“कला माध्यम के रूप में कहानी के प्रति एक कलाकार को जितना आत्मसजग होना चाहिए, सामान्यत: कहानीकार उतने नहीं हैं….इधर कहानी पूरी तरह ‘सामाजिक’ हो गई है. और इस हद तक सामाजिक हुई है कि अमानवीय हो उठी है. पर कहानी जहाँ बनती है, वह सामाजिक यथार्थ का चित्रण नहीं बल्कि उसमें निहित मानवीय संवेदना है….हिन्दी कहानी स्थूल यथार्थवाद के आतंक की छाया में विकास नहीं कर पा रही है और इसलिए वह जो मानवीय संवेदना है उसका उन्मोचन कहानी नहीं कर पा रही है.”
नामवर सिंह (‘रचना समय’, मार्च, 2019 में प्रकाशित साक्षात्कार)
काफ्का के बारे में हुई चर्चा के दौरान कुछ लोगों की मान्यता थी कि वह महान लेखक नहीं है, क्योंकि उसका साहित्य ‘जीने’ में कोई मदद नहीं करता. यह दूसरी बात है कि ज़िदंगी-भर काफ्का को यथार्थ-विरोधी लेखक बताने वाले जार्ज लुकाच को हंगरी के मुक्तिसंग्राम में भागीदारी के चलते जब रूसी सेना द्वारा गिरफ़्तार कर रुमानिया के क़िले में नज़रबंद कर दिया गया, तो उन्हें लगा कि काफ्का सही मायने में यथार्थवादी लेखक था.
बहरहाल, कहना यह है कि यदि किसी कहानी में मनुष्यों के माध्यम से जीवन में व्यक्त होने वाली सच्चाई मिलती है और हमें जीने में मदद करती है,तो, निश्चित तौर पर वह यथार्थवादी कहानी होगी. इसके अभाव में कोई रचना विचारधारात्मक श्रेष्ठता के अपने तमाम आतंक और शिल्प व नक्काशी की दृष्टि से बेजोड़ होने के बावजूद जीवन-विरोधी हो जाने को अभिशप्त हो जाती है. स्पष्ट ही ऐसी कहानियों में मानवीय संसक्ति की खोज बेमानी है.
समकालीन हिंदी कहानी के क्षेत्र में कई पीढ़ियों के रचनाकार एक साथ सक्रिय रहे हैं. ऐसा पहले भी रहा है, पर इस दशक में जितनी पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय रही हैं, उतना वैविध्य शायद पहले नहीं था. कृष्णा सोबती से लेकर अखिलेश तक की रचनाशीलता के मद्देनज़र पीढ़ी की दृष्टि से भी इस दौर को समृध्द कहा जा सकता है.
समकालीन कहानी के विकास-क्रम में इस नये दौर के प्रस्थान बिंदु के तौर पर कुछ कहानियों को रेखांकित किया जा सकता है. इस दृष्टि से इब्राहीम शरीफ की कहानी ‘ज़मीन का आखिरी टुकड़ा’, मधुकर सिहं की ‘दुश्मन’ और काशीनाथ सिंह की ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’ ग़ौरतलब हैं. ढेर सारी समकालीन कहानियों के बीच से कुछ कहानियों को उदाहरण के तौर पर चुनकर इन्हें नये दौर के प्रस्थान बिंदु के रूप में रेखांकित करने के पीछे तर्क यह है कि समकालीन कहानी में यथार्थ की विजय दिखाई पड़ती है. यहाँ विजय कलात्मक शब्द नहीं है. बावजूद इसके यथार्थ की विजय कहने का तात्पर्य यह है कि आज यथार्थ-चित्रण ने नये सिरे से यह प्रमाण प्रस्तुत किया है कि इसके जरिए ही श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी जा सकती है. स्मरणीय है कि यथार्थ वह वस्तुसत्ता है, जिसका अस्तित्व हमारी चेतना से बाहर है, वह हमारी चेतना पर निर्भर नहीं करता, लेकिन जो हमारी चेतना को प्रभावित करता है. वस्तुतः इधर नये दौर में श्रेष्ठ हिंदी कहानी रचनाकारों की मनोदशा, उनकी मानसिक बुनावट या उनकी मानसिक-वैचारिक कल्पना के मुताबिक नहीं, बल्कि हमारे समय के यथार्थ के आग्रह से प्रेरित व प्रभावित तथा प्रेमचंदीय वृत्तात्मक यथार्थवाद से मुक्त होकर लिखी जा रही है. इसी अर्थ में यह यथार्थ की विजय का दौर है.
इसका दूसरा पहलू यह है कि वैयक्तिक चित्रण के नाम पर कहानी से जिस कहानीपन को एक ज़माने में छीनने की कोशिश की गयी, वह इस दौर में बहुत प्रासंगिक नहीं रह गयी है. कहना न होगा कि वैयक्तिकता का चित्रण एक सीमा तक महत्वपूर्ण है और वह अपनी जगह यथार्थवादी कहानियों में भी है, क्योंकि कोई भी वाद, कथ्य, जीवन-प्रसंग व सामाजिक संदर्भ रचना में व्यक्ति के माध्यम से ही व्यक्त होता है. इसलिए किसी रचना में वैयक्तिकता का महत्व तो स्वाभाविक है, पर वह सामाजिकता की कीमत पर नहीं होना चाहिए. नामवर सिंह ने ‘नयी कहानी’ की चर्चा के दौरान चाहे उसकी जितनी भी तारीफ़ की हो, पर एक अभाव की ओर उन्होंने ध्यान दिलाया था कि उसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य नहीं था. समकालीन कहानियों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य व सामाजिक संघर्षशीलता स्पष्ट दिखाई पड़ती है और वह कहीं से भी कहानी पर थोपी हुई नहीं, बल्कि जीवन-प्रसंगों व संदर्भों के चित्रण के माध्यम से स्वाभाविक रूप से विकसित मालूम पड़ती है.
उपर्युक्त विमर्श के मद्देनज़र तीन कहानियों को प्रस्थान बिंदु के तौर पर रखकर विचारने से स्पष्ट होता है कि इब्राहीम शरीफ की कहानी ‘ज़मीन का आखिरी टुकड़ा’ सामाजिक प्रक्रिया में जीवन जीने के साधनों और आधार में ही नहीं, बल्कि आदमी के नज़रिए में भी जो परिवर्तन आ गया है, उसे स्पष्ट करती है. यह कहानी बताती है कि ज़मीन पर आधारित पारिवारिक जीवन जीने का दौर किस प्रकार खत्म हो रहा है और कैसे परिवार की ज़रूरतों के चलते ही धीरे-धीरे ज़मीन बिकती गयी तथा अंततः उसका आखिरी टुकड़ा भी बिक गया. इसका क्षोभ अगर किसी को है, तो सिर्फ़ माँ को है. कहानी में आये तीनों बेटों के लिए वह ज़मीन एक ऐसा अतीत है, जो आज के जीवन को चलाने में किसी भी रूप में सहायक नहीं है. वे इसे अतीत के मोह से मुक्ति के तौर पर देखते हैं.
मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ एक राजनीतिक कहानी है. ज़ाहिर है कि हमारे समय में राजनीतिक प्रक्रिया काफी जटिल होती जा रही है, जिसके पीछे एक सामाजिक जागरण भी है. कारण यह कि समाज के दबे-कुचले लोग अब जग रहे हैं तथा अपने स्वत्व के लिए सामने आ रहे हैं. ‘दुश्मन’ कहानी का जगेसर ऐसे ही लोगों के बीच से नेता के रूप में उभरता है और मंत्री बन जाता है. यह खबर मिलते ही उसके गाँव के दलित टोले में उत्सव का माहौल छा जाता है और लोग जगेसर को मंत्री के रूप में अपने बीच देखना चाहते हैं. इस अवसर पर एक भोज का आयोजन भी किया जाता है, पर ऐसे मौके पर मंत्री जी की गाड़ी सवर्णटोला की ओर मुड़ जाती है. इतना ही नहीं, गाँव के लोग जब एक जगह पर जुटते हैं, तो जगेसर जहाँ भूस्वामियों के साथ कुर्सी पर बैठता है, वहीं उसकी बिरादरी के तमाम लोगों को ज़मीन पर नीचे बैठाया जाता है. इस घटना से दलितों में अचानक एक बोध जाग्रत होता है कि जिसे उन्होंने अपना आदमी समझा था, पद प्राप्त होते ही उसका चरित्र बदल गया और अन्ततः वह दुश्मन साबित हुआ. यह वस्तुतः मधुकर सिंह की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है और इसके बाद उन्होंने संभवतः ऐसी कोई महत्वपूर्ण कहानी नहीं लिखी है.
काशीनाथ सिंह की कहानी ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’ एक दूसरे संदर्भ को सामने लाती है. ज़ाहिर है कि हमारे समय में यदि एक ओर बदलाव की आकांक्षा एवं प्रक्रिया तीव्र हुई है, वहीं दूसरी ओर अपनी सुख-सुविधा व व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए खुशामद करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है. जो बदलाव के विरोधी हैं, वे इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देते रहे हैं. इस कहानी में एक पुराना रईस है, जिसने ऐलान कर रखा है कि जो अपने शरीर पर उसके पान की पीक लेगा, उसे ईनाम के तौर पर कपड़े का नया सेट दिया जाएगा. किंतु दिलचस्प यह है कि लोग स्वभावतः अपने शरीर पर पीक फेंकवाने के लिए तैयार बैठे हैं, उन पर वह पीकना नहीं चाहता. उसकी दिलचस्पी अपने विरोधियों को खुशामदी बनाने में है. दूसरे शब्दों में वह अपने प्रतिरोधियों के तेजहरण में विश्वास करता है.
स्पष्ट ही हमारे समय में ‘कैरियरिज्म’ के तहत अपनी तरक्की के लिए खुशामदी प्रवृत्ति का जो बोलबाला दिखाई देता है, यह कहानी उसे बेनक़ाब करती है. पर इस कहानी में एक मामूली-से अधनंगे आदमी को लाया गया है, जो अचानक एक दिन उस रईस को चुनौती दे बैठता है. रईस पीक फेंक रहा है और वह खुद को इससे बचा रहा है. लगातार कई दिनों तक दोनों के बीच यह द्वंद्व चलता है और दर्शकों में ऐसे कई झुँझलाए हुए लोग बैठे हैं, जो ईनाम की खातिर अपने शरीर पर पीक लेने के लिए आतुर हैं. पर जब तक कोई फैसला न हो उन्हें मौका मिलना असंभव था. कहानी में जीत अंततः उस भूखे-नंगे-से दिखाई देने वाले आदमी की ही होती है. वह खुद को अंत-अंत तक पान की पीक से बचा लेता है. कहानीकार का रचनात्मक निर्णय है कि वह इस सदी का सबसे बड़ा आदमी है. वस्तुतः जहाँ कही भी व्यवस्था को या समाज का स्वत्व-हरण करने वाली ताक़तों को चुनौती देने वाला कोई भी व्यक्ति बचा हुआ है, वही बदलाव की आकांक्षा वाली इस सदी का सबसे बड़ा आदमी है.
वर्तमान सामाजिक प्रक्रिया की तीन प्रवृत्तियों को व्यंजित करने वाली ये तीन कहानियाँ यद्यपि हमारे समय के युवा कहानीकारों के थोड़ा पहले की पीढ़ी के लेखकों द्वारा रचित हैं, पर हमारे समय की मानसिकता से इन कहानियों का गहरा संबंध है. इसलिए इन्हें इस दौर की कहानियों के प्रस्थानबिंदु के रूप में उद्धृत करना गैरवाजिब नहीं है.
मनोज रूपड़ा की ‘प्यास’ कहानी मानवीय संसक्ति दृष्टि से समकालीन हिंदी कहानी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. कहानी की शुरुआत एक ऐसे दृश्य से हुई है, जहाँ एक लड़का गाय के ‘थन’ में सीधे मुँह लगाकर दूध पी रहा है. उसकी अनुभूति का वर्णन करते हुए कहानीकार ने बताया है कि पहली बार उस लड़के को आनंद की अनुभूति हुई. वस्तुतः वह एक मातृहीन बालक है, जिसे कभी माँ के स्तन से दूध पीने का मौक़ा नहीं मिला था. एक क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित बच्चों की संस्था में रहते हुए उसे सब कुछ मिला, पर वहाँ भी माँ का अभाव उसे खटकता रहा. माँ का मतलब उसके लिए वह स्त्री है, जिसने स्तनपान कराया हो और इसी कमी को पूरा करने के लिए वह सीधे गाय के थन में मुँह लगाता है. मिशन के अपने अनुभव के विश्लेषण से उसे लगता है कि वहाँ सारी बातों के बावजूद संचालिका की रुचि बच्चों को इंसान बनाने के बजाय ईसाई बनाने में ज्यादा है. थोड़ा बड़ा होकर वह एक दिन मिशन से निकल भागता है और मुक्ति का अनुभव करता है. चर्च के बाहर की दुनिया में अपनी क्षमता व मेहनत के बूते पर सफल होने के बावजूद उसके जीवन में माँ की कमी के एहसास के रूप में जो प्यास रह गयी थी, वह कालांतर में प्रेम की तलाश के रूप में प्रकट होती है, जिसमें वह अंततः सफल नहीं हो पाता.
इस प्रकार वह अकेलेपन की पीड़ा भोगता है. एक दिन जब वह समुद्र के किनारे बैठा अपने जीवन की निरर्थकता पर विचार कर रहा होता है, तभी अचानक चर्च का घंटा बजता है, जिसकी ध्वनि उसको इस तरह महसूस होती है, मानों माँ थपकी दे रही हो. यहाँ थपकी देना बड़ा ही सांकेतिक है,क्योंकि जिस चर्च की दिवार को लाघँकर वह चला आया था, फिर उसी ओर उसका ध्यान जाता है. बाहर की दुनिया भी उसको वह चीज़ नहीं दे सकी,जिसकी उसे तलाश थी. मनुष्य की प्राकृतिक तलाश जब पूरी नहीं होती, तो उसके व्यक्तित्व में अनगढ़ता स्वाभाविक है. कथानायक के अनेकानेक व्यवहार अप्राकृतिक-से हैं — समुद्र के किनारे बैठे लोगों के ऊपर से कूदते हुए दौड़ना, अचानक किसी को पकड़कर जबरदस्ती चूम लेना आदि. प्रसंगवश ‘उसने कहा था’ कहानी के बारह वर्षीय बालक लहना सिंह की याद स्वाभाविक है, जो लड़की के मुँह से यह सुनते ही कि ‘कुड़माई हो गई’, असामान्य व्यवहार करने लगता है :
“लड़के ने घर की राह ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया. सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाई, तब कहीं घर पहुँचा.”
नये संदर्भ में कुछ इसी तरह का असामान्य व्यवहार ‘प्यास’ कहानी का नायक करता है. इस प्रकार यह कहानी अपनी परम्परा को समृध्द करने के साथ ही भावना,चरित्र व जीवन प्रसंग के यथार्थ की दृष्टि से नयी है.
यथार्थ-चित्रण के प्रसंग में ग़ौरतलब है कि समकालीन हिंदी कहानी का एक बड़ा हिस्सा विचारधारा व यथार्थ के आतंक से मुक्ति का साहित्य है. कथा साहित्य के क्षेत्र में इस आतंक को समझाने के लिए एक बंगला कहानी ‘कम्युनिस्ट परिवार’ की बतौर उदाहरण चर्चा की गयी है, जिसमें वर्णन है कि कैसे दो नक्सलवादी भाईयों में से एक पर संगठन को संदेह हो गया और उसकी हत्या कर दी गयी. हत्या का फैसला जिस बैठक में किया गया था, उसमें बड़ा भाई मौजूद था. बाद में वह सोचता है कि केवल संदेह के आधार पर उसके भाई की हत्या कर दी गयी, उसने विरोध क्यों नहीं किया ? वस्तुतः उसने बुज़दिल कहे जाने के डर से वहाँ इस फैसले का विरोध नहीं किया. यह आतिक्रांतिकारिता है, जो विचारधारात्मक आतंक के चलते पैदा होती है. यथार्थ के इस आतंक से कहानी की कला को भी नुकसान पहुँचता है, क्योंकि जीवन की स्वाभाविकता, विश्वसनीयता की रक्षा भी कला का अंग है.
सच तो यह है कि विचारधारा उसी हद तक रचना या आलोचना के लिए उपयोगी है, जहाँ तक वह ज़िंदगी की सचाई को समझने-समझाने में हमारी मदद करती है. दूसरी बात यह है कि किसी भी रचना को कुछ मुख्य सिद्धांतों में घटाकर नहीं देखा जा सकता. कारण यह कि कोई भी कलाकार पहले से सारी बातें तय करके अपने समय की वास्तविकता का चित्रण या अनुभूतियों की अभिव्यक्ति नहीं करता. जो लोग ऐसा करते हैं, उनका लेखन लुकाच की शब्दावली में कहें तो ‘स्कीमैटिक’ या योजनाबद्ध हुआ करते हैं, जो कला की शर्त का अनुपालन नहीं करता. यही बात यथार्थ और तथाकथित यथार्थवाद के संदर्भ में भी सच है. प्रंसगात् निर्मल वर्मा ने लिखा है कि
“जब कोई कहानी में यथार्थ की चर्चा करता है, तो हमेशा दुविधा होती है – वह एक पक्षी की तरह झाड़ी में छिपा रहता है. उसे वहाँ से जीवित निकाल पाना उतना हि दुर्लभ है, जितना उसके बारे में निश्चित रूप में कुछ कह पाना, जब तक वह वहाँ छिपा है. अंग्रेजी में एक मुहावरा है : ‘बीटिंग एबाउट द बुश’. कहानीकार सिर्फ़ सही कर सकता है – उससे अधिक कुछ करना असंभव है. …यह अभिशाप हर उस लेखक के लिए है, जो कलाकार भी है. जो सही मायने में यथार्थवादी है, उसके लिए यथार्थ हमेशा झाड़ी में छिपा रहता है.”
वस्तुतः जब तक क्रांतिकारिता की मुद्रा जीवनस्थितियों से स्वाभाविक तौर पर विकसित होती हुई मुद्रा नहीं बनती, तब तक वह विश्वसनीय नहीं होती.
कहना न होगा कि समकालीन हिंदी कहानी में आत्यन्तिक विचारधारात्मक आग्रह के चलते उत्पन्न यथार्थ के आतंक के तहत रचित ‘बीच का समर’(विजयकांत), ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ (संजीव), ‘एक बनिहार का आत्म-निवेदन’ (सुरेश कांटक) जैसी अनेकानेक फार्मूलाबद्ध कहानियाँ लिखी गई हैं. ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ कहानी में कथानायक का वक्तव्य है :
“मैं निहायत पिद्दी किस्म का इंसान था, लेकिन उस वक्त मुझमें जाने कहाँ से बला की ताक़त आ गयी थी. मेहनत, ईमान, इंसानियत, शराफत, दिलेरी जैसे शब्द, देश का इतिहास और भूगोल जैसे ज्ञान, अब तक मेरे लिए खयाली बातें थीं. लेकिन उस दिन, उस मौक़े पर उनकी हक़ीकत का जादू मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा था… वह एक जूनून था जूनून.”
आकस्मिक संयोग के रूप में व्यक्त यह प्रतिरोध एक रचनाकार की प्रतिरोधात्मक सदिच्छा तो हो सकता है, पर इसमें स्वाभाविकता व विश्वसनीयता की जो कमी है, वह न केवल किसी कहानी की कलात्मकता की रक्षा के लिए जरूरी है, बल्कि उसके विकास और समृध्दि के लिए भी अपरिहार्य है.
वस्तुतः इस कहानी में प्रतिरोध को स्वाभाविक एवं विश्वसनीय बनाने के लिए किसी दूसरे आदमी के जूनूनी हस्तक्षेप के बजाय उस सब्ज़ी बेचने वाली आदिवासी औरत के भीतर ही प्रतिरोध के बिंदु की तलाश वांछनीय थी. स्मरणीय है कि ‘पूस की रात’ कहानी में आँखें तरेरती हुई मुन्नी जब कहती है कि “मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाक़ी दे दो, चलो छुट्टी. बाक़ी चुकाने के लिए ही तो हमारा जन्म हुआ है. पेट के लिए मजूरी करो. ऐसी खेती से बाज़ आए” या हल्कू जब कहता है : “मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें.” – तो उनका यह सोचना स्वाभाविक है. चूँकि यह स्वाभाविकता बहुत पहले प्रेमचंद विकसित कर चुके थे, इसलिए समकालीन कहानीकारों को उससे लाभ उठाना चाहिए था.
‘पूत! पूत! पूत! पूत!’ कहानी में विचारधारात्मक मिथ्या चेतना के आतंक से मुक्त होकर संजीव ने अपने बौध्दिक पैनापन तथा संवेदनशील चौकन्नापन से जिस मानवीय सघनता को रचा है, उसमें अपने समय के यथार्थ से टकराने के लिए ज़रूरी ख़तरनाक खुलापन भी है. कारण यह कि इसमें क्रांतिकारी मुक्तिसेना तथा सामंतों की वीरसेना के बीच के अंतर संघर्षों को ही नहीं, बल्कि मुक्तिसेना और इस तरह के अन्य वामपंथी संगठनों के बीच अपने वर्चस्व के लिए होने वाले ख़ूनी संघर्ष और अंततः वीरसेना से मुक्तिसेना की पराजय की प्रक्रिया को गहराई के साथ उजागर किया गया है. कथानायक की स्पष्ट मान्यता है कि
“मुक्तिसेना उनसे (वीरसेना से) पिट रही है. क्या मतलब ? मतलब अभिधा में भी है, व्यंजना में भी, मात्रा में भी, गुण में भी. … इधर मुक्तिसेना ने भी बारात में जाते हुए, मुर्दा जलाकर आते हुए लोगों को मारा है. यानी मुक्तिसेना भी वीरसेना के प्रभाव में आ गयी. उद्देश्य से स्खलित हुई. इस तरह मुक्तिसेना का कुंद होना ही नहीं, इसका स्खलित होना या लक्ष्यभ्रष्ट होना वीरसेना की सबसे बड़ी जीत है और मुक्तिसेना की सबसे बड़ी हार है.”
इस कथन पर मुक्तिसेना के कमिस्सार की टिप्पणी है कि “जो लोग डायरेक्ट फील्ड में काम करते हैं, उनमें और जो लोग टेबुल पर बैठकर कैलकुलेट या एनलाइज करते हैं, थोड़ा फ़र्क तो हो ही जाता है.”
ऐसे तो इस कहानी में मानवीय सघनता आदि से अंत तक मौज़ूद है, पर वह अपने सर्वाधिक सान्द्र रूप में वहाँ दिखाई देती है, जहाँ छोटे भाई विजयमोहन की हत्या के बाद नैरेटर की विविध स्मृतियों के सहारे इसे उभारा गया है :
“भाई से जुड़ा एक-एक दृश्य याद आने लगा, पिता की मौत पर सदा के लिए गुमसुम हो जाने वाला बिज्जू, वीरसेना के कमांडर की बंदूक से मेरी प्राणरक्षा के लिए जूझता बिज्जू! क्रांतिकारी विवाह करने वाला बिज्जू, खून के दाग़ों को धोता हुआ बिज्जू, ‘लौटा दो मेरा बाप, दिला दो परिवार को कोई सहारा’ के तर्क से मुझे निरूत्तर करता बिज्जू, चाचा की ज़मीन पर कैम्प लगाने की ज़्यादती को खूनी आँखों से घूरता बिज्जू, मुंडित सिर लिए चुपचाप माँ की झिड़कियाँ सुनता बिज्जू और सबसे ऊपर वह दृश्य – जलती चिताएँ, चीर पहने भीगी धोतियाँ ओढ़े गाँव के लोगों की रक्षा के लिए बंदूक साधे घंटों अकेले पहरा देता बिज्जू! – मेरा वह बहादुर भाई बिज्जू कल क़त्ल कर दिया गया.”
जिस समय में अपवाद स्वरूप कुछ इलाकों को छोड़कर लगभग सारा भारतीय समाज और खास तौर से हिंदी समाज सामप्रदायिकता, जातिवाद, भूस्वामियों की निजी सेनाओं के आतंक, नक्सलवादी अतिक्रांतिकारिता आदि के चक्रव्यूह में फँसा हो, उस समय में कलाकार अपवर्जन के बजाय सर्वसमावेशी होकर ही अपनी रचना को ज़्यादा से ज़्यादा विश्वसनीय बना सकता है.
मानवीय संसक्ति की पहली और आखिरी शर्त मानव जीवन है, चाहे वह एक सीमा तक विरोधाभासों से क्यों न भरा हो. जीवन में निराशा, हताशा, संत्रास, ऊब, भय सब कुछ खप जाता है, क्योंकि जीवन विराट है. जीवन की यह विराटता न केवल विस्मित करती है, बल्कि विश्वास का आधार भी देती है. ऐसे तो प्रायः रचानकार विस्मय को व्याख्यायित करते हुए विश्वास की मंज़िल तक पहुँचते हैं, पर कई बार जब विस्मय बिना किसी व्याख्या के कहानीकार की सधी कलम से सीधे विश्वास में रूपांतरित होकर प्रस्तुत हो जाता है, तो मानवीय संसक्ति से भरपूर ‘मुश्किल काम’ जैसी छोटी-सी कहानी की रचना संभव होती है. वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में प्रकाशित असगर वजाहत की इस कहानी में दंगे के बाद दो दादाओं की बातचीत है, जिसमें एक दादा सबसे मुश्किल काम बच्चों को मारना बताता है. कारण यह कि “बच्चों को मारते समय अपने बच्चे याद आ जाते हैं.” इस कथन में निहित माववीय संसक्ति अलग से व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखती.
कई बार विस्मय की व्याख्या इस क़दर केंद्र में आ जाती है कि कहानी मात्र ब्योरा बनकर रह जाती है. बावजूद इसके यदि कहानीकार कथारूप की नैतिकता का सार्थक निर्वाह कर ले जाता है, तो वह पाठक को विस्मय से विश्वास तक अवश्य पहुँचा देता है. इस क्रम में ब्योरा देना यदि जरूरी हो, तो वह क़तई आपत्तिजनक नहीं हो सकता, भले ही इस वजह से कहानी शब्दों की मितव्ययिता के नज़रिए से बातूनी क्यों न लगे. सच तो यह है कि कई बार यह बातूनीपन भी लेखक की सही नीयत का सूचक होता है. संजीव की ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ कदाचित ऐसी ही कहानी है. ऐसी कहानियों में कई बार व्याख्या इतनी प्रधान हो जाती है कि विस्मय या तो लुप्त हो जाता है या हाशिये पर फेंक दिया जाता है. किसी विचार को कहानी बना देने की महत्वाकांक्षाएँ प्रायः इसी परिणति को प्राप्त होती हैं. ऐसी कहानियों की सफलता के लिए जबरदस्त बौध्दिकता के साथ-साथ विचार को कथा में रूपांतरित करने का एक लम्बा अभ्यास अपरिहार्य है. संजीव की ‘पूत! पूत! पूत! पूत!’ की सफलता का एक राज़ यह भी है.
‘सलाम’ के रचयिता ओमप्रकाश वाल्मीकि सरीखे कुछेक अपवादों को छोड़कर ज्यादातर दलितवादी व स्त्रीवादी कहानीकारों की रचनाओं में किसी आइडिया को कहानी बनाने की ज़िद दिखाई देती है. नतीजतन, कुतूहल और घटनाओं आदि की धकापेल के बावजूद ऐसी कहानियों का कथातत्व दोहराव और कई बार संवेदनशून्यता की मिसाल होता है. स्मरणीय है कि अकहानी आंदोलन के दरम्यान ऐसी बहुत-सी कहानियाँ लिखी गई थीं और आज भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं हैं. राजेंद्र यादव की ‘हासिल’ व ‘मरा हुआ चूहा’, लवलीन की ‘चक्रवात’, दूधनाथ सिंह की ‘नमो अंधकारम्’, आबिद सूरती की ‘कोरा कैनवास’, मनोहरश्याम जोशी की ‘ट-टा प्रोफ़ेसर’ जैसी कहानियों में मानवीय संबंधों के अजीबो-गरीब और कई बार वीभत्स रूप दिखाई देते हैं. हमारे समय में बड़ी संख्या में लिखी जा रही इन कहानियों की रुचि का संचार निर्वासित मध्यवर्गीय जीवन से हो रहा है और ये रचनाकार इस विकृति रुचि का पोषण-भर कर रहे हैं. प्रसंगात् मार्क्स द्वारा की गयी ‘निर्वासन’ की व्याख्या का स्मरण स्वाभाविक है, जिसके अनुसार निर्वासित व्यक्ति को जो पाशव-कर्म है, वही मानवीय प्रतीत होता है, क्योंकि केवल उसी वक्त उसे अपने मनुष्य होने का एहसास हो पाता है. इसलिए ऐसी रचनाओं को पॉपुलर या घासलेटी अश्लील साहित्य के साथ गड्डमड्ड करना ठीक नहीं है.
समकालीन हिंदी कहानीकारों में कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी रचनाओं में विस्मय की व्याख्या करते हुए विश्वास तक पहुँचने के बजाय छद्म आधुनिकता के दबाव के तहत विस्मय से संशय व निराशा-हताशा की कलह-कोलाहलपूर्ण गलियों से होते हुए अंततः अविश्वास तक पहुँचने की प्रवृत्ति दिखाई देती है और कहना न होगा कि ऐसी कहानियों में मानवीय संसक्ति की खोज बेमानी है. चूँकि विस्मय से अविश्वास तक की यह यात्रा आधुनिकता की तमाम तथाकथित शर्तों- अलगाव, संत्रास, मूल्यविघटन आदि-को न सिर्फ पूरी करती है, बल्कि कई बार उसे महिमामंडित भी करती है, इसलिए इसके तहत रचित कहानियाँ हमारी संवेदना को सकारात्मक रूप में समृध्द करने के बजाय हमें डराती हैं.
उदय प्रकाश की एक चर्चित कहानी ‘तिरिछ’ के मद्देनज़र यह बात समझी-समझायी जा सकती है. इस कहानी की विषयवस्तु है ‘अमानुषिक होता जा रहा हमारा समाज’. कहानीकार इस विषयवस्तु को शिल्प-विषयक इतने सारे चमत्कारों के साथ परोसता है कि पाठक केवल स्तंभित रह सकता है. स्मरणीय है कि यही उदय प्रकाश कभी ‘टेपचू’ जैसी कहानी भी लिखते थे, जिसके बारे में खुद उन्होंने स्वाकारा है कि
“टेपचू जब सन् 1980 में प्रकाशित हुई थी, तो करीब तीन सौ पत्र आए थे, जिनमें से एक पत्र राँची से किसी मोटर वर्क्स में काम करने वाले एक नौजवान सिख का भी था, जिसमें लिखा था कि अगर यह कहानी उसने न पढ़ ली होती, तो अगले दिन वह आत्महत्या कर लेता.”
सवाल उठना वाजिब है कि अगर वह सिख नौजवान ‘तिरिछ’ पढ़ लेता, तो क्या आत्महत्या से उसका बचना संभव हो पाता. वस्तुतः उदय प्रकाश के समूचे रचना संसार को यदि एक शब्द में बाँधा जाए, तो वह होगा – ‘डर’. इस ‘डर’ की सच्चाई में कोई संदेह नहीं है, पर मानवीय संसक्ति से दूर-दूर तक उसका कोई रिश्ता नहीं है. उनके एक कहानी-संग्रह में ‘डर’ शीर्षक से संग्रहीत कहानी द्रष्टव्य है : “वह डर गया है. क्योंकि जहाँ उसे जाना है, वहाँ उसके पैरों के निशान पहले से ही बने हुए हैं.”प्रश्न यह है कि यह कहानी ही क्यों है ? कविता क्यों नहीं है ? प्रश्न इसलिए भी कि उदय प्रकाश जैसे सुविख्यात कहानीकार ने इसे अपने संग्रह में कहानी के रूप में छपवाया है. स्पष्ट ही इस ‘डर’ को छुपाने के बजाय स्वीकार करके इससे पार पाया जा सकता था, डर का प्रतिरोध किया जा सकता था, जादुई यथार्थवाद के कमंद के सहारे ‘टेपचू’ बनकर इसे जीता या जीया जा सकता था. कितु, दुर्भाग्यवश ‘टेपचू’ अब ‘और अंत में प्रार्थना’ का वाकणकर या ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ का नायक बन गया है. ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ के नायक को लगता है कि “बड़ी-बड़ी संस्थाओं, उद्योग समूहों, सरकारी विभागों ने सब कुछ अधिग्रहित कर लिया है और अब उनके जैसे कवि के सामने फ्लिट पीने या गले में फंदा लगाने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है.”
इस कहानी के अंत में कथानायक की विक्षिप्तता की रस ले-लेकर चर्चा की गयी है. रचना के धरातल पर मनुष्य होने के अर्थबोध के निर्वाचन को यदि किसी कृति की श्रेष्ठता की कसौटी माना जाए, तो ‘टेपचू’ आज भी उदय प्रकाश की सर्वश्रेष्ठ और हिंदी की समकालीन श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, जो न केवल अपनी जिजीविषा से पाठक को विस्मित करती है, बल्कि जीवन के प्रति विश्वास भी जगाती है.
मनोज कुमार पाण्डेय की ‘पानी’ कहानी ‘बकुलाही नदी’ की भयावह बाढ़ में फँसे लोगों के भीतर पसरे ‘सूखे’ को एक ही साथ संवेदनशील चौकन्नेपन और ‘कठकरेज’ होकर चित्रित करती है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यहाँ परिस्थिति निर्मल वर्मा के ‘सूखा’ से भिन्न ही नहीं, बल्कि विपरीत है. कहानीकार ने यहाँ भारत के पिछड़े जनपदों के निवासियों की व्यथा-कथा को तल्लीनता के साथ इस तरह उकेरा है कि कलेजा मुंह को आ जाता है.
अखिलेश की की ‘जलडमरुमध्य’ और ‘हाकिम कथा’ कहानियाँ भी समकालीन हिन्दी कहानी की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं. पहली कहानी का फलक को यदि महाकाव्यात्मक और दूसरी रचना को अतियथार्थवादी कहा जाय,तो यह अत्युक्ति न होगी. ‘जलडमरुमध्य’ में चिरैयाकोट की तरह भारत के छोटे कस्बे भी अंधाधुंध बाजारीकरण की चपेट में दिखाए गए है. इसका स्वाभाविक दुष्परिणाम है- लाउडस्पीकर का अबाध इस्तेमाल, बेवजह दुकानों की भरमार और लोकजीवन में सहजता और शान्ति के बजाय अनजाने एक तरह के उन्माद का प्रवेश. इससे कथानायक सहाय साहब की के मन में असमंजस की स्थिति पैदा होती है और वे उस कस्बे को छोड़कर गाँव जा बसने की ठान लेते हैं :
“सहाय जी के अजीज दोस्त मकबूल साहब का अनुमान सभी से जुदा था. उनका कहना था- सहाय घबराहट की वजह से शहर से रुखसत हो रहे हैं. हाँ…हाँ … शहर में ताबड़तोड़ बन रही दुकानों से उनको घबराहट होने लगी थी. उन्होंने मुझसे कई बार कही है यह बात कि इतनी दुकानों के बनने से चिरैयाकोट बरबाद हो जाएगा. सब जगह दुकानें ही दुकानें हो जाएँगी तो बच्चे कहाँ खेलेंगे और हम बूढ़े लोग सुबह की सैर कहाँ करेंगे. …दुकानें घरों में घुस गई थीं. कई तो अपने घरों को तोड़कर दुकानें बनवा रहे थे.” (‘जलडमरुमध्य’)
जाहिर है कि इसके मूल में ग्रामीण क्षेत्र में उभरते बाजारीकरण का असर है. जिस इलाके में लोगों ने कभी साम्प्रदायिक हिंसा की कल्पना तक न की थी, वहाँ डॉ सम्प्रदायों में वैमनस्य, दंगे और कर्फ्यू जैसी स्थिति का पैदा हो जाना कहानीकार ने बहुत ही बारीकी के साथ चित्रित किया है.
इतना ही नहीं, इस कहानी में महानगरों में बस गई चिन्मय और मनजीत जैसे नयी पीढ़ी के लोग अपने माता-पिता से विचित्र अपेक्षा और उसके पूरा न होते देखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार आदि का भी प्रभावशाली चित्रण है. इसमें रचनाकार सहाय साहब के माध्यम से उस मानवीय तेवर को स्पर्श करने में कामयाब हुआ है जहाँ मनुष्य अपने परिवेश में विपरीत स्थितियों से मुकाबला करते हुए बार-बार खड़ा होता है और अंतत: टूटता हुआ दिखाई पड़ता है.
‘हाकिम कथा’ कहानी से गुजरते हुए याद आते हैं वाल्टर बेंजामिन, जिन्होंने लिखा है कि ‘संस्कृति का सबसे रोचक खेल आधुनिक महानगरों में खेला जा रहा है. कोई चेहरा इतना अतियथार्थवादी नहीं है, जितना कि एक शहर का चेहरा, यहाँ इच्छाओं और लालसाओं की एक भयावह मरीचिका रची गई है.’
अखिलेश ने इस कहानी की पहली पंक्ति में ही इसका संकेत करते हुए लिखा है कि “पुनीत ने इस धन के कारण गायत्री से प्यार नहीं किया था. धन नहीं होता तब भी वह गायत्री से प्यार करते. इतना ज़रूर है कि धन ने उनके प्रेम को टिकाऊ बनाया था, उनमें गायत्री से विवाह करने का लालसा पैदा की थी.“ यह कहानी भारतीय उच्च मध्य वर्ग के जीवन में धन लिप्सा,अवसरवाद आदि के कारण गिरते जीवन-मूल्य एवं पारिवारिक संबंधों में उष्मा के अभाव को पूरी कलात्मकता के साथ रेखांकित करती है.
समकालीन हिंदी कहानी में मानवीय संसक्ति को रेखांकित करते वक़्त याद रखना ज़रूरी है कि कई बार महान रचना का सामाजिक परिप्रेक्ष्य अन्यन्त प्रच्छन्न होता है. नतीजतन, कुछ रचनाएँ पूरी तरह समझ में आने के पूर्व महसूस होती हैं. स्पष्ट ही यह गहरे तादात्म्य की स्थिति हुआ करती है, जिसके तहत कहानी की अंतर्वस्तु संपूर्णता के साथ पाठकीय संवेदना का हिस्सा बनकर उसे अपना भागीदार बना लेती है और कालांतर में रचनानुभव के साथ यही भागीदारी पाठक की चेतना व चिंतन में सकारात्मक परिवर्तन का कारण बनती है.
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रवि रंजन
प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष
हिन्दी विभाग,मानविकी संकाय
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय,हैदराबाद-500046.
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