादशाह है.

यानि सबसे बड़ी नेमत, सबसे बड़ी दौलत वो दिल है जो आरज़ू से आरी (ख़ाली) है इसलिए हमें ख़ुदा से दुआ में उसे ही तलब (मांगना) करना चाहिए. वो सीमाब अकबराबादी कहते हैं ना-

“है हुसूल-ए-आरज़ू का राज़ तर्क-ए-आरज़ू
मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे”

 

(9)

“सब रक़ीबों से हों ना-ख़ुश पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महव-ए-माह-ए-कनआँ हो गईं”

ये ग़ालिब साहेब का इक बहुत म’आनिखेज़, दिलचस्प और ख़ूबसूरत शेर है.आइए इसे तफ़सील (विस्तारपूर्वक) से समझते हैं. इस शेर की तशरीह करने से पहले हमें हज़रत यूसुफ़ और बीबी ज़ुलेख़ा का क़िस्सा जानना ज़रूरी है. ये क़िस्सा बाइबिल और क़ुरआन दोनों में है. मैं आपको क़ुरआन वाला वर्जन ही क्यूँकि ये शेर उसी से मुतास्सिर (प्रभावित) नज़र आता है. वैसे मौलाना जामी वाला वर्जन भी बहुत दिलचस्प है ज़रूर पढ़ियेगा.

बीबी ज़ुलेख़ा मिस्त्र की रानी थी जो अपने ग़ुलाम हज़रत यूसुफ़ के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गयीं थीं. हज़रत यूसुफ़ अल्लाह के पैग़म्बर थे और बेहद हसीन थे. धीरे धीरे ये बात पूरे मिस्त्र को पता चल जाती है. ग़ुलाम पर आशिक़ होने की वजह से मिस्त्र की औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाने लगती हैं और उन पर तानाज़नी करने लगती हैं. इससे परेशान होकर उन्होंने उन सब औरतों को दावत दी और हज़रत यूसुफ़ को पसे पर्दा (पर्दे के पीछे) बिठा दिया. इसके बाद उन्होंने उन सब औरतों को एक-एक सेब तराशने (काटने) को दे दिया. जब औरतें सेब तराशने लगीं तो उसी वक़्त उन्होंने हज़रत यूसुफ़ को पर्दे से बाहर बुलवा लिया. वो औरतें हज़रत यूसुफ़ के बेमिसाल हुस्न में इस क़दर गुम हो गयीं कि सेब के बजाए उन सबने अपनी अपनी उँगलियाँ ही काट लीं. तब बीबी ज़ुलेख़ा ने उनको बताया कि यही वो ग़ुलाम यूसुफ़ है जिसके इश्क़ में गिरफ़्तार होने पर वो उन पर तानाज़नी करती हैं. वो औरतें ख़ुद भी इश्क़ की सच्चाई का ज़ायेक़ा चख बैठीं और उस दिन के बाद से उन औरतों ने बीबी ज़ुलेख़ा का मज़ाक़ कभी नहीं उड़ाया. ग़ालिब साहेब ने इस शेर में इसी वाक़ये की तरफ़ इशारा किया है.

अच्छा रक़ीब किसे कहते हैं?

महबूब के दूसरे चाहने वालों को रक़ीब कहा जाता है.

आइए अब इस शेर की बतफ़सील (विस्तारपूर्वक) तशरीह करते हैं. शेर में ग़ालिब साहेब कह रहे हैं कि वैसे तो आम तौर पर आशिक़ अपने रक़ीबों से नाख़ुश (ख़ाइफ़) रहते हैं लेकिन ज़ुलेखा अपनी रक़ीबों यानि मिस्त्र की औरतों से ख़ुश हैं कि वो कनआँ (हज़रत यूसुफ़ का वतन) के चाँद यानि हज़रत यूसुफ़ को देखने में इस क़दर गुम हो गयीं कि उन पर आशिक़ हो गयीं. ज़ुलेखा इसलिए ख़ुश हैं कि अब ज़ुलेख़ा की तौहीन कोई नहीं करेगा. उसकी मुहब्बत अब तानों से बरी है क्यूँकि जो औरतें ज़ुलेखा पर ताने कसती थीं वो ख़ुद यूसुफ़ के हुस्न में गिरफ़्तार हो गईं. ज़ुलेखा अब तन्हा नहीं उसका इश्क़ अब इज्तेमाई (सामूहिक) तजुर्बा बन गया है. ज़ुलेखा के दिल का हाल समझने के लिए आइए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म “रक़ीब से” की जानिब चलते हैं-

“हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ”

ख़ैर ग़ालिब के ऊपर वाले शेर की इक दूसरी तरह से भी तशरीह कर सकते हैं. हो सकता है ग़ालिब कहना चाहते हों कि पहले लोग मुझे दीवाना और अहमक़ समझते थे लेकिन जब उन्होंने मेरे महबूब के हुस्न को देखा तो ख़ुद भी उस पर फ़रेफ़ता (आशिक़) हो गए. अब जबकि वो भी मेरे महबूब के हुस्न के क़ायल हो गये हैं तो मुझे भी ज़ुलेख़ा की तरह उन रक़ीबों से कोई शिकायत न रही.

ये शेर सिर्फ़ इश्क़-ए-मजाज़ी ही नहीं बल्कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी (ख़ुदा से मुहब्बत) के रौशनी में भी समझा जा सकता है जहाँ लोग पहले तो सच्चाई यानी ख़ुदा के वुजूद से इनकार करते हैं और आशिक़ को दीवाना और गुमराह समझते हैं उसके इश्क़ को जुनून का नाम देते हैं लेकिन जब पर्दा उठता है और हक़ीक़त सामने आती है तो सबके सिर एहतेराम से झुक जाते हैं.

इसी मौज़ू पर कुछ अशआर सैयदा नफ़ीस बानो शमा के याददिहानी में दर्ज हैं-

“हुस्न-ए-यूसुफ़ किसे कहते हैं ज़ुलेख़ा क्या है
इश्क़ इक रम्ज़ है नादाँ अभी समझा क्या है

फ़लसफ़े इश्क़ के अब कौन किसे समझाये
हर तरफ़ उसकी तजल्ली है तो परदा क्या है “

 

(10)

“छोड़ा मह-ए-नखशब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने
ख़ुर्शीद हनूज़ उसके बराबर ना हुआ था”

ग़ालिब का ये शेर महबूब के हुस्न की तारीफ़ के नज़रिए से बेमिसाल है. यहाँ ग़ालिब के तख़य्युल (कल्पना) की परवाज़ (उड़ान) देखते ही बनती है. आइए सबसे पहले ये जानते हैं कि “मह-ए-नखशब” किसे कहते हैं?

“मह-ए-नखशब” मतलब नख़्शब का चाँद. कहते हैं हकीम इब्न-ए-अता जिन्हें अल-मोकन्नह भी कहते हैं ने पारे की तकनीक से बनाकर इक चाँद रौशन किया था. ये चाँद शाम के वक्त इक कुँए से निकलता था . उसकी रौशनी क़ुदरती चाँद के मुक़ाबिल (तुलना में) बहुत कम थी लेकिन इस की रौशनी बारह मील से आगे नहीं जाती थी. चार महीने के बाद ये चाँद नाकारा (बेकार) हो गया. नख़शब तुर्किस्तान में इक क़स्बा है. इस क़स्बे से चंद मील के फ़ासले पर कोह-ए-श्याम (चह-ए-नख़्शब) वाक़े (स्थित) है. इसी पहाड़ के दामन में वो कुँआ है जिसमें से वो चाँद निकला करता था. ये चाँद मुसलसल चार महीने तक निकलता रहा फिर किरची किरची होकर बिखर गया.

यहाँ हम सबसे पहले दूसरी सतर (पंक्ति) की तशरीह करेंगे. चूँकि ख़ुर्शीद (सूरज) हुस्न में ग़ालिब साहेब के महबूब के हुस्न के मुक़ाबिल (तुलना में) कहीं ठहरता ही नहीं है इसलिए ग़ालिब ने उसकी तशबीह (उपमा) मह-ए-नख़शब से दी है. ग़ालिब कहते हैं कि क़ुदरत ने महबूब की नक़ल के तौर पर आफ़ताब (सूरज) को तख़लीक़ (रचना) किया लेकिन जब क़ुदरत ने देखा कि इंतहाई कोशिश के बावजूद भी आफ़ताब (सूरज) हुस्न-ओ-जमाल (ख़ूबसूरती) के ऐतबार से मेरे महबूब के हुस्न के मुक़ाबिल न हो सकेगा तो उसने उसे यूँ ही नातमाम (अधूरा) छोड़ दिया जिस तरह इब्ने मुकन्नह ने मह-ए-नख़शब को नातमाम (अधूरा) छोड़ दिया था. इस बात को यूँ भी कह सकते हैं कि ख़ुर्शीद नाक़िस (अपूर्ण) ही रह गया जिस तरह मशहूर है कि माह-ए-नख़्शब इब्ने मुकन्नह से नाकिस (अपूर्ण) रह गया था.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि क़ुदरत ने जब ग़ालिब के महबूब के हुस्न को देखा तो उसकी इक मसनूई (कृत्रिम) नक़ल बनाने की सोची और ख़ुर्शीद (सूरज) को तामीर (बनाना) किया. लेकिन ख़ुर्शीद (सूरज) भी मह-ए-नख़्शब की तरह नाकारा ही साबित हुआ तो क़ुदरत ने उसे कायनात में लटकता हुआ छोड़ दिया.

यहाँ ग़ालिब कहना चाहते हैं कि महबूब का हुस्न ही असल है यानी हक़ीक़ी (वास्तविक) है, इब्तिदाई (शुरुआती) है जबकि ख़ुर्शीद (सूरज) उसकी नक़ल है. महबूब का हुस्न ही हक़ीक़ी (वास्तविक) और ताक़यामत क़ायम रहने वाला है जबकि उसके सामने ख़ुर्शीद (सूरज) आरज़ी है, बनावटी है, फ़ानी (नश्वर) है. इक तरह से वो कहना चाह रहे हैं कि महबूब ही सारी कायनात को रौशनी, गर्मी और ज़िंदगी अता कर रहा है सूरज नहीं. मफ़हूम ये हुआ कि महबूब के हुस्न की नक़ल भी नहीं उतारी जा सकती है तभी तो ख़ुद क़ुदरत भी चाहकर उसकी नक़ल ना बना सकी.

इस शेर की इक तशरीह इक अलहदा तरीक़े से यूँ भी हो सकती है कि इब्ने मुकन्नह का चाँद इसलिए अधूरा रह गया क्यूँकि सूरज उसके साथ नहीं था. मफ़हूम ये हुआ कि चूँकि मह-ए-नख़शब सूरज की रौशनी से रौशन नहीं था और उसकी रौशनी नक़ली थी इसीलिए वो नाकारा साबित हो गया. मह-ए-नख़शब चाँद तो था लेकिन उसकी ज़िया (रौशनी) महदूद (जिसकी सीमा तय हो) थी. इसकी वजह सिर्फ़ ये थी कि उसकी रौशनी की वजह सूरज नहीं था.

 

(11)

“इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं
जाँ सिपारी शजर-ए-बैद नहीं“

ग़ालिब का ये शेर मेरे दिलअज़ीज़ अशआर में से एक है. इस शेर में ग़ालिब इश्क़ की तासीर पर रौशनी डाल रहे. आइए इसकी तशरीह करने से पहले जानते हैं कि शजर-ए-बैद किसे कहते हैं?

शजर-ए-बैद ऐसा पेड़ है जिसकी लकड़ी नर्म और ख़मदार (हल्का सा झुका हुआ) होती है. ये बेसमर (बांझ) पेड़ है यानी इस पेड़ पर फल और फूल नहीं लगता और जाँ सिपारी का म’आनी यहाँ इश्क़ है. चलिए अब शेर की जानिब चलते हैं-

पहली सतर में वो कह रहे हैं कि आशिक़ी ऐसा पेड़ थोड़े ही है जो तासीर यानी फल से महरूम रहे. इश्क़ इक तख़लीक़ी (सृजनात्मक) , बाअसर (प्रभावशाली) और मानीखेज़ (अर्थपूर्ण) अमल (कार्य) है. इश्क़ चाहे मजाज़ी (इंसानी) हो या हक़ीक़ी (ख़ुदाई) वो हमेशा अपना निशान छोड़ता है यानी वो किसी ना किसी असर का बाईस (कारण) बनता है. अगर वो ज़ाहिरी (बाहरी):तौर पर कोई निशान नहीं छोड़ता तो आशिक़ के बातिन (अंतःकरण) पर ज़रूर असर डालता है. इश्क़ कभी राएगाँ (बेकार) नहीं जाता. आशिक़ की क़ुर्बानी चाहे वो रूहानी (आध्यात्मिक) हो या दुनियावी कभी भी बेमक़सद नहीं होती, वो आशिक़ के बातिन (अंतःकरण) में या दुनिया में कोई बड़ी तब्दीली (बदलाव) ज़रूर लाती है.

मजनूँ और फरहाद जैसों ने इश्क़ में जान दी और उनको इश्क़ ने ज़िंदा-ओ-जावेद (अमर) बना डाला. उनका क़िस्सा आज भी लोगों की आँखों को पुरनम (गीला) कर देता है. रूमी ने शम्स तबरेज़ी के इश्क़ में मशहूर-ए-ज़माना मसनवी लिख डाली जो आज भी लोगों के ज़ेहन-ओ-दिल को रौशन करती है. मीर, ग़ालिब, मजाज़ और फ़ैज़ जैसों ने इश्क़ में दिल हारा तो अपनी तख़लीक़ (रचना) से तारीख़ भी लिख डाली. मंसूर अल हज्जाज़ ने ख़ुदा के इश्क में अनलहक़ का नारा दिया तो उनकी सदा आज भी लोगों के दिलों में गूँजती है. इश्क़ में क़ुर्बानी से मतलब सिर्फ़ जान की क़ुर्बानी से नहीं है बल्कि नफ़्स (वासना) की क़ुर्बानी, ख़्वाहिशात और दुनियावी मफ़ादात (फ़ायदा) की क़ुर्बानी से भी है. इश्क़-ए-हक़ीक़ी (ख़ुदाई इश्क़) में नफ़्स (वासना) को क़ाबू करने वालों (जैसे नानक, बुद्ध, महावीर, मौला अली) को दुनिया ने जावेदानी ज़िंदगानी (अमर जीवन) अता कर दी.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि इश्क़ की तासीर में नाउम्मीदी नहीं है यानि आशिक़ कभी नाउम्मीद नहीं होता. फिर शायर कहता है कि इश्क़ ऐसा शजर (पेड़) नहीं है जिस पर फूल नहीं लगता. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि इश्क़ का शजर (पेड़) तो हमेशा ही फल और फूल से आबाद रहता है. आशिक़ नाकाम तो हो सकता है लेकिन नाउम्मीद नहीं होता है. वो हमेशा पुरउम्मीद रहता है यानि उसे तो तामर्ग (मृत्यु तक) अपने महबूब से उम्मीदें रहती हैं. तभी तो फ़ैज़ साहेब आशिक़ के दिल की बात यूँ कहते हैं-

“दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है“

आशिक़ जानता है कि महबूब किसी न किसी रोज़ उसका इश्क़ ज़रूर क़ुबूल करेगा. उसके इश्क़ के शजर (पेड़) पर फूल ज़रूर आएगा इसीलिए तो फ़ैज़ साहेब यूँ भी कहते हैं-

“गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है
जो चाहे लगा दो डर कैसा
गर जीत गये तो डर कैसा
हारे भी तो बाज़ी मात नहीं”

म’आनी हुआ कि महबूब इश्क़ न भी क़ुबूल करे तो क्या? इश्क़ का हासिल ख़ुद इश्क़ है. इश्क़ आशिक़ को वो रूहानी शादमानी ( आध्यात्मिक ख़ुशी) अता करता है जो सिर्फ़ वलियों (ख़ुदा के नुमाइंदों) के हिस्से में आती है. तो समझे जनाब अगर इश्क़ की तासीर को महसूस करना है और उसके असरार (राज़) से आशना होना है तो इश्क़ करने के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. वो निदा साहेब कहते हैं ना-

“होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है,
इश्क़ कीजे फिर समझिये आशिक़ी क्या चीज़ है”

लेकिन इश्क़ तो वो शय है जो ख़ुदा की जानिब से नाज़िल (अवतरित) होती है. ख़ुद के चाहने से कुछ नहीं होता तो दुआ कीजिए ख़ुदा आप पर इश्क़ नाज़िल करे.

 

 

(12)

“पाये अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है
ख़ार-ए-रह को तेरे हम मेहर-गया कहते हैं”

आइए सबसे पहले जानते हैं मेहर गया क्या है?

ये इक ख़ास क़िस्म के जंगली बूटी या पौधे का नाम है जो ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में पाई जाती है . इससे बड़ी दिलचस्प रिवायत जुड़ी है. कहते हैं कि जिस के पास ये जंगली बूटी होती है उस पर लोग मेहरबान हो जाते हैं. इस जड़ी बूटी को किसी की मुहब्बत हासिल करने के लिए काले जादू में भी इस्तेमाल किया जाता था. इसे आम पौधा नहीं मानते हैं बल्कि ये ऐसी बूटी मानी जाती है जिसे दोस्ती, मुहब्बत और वफ़ा हासिल करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. जैसे जैसे ये ज़मीन की ख़ुशबू को फैलाती है वैसे वैसे इंसान के दिलों में मुहब्बत और वफ़ादारी फैलती है. मेहर गया का लफ़्ज़ी मआनी भी बड़ा ही दिलचस्प है “मुहब्बत का पौधा”.

यहाँ ग़ालिब महबूब को मुख़ातिब करते हुए कहते हैं कि ऐ महबूब! जब से तुझे हमारे ज़ख़्मी पैरों पर रहम आया है तबसे हम उन काँटों को जिनसे हमे ये ज़ख़्म मिले हैं काँटें नहीं बल्कि मेहर गया समझते हैं. यानी जबसे तुमने मेरे दुख दर्द और तकलीफ़ को महसूस किया है हम यही सोच रहे हैं कि जो काम कोई ना कर सका वो काम इन काँटों ने कर दिखाया. इन काँटों के दिए ज़ख़्मों में मेहर गया के काले जादू का सा असर है.

अपनी किसी तकलीफ़ की वजह से आशिक़ को जब माशूक़ की जानिब से थोड़ी सी भी रहम या तवज्जह मिलती है तो उसके क़दम ख़ुशी से ज़मीन पर नहीं पड़ते और वो उन तकलीफ़ों को ख़ुदा की रहमत समझने लगता है जैसे इस शेर में ग़ालिब को माशूक़ के घर के रास्ते पर पड़े ख़ार (कांटे) भी फूलों से नर्म-ओ-नाज़ुक नज़र आ रहे हैं. ये इश्क़ की इंतेहा है जिसमें आशिक़ को ना सिर्फ़ माशूक़ की ज़ात अज़ीज़ होती है बल्कि उससे जुड़ी हर शय (चीज़) अज़ीज़ हो जाती है यहाँ तक कि उसके घर के रास्ते में पड़े ख़ार (कांटे) भी. ग़ालिब महबूब की तवज्जह (ध्यान) के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं वो इसके लिए काँटों पर चल कर ख़ुद को लुहुलुहान करने को भी तैयार हैं जबकि महबूब ने ज़ुल्म में कोई कमी नहीं की है बस उसने ग़ालिब के ज़ख़्मों को देखकर उनकी तरफ़ तवज्जोह बढ़ा दी है.

क्यूँकि ये महबूब वही है जिसके बारे में ग़ालिब यूँ लिखते हैं-

“न निकला आँख से तेरी इक आँसू उस जराहत पर
किया सीने में जिस ने ख़ूँ-चकाँ मिज़्गान-ए-सोज़न को”

आइए इस शेर की भी तफ़सील (विस्तारपूर्वक) से तशरीह करते हैं. इस शेर में ग़ालिब ने महबूब की संगदिली और सख़्तमिजाज़ी की जानिब इशारा किया है. यहाँ ग़ालिब कहते हैं कि ऐ महबूब! जब जर्राह (सर्जन) ने मेरे ज़ख़्म को सीना शुरू किया तो ज़ख़्म की हालत देखकर सूई भी ख़ून के आँसू रोने लगी लेकिन तू किस क़दर संगदिल है कि उस ज़ख़्म को देखकर तेरी आँख से इक क़तरा भी आँसू का नहीं निकला.

जब ज़ख़्म को सिला जाता है तो ये वाज़ेह बात होती है कि सूई भी ख़ून आलूदह हो जाती है. इसी बात को शायर यूँ कहता है कि सूई भी ख़ून के आँसू रोने लगी.

जिन ज़ख़्मों को सीने में सूई तक ने आँखों से ख़ून बहा दिया उन ज़ख़्मों को देखकर तेरी आँखों से एक क़तरा भी आँसू का नहीं निकला. जिन ज़ख़्मों को देखकर इक आम इंसान की आँखें भी नम हो जातीं उन ज़ख़्मों को देखकर तू ज़रा भी ग़मज़दा नहीं हुई.

ग़ालिब अपने अशआर में अल्फ़ाज़ के साथ चालाकी से खेल कर अक्सर क़ारी (पाठक) को चौंका देते हैं. यहाँ पर भी देखिए सीना इक दफ़ा आया है लेकिन दो म’आनी फ़राहम करता है. शायर कहता है ज़ख़्म को सीने के लिए जैसे ही सूई सीने के अंदर गई सीने से ख़ून का फव्वारा छूट गया.

उसी तरह सूई भी है यहाँ ग़ालिब महबूब को भी सूई से ही तशबीह (उपमा) देते हैं यानी यहाँ दो सुइयों की बात हो रही हैं. कहते हैं कि तू उस बेजान सूई से भी ज़्यादा ईज़ा (तकलीफ़) पहुँचाने वाली है क्यूँकि तू ज़िंदा इंसान (ज़िंदा सूई) होकर भी संगदिल बनी रही जबकि बेजान (मुर्दा) सूई मेरे ज़ख़्मों को देखकर ग़मज़दा हो गई और ख़ून के आँसू रोने लगी. इसी बात को ग़ालिब ने यूँ भी कह रखा है-

“वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में”

लेकिन हमारे ग़ालिब इतने वफ़ादार आशिक़ हैं कि इतने ज़ालिम और ईज़ा (तकलीफ़) पसंद महबूब से भी किनाराकशी करने के बजाय उससे कहते हैं-

“ज़ुल्म कर ज़ुल्म! अगर लुत्फ़ दरेग़ आता हो
तू तग़ाफ़ुल में किसी रंग से माज़ूर नहीं”

 

 

(13)

“अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तूने आईना तिमसालदार था”

ग़ालिब इक सादह (साधारण) सी बात को इतने पुरलुत्फ़ (मजेदार) तरीक़े से बयान करते हैं कि यूँ लगता जैसे कितनी ख़ास बात हो गई. मिसाल के तौर पर यही शेर देख लें. इस शेर का मज़मून बेहद सादह है. महबूब ने आशिक़ का दिल तोड़ दिया है. इससे जो कर्ब ओ अन्दोह (पीड़ा) उसके दिल में पैदा हुआ है वो उसे ही बयान कर रहा है. आइए इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करके जानने की कोशिश करते हैं कि ग़ालिब ने इक आम और बारहा (बार-बार) छेड़े गए मज़मून को कैसे ताज़गी अता की है?

इस शेर में शायर महबूब से शिकायतगो है और कहता है कि ऐ महबूब! तूने मेरा आईना-ए- दिल (हृदय का दर्पण) तोड़ दिया है. मेरा आईना-ए- दिल (हृदय का दर्पण) ख़ाली नहीं था उसमें तेरी ही तस्वीर आबाद थी. जब तूने उसे तोड़ा तो वो किर्ची-किर्ची होकर बिखर गया और हर टुकड़े में मुझे तेरा ही अक्स (तस्वीर) नज़र आने लगा. वो जो एक अक्स (तस्वीर) था वो लातादाद (असंख्य) हो गया. इससे जो उस तस्वीर से वाबस्ता (जुड़ी हुई) मेरी आरज़ूएँ थी वो भी इक शहर की मानिंद लातादाद (असंख्य) नज़र आने लगीं. उन आरज़ूओं का जो इक पूरा शहर आबाद था वो उजड़ गया, बर्बाद हो गया और मैं उसका सोग माना रहा हूँ.

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि तूने जो आईना (दर्पण) तोड़ा उस आईने में मुझे अपने साथ तेरा भी अक्स नज़र आता था. मुझे पुख़्ता यक़ीन था कि इक रोज़ तुझसे वाबस्ता (जुड़ी हुई) मेरी आरज़ुएँ, उम्मीदें और तमन्नाएँ सच की ज़मीन पर फ़ायज़ होंगी यानि तू मेरा हो जाएगा लेकिन तूने ऐ बेदर्द! ऐ हरजाई! मेरा वो यक़ीन झुठला दिया. अब मैं अपनी उन आरज़ूओं का मातम करने के सिवाय कर ही क्या सकता हूँ. पहले मुझे हर जानिब (ओर) तेरा ही जलवा नज़र आता था लेकिन अब मैं फ़क़त (केवल) अपनी तन्हाई और वीरानी के साथ बैठा हूँ और ये तन्हाई जिस्मानी नहीं बल्कि रूहानी है.

उस आईने में तेरे अक्स के साथ साथ मुझे अपने वजूद (अस्तित्व) की झलक भी दिखाई देती थी. तूने तो मेरे वुजूद (अस्तित्व) का भी नाम-ओ-निशान मिटा दिया लेकिन फिर भी मुझे अफ़सोस अपने वुजूद को खोने का नहीं है बल्कि तेरे ख़यालों (कल्पनाओं) से महरूम होने का है. अब मैं ताउम्र उन नाकाम आरज़ूओं और अधूरी ख़्वाहिशों का मातम करता रहूँगा. मेरी तमाम हसरतें राएगाँ (बेकार) हो गईं और दिल की दिल में ही रह गईं.

ऐसा लगता है महबूब ने ग़ालिब से रिश्ता तोड़ दिया है इसलिए ग़ालिब बेहद कर्ब (पीड़ा) के साथ कह रहे हैं कि तूने मुझसे रिश्ता तोड़ा तो मेरी सारी आरज़ूएँ, तमन्नाएँ, उम्मीदें सब ख़ाक़ (मिट्टी) में मिल गईं.

तो देखा आपने “मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू “ ने शेर में कैसा लुत्फ़ (मज़ा) पैदा कर दिया है वरना बात तो आम ही थी लेकिन ग़ालिब ने अपनी सेहर बयानी (मन मोह लेने वाली वाणी) से उसे ख़ास बना दिया.

 

 

(14)

“थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ”

ये शेर ग़ालिब के अनमोल शाहकारों (मास्टरपीस) में से एक है. इस शेर के निस्बत (संबंध में) से कहते हैं कि ग़ालिब ने इस एक मिसरे (शेर) में अपनी जवानी की सारी कहानी कलमबंद कर दी है. इस शेर से उनकी ख़ुदपसंदी (आत्ममुग्धता) भी ज़ाहिर होती है क्यूँकि वो बड़े ही पुरऐतमादी (आत्मविश्वास) से मान रहे कि उनके ख़यालों में पहले दिलकशी और बाँकपन था. फिर वो कहते हैं मेरे ख़यालों में जो रानाई (रूप-सौंदर्य) जो दिलकशी थी वो सिर्फ़ इक महबूब के ख़याल भर से थी.

वो कहना चाह रहे कि इक वक़्त था जब उनके ख़यालों में ज़राफ़त (शिष्ट हास्य) भी था , हुस्न (सुंदरता) भी था , तवानाई (सामर्थ्य) भी थी भले ही अब ना हो. यहाँ वो कहना चाह रहे कि चाहे उनकी जवानी में उनकी अपनी शकल और उनके अपने ज़ाहिर में भले ही रानाई (रूप-सौंदर्य) ना रही हो लेकिन ख़यालों में रानाई (रूप सौंदर्य) या बाँकपन ज़रूर था जो अब इक शख़्स के तसव्वुर (कल्पना) से चले जाने से मिट गया. अब ना ही वो महबूब है ना ही ख़यालों में रानाई (रूप-सौंदर्य) है. यानी जब तक उस शख़्स का तसव्वुर दिल में ज़िंदा था ख़यालात में रोशनी, दिलकशी, ख़ूबसूरती और मआनी मौजूद थे. कोई शख़्स तसव्वुर (कल्पना) में ज़िंदा था यानी उसकी मुहब्बत, उसकी यादें और उसकी मौजूदगी का एहसास ज़िंदा था लेकिन अब वो तसव्वुर में भी ज़िंदा नहीं है. साहिर साहब के अल्फ़ाज़ में कहें तो-

“उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई”

इसकी इक बेहद दिलचस्प तशरीह यूँ भी कि जा सकती है. महबूब का वजूद (अस्तित्व) था क्योंकि वो इक शख़्स के तसव्वुर (कल्पना) में मौजूद था. यानी कोई उसे बाँकपन से सोचता था इसलिए वो मौजूद थी. उसकी हस्ती (होना) सिर्फ़ किसी के उसको तसव्वुर (कल्पना) में लाने से थी. जो आदमी उसे सोचता था उसके ख़यालों में अब वो रानाई (रूप सौंदर्य) नहीं रह गई इसलिए वो उसे अब वुजूद (अस्तित्व) में नहीं ला पा रहा.

वैसे इस शेर में ग़ालिब ने बेहद एहतेराम के साथ उस महबूब को “इक शख़्स” कहकर पुकारा है. यहाँ “इक शख़्स” का लफ़्ज़ बेहद असरदार है. अगर वो इस के बदले “इक शोख़” कहकर उसे पुकारते तो ये ज़ाहिर होता कि अभी भी ज़ौक़-ओ-शौक़ (रुचि और जुनून) बाक़ी है जो माशूक़ के लिए ऐसा लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है.

ख़ैर! यहां ग़ालिब कहना चाहते हैं कि इश्क़ ना सिर्फ़ दिल में रौशनी करता है बल्कि ख़यालात (विचारों) को भी उजाला बख़्शता है- उसको रानाई (रूप-सौंदर्य) बख़्शता है. उसके सोचने के ढंग को हुस्न और नर्मियत अता करता है. लेकिन जब किसी वजह से इंसान महबूब के ख़याल से आरी (ख़ाली) हो जाता है या उससे ताल्लुक टूट जाता है तो उसकी सोच, उसका बातिन (अंतःकरण) सब बेरंग हो जाता है.

 

 

(15)

आइए इस मज़मून में ग़ालिब के एक ही ग़ज़ल के दो ख़ूबसूरत और पुरलुत्फ़ (आनंद से भरपूर) अशआर की तशरीह करते हैं. पहला शेर है-

“ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की”

यहाँ ग़ालिब अपनी ज़िंदगी के मसायेब और महबूब की याद के तसलसुल (सिलसिले) को एक ही शेर में बयान करते हैं. वो कहते हैं कि वैसे तो ग़म-ए-दुनिया इस कसरत से है कि उससे सर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती लेकिन गर वक़्फ़े दो वक़्फ़े (समयांतराल) के लिए ग़म से राहत मिल भी जाती है तो फ़ौरन से पेश्तर (तुरंत) मेरी निगाह आसमान पर जा पड़ती है और तुम्हारी याद आ जाती है. आसमान की जानिब देखना तुम्हें याद करने का बहाना बन जाता है.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ हो सकती है कि माशूक़ की याद इतनी पुरलुत्फ़ और बाईसे मसर्रत (ख़ुशी की वजह) है कि उसकी वजह से ग़ालिब साहेब को दुनिया के ग़म-ओ-अंदोह (दुख और पीड़ा) से निजात मिल जाती है. माशूक़ का रुतबा इतना बुलंद है कि वो फ़लकनशीं है यानी वो आसमान में ही कहीं रहता है इसीलिए फ़लक की जानिब देखते ही उसकी याद आ जाती है. ये दुनिया इस क़दर दर्द-ओ-ग़म से लबरेज़ है कि ग़ालिब साहब ने महबूब को अपने तसव्वुर में आसमानों में पिन्हाँ (छिपाया) किया हुआ है.

इस शेर की इक तशरीह यूँ भी हो सकती है कि महबूब ऐसे ज़ुल्म किया करता था कि मैं फ़लक़ को देखकर रह जाता था. इसलिए आसमान की जानिब देखने पर मुझे महबूब की याद आ जाती है. मफ़हूम ये हुआ कि ग़मों के बोझ से सर उठाने की नौबत भी अगर गाह आई तो आसमान की जानिब देखा, और जो आसमान की जानिब देखा तो ख़ुदा-ए-जफ़ापेशा की याद आ गई और उसकी याद आई तो तेरे दिए हुए ग़म याद आ गए. दूसरी सतर का इक मफ़हूम ये भी हो सकता है कि जैसे ही तेरी याद आती है तेरी जुदाई का ग़म याद आ जाता है. आइए अब दूसरे शेर की जानिब चलते हैं –

“लिपटना पर्नियाँ में शोला-ए-आतिश का पिन्हाँ है
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की”

आइए इस शेर की तशरीह करने के क़िब्ल जानते हैं कि पर्नियाँ क्या है?

पर्नियाँ आला क़िस्म के रेशम के नर्म और फूलदार कपड़े को कहते हैं जो जल्दी आग पकड़ लेता है.

आइए अब शेर की जानिब चलते हैं. यहाँ ग़ालिब कह रहे हैं कि पर्नियाँ में शोले को लपेट कर रखा नहीं जा सकता बल्कि पर्नियाँ में लपेटने से वो और भड़क उठता है. फिर अगली सतर में वो कहते हैं कि दिल में सोज़-ए-ग़म को (विषाद की वेदना) छिपाना तो पर्नियाँ में शोले को लपेटने से भी मुश्किल है. यानी मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि दिल परनियाँ से भी नर्म-ओ-नाज़ुक है और सोज़े ग़म शोले से भी ज़ियादा गर्म और तकलीफ़देह है इसीलिए सोज़-ए-ग़म दिल को जला कर ख़ाक़ कर देता है. यूँ भी कह सकते हैं कि इक बार को ये मुमकिन है कि रेशमी कपड़ा शोले को अपने अंदर पोशीदा रख ले लेकिन हमारा दिल सोज़-ए-ग़म को पोशीदा नहीं रख सकता है.

अगरचेह अक़्ल कहती है कि सोज़-ए-ग़म को सात पर्दे में पिन्हाँ (छिपाना) कर लो. इसे दुनिया पर ज़ाहिर मत होने दो लेकिन जब दिल में ग़म होता है तो अक़्ल-ओ-दानिश (बुद्धि) की तमामतर कोशिशों के बावजूद उसे पोशीदा रखना (छिपाना) तक़रीबन नामुमकिन होता है. ग़म इंसानी फ़ितरत का हिस्सा है वो बाहर आ ही जाता है चाहे कितनी भी दानाई (समझदारी) क्यूँकर ना इस्तेमाल की जाये. वो ग़ालिब ख़ुद भी तो कहते हैं ना-

“दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ”

 

 

(16)

“गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जाँ का
गुहर में महव हुआ इज़तेराब दरिया का”

ग़ालिब अपने कलाम के साथ ज़िंदा हैं. वो हर महफ़िल में मौजूद हैं चाहे वो उम्रदराज़ लोगों की हो या नौजवानों की. हमारे साथ चल फिर रहे हैं गलियाँ हों या सड़कें,क़ब्रिस्तान हो या बाज़ार. इस वक्त ग़ालिब आशिक़ों की महफ़िल में हैं.

आइए आशिक़ों के लिए लिखे ग़ालिब के इस पुरलुत्फ़ शेर की शरह (व्याख्या) करते है. इस शेर में शायर कह रहा कि दरिया (समंदर) इतना वसीअ (बड़ा) होता है तो तसव्वुर (कल्पना) कीजिए उसकी बेचैनी किस क़दर शदीद (ज़ियादा) होगी. अगर आप कभी किसी समंदर के क़रीब गये होंगे तो आपने देखा होगा कि कैसी इज़तेराबी (बेचैनी भरी) कैफ़ियत होती है उसकी. गाह उसकी बेचैन लहरें तड़पकर इस जानिब (ओर)जाती हैं गाह उस जानिब (ओर). उस पर भी वो अपना सारा इज़तेराब (बेचैनी) गोहर यानि मोती को सौंप कर पुरसुकून हो जाता है.

एक बेचारा आशिक़ ही कभी पुरसुकून नहीं हो पाता क्यूँकि उसकी तमन्ना की बेचैनी उसे किसी कल सुकून नहीं पाने देती है. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि आशिक़ के दिल की वुसअत (फैलाव) के बावजूद उसके शौक़ (इश्क़) को उसका दिल तंग (छोटा) ही नज़र आता है. शौक़ की शिद्दत ऐसी है कि दिल की वुसअत (फैलाव) भी तंग लगने लगी. अब आप समझ ही सकते हैं कि किस क़दर अरमान, किस क़दर तमन्नायें, किस क़दर आरज़ूयें आशिक़ अपने दिल में महबूब के लिए संजोना चाहता है कि वो उसके दिल में समा भी नहीं पातीं हैं और दिल जैसी लामहदूद (असीमित) जगह भी उसके लिए तंग (कम) पड जाती है. यानी दिल इक ऐसा गुहर (मोती) है जिसमें आशिक़ अपने दिल की बेक़रारी समेटने की कोशिश करता है.

तभी तो मीर तक़ी मीर आशिक़ की सादा दिली की निस्बत (संबंध) से यूँ कहते हैं-

“आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है”

यहाँ शायर कह रहा है कि आशिक़ जैसा सादा दिल और मासूम इस दुनिया में कोई नहीं होता क्यूँकि वो बेचारा तो इश्क़ में दिल के चले जाने के नुक़सान को भी अपना फ़ायदा ही समझता है. चूँकि आशिक़ इस क़दर मासूम और सादा दिल होता है इसलिए दाग़ साहेब ने आशिक़ का मर्तबा बुलंद करते हुए यहाँ तक कह दिया कि –

“काबा ओ दैर में या चश्म-ओ-दिल-ए-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा”

मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि काबे में और बुतख़ाने में तो खुदा रहता ही है लेकिन मासूम और सादा दिल आशिक़ के आँख और दिल में भी ख़ुदा रहता है.

 

(17)

“है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला”

ग़ालिब की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि वो हर इंसान को उसके तजरबे और सोच के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ (अलग) मानी फ़राहम करती है. ये शेर भी ग़ालिब के ख़याल की वुसअत (फैलाव) और तवानाई (ताक़त) की जानिब (ओर) इशारा करता है. आइए इस शेर की तशरीह के पहले मौलाना रूमी के इक शेर पर नज़र करते हैं-

“इन ग़ूर, पर्दे-ई बेश निस्त;
पस अज़ आन, बहिश्त अस्त.
तो मरा तनहा दर क़ब्र दीदी के फरू मी-रवम,
अकनून बंगर के चगूने बे आसमान पर मी-कशम.”

“ये क़ब्र सिर्फ़ एक परदा है
जिसके पीछे जन्नत है,
तुम मुझे सिर्फ़ क़ब्र में उतरता हुआ देखोगे
अब मुझे उड़ता हुआ भी देखो”

आइए अब इस ख़ूबसूरत से शेर की तशरीह करके ये जानने की कोशिश करते हैं कि

क़ब्र के पीछे जन्नत होने से क्या मुराद है?
मौलाना रूमी ने क़ब्र में उतरने को उड़ने से तशबीह (तुलना करना) क्यों किया??

यहाँ ग़ालिब कह रहे कि हुस्न का तसव्वुर (कल्पना) करना भी इक नेक अमल (अच्छा काम) है यानि आशिक़ जो हमेशा अपने महबूब के तसव्वुर (ख़याल) में गुम रहता है वो सवाब (पुण्य) का ही काम करता है. क्यूँकि आप दूसरों में ख़ूबसूरती तभी देखते हैं जब आपकी अपनी रूह पाकीज़ा होने के साथ-साथ रौशनी और हुस्न से लबरेज़ होती है. हम जिस अंदाज़ से किसी को देखते हैं वो हमारे बातिन (अंतःकरण) का अक्कास (प्रतिबिम्ब) होती है. मौलाना रूमी भी तो कहते हैं ना –

“तुम दूसरों में जो हुस्न देखते हो वो दरअसल तुम्हारी अपनी रूह का अक्स है.”

दूसरी सतर (पंक्ति) में वो कहते हैं कि इसका नतीजा ये हुआ कि इस नेक काम के एवज़ में मरने के बाद मेरी क़ब्र के अंदर भी इक जन्नत का दरवाज़ा खुल गया है यानी ख़ुदा ने मुझे जन्नत अता कर दी है. मैं जब चाहूँ जन्नत में आ जा सकता हूँ. ख़ुदा इतना रहीम (दयालु) और इतना सख़ी (उदार) है कि वो आशिक़ों को हुस्न के तसव्वुर ( सुंदरता की कल्पना) का भी सिला हुस्न-ए-अमल (सुंदर काम) जितना देता है और मरने के बाद उन्हें ज़ाहिदों ( साधु जैसा व्यक्ति) या आबिदों (इबादत करने वाला) का सा दर्जा भी अता करता है क्यूँकि इंसान की हक़ीक़ी अज़मत (वास्तविक महानता) की पहचान उसके मरने के बाद होती है.

इक तरह से शायर ये कहना चाहता है कि ज़िंदगी में तो उसने इश्क़ में शिकस्त (हार) खायी, बेसुकून रहा, दर्दमंद रहा लेकिन मौत के बाद वो इस क़र्ब-ओ- अंदोह (पीड़ा) से आज़ाद हो गया और नाउम्मीदी (निराशा) में उसे राहत मिल गई.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि चूँकि मरने के बाद भी मैं महबूब के हुस्न (ख़ूबसूरती) के तसव्वुर (कल्पना) में मसरूफ़ (व्यस्त) हूँ इसलिए मुझे क़ब्र में भी बाग़े बहिश्त (जन्नत का बग़ीचा) दिखायी दे रहा है. इसलिए कि उसका हुस्न उतने ही रंग समेटे है जितने रंग बाग़े बहिश्त में हैं. यानी हम कह सकते हैं कि तसव्वुरे हुस्न (सुंदरता की कल्पना) और हुस्न-ए-आमाल (सुंदर काम) का एक ही नतीजा है.

इसकी इक तशरीह यूँ भी हो सकती है कि चूँकि मैं ख़ुदा को देख नहीं सकता था उसकी ज़ियारत (दर्शन) रूबरू नहीं कर सकता था इसलिए मैं उम्र भर ख़ुदा के हुस्न (सुंदरता) का तसव्वुर (कल्पना) करता रहा. इस अमल (काम) का नतीजा ये हुआ कि ख़ुदा ने मुझ पर क़ब्र के अज़ाब (दंड) नाज़िल नहीं किए बल्कि मेरी क़ब्र में जन्नत (स्वर्ग) का इक दरवाज़ा खोल दिया जिससे मैं क़ब्र में भी आराम-ओ-आसाइश (ऐशोआराम) की ज़िंदगी बसर कर रहा हूँ.

इसकी इक दिलचस्प और बेहद ख़ूबसूरत तशरीह यूँ भी हो सकती है. चूँकि ख़ुल्द का इक म’आनी अब्दियत (शाश्वतत्व) भी होता है तो हम कह सकते हैं कि ख़ुदा के हुस्न के तसव्वुर ने मौत (गोर) के बाद मुझ पर अब्दियत (ख़ुल्द) या जावेदाँ ज़िंदगी का दरवाज़ा खोल दिया है. जन्नत की ज़िंदगी इक तरह से जावेदाँ ज़िंदगी (अमरता) ही तो है.

मफ़हूम ये हुआ कि आशिक़ों के लिए क़ब्र तारीकी, घुटन, तकलीफ़ और अज़ाब की जगह नहीं है बल्कि जन्नत की मानिंद हसीन, ऐश-ओ-आराम वाली और दायमी शादमानी (स्थायी ख़ुशी या आनंद) की जगह है. ये शेर कहता है कि मौत इख़्तेताम (अंत) या ख़ात्मा नहीं है बल्कि नए सफ़र (जावेदाँ ज़िंदगी या अनंत जीवन) की शुरुआत है. यहाँ मौत का ज़िक्र बतौर रूहानी पुनर्जन्म किया गया है. तो जनाब अब समझे आप मौलाना रूमी ने मौत के बाद उड़ने की बात क्यूँ की?

 

(18)

“रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
नै हाथ बाग पर है न पा है रिक़ाब में“

ग़ालिब किसी भी बात को इतने दिलकश शायराना अंदाज़ में कहते हैं कि मुद्दआ चाहे जो हो पढ़कर दिल शाद (प्रसन्न) हो जाता है. इस शेर में ग़ालिब ज़िंदगी की रफ़्तार और क़िस्मत के आगे इंसान की बेबसी को घोड़े की सवारी के इस्तिआरे (उपमा) से तशबीह देते हैं.

यहाँ ग़ालिब कहते हैं देखते हैं कि ये उम्र का घोड़ा कहाँ जाकर रुकता है? क्यूँकि न ही मेरे हाथ में उसकी लगाम है और न ही पैर उसकी रिक़ाब में है. इंसान उस सवार की मानिंद है जो ऐसे घोड़े पर बैठा है जो उसके क़ाबू से बाहर है. इसीलिए ना तो उसे मंजिल का पता है ना ही कोई अंदाज़ा है. यहाँ ग़ालिब ने बहुत ख़ूबसूरती से उम्र को घोड़े से तशबीह (उपमा) देकर ज़िंदगी की बेयक़ीनी और बेऐतबारी की जानिब इशारा किया है. लगाम हाथ में न होने का मतलब ये है कि ज़िंदगी कब किस जानिब मुड जाएगी ये किसी को भी पता नहीं है क्यूँकि इस घोड़े पर मेरा काबू नहीं है. पाँव रिक़ाब में ना होने का मतलब है कि तवाज़न (संतुलन) भी नहीं है यानी वो कभी भी घोड़े से नीचे गिर भी सकते हैं. मफ़हूम ये हुआ कि ज़िंदगी कब कौन सा मोजिज़ा दिखायेगी, अपने आँचल में उसने क्या छिपा रखा है इसका इल्म किसी को नहीं है.

आइए अब इसकी तफ़सील (विस्तारपूर्वक) से तशरीह करते हैं वो कहते हैं कि मेरी ज़िंदगी इक बेलगाम घोड़े की मानिंद है जो दौड़ता ही चला जाता है. चूँकि ज़िंदगी की लगाम इंसान के हाथ में नहीं है इसका मतलब उसकी ज़िंदगी उसके इख़्तियार में नहीं है. इसका मतलब ये भी हो सकता है की वो किसी और बालातर हस्ती (ख़ुदा) के हाथ में है. इंसान की चाहत या कोशिश घोड़े की रफ़्तार बढ़ाने के लिए या उसे क़ाबू में करने के लिए नाकाफ़ी है यानी इंसान को मालूम नहीं है कि उसकी ज़िंदगी कब ख़त्म हो जाएगी. इक तरह से ग़ालिब कह रहे हैं कि इसी वजह से उन्होंने अपनी ज़िंदगी को क़िस्मत, वक़्त या ख़ुदा की मर्ज़ी के हवाले कर दिया है. आइए अब जिंदगी पर ही लिखे उनके दूसरे शेर की जानिब (ओर) चलते हैं –

“रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
इस साल के हिसाब को बर्क़ आफ़्ताब है”

इस शेर में ग़ालिब साहेब इंसानी उम्र के मुख़्तसर (छोटा) होने की जानिब इशारा कर रहे हैं. रह-ए-इज़्तिराब यानी वो राह जो इज़्तिराब (बेचैनी) में तय हो. वो कह रहे हैं कि इंसान की तमाम उम्र इक इज़्तराबी कैफ़ियत (बेचैनी और बेसुकूनी) में बसर होती है. तमाम उम्र वो मौत के बारे में सोच कर पुरसुकून नहीं हो पाता है और उम्र के गुज़रने की रफ़्तार यूँ है कि जैसे एक एक साल गोया एक चश्मक-ए-बर्क़ (बिजली के पलक झपकाने) के बराबर है. जिस तरह रफ़्तार-ए-आफ़ताब (सूर्य की गति) से साल का हिसाब करते हैं उसी तरह उम्र-ए-गुरेज़ाँ (भागती हुई उम्र) का हिसाब आफ़ताब (सूरज) के बदले बिजली से करना चाहिए. साल के म’आनी उम्र के भी हैं.

इंसान ज़िंदगी में ज़ियादातर बेचैन, ग़मगीन और फ़िक्रमंद रहता है लेकिन ज़िंदगी इतनी तेज़ी से गुज़र जाती है कि दुख या ख़ुशी का मुकम्मल (पूर्ण) एहसास भी नहीं हो पाता है. हर साल ऐसा महसूस होता है कि जैसे बिजली के पलक झपकाने के मानिंद गुज़र गया.

इसका मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि इंसान कितनी ही तवील (लंबी) उम्र इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया में क्यूँ न गुज़ार ले मरते वक्त उसे यूँ ही महसूस होगा गोया उसने चंद साअतें (पल) ही इस फ़ानी दुनिया में गुज़ारीं. या कह लें यूँ महसूस होगा जैसे पलकें झपकाईं और उम्र गुज़र गई.

 

(19)

“लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
‘ग़ालिब’ ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ”

ग़ालिब अपनी महरूमियों, नाकामियों और बेबसी की बात भी लतीफ़ (सुरुचिपूर्ण))अंदाज़ में ही करते हैं. उनके इस शेर में भी उनकी शोख़ तबियत की ही झलक मिलती है. उनके अंदाज़ में इक तंज़ पिन्हा (छिपा) होता है. इस शेर में वो इक गहरी तल्ख़ी (नाराज़गी) के साथ ख़ुद की हँसी उड़ाते नज़र आते हैं.

यहाँ ग़ालिब ख़ुदा को मुखातिब करते हुए कहते हैं कि मैं आपकी सल्तनत से बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता यानी सोयी हुई तक़दीर (क़िस्मत) लेकर आया हूँ और मैं अपनी सोयी हुई तक़दीर से इक रात की नींद क़र्ज़ लेना चाहता हूँ. चूँकि तक़दीर मुसलसल (लगातार) सो रही है और मैं मुसलसल (लगातार) जाग रहा हूँ इसलिए उससे इक रात की पुरसुकून नींद तो क़र्ज़ ले ही सकता हूँ. तो देखा आपने अल्फ़ाज़ का इक बेहद ख़ूबसूरत खेल इस शेर में खेला गया है.

नींद क़र्ज़ लेने की बात किससे कर रहे हैं?

सोयी हुई तक़दीर से. तक़दीर के सोए होने से (बदकिस्मती से) ही उनकी नींद उड़ी हुई है और उसी से नींद क़र्ज़ लेने की बात कहकर ग़ालिब साहेब ने महफ़िल लूट ली है.

अगली स्तर (पंक्ति) में वो कहते हैं कि मैं ये क़र्ज़ ले तो लूँ लेकिन डर ये है कि मैं इसे किस तरह अदा कर पाऊँगा क्यूँकि मैं तो नेमत-ए-ख़्वाब यानी नींद से इक अरसे से महरूम हूँ. मफ़हूम ये हुआ कि मैं अपनी सोयी हुई तक़दीर को ये क़र्ज़ ली हुई नींद वापिस कैसे करूँगा क्यूँकि मुझे तो नींद आती ही नहीं है. मैं जाग रहा हूँ लेकिन मेरा बख़्त (तक़दीर) सो रहा है, न जाने कब मेरा बख़्त (तक़दीर) जागेगा और मुझे पुरसुकून नींद आएगी और मैं उस क़र्ज़ ली हुई नींद वापिस कर पाऊँगा. अभी तो मुझे अपनी तक़दीर के जागने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही है.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि मेरा हाथ ख़ाली है इसलिए मैं क़र्ज़ लेना चाहता हूँ और चूँकि हाथ ख़ाली है इसलिए मैं क़र्ज़ लेने से घबरा रहा हूँ कि वापिस कैसे कर पाऊँगा. देखा आपने कितना दिलकश अंदाज़ है जनाब का? इक तरह से शायर यहाँ अपनी मुफ़लिसी (ग़रीबी), लाचारी और महरूमी का ज़िक्र कर रहा है क्यूँकि क़र्ज़ हमेशा किसी ज़रूरत, लाचारी या तंगदस्ती (तंगी) की अलामत होता है. फिर किसी को इक रात की पुरसुकून नींद के लिए भी क़र्ज़ लेना पड़े तो वो किस क़दर महरूम (वंचित) होगा. इक तरह से वो कहना चाहते हैं कि मेरी क़िस्मत इस क़दर नाकारह (बेकार) है कि उससे हक़ीक़ी (वास्तविक) ख़ुशी की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. इसमें इक तंज़ भी है और अफ़सोस भी कि मैं अपनी बदकिस्मती से कोई रौशन हक़ीक़त (वास्तविकता) नहीं माँग रहा मैं तो फ़क़त (केवल) इक रात की पुरसुकून नींद या ख़्वाब माँग रहा हूँ और वो भी हासिल नहीं कर पा रहा हूँ.

ये शेर मज़ाहिया (ह्यूमरस) के साथ-साथ दिलकश अंदाज़ में ज़रूर कहा गया है लेकिन ये शायर की फ़िक्री गहराई और इंसानी जज़्बात के नाज़ुकतरीन पहलुओं पर उसकी गिरफ़्त (पकड़) ज़ाहिर करता हैं.

 

 

(20)

“तौफ़ीक़ ब अन्दाज़ा-ए-हिम्मत है अज़ल से
आँखों में है वो क़तरा कि गोहर न हुआ था”

ग़ालिब का ये शेर उनकी ख़याली तवानाई (कल्पना की शक्ति) की मिसाल है. इस शेर में उन्होंने बिल्कुल नयी बात कही है. आइए इस बेमिस्ल (अतुलनीय) शेर की तशरीह करते हैं.

पहली सतर में वो कहते हैं हिम्मत जितनी ज़ियादा होती है उसी के मुताबिक़ ख़ुदा तौफ़ीक़ या कामयाबी के लिए ख़ुदाई मदद अता करता है. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि ख़ुदा हिम्मत की बुलंदी (ऊंचाई) के मुताबिक़ ही किसी को बुलंद (ऊंचा) दर्जा अता करता है. दुनिया के आग़ाज़ (शुरुआत) से उसका यही उसूल है. जो जितना ज़ियादा हौसला करता है उतनी ही ज़ियादा उसे ग़ैब (अदृश्य) से मदद मिलती है. अगर हम ख़ुद ही अपने वजूद (अस्तित्व) को लेकर पस-ओ-पेश (दुविधा) में रहेंगे और हिम्मत नहीं करेंगे तो ख़ुदा भी हमारी मदद नहीं करेगा.

दूसरी सतर में वो कहते हैं कि पानी का क़तरा जो कभी समंदर में था वो गोहर (मोती) बनने पर ही राज़ी हो जाता तो उसे क़तरा-ए-अश्क़ (आँख के आँसू) जैसा बुलंद मर्तबा हासिल न होता. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अगर वो गोहर यानि मोती बन जाता तो वो कान तक ही पहुँच पाता और आँखों तक उसकी रसाई (पहुँच) किसी हाल न होती. आँखों तक पहुँच कर उसने कितना बरतर (ऊंचा) मुक़ाम हासिल कर लिया. ग़ालिब ने किस ख़ूबसूरती से मोती को भी अश्क़ (आंसू) से अबतर (अधूरा) साबित कर दिया है और ये भी साबित किया है कि वो क़तरा जो अश्क़ बना उसकी हिम्मत मोती बनने वाले क़तरे की बनिस्बत (तुलना में) कहीं ज़ियादा थी इसी वजह से वो कान में नहीं आँखों में जगह पाता है.

ईरान में और हमारे यहाँ इक रिवायत है कि पहले मौसम की पहली बारिश के पहले चंद क़तरे अगर सीपी के मुँह में पड़ जाएँ तो गोहर (मोती) बन जाते हैं. इसको इस तरह भी समझते हैं कि ख़ुदा चंद (कुछ) लोगों को सलाहियत (योग्यता) का तोहफ़ा देकर भेजता है और अगर उनके हालात सही रहते हैं तो वो कामयाब हो जाते हैं यानी मोती का दर्जा पा जाते हैं.

लेकिन यहाँ पर ग़ालिब उनको राहत पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं जो बासलाहियत (योग्य) और होनहार (प्रतिभाशाली) नहीं है. वो उनसे कह रहे हैं कि अगर वो हिम्मत करें तो ख़ुदा उनको बासलाहियत (योग्य) लोगों से भी ऊँचे मक़ाम (पद) पर फ़ायज़ कर सकता है यानी मोती से भी आला मर्तबा अता करके उन्हें अश्क़ का क़तरा (आंसू की बूंद) बना सकता है. उनके पास भले ही सलाहियत (योग्यता) नहीं है लेकिन हौसला तो है और ख़ुदा हौसला करने वाले को कामयाब ज़रूर करता है.

 

(21)

“है ग़ैब ए ग़ैब जिसको समझते हैं हम शहूद
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में”

इस मज़मून में मैंने जिन अशआर का इंतख़ाब (चयन) किया है वो अनमोल और लाज़वाल (अमर) हैं. मैने बात का आग़ाज़ करने के लिए ग़ालिब के ऊपर लिखे शेर को मुंतख़िब किया है जिसे पढ़ते ही इक ख़ामोश झटका लगता है और हम अपनी ज़िंदगी पर ही शक करने लगते हैं कि ये कोई हक़ीक़त है या महज़ इक ख़्वाब. इस पूरे मज़मून को पढ़ने के बाद लातादाद (असंख्य) सवाल आपको घेर लेंगे –

मैं कौन हूँ?
मैं क्यों ज़िंदा हूँ?
इस ज़िंदगी का मक़सद क्या है?
क्या मेरा वुजूद कोई मायने रखता है?
मौत के बाद क्या है?
क्या ये सब कुछ हक़ीक़त है या सिर्फ़ एक वहम ?
ईश्वर क्या है?
ईश्वर है भी या नहीं है?

ख़ैर! पहले इस शेर की बतफ़सील (विस्तारपूर्वक) तशरीह (व्याख्या) करते हैं-

ग़ालिब का ये शेर गहरा और बेहद पेचीदा है. ग़ालिब साहेब ने ख़ुद इस शेर की तशरीह (व्याख्या) कर रखी है जो इस तरह है. जिसे हम कायनात (शहूद) समझते हैं वो हक़ीक़त में ख़ुदा (ग़ैबुलग़ैब) है . म’आनी ये हुआ कि कायनात की हर शय में उसी का ज़हूर (प्रकटीकरण) है. ये जो हम कायनात को ख़ुदा से अलग करके देखते हैं वो कुछ यूँ है कि जैसे कोई ख़्वाब में ये देखे कि वो बेदार (जाग) हो गया है. हमें यूँ लग रहा है कि हम नींद से या ख़्वाब से बेदार हो गए हैं जबकि हम ख़्वाब ही देख रहे हैं या नींद में हैं और हमें मालूम भी नहीं है. यही बात दत्तात्रिया कैफ़ी ने भी कही है “ इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे”.

ख़्वाब के दौरान अगर हम ख़्वाब में ही जाग जाएँ तो वो हक़ीक़ी (वास्तविक) जागना नहीं है. ये हमारी ख़ामख़याली (हक़ीक़त से दूर कल्पना) है कि हम जाग गए हैं या हमने उसके राज़ को पा लिया है. ख़्वाब के अंदर जागना हक़ीक़ी बेदारी (वास्तविक जागना) नहीं होती है. मीर साहब भी तो अपनी सादा (साधारण) और पुरकशिश (बहुत दिलचस्प) ज़बान (भाषा) में कहते हैं ना-

“आया जो वाक़िये में दरपेश आलम-ए-मर्ग
ये जागना हमारा देखा तो ख़ाब निकला”

मफ़हूम (अर्थ) हुआ कि ज़िंदगी भर इंसान यही समझता है कि वो जाग रहा है, यानी वो होश में है और उसकी ज़िंदगी हक़ीक़त (वास्तविक) है. मगर जब मौत सामने आती है तो मालूम होता है कि ये जागना यानी ये पूरी ज़िंदगी महज़ इक ख़्वाब थी,एक माया,जिसकी कोई ठोस हक़ीक़त न थी. इक तरह से वो कह रहे हैं कि ये ज़िंदगी इक ख़्वाब है जो मौत के वक़्त टूटेगा.

मफ़हूम यूं हुआ कि ग़ालिब अपने ऊपर वाले शेर में कहना चाहते हैं कि इस कायनात में हक़ीक़ी (वास्तविक) हस्ती सिर्फ़ ख़ुदा की है और ये आलम उस खुदा की ज़ात का ही अक्स (प्रतिबिम्ब) है लेकिन ये आलम बिल्कुल भी हक़ीक़ी (वास्तविक) नहीं है बल्कि ख़याली है.

अद्वैत वेदांत के प्रमुख दार्शनिक आदि शंकराचार्य भी यही कहते हैं – “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” मफ़हूम ये हुआ कि “ख़ुदा ही ख़ालिस हक़ीक़त है और ये दुनिया इक वहम है”. इसीलिए हमें ग़ालिब अद्वैतवाद से मुतास्सिर नज़र आते हैं. देखिए इसीलिए ग़ालिब अपने ही इक शेर में हमें यूँ आगाह भी करते हैं-

“हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो ‘असद’
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है”

यहाँ ग़ालिब कह रहे हैं कि अपने वुजूद के धोखे में मत आ जाना क्यूँकि ये पूरी कायनात सिर्फ़ नज़र का धोखा भर है. किसी इंसान का इस दुनिया में मौजूद भर रहना उसके वुजूद की दलील नहीं है.

दूसरी सतर में वो कहते हैं कि ये कायनात महज़ इक ख़यालों के जंजाल का हलक़ा (घेरा) है. ये इक ऐसा हलक़ा (घेरा) है जिसमें इंसान गोल गोल घूमता रहता है और उसे कोई सिरा नहीं मिलता है. वो अपने क़ारी (पाठक) को आगाह कर रहे कि तू भी इस घेरे में फँस सकता है. इसीलिए ग़ालिब हक़ीक़त (वास्तविकता) को भी शक-ओ-शुबहे की नज़र से देखते हैं. मीर साहब भी तो यूँ कहते हैं-

“आलम, किसू हकीम का बांधा तिलिस्म है
कुछ हो, तो ऐतबार भी हो कायनात का”

मीर साहेब तो इस दुनिया की बेऐतबारी (अनिश्चितता) को तस्लीम (स्वीकार) करते हुए इसके वजूद पर ही सवाल उठाते हैं और इसे किसी जादूगर का तिलिस्म क़रार देते हैं. फिर यूँ भी कहते हैं-

“हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है”

यहाँ मीर साहेब कहते हैं हमारा वजूद इक बुलबुले की मानिंद है जो इक पल मौजूद होता है और दूसरे ही पल फ़ना हो जाता है. फिर वो कहते हैं कि इस दुनिया की सरगर्मी उन्हें सराब (मरीचिका) की तरह महज़ आँखों का धोखा भर नज़र आती है. जिस तरह सराब (मरीचिका) का कोई वजूद नहीं होता फिर भी उसके वजूद पर हमें ज़र्रा बराबर भी शक-ओ-शुबहा नहीं होता है वैसे ही ये दुनिया भी हमें सच से भी बालातर (बढ़कर) सच नज़र आती है जबकि दानिशमंद (बुद्धिमान) लोगों की नज़र में ये ये दुनिया इक फ़रेब है, ख़याली है.

“सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वुजूद
“कैफ़ी” ये बात वो है मुअम्मा कहें जिसे”

देखिए कैफ़ी साहब भी दहर को मुअम्मा यानि पहेली ही कह रहे हैं. जो हम देख सकते हैं वो पर्दा है उस हक़ीक़त के लिए जिसे हम नहीं देख सकते हैं. वो ऐसा हक़ीक़त या राज़ है जो सबसे ज़ियादा छिपा हुआ है. कायनात को ज़ाहिर करके उसने किसी ऐसी चीज़ को छिपा दिया है जो दरअसल हक़ीक़ी (वास्तविक) थी. जो दुनिया हमें नज़र आती है वो असल नहीं है. इस ज़ाहिरियत (बाहरी रूप) की चमक-दमक ने असल हक़ीक़त (वास्तविकता) को सात पर्दे में पोशीदा (छिपा) कर दिया है . ज़ाहिरी दुनिया की रंगीनियाँ पर्दा बन गई उस बातिनी (अंदरूनी या रूहानी) हक़ीक़त के लिए जो अजल-ता-अबद (हमेशा से है और हमेशा रहेगी) बाक़ी रहने वाली है. इसीलिए सभी ज्ञानी या दानिशमंद लोग हमें इस दुनिया की रंगीनियों (माया) से बचने की सलाह देते हैं. देखिए कबीर भी माया की तशबीह (उपमा) सर्पिणी से दे रहे हैं – “माया जग साँपिनी भई, विष ले पैठी पाताल”? तो जनाब! कभी भी इस गुमान में ना हो जाइएगा कि हम इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया के बारे में बहुत कुछ जानते हैं या हम ख़ुद बहुत दानिशमंद (बुद्धिमान) हैं वरना हर क़दम पर चौंकायेगी ये दुनिया. हम सबके ग़ालिब साहब ख़ुद को और ख़ुदा को किस तरह मुख़ातिब कर रहे देखिए-

“हस्ती है न कुछ अदम है ‘ग़ालिब’
आख़िर तू क्या है ऐ नहीं है”

इस शेर में इक तरह से वो ख़ुद से और ख़ुदा से सवाल कर रहे-

“तू जो कि “नहीं है” और हर जगह “मौजूद है”, तू आख़िर क्या है?”

 

 

(22)

“रश्क है आसाइशे अरबाबे गफ़लत पर असद
इज़्तेराबे दिल नसीब ख़ातिर-ए-आगाह है”

आइए ग़ालिब साहेब के इस दिलचस्प शेर की शरह (व्याख्या) करते हैं और इसे समझने की कोशिश करते हैं. यहाँ शायर कहता है मुझे उन लोगों से रश्क होता है,जलन होती है जो ग़फ़लत (बेपरवाह) में रहते हैं और सब कुछ जानने की कोशिश नहीं करते हैं इसीलिए वो ख़ुशबाश (प्रसन्नचित्त) और पुरसुकूँ रहते हैं. उनकी ख़ुशी का बाईस (कारण) उनकी लाइल्मी (अज्ञानता) है. इसे गोस्वामी तुलसीदास ने यूँ कहा है कि

“महाभले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापत जगदगति”
(वे मूर्ख सबसे अच्छे हैं जिन्हें दुनिया से मतलब नहीं)

अगली सतर (पंक्ति) में वो कहते हैं कि ये दिल की बेचैनी और बेसुकूनी तो उनकी क़िस्मत में हैं जो दानिशमंद (बुद्धिमान) होने के साथ-साथ बेदार (जागा हुआ) और आगाह (सचेत) हैं और कायनात के निहाँ (पोशीदा) राज़ को जानने की कोशिश में अपनी ज़िंदगी के मुख़्तसर वक़्फ़े (संछिप्त अंतराल) को ज़ाया (बर्बाद) करते रहते हैं. आगाह (सचेत) दिल मुसलसल जुस्तजू (लगातार खोज) और ग़म में रहता है. यहाँ आगाही के मआनी रूहानी (आध्यात्मिक) तौर पर बेदार और आगाह होने से है.

इसी बात को जावेद अख़्तर साहब सादह और सहल ज़बान में यूँ कहते हैं-

“ग़म होते हैं जहाँ ज़हानत होती है
दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है”

मफ़हूम (अर्थ) हुआ कि इस दुनिया में हर शय को अपने होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. ज़हीन (अक़्लमंद) इंसान को भी अपनी ज़हानत की क़ीमत ग़मज़दा और अफ़सुर्दा (दुखी) रहकर चुकानी पड़ती है. ग़म और उदासी दानिशमंद (बुद्धिमान) इंसान का ज़ेवर हैं.

कबीरदास जी ने भी इसी ख़याल को इक दोहे में यूँ बांधा है-

“सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै.
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥”

यहाँ पर कबीरदास जी कहते हैं कि ये सारी दुनिया नफ़्सियाती (अहम से संबंधित) और फ़ानी ख़्वाहिशात (नश्वर इच्छायें) को पूरा कर पुरसुकून होकर सोती है. ये सारे लोग अपनी मौत को भी भूल बैठे हैं. उन्हें नहीं पता कि वो इस दुनिया में इक महदूद वक़्फ़े (सीमित समय) के लिए आए हैं और इस तरह वो अपनी ज़िंदगी फ़िज़ूल के कामों में ज़ाया कर रहे हैं. जब इंसान दुनियादारी में मशगूल होता है तो दुनिया का फ़रेब, नापायेदारी (क्षणभंगुरता) उस पर ज़ियादा असर नहीं डालती. दूसरी जानिब कबीर जैसे लोग हैं जिनको इल्म-ए-इरफ़ान (आध्यात्मिक ज्ञान) हासिल हो गया है यानी ज़िंदगी और मौत का सच पता चल गया है और ये भी पता चल गया है कि ये दुनिया फ़ानी (नश्वर) है और इसकी फ़ानी ख़ुशियों में कुछ नहीं रखा है. इसलिए वो इक दायमी दर्द (स्थायी पीड़ा) में मुब्तला हो जाते हैं और दूसरे लोगों की लाइल्मी (मासूम अज्ञानता) और जेहालत (मूर्खता) या कह लें नादानी देखकर अफ़सुर्दा (दुखी) रहते हैं और सारी सारी रात अश्क़फ़िशानी (आंसूँ बहाना) करते हैं.

मफ़हूम ये हुआ कि ग़ालिब साहब का ऊपर वाला शेर इस हक़ीक़त के जानिब इशारा करता है कि इल्म और शऊर के साथ इंसान के अहसासात में गहराई आती है और वो दुनिया की नापायेदारी (क्षणभंगुरता) और इंसानी कमज़ोरियों को शिद्दत से महसूस करता है. दुनिया की सच्चाई को जानने वाला दिल दर्द से आरी (खाली) नहीं होता. इल्म और आगाही (समझ या बोध) नेमत कम इम्तिहान ज़ियादा है.

मौलाना जलालुद्दीन रूमी इसी बात को अल्फ़ाज़ में यूँ बाँधते हैं-

“हर के अव बेदारतर, पुरदर्द तर
हर के अव आगाह तर, रुख़ ज़र्द तर”

इसका लफ़्ज़ी मआनी है-

“जो जितना ज़्यादा बेदार (सतर्क) है, वो उतना ही ज़्यादा दर्द में है.
जो जितना ज़्यादा आगाह (सचेत) है, उसका चेहरा उतना ही ज़्यादा ज़र्द (पीला) है.”

 

 

(23)

“इब्ने मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई”

इस मज़मून में मैंने ग़ालिब के जिस शेर को तशरीह (व्याख्या) के लिए चुना है उसमें ग़ालिब बेहद मायूस नज़र आ रहे हैं. लेकिन मायूसी में भी इक अदा है, नज़ाक़त है. आइए इस निहायत गहरे और पुरअसर (प्रभावशाली) शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं लेकिन इसके पहले ये मालूम करते हैं कि ये इब्ने मरियम कौन हैं?

इब्ने मरियम यानी मरियम का बेटा मुसलमानों के पैगंबर हज़रत ईसा को कहते हैं वही ईसाइयों के जीसस क्राइस्ट भी हैं जिन्हें क़ुरआन और बाइबिल में “शिफ़ा (आरोग्य) देने वाला” कहा गया है. कहते हैं वो मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाते थे और अपनी इक फूंक से बीमारों को शिफ़ा (आरोग्य) अता कर देते थे, मुर्दों को ज़िंदा कर देते थे, लोगों के दुख दूर कर देते थे.

यहां ग़ालिब कह रहे हैं कि कोई ईसा है जो मोजिज़ा दिखाता है और लोगों के दुख दूर कर देता है, ये तो मैं तब मानूँ जब वो मेरे दुखों का मदावा (उपचार) करे. इस शेर में इक तंज़ है, नाउम्मीदी है, लेकिन बात बेहद पुरलुत्फ़ तरीके से कही गई है. यही ग़ालिब की ख़ुसूसियत (विशिष्टता) है जो उन्हें दूसरे शायरों से अलग करती है. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि ग़ालिब बेहद आजिज़ी (दीनता) मायूसी (निराशा) से कह रहे हैं कि इस भरी दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो ईसा की तरह मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाए और मेरे दुखों को फ़ना (नष्ट) कर दे. अमीर मीनाई के अल्फ़ाज़ में कहें तो-

“आया न एक बार अयादत को तू मसीह
सौ बार मैं फ़रेब से बीमार हो चुका”

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) ये मानकर भी हो सकती है कि शायर यहां अपने महबूब की बात कर रहा हो. वो कह रहा हो कि ऐसा कोई नहीं जो उसकी बेचैनी और बेकरारी को दूर कर सके. अगर महबूब मेरे दुखों का मदावा (उपचार) कर दे तो मैं उसे इब्ने मरियम की तरह उसे मसीहा (उद्धारकर्ता) तस्लीम कर सकता हूं. वो जमील मलिक कहते हैं ना-

“ख़त्म हो जाएँ जिन्हें देख के बीमारी-ए-दिल
ढूँड कर लाएँ कहाँ से वो मसीहा चेहरे”

दूसरे ज़ाविए से देखें तो शायर इंसान के ज़ाहिरी (बाहरी) दुख और तकलीफों की बात नहीं कर रहा बल्कि उसके वजूद उसके बातिन (अंतःकरण) से जुड़े रूहानी

(आध्यात्मिक) और जज्बाती दुखों और ज़ख्मों की बात कर रहा है. वो कहना चाह रहा है कि कोई इंसान दूसरे इंसान के इन दुखों को हक़ीक़तन दूर नहीं कर सकता है . दुनियावी इलाज से इन दुखों का मदावा (उपचार) नहीं हो सकता है. ये काम हज़रत ईसा जैसा मसीहा (ईश्वर द्वारा भेजा गया मार्गदर्शक या रक्षक) ही कर सकता है अगर ऐसा कोई मसीहा कभी हुआ हो तो? इक तरह से वो इस बात से बेहद नरमी से इनकार भी कर रहे कि ऐसा कोई मसीहा कभी हुआ था. वो कहना चाहते हैं कि शायद ख़ुदा ख़ुद ही इन दुखों का मदावा (उपचार) कर सकता है. शायर बेहद कर्ब (पीड़ा) के साथ ये कह रहा कि इंसानी वजूद (अस्तित्व) से जुड़े कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनकी दवा नौ’ इंसानी (मानव प्रजाति) में किसी के पास नहीं है.

शायर यहाँ कहना चाहता है कि उसका दुख आम इंसानों का दुख नहीं है जो कोई भी दूर कर दे. इसलिए वो ख़ुदा की बारगाह में अर्ज़ कर रहे कि हज़रत ईसा जैसा कोई खालिस हमदर्द, दुखों को दूर करने वाला, दर्द शनास जो हम जैसे इंसानों के क़र्ब-ओ-अंदोह (दुख और पीड़ा) को दूर कर सके दुबारा इस दुनिया में भेजा जाये. अहमद फ़राज़ के अल्फ़ाज़ में कहें तो-

“अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह
आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ”

 

(24)

“दिल-ए-हसरत-ज़दा था मायदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द
काम यारों का ब-क़द्र-ए-लब ओ दंदाँ निकला”

शेर की तशरीह करने के क़िब्ल (पूर्व) आइए जानते हैं कि “ब-क़द्र-ए-लब ओ दंदाँ” जो इक फ़ारसी कहावत है का क्या म’आनी है?

इस कहावत का मफ़हूम (अर्थ) होता है “होंठ और दांतों के बराबर” यानी “जितना मुँह में समा सके”. इसे यूँ भी कह सकते हैं कि महज़ ज़ाहिरी हद तक गुज़ारा दिल तक नहीं पहुँचने दिया.

दिल हसरतज़दा था यानी दिल आरज़ूओं और तमन्नाओं से ज़ख़्मी था और मुसलसल महरूमियों, नाकामियों और उम्मीदों की शिकस्त (हार) का शिकार था.

आइए अब शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं. हसरतज़दा दिल एक ऐसी मेज़ या दस्तरख्वान की मानिंद था जिस पर दर्द के ज़ायक़ेदार पकवान सजे हुए थे. मेरे दोस्त आए और अपनी अपनी वक़त (हैसियत) के मुताबिक़ उन ज़ायक़ों का मज़ा चखा और सेर होकर लौट गए. शायर कहता है मेरा दिल जो तमन्नाओं से चूर और ज़ख़्मी था वो दर्द की नेमतों का दस्तरख़्वान बन गया. मगर वो दर्द अभी भी बाक़ी है. मेरा दर्द था कि मेरे दोस्तों की भूख बुझ गई.

अगर दूसरे तरीक़े से तशरीह (व्याख्या) करें तो यूँ भी कह सकते हैं कि जो दिल भी हसरतज़दा है दर्द-ओ-अंदोह (दुख और पीड़ा) की मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) लज़्ज़तों और नेमतों (क़ीमती चीज़ों) का ख़ज़ाना है और हर शख़्स उस ख़ज़ाने से अपनी सलाहियत के मुताबिक़ लज्जत अंदोज़ (मज़ा लेना) होता है.

इसकी इक तशरीह (व्याख्या) यूँ भी हो सकती है कि इक तरह से ग़ालिब कहना चाहते हैं कि मेरे दिल ने उस दर्द, उस कर्ब (पीड़ा) को सिर्फ़ सहा ही नहीं बल्कि उसमें इक रूहानी लज़्ज़त (आध्यात्मिक आनंद) भी पायी और उसे अशआर में भी ढाला. मेरे अशआर मेरे ग़म-ओ-अंदोह (दुख और पीड़ा) हैं जिन्हें मैंने बहुत ख़ूबसूरती से क़ारी (पाठक) के लिए दस्तरख़्वान की मानिंद सजाया है. मीर भी तो इसी बात को यूँ कहते हैं-

“मुझ को शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैं ने
दर्द ओ ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया”

यहाँ शायर कहना चाहता है कि जिस तरह दस्तरख़्वान पर अलग अलग क़िस्म के खाने मौजूद होते हैं उस तरह मैंने भी अपने कलाम में दर्द की अलग अलग कैफ़ियत (हालात) को रक़म किया है. मेरे दोस्तों ने अपने-अपने जर्फ़ के मुताबिक़ मेरे कलाम से फ़ायदा और फ़ैज़ हासिल किया है. कुछ तो सतही तौर पर गुज़र गए यानी उसे ज़ाहिरी (बाहरी) हद तक गुज़ारा दिल तक नहीं पहुँचने दिया और कुछ ने उन्हें वुजूद (अस्तित्व) में बसाकर उसका लुत्फ़ (मज़ा) हासिल किया. मेरे पास लज्जत-ए-दर्द के सामान की कमी नहीं थी लेकिन उन्होंने अपनी वक़त, जर्फ़, क़ाबिलियत या ज़ौक़ के मुताबिक़ उससे फ़ायदा हासिल किया.. लज्ज़त-ए-दर्द से मुराद उस कैफ़ियत से है जिसमें इंसान को दर्द में भी इक अजब क़िस्म की लज्ज़त (मज़ा) और सरशारी (उन्मत्ता) महसूस होती है जो सिर्फ़ अहले-दिल या अहले ज़ौक़ समझ सकते हैं.

मफ़हूम ये हुआ कि इक बुलंद पाया शायर (उच्च कोटि के कवि) के कलाम को हर शख़्स अपने ज़र्फ (समझ का स्तर) के मुताबिक़ ही समझ पाता है क्योंकि उसके कलाम में तहदारी (गूढ और परतदार अर्थों का होना) होती है. इक तरह से वो कहना चाहते हैं कि मेरा कलाम समझने के लिए आपको इल्मी सतह पर थोड़ा ऊपर उठना पड़ेगा. ख़ुद को माँजना पड़ेगा. तभी आप उसे वैसे समझ पायेंगे जैसा कि उसे समझने का हक़ है.

 

(25)

ग़ालिब की शायरी में जो अनूठापन है, जो उन्हें दूसरे शोअरा से मुमताज़ (बेमिसाल) करता है वो यही है कि वो आसान रास्ता इख़्तियार नहीं करते हैं. वो सादा ज़बान में बात करने के लिए भी ऐसे अल्फ़ाज़, मुहावरे और ख़यालात चुनते हैं जो आमफ़हम (सभी को समझ में आने वाला) नहीं होते हैं. उनकी शायरी में फ़िक्र (चिंतन) की गहराई, मानी की तहदारी (गूढ़ और परतदार अर्थों का होना) और अल्फ़ाज़ की पेचीदगी (जटिलता) होती है. उनकी ये मुश्किल पसंदी उनकी शख़्सियत और उनकी तख़लीक़ (रचना) का अहम हिस्सा बन गई है. पिछले मज़मून में भी हम पढ़ चुके हैं कि क़ारी (पाठक) को बज़ाहिर (सतही रूप से) उनका कलाम (कहा हुआ) समझने में दिक़्क़त हो सकती है मगर जो उनके कलाम में डूब जाते हैं उनको फ़िक्र-ओ-फ़न (विचार और कलात्मक सुंदरता) का नया जहाँ मिल जाता है. सबसे अहम बात ये है कि ग़ालिब इस बात से शनासा (वाक़िफ़) थे.

ख़ैर! ग़ालिब की मुश्किल पसन्दी मशहूर-ए-ज़माना है. ज़बान की पेचीदगी (जटिलता) उनका महबूबतरीन (पसंदीदा) मशग़ला (शौक़) थी इसकी इक बड़ी वजह ये थी कि वह बेदिल के असीर (चाहने वाले) थे. फ़ारसी शेर की रवीश (तरीक़ा/अंदाज़) पर चलने की वजह से उनके यहाँ दिक़्क़तपसंदी आई. वो इस बात का कई जगह ऐतराफ़ (स्वीकारना)भी करते हैं. आइए अब इसी मौज़ू पर ग़ालिब साहेब की इस मशहूर रूबाई की जानिब चलते हैं-

“मुश्किल है ज़बस कलाम मेरा ए दिल
सुन सुन के उसे सुख़नवराने कामिल
आसान कहने की करते हैं फ़रमाइश
गोयम मुश्किल दीगर न गोयम मुश्किल”

पहले मिसरे (दो पंक्तियों का शेर) का मानी तो वाज़ेह (स्पष्ट) है कि वो ये कह रहे हैं कि उनका लिखा कलाम यानी उनके अशआर मुश्किल हैं और उसे सुनकर सुख़नवराने कामिल यानी दीगर शोअरा (दूसरे शायर) उनसे आसान कहने की फ़रमाइश करते रहते हैं.

रूबाई के आख़िर के मिसरे (शेर) से दो मानी (अर्थ) पैदा हो रहे हैं एक तो यूँ है कि अगर उनकी फ़रमाइश पूरी कर दूँ यानी आसान शेर कहना शुरू कर दूँ तो मुश्किल ये है कि ये मेरी तबोयत के ख़िलाफ़ है (क्यूँकि ग़ालिब मानते थे कि शायरी को आसान बनाना उसका वक़ार घटाना है) और अगर आसान न कहूँ तो ये मुश्किल है कि दीगर शोअरा (दूसरे शायर) बुरा मानते हैं. ये तो पहला मानी (अर्थ) हो गया और दूसरा इसका लतीफ़ (मोहक) और दिल ख़ुश कर देने वाला मानी यूँ है (जिसके लिए ग़ालिब साहब जाने जाते हैं ) कि अगर मैं साफ़ साफ़ ये कह दूँ कि मेरे सामईन (श्रोता) कम अक़्ल हैं और उनमें समझ और शऊर की कमी है हैं तो उनकी दिलशिकनी (दिल टूटना) और तौहीन (अपमान) यक़ीनी है और अगर सच ना कहूँ तो ख़ुद क़ुसूरवार ठहरता हूँ यानी हर जानिब से मैं ही मुश्किल में हूँ.

आइए इसी मौज़ू पर उनके दूसरे शेर की जानिब चलते हैं-

“गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है”

यहां ग़ालिब कहते हैं कि अगर खामोशी से ये फ़ायदा है कि इससे दिल का हाल किसी पर ज़ाहिर नहीं होता है तो मैं ख़ुश हूँ कि मेरा बोलना भी ख़ामोशी का ही फ़ायदा देता है. ऐसा इसलिए क्यूँकि मेरा कलाम किसी की समझ में ही नहीं आता है. मैं ख़ामोशी का फ़ायदा बग़ैर ख़ामोश हुए ही हासिल कर रहा हूँ. मैं वो मजज़ूब ( मलंग, दीवाना, बावला, लेकिन रूहानी तौर पर क़रीब-ए-ख़ुदा इंसान) हूँ कि लोगों को मेरी बात समझनी भी मुश्किल है. आइए देखें इसी मौज़ू पर लिखे अपने अगले शेर में ग़ालिब साहेब क्या फ़रमा रहे-

“पाता हूँ उस से दाद कुछ अपने कलाम की
रूहुल-क़ुदुस अगरचे मिरा हम-ज़बाँ नहीं”

आइए इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करने के क़िब्ल जानते हैं कि ये रूहुल-क़ुदुस कौन हैं?

रूहुल-क़ुदुस इक फ़रिश्ते हैं जिनका नाम जिब्राईल है और ज़हानत (बुद्धिमानी) में जिनका कोई सानी (बराबर) नहीं है वो अल्लाह का पैग़ाम मुहम्मद साहब के पास लाते थे.

इस शेर में ग़ालिब की ख़ुदबीनी (आत्ममुग्धता) देखते ही बनती है वो शगुफ़्ता तंज़ (चुभे भी और अच्छी भी लगे) के लहजे में कह रहे कि मेरी शायरी का दर्जा इतना बलंद (ऊँचा) है कि इंसान तो दूर की बात है फ़रिश्ते भी मेरी बात नहीं समझते लेकिन वो उसकी दाद ज़रूर देते हैं. जिब्रील जैसा फ़रिश्ता तक मेरी बात नहीं समझ सकता क्यूँकि जैसी फ़सीह ज़बान (शुद्ध, साफ़, प्रभावशाली और सलीक़ेदार भाषा) मेरी है वैसी तो जिब्राइल की भी नहीं है.

दीवान-ए-ग़ालिब (फ़ारसी) में ग़ालिब का इक शेर यूँ भी मिलता है जो ग़ालिब की ख़ुदबीनी (आत्ममुग्धता) की मिसाल है-

“मा नाबूदीम बदीन मर्तबा राज़ी ग़ालिब
शेर ख़ुद ख़्वाहिश आन करद के गरदू फ़न मा”

जिसका म’ आनी यूँ है-

“मैं कब था सुख़नगोई पर मायल ‘ग़ालिब’
शेर ने की ये तमन्ना की बने फ़न मेरा”

ख़ैर! इस मज़मून को पढ़ने के बाद हम और आप यही कहेंगे कि ग़ालिब मुश्किल ज़रूर हैं लेकिन जब आप मेहनत करते हैं और उन्हें समझना शुरू करते हैं तो इक अजीब क़िस्म का लुत्फ़ (मज़ा) और सरशारी ( उन्मत्ता) हासिल होती है. ग़ालिब के अशआर महंगे इत्र की मानिंद हैं जो पहली सांस में चौंकाते नहीं, मगर देर तक अपनी खुशबू छोड़ जाते हैं और इनकी धीमी लेकिन पुरअसर (प्रभावशाली) ख़ुशबू के साथ हमारे रोज़-ओ-शब (दिन-रात) गुज़रने लगते हैं.क़ारी (पाठक) पर इक तजस्सुस (जिज्ञासा) की कैफ़ियत (दशा) तारी हो जाती है. क़ारी (पाठक) तादेर (देर तक) उसके हिसार (घेरे) में गुम रहता है. जब वो हिसार (घेरे) से बाहर आता है तो उस पर सुरूर-ओ-विजदान (उदात्त आनन्द और आंतरिक चेतना) के दर (दरवाज़े) वा (खुल)हो जाते हैं. बिलाशुबह (निश्चित रूप से) हम ग़ालिब साहब के लिए उन्हीं के रूहानी उस्ताद अब्दुल क़ादिर बेदिल की कही ये बात कह सकते हैं-

“जब तक दुनिया में शायरी मौजूद रहेगी मैं भी मौजूद रहूँगा कोई मुझे मिटा नहीं सकता मेरी बातें अनक़ा चिड़िया के बाल-ओ-पर की तरह हैं.”

 

नरगिस फ़ातिमा
बनारस
शिक्षाशास्त्र में पीएच.डी.उर्दू, फ़ारसी और अरबी की शिक्षा घर में ही प्राप्त की. बनारस हिंदू विश्विद्यालय के रणवीर संस्कृत विद्यालय में गणित का अध्यापन. कुछ कविताएँ भी प्रकाशित.

fatima. huma1320@gmail. com
Tags: ग़ालिबग़ालिब के शेर और उनके अर्थनरगिस फ़ातिमा
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Comments 4

  1. कुमार अम्बुज says:
    12 hours ago

    दोनों हिस्से मिलकर एक प्रभावी पुस्तक की तरह हैं।
    इस लिखत से गुज़रना संपन्न होना है।
    धन्यवाद। बधाई।

    Reply
  2. MOHD JAVED says:
    10 hours ago

    पढ़ते हुए एक बार भी नज़र न हटा सका, बहुत संपन्न और बेहद लुत्फ़ आन्दोज़ महसूस कर रहा हूं।

    Reply
  3. Sudhanshu Gupt says:
    7 hours ago

    ग़ालिब की शायरी की बहुत सी परतें खोलता और हमारे जैसे पाठक को उसके अर्थ समझाता बेहतरीन लेख, इस कड़ी में आपका पहला लेख भी बहुत अच्छा था

    Reply
  4. Arun Aditya says:
    1 hour ago

    नरगिस फ़ातिमा ग़ालिब की गंभीर अध्येता हैं। किसी जुनूनी गोताखोर की तरह एक-एक शेर की गहराई में जाती हैं और अर्थ का मोती निकाल लाती हैं। उस मोती की चमक और बढ़ाने के लिए उससे मिलते जुलते असआर की रोशनी भी डालती हैं।
    पहले शेर की तशरीह पढ़ते हुए अंदाज़ -ए-फ़तह-ए-बाब को जानने के बाद मुझे मित्र कुमार अंबुज की प्रसिद्ध कविता किवाड़ ( जिस पर उन्हें भारत भूषण पुरस्कार मिला था) की पंक्तियां याद आ गईं-
    ये जब खुलते हैं
    एक पूरी दुनिया
    हमारी तरफ़ खुलती है।
    नरगिस को बधाई। ग़ालिब से दोबारा मिलवाने के लिए समालोचन को शुक्रिया।

    Reply

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