लाल्टू की कुछ नई कविताएँ
1.
चाहता हूँ
चाहता हूँ
कि आवाज़ें पीछा छोड़ दें. जागते हुए, मूँछ-दाढ़ी पर कैंची चलाते, मंजन करते, कपड़े पहनते-उतारते देखता हूँ मशीनें दौड़ती आतीं, कुछ निस्तब्ध नहीं. चाहता हूँ
कि आवाज़ें पीछा छोड़ दें. बचने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ? याद नहीं है कि वे कब से कहाँ से मेरे पीछे हैं. कहानी पढ़ रहा था जब साइरन बजा. क्या कहानी की शुरूआत ऐसी थी? कोई शाप दे रहा कि मौत से बढ़कर जीने का ख़ौफ़ हमेशा साथ रहेगा. कहानी में कारीगरी बेहतरीन है, जैसे बच्चे मरते हुए चीख नहीं रहे. साइलेंट फिल्म सा चीखों को अनोखे रंगों में भिगोया है, और बच्चों को अँधेरी सुरंगों की ओर जाते हुए दिखाया है. क्या ज़रूरी था कि मैं कथा-नायक रहूँ? दर्शक भी और अभिनेता भी. इतनी बड़ी धरती में छोटी सी जगह किसी और कहानी को नहीं मिल सकती थी? कहीं दरिया किनारे बैठकर चुपचाप रो नहीं सकता. चाहता हूँ
कि आवाज़ें पीछा छोड़ दें. कब तक थके सपनों को नींद से उठाता रहूँगा? अनगिनत मशीनें धातुओं सी चीखती हैं. किस जंग में किस ओर फँस गया हूँ. कच्ची नींद से जाग उठे सपने परेशान कर रहे हैं. हैरत नहीं होती, दिन-वार या हफ्ता-वार वक़्त गुजरता है, फिर से कहानी पढ़ता हूँ. बच नहीं सकता कि नायक हूँ. गिनता हूँ कि कितने हज़ार हर्फ़ हैं. हर अक्षर एक बच्चा है जिसे नक्षत्र बन जाना है. यही शाश्वत है? आदिम ज़बान मेरे अंदर और हर जगह? यह फिल्म नहीं है, बहुत कुछ नहीं है – हवा नहीं है. कोई जवाब नहीं है, चाहता हूँ
कि आवाज़ें पीछा छोड़ दें. आँखें मूँद लेता हूँ, किसी को रोक नहीं सकता. क्या आश्चर्य शब्द ग़ायब हो गया है?
क्या कल्पना टुकड़ों में ही मौजूद रहेगी? क्या अम्न नाम की कोई ज़बान नहीं बची? कहानी का अंत हो, अंत हो. सपनों पर
से शाप छूट जाए.
आवाज़ें पीछा छोड़ दें.
2.
कहीं कोई
कहीं कोई जगह बची है? कहीं कोई पेड़ का खोखर, कोई ब्लैक-होल, जहाँ देर तक सो सकूँ. कहीं ताप की इंतहा हो कि जिस्म उबल जाए या कि ठंडक ऐसी कि ख़ून जम जाए. जहाँ बसंत बेजान हो ऐसा कि कोई एहसास न हो. कोई मसीहा आए और पल भर में हर क़तरे को निश्चिह्न कर दे. जल जाए, एकबारगी सब कुछ जल जाए.
कहीं कोई जगह बची है? जहाँ कोई दोस्त न हो, कहीं जाने की ख़्वाहिशें न सताएँ, बारिश न हो, धूप न हो, आम-अनार कोई फल, गेंदा-चमेली कोई फूल न हो, कोई पद-पदोन्नति-तनख़्वाह-भत्ता न हो, साफ-सफाई न हो, पीछे-आगे,
रोशनी न हो, रंगीन किताबें न हों, ऐसा विस्फोट हो कि यह खबर न रहे कि क़तरा-क़तरा ग़ायब होता है. जल जाए, एकबारगी सब कुछ जल जाए.
कहीं कोई जगह बची है? कहीं इतना नंगा हो जाएँ कि भय की नग्नता न दिखे. अकेला लफ्ज़ बेमानी हो जाए. कहीं बाहर-अंदर न हो, कल्पनाओं के प्रेत न हों, शहर-गाँव न हों, गाजर-मूली न उगे, मृगतृष्णा भटक जाए, समंदर प्यास से सूख जाए, तर्जनी-मध्यमा का क्रम न हो. विचार-विचारक, चिंता-चिंतक, भूगोल-इतिहास, जल जाए, एकबारगी सब कुछ जल जाए.
कहीं कोई जगह बची है? कहीं क़ायनात की वापिसी हो, तारे दौड़ते आ टकराएँ, सभी धमाके सिमट जाएँ, पदार्थ में अर्थ न रहे. कहीं सत्य नामक भ्रम की बेहोशी में समय व्यर्थ न रहे.
जल जाए, एकबारगी सब कुछ जल जाए.
3.
क़रीब तक़रीबन
क़रीब तक़रीबन ग़रीब हो गया है
दूरी ही दूरी
कैसी बीमारी
अंदर बाहर हर कुछ गल रहा
हालाँकि हर कुछ पीर से पिघल रहा
जीवविज्ञान की पहेली है
आधुनिकता की सहेली है
हवा में पानी में कहीं कुछ है घुला
हमारे बीच कोई अपारदर्शी बुलबुला
तक़रीबन अनुत्क्रमणीय तत्सम भयंकर
चुपचाप खुद को सुनती चीख निरंतर
लौट जाओ
जिस कोख से आए थे
वहीं लौट जाओ
एक रात बाक़ी है
भोर होने से पहले लौट जाओ.
4.
हर पल
हर पल जगा सोता रहा हूँ
कई बार बार-बार खोता रहा हूँ
जगा तो ख़्वाब की सतरंगी चादर स्याह दिखी
खुद में छिपा छिप-छिप रोता रहा हूँ
उदासी ने हर बात से उदासीन कर दिया
दुनिया भर के ग़म यूँ ढोता रहा हूँ
‘गर कभी यह जाना होता कि
क़रीब रहकर दूर होता रहा हूँ
न मिला सही मुझे जी भर कभी
प्यार की उपज हर सिम्त बोता रहा हूँ.
5.
जब सब
जब सब कुछ मिट जाएगा
धरती-आस्मां, सब कुछ खत्म हो जाएगा
बची रहेगी
यादों की तपिश और संग की याद
साँसों की सरसराहट, रंग, महक, छुअन और स्वाद,
वह वक़्त का ठहर जाना, पल में सदियों का गुज़र जाना
वह खुदी, बेखुदी, सिमटना, इंतहा पसर जाना
वह ज़लज़ला, सब कुछ थिर जम जाना
वह सदियों पुराना, नया हो जाना
सब कुछ खोना सब पा जाना
वह झुकना, खड़े हो जाना
मूँद लेना पलकें, आँखें फाड़ कर देख पाना
हर दिक् जान जाना, जो जाना वह भूल जाना
जब सब कुछ मिट जाएगा
बचा रहेगा प्यार, जिसे असलाह मिटा न पाएँगे
धरती आस्मां में बुलंद
कथाओं-गाथाओं में बसे हमारे स्वाद और रंग.
6.
कई भाषाओं में
मैंने कई भाषाओं में खेल खेले
जाना कि धरती पर लोग हैं, दरख्त हैं
दरख्तों में लोग हैं, लोगों में दरख्त हैं
दरख्त कुछ चाहते हैं
लोग कुछ चाहते हैं.
वक़्त को जाना कि हमेशा हवा सा बहता नहीं
हवा को जाना कि नदी जैसा हर पल बहता नहीं
वक़्त से खेला तो जाना कभी थम जाना
दरख्त से खेला तो जाना जड़ों का उखड़ जाना
मैंने कई भाषाओं में खेल खेले
जाना कि नफ़रत की जड़ें अक्सर मोहब्बत में होती हैं
थमी हुई चाहत किस मिट्टी में जड़ें बनाती है
कैसे हर खेल में नफ़रत जगह बनाती है
थमी हुई बारिश की ज़हरीली बूँदें हर पल मँडराती हैं
मैंने कई भाषाओं में खेल खेले.
7.
डर नहीं, हल्की छुअन
यक़ीनन सभी दरवाज़े बंद नहीं होते. बड़ों की बातों में डर भरा होता है कि दरवाज़े खुलेंगे नहीं. ज़हरीला विकिरण दोनों ओर दरवाज़ों तक आता है, बड़े सीना पीट चीखते-चिल्लाते हैं. दरवाज़ों से टकराकर लौट आता विकिरण तांडव नाचता है. गीत मुरझाते हैं, बत्तियाँ धीमी हो जाती हैं. बच्चे देखते हैं और गुनगुनाते हैं कि
यक़ीनन सभी दरवाज़े बंद नहीं होते. हल्की छुअन से भी खुलते हैं कुछ. पहले आँसू बहते हैं. पास बैठने का अघोषित न्यौता मिलता है. बैठते हैं और आँसू बहते हैं. पता चलता है कि कुछ दरवाज़े दूसरी ओर से खुले हैं. दोनों ओर से रेंगती आती हैं व्यथाएँ. अंतत: बड़े जानते हैं कि दरअसल हम बच्चे हैं, इधर भी उधर भी. दर्द महसूस करना सीखा, बंद दरवाज़ों के पार दर्द होगा, यह सीखते हैं धीरे-धीरे. सीख असहनीय हो जाती है; गूँजती है, इस पार उस पार. सर्द-ग़र्म हवाओं को अनदेखा कर आँसू मिलकर घुलने लगते हैं. माँओं के सीनों में मुँह छिपाकर हम सुक़ून से रोते हैं. क्या यह समझ बड़ा होना नहीं है? अगर नहीं, तो होना चाहिए, यही बड़ा होना होना चाहिए. डर नहीं, हल्की छुअन.
8.
पैगाम
मैं दौड़ा आया कि तुम रोटी का टुकड़ा दोगे,
तुमने बंदूक उठाई और भूख मिटा दी.
अपना दर्द तैरता हुआ तुम तक पहुँचता देखा.
अजीब बात कि मर मैं रहा और तुम रो रहे थे.
तुम्हारे आँसू भाप और धुंध बन दूर तक फैल रहे थे
और तुम अचानक माँ माँ पुकारते बैठ गए थे.
कुछ तो तुम्हें कहना था कि
कहने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं था.
अपने इतिहास की चौकीदारी का बोझ तुम्हारी जीभ पर
खटास बन जम रहा था, छालों भरी ज़ुबान से
कहते तो कैसे कहते
कि मेरी लाश उठा रही माँ
तुम्हारी भी माँ है
कि जीभ पर छालों को तीखे चाकू दल रहे थे.
माँ ने कभी एक रोते मर्द को अपने अंदर छिपा लिया था
और तुम जन्मे थे मेरी ही तरह
ख़ून सने मांस के लोथड़े सा तुम भी
माँ की जाँघों के बीच से रोते हुए मुस्कराते आए थे मेरी तरह
माँ ने तुम्हें बचाया हर तरह की हिंसा से
और आज हिंसा हम दोनों को पास ले आई है.
बंदूक उठाती तुम्हारी शक्ल ख़ूबसूरत नहीं दिखती
पर तुम मेरे जैसे ख़ूबसूरत हो वाक़ई
धुंध में खो जाने से पहले पैगाम है तुम्हारे लिए
जाओ माँ की गोद में लेट कर रो लो कि
माँ की कोख में मेरा भी अपना इतिहास है
कि तुम्हारी बंदूक ने मेरी भूख मिटाई है.
लाल्टू ( हरजिंदर सिंह) १० दिसंबर १९५७, कोलकाता हरजिंदर सिंह हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान (computational natural sciences) के प्रोफेसर हैं. उन्होंने उच्च शिक्षा आई आई टी (कानपुर) तथा प्रिंसटन (अमरीका) विश्वविद्यालय से प्राप्त की है. एक झील थी बर्फ़ की, डायरी में २३ अक्तूबर, लोग ही चुनेंगे रंग, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ, नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध, कोई लकीर सच नहीं होती, चुपचाप अट्टहास कविता संग्रहों के साथ कहानी संग्रह, नाटक और बाल साहित्य आदि प्रकाशित. हावर्ड ज़िन की पुस्तक ’A People’s History of the United States’ के बारह अध्यायों का हिंदी में अनुवाद. जोसेफ कोनरॉड के उपन्यास ’Heart of Darkness’ का ’अंधकूप’ नाम से अनुवाद, अगड़म-बगड़म (आबोल-ताबोल), ह य व र ल, गोपी गवैया बाघा बजैया (बांग्ला से अनूदित), लोग उड़ेंगे, नकलू नडलु बुरे फँसे, अँग्रेजी से अनूदित आदि. बांग्ला, पंजाबी, अंग्रेज़ी से हिंदी कहानियाँ, कविताएँ भी अनूदित. सैद्धांतिक रसायन (आणविक भौतिकी) में 100 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित. |
वरिष्ठ कवि -अनुवादक, वैज्ञानिक, पंजाबी, बांग्ला, हिंदी और अंग्रेज़ी के विद्वान लाल्टू उर्फ़ हरज़िंदर सिंह की कविताएं पढ़ गया।उनकी कविताएं चेतना की उच्ची भाव भूमि पर आस्वादक को ले जाती हैं।