यान लियांके
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1958 में चीन के एक गाँव में जन्मे यान लियांके चीन के अत्यंत प्रतिष्ठित कथाकार हैं जिनके अनेक कथा संकलन और उपन्यास प्रकाशित, पुरस्कृत और विभिन्न भाषाओँ में अनूदित हैं. चीन के सर्वप्रतिष्ठित लू शुन प्राइज और लाओ शे अवार्ड से सम्मानित हो चुके हैं और फ्रांज काफ़्का प्राइज सहित अनेक विश्वस्तरीय साहित्यिक सम्मानों के अधिकारी रहे हैं. मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज के लिए वे एकाधिक बार शीर्ष दावेदार भी रहे हैं. कभी चीन की सेना में प्रोपेगैंडा लेखक रह चुके यान लियांके अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए देश के शासन के बार बार कोपभाजन बनते रहे हैं- उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे और देश से बाहर यात्रा करने पर रोक लगायी गयी. उनकी ड्रीम ऑफ़ दिंग विलेज, सर्व द पीपल, लेनिन्स किसेज, द ईयर्स, मंथ्स, डेज इत्यादि चर्चित किताबें हैं.
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो चीनी भाषा के क्लास में कई बार ऐसा होता था कि सैकड़ों बार याद की हुई कविता या कोई और पाठ ठीक से सुना नहीं पाता था- तब टीचर मुझे खड़ा कर देते और पूरी क्लास के सामने कहते : तुम इतने भुलक्कड़ कैसे हो गए?
जब से यह कोविड-19 हमारे जीवन में आया है तब से लेकर अब तक हमें बिल्कुल नहीं मालूम कि वास्तव में कितने लोगों की जान इसने ली- कितने लोग अस्पतालों में मर गए और अस्पतालों से बाहर कितने मर खप गए. हमें इस अफरातफरी में इसका मौका ही नहीं मिला कि हम किसी तरह की छानबीन करें और इस बारे में किसी से कोई प्रश्न पूछें…. लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि ऐसी छानबीन और सवाल समय के साथ धूमिल पड़ जाएँगे या भुला दिए जाएँगे और हमारे सामने यह हादसा हमेशा–हमेशा के लिए एक गूढ़ रहस्य बनकर खड़ा रहेगा. आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए हम विरासत में जीवन मरण
का ऐसा उलझा हुआ मकड़जाल छोड़ जाएँगे जिसकी किसी की स्मृति में भी कोई जगह नहीं होगी.
“मुझे यह तो मालूम था कि सर्दियों की बर्फबारी में जंगली जानवर गाँव में घुस आएँगे और झपट्टा मारकर किसी को भी उठा ले जाएँगे क्योंकि उस समय उनके पास पहाड़ पर खाने के लिए कुछ नहीं होता… लेकिन मुझे इसका जरा भी इल्म नहीं था कि वे बसंत ऋतु में भी आ सकते हैं.”
इस जमाने में स्मृतियाँ एक औजार की तरह हो गई हैं जिनसे सामूहिक और राष्ट्रीय स्मृतियाँ निर्मित की जाती हैं- ध्यान रहे यह निर्मिति उन्हीं से मिल कर बनती है जिन्हें हमें भूलने को कहा जाता है या याद करने को कहा जाता है.
कोई तो होगा जिसने हमारी स्मृतियों को धो पोंछ कर मिटा डाला, लीप पोत कर सब कुछ साफ कर दिया…. कौन है वह?
सड़क पर, खेत में जो गंदगी पड़ी रहती है कूड़ा कचरा पड़ा रहता है- स्मृतिविहीन लोग वही कूड़ा कचरा हैं. उन्हें कुचलते हुए जूते मनमाफिक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ते जा रहे हैं.
स्मृतिविहीन लोग वास्तव में लकड़ी के उन लट्ठों और तख्तों की मानिंद होते हैं जो उस पेड़ को भूल जाते हैं जिसने उन्हें पैदा किया, जीवन दिया. ध्यान रखो, ऐसे लोगों के जीवन पर कुल्हाड़ियों और आरियों का भरपूर नियंत्रण होता है और उनका भविष्य यही तय करते हैं.
यदि हम लिखने पढ़ने से प्यार करने वाले लोग, जीवन को एक अर्थ देने वाले लोग अपनी स्मृतियों से विमुख हो जाएँ – चाहे वह जीवन के स्मृतियाँ हों या रक्तपात की स्मृतियाँ- तब लिखने का मतलब ही क्या रह जाता है? साहित्य का मूल्य फिर क्या बचेगा? ऐसे में किसी समाज को लेखकों की आवश्यकता ही क्या है? आपके अथक परिश्रम और अध्यवसाय से उपजे हुए साहित्य और अनेकानेक किताबों को कठपुतलियों से अलग कैसे माना जा सकता है जब उन सब के विषय और रचना शैली को नियंत्रित कोई और कर रहा हो? यदि रिपोर्टर जो देखते हैं उसे अपनी रिपोर्ट में न लिखें, लेखक अपनी स्मृतियों और भावनाओं को अपनी रचनाओं में स्थान न दें और आम इंसान हरदम गीतात्मक शैली में पॉलिटिकल करेक्टनेस की ढपली बजाते रहें तो हाड़ मांस और रक्त प्रवाह वाले हम इंसानों को धरती पर आकर जीने का मकसद भला कौन बताएगा?
ऐसा नहीं है कि फांग फांग ही ऐसा करने वाली इकलौती इंसान हैं बल्कि उनकी तरह के हजारों लाखों लोग हैं जो अपने मोबाइल के माध्यम से संकट में मदद की गुहार लगाते रहे. पर हमने क्या सुना? क्या देखा?
कभी–कभी ऐसा होता है कि हमारे दौर की अभूतपूर्व झंझा में हमारी स्मृतियों की फालतू के फोम, पागल लहर और शोर कहकर उपेक्षा की जाती है… नतीजा यह होता है कि समय की तेज धार उन आवाजों को उन शब्दों को कुचलती हुई मिटाती हुई आगे बढ़ जाती है- लगता है जैसे कभी उनका अस्तित्व था ही नहीं. समय का अभियान जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है सब कुछ धुंधला पड़ता हुआ ओझल हो जाता है. हमारा मांस हमारा लहू हमारा शरीर हमारी आत्मा सब तिरोहित हो जाते हैं यद्यपि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ बिल्कुल ठीक दुरुस्त चल रहा है. ऐसे दौर में वह छोटा सा आलंब भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता जिससे ध्वस्त होती हुईं दुनिया को सहारा देकर फिर से खड़ा किया जा सके. तब इतिहास ऐसी दंत कथाओं, भूले बिसरे और काल्पनिक किस्से कहानियों का एक संकलन बन कर रह जाता है जिनमें न तो कोई सच्चाई होती है न आधार. इस नजरिए से देखो तब समझ आएगा कि कितना जरूरी है हमारा आसपास घट रही महत्वपूर्ण घटनाओं को याद रखना और अपनी स्मृतियों को बगैर किसी हस्तक्षेप के अ संशोधित और सच्चे रूप में सुरक्षित संरक्षित रखना.
जब भी हम कभी छोटा से छोटा सच भी बोलेंगे तो इन्हीं स्मृतियों के जखीरे से हमें यथार्थता और साक्ष्य का आधार मिलेगा. सृजनात्मक लेखन के विद्यार्थियों के लिए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. तुम में से अधिकांश लोग अपना जीवन लेखन, सत्यान्वेषण और स्मृतियों को उद्घाटित करने को समर्पित करने का सपना देखते हो. उस दिन की कल्पना करो जब हमारी तरह के लोग भी अपनी बचीखुची प्रामाणिकता और स्मृतियाँ खो देंगे ….. तो फिर क्या इस दुनिया में किसी प्रकार की निजी या ऐतिहासिक प्रामाणिकता और सत्य के बचे रहने की कोई उम्मीद शेष बचेगी?
चलो मान लेते हैं कि हमारी याददाश्त की क्षमता और संचित स्मृतियाँ दुनिया को या इसकी सच्चाई को बदलने में किसी तरह की भूमिका नहीं निभा सकतीं लेकिन जब हम केंद्रीकृत और नियंत्रित “सच” के सामने खड़े होंगे तो इतना तो निष्कर्ष निकाल ही सकते हैं कि कहीं किसी चीज पर पर्दा डाला गया है ….. या समग्र परिदृश्य से कुछ ऐसा जरूर है जो छूट रहा है. हमारे अंदर कितनी भी क्षीण आवाज हो लेकिन वह बोलेगी जरूर: “यह सच नहीं है.” कोविड-19 महामारी को ही लें तो जब हालात सुधरेंगे तब भी हमें इंसानों के, परिवारों के और हाशिए पर धकेल दिए गए समाजों के शोकाकुल क्रंदन और चीत्कार जरूर सुनाई पड़ेंगे चाहे बाहर कितना भी कानफोड़ू उत्सव और विजयोल्लास का तमाशा किया जा रहा हो.
स्मृतियाँ दुनिया बदल नहीं सकतीं लेकिन हमें वास्तव में दिलेर बनाती हैं, हममें हौसला भरती हैं.
निकट भविष्य में उम्मीद है हम यह देखेंगे कि पूरा देश कोविड-19 के ऊपर विजय के उपलक्ष में संगीत और गीतों के जश्न में झूम रहा है. मैं उम्मीद करूँगा कि हम उन खोखले लेखकों की तरह बाहर जो ढोल नगाड़े बज रहे हैं उसकी प्रतिध्वनि और भोंपू नहीं बनेंगे बल्कि अपनी स्मृतियों को पूरी प्रामाणिकता के साथ धारण कर जीवन यापन कर रहे लोगों की तरह बर्ताव करेंगे.
ऑस्चविट्ज कंसंट्रेशन कैंप के बाद कविताएँ लिखना निश्चय ही क्रूर कर्म था लेकिन यदि हम अपने शब्दों से, अपनी बातचीत से, अपनी स्मृतियों से इस क्रूरता को पोंछ डालेंगे तो यह और भी ज्यादा बर्बर कर्म होगा….कहीं ज्यादा निर्दयतापूर्ण और भयावह.
यदि हम जोर से चिल्ला कर अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम फुसफुसा कर तो जरूर कहें. यदि हम फुसफुसा कर भी अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम चुपचाप खड़े रहने वाले ऐसे इंसान तो जरूर बनें जिन्होंने अपनी स्मृतियाँ बचा कर रखी हैं. कोविड-19 की शुरुआत, इसके नरसंहार और फैलाव के अपने अनुभवों को अपने अंदर संजोकर रखें और जब चारों ओर सड़क चौराहों पर इस महामारी को पराजित कर देने का विजय पर्व मनाया जाए, समवेत स्वर में गीत गाते हुए मार्च किया जाए तो हमें चुपचाप सिर झुका कर किनारे खड़े हो जाना चाहिए- हम दरअसल वे लोग हैं जिनके मनों में अनगिनत कब्रें खुदी हुई हैं, मौतों की ह्रदय विदारक स्मृतियाँ अंकित हैं … हम ये तमाम बातें भूले नहीं हैं और एक न एक दिन ऐसा आएगा जिसमें हम ये तमाम स्मृतियाँ भविष्य की पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपकर प्रयाण कर जाएँगे.
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