पाब्लो नेरुदा: प्रेम, सैक्स और “मी टू”
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पिछले दिनों हिंदी में बाबा नागार्जुन को लेकर जब “मी टू” का मामला सामने आया तब अधिकांश साहित्यकारों (जाहिर है साहित्य पुरुष-प्रधान होने से पुरुष ही अधिक) की प्रतिक्रिया एकदम जैंडर लाइन पर ही थी और लगभग वे ही घिसे-पिटे तर्क दिए जा रहे थे जो मर्दवादी मानसिकता में दिए जाते हैं. कुछ स्त्रियां भी उनके साथ खड़ी हुईं जैसे कुछ पुरुषों ने अपवाद-स्वरूप आरोपकर्ता का साथ दिया.
दुनिया के और देशों में “मी टू” आधारित आरोप पहले ही शुरू हो चुके हैं. इनमें सबसे गंभीर मामला है पाब्लो नेरुदा का.
चौदह मई, 2018 के ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ में बेन बॉलिग ने नेरुदा के अंग्रेजी में अनुवाद होकर आए दो नए संकलनों के छपने पर चुटकी लेते लिखा– “क्या नेरुदा अभी भी पढ़े जा सकते हैं ?” और खुलासा करते हुए कहा कि इसके लिए जिम्मेदार खुद लेखक ही है जिसने अपनी जीवनी, रचनाओं और संस्मरणों में काफी कुछ ऐसा कहा है जिसे छोड़कर उसे पढ़ना संभव नहीं है. इसमें उसकी जीवनी में वर्णित एक तमिल महिला से जबरदस्ती वाला मामला तो है ही, बाकी संदर्भों की भी खोजबीन शुरू हो गई है.
ये खोज कितनी दूर तक जा पहुंची है इसका अंदाजा उपन्यासकार मारिओ वर्गास लोसा के उपन्यास “बकरी भोज” का एक प्रसंग उल्लेखनीय है. उसमें तानाशाह रफाएल ट्रुजिलो द्वारा एक युवती से जबरदस्ती करने की घटना का जिक्र किया गया है. उसमें लिखा है कि उसने ऐसा करने से पहले नेरुदा के काव्य-संकलन “बीस प्रेम कविताएं और निराशा का एक गीत” से पंद्रहवीं कविता उस लड़की को सुनाई. इसका सीधा सा अर्थ है कि नेरुदा की इन कविताओं में कुछ ऐसा है जिसे इस तरह के अपराध के लिए सहज ही प्रयोग में लाया जा सकता है.
फिर तो बात और आगे तक चली गई और लोगों ने इस दृष्टिकोण से नेरुदा के पूरे लेखन को खंगालना शुरू किया.
अपनी रुचियों और पसंदों को लेकर नेरुदा की उत्सवधर्मिता और बेबाकी, जो अभी तक पाठकों और लेखकों के लिए नेरुदा के लेखन के विशेष आकर्षण माने जाते रहे, अब इस मर्दवादी विमर्श के संदर्भ में उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल किए जाने लगे हैं. मसलन उनकी महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षी महाकाव्यात्मक लंबी कविता “केंटो जनरल”, जिसके पंद्रह भागों में दो सौ इकत्तीस कविताएं और लगभग पंद्रह सौ पंक्तियां हैं,में खाने, पीने और सैक्स को लेकर जो मर्दवादी मस्ती और उछाह दिखाई पड़ता है, वह स्वयं नेरुदा के खिलाफ खड़ा हो गया है. पहले दबी जबान से यह बात कही जाती थी, लेकिन अब कई ने खुलकर कहा कि नेरुदा की आधी कविताएं बेहद सतही और सपाट हैं और वे इस तरह की विकृतियों का शिकार हैं.
हिंदी में भी नागार्जुन की कविताओं को जनवादी मानकर विशेष दर्जा और सम्मान देते आ रहे अनेकानेक पाठकों और लेखकों ने कहा कि अब उनके लिए नागार्जुन को वैसी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ पढ़ना शायद संभव न हो. लेकिन हिंदुस्तान में रोजी-रोटी की बुनियादी समस्याओं की भीषणताओं के चलते ये मुद्दे शायद उतने महत्वपूर्ण न हो पाए हों कि आम लोगों का ध्यान आकर्षित कर पाएं और गंभीर विमर्श को विकसित हो सके. इसलिए थोड़ी-बहुत फुलझड़ियां चलकर दब गए.
नेरुदा का मामला बस यहीं खत्म नहीं हुआ. नवंबर, 2019 में चिले सरकार राजधानी सेंटियागो स्थित देश के व्यस्ततम हवाईअड्डे का नाम जब पाब्लो नेरुदा के नाम पर करना चाहती थी तो चिले के ही छात्र, महिला और मानवाधिकार संगठनों ने जमकर इसका विरोध करते हुए कहा कि जिस व्यक्ति ने अपनी जीवनी में स्वयं रेप की कथा बखान की है, उसे कैसे यह सम्मान दिया जा सकता है.
यह विवाद इतना बढ़ा कि दो खेमे आमने-सामने आ गए. नेरुदा के समर्थकों का कहना है कि केवल कुछेक मानवीय विकृतियों के आधार पर कैसे एक महान रचनाकार के कृतित्व को नकारा जा सकता है. जबकि उनका विरोध कर रहे लोगों और संगठनों का कहना है कि ऐसे मर्दवादी और विकृतियों से भरे व्यक्ति को कैसे गौरवान्वित किया जा सकता है और पढ़ा-पढ़ाया जा सकता है. उनका कहना है कि यह एक कविता या एक घटना का मामला नहीं है, संपूर्ण व्यक्तित्व का है. दुनिया भर में स्कूल, कालेजों, विश्वविद्यालयों में नेरुदा की रचनाओं को पढ़ाने वाले अनेक अध्यापकों ने उन्हें पढ़ाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है.
ऐसा नहीं है कि साहित्यिक इतिहास में इस तरह की घटनाएं कोई नई बात हैं. अगर दुनिया के आधुनिक साहित्येतिहास में से ठोस उदाहरण लेकर बात करें तो यूरोपियन कविता में बिंबवाद और नव्यता के सर्जक एजरा पाउंड के फासिज्म प्रेम को ले सकते हैं जो किसी-न-किसी रूप में फासीवाद के पराभव और उसके समर्थन के लिए कवि को मिली सजा के बाद भी चलता रहा. उसका यह रवैय्या अर्नेस्ट हैमिंग्वे जैसे उसके अंतरंग मित्रों को तो परेशानी का वायस बन ही गया, दुनिया भर में लेखकों-आलोचकों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया कि रचना और व्यक्तित्व के बीच, रचना और उसके विचार के बीच यानी कुल मिलाकर रचना और यथार्थ जगत के बीच के रिश्तों की पड़ताल, व्याख्या और मूल्यांकन किस आधार पर किए जायें. और भी ऐसे कितने ही उदाहरण हैं.
हमारे यहां यह दिक्कत कम नहीं रही. निर्मल वर्मा का उदाहरण तो जगजाहिर ही है कि हिंदी साहित्य बद्ध चिंतन की मुख्य धारा बने प्रगतिशील विचार द्वारा उनके वैचारिक आधार को खारिज किए जाने के बावजूद कोई उन्हें शीर्ष के कथाकार के आसन से खिसका नहीं पाया. एक समय था जब अज्ञेय का ‘नदी के द्वीप‘ आया था जिसे लेकर प्रगतिशील खेमों में काफी कलह मची थी. उस पर जब प्रगतिशील लोगों की बहस छिड़ी कि एक तरफ वे इसे अच्छा उपन्यास मानते हैं और दूसरी तरफ उसके विचारों को समाज और क्रांति-विरोधी और निकृष्ट. सबने इसका एक सरल नुस्खा वाला हल यह कहकर निकाला “पके फल में कीड़े”. यह ठेठ हिंदी मार्का समाधान था, जिसे सौंदर्यशास्त्र की बहसों में लाना तक अपमानजनक मालूम पड़ता है. हिंदी के लोगों ने मार्क्सवाद के प्रणेताओं को ठीक से पारायण किया होता तो मार्क्स द्वारा प्राचीन ग्रीक साहित्य और लेनिन द्वारा ताल्सताय की प्रशंसा के अधिक सबल तर्कों से प्रेरणा लेकर इस फतवेबाजी को स्वीकार्य रूप दे सकते थे.
खैर, केवल इतनी ही समस्या नहीं है, बल्कि उसका स्वरूप अधिक व्यापक और गहरा है. जबसे समाज में पीड़ित-उपेक्षित वर्गों और अस्मिताओं के उभार शुरू हुए हैं तबसे तो लगातार पुराने साहित्य और साहित्यकारों का लेखन, व्यक्तित्व और विचार पुनर्मूल्यांकनों और पुनर्परिभाषाओं के ज्वार-भाटे से जूझता ही रहा है. जितने भी महान लेखक, रचनाएं, विचार अतीत में और हमारे समय में भी माने जाते रहे, उन सबके सामने प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं. हर नई अस्मिता अपने हिसाब से प्राचीन और समकालीन साहित्य को देखने-दिखाने और व्याख्यायित करने का प्रयास करती है और उस आधार पर अधिकांश को खारिज करने की वकालत करती है.
और यह सच है कि जब ये रचनाएं या ग्रंथ लिखे गए उस समय जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाएं वर्चस्व में रहीं उनके दृष्टिकोण का प्रभाव लिखने वाले के लेखन पर पड़ा. कहने के लिए लेखक कितना ही क्रांतिकारी हो जाये, वर्गापसारित हो जाये, लेकिन काजल की कोठरी में रहने का कोई अवशेष उसके सोच, रचनात्मकता पर नहीं होगा, यह असंभव है. इस तरह हर लेखक और लिखित पुनर्मूल्यांकन की इस जद में हैं. काफी कुछ का अवमूल्यन और पुनर्स्थापन जारी है.
यहां हम साधारणीकृत तौर पर इस समस्या को न रखना चाहते हैं, न इसका कोई दो-टूक समाधान प्रस्तुत करने को कोई वरेण्य स्थिति मानते हैं. फिलहाल उन मुद्दों को केंद्र में लाना और उनपर गंभीर विचार के लिए वातावरण बनाना ही इसका मकसद हो सकता है. इसीलिए यहां हम पाब्लो नेरुदा को केंद्र में रखकर उठी इस समस्या पर फोकस करके उसे साधारणीकृत बहस के लिए छोड़ देना चाहते हैं.
क्योंकि मैंने पाब्लो नेरुदा की जीवनी का अनुवाद किया है इसलिए जीवनी के अंदर से ऐसे तमाम प्रसंगों को सबके सामने रखना अपना विस्तारित अनुवाद-कर्तव्य मानता हूं. उनकी जीवनी में जो सैक्स संबंधी प्रसंग आए हैं उन्हें एक-एक कर यहां दे रहे हैं.
उनमें कोलंबों में गुसल साफ करने वाली तमिल महिला के उस आपत्तिजनक और आपराधिक प्रसंग, जिसे बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है, के अलावा बाकी तमाम सैक्स या रोमांस से जुड़े प्रसंग भी हैं. इससे पाब्लो नेरुदा की रुचि और दृष्टि को गहराई से समझने में मदद मिलेगी.
(एक)
पत्र-वाचन से पैदा उत्तेजना
[यह प्रसंग पुस्तक के “गांव का छोकरा” नाम के पहले ही अध्याय में ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक में है जहां बालक नेरुदा घर में मां के पुराने बक्से में रखे पत्र देखता है. इसमें केवल ऐसी चीजों में विशेष जिज्ञासा और रुचि का ही पता चलता है जहां से प्रेम भाव का उन्नयन ही मानना चाहिए.]
हमारे घर में एक संदूक था जो बड़ी मनमोहक चीजों से भरा होता था. एक सुंदर तोते का चित्र उसकी तली के साथ चिपका हुआ था. एक बार जब मेरी मां उस गुप्त संदूक में कुछ ढूंढ रही थी तो मैं तोता पकड़ने के चक्कर में उसके भीतर सिर के बल जा गिरा. जब मैं बड़ा हो गया तो सयानों की तरह उसे खोलने लगा. उसके अंदर कई बहुत सुंदर कोमल पंखे भी थे.
मुझे उस संदूक के बारे में और भी कुछ याद आता है. पहली प्रेम कहानी जिसने मुझे झकझोर दिया. वहां ऐसे सैकड़ों पोस्टकार्ड थे जो मुझे ठीक से याद नहीं कि एनरिक (हैनरी) या एलबर्टो में से एक नाम से मारिया थीएलमैन को भेजे गए थे. ये बहुत ही आश्चर्यजनक थे. वे उस समय की महान अभिनेत्रियों के चित्रों के थे जिन पर शीशे के छोटे-छोटे टुकड़े लगे रहते या ऊपर की तरफ सचमुच के बाल. कुछ पर किलों, शहरों, विदेशों के दृश्य भी थे. मेरी दिलचस्पी तस्वीरों में थी. लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तो मैंने अच्छी लिखाई में लिखी प्रेम की वे टिप्पणियां भी पढ़ीं.
मैं लिखने वाले की कल्पना हमेशा एक छड़ीदार डर्बिनवासी के रूप में करता जिसके पास हीरे की टी-पिन है. दुनिया के सभी कोनों से भेजे गए उसके संदेश उद्दाम भावनाओं से भरे होते जिन्हें चौंकाने वाली भाषा में लिखा जाता. वह उश्रृंखल प्यार होता. मैं भी इस मारिया थीएलमैन नामक महिला से प्यार करने लगा. मैं एक बेहद आकर्षक अभिनेत्री के रूप में उसकी कल्पना करता जो हीरे मोतियों से लदी हो. लेकिन ये पत्र मेरी मां के संदूक में कैसे आए ! मुझे कभी इसका पता नहीं लगा.
(दो)
पत्र-लेखन और प्रेम कला का विकास
[यह प्रसंग भी “गांव का छोकरा” नाम के पहले अध्याय के ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक से ही है. इसमें नेरुदा केवल प्रेम में रुचिशील ही नहीं, उसमें सक्रिय भागीदार की हैसियत से सामने आते हैं. प्रेमपत्र लिखने की उनकी प्रतिभा ही रही होगी कि प्रेम में पड़ा उनका मित्र उनसे अपनी प्रेमिका को पत्र लिखने का अनुरोध कर रहा है. अंत तक आते-आते लेखक ने उसे अपदस्थ करके स्वयं प्रेम का रस-पान शुरू कर दिया है.]
मैं बड़ा हो गया. किताबें मुझे रुचिकर लगने लगीं. बफेलो बिल की साहसिक कहानियां और सलगारी की यात्राएं मुझे सपनों की दुनिया में ले जातीं. मेरा पहला और एकदम पवित्र प्यार लुहार की लड़की ब्लांका विल्सन को लिखे पत्रों में व्यक्त हुआ. दरअसल एक लड़का उसके प्यार में बुरी तरह गिर पड़ा था और उसने मुझसे उसके लिए प्रेमपत्र लिखने का अनुरोध किया. अब मुझे ठीक से याद नहीं कि ये पत्र किस तरह के थे लेकिन ये ही मेरी पहली साहित्यिक उपलब्धियां थीं. एक दिन जब मेरी उस लड़की से अचानक मुलाकात हुई तो उसने छूटते ही पूछा कि क्या मैं ही उन पत्रों का लेखक हूं जो उसके प्रेमी ने उसे दिए हैं. मैं अपने लिखे से इन्कार नहीं कर सका और बहुत ही शर्माते मैंने हां कही. तब उसने मुझे एक श्रीफल दिया, जो मैंने खाया नहीं बल्कि एक अमूल्य निधि की तरह संभाल कर रखा. इस तरह उस लड़की के दिल में अपने मित्र की जगह खुद को बिठाकर मैंने उसे अनगिनत प्रेमपत्र लिखे और अनगिनत श्रीफल पाए.
(तीन)
विकास-यात्रा के और अनुभव
[यह प्रसंग भी पहले अध्याय के ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक में है. यहां लेखक स्वयं कोई पहल का कर्ता न होकर शिकार है.]
मेरे घर के सामने दूसरी तरफ दो लड़कियां रहती थीं जो मुझे ऐसे घूरती थीं कि मेरा चेहरा लाल हो जाता. वे बालप्रौढ़ होने के साथ ही उतनी ही दुष्ट थीं जितना मैं दब्बू और शांत था. एक बार मैं अपने दरवाजे पर खड़ा उनकी तरफ न देखने की कोशिश कर रहा था. वे ऐसी चीज पकड़े थीं जिसने मेरा ध्यान खींचा. मैं डरते-डरते पास गया तो उन्होंने मुझे एक पक्षी का घोंसला दिखाया जो सैवार और छोटे पंखों से बना था. उसमें अनेक सुंदर नीले-फीरोजी रंग के छोटे अंडे थे. जब मैं उन्हें देखने पास पहुंचा तो एक लड़की ने कहा कि पहले वे मेरे कपड़ों के अंदर टटोलकर देखेंगी. मैं इतना डर गया कि कांपने लगा और दूर छिटक गया. वे दोनों देवियां अपने सिर पर उस मनमोहक खजाने को रखे मेरी ओर लपकीं. इस पकड़म-पकड़ाई में मैं एक ऐसी संकरी गली में आ गया जो मेरे पिता की एक खाली बेकरी की तरफ जाती थी. मेरे कातिलों ने मुझे पकड़ ही लिया और वे मेरी पेंट उतारने लगीं कि तभी रास्ते से मेरे पिता के कदमों की आहट सुनाई पड़ी. यही घोंसले का अंत था. वे सुंदर अंडे गिरकर चूर-चूर हो गए जबकि एक काउंटर के नीचे हमलावर और शिकार दोनों सांस रोके बैठे थे.
(चार)
सैक्स का पहला ठोस अनुभव : एक भोक्ता की तरह
[यह प्रसंग पहले अध्याय के ही ‘गैहूं के बीच प्रेम’ उपशीर्षक में है. यहां सैक्स तो है, लेकिन नेरुदा की अपनी पहल पर नहीं, वह उसके भोक्ता या उपभोक्ता मात्र हैं.]
मैं काफी देर तक आंखें खोले पीठ के बल लेटा रहता. मेरा चेहरा और हाथ बालियों से भरे रहते. रात साफ, ठंडी और गहरी थी. आकाश में चांद नहीं था लेकिन लगता तारे बारिस में नहाकर आए हैं और जैसे वे केवल मेरे लिए ही आकाश में चमक रहे हैं. फिर मैं सो जाता. लेकिन अचानक मेरी आंख खुल गईं क्योंकि कोई चीज मेरी तरफ बढ़ रही थी. किसी अजनबी का शरीर बालियों से होता मेरी ओर आ रहा था. मैं डर गया. वह चीज मेरे और-और पास आ रही थी. मैं उस अनजान चीज के सरकने से बालियों के दबने, टूटने की आवाज सुन सकता था. मेरा शरीर ऐंठ गया और मैं प्रतीक्षा कर रहा था. शायद मुझे उठकर चिल्लाना चाहिए. लेकिन मैं हिला तक नहीं. मैं अपने सिर के पास सांस की आवाज सुन सकता था.
अचानक एक हाथ मेरे ऊपर आया, एक बड़ा और कठोर हाथ. लेकिन वह किसी स्त्री का हाथ था. वह मेरी भोंहों, मेरी आंखों, मेरे चेहरे पर कोमलता से फिरने लगा. तब एक गरम मुंह मेरे मुंह से सट गया और मैंने महसूस किया कि उस स्त्री का शरीर मेरे शरीर को दबा रहा है.
धीरे-धीरे मेरा डर आनंद में बदलने लगा. मेरा हाथ उसके चोटी बंधे बालों पर, कोमल भंवों पर, पॉपी जैसी नरम आंखों पर और अन्य जगहों की खोज में फिरने लगा. मैंने दो स्तनों को महसूस किया जो पूरे भरे और सख्त थे, चौड़े गोल नितंब, मेरी टांगों को अपने में जकड़े टांगें. और मैंने अपनी उंगलियां उसकी जंघाओं के बीच के बालों से लगाईं जैसे पहाड़ के शैवालों पर. उस अनजान मुख से कोई शब्द तक नहीं निकला.
बालियों के पहाड़ जैसे ढेर के गढ़े में, सात आठ अन्य लोगों की उपस्थिति के बीच जरा भी आवाज किए प्यार करना कितना मुश्किल काम है. लोग भी ऐसे जिन्हें सोए से जगाना दुनिया में सबसे बड़ा अपराध होता. लेकिन प्यार में सब कुछ संभव है, बस थोड़ी सावधानी की जरूरत है. कुछ देर बाद वह अजनबी मेरे पास ही जोर-जोर से सांसें लेती सो गई. मैं बहुत घबरा गया. मैंने सोचा कि अभी दिन निकलेगा और वे लोग एक नंगी औरत को मेरे साथ लेटे हुए पाएंगे. फिर मुझे भी नींद आ गई. जब मैं उठा और भौंचक हाथ पास में बढ़ाया तो पाया कि वहां केवल गरम पूस और अनुपस्थिति है. तभी एक पक्षी गा उठा और तब सारा जंगल ही कूजन से गुंजायमान हो गया. एक मोटर का हार्न तेजी से बजा और सब आदमी और स्त्रियां अपने काम पर लग गए. गहाई का एक और दिन शुरू हो रहा था.
(पांच)
सैक्स की पहली पहल
[यह प्रसंग पुस्तक के दूसरे अध्याय “शहर में गुम” के उपशीर्षक ‘घर की तलाश’ में है. यह लेखक की पहल है एक विधवा के साथ.]
ठीक इसी समय अचानक मेरी दोस्ती एक विधवा के साथ हो गई जो मेरे मन में हमेशा रहेगी. उसकी आंखें बड़ी-बड़ी और नीलीं थीं जो अपने पति को याद करने पर पनीली और कोमल हो जातीं. वह कोई युवा उपन्यासकार था जो अपनी शारीरिक बनावट के कारण प्रसिद्ध था. उन दोनों की जोड़ी बहुत ही शानदार थी. वह सोने जैसे बालों, सुंदर शरीर और गहरी नीली आंखों वाली महिला थी और उसका पति बहुत ही लंबा गठे शरीर का आदमी. पति को क्षय रोग ने नष्ट कर दिया. बाद में मुझे लगा कि इसमें उसके सौंदर्य का भी योग रहा होगा.
उस सुंदर विधवा ने अभी काले वस्त्रों को छोड़ा नहीं था. उसकी काली और बैंगनी रेशमी ड्रैस लगती जैसे बर्फ के सफेद फूल पर उदासी का रंग चढ़ा है. एक दिन मेरे कमरे में लांड्री के पीछे उसका वह आवरण गिर गया और मैं उस जलती बर्फ के सब फलों को टटोलने और उनका स्वाद लेने में कामयाब हो गया. अभी परमानंद की प्राप्ति होने को ही थी कि मैंने देखा कि उसकी आंखें मेरी आंखों के नीचे बंद होने लगीं और उसने आह भरते, सुबकते हुए कहा ‘ ओह राबर्टो, राबर्टो !’ (यह आदतवश था. एक पवित्र कौमार्य नए ईश्वर को अंगीकार करने से पहले लुप्त होते ईश्वर को पुकार रहा था).
मेरी जवानी और जरूरत के बावजूद यह विधवा मेरे लिए कुछ ज्यादा ही थी. उसके आमंत्रण और-और आतुर होते गए और उसका भावुक मन मुझे असमय विनाश की तरफ ले जा रहा था. इतनी ज्यादा मात्रा में प्यार की खुराक कुपोषित व्यक्ति के लिए अच्छी नहीं. और मेरा कुपोषण तो दिन-दिन और अधिक नाटकीय मोड़ ले रहा था.
(छह)
लफंगई का पहला प्रयोग
[यह प्रसंग पुस्तक के तीसरे अध्याय “दुनिया की सड़कें” के उपशीर्षक ‘मोंट परनासे’ (पैरिस की परनासे पहाड़ी) से है जिसमें टैक्सी में रह गई एक लड़की के साथ दो मित्रों के संभोग का किस्सा है. पाब्लो नेरुदा और उनके मित्र लेखक अल्वारो ने उसकी मजबूरी का फायदा उठाया. इसमें पाब्लो नेरुदा की अस्वीकार्य प्रवृत्ति का पहली बार पता चलता है.]
जो लड़की नहीं गई थी वह टैक्सी में ही हमारी प्रतीक्षा कर रही थी. अल्वारो और मैंने उसे सुबह का सूप पीने के लिए अपने यहां आमंत्रित किया. हमने बाजार से उसके लिए फूल खरीदे और उसकी बहादुरी के लिए उसे चूमा और पाया कि वह खासी आकर्षक थी. उसे खूबसूरत या घरेलू तो नहीं कहा जा सकता लेकिन पैरिस की लड़कियों की खासियत उसकी उठी नाक अच्छी थी. हमने उसे अपने मामूली से होटल में निमंत्रित किया और उसने कोई ना-नुकुर नहीं की.
वह अल्वारो के साथ उसके कमरे में गई. मैं बिस्तर पर गिरते ही थकान से नींद में चला गया. फिर देखा कि मुझे कोई जोर से झकझोर रहा है. वह अल्वारो था. उसका छोटा सा चेहरा कुछ अजीब लग रहा था. “सुनो”, उसने कहा. “वह औरत तो बहुत ही शानदार है. मैं सब कुछ तुम्हें नहीं बता सकता. तुम्हें खुद देखना होगा.”
कुछ मिनटों के बाद वह अजनबी मेरे बिस्तर में आ गई, कुछ सोई सी, पर तत्पर. उससे प्यार करते हुए मैंने उसकी रहस्यात्मक भेंट प्राप्त की. उसमें जो आनंद आया उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. अल्वारो सही था.
अगले दिन नाश्ते पर अल्वारो ने मुझे चेतावनी देते हुए स्पानी में कहा – “अगर हम तुरत इस औरत को नहीं छोड़ते तो हमारी यात्रा खत्म समझो. हम लोग संभोग के अनंत समुद्र में समा जाएंगे.”
(सात)
एक आपराधिक गुंफित कथा
[यह प्रसंग पुस्तक के “शानदार एकांत” नामक चौथे अध्याय के उपशीर्षक ‘एक विधुर का नाच’ से है. विधुर पाब्लो नेरुदा हैं और नचाने वाली एक बर्मी लड़की जोस्सी ब्लिस है जो उन्हें कलकत्ता में मिली. फिलहाल उस लड़की का कोई वक्तव्य या किसी के द्वारा इस प्रसंग पर किया शोध या डाला प्रकाश हमारे पास नहीं है, इसलिए पाब्लो नेरुदा के वर्णन पर विश्वास करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है. इसमें लेखक ने उस लड़की पर जो अन्याय किया उसका सारा दोष उसकी मानसिक बीमारी पर मढ़ा है. वह उसे बिन बताए दूसरी पोस्टिंग पर छोड़ चला गया. लेकिन उसे खोजते जब वह किसी तरह कोलंबो पहुंची तो लेखक का व्यवहार उसके प्रति काफी अमानवीय दिखाई पड़ता है.]
मैं लोगों के जीवन और आत्मा में इतना गहरे गया था कि मैं एक स्थानीय लड़की को दिल दे बैठा. गली में वह अंग्रेज महिला की तरह कपड़े पहनती थी और अपना नाम जोस्सी ब्लिस बताती थी. लेकिन अपने घर के अंदर (जहां मैं बाद में जाने लगा था) वह उन कपड़ों को उतार फेंकती और अपने सुंदर कपड़े पहनती तथा बर्मी नाम बताती.
मेरा घरेलू जीवन बहुत ही परेशानी भरा रहा. प्यारी जोस्सी ब्लिस धीरे-धीरे इतनी बड़बड़ाने वाली और अधिकार जमाने वाली हो गई कि उसकी ईर्ष्यालु बदमिजाजी बीमारी का रूप धारण कर गई. उसमें केवल यही एक कमी थी. अगर यह नहीं होती तो शायद मैं हमेशा के लिए उसके साथ रहता. मैं उसके नंगे पैरों, काले बालों में चमकते सफेद फूलों से बहुत प्यार करता था. लेकिन उसके ईर्ष्यालु स्वभाव ने उसे हिंसक बना दिया था. उसके सिर पर बात-बेबात भूत सवार हो जाता. जब भी बाहर से मुझे कोई पत्र आता तो वह ईर्ष्यालु हो आपे से बाहर हो जाती. वह बिना खोले ही मेरे टैलीग्राम छुपा देती और जो भी मैं करता उसकी नजर में संदेहास्पद होता.
कभी-कभी मैं रात में चमक देखकर जग जाता. मच्छरदानी के दूसरी तरफ भूत जैसा कुछ चल रहा होता. यह वही होती, अपने सफेद कपड़ों में और हाथ में लंबा चाकू लिए. वह मेरे बिस्तर के चारों तरफ घंटों घूमती रहती और तय नहीं कर पाती कि मुझे मारना है या नहीं. वह मुझसे कहती कि जब मैं मरूंगा तो उसके सारे डर दूर हो जाएंगे. अगले दिन वह कुछ रहस्यात्मक कर्मकांड करती जिससे कि मैं उसके प्रति वफादार बना रहूं.
शायद अंत में वह मुझे मार ही डालती. सौभाग्य से इस बीच मुझे अपने श्रीलंका तबादले की सूचना मिल गई. मैंने उसे बिना बताए अपने जाने की तैयारियां कर लीं और एक दिन मैं अपने कपड़े और किताबें वगैरह और दिनों की तरह ही घर पर छोड़ कर निकला और एक जहाज में सवार हो गया जो मुझे यहां से काफी दूर ले जाने वाला था.
मैं उस बर्माई बाघिन जोस्सी ब्लिस को दुख भरे मन से छोड़कर जा रहा था. जब जहाज बंगाल की खाड़ी में चलने को हुआ तो मैंने लिखना शुरू किया –“टेंगो डेल विउदो” (“विधुर का टेंगो नृत्य”), एक स्त्री को समर्पित दुखांत कविता. स्त्री जिसे मैंने खो दिया और जिसने मुझे खो दिया क्योंकि उसके खून में क्रोध का सागर लहराता था. रात बहुत लंबी थी और दुनिया बहुत अकेली थी.
सूरज की रोशनी में जलते मेरे उन दिनों पर बादल की छाया करने वाली घटना घटी. बिना किसी सूचना के मेरी बर्मी प्रेमिका जोस्सी ब्लिस ने मेरे घर के सामने धरना दे दिया. वह अपने सुदूर देश से आई थी. यह मानकर कि रंगून के सिवा दुनिया में कहीं चावल शायद होता ही नहीं है वह अपनी पीठ पर लादकर एक बोरी चावल भी लाई थी. इसके अलावा वह हमारे प्रिय पाल रॉबसन रिकार्ड और एक चटाई भी लाई थी. वह सारा दिन दरवाजे पर ही बैठी रहती और जो भी मुझसे मिलने आता उसे गालियां देकर भगा देती. अब उस पर ईर्ष्या का भूत पूरी तरह सवार हो चुका था जिसमें वह मेरे घर को भी जला रही थी. उसने एक बिचारी यूरोपियन लड़की पर हमला कर दिया जो यूं ही मुझसे मिलने चली आई थी.
उपनिवेशी पुलिस ने उसके इस अनियंत्रित अभद्र व्यवहार को गली की शांति के लिए खतरा मानते हुए मुझे चेतावनी दी कि या तो उसे घर के अंदर रखूं या वे उसे देश से बाहर निकाल देंगे. मैं कई दिनों तक पशोपेश में पड़ा रहा. एक तरफ उसका कोमल अतृप्त प्यार था और दूसरी तरफ उसके पागलपन का भय. मैं उसे अपने घर के अंदर नहीं आने दे सकता था. वह प्यार में चोट खाई आतंकवादी थी जो कुछ भी कर सकती थी.
और अंततः एक दिन उसने जाने का मन बना ही लिया. उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उसे जहाज तक छोड़ आऊं. जहाज जब चलने को हुआ और मैं उतरने लगा तो वह अपने चारों तरफ के यात्रियों से अलग हो मेरी तरफ दौड़ी और मेरे चेहरे को बार-बार चूमने लगी. उसके आंसुओं से मैं नहा गया. जैसे कोई रस्म कर रही हो, उसने मेरे हाथ चूमे, मेरा सूट चूमा और इससे पहले कि मैं रोक पाता वह मेरे जूतों पर गिर गई. वह जब खड़ी हुई तो मेरे जूतों पर लगी सफेद पालिश से उसका मुंह सना हुआ था जैसे आटे से. लेकिन इसके बावजूद मैंने उसे जाने से नहीं रोका, न वापस अपने साथ आने के लिए कहा. मैंने किसी तरह अपने को काबू में रखा. एक तरफ मेरा दिल पुकार-पुकार कर कहता था कि उसे बुला लो लेकिन दूसरी तरफ बुद्धि मना करती थी. मैंने उसे जाने दिया, जिससे मेरे दिल में जो घाव हुआ वह आज भी वैसे ही है. उसके सफेद रंग पुते चेहरे से बहते अनियंत्रित आंसू मेरी स्मृति में अभी भी ताजा हैं.
(आठ)
लफंगई का एक और किस्सा
[यह प्रसंग पुस्तक के पांचवें अध्याय “स्पेन मेरे दिल में” के उपशीर्षक ‘फैडरिको कैसा था’ में है. इसमें प्रसिद्ध स्पानी लेखक लोर्का और पाब्लो नेरुदा के नव्य प्रयोगों का वर्णन है. इसी में एक करोड़पति की पार्टी में पाब्लो नेरुदा द्वारा अपरिचित से सैक्स की क्रिया और लोर्का द्वारा उसमें परोक्ष भागीदारी का वर्णन है. इसमें नेरुदा के अनेक विचनों के जाहिर होने के कारण इसे विस्तार से दे रहे हैं. ]
मुझे वह शाम याद आ रही है जब एक विशाल कामुक दुस्साहस में मुझे लोर्का का अनपेक्षित समर्थन मिला. हमें एक ऐसे करोड़पति ने आमंत्रित किया था जो अमेरिका या अर्जेंटीना में ही मिल सकते हैं. वह पैदायशी विद्रोही था, अपनी मेहनत से बना आदमी. उसने एक सनसनीखेज अखबार के द्वारा अपार धन संपत्ति जमा कर ली थी. एक विशाल बगीचे से घिरा उसका घर नव धनाढ्य के सपनों को साकार करने वाला था. घर के रास्ते में सैकडों पिंजरों में देश-विदेश से लाए रंग-बिरंगे पक्षी थे. उसका पुस्तकालय ऐसी विरल किताबों और पांडुलिपियों से भरा था जो उसने यूरोप की नीलामियों में खरीदी थीं. लेकिन सबसे आश्चर्यजनक चीज थी उसका विशाल पढ़ने के कमरे का फर्श जिस पर चीते की खालों को जोड़कर बनाया गया बड़ा कार्पेट बिछा था. मुझे पता चला कि उसके एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में कितने ही एजेंट थे जिनका एकमात्र काम था शेर, चीतों जैसे जानवरों की खाल एकत्रित करना.
ऐसा था नतालियो बोताना नाम के इस बदनाम और शक्तिशाली पूंजीपति का घर जो बूनो एयर्स के लोकमत का नियामक था. फैडरिको और मैं मेजबान के दायें-बायें बैठे. हमारे सामने ही एक बेहद सुकुमार महिला कवि बैठी थी जिसकी नजरें पूरे डिनर भर फैडरिको से अधिक मुझ पर टिकी हुई थीं. खाने में एक बैल भी शामिल था जिसे 8-10 लोग जलते कोयलों के पास उठाकर लाए थे. शाम का आकाश गहरा नीला और तारों से जगमग था. जलते मांस की खुशबू के साथ मिली मसालों की गंध और अनगिनत झींगुरों की झंकार और मेंढकों की टर्राहट.
खाने के बाद मेज से उठकर फैडरिको के साथ मैं और वह महिला प्रकाशित तरण ताल की ओर गए. फेडरिको बेहद खुश था और हर बात पर हंस रहा था. लोर्का आगे-आगे बतियाता और हंसता चल रहा था. वह बहुत खुश था. वह हमेशा ही ऐसा था. खुशी उसकी ऐसे ही अभिन्न अंग थी जैसे उसकी त्वचा.
झिलमिलाते तरण ताल के किनारे एक ऊंचा बुर्ज सा बना हुआ था. उसकी सफेदी रात के प्रकाश में चमक रही थी.
हम धीरे-धीरे उस बुर्ज के सबसे ऊपरी हिस्से पर आ गए. उसके ऊपर जाकर हम अलग-अलग शैलियों के तीन कवि दुनिया से एकदम बेखबर वहां थे. नीचे ताल की नीली आंखें चमक रही थीं. दूर कहीं हम पार्टी में बजते गिटारों और चलते संगीत को सुन सकते थे. ऊपर तारों भरी रात हमारे सिरों के इतना करीब थी जैसे हम उसे छू सकते थे.
मैंने उस लंबी और सुनहरी लड़की को अपनी बाहों में ले लिया. जब मैंने उसे चूमा तो पाया कि वह बेहद संवेदनशील, गदराई और पूरी औरत थी. फेडरिको को आश्चर्य हुआ जब हम वहीं खुले में फर्श पर पसर गए. जब मैं उसके कपड़े उतारने लगा तो लोर्का की बड़ी आंखें अविश्वास में फैल गईं.
“यहां से भागो! और देखो कि कोई ऊपर न आने पाए !” मैंने जोर से आदेश सा देते उससे कहा.
जिस तरह तारों भरे आकाश को भेंट चढ़ाने का अवसर नजदीक आया, फेडरिको खुशी-खुशी कहे अनुसार अपने काम पर चला गया और बुर्ज की अंधेरी सीढ़ियों पर फिसल कर गिर पड़ा. महिला और मुझे न चाहते हुए भी उसकी मदद के लिए नीचे आना पड़ा. वह दो हफ्ते तक लंगड़ाता रहा.
(नौ)
और अंत में बलात्कार के आरोप की घटना
[यही वह प्रसंग है जिसको लेकर छात्र, महिला और मानवाधिकार संगठनों ने पाब्लो नेरुदा पर बलात्कार के आरोप लगाए हैं. यह प्रसंग पुस्तक के चौथे अध्याय “एक शानदार एकांत” के ‘सिंगापुर’ उपशीर्षक में है, हालांकि यह घटना श्रीलंका के कोलंबो की है. हम इसपर किसी भी तरह की टिप्पणी किए बिना पाठकों के लिए पूरा प्रसंग यहां दे रहे हैं.]
मेरा एकांत बंगला शहरी आबादी से दूर था. जब मैंने उसे किराए पर लिया तो सबसे पहले यह देखा कि उसका गुसलखाना कहां है. मुझे वह कहीं नहीं मिला. असल मैं वह घर के अंदर के स्नानघर में नहीं था बल्कि घर के पीछे था. मैंने उत्सुकता से उसका मुआयना किया. वह लकड़ी का एक डिब्बा था जिसके बीच में एक छेद बना हुआ था. चिले में गांव में ऐसी कलाकृतियां हमने बचपन में देखी थीं. लेकिन वहां गुसलखाना या तो गहरे कुएं पर या बहते पानी के ऊपर होता था. यहां तो उस छेद के नीचे एक धातु का घड़ा लगा दिया गया था.
रोज सुबह वह घड़ा साफ मिलता था. मुझे नहीं पता उसका पाखाना कहां चला जाता था. एक सुबह मैं थोड़ा जल्दी उठा और जो हो रहा था उसे देखकर चकित रह गया.
घर के पीछे की तरफ एक सांवली औरत आई. ऐसी सुंदर औरत मैंने अभी तक श्रीलंका में देखी नहीं थी. वह नीची जाति की तमिल औरत थी. वह सबसे सस्ते कपड़े की लाल और सुनहरी रंग की सूती साड़ी पहने हुई थी. उसने नंगे पैरों में मोटे कड़े पहने हुए थे. उसकी नाक के दोनों तरफ लाल बिंदी सी कुछ थी. हो सकता है वे साधारण शीशे की ही हों लेकिन उस पर तो मोती सी दिखाई पड़ती थीं.
वह बिना मुझे देखे चुपचाप गुसलखाने की तरफ बढ़ गई और फिर उस गंदे पाखाने को सिर पर लेकर चली गई. उसकी चाल किसी देवी जैसी थी.
वह इतनी प्यारी थी कि उसके गंदे काम के बावजूद मैं उसे अपने मन से नहीं निकाल सका. एक शर्मीले जंगली जानवर की तरह वह एक दूसरी दुनिया का ही प्राणी थी. मैंने उसे बुलाया लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ. उसके बाद, मैं उसके रास्ते पर कोई उपहार रख देता, कोई रेशमी कपड़ा या कोई फल. वह उसे बिना देखे ही चली जाती. वह हेय दिनचर्या उसके सांवले सौंदर्य के द्वारा किसी महारानी के उत्सव जैसी हो गई.
एक सुबह मैंने उसे मनाने की ठान ली. मैंने उसकी कलाई जोर से पकड़ ली और उसकी आंखों में देखा. कोई ऐसी भाषा नहीं थी जिसमें मैं उससे बात कर सकता. बिना मुस्कुराए, वह मेरे साथ चली आई और फिर नंगी मेरे बिस्तर में थी. उसकी पतली सी कमर, भारी नितंब, गदराए कुच ऐसा लगता था जैसे कोई हजारों साल पुरानी प्रतिमा दक्षिण भारत से उठकर चली आई हो. वह एक पुरुष और मूर्ति का संभोग था. पूरे संभोग के दौरान उसकी आंखें खुली रहीं और वह पूरी तरह क्रियाहीन रही. उसका मुझसे वितृष्णा करना सही ही था. उसके बाद ऐसा कभी नहीं हुआ.
कुछ प्रश्नसूचक निष्कर्ष
इन सब वर्णनों से इतना तो स्पष्ट है कि नेरुदा ने अपनी जीवनी में प्रेम, सैक्स, दीवानगी, लफंगई, संभोग, वादाखिलाफी के जितने भी स्वयं से जुड़े अनुभव हो सकते हैं, उन्हें अपनी बेबाक शैली में बेहद ईमानदारी से प्रस्तुत किया है.
यह सही है कि इन प्रसंगों में नेरुदा का जो परम रोमांटिक व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है, वह बावजूद उनकी विचारधारा के उनकी रचनाओं में यहां-से-वहां तक फैला है. और ऐसा नहीं है कि यह केवल नेरुदा की अपनी कोई निजी विशेषता है. क्रांतिकारी विचारधारा में ‘रेवोल्यूशनरी रोमांटिसिज्म‘ जिसे फ्रांसीसी मार्क्सवादी दार्शनिक हैनरी लेफीवा ने एक सौंदर्यशास्त्रीय मान्यता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, एक प्रबल प्रवृत्ति रही है. यानी पूंजीवादी देशों में पार्टी के नियंत्रण से बाहर चले ऐसे तमाम प्रगतिशील आंदोलन या व्यक्तिगत प्रवृत्तियां जो चीजों को रोमानी रूप में देखती हों और उनकी अभिव्यक्ति का बेहद निजी और रोमानी तरीका अपनाते हों. स्वयं हमारे यहां अधिकांश उर्दू कविता क्रांतिकारिता और रोमांटिकता के मिश्रित फार्म पर लिखी गई है. इसलिए नेरुदा में उसका होना कोई अनहोनी बात नहीं है.
तो क्या नेरुदा इस अतिरिक्त रोमांस में औचित्य की सीमाएं लांघने तक जाते हैं ! क्या वे इस अनौचित्य को गौरवान्वित करते हैं !
यह तो स्पष्ट है कि नेरुदा की भाषा-शैली और वर्णन-पद्धति ऐसे तमाम प्रसंगों में उत्सवधर्मिता की सीमाएं छूती है. उसमें बड़बोलापन भी है. कई लोगों ने यह कहा है और काफी हद तक है भी कि यह प्रवृत्ति लातीन अमरीकी जीवन और हर चीज को उत्सवधर्मी और लाउड बना देने की आम आदत से आई लगती है. इन वर्णनों में कई जगह इस अनौचित्य में मजा लेने का बोध होता है. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि नेरुदा इन वर्णनों को यथासंभव यथातथ्यता में बनाए रखने की कोशिश करते हैं.
केवल तीन प्रसंग ऐसे हैं जो नेरुदा के व्यक्तित्व के रुझानों पर सवालिया निशान लगाते हैं. एक टैक्सी में आई लड़की के प्रति एकदम लफंगई का व्यवहार, दूसरे बर्मी लड़्की जोस्सी के प्रति अमानवीय आचरण और तीसरा गुसल साफ करने वाली तमिल लड़की पर जबरदस्ती की घटना. इनमें से दूसरी काफी जटिल है जिसमें एशिया और यूरोप की सांस्कृतियों का अभिरुचिगत बेमेलपन तो है ही, साथ ही राजनयिक जीवन से पैदा होने वाली विचलनगत विकृतियों का भी बड़ा योगदान है. हालांकि इसे नेरुदा ने जोस्सी के मानसिक असंतुलन, शंकालु चरित्र से जस्टीफाई करने की कोशिश की है, लेकिन पूरे वर्णन से यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि इसमें नेरुदा का रवैय्या बेहद गैर-जिम्मेदार, असंवेदनशील और भोगवादी नजर आता है जो परिस्थिति के जरा भी अपने से अन-अनुकूल हो जाने पर अमानवीयता की सीमाएं छूने लगता है.
जिस अंतिम घटना को लेकर “मी टू” का मामला तूल पकड़ गया है, वह निश्चित रूप से बिना इच्छा के जबदस्ती का है. हम जानते हैं कि एक पराधीन देश में, पराधीन मानस वह भी निम्न जाति और कर्म से जुड़ा, एक गोरे हाकिम के सामने कैसे असहाय और अप्रतिरोधई हो सकता है, वह यहां स्पष्ट है. नेरुदा ने अभिचार के बाद ही इसे अनुभव भी कर लिया है, लेकिन उस पर बहुत अफसोस नहीं है.
जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है कि ये सवाल साहित्येतिहास में उन तमाम कृतियों और उनके कृतिकारों पर उठाए जाएंगे जिन्होंने एक भिन्न सामाजिक, राजनैतिक अवस्थाओं, व्यवस्थाओं और उसके अंतर्गत बने मानव समता विरोधी जीवन मूल्यों के प्रत्यक्ष या प्रछन्न प्रभाव में लिखा और जिसके परिणामस्वरूप वर्गों, अस्मिताओं, विचारों की अवमानना हुई.
उसमें भी नेरुदा का मामला इसलिए और संगीन है कि वे मानव-समता के विचार के पक्षधर हैं.
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(उदाहरणों को मूल रूप में प्रस्तुत करने के कारण यहां उन्हें विस्तार से देने में कापी-राइट एक्ट का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन उसके बिना इस विषय पर बात करना संभव नहीं था, इसलिए दिया है. कर्ण सिंह चौहान)