संदीप नाईक की ये कविताएँ वैसे तो जनवरी में ही प्रकाशित हो जानी थी.
ये कविताएँ वर्ष की शुरुआत की आशा से भरी हैं, खिले आकाश में ख़ुशी की पतंगे उड़ रहीं हैं. पर दिन बीतते ही जन्म भर के दुःख और दर्द भी इसमें पुष्पित होने लगते हैं. जहाँ जनवरी गाँधी की हत्या का महीना है वहीं माँ की गोद की तरह नर्म, मुलायम है.
इस श्रृंखला की दस कविताएँ प्रस्तुत हैं.
जनवरी माँ की गोद है
जनवरी – १
इतनी मिली शुभेच्छाएँ
नये साल की
कुछ भी शुभ होने की
गुंजाईश नही बची
फूलों से लेकर पौधों
आसमान से ज़मीन
नदियों से समुंदर तक
अटी पड़ी थी कामनाएं
नये साल का ताज़ा
पहला दिन जन्मा तो
अंबार लग गया खुशियों का
दुख मिट ही गया दुनिया से
सोचा कि जन्मे हर दिन
नये साल का पहला दिन
जनवरी – २
धुन्ध में लिपटी आती है
हवाओं में डूबती शाम
काम पर जाते कोहरे की सुबह में
अकड़ते है पैर चलते हुए
उंगलियाँ मरोड़ने में
मौत का साक्षात एहसास होता है
आईने में भी भाप जमी है
अदृश्य बर्फ हर जगह है
आदमी बोलता नही
ठिठुरता है पत्तों की तरह
अक्स देखने को परेशान हूँ
अपना चेहरा छुप गया है
ओस गेहूँ की बालियों पर दबी है
मैं पूछता हूँ चने की हरियाली से
जनवरी का दर्द और रो लेता हूँ
जनवरी – ३
आसमान रंगीन हो गया है
जीवन की पतंगों से
इतनी कटी है पर डोर को
दोष नही देता कोई
पतंग के माथे है
खुशियों की ऊंची उड़ान
या कि
टूटकर कही अनजान टुकड़े पर
गिर जाने का बोझ
हाथ में उड़ान के सपने लिए
अपने जीवन में लौटते है
किसी कटी पतंग के मानिंद
माँझा तेज़ करते है लूटे हुए से
जनवरी एक साल बाद आती है
इसका कोई अफसोस नहीं करता
जनवरी – ४
मन के कोनों से
ओटले तक उतर आई धूप
छज्जे से उतरी धूप
पतरों के छेदों से गोबर लिपे
फर्श पर उतरती धूप
चने की नाज़ुक पत्तियों पर से
ओस को धोकर अपना
साम्राज्य स्थापित करती धूप
कोहरे को छाँटकर भक्क़ से
उजास फैलाती
होठों पर मुस्कान
आँखों में आश्वस्ति लाती
पानी की तलछट में
सब कुछ दिखलाती
गुनगुने एहसासों को मनाती
अलसाये दिन को जाग्रत कराती
धूप का महीना है जनवरी
नए स्तम्भ और गढ़ रचने का महीना है
अभेद्य किलों के पार उतरने का संताप है जनवरी
जनवरी – ५
शाम की तीखी हवा घुसती है
हर जगह से हर कोने में
कमरों में बंद कमरे सिहरते है
खिड़कियाँ दरवाज़ें दुश्मन
पानी गटकने से बेहतर
झूल जाएं फांसी के तख्ते पर
एक उदासी पसरती है शाम से
देर रात तक भभक उठती है
कुहासे में डूबी स्मृतियों के पोर से
परछाईयाँ उभरकर रुला देती है
आँसू निकलते नही जम जाते है
जनवरी के बेवफा शामें महबूबा है
जो किसी अवांगर्द अफ़साने की
याद दिलाकर दूर छोड़ आती है
कि एक दिन होगा मिलन यूँही
मौत के बाद तो सब कुछ झीना हो ही जाता है
जनवरी – ६
जन्मदिनों का महीना है
पहली तारीख से छब्बीस तक
असंख्य जन्में लोग कोसते है माँ बाप
और मास्टरों को जिन्होंने दर्ज कर दी
जनवरी जीवन के खाते में
हंसते है लोग जनवरी में जन्में लोगों पर
कुछ कहा नही जायें इन परेशान आत्माओं को
जनवरी नये साल का शुभ माह नही
सही नक्षत्रों में जन्में ग़लत हो गये लोगों की दास्तान है
जीवन की स्पर्धाओं में रह गए दर्जनों बार
जनवरी में दर्ज तारीखों से और इस तरह
बिगड़ी भी कुंडलियां
कहते है जनवरी में असली जन्में लोग
दिसम्बर के पहले ही फतह हासिल कर लिये
जनवरी – ७
बीते बरस के हरे घाव
स्मृतियों के दंश और मिठास
भूलने की सुबह है
जनवरी
प्रेम की पींगे बढ़ाती
कजरारी आँखों और कांपते होठों को ढाढ़स
किसी अनमोल तोहफे की उधेड़बुन
में फट से बीत जाने की
छोटी दोपहरें और उदास शामें
जनवरी की प्रतिछाया है
अपनी परछाई को बड़ा कर आँकने
गफ़लतों से निकलकर उम्मीदों का नाम
प्रेम दिवस के इंतज़ार में हर क्षण
जीने – मरने का नाम भी है जनवरी
जनवरी – ८
गांधी की हत्या जनवरी है
बहत्तर वर्षों बाद भी ज़िंदा है जो
जागना जनवरी है
शाहीनबाग जनवरी है
लखनऊ, इलाहाबाद से गौहाटी तक
केरल से पंजाब तक
जनवरी ही जनवरी है
जनवरी नही है तो नागपुर में
जनवरी नही है तो कुछ जगहों पर जहां
शब्द सम्पदा की जगह कूड़ा कचरा इकठ्ठा है
इतने बड़े भारत में टनों से निकलता
स्वच्छ भारत का कूड़ा कही तो होगा जमा
अदालतों का मौन और आदमी की मुखरता
औरतों के हाथों में झंडे और बच्चों की किलकारी
सत्ता के मद और अहंकार
जिद और स्वार्थ लोलुपता का पर्याय है
जनवरी
जनवरी के आने से ही खुलेंगे रास्ते
आएगी सुबह नई
गाये जाएंगे फिर फ़ैज़, जालिब, दुष्यंत
और एक बार तख्त उछाले जाएँगे
ताज़ गिराने की शुरुवात है जनवरी
जनवरी – ९
हड़बड़ाहट में यूँ आ गई
मानो स्टेशन पर कोई रेल
हिलते डुलते चढ़े भी और मिली नही जगह
सफ़र आगे और लम्बा है
मुसाफिरों का रेला बरकरार
मुतमईन हूँ कि एक तय शुदा समय पर
ले जाकर छोड़ ही देगी
बाजदफ़े यात्राएँ अधूरी रह जाना भी ज़रूरी है
हम अपने में जब खो जाते है तो
भीतर की यात्राएं ही सुकून देती है
जनवरी अन्तस की यात्रा का प्रारब्ध है
जो कही जाकर खत्म होगी ही
पटरियों की तड़फ और पीड़ा
जनवरी के साथ जीवन का साहचर्य है
जनवरी – १०
तीस को जन्मी थी माँ
तीस को मारा था गांधी को
सुबह ग्यारह बजे का सायरन
बजता और खड़े हो जाते हम
स्कूल से थकी मांदी लौटी माँ
मरने तक कहती रही
मेरा जन्मदिन मनहूस ही रहा
जनवरी का खात्मा
सब कुछ ठीक कर देता था
हमने माँ के जन्मदिन को हमेंशा
एक अपराध बोध में ही मनाया
कहने की हिम्मत भी नही होती कि
तीस जनवरी से मेरा गहरा वास्ता है
जनवरी माँ ही है
सालभर के सुख दुख की जननी
भरी पूरी इकतीस दिन की बेख़ौफ़
पीछे पीछे चले आते है मार्च अप्रैल
किन्हीं हत्यारों की तरह
जनवरी की सर्द हवाओं का गला घोंटने
जनवरी औचक की तरह आती है
जनवरी में अक्सर उदास होता हूँ
माँ की गोद की तरह है जनवरी
मैं फिर से सब थामना चाहता हूँ
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naiksandi@gmail.com
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