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Home » क़ुफ्र-ओ-ईमां के शायर पंडित हरिचंद अख़्तर : पंकज पराशर

क़ुफ्र-ओ-ईमां के शायर पंडित हरिचंद अख़्तर : पंकज पराशर

‘ख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया.’ भारतीय मनीषा के लिये ईश्वर किसी खौफ़ का पर्याय कभी नहीं रहा. उसके होने को संशय से देखा जाता रहा है. और बड़ी बात यह है कि बड़ी ही सहजता से. ईश्वर से मुक्त अनेक दर्शन, धर्म सम्प्रदाय भारत […]

by arun dev
November 14, 2019
in आलेख
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‘ख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या
मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया.’
भारतीय मनीषा के लिये ईश्वर किसी खौफ़ का पर्याय कभी नहीं रहा. उसके होने को संशय से देखा जाता रहा है. और बड़ी बात यह है कि बड़ी ही सहजता से. ईश्वर से मुक्त अनेक दर्शन, धर्म सम्प्रदाय भारत में फले फूले. जनमानस भी कभी आक्रांत नहीं रहा, अभी भी वह कभी भी उपर वाले को खरी खोटी सुना देता है.
साहित्य में यह ख़ुलापन रहा है. हिंदी उर्दू के विवाद का जब साम्प्रदायिक रंग सामने आया तब कुछ संरक्षणवादी प्रवृत्तियां भी उभरीं. इसके वैसे तो कई शिकार हुए और अब तो सरकारों से ऐसी पुस्तकों पर प्रतिबंध की ‘बे- क़ायदा’ मांग की जाती है. गुलाम भारत के लाहौर में रहने वाले पत्रकार शायर पंडित हरिचंद अख़्तर (1901-1958) भी इसी के शिकार हुए. उन्हें उपेक्षा से मारने की कोशिश हुई.

युवा आलोचक पंकज पराशर ने प्रांजलता के साथ इस परम्परा को परखते हुए दिलचस्प ढंग से हरिचंद अख़्तर की शायरी पर यह आलेख आपके लिये लिखा है.  


क़ुफ्र-ओ-ईमां के शायर पंडित हरिचंद अख़्तर         
(संदर्भः पंडित हरिचंद अख़्तर की शायरी और उर्दू-हिंदी कविता के दायरे में ईश्वर)
पंकज पराशर


उर्दू शायरी और आलोचना के हवाले से बात करें, तो ‘क़ुफ्र-ओ-ईमां’ के शायर पंडित हरिचंद अख़्तर तकरीबन भुला दिये एक ऐसे शायर का नाम है, जो हिंदुस्तान के उर्दू विभाग के अध्यापकों और आलोचना का ‘कारोबार’ करने वाले उर्दू अदब के मठों और गढ़ों पर काबिज नक़्काद के ज़ेहन से बाहर हो चुके हैं! बावजूद इसके कि पंडित हरिचंद अख़्तर एक अज़ीम शायर, एक सहाफ़ी और एक नक़्काद की हैसियत से तकरीबन तीन-चार दशक तक उर्दू साहित्य के परिदृश्य में मौज़ूद रहे. हालाँकि उम्र-ए-दराज़ से वे वाकई फ़कत चार ही दिन माँगकर लाए थे, जिनमें से दो कट गए शायरी में और दो कट गए सहाफ़त में. महज़ सत्तावन बरस की उम्र में वे इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए!
अपनी शायरी में उन्होंने विषय और शैली के लिहाज से कई रंगों का प्रयोग किया है. जिनमें सबसे गाढ़ा रंग जिस प्रवृत्ति का दिखाई देता है, वह रंग है,

‘मिलेगी शैख़ को जन्नत, हमें दोज़ख़ अता होगा

बस इतनी बात है जिस के लिए महशर बपा होगा.’ 

पंडित हरिचंद अख़्तर अपनी इस ग़ज़ल के बहाने ख़ुदा, जन्नत और दोजख़ की पूरी अवधारणा को लेकर जिस तरह सवाल खड़े करते हैं, उसकी एक लंबी परंपरा भारतीय साहित्य और दर्शन दोनों में परंपरा रही है. चर्चित काव्य-कृति ‘साकेत’ में मैथिलीशरण गुप्त सवाल उठाते हैं, ‘राम तुम ईश्वर नहीं हो क्या?’ वहीं निराला के राम निरे मनुष्य हैं- निराला के औपनिवेशिक समय के मनुष्य की तरह संशय से भरे हुए!
पौराणिक राम को क्या सचमुच ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करनी पड़ी होगी? क्या दशरथ-सुत राम निराला की मौलिकता के बिना सिर्फ़ तुलसी के समन्वयवाद के सहारे ‘पुरुषोत्तम नवीन’ हो सकते थे? तो फिर मुक्तिबोध को क्यों यह कहना पड़ा,

‘बिना संहार के सर्जन असंभव है

समन्वय झूठ है.’ 

क्या बिना निराला की मौलिकता के महज़ वेदांती संस्कारों के सहारे शक्ति-पूजा का ‘दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में हनुमान ‘थूथन लिए खड़ा सिर्फ़ एक पत्थर’ हो सकता था?महावीर के मुँह पर पड़ता डंडा बिल्लेसुर का है या निराला का?
सन् 1909 में छपी किताब \’शिकवा\’ में इक़बाल ने अल्लाह से मुसलमानों की स्थिति के बारे में शिकायत की थी और इसकी वज़ह को लेकर उन्होंने ख़ुदा से कई सवाल उन्होंने पूछे थे. फिर सन् 1912 में ख़ुद ही उन्होंने \’जवाब-ए-शिकवा\’लिखा, जिसमें उन्होंने अपने ही द्वारा उठाए गए इन सवालों के जवाब देने की कोशिश की थी. जैसा कि हमने शुरू में इस बात की चर्चा की थी कि हमारे यहाँ ईश्वर के अस्तित्व ही नहीं, ईश्वरीय शक्ति, ईश्वरीय चमत्कार और उसकी महिमा के परीक्षण से संबंधित बहसों की एक लंबी परंपरा रही है. इसलिए चाहे इक़बाल, अब्दुल हमीद अदम या पंडित हरिचंद अख़्तर हों, भारतीय दर्शन और साहित्य में मौज़ूद ख़ुदा से मुखामुखम की परंपरा से ऊर्जा ग्रहण करते हैं.
जब कोई रचनाकार रचना-कर्म में रत होता है, तो रचना में भाव और विचार के नैरंतर्य का प्रकटीकरण दरअसल अपने पूर्व पुरुष की रचनाओं की स्मृतियों की पुनर्रचना होती है. परंपरा से ग्रहण और त्याग का विवेक आलोचक के स्वकर्म से संबद्ध होता है. आलोचना ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जब इतिहासबोध क्षरित होता है और स्मृतिहीनता बढ़ जाती है. ऊपरी तौर पर सब कुछ शांत-शांत और भला-भला दिखाई देता है, लेकिन इस शांति से न आलोचना का भला होता है, न लोकतंत्र का. बौद्धिक और अकादमिक हलकों में आज जिस तरह की शांति और सहमति नज़र आती है, उससे यह भय होता है कि हम किस तरह के समाज की रचना कर रहे हैं?
मैं भारतीय परंपरा से दो बहु-प्रचलित और सरल सूत्रों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिसे आज नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. वे दो सरल सूत्र हैं, ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ और ‘वादे-वादे जायते तत्वबोधः’. यानी किसी भी चीज़ को लेकर अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, अलग-अलग राय, अलग-अलग वाद से छनकर आए विचारों के माध्यम से ही हमें वास्तविक तथ्यों का बोध हो सकता है. लेकिन हम आज इन सूत्रों को याद नहीं रखते, जबकि बौद्धिक चर्चाओं में पश्चिम के साहित्यिक विमर्शों की हम बहुत चर्चा किया करते हैं.
पंडित हरिचंद अख़्तर के लेखन की भाषा भले उर्दू रही हो, लेकिन उनकी शायरी बहुत गहराई से भारतीय चिंतन और शास्त्रार्थ की परंपरा से जुड़ी हुई है. इसलिए स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्य को लेकर जब वे कहते हैं,

‘भरोसा किस क़दर है तुझ को \’अख़्तर\’ उस की रहमत पर

अगर वो शैख़-साहिब का ख़ुदा निकला तो क्या होगा.’ 

इस तरह के सवालों और आशंकाओं से भरी उनकी शायरी में दरअसल ‘रैशनलिज़्म’ और तर्कशक्ति प्रमुखता से शामिल है. मीर तक़ी मीर, अल्लामा इकबाल, हफ़ीज जालंधरी से लेकर फैज़ अहमद फैज़ तक कई शायरों ने अपने अपने नजरिये से ईश्वर को परिभाषित करने की, उससे संवाद ही नहीं, सवाल करने की कोशिशें की हैं. हम कबीर के इन सवालों को कैसे नज़रअंदाज कर सकते हैं, जब वे कहते हैं ‘तू बाभन बभनी का जाया आन बाट काहे नहीं आया’, तो वहीं यह सवाल पूछने से भी नहीं चूकते कि ‘मुल्ला होकर बाँग जो देवे ख़ुदा क्या तेरा बहरा है.’ इसलिए इस परंपरा के वारिस हफ़ीज जालंधरी को यह कहने में कोई झिझक नहीं होती,

‘जिसने इस दौर के इंसान किये हैं पैदा

वही मेरा भी खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं!’  

सुप्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे कहते हैं, ‘मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता. वह हर वक्त अपनी तारीफ़ सुनना चाहता है. ईश्वर यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है.’ भारतीय दर्शन में नास्तिकता का दर्शन चार्वाक के ‘लोकायत’ दर्शन के नाम से प्रचलित रहा है. ‘लोकायत’ के अनुयायी ईश्वर की सत्ता पर विश्वास नहीं करते थे. उनका मानना था की क्रमबद्ध व्यवस्था ही विश्व के होने का एकमात्र कारण है. इसमें किसी अन्य बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नहीं है. आज की सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच बहस में हमें यह याद करना चाहिए कि भारतीय दर्शन की परंपरा में लोकायत दर्शन को बलपूर्वक नष्ट किया गया. लेकिन जब पंडित हरिचंद अख़्तर कहते हैं,

‘शैख़ ओ पंडित धर्म और इस्लाम की बातें करें

कुछ ख़ुदा के क़हर कुछ इनआम की बातें करें.’

तो यह शेर सुनकर ऐसा लगता है जैसे लोकायत दर्शन की परंपरा में ईश्वर को लेकर जिन सवालों और जिन जिज्ञासाओं के साथ पंडितों ने तर्क-वितर्क करने की लंबी परंपरा कायम की थी, पंडित अख़्तर उसी परंपरा की अभिव्यक्ति को अपनी तर्कशील कविता से संभव करने की कोशिश करते रहे. क्योंकि आस्तिकता और नास्तिकता का यह संघर्ष आदिकालीन है, जो हमेशा चलता रहा है और चलता रहेगा. समय बदलने के साथ इसके अर्थ में नए तर्क, नए विचार और नए शास्त्र शामिल होते रहे हैं.
ख़ुदा की बनाई दुनिया के हालात को लेकर पंडित अख़्तर कहते हैं,

‘सुकूने-मुस्तकिल, दिल बे-तमन्ना, शेख की सुहबत

यह जन्नत है तो इस जन्नत से दोज़ख़ क्या बुरा होगा.

हिंदी और उर्दू के कवियों की ऐसी कविताएँ पढ़कर जिन मासूम लोगों को हैरत होती है, वे शायद इस तथ्य को भूल रहे हैं कि परंपरागत ज्ञान की पद्धति भारत में इसलिए पनपी और फली-फूली, क्योंकि यहाँ वाद-विवाद और संवाद की गहरी परंपरा मौजूद थी. लेकिन पिछली दो सदियों में हमारी इस ज्ञान-संपदा की घोर उपेक्षा हुई है. पिछले दो सौ वर्षों में हमारे यहाँ धर्म और अध्यात्म पर तो खूब बातें हुई हैं, जबकि ‘आन्विषिकी’ यानी (Logic and investigation) को लेकर कम चर्चा हुई है. जबकि ईसा पूर्व की हमारी परंपरा में यह एक बड़े ज्ञानानुशासन के रूप में प्रतिष्ठित रहा है. शास्त्रार्थ की जैसी गहरी परंपरा हमारे यहाँ मौजूद रही है, वैसी दुनिया में शायद ही किसी और भाग में रही हो. प्रश्न करने की संस्कृति का ही प्रतिफलन भवभूति की रचनाओं में दिखाई देता है, भक्तिकाल के संत कवियों के पदों में दिखाई देता है. कोई भी वाद-विवाद और संवाद एकल दृष्टिकोण में संभव नहीं है, क्योंकि वाद एकवचन में नहीं, बहुवचन में जीवित रहता है.
भारतीय ज्ञान-परंपरा में बहुवचन की परंपरा बहुत पुराने समय से विद्यमान है और अनेक वादों के फलने-फूलने के लिए अन्य वादों की उपस्थिति को अधिकतर प्रोत्साहित किये जाने की सूचना मिलती है. जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर के समय 363 थियरीज के अस्तित्व में होने की सूचना मिलती है. जिसको लेकर आश्रमों, विहारों और संघों में रहने वाले महात्माओं, भिक्षुओं और बौद्धिकों के बीच बहसें चला करती रही थीं. परंपरा और संस्कृति संपोषकों के जिस समय में आज हम रह रहे हैं, उसमें तो बहुवचन तो छोड़िए, एकवचन के भीतर भी हत-आहत होने का ऐसा अनंत क्रम चलता रहता है कि स्वयं को यह यकीन दिलाना मुश्किल हो जाता है कि इसी समाज में चार्वाक हुए थे!  

पंडित हरिचंद अख़्तर की शायरी से हमारे समाज के जिन नाज़ुकदिल लोगों को थोड़ी परेशानी हो सकती है, उन्हें स्मरण कराने के लिए भारतीय परंपरा की कुछ और चीज़ों को यहाँ याद करना ग़ैर मुनासिब न होगा. ईसा से छह सौ वर्ष पहले पूर्व वैदिक काल में वाद-विवाद के लिए भारतीय समाज में ‘ब्रह्मोदय’शब्द प्रचलित था. यह एक तकनीकी शब्द था, जिसका अर्थ था पंडितों और बौद्धिकों की ऐसी सभा, जिसमें दर्शन और ज्ञान-मीमांसा के बारे में लोग अपना-अपना मत व्यक्त करते थे. फिर उन मतों पर लोग आपस में वाद-विवाद संवाद किया करते थे. याज्ञवल्क्य ने ‘ब्रह्मोदय’के लिए एक नया तकनीकी शब्द ‘वाकोवाक्य’का प्रयोग किया है, ‘वाकोवाक्यं पुराणं च नाराशंसीश्च गाथिकाः.’ कठोपनिषद् में इसके लिए ‘ब्रह्म-संसद’ शब्द का प्रयोग किया गया है. आज ‘संवाद’ शब्द का प्रयोग जिस तरह आम हो गया है, उस ‘संवाद’ शब्द का पहला प्रयोग ‘महाभारत’ में मिलता है. यह संवाद आगे चलकर इतिहास में रूपांतरित हो जाता है. ऐसे अनेक संवाद महाभारत में मौजूद हैं.

गौतम के ‘न्याय’ में संवाद का समतुल्य शब्द मिलता है- ‘कथा’, जिसका प्रयोग गौतम संवाद के संदर्भ में ही करते हैं. इस परंपरा के बरक्स यदि हम आज के भारतीय साहित्य में मौज़ूद वाद-विवाद और संवाद के मौज़ूदा परिदृश्य को देखें, तो आजकल कटु आलोचनाएँ बहुत कम सुनाई देती हैं. आज हम इस चीज़ को शायद भूल रहे हैं कि भारतीय काव्यशास्त्र की हमारी ही परंपरा में पंडितराज जगन्नाथ हुए, जिन्होंने आचार्य मम्मट की बहुत तीखी आलोचना की. बकौल आचार्य नामवर सिंह,

‘आज हम लोग इतने सभ्य हो गए हैं, इतने शिष्ट हो गए हैं कि कुछ लोगों को हम केवल उपेक्षा से ही मार देना चाहते हैं.’
अफ़सोस की बात यह है कि हिंदी-उर्दू दोनों में आलोचना की इस प्रवृत्ति के शिकार अनेक रचनाकार हुए. नज़ीर अकबराबादीकी फाइल उनकी मौत के सवा सौ बरस बाद जाकर खुली. हिंदी कवि मुक्तिबोध की कविताओं की एक भी किताब उनके जीते-जी नहीं छप सकी. उनकी रचनाओं और उनकी लिखी आलोचना पर बातचीत उनकी मृत्यु के बाद ही शुरू हुई. क्या विडंबना है कि उपेक्षा की इस प्रवृत्ति के शिकार होने से पंडित हरिचंद अख़्तर भी बच नहीं पाए,

‘मुझ को देखा फूट के रोया
अब समझा समझाने वाला.’ 
हमेशा इस बात के लिए हम अभिशप्त होकर न रहें कि मरने के बाद ही किसी पर बात करें. आलोचना के लिए कोई तरसता न रहे, इसके लिए जरूरी है कि आलोचना की दुनिया में जागरूकता और जिंदगी नज़र आए. 
उर्दू शायरी की परंपरा में ऐसे अनेक शायर हुए हैं, जिन्होंने अपने सामाजिक परिवेश में मौज़ूद तमाम धार्मिक आग्रहों के बाद भी वह कहने से बाज नहीं आए, जो वाकई वे सोचते थे. अब्दुल हमीद अदम ने कहा,

‘दिल खुश हुआ है मस्जिद-ए-वीरां को देखकर\’

मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है!’

आज जिस तरह छोटी-छोटी बातों से मनुष्य के प्रति अनास्था और ईश्वर के प्रति प्रचंड आस्था दिखाने वाले लोग आहत होते हैं, तोड़-फोड़ और हत्याएँ करके अपने नाज़ुक ईश्वर और धर्म की रक्षा करते हैं, उन लोगों के सामने अब्दुल हमीद अदम यदि ये शेर कहते, तो क्या वे सुरक्षित बच पाते? ग़नीमत है कि उन्हें गुज़रे हुए तकरीबन चार दहाई बीत चुके हैं, वरना मज़हब के रखवाले उनका वाकई ख़ाना ख़राब करके ही मानते. अदम ने ऐसे लोगों की शिनाख़्त करते हुए कहा था,

\’‘जिन से इंसाँ को पहुँचती है हमेशा तकलीफ़

उन का दावा है कि वो अस्ल ख़ुदा वाले हैं.’

ग़ालिब, मीर, अल्लामा इकबाल, हफीज जलंधरी से लेकर फैज़ अहमद फैज़ तक कई शायरों ने अपने-अपने नजरिये से ईश्वर को परिभाषित करने और ईश्वर से संवाद और सवाल दोनों करने की कोशिश की है. मीर तक़ी मीर कहते हैं,

‘अब तो चलते हैं बुतकदे से ऐ ‘मीर’

फिर मिलेंगे गर खुदा लाया!’

अल्लामा इकबाल का ये खुलेआम कहना आज के लोगों की भावनाएँ भड़काने के लिए काफी था,

‘मस्जिद तो बना ली पल भर में, ईमां की हरारत वालों ने

दिल अपना पुराना पापी था, बरसों में नमाज़ी बन ना सका!’

उर्दू अदब में ऐसे अनेक शेर मिलते हैं, जिनके ऊपर क़ुफ्रिया शायरी का लेबल चस्पां किया गया है. उनकी शायरी से अल्लाह कितना ख़फा होता होगा, यह तो शायद किसी को नहीं मालूम, हाँ उनके नेक बंदों की भावनाएँ जरूर उबाल खाने लगती हैं.
ईश्वर को अपनी कविता के सवालों के दायरे में लाते हुए पंडित अख़्तर ने कहा है,

‘अगर तेरी ख़ुशी है तेरे बंदों की मसर्रत में

तो ऐ मेरे ख़ुदा, तेरी ख़ुशी से कुछ नहीं होता.’

लालच तथा डर से घिरा हुआ इंसान न चाहते हुए भी ईश्‍वर की शरण में नतमस्‍तक हो जाता है, लेकिन दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो ईश्‍वरवादियों के रचाए इस मायाजाल को समझते हैं. ऐसे लोग वैचारिक मंथन के बाद इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ईश्‍वर आदमी के मन की उपज है और कुछ नहीं. जिसे मनुष्‍य ने अपने स्‍वार्थ के लिए, अपनी सत्‍ता चलाने के लिए सृजित किया है. उर्दू के शायर ख़ादिम अरशद फरमाते हैं,

‘ये जनाब शेख का फलसफा है अजीब तरह का फलसफा

जो वहाँ पियो तो हलाल है, जो यहाँ पियो तो हराम है!’

ऐसे में फिर पंडित अख़्तर भी कहाँ चूकने वाले हैं. वे कहते हैं,

‘शबाब आया, किसी बुत पर फ़िदा होने का वक्त आया

मेरी दुनिया में बंदे के ख़ुदा होने का वक्त आया!’

‘क़ुफ्र-ओ-ईमां’ लिखने वाले पंडित हरिचंद अख़्तर अपनी शायरी में क़ुफ्र और ईमां की अवधारणा को लेकर तो सवाल उठाते ही हैं, इसके बहाने वे भारतीय कविता और दर्शन में विद्यमान प्रश्न और संवाद की परंपरा में भी शामिल होते हैं!

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल अपनी एक कविता में कहते हैं,
‘प्रार्थना गृह जरूर उठाये गये एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
उंगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
अपना कारखना बंद करके
किस घोसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन-सा है आखिर, वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!\’
‘करुणानिधान’ शब्द से ईश्वर की परंपरागत महिमा के बखान के साथ ही वीरेन हे, अरे से सीधे अबे ओ करुणानिधान पर उतर आते हैं! क्योंकि स्थिति यह हो गई कि है कि मनुष्य को नष्ट करने के तमाम षड्यंत्र में ईश्वर का इस्तेमाल होता है. यहाँ तक कि बुद्ध जैसे शांति के उपासक का भी. तभी तो पोखरण में परमाणु विस्फोट होता है और कूट शब्द प्रचलित होता है, ‘बुद्ध मुस्कुराए!’ यह अनायास नहीं है, बकौल हरिचंद अख़्तर,

‘सितम-कोशी में दिल-सोज़ी भी शामिल होती जाती है

मोहब्बत और मुश्किल और मुश्किल होती जाती है.’

इस संदर्भ में जब हम हिंदी के अपने ढंग के अनूठे कवि ऋतुराज के \’लीलामुखारविंद\’ नामक कविता-संग्रह से गुजरते हैं, तो उनके यहाँ हमें अनेक रूपों में ईश्वर की उपस्थिति ठोस रूप से दिखाई देती है. जहाँ ईश्वर किसी नवधा भक्ति का बायस नहीं, ऐसा रूप है, जो कहीं नहीं होते हुए भी अपनी कथित महिमा से दुनिया की चर्चाओं में हर जगह उपस्थित है. वह हर उस कारनामे में शामिल है, जिसकी असह्य आँच से दुनिया भर में मनुष्यता झुलस रही है.
पंडित हरिचंद अख़्तर अपनी एक ग़ज़ल में फरमाते हैं, 

जहाँ तुझ को बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं शिवाले और होते हैं
दहान-ए-ज़ख़्म से कहते हैं जिन को मर्हबा बिस्मिल
वो ख़ंजर और होते हैं वो भाले और होते हैं

बीसवीं सदी के अंतिम दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दशक पर ग़ौर करें, तो आप पाएँगे कि भारत सहित दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में धर्म को लेकर हुए झड़पों में जितने निर्दोष लोग मारे गए, उतने अब तक इस धरती पर हुए किसी भी प्राकृतिक आपदा अथवा अन्य मानवीय त्रासदियों में नहीं मारे गए! इसलिए हिंदी के कवि ऋतुराज ‘लीलामुखारविंद’ की कविताओं में सत्ताओं के अनेक रूपों, अनेक चेहरों को अनावृत्त करते हैं. \’ईश्वरचरितम्\’ नामक कविता ऐलानिया तौर पर इस बात की तस्दीक करती है कि दुनिया में कहीं भी अस्तित्व में न होने के बाद भी ईश्वर, मनुष्य की परेशानियों का कारण बना हुआ है. वह तमाम तरह के सत्ता के शास्ताओं के लिए सत्ता को पाने, सत्ता तक पहुँचने के लिए बनाये जाने वाले रास्तों के लिए एक बेहतरीन उपकरण में तब्दील हो चुका है. इसलिए देवालयों में सुबह-सुबह बजने वाले भजनों से लेकर देर तक चलने वाले रात्रि जागरणों में हर समय उसकी उपस्थिति हमारे चहुँओर बनी रहती है,

‘हत्यारा हत्या करता है ईश्वर के नाम पर

हत्यारे के पक्ष में ईश्वर गवाही देता है

क्योंकि हर अपराध में उसका हाथ होता है.’

पंडित हरिचंद अख़्तर की उर्दू शायरी में मौज़ूद धर्म और ईश्वर संबंधी बहस हो या हिंदी के कवियों की कविताओं में विभिन्न रूपों में उपस्थित ईश्वर, इन रचनाओं में ईश्वर की संपूर्ण सत्ता और उसके आगे तुलसीदास का ‘मो सो कौन कुटिल खल कामी’–जैसा तर्करहित संपूर्ण समर्पण नहीं है. न इन कवियों की कविता में ईश्वर अपनी कथित महिमा, अलौकिकता और असीम शक्ति के कारण कविता का केंद्रीय विषय बनता है. इस संदर्भ में कुछ साल पहले दिवंगत हुए शायर निदा फाज़ली की कही हुए एक बात याद आती है. उन्होंने एक जगह लिखा है कि

‘सियासत ने अदम से पंडित हरिचंद अख़्तर की जाम टकराती सोहबत छीनी थी और अख़्तर से अदम के साथ ‘जिसने लाहौर नहीं वेख्या’ जैसे खूबसूरत शहर की मुहब्बत छीनी थी. अदम की तरह वह भी इस निजी लूटमार के लिए कुदरत की लानत-मलामत करने लगे. अब्दुल हमीद अदम तो ख़ैर पाकिस्तानी थे, इसलिए वह सिर्फ़ ख़ुदा से नाराज़ हो सकते थे, लेकिन पंडित जी पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आए थे, इसलिए वह ख़ुदा और परमात्मा दोनों से ता-उम्र नाराज़ ही रहे.’
वह सोचते थे कि उनका जो नुक़सान हुआ है, उसमें ख़ुदा के साथ, भगवान भी बराबर का शरीक़ है,

‘ख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या
मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया.’
अग़र ख़ुदा और परमात्मा पंडित हरिचंद अख़्तर के लिए कुछ करते, तो उन्हें अपनी ज़मीन, अपना लाहौर छोड़कर दर-ब-दर भटकना नहीं पड़ता. उन्हें पाकिस्तान के पंजाब से उखड़कर, हिंदुस्तान के दिल्ली में आकर न बसना पड़ता. हालाँकि आबादी के इधर से उधर और उधर से इधर होने का इतिहास भी उतना ही पुराना है. आदमी के द्वारा आदमी के शोषण की रोकथाम के लिए हर युग में, विभिन्न धर्मों में नए-नए आदर्श बनाए गए, स्वर्ग और नर्क के नक्शे दिखाए गए, मगर आदमी में छिपे जानवर फिर भी बाज़ नहीं आए. पंडित हरिचंद अख़्तर मरने से पहले ही इंसान की ज़िंदगी को दोज़ख़ बनाने वाली ताक़तों और उनकी साज़िशों को जहाँ अपनी सहाफ़त के मार्फ़त सीधे-सीधे व्यक्त करते रहे, वहीं अपनी शायरी में भी इस भाव की बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति को संभव करते रहे,

‘हिज्र की शब उधर अल्लाह इधर वो बुत है
देखना ये है कि अब कौन बुलाता है मुझे
एक बुत एक ही बुत का हूँ पुजारी \’अख़्तर\’
अपने इस शिर्क पे तौहीद का दा\’वा है मुझे.’ 
उर्दू शायरी की वह परंपरा जिसमें मीर-ओ-ग़ालिब ही नहीं, अदम और हरिचंद अख़्तर जैसे शायरों की शायरी ने ‘क़ुफ्र-ओ-ईमां’ की अवधारणा को इंसानी दिमाग का स्थायी भाव बना देने वाली ताक़तों से मुखामुखम ही नहीं किया, बल्कि सवाल-जवाब और शास्त्रार्थ करने वाली शायरी पुरानी परंपरा को फिर से ज़िंदा किया. अख़ीर में अपनी बात इस अहद के बड़े शायर फ़िराक़ गोरखपुरी साहब के शेर से ख़त्म करना चाहूँगा. फ़िराक़ साहब की ये दुआ ही नहीं, असल यूटोपिया है,

‘मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे
तहजीब करीने की, इंसान सलीके के!’
***
____________

पंकज पराशर
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उत्तर प्रदेश)
फोन-8218785993
Tags: पंडित हरिचंद अख़्तर
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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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