कहानियाँ झूठी होती हैं, पर सच से कम सच भी नहीं होतीं, यही इनकी ताकत है. हिंदी की युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखक प्रचण्ड प्रवीर जिन्होंने अपने शास्त्रीय ज्ञान से वैसे भी चकित कर रखा है, कहानियों के माध्यम से भी लगातार विस्मित कर रहें हैं. राशियों को आधार बनाकर लिखे उनकी कहानियों के संग्रह ‘उत्तरायण’ और ‘दक्षिणायन’ अभूतपूर्व हैं.
लव इन द टाइम ऑफ़ कोरोना
मुख
“वरुण जी, जैसा कि यह लोक प्रसिद्ध है कि जो आपकी साहित्यिक वेब पत्रिका ‘समालोचना’ पर छपता है वही हिन्दी साहित्य का अंग है. जो समालोचना पर चर्चित नहीं है वह साहित्य में है ही नहीं. इसी लिहाजे मैं आपको अपनी एक दुविधा बताना चाहती हूँ.\”
\”आप स्वयं ‘दाग़ देहलवी’ की परम्परा की श्रेष्ठ लेखिका हैं. आपके मुख से ऐसा सम्मान बड़ी बात है. किस दुविधा से आप ग्रस्त हैं?”
“वरुण जी, कल रात मेरे सपने में स्वर्गीय विष्णु खरे आये. उन्होंने कहा कि मेरे जाने के बाद हिन्दी में आलोचना शून्य हो गयी है और अनुवाद का स्तर गिरता जा रहा है. क्षेत्रवाद बढ़ रहा है. हर तरफ निराशा छा रही है. आलोचक उपनिषदों के कथ्य को पुराण का कह कर भरी सभा में मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं. साहित्य के गिरोह के नेता समालोचक बन बैठे हैं. उनका प्रतिवाद करने वाला भी कोई नहीं है. अगर यही चलता रहा तो हिन्दी की परम्परा अधोगति को प्राप्त होगी.\”
“आपके कथन में कुछ सच्चाई है. आज हिन्दी के परिदृश्य में क्षेत्रवाद हावी है. किन्तु इसके लिए हम क्या कर सकते हैं? क्या आपके सपने में आकर विष्णु जी ने कोई मार्ग दिखाया?”
“मैं समझती हूँ कि यह दायित्व हम पर है. विष्णु जी ने जो कुछ कहा वह इस तरह समझा जा सकता है कि आज कोई वाल्मीकि कृत रामायण, महाभारत, रामचरितमानस को सम्प्रदाय और रुढ़ियों से अलग करके विमर्श नहीं करना चाहता. आधुनिक हिन्दी साहित्य इतना विपुल और गम्भीर नहीं है. इसलिए दुनिया की महान कृतियों का अनुवाद ही सही-सही किया जाए और आम जनता में प्रसारित किया जाए तो यह सार्थक होगा.”
प्रतिमुख
“जैसा कि आप सभी जानते हैं कि स्वर्गीय विष्णु खरे की स्मृति में ‘विष्णु खरे स्मृति संस्थान’ ने आलोचना और अनुवाद को बढ़ावा देने के लिए इस साल आप सभी माननीयों को यहाँ आमन्त्रित किया है. आप के सुख-सुविधा और पारिश्रमिक का पूरा ध्यान रखा जाएगा. अर्चना जी की यह इच्छा है कि हम मारखेज की कृति ‘हैजा के समय में प्यार’ के अनुवाद से कार्य प्रारम्भ करें.\”
अनुवाद विशेषज्ञ सुरेश गोस्वामी ने कहा,
“मेरा सुझाव है कि हम अनुवाद कर देते हैं, किन्तु जहाँ-जहाँ मूल उपन्यास में ‘हैजा’ शब्द है, वहाँ-वहाँ ‘कोरोना’ से बदल देंगे. किताब का नाम होगा ‘कोरोना के समय में प्यार’.\” यह सुन कर बीकानेरी ने टेबल थपथपा कर सहमति जता कर टिप्पणी की, “वैसे हमारे देश में कोरोना समस्या चीनी मूल की है जो इटली घूम कर आए एक विदेशी महामारी का स्थानीय अनुवाद है.\”
स्नेहशंकर शुक्ल ने सुरेश के सुझाव पर आपत्ति की, “यह तो नकल होगा.\”
कुँवरजीत चौधरी ने कहा,
“मेरे हिसाब से यह समसामायिक अनुवाद होगा. पूरी दुनिया अभी हैजे से नहीं, कोरोना से जूझ रही है. इस तरह शब्द बदल देने से आशय नहीं बदल रहा है. यह आसानी से समझ में भी आ जाएगा. इसलिए नकल नहीं हुआ.\”
महाप्राण ने कहा, “मैं समझता हूँ कि नकल कुछ और नहीं एक तरह का कामचलाऊ अनुवाद है जिसमें मूल रचनाकार के विषय में बताया न गया हो.\” सारी निगाहें मेनका कुमार की तरफ़ गयीं. उन्होंने ऐसे देखा जिसका मतलब था कि मेरा मौन ही अनुमोदन है.
वरुण देव ने फरमाया,
“भूतनाथ जी, आप सबसे कम साहित्यिक हैं. किन्तु अनुशासित हैं. इसलिए मैं इन सबके देखभाल का, काम की प्रगति का लेखा-जोखा रखने वाला आप को बनाता हूँ. आप ही हमें इस काम के बारे में बताते रहिएगा. आज रात आप एयरपोर्ट से विष्णु खरे के मित्र प्रमोद भारद्वाज को लेते आइएगा. कोरोना का खतरा बढ़ रहा है, इसलिए आप सभी लोग इसका ख्याल रखिएगा. और आप सभी लगातार हाथ धोते रहिएगा. सनद रहे कि चीन और इटली जैसे देशों में हजारों लोग इससे जूझ रहे हैं और कई हज़ार लोग मर चुके हैं.\”
अर्चना दाग़ और वरुण देव जी के जाने के बाद सितांशु खुसरो ने सुरेश गोस्वामी से कहा,
“अच्छा अनुवाद तभी हो सकता जब उसमें देसी सन्दर्भ हों. क्यों न हम अनुवाद के साथ-साथ रचना को और बेहतर बनाते जाएँ?”
भूतनाथ कुछ निर्रथक किस्म का आदमी था. वह साहित्य की दुनिया में चोरी-छुपे घुसते रहने की कोशिश करता रहता था. वह कविता, कहानी, आलोचना, अनुवाद, स्त्री विमर्श, जाति विमर्श, पुरस्कार विमर्श, फलाना विमर्श, ढिमका उत्कर्ष में हाथ आजमाता रहता था. पर हिन्दी के सजग पत्रिकाओं और प्राध्यापकों ने उसके नापाक मंसूबे कभी पूरे न होने दिए. उसने कहा,
“मेरे हिसाब से काव्य की आत्मा रस है. हमें इसमें ‘रस’ डालना चाहिए.\” भूतनाथ की बात सुन कर सभी हँस पड़े.
महाप्राण ने सुझाव दिया,
“अच्छे और मूल अनुवाद लगने के लिए हमें ऐसे शब्द डालने चाहिए जिसमें ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ का बहुधा प्रयोग हो. पात्र की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि लगे कि वे ‘सञ्जीव’, ‘कङ्कड़’ और गङ्गा’ के अनुनासिक उच्चारण से जूझ रहे हों.\”
स्नेहशंकर शुक्ल ने कहा,
“यह सब पुरानी बातें हो गयी हैं. लोग मुझे सुक्ल जी कहते हैं, मैं बुरा नहीं मानता. आज कोई ऐसा हो नहीं सकता है जो स, स और स में भेद करे.“ कुँवरजीत चौधरी ने पूछा, “श, ष और स?” स्नेहशंकर शुक्ल ने कहा, “जी वही स, स और स.\”
शनिवार की रात भूतनाथ एयरपोर्ट पर प्रमोद भारद्वाज की प्रतीक्षा कर रहा था, उसकी नज़र एक सुन्दर युवती पर जा पड़ी. वह कुछ परेशान सी दिख रही थी. भूतनाथ ने सोचा रस की निष्पत्ति के लिए उत्कृष्ट विभाव जरूरी हैं. रस का राजा है शृङ्गार. उत्तम पुरुषों के लिए सुन्दर स्त्री से बढ़कर कोई विभाव नहीं. अगर इसकी प्रेरणा से काव्य में रस की निष्पत्ति हो जाय तो क्या बात होगी?
वह लड़की किसी से फोन पर बात कर रही थी, “ह्वाट? पागल. अच्छा हिन्दी में बात करूँ? क्यों…? अच्छा सुन लो… मैं जानती हूँ तुम्हारा मन कलुषित है. अभी दो घंटे बाद मिलोगे? कहाँ? देर न हो जाए तुम्हें! अच्छा… हाँ.. सुनो..”
मूर्धन्य ‘ष’ का शुद्ध उच्चारण सुन कर भूतनाथ उसके पास जा कर उसकी बातें सुनने लगे. जैसे ही युवती ने फोन रखा, भूतनाथ ने कहा, “देवी जी, मैं विष्णु खरे स्मृति संस्थान में काम करता हूँ. आप ही हमारी मदद कर सकती हैं.\”
लड़की ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा. “मेरा नाम भूतनाथ है. यह रहा हमारे संस्थान का कार्ड. ज़ोरबाग़ में हमारा एक बंगला है. अगर आप वहाँ सोमवार को सवेरे आ सकेंगी तो हमारे साहित्यिक कार्य में मदद मिलेगी.\”
“कैसी मदद?” लड़की ने हैरानी से पूछा.
“हमारे कई दोस्त यह नहीं मानते कि आज भी कोई श, ष, स में उच्चारण का भेद कर सकता है. अगर आप आ कर हमारे साथियों को यह दिखा दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी.\” लड़की ने इतराकर मुँह फुलाया और आगे बढ़ गयी.
इधर प्रमोद भारद्वाज एयरपोर्ट पर बाहर निकले और भूतनाथ के पास आ कर उस जाती हुई मुस्कुराती इठलाती लड़की के बारे में पूछा.
“मौलिकता एक भ्रम है. फिर भी इस भ्रम को बनाए रखना चाहिए. शून्य से कुछ नहीं उपजता. मैं शून्य को भरने के लिए एकांत में कुछ फिल्में देखूँगा. उपन्यास के आवरण के लिए कुछ विचार करता हूँ. आप लोग तब तक अलग-अलग अध्यायों का अनुवाद कीजिए. मैं समय-समय पर समीक्षा करता रहूँगा. मैं महाप्राण की बात से सहमत हूँ कि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ के प्रयोग अधिक होने चाहिए, बीकानेरी इसके आडियो बुक बेचेंगे. तभी हिन्दी का दम दिखेगा.\”
सुरेश गोस्वामी ने कहा, “लकिन कोई ऐसा भी है जो आज सुद्ध-सुद्ध बोल सकता है?”
भूतनाथ ने कहा, “हाँ, एयरपोर्ट पर मैंने एक सुन्दर लड़की देखी. उसका हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का उच्चारण बहुत अच्छा था. “सुनकर सितांशु ने एकदम से खड़े हो कर पूछा, “लड़की?”
सबकी हैरान आँखे खुली की खुली रह गयी, जब देखा कि सामने सफेद टॉप और लाल स्कर्ट में बेहद खूबसूरत लड़की खड़ी है, जिसके गले में एक गाढ़ा गुलाबी रेशमी रुमाल बंधा है और होठों पर और गोरे गालों पर गहरी लाली है. उसने भूतनाथ को देखते ही कहा, “मुझे लगा कि सोमवार सुबह तक काफी देर हो जाएगी. इसलिए मैं आज ही चली आयी.\”
फिर उसने सारे साहित्यकर्मियों को एक-एक करके देखा. भूतनाथ ने एक-एक करके उससे सबका परिचय कराया. उस लड़की ने कहा, “मेरा नाम जिनिया है और मेरा उच्चारण एकदम स्पष्ट है.\”
स्नेहशंकर शुक्ल ने चुनौती पेश की, “अच्छा? हम कैसे मानें? कुछ सुनाइए जिसमें ‘स’, स’ और ‘स’ हो.\”
जिनिया स्थिति समझ गयी और दो घड़ी सोच कर उसने सुनाया, “शेष, गणेश, महेश, दिनेश, सुरेशहु जाहि निरन्तर गावै.\”
सुरेश गोस्वामी ने वहीं टोका, ‘एकदम गलत है. रसखान की कविता ऐसे है –
\’सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै.
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥ \’
बीकानेरी ने गाल पर हाथ रख कर टिप्पणी की, ‘पर इनका उच्चारण शुद्ध है. आवाज़ भी मधुर है. इनसे उपन्यास की रिकार्डिंग करवा सकते हैं.\”
इन बातों को दरकिनार कर के भूतनाथ ने कहा,
“जिनिया जी, जिसने आपको नहीं देखा और जिसे आपने नहीं देखा, सभी उसकी निन्दा करते हैं और स्वयं वह भी अपने को धिक्कारता है. आपके आने से अब हमारे काव्य में ‘रस’ आ जाएगा.\”
जिनिया ने खुद पर इतराकर बदले में तारीफ की, “भूतनाथ जी, आप सच में एक कवि हैं.\”
सितांशु ने प्रतिवाद किया, “जिनिया जी, यह कवि नहीं है. जो उसने आपको सुनाया वह वाल्मीकि रामायण से लिया गया है.\” सितांशु की उत्तेजना को महाप्राण ने पीठ थपथपा कर शांत कराया. मेनका कुमार ने पूछा,
“जिनिया, इतनी रात गये आपके अचानक आ जाने का कारण?”
जिनिया ने खुलासा किया, “दरअसल मैं इटली से आयी हूँ. एयरपोर्ट पर मेरा कोरोना टेस्ट निगेटिव आया है. पर फिर भी मुझे अलग-थलग रहने को कहा गया है. और मैं वहाँ नहीं रहना चाहती थी.\”
कोरोना का नाम सुनते ही हड़कम्प मच गया. सभी मेनका कुमार के पीछे जा छुपे.
यह सुन कर जिनिया ने शोखी से गुनगुनाया,
“जो मैं होती राजा बन की कोयलिया, कुहुक रहती राजा तोरे बंगले पर, नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.\”
“तदबीर से बिगड़ी हुयी तक़दीर बना ले, तक़दीर बना ले,
कुँवरजीत चौधरी ने कहा, “शरणागत की रक्षा करनी चाहिए. यह हमारी शरण में आयी है. लेकिन जिनिया, अगर हमें फिर भी कोरोना से खतरा है.“
जिनिया ने सिर हिला कर कहा, “वो खतरा आप सबको एक दूसरे से भी है. भूतनाथ अभी एयरपोर्ट से आए हैं. उनके साथ आने वाले इन सज्जन (प्रमोद भारद्वाज की तरफ इशारा कर के) को भी संक्रमण हो सकता है. आप सब एक दूसरे से एक मीटर दूर हो जाइए.\”
यह सुन कर सभी एक दूसरे से एक मीटर दूर फैल गए. मेनका कुमार ने सवाल लिया, “कितनी भाषाएँ आती है तुम्हें?”
जिनिया अपनी लम्बी नाजुक उँगलियों पर गिनने लगी- “बंगाली, हिन्दी, अंग्रेजी, रशियन, इटालियन, फ्रेंच, स्पैनिश… थोड़ी बहुत मराठी और कन्नड़.“
जिनिया ने आँखें मीची और मुसकुरा कर हामी भर दी.
गर्भ
“क्यों लगेगा? मैं तुमसे दूर हूँ.” मेनका कुमार ने कहा, “चलो, तैयार हो कर नीचे नाश्ता कर लो. सब दूर-दूर बैठेंगे.“ यह सुन कर जिनिया रो पड़ी. जब वह चुप हुयी, मेनका कुमार ने कहा, “जब भरोसा हो तो मुझसे सच कह सकती हो.“
नहीं जान सकते
पहाड़ से देखना
पहाड़ को देखने से
बिल्कुल अलग है
जैसे पैरों से खड़ा होना
और पैरों पर खड़ा होना –
पहाड़ पर चढ़ने से अलग है उतरना
उतरने से अलग है खड़े रहना
पहाड़ पर चढ़ना
चलना सीखना है एक बच्चे का
रेंगना चलना गिरना उठना …
पहाड़ से उतरना
नदी हो जाना है बर्फ का
पिघलना बहना कलकलाना …
पहाड़ पर खड़े रहनापत्थर हो जाना है.
स्नेहशंकर शुक्ल ने अपनी बात रखी, “यह आलोचना नहीं निन्दा को आमंत्रित करेगा. वैसे मेरा मत है कि इन विवादित बिन्दुओं को अर्चना ‘दाग़’ के समक्ष रखा जाए. उनकी सहमति भी आवश्यक है. बहरहाल जितने भी मत आए उनका स्वागत है.\”
मेनका कुमार ने जिनिया से कहा, “यह अध्याय तीन के शुरू के चार पैराग्राफ मूल स्पैनिश में है. जरा इसका अनुवाद करके दिखाना.\” जिनिया ने उनके दिए हुए कागजात लिए और देखने लगी.
भूतनाथ ने प्रस्ताव रखा, “जब बूढ़ा नायक अपनी प्रेमिका से उसके पति के निधन के बाद पहली बार मिल कर लौट आता है, जब वह उसकी चिट्ठियों को पढ़ना शुरू कर चुकी है उसके बाद, जब मुलाकात के समय उसके पेट में मरोड़ उठता है ओर वह किसी तरह भाग आता है. वहीं कथानक में बारिश हो जाएगी. एक पंक्ति में बारिश का उसके पड़ोसियों को भिगोना जोड़ दिया जाएगा. वहाँ पर मेनका कुमार की यह कविता डाली जा सकती है.
सर्दियों की बारिश फिर भी जल रहे माथे पर रखी ठंडे पानी की पट्टी है
इस बारिश में भीगने पर जुकाम लगने का डर आधा सच्चा और आधा झूठा है
उस भीगे हुए को मैंने सड़क पार करते हुए देखा
बारिश की गोद से उचक उचक जाते देखा
जब उसे कोई नहीं देख रहा था
उसे अपने आप को गुदगुदाते हुए देखा
बारिश की आवाज़ में वह ख़लल नहीं डालता
बाहर बारिश हो तो
पायदान से पैर रगड़ता
पाँव में लगी बारिश और मिट्टी को झाड़ कर
दबे पाँव कोमल कदमों से अपने घर में घुसता है
भीगा हुआ
पर अंदर से खुश
जैसे कोई धन लेकर घर लौटता है
मैंने देखा उसे
लौट कर घर वालों से बात करते हु
अभी जो बारिश में सड़क पार की
इस बात को रोज़नामचे से काटते हुए
निजी और सार्वजानिक राय को अलग करके
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए,
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी,
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत खुश है
प्रमोद भारद्वाज ने अपनी राय प्रकट की,
“यह बड़ा ही उत्तर आधुनिक काम होगा. कोरोना के समय में प्यार. मेरा पूरा समर्थन है इस तरह के नये सुझावों का. जब तक अनुवादों में मौलिकता की गंध न आए, तब तक वह उतरन की चीज है. लेकिन हम पुराने कपड़ों में रंग बिरंगे फुदने, घंटी, सलमें सितारें टाँक रहे हैं और उन्हें एकदम नए अंदाज़ का बना रहे हैं. मज़े की बात है यह कोरोना के समय ही लिखा जा रहा है.\”
मेनका के इस सवाल पर जिनिया स्तब्ध रह गयी. मेनका कुमार ने आगे समझाया,
“भाषा का अनुवाद होता है, वाणी का नहीं. अनुभूति का नहीं. प्रेम का अनुवाद नहीं होता जिनिया.\”
यह सुन कर जिनिया का चेहरा कुम्हला गया. आँखें भर आयी वह वहाँ से उठ कर चली गयी.
विमर्श
अचानक अगल-बगल से घंटी और शङ्ख का शोर आने लगा. सुरेश गोस्वामी चिल्लाये, “हम भी बॉल्कोनी में चलते हैं.\” सारे लोग दूरी बनाते हुए बॉल्कनी में पहुँचे. अगल बगल के बंगलों में, बॉल्कनी में, छत पर, लोग थालियाँ चम्मचों से पीट रहे थे. कोई घंटी बजा रहा था, कोई शङ्ख फूँक रहा था. बाकी लोग तालियाँ बजा रहे थे. भूतनाथ जिनिया के पास पहुँच कर उसे चोरी-चोरी देखने लगा. जिनिया ने तालियाँ बजाते हुए उससे पूछा, “कोरोना से डर नहीं लगता? तुम्हें भी हो जाएगा. मैं इटली से लौटी हूँ.\”
भूतनाथ ने हँस कर कहा ‘नहीं’ और वह भी तालियाँ बजाने लगा. कुँवरजीत चौधरी आस-पास के माहौल का विडियो बनाने लगे.
“मैं आप लोग से कुछ कहना चाहती हूँ. आप लोग को तकलीफ़ देने के लिए मैं माफ़ी चाहती हूँ. सच है कि मैं इटली से लौटी हूँ, पर आज नहीं दो हफ्ते पहले. मैं कल तक मुम्बई में थी. मुझे कोरोनो होता तो शायद अब तक संक्रमण हो चुका होता. अब मुझे जाना है.“
बीकानेरी ने कहा, “अरे वाह. आपने फालतू में हम सब को डरा दिया.\”
जिनिया ने कहा, “नौ बजे जनता कर्फ्यू खत्म होगा. पर मुझे आठ बजे तक नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुँचना है.\”
जिनिया ने डबडबायी आँखों से कहा.
प्रमोद भारद्वाज ने कहा, “मेरे रहते तुम्हें पैदल नहीं जाना पड़ेगा. भूतनाथ, गाड़ी निकालना. हम और तुम इन्हें छोड़ कर आएँगे.\” सितांशु ने कहा, “मैं भी चलूँगा.“ प्रमोद भारद्वाज ने डाँटा, “कोरोना संक्रमण चल रहा है. भूतनाथ तो केवल सुरक्षा के लिए है. आपात स्थिति में काम आ सकता है.\” फिर उन्होंने जिनिया से कहा,
“जिनिया जी, आप जाने से पहले कुछ गा कर सुनाइए.\” जिनिया ने लजाते हुए न में सिर हिलाया. प्रमोद भारद्वाज ने महाप्राण से कहा, “आप कुछ पढ़िए.“
उन्माद
कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो
यह तुम बता सकती हो
जिनिया बोली, “आप अच्छी भूमिका बाँध लेते हैं.\” स्नेह शंकर शुक्ल ने कहा, “हमारी एक कविता है – प्यास में. सुनिए
पानी ही भूमिका है
पानी ही विचार है
पानी ही कविता-कथा है
पानी ही उपसंहार है!
सितांशु ने कहा, “जिनिया जी, अब तो आप जाने वाली हैं, कोई गीत सुना दीजिए.\”
“आ जाएँगे. वे अपना मास्क ठीक कर रहे हैं.\” भूतनाथ ने पीछे उन्हें आता देख कर कहा.
तुममें
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूँ
और तुम्हें पूरा ढँक लूँ
“नहीं नहीं, तुम ग़लत सोच रही हो. मेरा मतलब वह नहीं था. मैं तो बस पूछ रहा था… आओ
देखो, यह आखिरी गाड़ी है. इसके बाद सारी गाड़ियाँ रद्द कर दी गयी हैं.\”
जिनिया वहीं खड़ी सोचने लगी. उसने मोहन से पूछा, “अगर मुझे कोरोना हुआ तो तुम्हारे शहर में इलाज होगा?”
“यह भी मुश्किल है. अगर डर लग रहा है तो तुम यहीं रह जाओ. अब लॉकडाउन के बाद मिलना ठीक रहेगा. यही समझदारी है.\” मोहन ने कहा.
“कहाँ जाऊँ? घर जाऊँगी तो वहाँ ‘चुलबुल लीला पाण्डेय’ से मेरी शादी कर दी जाएगी. तुम्हें पता भी है कि एक दिन मैंने कहाँ और कैसे गुज़ारा है?” जिनिया ने पूछा.
“अपनी सहेली सौम्या के घर ही गयी होगी! अब उससे क्या फर्क पड़ता है. तुम ठीक हो न! आओ गाड़ी में बैठते हैं या फिर तय कर लो यदि तुम्हें वापस जाना है तो.\”
यह बातें सुन कर जिनिया पूरी तरह लाल हो गयी. उसने अपनी मुट्ठी भींची और गुस्से में कहा, “तुम्हें फर्क नहीं पड़ता कि मैं जिन्दा रहूँ या मर जाऊँ. रात कहीं अजनबी के घर गुजारूँ या रेलवे स्टेशन पर.\”
“सौम्या कलकत्ता में है. कल देर रात तक मैं इधर-उधर भटक रही थी कि कहाँ रुकूँ? जब तुमने अपने पास जगह नहीं दी तो सौम्या के यहाँ मैं क्यों रुकती? मैं सोचती रही कि तुम्हारा फोन लगेगा और तुम मुझे लेने आओगे. और तुम्हारा फोन सुबह जा कर ठीक होता है!“\”
जिनिया गुस्से में चीखी, “मैंने तय कर लिया है. मैं वापस जा रही हूँ.\”
जिनिया झट से वापस सीढ़ियों की तरफ़ दौड़ पड़ी. दौड़ते हुए उसे ठोकर लगी. इस पहले कि वह गिरती, भूतनाथ के मजबूत हाथों ने उसे सम्भाल लिया. हड़बड़ाहट में जिनिया की मुट्ठी खुली. इससे पहले कि इत्र की शीशी गिरती, भूतनाथ ने उसकी मुट्ठी को अपने हाथों में ले कर सहेज लिया.
“ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो,
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं.\”
सितांशु अपने केहुनी पर खाँसने लगा. उसने शरारत से मुसकुराते हुए पूछा, “मैं भी उसी बंगले में चला जाऊँ?“
अर्चना ‘दाग़’ ने डाँटा, “अगर आप चले जाएंगे तो कौन पूरा करेगा – कोरोना के समय में प्यार ?”
उपसंहृति
तेईस मार्च को जिनिया का हाथ भूतनाथ ने थामा और बड़ी देर तक नहीं छोड़ा और केदारनाथ सिंह की पंक्तियाँ मन ही मन दुहरायी कि उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए साथ ही उन दोनों ने देखा कि सुन्दर साफ नीले आकाश में सुबह के सूरज की नारङ्गी किरणें नन्हे बैंगनी बादलों के टुकड़ों पर छितर रही हैं वहीं वासन्ती बयार में धूल का नाम-ओ-निशान नहीं और सालों के बाद एक बार फिर रंग बिरंगे पंछी नाजुक टहनियों पर चहचहाते दिख रहे हैं जिनके कर्णप्रिय कलरव को सुन कर जिनिया का दिल धड़क जाता जिसे भूतनाथ चुपके-चुपके कान लगा कर सुनता रहता और साथ ही दोनों ‘कोरोना के समय में प्यार’ के सिद्धांत और व्यवहार पक्ष पर निकटता और कोमलता से विमर्श करने लगे और कम हुए प्रदूषण को देख कर पुलकित होते रहे तथा टेलिविजन पर खबर सुनते रहे कि किस तरह सारा देश बंद होता जा रहा है वहीं ज़ोरबाग़ के बंगले पर अनुवाद पर जोर शोर से काम चलता रहा और कभी कभी वहाँ से लोग आ कर लोधी कॉलोनी के बंगले में जिनिया और भूतनाथ के खोज खबर लेते लेकिन वह सिलसिला भी चौबीस मार्च की खौफ़नाक शाम को बंद हो गया जब जिनिया ने पहली बार साँस में तकलीफ की शिकायत की और साथ ही बदन दर्द की भी और इटली में हर रोज इलाज़ के अभाव में गिरती लाशों के बारे में बताते हुए भूतनाथ से उसे छोड़कर कहीं दूर चले जाने की विनती की किन्तु भूतनाथ ने उसका हाथ नहीं छोड़ा वहीं जीनिया की नासाज़ तबीयत की खबर को सुन कर बाकी लोग भयभीत हो गये यह भय और भी बढ़ गया जब चौबीस मार्च की रात में आठ बजे इक्कीस दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की गयी और इसके साथ ही सभी देश के सारे निवासी अपने-अपने बंगलों में घरों में कोठरियों में महलों में झोपड़ियों में अट्टालिकाओं में आशियानों में ठिकानों में कैद हो गए बंद हो गए फँस कर रह गए और वहीं भूतनाथ को जिनिया का और जिनिया को भूतनाथ का सहारा था लेकिन पच्चीस मार्च को ज़ोरबाग़ वाले बंगले में साहित्यकर्मियों की मिलीजुली खाँसी की आवाज़ें आनी लगी जो कि कुछ दिनों के अंतराल में दूर कहीं अपने घर में बंधक बने वरुण देव तक भी पहुँची और जब उन्होंने अपने मोबाइल से ज़ोरबाग़ वाले बंगले में विडियो कॉल किया और उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि यह महामारी विडियो कॉल से फैल गयी है क्योंकि भूतनाथ और जिनिया लगातार साहित्यकर्मियों से विडियो कॉल के द्वारा सम्पर्क में बने हुए थे यही कारण था कि वह यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उन्हें यह रोग असावधानी बरतने से हुआ है और वे भी खाँसी की शिकायत करने के बाद बदन में दर्द और बुखार महसूस करने लगे और उन्होंने सहायता के लिए आकाश में गगनभेदी पुकार लगायी जो दूर दिल्ली के लोधी कॉलोनी के बंगले में एक ही चादर ओढ़े बीमार जिनिया और भूतनाथ ने भी सुनी पर वे बेहद कमजोरी और भूख में चिल्ला भी न सके लेकिन मन ही मन वरुण जी के लिए प्रार्थना करने लगे वहीं रुग्ण वरुण देव जी ने विचारा कि यह कोरोना समस्या किसी विदेशी समस्या का अनुवाद भर न हो कर महामारी का एक तरह का सार्वभौमिक साम्राज्यवादी विस्तार है जो कि अनुवाद की सीमाओं को लाँघ कर केवल मूल को ही ग्राह्य बनाता है और इस तरह सब कुछ निगल जाता है कि क्योंकि वह दूसरे का आग्रह नहीं करता दूसरे की अपेक्षा भी नहीं आदर भी नहीं करता और यह जान लेते ही उन को कर्तव्य पुकारने लगा क्योंकि क्रिया ज्ञान का अनिवार्य स्वभाव है और वे किसी तरह कम्प्यूटर के सामने बैठ कर काँपते हाथों से भूतनाथ के आखिरी भेजे ब्योरे को जिसमें उसने धनञ्जय कृत दशरूपक को देख कर पाँच सन्धियों को अध्यायों के शीर्षक में डाले जिसे कहानी के रूप में अर्चना ‘दाग़’ ने सजाया और सँवारा जिसमें न प्यार है न कोरोना है बल्कि चिन्ता है और अंधविश्वास से परे एक विश्वास है व संकल्प है कि देशवासी कोरोना से उबर जाएंगे समालोचना की वेबसाइट पर प्रकाशित करने में जुट गए और साथ में बड़े-बड़े अक्षरों में नए पैराग्राफों में तीन पंक्तियाँ जोड़ दीं
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